हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-13- बहुत याद आया मुझे पिता सरीखा गाँव… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-13 – बहुत याद आया मुझे पिता सरीखा गाँव… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

आज एक बार फिर यादों का सिलसिला जालंधर में बिताये दिनों का  ! आज साहित्य के साथ साथ दो अधिकारियों का जिक्र करने जा रहा हूँ, जिनका साथ, साथ फूलों का! जिनकी बात, बात फूलों सी! बात है सरोजिनी गौतम शारदा और जे बी गोयल यानी जंग बहादुर गोयल की ! जंगबहादुर इसलिए कि स्वतंत्रता के आसपास इनका जन्म हुआ तो माता पिता ने नाम रख दिया- जंगबहादुर !

ये दोनों सन्‌ 1984 के आसपास हमारे नवांशहर में तैनात थे। सरोजिनी गौतम शारदा तब पजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में इकलौती महिला तहसीलदार थीं ! इनके पति डाॅ सुरेंद्र शारदा जालंधर के अच्छे ईएनटी स्पेशलिस्ट हैं और खुद शायरी लिखते  हैं और शायरों, अदीबों का बहुत सम्मान करते हैं ! सुदर्शन फाकिर के अनेक किस्से सुनाते हैं ‌! खैर, एक विवाह समारोह में पहले पहल तहसीलदार सरोजिनी  गौतम शारदा से किसी ने परिचय करवाया। मैंने सहज ही पूछ लिया – आप जैसी कितनी हैं?

जवाब आया – मैं अपने पापा की अकेली बेटी हूँ !

मज़ेदार जवाब के बाद मैंने बात स्पष्ट की कि मेरा मतलब आप जैसी कितनी महिला तहसीलदार हैं?

उन्होंने हैरान करते कहा कि पंजाब, हरियाणा और हिमाचल में मैं इकलौती महिला तहसीलदार हूँ और आपको मज़ेदार बात बताती हूँ कि मैं तहसील ऑफिस  में बैठी थी कि बाहर किसी बूढ़ी माँ ने पूछा कि तहसीलदार साहब हैं?

सेवादार ने कहा कि हां मांजी अंदर बैठे हैं। ‌वह बुढ़िया चिक उठा कर जैसे ही अंदर आई, उल्टे पांव लौट गयी और सेवादार से बोली कि झूठ क्यों बोले? अंदर तां इक कुड़ी जेही बैठी ए !

सेवादार ने कहा – माँ जी, वही तो है तहसीलदार !

उन्होंने कहा कि यह बताना इसलिए उचित समझा कि अभी लोग सहज ही किसी महिला को तहसीलदार के पद पर स्वीकार नहीं करते।

फिर मैंने कहा कि ऐसी बात है तो कल आता हूँ आपका इंटरव्यू करने!

मैं हैरान रह गया कि उनकी इ़़टरव्यू न केवल दैनिक ट्रिब्यून, पंजाब केसरी में आई बल्कि लोकप्रिय साप्ताहिक ‘धर्मयुग’ में भी प्रकाशित हुई, जिसकी कटिंग मुझे दो तीन साल पहले सरोजिनी गौतम ने दिखाई, जब मैंं सपरिवार जालंधर उनके घर दीनानगर जाते समय रुका था ! फिर हमारा बड़ा प्यारा सा पारिवारिक रिश्ता बन गया !

वे कांग्रेसी नेता श्री अमरनाथ गौतम की बेटी हैं और फगवाड़ा की मूल निवासी ! पहले फगवाड़ा के कमला नेहरू काॅलेज में ही अग्रेज़ी की प्राध्यापिका रहीं लेकिन कुछ अलग करने के मूड में तहसीलदार बनीं। पिताश्री गौतम ने भी साथ दिया।

कांग्रेस नेता की बेटी होने के कारण अकाली सरकार के राजस्व मंत्री उबोके भेष बदल कर जांच करने आये कि कितनी रिश्वत लेती हैं ! वे बेदाग रहीं और‌ जालंधर में तैनाती के समय एक बार उपचुनाव के समय निर्वाचन अधिकारी थीं कि मंत्री महोदय प्रत्याशी का फाॅर्म भरवाने दल वल के साथ पहुंचे तो कोई कुर्सी न देख कर बोले कि मैडम ! कुछ मेरे सम्मान का ख्याल तो रखा होता तब जवाब दिया कि सर ! पहले से बता देते लेकिन यह जनसभा का स्थान नहीं। आपने तो जितने निर्धारित लोग आने चाहिएं, उनकी गिनती का ध्यान भी नहीं रखा ! यह खबर बरसों बाद हिसार में रहते पढ़ी और मैंने इनके साहस को देखते फोन किया कि देश को ऐसे अधिकारियों की बहुत जरूरत है!

बहुत बातें हैं मेरी इस बहन कीं जो हैरान कर देती हैं! सेवानिवृत्त होने  पर खाली समय व्यतीत करने के लिए मनोविज्ञान की ऑनलाइन क्लासें ज्वाइन कर लीं और वहां कोई युवा प्राध्यापिका इन्हें बेटा, बेटा कह कर लैक्चर देती रहीं और जब वे पहले साल प्रथम आईं और इनका अखबारों में फोटो प्रकाशित हुआ तब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ ! मेरी हर किताब इनके पास पहुंचती है और वे हर बार उलाहना देती हैं कि मैं इसकी सहयोग राशि देना चाहती हूँ और मैं जवाब देता हूँ कि इस भाई के पास बस यही उपहार है देने के लिए ! जब जालंधर जाता हूँ तब डाॅ शारदा और सरोजिनी को जैसे चाव चढ़ जाता है।

खैर ! अब जे बी गोयल को याद कर रहा हूँ जो न केवल अधिकारी रहे बल्कि पंजाबी के अच्छे व चर्चित लेखक भी हैं। ‌उनकी पत्नी डाॅ नीलम गोयल नवांशहर के बी एल एम गर्ल्स काॅलेज की प्रिंसिपल भी रहीं ! बाद में प्रमोशन होने पर श्री गोयल नवांशहर के जिला बनने पर सबसे पहले डीसी भी बने !  इन्होंने नवांशहर पर एक पुस्तक भी संकलित करवाई, जिसमें मुझसे भी दैनिक ट्रिब्यून में सम्पर्क कर आलेख प्रकाशित किया! इनका ज्यादा काम स्वामी विवेकानंद पर है जिसे पंचकूला के आधार प्रकाशन ने प्रकाशित किया है, यही नहीं विश्व प्रसिद्ध उपन्यासों का पंजाबी में अनुवाद भी किया है। ‌इन्हें अनेक सम्मान मिले हैं। ‌बेटी रश्मि को जिन‌ दिनों पी जी आई चैकअप के लिए ले जाता तो इनके यहां भी जाता और ये बातों बातों में इतना हंसाते कि हम बेटी की बीमारी भूल जाते और शायद इनका मकसद भी यही था। वे कहते हैं कि यह जो सम्मान पर अंगवस्त्र दिया जाता है और लेखक को बिना कोई सही सम्मान दिये खाली साथ आना पड़ता है, उससे मुझे बहुत अजीब सा लगता है कि यह कैसा सम्मान? चलिए आपको इनकी कविता की पंक्ति के साथ आज विदा लेता हूँ :

बहुत याद आया मुझे

अपंना पिता सरीखा गांव!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 6 – संस्मरण – दिखावा – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  संस्मरण – दिखावा)

? मेरी डायरी के पन्ने से… संस्मरण – दिखावा – द ग्रेट नानी  ?

