हिन्दी साहित्य – संस्मरण – ☆ 150वीं गांधी जयंती विशेष-1 ☆ पकुआ के घर गाँधी जी ! ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

ई-अभिव्यक्ति -गांधी स्मृति विशेषांक-1 

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। प्रस्तुत है उनका  महात्मा गांधी जी से सम्बंधित एक अविस्मरणीय संस्मरण  “पकुआ के घर गाँधी जी !” )

☆ संस्मरण – पकुआ के घर गाँधी जी ! ☆ 

 

महात्मा गांधी और कबीर दोनों ही अस्पृश्यता – निवारण के पैगम्बर थे। दोनों ने छुआछूत का विरोध किया था, ऊंच – नीच, छोटा – बड़ा तथा गरीब – अमीर में अन्तर नहीं मानते थे। पकुआ नारायणगंज में रहता था मस्त ढपली बजाता, भले नीची जाति का था पर अंदर से सबका प्यारा था। उसने सपने भी नहीं सोचा रहा होगा कि एक दिन उसकी घास-फूस की झोपड़ी में महात्मा गांधी आयेंगे।

जब हमारी शाखा प्रबंधक के रूप में नारायणगंज (जिला- मंडला) में पदस्थापना हुई तो अचानक हमें याद आया कि बहुत पहले मैने कहीं किसी किताब में पढ़ा था कि वर्ष 1933-1934 में महात्मा गाँधी नारायणगंज की हरिजन बस्ती में पकुआ के घर आये थे, वहां से उन्होंने छुआछुत की बीमारी दूर करने का प्रयोग किया था, ये बात नारायणगंज पहुचने के बाद लगातार याद आती रही और लगता रहा की वह स्थान देखने मिल जाता जहाँ पर महात्मा गाँधी ने पकुआ के हाथ से पानी पिया था और हरिजन बस्ती में छुआछूत पर भाषण दिया था।

जबलपुर के स्वतंत्रता सेनानी ब्यौहार राजेंद्र सिंह की नारायणगंज में मालगुजारी थी वहां बियाबान जंगल के बीच में उनकी पुराने ज़माने की कोठी थी । जब महात्मा गांधी 1933-1934 में जबलपुर आये थे तो ब्यौहार राजेंद्र सिंह के अनुरोध पर गांधी जी नारायणगंज गाँव एवं जंगल देखने के लिए तैयार हुए। ब्यौहार राजेंद्र सिंह 6 दिसम्बर 1933 को नारायणगंज गांधी जी को लेकर आये थे। पुराने जमाने की कोठी में आराम करने के बाद गांधी जी हरिजन बस्ती में पकुआ हथाले के घर जाकर बैठे और  पकुआ के हाथों से स्थानीय सवर्णों और उच्च जाति के लोगों को पानी पिला कर छुआछुत की प्रथा को समाप्त करने का प्रयोग किया था ।

मैने स्टेट बैंक नारायणगंज में 2005 में शाखा प्रबंधक के रूप में कार्यभार लिया तो गांधी जी याद आये और याद आया उनका नारायणगंज प्रवास। तब से हम व्याकुल रहते कि कहाँ है वह जगह जहाँ गांधी जी बैठे थे ? परन्तु नई पीढी के लोग यह मानने को राजी ही नहीं थे कि महात्मा गांधी नारायणगंज आये थे । जिससे भी हम पूछ-ताछ करते सभी को ये बातें झूठी लगती, नयी पीढी के लोग मजाक बनाते कि बैंक में इस बार ऐसा मैनेजर आया है जो नारायणगंज में महात्मा गांधी और कोई पकुआ को खोज रहा है । बस्ती में तरह-तरह के लोगों से पूछते-पूछते हम हैरान हो गए थे, किसी को पता नहीं था न कोई बताने को राजी था । नारायणगंज जबलपुर-रायपुर रोड पर स्थित है।  वहां का रसगुल्ला बड़ा फेमस हुआ करता था मिट्टी की हंडी में यात्री ले जाते थे। रसगुल्ला वाली होटल बड़ी पुरानी थी तो उसके मालिक से पूछा कि 1933-34 में महात्मा गांधी नारायणगंज आये थे कुछ आइडिया है तब उसने बताया कि हमारे सयाने भी ऐसा कहते थे। किताब में पढ़ी बात पर थोड़ा सा भरोसा बढ़ा। फिर कई बार गांधी जी सपने में आते और पूछते, क्या हुआ पकड़ में आये गांधी कि नहीं।

एक दिन शाखा में बहुत भीड़ थी। हॉल खाचा खच भरा हुआ था, एक फटेहाल ९५ साल की बुढ़िया जिसकी कमर पूरी तरह से झुकी हुई थी मजबूर होकर मेरे केबिन की तरफ निरीह नजरों से देख रही थी, नजरें मिलते ही हमने तुरंत उसे केबिन में बुलाकर बैठाया, पानी पिलाया चाय पिलाई वह गद-गद सी हो गई, उसकी आँखों में गजब तरह की खुशी और संतोष के भाव दिखे, उसकी ४००/ की पेंशन भी वहीँ दे दी गई, फिर अचानक  गांधी जी और पकुआ याद आ गए, हमने तुरंत उस बुढ़िया से पकुआ के नाम का जिक्र किया तो वह घबरा सी गई उसके चेहरे में विस्मय और आश्चर्य की अजीब छाया देखने को मिली, जब हमने पूछा कि इस गाँव में कोई पकुआ नाम का आदमी को जानती हो? तो हमारे इस प्रश्न से वह अचकचा सी गई और सहम गई कि क्या पकुआ के नाम पर बैंक में कोई पुराना क़र्ज़ तो नहीं निकल आया है तो उसने थोड़ी अनभिज्ञता दिखाई परन्तु वह अपने चेहरे के भावों को छुपा नहीं पाई, धोखे से उसने कह ही दिया कि वे तो सीधे-साधे आदमी थे उनके नाम पर क़र्ज़ तो हो ही नहीं सकता ! मैं उछल गया था ऐसा लगा जैसे अपनी खोज के लक्ष्य तक पहुच गया, मैने तुरंत फेमस रसगुल्ला बुलवाया और उसे चाय पानी से खुश किया।

गरीब हरिजन परिवार की 95 साल की बुढ़िया के संकोच और संतोष ने हमें घायल कर दिया था हमने कहा कि पकुआ के नाम पर क़र्ज़ तो हो ही नहीं सकता, हम सिर्फ यह जानना चाहते है कि इस गाँव में कोई पकुआ नाम का आदमी रहता था जिसके घर में ७५ साल पहले महात्मा गांधी आये थे, हम यह सुनकर आवक रह गए जब उसने बताया कि पकुआ उसके ससुर (father’s in law ) होते है, उसने बताया कि उस ज़माने में जब पकुआ की ढपली बजती थी तो हर आदमी के रोंगटे खड़े हो जाते थे,पकुआ हरिजन जरूर था पर उसे गाँव के सभी लोग प्यार करते थे। गाँव में उसकी इज्जत होती थी, बस ये बात जरूर थी कि छुआछूत का इतना ज्यादा प्रचलन था कि जहाँ से पकुआ ढपली बजाते हुए निकल जाता था वहां का रास्ता बाद में पानी से धोया जाता था, उस ज़माने में हरिजनों को गाँव के कुएं से पानी भरने की इजाजत नहीं होती थी, जब मैने उस से पूछा कि ७५ साल पहले आपके घर कोई गांधी जी आये थे क्या? तब उसने सर ढंकते हुए एवं बाल खुजाते हुए याद किया और कहा हाँ कोई महात्माजी तो जरूर आये थे पर वो महात्मा गांधी थे कि नहीं ये नहीं मालूम !

