हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/Memories – #1 – बचपन वाले विज्ञान का BOX ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज से प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश स्मृतियाँ/Memories।  आज प्रस्तुत है इस लेखमाला की पहली कड़ी  जिसे पढ़कर आप निश्चित ही बचपन की स्मृतियों में खो जाएंगे। ) 

 

☆ स्मृतियाँ/Memories – #1 – बचपन वाले विज्ञान का BOX ☆

 

बचपन वाला विज्ञान का Box

कक्षा 10 में मेरे पास एक box हुआ करता था।जिसमे मैं विज्ञानं से सम्बंधित वस्तुएँ रखा करता था।

स्कूल में पढ़ता और प्रयोग करने के लिए विज्ञान की उन वस्तुओ को एक box मे रख लेता।

एक दिशा सूचक यंत्र (compass) था जिसकी सुईया नाचती तो थी पर रूकती हमेशा उत्तर-दक्षिण दिशा में ही थी ।

एक उत्तल लेंस था जो वस्तुओ का प्रतिबिम्ब एक खास दूरी पर ही बनता था।

कभी कभी जाड़ो की गुठली मारती धूप में उसे कागज के ऊपर फोकस (focus) करके सूरज की ऊर्जा से उस कागज़ को जलाया करता था।

उस box में मैंने दो लिटमस पेपरो की छोटी छोटी गड्डिया भी रख रखीं थी एक नीले लिटमस की और दूसरी लाल लिटमस की, जो अम्ल और क्षार से क्रिया करके रंग बदलते थे।

चुपके से एक फौजी वाली ताश की गड्डी भी मैंने उस box में छिपा रखीं थी और राजा, रानी, इक्का सब मेरे कब्ज़े में थे।

और कई सारी चीजों के साथ एक वो पेन्सिल भी थी जिसमे एक पारदर्शी खांचे में छोटे छोटे कई सारे तीले होते है और अगर एक तीला घिस का ठूठ हो जाये तो उसे निकल कर सबसे पीछे लगा दो और नया नुकीला तीला आगे आ जाता था।

बरसो बाद पता नहीं आज क्यों उस box की याद आ गयी।

अब मैं घर से दूर हूँ इस बार जब घर जाऊँगा तो ढूंढूंगा उस box को स्टोर मे कही खोल कर देखूँगा फिर से वही बचपन वाला विज्ञानं।

जीवन जो अब दिशाहीन सा हो गया है कोशिश करूँगा उसे उस compass से एक दिशा में ही रोकने की।

इस बार जाकर देखूँगा की क्या वो उत्तल लेंस मेरे बचपन की यादो के प्रतिबिम्ब अभी भी बना पायेगा?

जुबाँ में अम्ल घुल चुका है सोचता हूँ  उस box से निकाल कर नीले लिटमस पेपर की पूरी गड्डी ही मुँह में रख लूँगा मुझे यक़ीन है मेरा मुँह भी हनुमान जी की तरह लाल हो जायेगा।

इस दफा वर्षो के बाद जब वो box खोलूँगा तो राजा, रानी, गुलाम सब को आज़ाद कर दूँगा।

और वो कई तीलो वाली पेन्सिल, उसे अपने साथ ले आऊंगा क्योकि गलतियाँ तो मैं अब भी करता हूँ पर अब उन्हें मानने भी लगा हूँ। पेन्सिल से लिखीं गलतियों को सही करने मैं शायद ज्यादा कठनाई ना हो?

कुछ दिनों की बाद मैं गया था घर अपने बचपन वाले विज्ञानं का वो box फिर से खोलने पर दीमक ने अब उसके कुछ अवशेष ही छोड़े है।

वो कंपास (compass) तो मेरे से भी ज्यादा दिशाहीन हो गया है। मैं कोशिश करता हूँ उसकी सूइयों को उत्तर दक्षिण में रोकने की पर वो तो पश्चिम की ओर ही जाती प्रतीत होती है।

वो उत्तल लेंस अब किसी को जलता नहीं है उसके बीच में पड़ी एक दरार ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया है शायद।

Box खोला तो पहचान ही नहीं पाया की लाल लिटमस की गड्डी कौन सी है ओर नीले की कौन सी? शायद दोनों लिटमसो की गड्डियाँ ज्यादा ही पुरानी हो गयी है या फिर मैं?