शिक्षण के क्षेत्र से जुड़े रहने के कारण तथा टीचर ट्रेनर होने के कारण कई स्थानों पर कभी-कभी वर्कशॉप लेने के अवसर मुझे मिलते रहे।

कुछ समय तक मैं निरंतर गुजरात के विभिन्न शहरों में वर्कशॉप लेने जाया करती थी। उस वर्ष भुज शहर के कुछ विद्यालयों के साथ मैं काम कर रही थी।

मेरे साथ एक एसिसटेंट भी हुआ करती थी। उसका नाम था सौदामिनी। मैं उसे अक्सर सौ कहकर ही पुकारती थी। एक तो उसे बात-बात पर खिलखिलाकर हँसने की आदत थी और दूसरी विशेषता यह थी कि उसके सान्निध्य में मुझे सौ लोगों के बीच रहने का सुख अनुभव होता था। वह बहुत बातूनी भी थी। उसकी तत्परता और उपस्थित बुद्धि दोनों ही मुझे बहुत अच्छी लगती थी।

हम लोगों को पुणे से भुज तक जाने के लिए एक रात का सफ़र तय करना था। दिक्कत यह थी कि उस मार्ग की रेलगाड़ी में केटरिंग की कोई व्यवस्था नहीं थी। अतः अपने साथ पर्याप्त वस्तुएँ ले जाने की जरूरत पड़ती थी।

रात के 7:30 बजे गाड़ी चलती थी और दूसरे दिन शाम को करीबन 6:00 बजे भुज पहुँचती थी। उन दिनों यह गाड़ी सप्ताह में एक ही दिन चलती थी।

समयानुसार गाड़ी चल पड़ी और हमारी यात्रा शुरू हो गई। हमारे साथ डिब्बे में हमारेवाले हिस्से में अधिकतर महिलाएँ ही थीं। थर्ड क्लास एसी की बुकिंग थी।

गाड़ी के छूटते ही सभी महिलाएँ जो डिब्बे में थीं एक दूसरे से वार्तालाप करने लगीं। यह सिलसिला काफ़ी समय तक चलता रहा। एक दूसरे से परिचित होना, नाम, धाम, कार्यक्षेत्र आदि विषयों पर कुछ देर तक चर्चा होती रही।

डिब्बे में जो दो पुरुष थे उन्होंने ऊपर के बंकों में अपनी जगह सुरक्षित कर ली थी क्योंकि नीचे चार महिलाएँ और साइड की दो महिलाएँ आपस में घुल मिल गई थीं। इसमें अधिकतर महिलाएँ बिजनेस वोमन थीं।

महिलाओं में आपस में कई विषयों पर चर्चा छिड़ गई। वर्तमान शिक्षा प्रणाली पर, वर्तमान युवा पीढ़ी के दृष्टिकोण तथा व्यवहारों पर, राजनीतिक परिस्थितियों पर तथा गुजरात की विशेषताओं पर। विशिष्टरूप से अधिक तर महिलाएँ गुजराती थीं तो वे वहाँ के उत्सव, पतंग उत्सव, गरबा नृत्य आदि पर भी गर्व से काफी चर्चा करने लगीं।

रेलगाड़ी में बैठकर दो घंटे तो वैसे बीत चुके थे। महिलाओं का प्रिय विषय भोजन पर चर्चा शुरू हुई। हमारे साथ एक सिंधी महिला भी थीं। वे आधुनिक कई पाक क्रिया पर चर्चा कर रही थीं। कुछ अन्य महिलाओं ने तो अपनी -अपनी डायरियाँ ही खोलकर कुछ लिख भी डालीं। सूप, चायनीज़ भोजन आदि।

उस महिला की उँगलियों में अनेक हीरे की अँगूठियाँ थीं जिस प्रकार के सूटकेस लेकर वे चल रही थीं उससे ज़ाहिर था कि वे काफी धनाढ्य परिवार से थीं। परंतु उसके साथ ही साधारण लोगों के साथ उठना – बैठना एवं मिलना वे शायद पसंद भी करती थीं। वे काफ़ी स्टाइलिश भी थीं यह वेश-भूषा से ही स्पष्ट हो रहा था।

हर जगह ऐसे मौकों पर मैं श्रोता बनकर रहना अधिक पसंद करती हूँ। मुझे लोगों को निहारने, उनकी बातें सुनने में मज़ा आता है इससे मुझे अपनी कहानियाँ या संस्मरण लिखने के लिए पर्याप्त मसाले भी मिल जाते हैं।

वैसे भी मेरे साथ बातूनी सौ उपस्थित थी तो मुझे बात करने की आवश्यकता नहीं होती थी। मेरी सौ मेरी चुप्पी की कमी पूरी कर देती थी। उसमें जिज्ञासा बहुत थी और वह लोगों से खूब सवाल पूछती थी। सहज -सरल, चुलबुली स्वभाव की सौ बड़ी आसानी से सबके साथ घुलमिल जाती थी। ।

सौ की एक और खासियत थी कि वह लोगों से ईमेल आई डी लेकर उनके साथ पत्र व्यवहार भी जारी रखती थी। अब तक तो उसने संभवतः आधी दुनिया से रिश्ता जोड़ लिया होगा। उन दिनों उसके पास एक अत्याधुनिक कैमरा था जिसकी सहायता से वह हमारे वर्कशॉप की विडियो शूट किया करती थी।

हमारी यात्रा जारी थी। सौ सिंधी महिला से अत्यंत प्रभावित थी। चलिए अपनी सुविधा के लिए उनका नाम कोमल रख लेते हैं। वैसे आज मुझे उनका नाम याद नहीं। बस वह घटना याद है जो चिर स्मरणीय है।

रात के नौ बज चुके थे। अब तो हमारे डिब्बे में अलग-अलग प्रकार की खुशबू आ रही थी। सभी अपना – अपना भोजन का डिब्बा खोल चुके थे। ढोकला, थेपला, अचार, मुरब्बे पराँठे, सब्जियां और उसके साथ इडली चटनी, पूड़ी सब्जी आदि।

कोमल जी का डिब्बा बड़े करीने से सजा था। वे पेपर प्लेट, टिश्यूपेपर और प्लास्टिक की चम्मच निकालने लगीं। भोजन में हाथ लगाने से पूर्व उन्होंने एक तरह की सुगंधित तरल पदार्थ से अपने हाथों को स्वच्छ किया।

उत्साहवश हमारी सौ ने उनसे पूछ ही लिया कि वह हाथ में क्या लगा रही थीं उत्तर में कोमल जी ने बताया कि यह सैनिटाइजर है। अर्थात हाथ में अगर कोई जीवाणु हो तो उसका सफ़ाया हो जाएगा।

(पाठकों से यह बताना आवश्यक है कि जिस समय की यह घटना है उस समय सैनिटाइजर की प्रथा आम लोगों में नहीं थी और ना ही लोग उसका उपयोग आज की तरह किया करते थे।)

मैं ध्यान से कोमल जी को देखती रही। हर वस्तु बड़ी अच्छी तरह से प्लास्टिक के विभिन्न प्रकार व आकार के पैकेटों में लपेटी हुई थी। पूड़ी- सब्जी तथा सॉस के सेशे भी थे। अब कागज की बनी प्लेटों पर विभिन्न भोजन सजाए वह सभी को बड़े प्रेम से खिला रही थीं ऊपर बंक में लेटे व्यक्तियों को ज़बरन उठा- उठा कर भाई साहब, भाई साहब कहकर प्रेम से सबको खाना परोस कर खिला रही थीं।

सौ ने बड़ी आत्मीयता से पूछा, ” कोमल जी आपके घर पर ना रहने से आपके पति व बच्चे आपको बहुत मिस करते होंगे न!”