मैने पूछा कि क्या पहिन रखा था उन्होंने उस समय ? तब उसने बताया कि हाथ में लाठी लिए और सफेद धोती पहिने थे गोल गोल चश्मा लगाये थे। उस समय उस महात्मा ने गाँव में गजब तमाशा किया था कि पकुआ के हाथ से सभी सवर्णों को पानी पिलवा दिया था, सबने बिना मन के पानी पिया था और कुछ को तो उल्टी भी हो गई थी बाद में हम ही ने सफाई की थी….. मैं दंग रह गया था मुझे ऐसा लगा मैने बहुत बड़ी जंग जीत ली है, साल भर से गली- गली गाँव भर में सभी लोगों से पूछता फिरता था तो सब मेरा मजाक उड़ाते थे।  आज मैने उस किताब में लिखी बातों को सही होते पाया, मैने उस दादी से सभी तरह की जानकारी ले डाली उसने बताया था कि ७५ साल से हमारा परिवार भुखमरी का जीवन जी रहा है हम सताए हुए लोग है आप को ये क्या हो गया जो हमारी इतनी आव-भगत कर रहे है आज तक किसी ने भी हमारी इतनी परवाह नहीं की न ही किसी ने हमे मदद की। कल  की रोटी का जुगाड़ हो पता है या नहीं ऐसी असंभव भरी जिन्दगी जीने के हम आदी हो गए है, लड़के बच्चे पैसे के आभाव में पढ़ नहीं पाए थोड़ी बहुत मजदूरी कर के गुजरा चलता रहा है एक होनहार नातिन जरूर है जो होशियार है।  अभी एक राज्य स्तर की खेल प्रतियोगिता में पैसे के आभाव में भाग नहीं ले सकी, राजधानी खेलने जाना था।

अचानक मुझे याद आया कि हमारे चेयरमेन साहेब  ने होनहार गरीब बच्चियों को गोद लेकर उनके हुनर को खोज कर उनके होसले बुलंद करने की एक योजना “Girl Adoption Scheme” निकली है मैने तुरंत अपने स्टाफ को उस दादी के घर भेज कर उसकी नातिन नेहा ह्थाले को बुलाया, और तुरंत नियंत्रक से दूरभाष पर बात कर के नेहा को इस योजना में शामिल कर लिया।  उनके चेहरों में आयी खुशी को देख कर मुझे पहली बार महसूस हुआ कि वास्तव में खुशी का चेहरा कैसा होता है? मुझे गांधी जी और पकुआ लगातार याद आ रहे थे। और फिर ऐसे पकड़ में आये गांधी जी………..।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – शिक्षक दिवस विशेष – संस्मरण – ☆ हमारे आदर्श – कक्काजी ☆ – श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी” 

शिक्षक दिवस विशेष

श्रीमति हेमलता मिश्र “मानवी” 

 

(सुप्रसिद्ध, ओजस्वी,वरिष्ठ साहित्यकार श्रीमती हेमलता मिश्रा “मानवी”  जी  विगत ३७ वर्षों से साहित्य सेवायेँ प्रदान कर रहीं हैं एवं मंच संचालन, काव्य/नाट्य लेखन तथा आकाशवाणी  एवं दूरदर्शन में  सक्रिय हैं। आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय स्तर पर पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, कविता कहानी संग्रह निबंध संग्रह नाटक संग्रह प्रकाशित, तीन पुस्तकों का हिंदी में अनुवाद, दो पुस्तकों और एक ग्रंथ का संशोधन कार्य चल रहा है।आज प्रस्तुत है  शिक्षक दिवस पर श्रीमती हेमलता मिश्रा ‘मानवी’ जी का  अविस्मरणीय संस्मरण  “हमारे आदर्श – कक्का जी ”, जो  हम सबके लिए वास्तव में आदर्श हैं और जिस सहजता से लिखा गया है, बरबस ही उनकी छवि नेत्रों के सम्मुख आ जाती है।)

 

☆  संस्मरण – हमारे आदर्श – कक्काजी  ☆

 

मेरे पिताजी स्वर्गीय श्री मोहनलाल जी शुक्ला, ईश्वर के वरदान की तरह प्रदत्त, बड़े गुरुजी के नाम से आज भी सुविख्यात हैं मेरे कस्बे पुलगांव और आसपास! – – – – और देश के अनेक क्षेत्रों में भी जहाँ उनके विद्यार्थी हों।

लेकिन आप को जानकर आश्चर्य होगा कि दुनिया के लिये आदरणीय, आदर्श, अतुलनीय मेरे पिताजी आजकी दुनिया के लिये सही गुरु नहीं थे। सतयुग के उस प्रणेता ने हमें कलयुग में जीने की शिक्षा नहीं दी। उनके सतयुगी सिद्धांतों ने इस कलियुग में सबसे ज्यादा जरूरी– छल कपट द्वेष ईर्ष्या नहीं सिखाई। दूसरों के अधिकारों को लड़कर छीनना नहीं सिखाया। लोगों को सीढियाँ बनाकर ऊंचाईयों पर पहुँचना नहीं सिखाया। यहाँ तक कि रिश्तों को भी  अपने परिप्रेक्ष्य में नहीं दूसरों के संदर्भ में जीना सिखाया।

जी हाँ – – – होश सँभालते ही पिताजी को” कक्का “कह कर पुकारा। तीन बडे़ ताऊजी जो ग्रामीण पृष्ठभूमि से थे, उनके बच्चे बरसों तक सदैव पिताजी के पास रहकर पढे लिखे – – इसीलिए वही संबोधन हम भाई बहन भी देते रहे। माँ को भी “काकी “कहा। आदर्शवादिता की इंतेहा कि बच्चों में अलगाव की भावना ना आये अतः पिताजी ने कभी नहीं सिखाया कि मुझे पिताजी कहो।

दुनिया में अच्छा इंसान बनना सिखाया परंतु दुर्जनों के साथ कैसा बर्ताव करें ये नहीं सिखाया। गुरु को तो चाणक्य की भांति होना चाहिए जो साम दाम दंड भेद की नीतियां सिखाये। गुरु द्रोणाचार्य की तरह होना चाहिए जो अपने शिष्य के लिए एकलव्य से अंगूठा माँगने में भी संकोच ना करे।। गुरु को तो कर्ण अर्जुन और दुर्योधन तीनों से निपटने की कला अपने छात्रों को सिखाना चाहिए। आदर्श शिक्षक का तमगा आपके लिए आशीष बन सकता है लेकिन दुनिया की भीड़ में छात्रों का सहारा नहीं बन सकता।

तात्पर्य यही कि आजके युग के शिक्षकों की तरह हाड़मांस के रोबोट तैयार करना चाहिए – – – संवेदनाहीन राग विराग अनुराग– भाव विभाव अनुभाव से परे।

निःसंदेह चौंकानेवाला लगा होगा  यह प्रलाप। अरे ये तो बस व्यवस्था के प्रति और स्वार्थी दुनिया के प्रति मन की भड़ास निकाल ली जितनी उबल रही थी भीतर।—-

लेकिन सच कहूँ तो मेरे पिताजी मेरे कक्का स्वयं तो बहुत अच्छे शिक्षक थे ही – – – शिक्षकों के शिल्पी भी थे। वे खुद तो अच्छे शिक्षक थे ही अपने अंतर्गत शिक्षकों को भी उत्तम शिक्षक बनाया। वे लगभग बीस वर्ष प्रधानाचार्य रहे। तिवारी गुरुजी, पेशवे गुरुजी, जोशी गुरुजी सारे मेरे पिताजी की प्रतिकृति ही थे मानो। मजाल है कोई शिक्षक ट्यूशन को पैसे से तोल ले। कमजोर बच्चों को अलग से ध्यान दो मगर सहयोग स्वरूप सक्षम अमीर माता-पिता दूध, दही-मही, सब्जियाँ, ऋतुफल, कपड़ा लत्ता भिजवाते। पैसे से शिक्षा दान नहीं। इसी सिद्धांत पर चले पिताजी सारी जिंदगी। इसलिए बडे़ मजे भी रहे। राशनिंग के दौर में भी जीवनावश्यक वस्तुओं का अभाव कभी नहीं देखा। मिल मालिक से लेकर बड़े व्यवसायियों के बिगडैल, पढाई में कमजोर बच्चों को पिताजी अलग से पढाते और कमाल कि आज भी वे बड़े व्यवसायिक व्यक्ति  गुरु बहन का आशीष लेते हैं मेरे चरणस्पर्श करके।

इससे बड़ा क्या सबूत चाहिए एक शिक्षक की पुत्री को अपने शिक्षक पिता की महिमा का महत्ता का? हाँ महान थे मेरे गुरु मेरे पिता जिनके कारण इस देश में आज भी मानवता की सेवा में विश्वास करने वाले व्यवसायी हैं। स्कूल में आज भी वे उसूल चल रहे हैं जो मेरे आदर्श गुरु पिता के जमाने में चलते थे। आज भी वे चंद लोग मौजूद हैं जो गुरुजी के रामायण मंडल को लेकर चल रहे हैं। होली के होलियारे, महीना पहले से एक एक घर मे फाग गाते हैं—-“सदा अनंद रहे यह द्वारा मोहन खेलैं होरी हो” इस आशीष के साथ। और क्या चाहिए एक शिक्षक को युगों तक लोगों के जेहन में जीवित रहने के लिए। संस्मरण और अभिनंदनंदनीय क्षणों का तो विपुल भंडार है मेरे परम गुरु पिता के व्यक्तित्व को परिभाषित करने के लिए। लेकिन शेष फिर कभी—-