फौजी वाली ताश की गड्डी के फौजियों की बंदूकों पर जंग लग गया है अब उनसे निकली गोलिया फौजियों के हाथो में ही फट जाती है।
राजा, रानी गुलाम जैसे लगने लगे है।

वो कई तीलो वाली पेन्सिल के सारे तीले इतने ठूठ हो गए है की उसके पारदर्शी भाग से देखने पर उनके बीच में दूरिया नजर आती है। कुछ के बीच की दूरिया तो इतनी बढ़ गयी है की पीछे वाले तीले का हाथ अब उससे आगे वाले तीले के कंधो तक नहीं पहुँचता है।

वो मेरे बचपन का जादू भरा विज्ञान वाला box कबाड़ी 5 रूपये में ले गया।

मैं गया था बाजार में वो 5 रूपये लेकर कंपास (compass) ख़रीदने …………

पर शायद सही दिशा बताने वाले कंपास (compass) अब 5 रुपये में नहीं आते ………………

© आशीष कुमार  

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संस्मरण- ☆आदरणीय स्व. शरद जोशी जी के जन्मदिन पर ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(आज स्व. शरद जोशी जी को उनके जन्म दिवस पर e-abhivyakti की ओर से सादर नमन। श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी का आभार जिन्होने स्व.  शरद जोशी जी के साथ अपने संस्मरण हमारे पाठकों के साथ साझा किया। प्रस्तुत है उनका संक्षिप्त जीवन परिचय एवं श्री जय प्रकाश पाण्डेय जी के अविस्मरणीय क्षण जो उन्होने श्री जोशी जी के साथ व्यतीत किए थे।)

स्व. शरद जोशी जी का जीवन परिचय 

जन्म – 21 मई 1931 को मध्य प्रदेश के उज्जैन मध्य प्रदेश में हुआ।

मृत्यु –  60 वर्ष की आयु में 5 सितंबर 1991 को मुंबई में हुआ।

जीवन परिचय – आपने कुछ समय तक सरकारी नौकरी की फिर लेखन को आजीविका के रूप में अपना लिया।

साहित्य सृजन – आरम्भ में कुछ कहानियाँ लिखीं, फिर पूरी तरह व्यंग्य-लेखन ही करने लगे। इसके अतिरिक्त आपने व्यंग्य लेख, व्यंग्य उपन्यास, व्यंग्य के स्थायी स्तम्भ के अतिरिक्त हास्य-व्यंग्यपूर्ण धारावाहिकों की पटकथाएँ और संवाद भी लिखे।आपकी रचनाओं में समाज में पाई जाने वाली सभी विसंगतियों का बेबाक चित्रण मिलता है।

साहित्य – गद्य रचनाएँ परिक्रमा, किसी बहाने, जीप पर सवार इल्लियाँ, रहा किनारे बैठ, दूसरी सतह, प्रतिदिन(3 खण्ड), यथासंभव, यथासमय, यत्र-तत्र-सर्वत्र, नावक के तीर, मुद्रिका रहस्य, हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे, झरता नीम शाश्वत थीम, जादू की सरकार, पिछले दिनों, राग भोपाली, नदी में खड़ा कवि, घाव करे गंभीर, मेरी श्रेष्ठ व्यंग रचनाएँ।

व्यंग्य नाटक –  अंधों का हाथी, एक था गधा उर्फ अलादाद खाँ

उपन्यास –  मैं, मैं और केवल मैं उर्फ़ कमलमुख बी0ए0

टीवी धारावाहिक –  यह जो है जिंदगी, मालगुड़ी डेज, विक्रम और बेताल, सिंहासन बत्तीसी, वाह जनाब, दाने अनार के, यह दुनिया गज़ब की, लापतागंज आदि।

फिल्मी सम्वाद लेखन – क्षितिज, गोधूलि, उत्सव, उड़ान, चोरनी, साँच को आँच नहीं, दिल है कि मानता नहीं।

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☆ आदरणीय शरद जोशी के जन्मदिन पर ☆

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बहुत पहले आदरणीय शरद जोशी जी “रचना”  संस्था के आयोजन में परसाई की नगरी जबलपुर में मुख्य अतिथि बनकर आए थे,हम उन दिनों “रचना ” के संयोजक के रूप में सहयोग करते थे।

“रचना “साहित्यिक सांस्कृतिक सामाजिक संस्था का मान था उन दिनों। हर रंगपंचमी पर राष्ट्रीय स्तर के हास्य व्यंग्य के ख्यातिलब्ध हस्ताक्षर आमंत्रित किए जाते थे। हम लोगों ने आदरणीय शरद जोशी जी को रसल चौक स्थित उत्सव होटल में रूकवाया था, “व्यंग्य की दशा और दिशा” विषय पर केंद्रित इस कार्यक्रम के वे मुख्य अतिथि थे।

व्यंग्य विधा के इस आयोजन के प्रथम सत्र में ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार श्री हरिशंकर परसाई जी की रचनाओं पर आधारित रेखाचित्रों की प्रदर्शनी का उदघाटन करते हुए जोशी जी ने कहा था- “मैं भाग्यवान हूं कि परसाई के शहर में परसाई की रचनाओं पर आधारित  रेखाचित्र प्रदर्शनी के उदघाटन का सुअवसर मिला.”