इस पर ज़रा – सा झेंपकर अपनी अदा से माथे पर लटकी जुल्फों को उन्होंने गर्दन झटका कर पीछे हटाया एक मधुर – सी मुस्कान के साथ बोलीं, ” जी सो तो है। दे मिस मी अ लॉट ” उनके बातचीत करने के ढंग में भी काफी आधुनिकता थी और वे काफी स्टाइल से बातें किया करती थीं।

सभी ने अनेक प्रकार के भोजन का आनंद लिया। बातचीत में समय अच्छा कट रहा था। अब कोमल जी ने एक बड़ा – सा, ऊँचा – सा टप्पर वेयर का डिब्बा निकाला और उसमें रखे बेसन के लड्डू सबको खिलाने लगीं। साथ में गीले टिश्यू पेपर भी पकड़ाती रहीं। बार-बार कहती रहीं, ” भोजन के बाद थोड़ा स्वीट खाना तो बनता ही है। ” साथ में यह भी बोलीं कि ” यह तो घर का बना हुआ है, मैं अब मायके से लौट रही हूँ न!” जो पुरुष अब तक ऊपर बैठे थे वे भी भोजन करने के लिए नीचे उतर आए थे।

आठ लोगों की अच्छी मजलिस जमी हुई थी अब। कई प्रकार की बातें हँसी – ठठ्ठा आदि सब कुछ चलने लगा। ऐसा लगने लगा मानो सभी एक ही परिवार के सदस्य थे। शायद रेल में सफ़र करनेवाले लोग इसी तरह कुछ समय के लिए मिलते हैं और फिर बिछड़ भी जाते हैं।

भोजन समाप्त कर सब अब सोने की तैयारी करने लगे। रेलवे सेवा की ओर से सभी यात्रियों को कंबल चद् दर व तकिया दिए गए थे। अब सब आराम से सोना चाहते थे। दूसरे दिन शाम को ही सब अपनी मंजिल तक पहुँचने वाले थे।

अचानक बत्ती बंद करने से पहले कोमल जी ने बड़ी मीठी और सुरीली आवाज में एक सवाल किया, ” यहाँ कोई खर्राटे तो नहीं लेता है ना! मुझे खर्राटों से सख्त नफ़रत है।

मैं रात भर सो नहीं सकती। अगर किसी को खर्राटों की आदत हो तो….प्लीज़……

उनकी मधुर, मीठी, सुरीली आवाज़ में पूछे गए प्रश्न का किसीने कोई उत्तर नहीं दिया। लेकिन एक चुप्पी और सन्नाटा ने अचानक सबको चुप रहने के लिए विवश कर दिया।

थोड़ी देर सभी चुप रहे तथा बगलें झाँकने लगे। पर हमारी सौ कहाँ चुप रहती भला! उसने तुरंत कोमल जी से पूछ ही लिया, ” मैडम, आपको खर्राटे से इतनी नफ़रत आख़िर क्यों है ?”

कोमल जी मानो उत्तर देने के लिए प्रस्तुत ही बैठी थीं। अपनी अदाओं और लटकों -झटकों से अपनी ज़ुल्फों को पीछे हटाते हुए बोलीं, “एक्चुअली मेरे हस्बैंड को खर्राटे लेने की बड़ी बुरी आदत है। मैं उनके इस आदत से बहुत परेशान हूँ। मुझे रात भर नींद नहीं आती। आजकल तो अक्सर मैं बाहर के बैठक में ही सो जाती हूँ। क्या करूँ मुझे तकलीफ़ जो होती है। “

फिर क्या था सब को मानो चर्चा के लिए नया विषय ही मिल गया। कोई अपने पति की कोई पिता की और तो कोई माता के खर्राटे भरने की बात पर चर्चा करने लगा। घंटा भर सभी चर्चा का आनंद लेते रहे। उस चर्चा के दौरान विभिन्न प्रकार के खर्राटों की भी चर्चा होती रही। सभी ने सहर्ष इस चर्चा में हिस्सा लिया। इस प्रकार एक मनोविनोद का वातावरण वहाँ निर्माण हो गया।

रात काफी हो चुकी थी। उस एसी कंपार्टमेंट के अन्य सभी सदस्य अपनी बत्तियाँ बुझा कर सोने का प्रयास कर रहे थे। पर हम सब की चर्चा हँसी और शोर ने औरों को भी शायद परेशान ही कर दिया था।

मैंने धीरे से कहा, ” चलिए अब सोया जाए। इस विषय पर चर्चा कल सुबह जारी रखेंगे। ” सभी को इस बात का अहसास हुआ कि बाकी सभी लोगों ने बत्ती बंद कर दी थी अतः हम लोगों ने भी एक दूसरे को गुड नाईट कहा और अपनी-अपनी चादरों और कंबलो में दुबक गए।

दूसरे दिन सुबह सभी उठे तो पहले कोमल जी ने सबसे फिर उसी सुरीली, मधुर आवाज में धन्यवाद कहा। सबको पता तो था कि कोमल जी ने सुबह-सुबह सबको धन्यवाद क्यों कहा पर फिर भी सौ उनकी थोड़ी बहुत खिंचाई करना चाहती थी। फिर अपनी मधुर मीठी सुरीली आवाज में कोमल जी ने कहा, “आप सब ने रात को खर्राटे नहीं लिए और मैं आराम से सो सकी इसलिए धन्यवाद कह रही हूँ। इतना कहकर वे अपना ब्रश- पेस्ट और हैंड टॉवेल लेकर डिब्बे के बाहर की ओर चली गईं।

उनके पीछे मुड़ते ही सौ ने अपना मोबाइल निकाला और मुझे कोमल जी की सभी तस्वीरें जो उसने पिछली रात को खींची थी दिखाई। रात के समय वह विभिन्न आवाजों में खर्राटे भर रही थीं। उस तस्वीर को देखकर और आवाज सुनकर डिब्बे की बाकी महिलाएँ ठहाका मारकर हँसने लगीं। इतने में कोमल जी ब्रश करके लौट आईं। तो सब की ओर देखकर थोड़ी देर अवाक – सी सबका मुँह ताकती रह गईं। फिर उन्हें देखकर हँसने वालों ने अपने मुँह पर हाथ रख लिया या दुपट्टे रख लिए। तो उन्होंने फिर सुरीली आवाज में पूछा, ” वाह किस जोक पर आप सब हँस रही हैं? मुझे भी तो उसमें शामिल कीजिए “।

सौ ने बड़ी अदा से कोमल जी के सीट पर बैठ जाने पर कहा, ” यह देखिए आपकी तस्वीरें। क्या आपने धन्यवाद इसलिए कह रही थीं क्योंकि सब ने आपके खर्राटे सहन किए रात भर ? वैसे मैं तो जागती ही रही रात भर। तभी तो यह तस्वीरें ले सकी। सॉरी आपको पूछे बिना ही मैंने ये क्लिक किए। “

कोमल जी कैमरे में कैद अपनी खर्राटे भरती हुई तस्वीरें देखकर अत्यंत लज्जित हुईं शायद क्रोधित भी।

सौ ने भी क्षमा माँगकर सारी तस्वीरें डिलीट कर दी।

फिर बाकी सारा दिन कोमल जी किसी से ना बोलीं और ना ही भोजन की पिटारी खुली। शायद अपने अमृततुल्य भोजन खिलाकर वे सबको उनके खर्राटे सहन करने के लिए तैयार कर रही थीं।

सौ की शरारती मैं कभी नहीं भूलूँगी।

आज वह मेरे साथ नहीं है लेकिन उसकी कुछ बातें और भुज की वह यात्रा सदैव स्मरणीय रहेगा।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

डॉ.वंदना पाण्डेय

परिचय 

डॉ.वंदना पाण्डेय

शिक्षा – एम.एस.सी. होम साइंस, पी- एच.डी.