गौरवान्वित हूँ मैं एक शिक्षक की बेटी कहलाकर। प्रेमचंद की कहानियों के पात्र से आदर्श शिक्षक – – – आज के इस भ्रष्टाचारी युग के पचास साल पहले के शिक्षक शिल्पी की बेटी का शत शत नमन है समस्त शिक्षकों को शिक्षक दिवस पर।

 

© हेमलता मिश्र “मानवी ” ✍

नागपुर, महाराष्ट्र

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – संस्मरण ☆ पारदर्शी परसाई ☆ – डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

डॉ.राजकुमार “सुमित्र”

 

(“परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार गुरुवर डॉ राजकुमार “सुमित्र” जी  का हृदय से आभार।)

 

✍  संस्मरण – पारदर्शी परसाई  ✍

 

अगस्त 1995, अमेरिका के सेराक्यूज नगर में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति, के अधिवेशन में अपना वक्तव्य देकर बैठा ही था कि जबलपुर घर से फोन संदेश मिला…परसाई जी नहीं रहे। कलेजा धक्क, मैं स्तब्ध। मैंने अपने को संभालते हुए आयोजकों को सूचित किया। ‘श्रद्धांजलि का जिम्मा संभाला’ भरे मन से कुछ कहा। अधिवेशन की समाप्ति पर विभिन्न देशों से प्रतिनिधियों ने मुझसे मिलकर संवेदना प्रकट की। देर तक परसाई चर्चा चली। मन शोकाकुल था किंतु गर्व हो रहा था अपने परसाई की लोकप्रियता पर।

दुनिया के 40 देशों तक परसाई पहुंच चुके थे। किंतु, देश प्रदेश में उनका मान था जब तक वह चलने फिरने लायक थे उन्हें मोटर स्टैंड पर भाई रूपराम की पान की दुकान से, श्याम टॉकीज के सामने रामस्वरूप के पान के ठेले के सामने बिछे तख्त पर या यूनिवर्सल बुक डिपो में आसानी से देखा मिला जा सकता था। यदा-कदा वे स्व. नर्मदा प्रसाद खरे के लोक चेतना प्रकाशन और नवीन दुनिया के चक्कर भी लगा लेते थे।

मेरे आग्रह पर वे तकलीफ के बावजूद ‘मित्र संघ’ के कार्यक्रमों में भी आते रहे। परसाई जी से मेरे पितामह स्व. पंडित दीनानाथ तिवारी के आत्मीय सम्बंध थे। मेरा परिचय कब हुआ याद नहीं। मैं उनका मित्र नहीं, स्नेह भाजन था। किंतु उनका व्यवहार सदैव मित्रवत रहा। निकट संपर्क में आया 1957-58 में, जबकि मैं साप्ताहिक परिवर्तन के संपादक स्व. दुर्गा शंकर शुक्ल का सहयोगी बना। परसाई ‘अरस्तु की चिट्ठी’ कॉलम लिखते थे और उसे समय पर लिखवाने का जिम्मा मेरा था। उन दिनों परसाई जी लक्ष्मी बाग में रहते थे। मैं एक दिन पहले ही जाता और अगले दिन का समय ले लेता। दूसरे दिन अक्सर ऐसा होता-मुझे देखते ही वे कहते, अरे तुम आ गए. बैठो चाय पियो। बस अभी हुआ जाता है। मैं समझ जाता कि कॉलम अभी लिखा नहीं गया है। ऐसा समझने का कारण था- परसाई बहुधा एक ‘स्ट्रोक’ में लिखते थे। सो, मैं चाय पी कर, आम के झाड़ के नीचे पड़ी खाट पर बैठ जाता। पूरा होता और मैं उसे लेकर चल पड़ता।

‘परिवर्तन’ छोड़कर मुझे छत्तीसगढ़ जाना पड़ा। एक अरसे बाद लौटा। सतना क्वाटर के सामने की सड़क पर परसाई जी मिल गए. पूछा- बहुत दिनों में दिख रहे हो, कहाँ हो?

मैंने कहा—छत्तीसगढ़ में हूँ।

बोले… क्या कर रहे हो?

मैंने संकोच से कहा—क्या बताऊँ।

उन्होंने कहा—फिर भी क्या कर रहे हो?

मैंने फिर कहा… क्या बताऊँ?

परसाई जी तत्काल बोले—समझ गया मास्टरी कर रहे हो। सोचता रहा इनकी संवेदना युक्त व्यंग दृष्टि के बारे में।

प्रेमचंद स्मृति दिवस का कार्यक्रम था। परसाई जी मुख्य अतिथि थे। प्रेमचंद जी का चित्र मंच पर रखा था, उसमें जो जूता पहने थे, पटा नजर आ रहा था। परसाई जी ने प्रेमचंद के फटे जूते से ही बात शुरू की।

कार्यक्रम के बाद मैं अपने जूते तलाशने लगा… नीचे एक जोड़ी वैसे ही फटे जूते पड़े थे जैसे प्रेमचंद जी ने पहने थे तस्वीर में। तब मैंने ‘नवीन दुनिया’ मैं लिखा था—प्रेमचंद के फटे जूते देखे हरिशंकर परसाई ने, पाये राजकुमार ‘सुमित्र’ ।

मैं परसाई जी को बड़ा भाई मानता था और ‘बड़े भैया’ कहता भी था। यदा-कदा उनके घर जाता चरण स्पर्श करता। वह मना करते। लेकिन जब चलने में असमर्थ हो गए तब पलंग पर पैर फैला कर तकिए से टिककर बैठते थे। तब कहते—लो तुम्हें सुभीता हो गया। अब तो मैं कुछ कर भी नहीं सकता।

बहुधा उनकी ‘चिट’ लेकर नए कवि लेखक मेरे पास आते। लिखा रहता—प्रिय मित्र इन पर ध्यान देना। ‘इन्हें छाप देना’ उन्होंने कभी नहीं लिखा। आज उन ढेर ‘चिटों’ को देखता हूँ, उनके हस्ताक्षर। याद करता हूँ उनका बड़कपन।

सन 1980 के पहले की बात है। मैं बलदेव बाग में नवीन दुनिया प्रेस में बैठा काम कर रहा था। कुर्ता पजामा पहने एक सज्जन ने आकर नमस्कार किया। मैंने उन्हें बैठने का इशारा किया और काम पूरा करने में लग गया। काम निपटा कर पूछा—कहिए.

मैं बशीर अहमद ‘मयूख’ नाम सुनते ही मैं खड़ा हो गया उनसे क्षमा मांगी। सरल ह्रदय ‘मयूख’ जी ने कहा—परसाई जी के पास से आ रहा हूँ, उन्होंने मिलने के लिए कहा। घटना जरा-सी थी लेकिन मेरा मन सजल कर गई.

रानी दुर्गावती संग्रहालय में साहित्य परिषद का एक समारोह था—परसाई जी के सम्मान में। प्रशस्ति पत्र और पुरस्कार राशि लेकर आए थे भाई सोमदत्त। सोमदत्त ने परसाई जी के योगदान को रेखांकित करते हुए उन्हें प्रशस्ति पत्र सौंपा। परसाई ने टोका असली चीज कहाँ है? सोमदत्त ने मुस्कुराते हुए और उनका राशि का चैक उनकी ओर बढ़ाया। कहा—इसे कैसे भूल सकता हूँ। परसाई जी ने कहा—तुमसे भूल ना हो इसलिए मैंने याद दिलाई.