फिर उन्होंने परसाई की सभी रचनाओं को घूम घूम कर पढ़ा हंसते रहे और हंसाते रहे। ख्यातिलब्ध चित्रकार श्री अवधेश बाजपेयी की पीठ ठोंकी, खूब तारीफ की। व्यंग्य विधा की बारीकियों पर उभरते लेखकों से लंबी बातचीत की।

शाम को जब होटल के कमरे में वापस लौटे फिर दिल्ली के अखबार के लिए ‘प्रतिदिन’ कालम लिखा, हमें डाक से भेजने के लिए दिया। साहित्यकारों के साथ थोड़ी देर चर्चा की, फिर टीवी देखते देखते सो गए ।

आज उनका जन्मदिन है, वे याद आ गए…..

सादर नमन।

©  जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर 

 

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हिन्दी साहित्य – संस्मरण ☆ व्यंग्य और कविता के बीच सेतु थे डा.शेरजंग गर्ग और प्रदीप चौबे ☆ श्री विनोद साव

श्री विनोद साव 

☆ व्यंग्य और कविता के बीच सेतु थे डा.शेरजंग गर्ग और प्रदीप चौबे ☆

(प्रसिद्ध व्यंग्यकार श्री विनोद साव जी का e-abhivyakti में हार्दिक स्वागत है। हम भविष्य में आपकी चुनिन्दा रचनाओं की अपेक्षा करते हैं।) 

कविता, व्यंग्य क्षेत्र में सक्रिय रहे दो रचनाकार प्रदीप चौबे और डा.शेरजंग गर्ग ने अपनी रचनायात्रा को विराम दिया और साहित्य बिरादरी से उन्होंने अंतिम बिदागरी ले ली. अब उनका व्यक्तित्व नहीं उनका कृतित्व हमारे सामने होगा और उनके व्यक्तित्व को हम उनके कृतित्व में ही तलाश पाएँगे उनसे सीधे साक्षात्कार के जरिए अब नहीं.

इन दोनों रचनाकारों से मेरा विशेष परिचय नहीं रहा सामान्य परिचय ही रहा. आंशिक मुलाकातें हुईं पर हम एक दूसरे के नाम को जाना करते थे, हमारे बीच पूरी तरह अपरिचय व्याप्त नहीं था. ये दोनों रचनाकार व्यंग्य की विधा से जुड़े रहे इसलिए मैं भी इनसे थोडा जुड़ा रहा. मैंने कविता नहीं की पर प्रदीप चौबे की कविताओं में जो हास्य-व्यंग्य की छटा मौजूद थी उसने उनकी ओर मेरी और सभी विनोदप्रिय श्रोताओं व रचनाकारों का ध्यान खूब खींचा. चौबे जी के साथ ‘प्लस’ यह रहा कि उनकी हास्य चेतना और मंचों पर उनकी प्रस्तुति में उनके बड़े भाई शैल चतुर्वेदी की प्रेरणा ने भरपूर काम किया और वे अपने भैया की तरह हास्य-व्यंग्य के सफल कवियों में गिने जाने लगे और कवि सम्मेलनों में उनकी तूती बोलने लगी थी. बल्कि कई बार श्रोताओं को ठठा ठठाकर हंसवाने में प्रदीप जी आगे भी निकल जाते थे. भ्रष्टाचार पर तंज करती कविता और भारतीय रेल में पूरे हिंदुस्तान को देखने दिखने का जो उनका उपक्रम था उनमें देश की दारुण दशाओं का भी चटखारेदार वर्णन कर लोगों को वे खूब हंसाया करते थे और बड़े निश्छल ह्रदय से हंसाया करते थे. इसकी एक बानगी देखें:

 

हर तरफ गोलमाल है साहब

आपका क्या ख़याल है साहब

 

कल का ‘भगुआ’ चुनाव जीता तो,

आज ‘भगवत दयाल’  है साहब

 

मुल्क मरता नहीं तो क्या करता

आपकी देख भाल है साहब

 