पद : प्राचार्य,सी.पी.गर्ल्स (चंचलबाई महिला) कॉलेज, जबलपुर, म. प्र. 

विशेष – 

  • 39 वर्ष का शैक्षणिक अनुभव। *अनेक महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय के अध्ययन मंडल में सदस्य ।
  • लगभग 62 राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में शोध-पत्रों का प्रस्तुतीकरण।
  • इंडियन साइंस कांग्रेस मैसूर सन 2016 में प्रस्तुत शोध-पत्र को सम्मानित किया गया।
  • अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान शोध केंद्र इटली में 1999 में शोध से संबंधित मार्गदर्शन प्राप्त किया। 
  • अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी ‘एनकरेज’ ‘अलास्का’ अमेरिका 2010 में प्रस्तुत शोध पत्र अत्यंत सराहा गया।
  • एन.एस.एस.में लगभग 12 वर्षों तक प्रमुख के रूप में कार्य किया।
  • इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक काउंसलर ।
  • आकाशवाणी से चिंतन एवं वार्ताओं का प्रसारण।
  • लगभग 110 से अधिक आलेख, संस्मरण एवं कविताएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।

 प्रकाशित पुस्तकें- 1.दृष्टिकोण (सम्पादन) 2 माँ फिट तो बच्चे हिट 3.संचार ज्ञान (पाठ्य पुस्तक-स्नातक स्तर)

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  “स्व डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तवके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆

“बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव☆ डॉ.वंदना पाण्डेय

“देखना  चाहा न अपना भार कितना ?

और कलियों में चटक श्रृंगार कितना ?

चल रहे दो पैर जिस विश्वास में 

कर्म का निर्वाह थकती सांस में 

दे चुके सर्वस्य यह जीवन त्याग में 

डूब कर मिलजुल सजल अनुराग में।”

किसी विद्वान कवि की यह पंक्तियां मानो डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव के लिए ही लिखी गई हैं,जो कि उनके व्यक्तित्व को उजागर करती हैं । 01 सितंबर 1916 को डॉ. श्रीवास्तव का जन्म कटनी जिले के पीपल के वृक्षों से घिरे हुए गाँव “पिपरहटा” में हुआ। चूँकि आपके पिताश्री प्यारेलाल श्रीवास्तव कटनी में ही शासकीय सेवा में थे अतः आप की प्रारंभिक शिक्षा कटनी में हुई। शिक्षा के प्रति गहन रुचि और परिश्रमी स्वभाव ने उन्हें उच्च शिक्षा हेतु जबलपुर आने बाध्य कर दिया। शिक्षा प्राप्ति के साथ आपने लेखन कार्य भी जारी रखा। नागपुर विश्वविद्यालय से आपने हिंदी विषय में स्नातकोत्तर परीक्षा मेरिट में पास की। बुंदेली भाषा के अटूट प्रेम ने ही आपको ‘बुंदेली लोक साहित्य’ पर शोध कार्य हेतु प्रेरित किया।  जबलपुर विश्वविद्यालय के इतिहास में ‘बुंदेली साहित्य’ पर यह प्रथम शोध था। डॉ. श्रीवास्तव ने जबलपुर के सर्वाधिक प्राचीन शिक्षा संस्थान हितकारिणी महाविद्यालय में प्राध्यापकीय कार्य किया एवं प्राचार्य पद को भी सुशोभित किया। उन्होंने जबलपुर विश्वविद्यालय के एम.ए. के पाठ्यक्रम में ‘लोक- साहित्य’ को एक विषय के रूप में सम्मिलित कराया । आपके निर्देशन एवं मार्गदर्शन में अनेक शोधार्थियों ने   ‘विद्यावाचस्पति’ की उपाधियाँ  प्राप्त कीं।

डॉक्टर श्रीवास्तव एक श्रेष्ठ शिक्षक थे। वे अपने विद्यार्थियों के अंतस से सदैव जुड़े रहे। उनके विद्यार्थी उन्हें अपना सच्चा हितैषी एवं पथ प्रदर्शक मानते थे। देश- प्रदेश को उन्होंने संस्कारवान एवं ख्यातिलब्ध शिष्य प्रदान किए । जिनमें प्रमुख रूप से रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति एवं अंतरिक्ष वैज्ञानिक डॉ शिव प्रसाद कोष्टा, प्रसिद्ध दार्शनिक डॉ. जे.पी. शुक्ला, आध्यात्म गुरु स्वामी प्रज्ञानंद जी, पूर्व राज्यपाल निर्मल चंद जैन, पूर्व महाधिवक्ता एड .राजेंद्र तिवारी, पूर्व महापौर जबलपुर शिवनाथ साहू, मानस मर्मज्ञ डॉ.रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत”, पूर्व मंत्री मध्यप्रदेश राजबहादुर सिंह ठाकुर आदि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है । यद्यपि डॉ. पूरनचंद जी की लोक साहित्य, संस्कृति एवं लोक विज्ञान में विशेष रुचि थी किंतु उनकी कलम भूगोल, सामाजिक विज्ञान, प्रकृति के सौंदर्य, पर्यावरण, व्रत व त्यौहारों, विभिन्न व्यक्तित्व और उनके कृतित्व, आत्मकथा, बाल साहित्य के साथ-साथ अन्य विषयों पर भी खूब चली। ‘यदि ये बोल पाते’ के रूप में उन्होंने चेतन बोध कराने वाली अद्भुत कथाएं भी लिखीं, जिसमें वृक्षों, पक्षियों, पत्थरों आदि के भावों को सुंदर शब्दों में व्यक्त कर अनोखा सृजन किया। ‘भौंरहा पीपर’ ,’रानी दुर्गावती खण्ड-काव्य’, ‘यदि ये बोल पाते’ आदि उनकी अत्यंत ही चर्चित बुंदेली-हिंदी रचनाएं हैं। बुंदेली लोक साहित्य का अध्ययन, उनकी समालोचनात्मक व्याख्या, बुंदेली शब्द भंडार का भाषा वैज्ञानिक अध्ययन,बुंदेली शब्द भंडार के स्रोत, बुंदेली शब्दकोश, संस्कृत की कहावतों और मुहावरों का बुंदेली कहावतों और मुहावरों पर प्रयोग, लोक साहित्य और परिनिष्ठित साहित्य का पारस्परिक संबंध आदि आदि उनकी प्रमुख और प्रतिष्ठित रचनाएं हैं । ‘बुंदेली साहित्य’ पर सम्भवतः इतना अधिक कार्य किसी ने नहीं किया । आपने बुंदेली-साहित्य का न केवल संरक्षण किया वरन उसका संवर्धन कर उसे क्षितिज तक पहुँचाने का प्रयास भी किया। लेखन के साथ-साथ नागपुर, जबलपुर भोपाल के आकाशवाणी और दूरदर्शन केंद्र द्वारा उनकी कविताओं, लेखों और वार्ताओं का समय-समय पर प्रसारण होता रहा। अनेक गायक-गायिकाओं ने उनके लिखे बुन्देली गीत गाए जो आज भी पसंद किए जाते हैं । अनेक गौरवशाली संस्थाओं ने संस्कारधानी के इस ‘गौरव- पुरुष’ को सम्मानित किया। बुंदेली साहित्य के उनके इस अनुपम और अद्वितीय महत्वपूर्ण योगदान के कारण ही उनके जन्मदिवस 01 सितम्बर को ‘बुंदेली दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी बहुआयामी व्यक्तित्व वाले डॉ पूरनचंद श्रीवास्तव अक्खड़-फक्कड़ प्रवृत्ति के माने जाते थे, किंतु वे अत्यंत सहृदय और सर्वप्रिय थे। वे  आत्मवंचना एवं आत्मप्रदर्शन से सदैव दूर रहे । ग्रामीण परिवेश, वहां के प्राकृतिक सौंदर्य को बड़ी खूबी के साथ उन्होंने शब्दों में उकेरा।  अनुपम कृति “भौंरहा पीपर” की अविस्मरणीय पंक्तियों में उनका लेखन बड़ा अद्भुत और मर्मस्पर्शी जान पड़ता है। जिसमें उनके गांव का पीपल अपना इतिहास बताता है-