पूरा हाल ठहाकों से गूंज उठा…

राजर्षि श्री परमानंद भाई पटेल की एक पुस्तक प्रकाशित हुई. पटेल साहब ने परसाई जी का अभिमत जानना चाहा। मुझसे कहा। मैं परसाई जी के पास पहुंचा। कुछ लिखने का आग्रह किया और परसाई जी ने पटेल साहब के अध्ययन की प्रशंसा करते हुए उनके मत से असहमति जताई. मैं प्रसन्न था कि मेरे आग्रह की रक्षा हो गई और पटेल साहब प्रसन्न थे परसाई जी की स्पष्टवादिता से। कविवर भवानी प्रसाद मिश्र की उक्ति है…

‘जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तो लिख।’

यही परसाई जी का मूल मंत्र था।

जिससे जो कहना होता बिना लाग-लपेट के कह देते… उनकी कहानी है… दो नाक वाला आदमी। कहानी पढ़कर स्व. नर्मदा प्रसाद खरे ने कहा। क्यों यार, यारों पर भी चोट।

परसाई बोले… आपने चोट का मजा लिया यह बड़ी बात है। मेरी चोट प्रवृत्ति पर है।

संस्मरण अनेक है अंत में प्रस्तुत है…

परसाई जी के घनिष्ठ मित्र कवि व्यंग्यकार प. श्रीबाल पांडे जी के जेष्ठ पुत्र शेषमणि की बरात करेली जानी थी। हम सब पांडे जी के घर इकठ्ठे हो गए। परसाई जी ने मेरा बैग बुलाया और उसमें कुछ रख दिया। बारात करेली पहुंची। शाम को मुंह हाथ धोकर हम लोग बैठे। परसाई जी बोले—चलो भाई अब संध्या वंदन हो जाए। फिर उन्होंने मेरे बैग में रखा सामान निकाला। सामान क्या था, अखबारों में लिपटी एक बोतल थी। परसाई जी ने हिला डुलाकर बोतल देखी। सील देखी जो कि सलामत थी। फिर मुझे सम्बोधित करते हुए कहा—यार ज़िन्दगी में तुम पहले आदमी मिले जिसने मेरी अमानत में खयानत नहीं की।

पांडे जी अट्टहास कर बोले—सुमित्र बाहुबली दूध भंडार के ग्राहक हैं। सुरासेवन इनके वश का नहीं ।

 

© डॉ. राजकुमार सुमित्र

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

 

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ इस तरह गुजरा जन्मदिन ☆ – स्व. हरिशंकर परसाई

स्व.  हरीशंकर परसाई 

(परसाई जी अपना जन्मदिन मनाने के कभी भी समर्थक नहीं रहे हैं। किन्तु, हम लोगों ने बिना उनकी अनुमति के सन 1991 में जबलपुर में तीन दिवसीय वृहद् जन्मदिन का आयोजन करने का साहस किया था, जिसमें भारतीय स्टेट बैंक ने भी  उनका सम्मान किया था।। अब तो परसाई का जन्मदिन मनाये जाने की होड़ सी लगी है अब सबको लगने लगा है  कि परसाई का जन्मदिन मनाने से धन एवं यश मिलता है। – जय प्रकाश पाण्डेय)

स्मृतियाँ –

भारतीय स्टेट बैंक के महाप्रबंधक श्री जाखोदिया भोपाल से परसाई को सम्मानित करने उनके घर गए थे।
इस चित्र में परसाई जी के साथ बाल नाट्यकर्मियों का दल है जिन्होंने सदाचार का तावीज रचना पर नाटक किया था। प्रसिद्ध नाट्यकार श्री वसंत काशीकर जी द्वारा लिखित यह नाटक हम इसी अंक में प्रकाशित कर रहे हैं।

 

✍ इस तरह गुजरा जन्मदिन✍

– हरिशंकर परसाई

 

(अपने जन्मदिन पर उन्होने एक व्यंग्य-संस्मरण  लिखा था “इस तरह गुजरा जन्मदिन”। उनका यह व्यंग्य-संस्मरण हम यहाँ उद्धृत कर रहे हैं।)

 

तीस साल पहले 22 अगस्त को एक सज्जन सुबह मेरे घर आये। उनके हाथ में गुलदस्ता था। उन्होंने बड़े स्नेह और आदर से मुझे गुलदस्ता दिया। मैं अचकचा गया। मैंने पूछा यह क्यों? उन्होंने कहा  आज आपका जन्मदिन है न। मुझे याद आया मैं 22 अगस्त को पैदा हुआ था। यह जन्मदिन का पहला गुलदस्ता था। वे बैठ गए। हम दोनों अटपटे से और बैचैन थे। कुछ बातें होती रहीं। उनके लिए चाय आयी वे मिठाई की आशा कर रहे होंगे। मेरी टेबल में फूल भी नहीं थे वे समझ गए होंगे कि सबेरे से इनके पास कोई नहीं आया। इसे कोई नहीं पूछता। लगा होगा जैसे शादी की बधाई देने आए हैं और इधर घर में रात को दहेज की चोरी हो गई हो। उन्होंने मुझे जन्मदिन के लायक भी नहीं समझा तब से अभी तक उन्होंने मेरे जन्मदिन पर आने की गलती नहीं की, धिक्कारते होगें कि कैसा निकम्मा लेखक है कि अधेड़ हो रहा है मगर जन्मदिन मनवाने का इंतजाम नहीं कर सका, इसका साहित्य अधिक दिन टिकेगा नहीं। हाँ अपने जन्मदिन के समारोह का इंतजाम खुद करने वाले मैने देखे हैं जन्मदिन ही क्यों स्वर्ण जयंती और हीरक जयंती भी खुद आयोजित करके ऐसा अभिनय करते हैं जैसे दूसरे लोग उन्हें यह कष्ट दे रहे हैं। सड़क पर मिल गए तो कहा – परसौं शाम के आयोजन में आना भूलिए मत। फिर बोले – मुझे क्या मतलब?  आप लोग आयोजन कर रहे हैं आप जानें।

चार – पांच साल पहले मेरी रचनावली का प्रकाशन हुआ था  उस साल मेरे दो – तीन मित्रों ने अखबारों में मेरे बारे में लेख छपवा दिए जिनके ऊपर छपा था 22 अगस्त जन्मदिन के अवसर पर। मेरी जन्म तारीख 22 अगस्त 1924 छपती है यह गलत है वास्तव में सन 1922 है।। मुझे पता नहीं मेट्रिक के सर्टिफिकेट में क्या है। मेरे पिता ने स्कूल में मेरी उम्र दो साल कम लिखाई थी  इस कारण कि सरकारी नौकरी के लिए मैं जल्दी “ओवरएज” नहीं हो जाऊं। इसका मतलब है झूठ की परंपरा मेरे कुल में है। पिता चाहते थे कि मैं “ओवरएज” नहीं हो जाऊं मैंने उनकी इच्छा पूरी की। मैं इस उम्र में भी दुनियादारी के मामले में “अंडरएज” हूं।

लेख छपे तो मुझे बधाई देने मित्र और परिचित आये। मैंने सुबह मिठाई बुला ली थी। मैंने भूल की। मिलने वालों में चार – पांच मिठाई का डिब्बा लाए। और इतने में निपट गये। अगले साल मैंने सिर्फ तीन – – चार के लिए मिठाई रखी पांचवें सज्जन मिठाई का बड़ा डिब्बा लेकर आ गये फिर हर तीन चार के बाद हर कोई मिठाई लिए आता  मिठाई बहुत बच गई, चाहता तो बेच देता और मुआवजा वसूल कर लेता। ऐसा नहीं किया, परिवार और पडोस के बच्चे दो  तीन दिन खाते रहे।

इस साल कुछ विशेष हो गया। जन्मदिन का प्रचार हफ्ता भर पहिले से हो गया। सुर्य ग्रहण चन्द्रग्रहण के घंटों पहले उसके “वेद” लग जाते हैं ऐसा पंडित बताते हैं “वेद” के समय में कुछ लोग नहीं खाते। वेद यानी वेदना…. राहू केतु के दांत गडते होगें न। मेरा खाना पीना तो नहीं छूटा वेद की अवधि में। पर आशंका रही कि इस साल क्या करने वाले हैं यार लोग। प्रगतिशील लेखक संघ के संयोजक जय प्रकाश पाण्डेय आये और बोले – इक्कीस तारीख की शाम को एक आयोजन रखा है उसमें एक चित्र प्रदर्शनी है और आपके साहित्य पर भाषण है। बिहार के गया से डाॅ सुरेंद्र चौधरी आ रहें हैं भाषण देने। अंत में आपकी कहानी “सदाचार के ताबीज” का नाटक है। मैंने कहा – नहीं  नहीं बिलकुल कोई आयोजन मत करो। मैं बिल्कुल नहीं चाहता। जय प्रकाश पाण्डेय ने कहा कि मैं आपकी मंजूरी नहीं ले रहा हूं,  आपको सूचित कर रहा हूं। आपको रोकने का अधिकार नहीं है। आपने लिखा और उसे प्रकाशित करवा दिया अब उस पर कोई भी बात कर सकता है। इसी तरह आपके जन्मदिन को कोई भी मना सकता है, उसे आप कैसे और क्यों रोकेंगे।