उनकी कविताओं में उनके निश्छल मन का भान होता था. वे मामूली स्थितियों में चले हुए लतीफों को पिरोकर भी हास्य का ऐसा जायका परोसते थे कि सुनने वालों के पेट में बल पड़ जाते थे. मृतात्मा और दाहकर्म पर उनकी एक कविता थी जिसमें भीषण गर्मी के दिनों में किसी के दाहकर्म में शामिल होने से ऐसी दैहिक पीड़ादायक अनुभूति होती थी कि मृतात्मा के चले जाने का मानसिक आघात कम हो जाता था जो मृतात्मा के प्रति लोगों की संवेदना को भी मार देती थी. तब आदमी ऐसे दाह्संस्कारों में जाने से बचना चाहता था. उसी में एक पंक्ति थी कि ‘आदमी को मरना चाहिए देहरादून में.’ और डा.शेरजंग गर्ग देहरादून में दिवंगत हुए क्योंकि डा.गर्ग देहरादून के रहने वाले थे. पर प्रदीप चौबे ने अंतिम साँस अपने शहर ग्वालियर में ली.

प्रदीप जी से लखनऊ के अट्टहास समारोहों में भी मुलाकातें हुईं. गद्य व्यंग्य लेखन में उनकी रूचि भले ही कम थी पर गद्य व्यंग्यकारों को पढने समझने का सलीका उनके पास था. अन्य मंचीय कवियों के सीमित संकीर्ण ज्ञान से वे दूर थे. एक बार भिलाई आगमन पर उन्होंने सबके बीच मुझे पहचानकर लपककर गले लगाते हुए कहा था कि ‘आप व्यंग्यकार विनोद साव हैं.’

डा.शेरजंग गर्ग वर्ष २००२ में विश्व पुस्तक मेले दिल्ली में मिले और उन्होंने भावना प्रकाशन द्वारा आयोजित मेरे व्यंग्य संग्रह ‘मैंदान-ए-व्यंग्य’ के विमोचन कार्यक्रम में आना स्वीकार किया और वे आए थे. नरेंद्र कोहली जी ने विमोचन किया और कार्यक्रम का संचालन हरीश नवल ने किया था. मेरे एल्बम में उस समय का एक रंगीन चित्र है जिसमें कथाकार द्वय राजेन्द्र यादव, कमलेश्वर और शेरजंग गर्ग जैसे वरिष्ठ रचनाकारों के साथ मैं भी खड़ा हूं उस समय के एक उभरते हुए लेखक के रूप में.

शेरजंग गर्ग ने व्यंग्य के अतिरिक्त हिन्दी आलोचना में भी अपने हाथ चलाए और बालसाहित्य लेखन में भी.. और अपनी ग़ज़लों से भी उनकी पहचान बनी. इस बहुविध लेखन के बीच डा.गर्ग को देखने से लगता था कि उन्होंने ज्यादा आत्मसात बालसाहित्य की भावना (स्पिरिट) को किया होगा क्योंकि उनके सुदर्शन व्यक्तित्व में बालसुलभता का भाव विशेष रूप से उभरकर आता था और संभवतः उनकी इसी बालसुलभता और बच्चों जैसी निर्मलता ने उन्हें दिल्ली में रहते हुए भी साहित्य की राजनीति और उखाड़-पछाड़ से अलग रखा होगा. अपने बालसाहित्य लेखन के लिए वे ज्यादा पुरस्कृत हुए थे. मुझे भी एक बार दिल्ली प्रवास पर प्रेम जनमेजय के साथ बालभवन दिल्ली में उनके सम्मान समारोह को देखने का अवसर मिला था. ऐसी ही निर्मल भावना से शेरजंग गर्ग व्यंग्य लेखन में साहसिक वक्तव्य दे लिया करते थे. समाज के प्रति भावना कम रख समाजसेवी का मुलम्मा अपने पर चढ़ाए हुए लोगों पर कटाक्ष करते हुए उन्होंने कहा है कि ‘ये समाज सुधारक हैं.. अरे ये ह्रदय विदारक हैं.’  उनके शेरो-शायरी हो बालसाहित्य, उनमें व्यंग्य की चेतना बरक़रार रहती थी. उनकी एक ग़ज़ल की ये पंक्ति देखें

 

चुल्लू में डूबने का अब लद चुका जमाना

उल्लू से दोस्ती कर, क्या शर्मसार होना।

 

व्यंग्य और कविता  कर्म के बीच सेतु थे डा.शेरजंग गर्ग और प्रदीप चौबे.

 

© विनोद साव 

दुर्ग (छत्तीसगढ़)

मोबाइल – 9009884014

(साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय, जबलपुर)

 

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