“मैं पीपर को बिरछ, गांव में अबलौं एक खडो हों,

बहुत दिना भए बीरन सें,अकबर सें तनक बड़ो हों।”

प्रेम-उल्लास से भरे बुंदेली तीज-त्यौहारों का वर्णन आपकी कविताओं में बड़ी सरसता के साथ देखने को मिलता है। दूसरी ओर वीर-रस से भरी कविताएं जिसमें “वीरांगना रानी दुर्गावती” (खंडकाव्य) अत्यंत ही चर्चित और रोमांचित करने वाला बुंदेली खंडकाव्य है  –

“चली प्रलय से जूझन रानी रणचंडी अकुलाई ।

 गंग-यमुन उत उठीं हिलौरें, इत रेवा उमड़ाई।।”

सदैव संतुष्ट दिखाई देने वाले डॉ. श्रीवास्तव जी के जीवन में संघर्ष और बाधाएं भी आईं, किंतु उन्होंने न केवल उन बाधाओं, कंटकों को हटाया वरन लोगों को भी साहस और धीरज का पाठ  पढ़ाया। उनकी एक कविता की बानगी देखिए-

     “साहस ही सम्बल है,

                 धीरज धर भरिए डग.. 

                          करिए सब काम।” 

डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव जी प्राध्यापक होते हुए भी उपदेश देने पर  विश्वास नहीं रखते थे वरन उनका व्यक्तित्व ही उपदेश था। उनका आंतरिक मन जितना मानवीय गुणों से श्रृंगारित था बाह्य स्वरूप उतना ही सादगी पूर्ण और आडंबर रहित था । उनकी स्मृति कर्म और कर्तव्य का बोध कराती है। डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव साहित्य के ऐसे अमिट हस्ताक्षर हैं, जिन्हें भूल पाना नामुमकिन है। व्यक्ति अपने व्यक्तित्व से सुरभित होता है और व्यक्तित्व,कृतित्व से। अपने व्यक्तित्व और कृतित्व के कारण उन्हें याद किया जाता रहेगा। हर बार,और बार-बार …..

 कहा गया है –

“ए अज़लआदमी दुनिया से गुजर सकता है

 पर  कारनामा तेरे मारे नहीं मर सकता..।”

——————————

डॉ. वंदना पाण्डेय 

संपर्क : 1132 /3 पचपेड़ी साउथ सिविल लाइंस, जबलपुर, म. प्र. मोबाइल नंबर :  883 964 2006 ई -मेल : [email protected]

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-12 – अपने पांव तले कभी आसमान मत रखना! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-12 – अपने पांव तले कभी आसमान मत रखना! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

अभी जालंधर ही जालंधर है मन में ! यादों की पगडंडियों पर चलता जा रहा हूँ, कभी आगे तो कभी पीछे ! चलता जा रहा है, यादों का करवां ! कभी किसी की याद आती है, तो कभी किसी की याद सताती है ! किसी शख्स को याद कर मन खुशियों से भर जाता है, तो किसी का जिक्र आने पर मन में कुछ कसैला सा भाव उपजता है ! मैं इस कसैलेपन को पूरी तरह छिटक कर, दूर फेंक कर उनकी अच्छी छवि गढ़ना चाहता हूँ और यह सवाल कौंध जाता है कि पुराने, परिपक्व रचनाकारों को अपने से पीछे आने आने वाले लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? क्या उन्हें नये रचनाकारों को  सम्मान नहीं देना चाहिए ? नयी पौध को अपने स्नेह से सींचना नहीं चाहिए?

आज ऐसे ही आत्ममुग्धता से घिरे व्यक्तित्व‌ मित्र सुरेश सेठ की याद ह़ो आई है ! इनका घर जालंधर के बस स्टैंड के बिल्कुल बायीं ओर‌ पड़ता है ! बस से उतरते ही कदम उनके घर की ओर बढ़ जाते रहे हैं ! कभी जालंधर आकाशवाणी केंद्र या दूरदर्शन पर कार्यक्रम देने जाते समय इनके पास दो घड़ी बतिया कर जाता था । यह तो बाद में पता चला कि इनके बड़े भाई ही हैं, सुरेंद्र सेठ, जो बहुत ही शानदार एंकर थे दूरदर्शन पर ! यानी दोनों भाई अपने अपने क्षेत्र में पारंगत !

सुरेश सेठ की कुछ कहानियां आज भी मन में ताज़ा हैं ! ये कहानियां ‘ धर्मयुग’ और ‘ सारिका’ में प्रकाशित हुई थीं। इनमें एक कहानी राजनीतिक दलालों पर है, जो पहले अपनी खूबसूरत पत्नी को साथ लेकर बड़े नेताओं या उच्चाधिकारियों के पास लुभाने के लिए ले जाता है और पत्नी की खूबसूरती ढल जाने पर अपनी बेटी को ही दांव पर लगा देता है! उफ्फ!

दूसरी कहानी मध्यवर्गीय समाज की विवशताओं  पर केंद्रित है! इसमें एक मध्यवर्गीय नवविवाहित जोड़ा यह सोचता ही रह जाता है कि काश ! वे भी हनीमून पर किसी पहाड़ पर जा पाते ! पारिवारिक जिम्मेदारियां इनको ज़िंदगी भर अपने बोझ तले बुरी तरह दबाये रहती हैं । आखिरकार पति इतना बीमार पड़ जाता है कि उसे पी जी आई में दाखिल करना पड़ता है, जहां प्राइवेट रूम में वह कांच की खिड़की के बाहर दो चिड़ियों को देखकर सोचता है- वन फार साॅरो एंड टू फार जाॅय! वह अपनी पत्नी को कहता है कि हम हनीमून पर तो नहीं जा पाये लेकिन यह रूम ऐसे ही है, जैसे कि हम किसी हिल स्टेशन पर आ गये हो़‌ंं !

अफसोस! इस बड़े रचनाकार का दिल कभी भी अपने पीछे आने वालों के प्रति प्रोत्साहन वाला नहीं बल्कि ईष्यालु भाव से भरा रहा, जिस कारण ये नयी पीढ़ी से संवाद नही कर पाये! यह बहुत बड़ी ट्रेजेडी है! अब बहुत देर‌ हो चुकी है! वैसे ये अच्छे व्यंग्यकार और स्तम्भकार भी हैं ! जब कभी जालंधर जाता हूँ तो आज भी कदम इनके घर की ओर बढ़ जाते हैं! यह भाव, यह प्यार तो बना रहना चाहिए!