वहीं बैठे दूसरे मित्र ने कहा – हो सकता है मुंबई में हाजी मस्तान आपके जन्मदिन का उत्सव कर रहे हों तो। आप क्या उन्हें रोक सकते हैं।  तर्क  सही था, मेरे लिखे पर मेरा सिर्फ़ रायल्टी का अधिकार है मेरा जन्मदिन भी मेरा नहीं है और मेरा मृत्यु दिवस भी मेरा नहीं होगा। यों उत्सव, स्वागत, सम्मान का अभ्यस्त हूँ फूल माला भी बहुत पहनी है गले पडी माला की ताकत भी जानता हूं। अगर शेर के गले में किसी तरह फूलमाला डाल दी जाए तो वह भी हाथ जोड़कर कहेगा –  मेरे योग्य सेवा…….. आशा है कि अगले चुनाव में आप मुझे ही वोट देंगे।

आकस्मिक सम्मान भी मेरा हुआ। शहर में राज्य तुलसी अकादमी का तीन दिवसीय कार्यक्रम था, जलोटा का तुलसीदास के पद गाने के लिए बुलाया गया था। पहले दिन सरकारी अधिकारी मेरे पास आए, कार्यक्रम की बात की।फिर बोले कल सुबह पंडित विष्णुकांत शास्त्री और पंडित राममूर्ति त्रिपाठी पधार रहे हैं। विष्णुकांत शास्त्री कलकत्ता वाले से मेरी कई बार भेंट की है, त्रिपाठी जी से भी अच्छे संबंध है। अधिकारी ने कहा – वे आपसे भेंट करेंगे ही  उन्हें कब ले आऊं ? मैंने कहा – कभी भी   तीनेक बजे ले आईये।। दूसरे दिन सबसे पहले जलोटा आये। फिर तीन प्रेस फोटोग्राफर आये। मैं समझा ये लोग।हम लोगों का चित्र लेगें,  फिर पंडित शास्त्री और पंडित त्रिपाठी कमरे में घुसे। मेरे मुँह से निकला……..

“सेवक सदन स्वामि आगमनू

मंगल करन अमंगल हरनू”

शास्त्री ने कहा – नहीं बंधु   बात यों है  “एक घड़ी आधी घड़ी में पुनि आय, तुलसी संगत साधू की हरै कोटि अपराध”

हम बात करने लगे। इतने में वही सरकारी अधिकारी ने जाने कहां से एक थाली लेकर मेरे पीछे से प्रवेश कर गए  थाली में नारियल, हल्दी, कुमकुम  अक्षत और रामचरित मानस की पोथी थी। पुष्पमाला भी थी। मैं समझा कि विष्णुकांत शास्त्री का सम्मान होना है, मैंने कहा  बहुत उचित है   शास्त्री कब कब कलकत्ता से आते हैं उनका सम्मान करना चाहिए। शास्त्री जी बोले – नहीं महराज,  आपका सम्मान है ।

वे लोग चकित रह गए जब मैंने उसी क्षण अपना सिर टीका करने के लिए आगे बढ़ा दिया  वे आशा कर रहे थे कि मैं संकोच बताऊंगा, मना करूंगा  मैंने टीका करा लिया, माला पहिन ली नारियल और पोथी ले ली।

दूसरे दिन अखबारों में छपा – तुलसी अकादमी वाले दोपहर को परसाई जी के घर में घुस गए और उनका सम्मान कर डाला…….

ऐसी बलात्कार की खबरें छपती हैं। इक्कीस तारीख की शाम को (बर्थडे ईन) एक समारोह मेरी अनुपस्थिति में हो गया। भाषण, चित्र, प्रदर्शनी, नाटक।

दूसरे दिन जन्मदिन की सुबह थी। मैं सोकर उठा ही था कि पडोस में रहने वाले एक मित्र दम्पति आ गये, मुझे गुलदस्ता भेंट किया और एक लिफाफा दिया। बोले – हैप्पी बर्थडे। मेनी हैप्पी रिटर्न। मैंने सुना है कि मातमपुरसी करने गए एक सज्जन के मुंह से निकल पड़ा था – – मेनी हैप्पी रिटर्न। कम अग्रेजी जानने से यही होता है। एक नीम इंग्लिश भारतीय की पत्नी अस्पताल में भर्ती थी, उनको एंग्लो इंडियन पडोसिन ने पूछा – मिस्टर वर्मा हाऊ इज योर वाइफ ? वर्मा ने कहा – आन्टी, समथिंग इज बैटर दैन नथिंग…….. गुलदस्ता मैंने टेबिल पर रख दिया। उसके बगल में लिफाफा रख दिया। खोला नहीं…. समझा शुभकामना का कार्ड होगा। पर मैंने लक्ष्य किया कि दम्पति का मन बातचीत में नहीं लग रहा था। वे चाहते थे कि मैं लिफाफा खोलें। और मैंने खोला उसमें से एक हजार एक रूपये के नोट निकले। “इसकी क्या जरूरत है” जैसे फालतू वाक्य बोले बिना रूपये रख लिए।  सोचा – इसी को “गुड मॉर्निंग” कहते हैं  आगे सोचा कि अगले जन्मदिन पर अखबार में निवेदन प्रकाशित करवा दूंगा कि भेंट में सिर्फ रूपये लाएं। पुनर्विचार किया…… ऐसा नहीं छपवाऊंगा। हो सकता है कोई नहीं आये। अरे उपहारों का ऐसा होता है कि आपने जो टैबिल लैम्प किसी को शादी में दिया है वही घूमता हुआ किसी शादी में आपके पास लौट आता है।

रात तक मित्र शुभचिंतक, अशुभचिंतक आते रहे रहे। कुछ लोग घर में बैठकर गाली बकते रहे कि साला, अभी भी जिंदा है। क्या कर लिया एक साल और जी लिए, कौन सा पराक्रम कर दिया। नहीं वक्त ऐसा हो गया है कि एक दिन भी जी लेना पराक्रम है। मेरे एक मित्र ने रिटायर होने के दस साल पहले अपनी तीन लड़कियों की शादी कर डाली  मैंने कहा – तुम दुनिया के प्रसिद्ध पराक्रमी में से एक हो।  भीम तो वीर थे…. महा पराक्रमी थे पर उन्हें तीन लड़कियों की शादी करनी पड़ती तो चूहे हो जाते। जिजीविषा विकट शक्ति होती है। लोग खुशी से भी जीते हैं और रोते हुए भी जीते हैं। प्रसिद्ध इंजीनियर “भारत रत्न” डॉ विश्वैसरैया सौ साल से ज्यादा जिए उनके 100 वें जन्मदिन पर पत्रकार ने उनसे बातचीत के बाद कहा – अगले जन्मदिन पर आपसे मिलने की आशा करता हूं। विश्वैसरैया ने जबाब दिया – क्यों नहीं मेरे युवा मित्र… तुम बिल्कुल स्वास्थ्य हो। यह उत्साह से जीना कहलाता है और और तो और वे बुढऊ भी जीते हैं जिनकी बहुएं उन्हें सुनाकर कहती हैं – – – भगवान् अब इनकी सुन क्यों नहीं लेता? जिंदगी के रोग का और मोह का कोई इलाज नहीं। मृत्यु भय आदमी को बचाने के लिए तरह तरह की बातें कहीं जातीं हैं  कहते हैं शरीर मरता है आत्मा तो अमर है व्यास ने कृष्ण से कहलाया – – – जैसे आदमी पुराने वस्त्र त्याग कर नये ग्रहण करता है वैसे ही आत्मा एक शरीर छोड़कर दूसरा शरीर धारण कर लेती है मगर ऐसी सूक्ष्म आत्मा को क्या चाटें? ऐसी आत्मा न खा-पी सकती है, न भोग कर सकती है, न फिल्म दैख सकती है। नहीं, मस्तिष्क का काम बंद होते ही चेतना खत्म हो जाती है मगर………

“हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन,,

दिल को खुश रखने को गालिब ये ख्याल अच्छा है,”

गालिब के मन में पर मौत छाई रहती थी। कई शेरों में मौत है पता नहीं ऐसा क्यों है शायद दुखों के कारण हो,

गमें हस्ती का असद क्या हो जुजमुर्ग इलाज,

शमां हर रंग में जलती है सहर होने तक,

कैदेहयात बंदे गम असल में दोनों एक हैं,

मौत से पहले आदमी गम से निजात पाए क्यों,

रवीन्द्र नाथ ने भी लिखा था_

मीत मेरे दो बिदा मैं जा रहा हूँ

सभी के चरणों में नमन् मैं जा रहा हूँ,

और कबीर दास ने शान्ति से कहा था…..

यह चादर सुर नर – मुनि ओढ़ी मूरख मैली कीन्ही,

दास कबीर जतन से ओढ़ी जस की तस धर दीन्ही,

इन सबके बावजूद जीवन की जय बोली जाती रहेगी।

 

हरिशंकर परसाई 

प्रस्तुति – जय प्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – संस्मरण ☆ परसाई के रूपराम ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   का हृदय से आभार।)

 

✍  संस्मरण – परसाई के रुप राम  ✍

 

जबलपुर के बस स्टैंड के बाहर पवार होटल के बाजू में बड़ी पुरानी पान की दुकान है। रैकवार समाज के प्रदेश अध्यक्ष “रूप राम” मुस्कुराहट के साथ पान लगाकर परसाई जी को पान खिलाते थे।  परसाई जी का लकड़ी की बैंच में वहां दरबार लगता था।  इस अड्डे में बड़े बड़े साहित्यकार पत्रकार इकठ्ठे होते थे साथ में पाटन वाले चिरुव महराज भी बैठते। ये वही चिरुव महराज जो जवाहरलाल नेहरू के विरुद्ध चुनाव लड़ते थे।  बाजू में उनकी चाय की दुकान थी मस्त मौला थे।

(स्व. रूप राम रैकवार जी)

आज उस पान की दुकान में पान खाते हुए परसाई याद आये, रुप राम याद आये और चिरुव महराज याद आये।  पान दुकान में रुप राम की तस्वीर लगी थी।  परसाई जी रुप राम रैकवार को बहुत चाहते थे उनकी कई रचनाओं में पान की दुकान रुप राम और चिरुव महराज का जिक्र आया है।

अब सब बदल गया है, बस स्टैंड उठकर दूर दीनदयाल चौक के पास चला गया परसाई नहीं रहे और नहीं रहे रुप राम और चिरुव महराज… पान की दुकान चल रही है रुप राम का नाती बैठता है बाजू में पुलिस चौकी चल रही है पवार होटल भी चल रही है चिरुव महराज की चाय की होटल बहुत पहले बंद हो गई थी एवं वो पुराने जमाने का बंद किवाड़ और सांकल भी वहीं है और रुप राम तस्वीर से पान खाने वालों को देखते रहते हैं।

 

साभार –  श्री जयप्रकाश पाण्डेय

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – आलेख ☆ हरिशंकर परसाई… व्यंग्य से करते ठुकाई…!! ☆ – सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’

सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  नरसिंहपुर मध्यप्रदेश की वरिष्ठ साहित्यकार सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’ जी का हृदय से आभार।)

✍  हरिशंकर परसाई… व्यंग्य से करते ठुकाई…!! ✍ 

सबसे गहरा घाव वो होता जो शब्दों से दिया जाता कि उसका कोई इलाज़ नहीं वो तो सीधा जाकर मर्म पर ही वार करता और ऐसा जख्म देता कि अगला टीस को न सह ही पाता और न कुछ कह पाता कि शब्द-बाण तो रह-रहकर चुभते कुछ इस तरह से हिंदी साहित्य में व्यंग्य विधा को स्थापित करने वाले विलक्षण प्रतिभा के धनी मध्यप्रदेश का गौरव कहलाने वाले और हर एक विषयवस्तु पर तिरछी नजर रखने वाले साहित्य शिरोमणि ‘हरिशंकर परसाई’ ने कलम रूपी हथियार की मदद से समाज की कुरीतियों ही नहीं हर एक विसंगति पर सटीक प्रहार करते हुये देश व समाज की देह में होने वाले पुराने से पुराने दर्द को भी मिटाने का सतत प्रयास किया कि ताकि इस तरह से वे एक ऐसा भारत बना सके जिसे देखकर कोई उसकी किसी भी प्रथा, सनातन परंपरा या किसी जात-पांत पर कोई ऊँगली उठा न सके कि ये इस विविध संस्कृति के पोषक धर्म-निरपेक्ष देश की वैश्विक पहचान हैं ।

इसलिये उन्होंने अपनी चाँद रूपी मातृभूमि पर धब्बे के समान दिखाई देने वाली छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी असमानता पर चुटीला कटाक्ष किया जिससे कि वो इन दाग़-धब्बों को आसमान की तरह फैली अपनी श्वेत चादर से विलग कर दाग़रहित होकर उभरे तो आजीवन हर विषय, हर परिस्थिति, हर व्यक्ति, हर नीति, हर घटना, हर प्रसंग, हर तीज-त्यौहार, हर सम-सामयिक मुद्दे, हर कमी, हर विशेषता और हर एक विचित्र दिखाई देने वाली बात को अपनी तेज-तर्रार कलम का निशाना बनाकर हंसी-हंसी में वो सब कह दिया जिसे यदि गुस्से में कहा या लिखा जाता तो शायद, उसका वो सर्वकालिक असर नहीं हो पाता कि मज़ाक तो बर्दाश्त किया जा सकता हैं लेकिन, क्रोध से क्रोध ही उपजता जिसके कारण उनका उद्देश्य बाधित हो जाता तो अपने हाथों में थामी हुई कलम को मीठी छूरी बनाकर ऐसा झटका दिया जैसे कोई कसाई किसी जानवर की गर्दन को एक झटके में ही हलाल कर देता हैं ।

कभी वो किसी धोबी की तरह समाज के उपर पड़े मटमैले आवरण को पटक-पटक कर धो उसे उजला बनाने का प्रयास करते तो कभी किसी डॉक्टर की तरह बड़ी निर्दयता से उसके घाव की चीर-फाड़ करते जिससे कि उसमें भरा हुआ सड़ी-गली कुरीतियों का मवाद बहर निक जाये तो समय-समय पर वे साहित्यकार से समाज सेवक बन एक जागरूक नागरिक होने के अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते यही वजह हैं कि उनका लिखा हुआ आज भी प्रासंगिक हैं कि कहने को भले ही समाज व समय में परिवर्तन हो गया लेकिन उसके भीतर अब भी बहुत गंदगी भरी हुई हैं जिसके दिखाई देने पर अक्सर उनका लिखा कोई वाक्य या व्यंग्य याद आ जाता और उनकी दूरदर्शिता का अहसास होता कि किस तरह से वे समय के पार देख लेते थे और आने वाली परिस्थितियों को महसूस कर उसका व्यंग्य में वर्णन कर देते थे तभी तो भ्रष्टाचार हो या फिर धर्मांतरण बहस या फिर राजनीति सब पर उनका लिखा हुआ कोई न कोई आदर्श लेखन जेहन में तैरने लगता हैं ।

 

साहित्य व समाज के ऐसे मर्मज्ञ और ज्ञानी आज ही के दिन अपने व्यंग्य से हम सबको एक अनूठा ज्ञान देने हम सबके बीच आये थे तो आज उनकी जन्मतिथि पर हम उनको ये शब्दांजलि अर्पित करते हैं और ये प्रयास करे कि जिस तरह के भारत का वे स्वपन देखते था या जिस तरह का वो इसे दुनिया के मानचित्र पर स्थापित करना चाहते थे वैसा ही कुछ सचमुच में कर पाये तो उनके शब्दों को वास्तविक मान-सम्मान दे पायेंगे ।

 

© ® सुश्री इंदु सिंह ‘इन्दुश्री’*

नरसिंहपुर (म.प्र.)