मित्रो ! यहीं रमेश बतरा फिर से याद हो आये हैं, जो अपने सहयात्री लेखकों को अपने साथ लेकर चलते रहे ओर चाहे ‘साहित्य निर्झर’ का संपादन हो या फिर ‘ सारिका’ या फिर ‘संडे मेल’ साप्ताहिक, सभी में अपने सहयात्रियों की रचनाएँ मांग कर प्रोत्साहित करते रहे! मैंने भी ‘दैनिक ट्रिब्यून’ या फिर हरियाणा ग्रंथ अकादमी क्षकी मासिक पत्रिका ‘कथा समय’ हो, नये रचनाकारों को मंच प्रदान करने की कोशिश की !

आज का यही सबक है कि किसी भी क्षेत्र में, जो वरिष्ठ हैं, उन्हैं नयी पीढ़ी को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसीलिये यह कहीं पढ़ा हुआ याद आ रहा है कि नयी पीढ़ी को रास्ता दे दो, नही तो वह ज़ोरदार धक्का देकर अपना स्थान बना लेगी ! इसलिए अपनी छांव देनी चाहिए न कि ईर्ष्या !

बस! आज इतना कहकर बात के सिलसिले को थाम लूंगा कि

तुम ही तुम हो एक मुसाफिर, यह गुमान मत करना

अपने पांव तले कभी आसमान मत रखना!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 5 – बचपन की सुखद स्मृतियाँ – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  द ग्रेट नानी )

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – बचपन की सुखद स्मृतियाँ ?

मनुष्य को ईश्वर की एक बहुत बड़ी देन है और वह है स्मरण शक्ति। यह बैंक में जमा की गई धन राशि के समान है! इसे जब चाहो खर्च करने का मौका देती है। इन्सान के बचपन की स्मृतियाँ भी कुछ ऐसी ही होती हैं। बाल्यकाल की  घटनाओं को जब बड़े होने पर याद करते हैं तब कुछ और ही रसास्वाद का आनंद मिलता है। एक बार फिर बचपन में लौट जाने की तीव्र इच्छा होती है।

वैसे तो मेरे बचपन की कई सुखद स्मृतियाँ हैं जिन्हें याद कर मैं कभी कविता तो कभी लघु कथाएँ लिखती हूँ और फिर बचपन के सागर में डूबती –  तैरती हूँ। पर आज मैं आप सबके साथ अपना एक अनुभव साझा करती हूँ।

अपने बचपन में मैं टॉम बॉय थी। भाई के दोस्त ही मेरे भी दोस्त हुआ करते थे। उन दिनों हम चतु:शृंगी के पास अंबिका सोसायटी में रहते थे। कॉलोनी बंगलों की कॉलोनी थी। कई हमउम्र लड़कियाँ भी थीं जिनके साथ सागर गोटे, पिट्ठुक, भातुकुली आदि का भी मैं आनंद लेती थी पर लड़कों के साथ खेलना शायद और चैलेंजिंग था।

नियमित रूप से चतुरश्रृंगी पहाड़ के ऊपर चढ़ा भी करते थे। होड़ लगाते थे कि कौन सबसे पहले ऊपर चढ़े।

उन दिनों मोहल्ले के लड़के गुल्ली डंडा, कंचे, गुलैल, पतंग, लट्टू आदि से अधिक खेलते थे।

दुख की बात है कि आज ये खेल गँवारों के खेल समझे जाते हैं।

उन दिनों मेरी उम्र नौ वर्ष रही होगी। लड़कों में अपनी जगह बनाने के लिए मैं अपने दादा के हाफ़ पैंट पहनती थी। घर पर किसी ने टोका नहीं, शायद टॉम बॉय सी थी और छोटी थी यह सोचकर कुछ न बोले होंगे। हमारे वस्त्र हमारे व्यक्तित्व की पहचान होते हैं। मुझे भी पैंट पहनकर खेलने में आसानी होती थी। लड़कों के साथ भिड़ जाने में और आवश्यकतानुसार उनकी कुटाई करने में भी आसानी होती थी।

शुरू – शुरू में  तो मैं दादा के पीछे – पीछे रही पर धीरे – धीरे सबके साथ घुल-मिल गई फिर खेलने और जूझने की बुद् धि व क्षमता दोनों बढ़ गई। पैंट की जेबों में ढेर सारे कंचे होते, कुछ खेलते समय जीते हुए और कुछ दादा की नज़रें बचाकर उनकी पैंट की जेबों से चुराए हुए! उस वक्त कभी चोरी का अहसास न हुआ न गिल्ट फीलिंग्स ही। जहाँ मौक़ा मिला ज़मीं पर उँगली से गहरे छेद बनाकर  पारंगतता हासिल करने के लिए एकलव्य की तरह अकेले में ही कंचे खेलने का अभ्यास करती  रहती ताकि खूब कंचे बटोर सकूँ। घुटने इतने गंदे, बेढब और छिले से होते मानो खेत में काम करनेवाले किसी मज़दूर के घुटने हों। माँ डाँटती तो हौज के पानी से पैर धो लेती और साफ घर को धूल मिट् टी से भर देती।

मैं बचपन में शरारतों से पटी हुई थी।

कंचे, गिल्ली – डंडा खेलना आ गया तो अब गुलैल चलाने की बारी आई। दादा के मित्र मेरे मित्र थे इनमें कुछ हमउम्र भी थे। अंबिका सोसाइटी में सबके घर में खूब बाग बगीचे थे। आम, जामुन, आँवले, अमरूद आदि के पेड़ लगे थे। सभी वृक्ष खूब फल देते। एक दिन दोपहर के समय दो मित्र आए, कहा चलो आँवले तोड़ते हैं। मैं भी साथ हो ली। अपने घर के पिछवाड़े एक घर में खूब आँवले लगे थे। हम चुपके से वहाँ पहुँचे। उन दोनों ने कहा देखें तेरा निशाना कैसा है। मैं भी तैयार थी। पास के ही दूसरे एक वृक्ष पर चढ़कर गुलैल साधकर आँवले तोड़ने लगी। दो चार टपके भी, हिम्मत बढ़ गई। उन दिनों मैं नौ सीखिए थी, अभी अचूक निशाने मारने में माहिर न थी। बस निशाना चूका और बंगले की खिड़की के शीशे झनाझनाकर कुछ घर के फ़र्श पर और कुछ बगीचे में गिरे।

दोनों साथी मुझे वहीं छोड़ फरार हो गए और मैं अभी भी पेड़ से छलांग लगा कर उतर ही रही थी कि उस घर के दादजी जिन्हें हम सब आजोबा कहते थे, घर से बाहर आ गए। पहले तो कान पकड़कर मरोड़ा, फिर उच्च पदस्थ पिता की बेटी होकर आँवले चुराने पर भर्त्सना मिली फिर लड़की होकर लड़कों के साथ न खेलने की नसीहत मिली। मैं अपना सा मुँह लेकर घर लौट आई। दोनों मित्रों की कुटाई की तीव्र इच्छा लिए।

शाम को बाबा दफ़्तर से  घर लौटे तो चेहरा तमतमाया हुआ था। मैं समझ गई आजोबा ने शिकायत की थी। बाबा खूब नाराज़ हुए। मार पड़ी सो  अलग। गाल पर तड़ा तड़ थप्पड़ पड़े़ और पैर की पिंडलियाँ बेंत खाकर ऐसे काले हुए मानो कोयले की खान में काम करनेवाले किसी मज़दूर के पैर हों। पर जो सज़ा मिली वह भयंकर थी। बाबा ने हुक्म दिया कि मैं आजोबा के घर के बाहर पड़े काँच के टुकड़े चुनकर सब साफ़ करूँ वह भी रात होने से पहले।