 

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – संस्मरण ☆ व्यंग्यकार स्व. श्रीबाल पांडे ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   का हृदय से आभार।)

 

✍  संस्मरण – व्यंग्यकार स्व. श्रीबाल पांडे  ✍

 

साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था ‘रचना’ के संयोजन में जबलपुर के मानस भवन में हर साल मार्च माह में अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सम्मेलन आयोजित किया जाता था। जिसमें देश के हास्य व्यंग्य जगत के बड़े हस्ताक्षर शैल चतुर्वेदी, अशोक चक्रधर, शरद जोशी, सुरेन्द्र शर्मा, के पी सक्सेना जैसे अनेक ख्यातिलब्ध अपनी कविताएँ पढ़ते थे। रचना संस्था के संरक्षक श्री दादा धर्माधिकारी थे सचिव आनंद चौबे और संयोजन का जिम्मा हमारे ऊपर रहता था। देश भर में चर्चित इस अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सम्मेलन के दौरान हम लोगों ने जबलपुर के प्रसिद्ध हास्य व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय का सम्मान करने की योजना बनाई, श्रीबाल पाण्डेय जी से सहमति लेने गए तो उनका मत था कि उन्हें सम्मान पुरस्कार से दूर रखा जाए तो अच्छा है फिर ऐन केन प्रकारेण परसाई जी के मार्फत उन्हें तैयार किया गया।

इतने बड़े आयोजन में सबका सहयोग जरूरी होता है। लोगों से सम्पर्क किया गया बहुतों ने सहमति दी, कुछ ने मुंह बिचकाया, कई ने सहयोग किया। स्टेट बैंक अधिकारी संघ के पदाधिकारियों को समझाया। उस समय अधिकारी संघ के मुखिया श्री टी पी चौधरी ने हमारे प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकारा। तय किया गया कि स्टेट बैंक अधिकारी संघ रचना के अखिल भारतीय हास्य व्यंग्य कवि सम्मेलन के दौरान श्रीबाल पाण्डेय जी का सम्मान करेगी।

हमने परसाई जी को श्रीबाल पाण्डेय के सम्मान की तैयारियों की जानकारी जब दी तो परसाई जी बहुत खुश हुए और उन्होंने श्रीबाल पाण्डेय के सम्मान की खुशी में तुरंत पत्र लिखकर हमें दिया।

श्रीबाल पाण्डेय जी उन दिनों बल्देवबाग चौक के आगे चेरीताल के एक पुराने से मकान में किराये से रहते थे। आयोजन के पहले शैल चतुर्वेदी को लेकर हम लोग उस मकान की सीढ़ियाँ चढ़े, शैल चतुर्वेदी डील-डौल में तगड़े मस्तमौला इंसान थे, पहले तो उन्होंने खड़ी सीढ़ियाँ चढ़ने में आनाकानी की फिर हमने सहारा दिया तब वे ऊपर पहुंचे। श्रीबाल पाण्डेय जी सफेद कुर्ता पहन चुके थे और जनाना धोती की सलवटें ठीक कर कांच लगाने वाले ही थे कि उनके चरणों में शैल चतुर्वेदी दण्डवत प्रणाम करने लोट गए। श्रीबाल पाण्डेय की आंखों से आंसुओं की धार बह रही थी पर वे कुछ बोल नहीं पा रहे थे चूंकि उनकी जीभ में लकवा लग गया था। उस समय गुरु और शिष्य के अद्भुत भावुक मिलन का दृश्य देखने लायक था। श्रीबाल पाण्डेय, शैल चतुर्वेदी के साहित्यिक गुरु थे।

मानस भवन में हजारों की भीड़ की करतल  ध्वनि के साथ श्रीबाल पाण्डेय जी का सम्मान हुआ। मंच पर देश भर के नामचीन हास्य व्यंग्य कवियों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया था पर उस दिन मंच से शैल चतुर्वेदी अपनी रचनाएँ नहीं सुना पाये थे क्योंकि गुरु से मिलने के बाद नेपथ्य में चुपचाप जाकर रो लेते थे और उनका गला बुरी तरह चोक हो गया था।

स्वर्गीय श्रीबाल पाण्डेय जी अपने जमाने के बड़े हास्य व्यंग्यकार माने जाते थे। जब परसाई जी  ‘वसुधा’ पत्रिका निकालते थे तब वसुधा पत्रिका के प्रबंध सम्पादक पंडित श्रीबाल पाण्डेय हुआ करते थे। उनके “जब मैंने मूंछ रखी”, “साहब का अर्दली” जैसे कई व्यंग्य संग्रह पढ़कर पाठक अभी भी उनको याद करते हैं। उन्हें सादर नमन।

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

 

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हिन्दी साहित्य – परसाई स्मृति अंक – संस्मरण ☆ परसाई का गाँव ☆ – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

 

(परसाई स्मृति” के लिए अपने संस्मरण /आलेख ई-अभिव्यक्ति  के पाठकों से साझा करने के लिए  संस्कारधानी  जबलपुर के वरिष्ठ साहित्यकार श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी   का हृदय से आभार।)

 

✍  संस्मरण – परसाई का गाँव ✍

 

देश की पहली विशेषीकृत माईक्रो फाईनेंस शाखा भोपाल में पदस्थापना के दौरान एक बार इटारसी क्षेत्र दौरे में जाना हुआ।  जमानी गांव से गुजरते हुए परसाई जी याद आ गए।  हरिशंकर परसाई इसी गांव में पैदा हुए थे।  जमानी गांव में फैले अजीबोगरीब सूनेपन और अल्हड़ सी पगडंडी में हमने किसी ऐसे व्यकित की तलाश की जो परसाई जी का पैतृक घर दिखा सके। रास्ते में एक दो को पकड़ा पर उन्होंने हाथ खड़े कर दिए। हारकर हाईस्कूल तरफ गए। पहले तो हाईस्कूल वाले गाड़ी देखकर डर गए।  क्योंकि कई मास्साब स्कूल से गायब थे। जैसे तैसे एक मास्साब ने हिम्मत दिखाई।  बोले – “परसाई जी यहाँ पैदा जरूर हुए थे पर गर्दिश के दिनों में वे यहाँ  रह नहीं पाए।”  हांलाकि  नयी पीढ़ी कुछ बता नहीं पाती क्यूंकि पढ़ने की आदत नहीं है।  फेसबुकिया माहौल में चेट करते एक लड़के से जब हरिशंकर परसाई जी के पुराने मकान के बारे में पूछा तो उसने पूछा – “कौन परसाई ?”

फिर भी बेचारे स्कूल के उन मास्साब ने मदद की।  पैदल गाँव की तरफ जाते हुए मास्साब ने बताया कि उनका पुराना घर तो पूरी तरह से गिर चुका है ,घर के खपरे और ईंटें लोग पहले ही चुरा ले गए । अब टूटे घर के ठीहे में लोग लघुशंका करते रहते हैं ,……..”

हमने मास्साब से कहा चलो फिर भी वो जगह देख लेते हैं और चल पड़े उस ओर ……. कच्ची पगडंडी के बाजू में मास्साब ने ईशारा किया ,….नींंव के कुछ पत्थर शेष दिखे । दुर्गंध कचरा के सिवा कुछ न था।  चालीस बाई साठ के एरिया में हमने अंदाज लगाया कि शायद इस जगह  पर परसाई सशरीर धरती पर उतरे रहे होंगे धरती छूकर पता नहीं आम बच्चों की तरह ” कहाँ कहाँ कहाँ “की आवाज से अपनी उपस्थिति बतायी या चुपचाप गोबर लिपी धरती पर उतर गए रहे होंगे ………. आह और वाह के अनमनेपन के बीच उस प्लाट की एक परिक्रमा पूरी हुई जब तक उस पार खड़े सज्जन की लघुशंका करने की व्यग्रता को देखते हुए हम मास्साब के साथ स्कूल तरफ मुड़ गए ………”

 

(जस का तस लिखने में दुख हुआ दर्द हुआ पर आंखिन देखी पर विश्वास करना पड़ा। क्षमायाचना सहित )

 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

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हिन्दी साहित्य – स्वतन्त्रता दिवस विशेष – संस्मरण –☆ संजय दृष्टि – आज़ादी मुबारक ☆ – श्री संजय भारद्वाज

श्री संजय भारद्वाज 

 

(श्री संजय भारद्वाज जी का साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। अब सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकेंगे। ) 