स्वभाव से मैं बहुत ज़िद् दी थी। बाबा के हुक्म का पालन किया और उसके बाद भीष्म  प्रतिज्ञा भी ली कि आजोबा के बगीचे के सारे आंवले नोच दूँगी। कुछ दिनों तक घर से बाहर न निकली पर दिमाग़ में योजना चलती रही।

फिर प्रारंभ हुआ अभ्यास!! घर में जितने हैंडल टूटी प्यालियाँ थीं उन्हें हौज पर रखकर गुलैल मारकर उन्हें फोड़ने का अभ्यास शुरू कर दिया। माँ ने कुछ एल्यूमीनियम के बर्तन रख छोड़े थे, बर्तनवाले को देने के लिए। मैंने गुलैल मारकर उनका हुलिया बदल डाला। उनके पैंदे कैसे थे पहचान से बाहर हो गए!! थोड़े ही समय में आँवला तो क्या आम, अमरूद इमली  तोड़ना भी सीख गई वह भी सबकी नज़रें बचाकर।

शायद इस निशानेबाजी की आदत ने मेरे भीतर साहस का संचार किया और फर्ग्यूसन कॉलेज में पढ़ाई के साथ NCC  में मैं भर्ती हो गई। इसी आदत ने मुझे रायफल शूटिंग का मौका दिया और 1976 में महाराष्ट्र के बेस्ट केडेट का गौरव मिला!!!

आज पलटकर जब सोचती हूँ तो फिर एक बार बचपन में लौट जाने को जी चाहता है। आज न आँवले के पेड़ हैं न गुलैल अगर कुछ बचा है तो वह है सुखद स्मृतियों का विशाल जाल जिसमें एक मकड़ी की तरह हम इस उम्र में फँसे हुए हैं। अब तो यही कहने को दिल करता है कि कोई लौटा  दे मेरे बीते हुए दिन…

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। ई -अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार आप आत्मसात कर सकेंगे नए साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  स्व गणेश प्रसाद नायकके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

 

☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆

“स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक  ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

माता – पिता को याद करती टिप्पणियों की आत्मीयता प्रसन्न भी करती है और विकल भी… उनमें स्मृतियों का सुखद संसार, माता- पिता के होने की सम्पन्नता  और उन्हें खो देने की टीस होती है… एक बीत गयी निश्छल दुनिया को याद करना होता है ।… पिता गणेश प्रसाद नायक को गये उनतालीस साल हो गये, वे इस समय 111 वर्ष के होते | 24 मार्च 1913 को वे जन्मे थे | माँ गायत्री नायक को गये भी  तेरह साल हो गये |

जबलपुर में 1930 में रानी दुर्गावती  की समाधि पर जाकर स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ने की शपथ के साथ उन्होंने खादी पहनने का संकल्प भी किया था। वे कभी अपने संकल्पों से डिगे नहीं। पारिवारिक दबाव के कारण  गंजबासौदा, भोपाल, जबलपुर में रेलवई की नौकरी की, पर फिर उसे छोड़छाड़ कर आंदोलन में कूद पड़े। घोर ग़रीबी के दिनों में खादी का संकल्प लिया था और तीन काम तय किये थे, पढ़ना, इसके लिए ट्यूशन करना, ताकि आधिकाधिक स्वावलम्बी हों और आज़ादी के लिए काम करना। यह 1930 की बात है, तब वे सत्रह के थे। दो साल बाद खादी दुगनी महँगी हो गयी। पिता ने गाँधीजी को लिखा कि मेरा जैसा छात्र इस गरीबी, महँगाई में खादी का संकल्प कैसे निभाये? उनका पोस्टकार्ड आया, ‘डियर गणेश प्रसाद, वेयर देअर इज़ ए विल, देयर इज़ ए वे। कट शार्ट यूअर एक्सपेंसेस, बापू |’ 

दूसरे विश्व युद्ध में गाँधीजी ने जनता से अपील की कि भारत को उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ युद्ध में घसीटा जा रहा है इसलिए वह युद्ध में धन-जन की कोई मदद न करे। इसके लिए उन्होंने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू करते हुए सत्याग्रहियों का चुनाव अपने हाथ में लिया। सत्याग्रहियों की नैतिक व चारित्रिक मर्यादाएं निश्चित कीं। सत्याग्रह की विधि निर्धारित की। विनोबाजी को प्रथम सत्याग्रही बनाया। पिता का नाम नगर की पहली सूची में था पर गोविंद दास और द्बारिका प्रसाद मिश्र ने उनसे कहा कि सूची के मुताबिक सत्याग्रह होने पर बाद में तो सत्याग्रह कराने वाला कोई न होगा इसलिए तुम बाद में सत्याग्रह करना, तब तक सत्याग्रही तैयार करो और अपनी परीक्षा भी दे लो। नियम यह था कि सत्याग्रही पुलिस को सूचना देते थे। समय, स्थान बताते थे, पुलिस उन्हें सत्याग्रह करने के पहले ही गिरफ़्तार कर ले जाती थी। मार्च में पिताजी की परीक्षा हो गई। दूसरी लिस्ट तक पुलिस गिरफ़्तार करती रही, लेकिन फिर तीसरी लिस्ट के सत्याग्रहियों की गिरफ़्तारी बंद कर दी। पहले ही नहीं सत्याग्रह के बाद भी गिरफ़्तारी रुक गयी। पिता नई-नई विधि से तब भी गिरफ़्तारी कराते। पिता ने अपने सत्याग्रह का दिन तय कर लिया था पर इसके पहले मूलचंद यादव नाम के सत्याग्रही की गिरफ़्तारी आवश्यक थी। पिताजी ने  एक परचा बनाया कि सरकारी कर्मचारी युद्ध में सहयोग न करें। इसकी कई प्रतियां टाइप करायीं। सत्याग्रही की यूनीफार्म बनायी – सफ़ेद पेंट, सफ़ेद कमीज़, गाँधी टोपी और झोला। सत्याग्रही से कहा कि कचहरी की शांति भंग न करे, न कोई नारा लगाये। सिर्फ़ कहे कि गाँधीजी का संदेश देने आया हूँ। उसे सबसे पहले सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में पूरे सम्मान के साथ पत्र देना था। जब सत्याग्रही पत्र लेकर बाहर निकलने लगा तो मजिस्ट्रेट ने उसे रोककर पुलिस बुलाकर जेल भेज दिया, इसी की उम्मीद थी। इस सत्याग्रही की अनोखी विधि की अख़बारों में चर्चा हुई। लेकिन प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने इस विधि को गाँधीजी के विचारों के विपरीत बताकर उस सत्याग्रही को अमान्य कर दिया। पिता ने गाँधीजी को पत्र लिखा कि सत्याग्रहियों की गिरफ़्तारी न होने से यह विधि अपनायी, जोकि किसी भी तरह आपके उसूलों का उल्लंघन नहीं है। उन्होंने गाँधीजी को मजिस्ट्रेट को दिये पत्र की कॉपी भी भेजी। इसके बाद पिता सत्याग्रह करने के पहले ही गिरफ़्तार हो गए। पहले वे जबलपुर जेल में रहे फिर नागपुर भेज दिये गए, जहां उन्हें सूचना मिली कि गाँधीजी ने प्रदेश कांग्रेस के फ़ैसले को रद्द करने का आदेश देते हुए सत्याग्रही को मान्य घोषित किया और कहा कि उस लड़के ने बहुत ही सूझबूझ से काम लिया। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गिरिजाशंकर अग्निहोत्री ने प्रेस को इस फ़ैसले की सूचना दी थी। नागपुर जेल से छूटकर  पिताजी सीधे सेवाग्राम गए। दिन भर गाँधीजी की कुटी के बाहर खड़े रहे। शाम को महादेव देसाई मिले उन्होंने घूमते समय गाँधीजी से भेंट करने को कहा, तभी गाँधीजी कुटी से निकले और पिता पर नज़र पड़ी तो पूछा, कहां से आये हो? नागपुर जेल से सुनकर बोले, तो भोजन कर लो। नागपुर जेल में कैदियों द्बारा काता तीन सेर सूत भेंट करने पर गाँधीजी बोले, ‘बहुत कम काता।’ 