संजय दृष्टि  –आज़ादी मुबारक
(15 अगस्त 2016 को लिखा संस्मरण)
 मेरा दफ़्तर जिस इलाके में है, वहाँ वर्षों से सोमवार की साप्ताहिक छुट्टी का चलन है। दुकानें, अन्य व्यापारिक प्रतिष्ठान, यों कहिए  कमोबेश सारा बाज़ार सोमवार को बंद रहता है। मार्केट के साफ-सफाई वाले कर्मचारियों की भी साप्ताहिक छुट्टी इसी दिन रहती है।
15 अगस्त को सोमवार था। स्वाभाविक था कि सारे  छुट्टीबाजों के लिए डबल धमाका था। लॉन्ग वीकेंड वालों के लिए तो यह मुँह माँगी मुराद थी।
किसी काम से 15 अगस्त की सुबह अपने दफ्तर पहुँचा। हमारे कॉम्प्लेक्स का दृश्य देखकर सुखद अनुभूति हुई।  रविवार के आफ्टर इफेक्ट्स झेलने वाला हमारा कॉम्प्लेक्स कामवाली बाई की अनुपस्थिति के चलते अमूमन सोमवार को अस्वच्छ रहता है है। आज दृश्य सोमवारीय नहीं था। पूरे कॉम्प्लेक्स में झाड़ू- पोछा हो रखा था। दीवारें भी स्वच्छ! पूरे वातावरण में एक अलग अनुभूति, अलग खुशबू।
पता चला कि कॉम्प्लेक्स में काम करनेवाली बाई सीताम्मा, सुबह जल्दी आकर पूरे परिसर को झाड़-बुहार गई है। लगभग दो किलोमीटर पैदल चलकर काम करने आनेवाली इस निरक्षर लिए 15 अगस्त किसी तीज-त्योहार से बढ़कर था। तीज-त्योहार पर तो बख्शीस की आशा भी रहती है, पर यहाँ तो बिना किसी अपेक्षा के अपने काम को राष्ट्रीय कर्तव्य मानकर अपनी साप्ताहिक छुट्टी छोड़ देनेवाली इस  सच्ची नागरिक के प्रति गर्व का भाव जगा। छुट्टी मनाते सारे बंद ऑफिसों पर एक दृष्टि डाली तो लगा कि हम तो  धार्मिक और राष्ट्रीय त्योहार केवल पढ़ते-पढ़ाते रहे, स्वाधीनता दिवस को  राष्ट्रीय त्योहार, वास्तव में सीताम्मा ने  ही समझा।
आज़ादी मुबारक सीताम्मा, तुम्हें और तुम्हारे जैसे असंख्य कर्मनिष्ठ भारतीयों को!

©  संजय भारद्वाज, पुणे

☆ अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆ सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆ संपादक– हम लोग ☆ पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी

मोबाइल– 9890122603

[email protected]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ स्मृतियाँ/Memories – #1 – बचपन वाले विज्ञान का BOX ☆ – श्री आशीष कुमार

श्री आशीष कुमार

(युवा साहित्यकार श्री आशीष कुमार ने जीवन में  साहित्यिक यात्रा के साथ एक लंबी रहस्यमयी यात्रा तय की है। उन्होंने भारतीय दर्शन से परे हिंदू दर्शन, विज्ञान और भौतिक क्षेत्रों से परे सफलता की खोज और उस पर गहन शोध किया है। आज से प्रत्येक शनिवार आप पढ़ सकेंगे उनकी लेखमाला  के अंश स्मृतियाँ/Memories।  आज प्रस्तुत है इस लेखमाला की पहली कड़ी  जिसे पढ़कर आप निश्चित ही बचपन की स्मृतियों में खो जाएंगे। ) 

 

☆ स्मृतियाँ/Memories – #1 – बचपन वाले विज्ञान का BOX ☆

 

बचपन वाला विज्ञान का Box

कक्षा 10 में मेरे पास एक box हुआ करता था।जिसमे मैं विज्ञानं से सम्बंधित वस्तुएँ रखा करता था।

स्कूल में पढ़ता और प्रयोग करने के लिए विज्ञान की उन वस्तुओ को एक box मे रख लेता।

एक दिशा सूचक यंत्र (compass) था जिसकी सुईया नाचती तो थी पर रूकती हमेशा उत्तर-दक्षिण दिशा में ही थी ।

एक उत्तल लेंस था जो वस्तुओ का प्रतिबिम्ब एक खास दूरी पर ही बनता था।

कभी कभी जाड़ो की गुठली मारती धूप में उसे कागज के ऊपर फोकस (focus) करके सूरज की ऊर्जा से उस कागज़ को जलाया करता था।

उस box में मैंने दो लिटमस पेपरो की छोटी छोटी गड्डिया भी रख रखीं थी एक नीले लिटमस की और दूसरी लाल लिटमस की, जो अम्ल और क्षार से क्रिया करके रंग बदलते थे।

चुपके से एक फौजी वाली ताश की गड्डी भी मैंने उस box में छिपा रखीं थी और राजा, रानी, इक्का सब मेरे कब्ज़े में थे।

और कई सारी चीजों के साथ एक वो पेन्सिल भी थी जिसमे एक पारदर्शी खांचे में छोटे छोटे कई सारे तीले होते है और अगर एक तीला घिस का ठूठ हो जाये तो उसे निकल कर सबसे पीछे लगा दो और नया नुकीला तीला आगे आ जाता था।

बरसो बाद पता नहीं आज क्यों उस box की याद आ गयी।

अब मैं घर से दूर हूँ इस बार जब घर जाऊँगा तो ढूंढूंगा उस box को स्टोर मे कही खोल कर देखूँगा फिर से वही बचपन वाला विज्ञानं।

जीवन जो अब दिशाहीन सा हो गया है कोशिश करूँगा उसे उस compass से एक दिशा में ही रोकने की।

इस बार जाकर देखूँगा की क्या वो उत्तल लेंस मेरे बचपन की यादो के प्रतिबिम्ब अभी भी बना पायेगा?

जुबाँ में अम्ल घुल चुका है सोचता हूँ  उस box से निकाल कर नीले लिटमस पेपर की पूरी गड्डी ही मुँह में रख लूँगा मुझे यक़ीन है मेरा मुँह भी हनुमान जी की तरह लाल हो जायेगा।

इस दफा वर्षो के बाद जब वो box खोलूँगा तो राजा, रानी, गुलाम सब को आज़ाद कर दूँगा।

और वो कई तीलो वाली पेन्सिल, उसे अपने साथ ले आऊंगा क्योकि गलतियाँ तो मैं अब भी करता हूँ पर अब उन्हें मानने भी लगा हूँ। पेन्सिल से लिखीं गलतियों को सही करने मैं शायद ज्यादा कठनाई ना हो?

कुछ दिनों की बाद मैं गया था घर अपने बचपन वाले विज्ञानं का वो box फिर से खोलने पर दीमक ने अब उसके कुछ अवशेष ही छोड़े है।

वो कंपास (compass) तो मेरे से भी ज्यादा दिशाहीन हो गया है। मैं कोशिश करता हूँ उसकी सूइयों को उत्तर दक्षिण में रोकने की पर वो तो पश्चिम की ओर ही जाती प्रतीत होती है।

वो उत्तल लेंस अब किसी को जलता नहीं है उसके बीच में पड़ी एक दरार ने उसे बहुत कुछ सिखा दिया है शायद।

Box खोला तो पहचान ही नहीं पाया की लाल लिटमस की गड्डी कौन सी है ओर नीले की कौन सी? शायद दोनों लिटमसो की गड्डियाँ ज्यादा ही पुरानी हो गयी है या फिर मैं?

फौजी वाली ताश की गड्डी के फौजियों की बंदूकों पर जंग लग गया है अब उनसे निकली गोलिया फौजियों के हाथो में ही फट जाती है।
राजा, रानी गुलाम जैसे लगने लगे है।

वो कई तीलो वाली पेन्सिल के सारे तीले इतने ठूठ हो गए है की उसके पारदर्शी भाग से देखने पर उनके बीच में दूरिया नजर आती है। कुछ के बीच की दूरिया तो इतनी बढ़ गयी है की पीछे वाले तीले का हाथ अब उससे आगे वाले तीले के कंधो तक नहीं पहुँचता है।

वो मेरे बचपन का जादू भरा विज्ञान वाला box कबाड़ी 5 रूपये में ले गया।

मैं गया था बाजार में वो 5 रूपये लेकर कंपास (compass) ख़रीदने …………

पर शायद सही दिशा बताने वाले कंपास (compass) अब 5 रुपये में नहीं आते ………………

© आशीष कुमार  

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