वे मध्यप्रांत और बरार  ( पुराने मध्यप्रदेश, सीपी एंड बरार) स्टुडेंट कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, त्रिपुरी कांग्रेस में सेवादल के प्रधान थे | 1939 मैं हरि विष्णु कामथ फ़ार्वर्ड ब्लॉक में ले गए, फिर समाजवादी आंदोलन से जुड़े… फिर जेपी के साथ सर्वोदय और सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में शामिल हुए… वे मध्यप्रदेश संघर्ष समिति के संयोजक थे| पत्रकारिता भी ख़ूब की ।अमृत पत्रिका, अमृत बाजार पत्रिका, एपी ( एसोशिएटिड प्रेस के संवाददाता रहे। नवभारत में रहे। साप्ताहिक ‘प्रहरी’ के अंतरंग मंडल में रहे। 

पिता ने अनेक बार जेल यात्राएंँ कीं  जिसमें अंतिम आपात्काल के दौरान उन्नीस महीने की थी | कभी उन्होंने पेरोल नहीं लिया, 1944 में भी नहीं जब उनके पिता का निधन हो गया था ,तब भी | अंतिम दर्शन के लिये पेरोल पर आना गवारा न हुआ | वे  सिद्धांतवादी थे… अपने विचारों -कार्यक्रमों पर सख़्त और अडिग… राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घोर शत्रु… समाजवादी दिनों में पार्टी के स्थानीय नेता विरोध में थे पर उन्होंने ठान लिया कि शहर में गोलवलकर की शोभायात्रा नहीं निकलेगी तो नहीं निकलने दी…  स्टेशन पर ही सारी शोभा ध्वस्त हो गयी |  प्रदेश संघर्ष समिति में भी जनसंघ की चलने नहीं दी, जबकि वह सबसे बड़ी पार्टी थी… उनकी छवि जुझारू  , बेदाग़ नेता की थी… इसलिए उन्हें हटाने की जनसंघी  नेताओं की कोशिशें नाकाम हुईं  … जेपी ने उन्हीं पर भरोसा जताया | 

 समाज और राजनीति को समर्पित रहा , उनका जीवन संघर्षों से भरा रहा। निहित हितों को जीवन-मूल्यों  पर कभी  हावी नहीं होने दिया | जबलपुर में समाजवादियों का वर्चस्व रहा, बाद में नेताओं में राजनीति खुलकर खेली.. . बिना किसी छल-छंद में पड़े वे राजनीति से हट गए, लेकिन जनता में घुले -मिले रहे, हमेशा उसके हक़ में आवाज़ उठाते रहे और 1974 में जनसंघर्ष  में कूद पड़े | … वे अच्छे संगठनकर्ता और ओजस्वी वक्ता थे और  सहज , आत्मीय, ख़ुशमिज़ाज व्यक्ति  |राजनीतिक मतभेदों के बावजूद पुराने मित्रों से पारिवारिकता बनी रही | शहर -प्रदेश में उनकी प्रतिष्ठा थी | परसाईजी ने एक बार मुझसे कहा कि आज इस बात की कल्पना  करना कठिन है कि नायकजी और तिवारीजी ( भवानी प्रसाद) समाज में किस संजीदगी और ईमानदारी से काम करते थे | ग़लत बात उन्हें नापसंद थी, और वे भड़क जाते थे | संघर्ष समिति की भोपाल में पहली बैठक में विजयराजे सिंधिया ने टोकाटाकी की तो नायकजी ने कहा कि आप दिमाग़ से यह बात निकाल दीजिये कि यह किसी रजवाड़े की संघर्ष समिति है | परसाईजी कहते थे नायकजी के होंठों पर हंसी और नाक पर ग़ुस्सा रहता था | वे नागपुर जेल में भी रहे| वहाँ मिलने वाले खाने का विरोध किया, राजनीतिक बंदियों के लिये  अलग रसोई की मांग की, अनशन किया… अंत में सभी मांगे मानी गयी |  नागपुर जेल के साथियों को उपाधियाँ दी गयी थीं नायकजी को दी गयी उपाधि की चार पंक्तियाँ थीं :

झुकी कमर पर ज़ोर दिये

डिक्टेटरशिप का बोझ लिये

सुबह सुबह चरखा कातें

मुँह में मीठे बोल लिए ।

लेखक – श्री मनोहर नायक 

प्रस्तुति –  श्री जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-11 – मोहन राकेश और उनकी कलम का जादू ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-11 – मोहन राकेश और उनकी कलम का जादू ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

अश्क और‌ मोहन राकेश के ठहाके….

कुछ कदम आगे, कुछ कदम पीछे

-कमलेश भारतीय

यादें भी क्या चीज़ हैं, जो आती हैं, तो आती ही जाती हैं। इनके आने का न‌ तो कोई सबब होता और न ही कोई ओर- छोर! आज कदम थोड़ा पीछे लौट रहे हैं! मोहन राकेश के जालंधर में बिताये दिनों की ओर लौट रहे हैं मेरे कदम! वैसे मैं इन दिनों‌ का साक्षी नहीं हूँ। कुछ सुनी सुनाई सी बातें हैं! एक तो यह कि मोहन राकेश का नाम मदन मोहन गुगलानी था जो सिमट कर मोहन राकेश रह गया! दूसरी बात कि जब वे काॅफी हाउस आते, तब उनके ठहाके काॅफी हाउस के बाहर तक भी सुनाई देते! तीसरी बात कि डी ए वी काॅलेज में एक बार प्राध्यापक तो दूसरी बार हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने लेकिन बकौल‌ रवींद्र कालिया, वे कुछ क्लासें काॅफी हाउस में भी लगाते थे! वे लिखने के लिए सोलन‌ के निकट धर्मपुरा के आसपास जाते थे और‌ पंजाब स्कूल शिक्षा बोर्ड की पाठ्य पुस्तक में जो कथा हम पढ़ाते रहे-मंदी,  वह इसका प्रमाण है! यदि मोहन राकेश जालंधर ही जीवन व्यतीत करते तो कुछ वर्षों बाद मैं भी उन्हें मिल पाता लेकिन यह संभव नहीं था। ‌इसके बावजूद मैं उनकी कहानियों का बहुत बड़ा फैन था और‌ आज भी हूँ। इसका यह भी एक कारण हो सकता है कि सिर्फ छटी कक्षा में था‌ जब मेरे मामा नरेंद्र ने इनका कथा संग्रह- जानवर और जानवर उपहार में दिया था! हाँ, उनकी  पत्नी अनीता राकेश का इंटरव्यू जरूर लिया, जो मेरी इंटरव्यूज की  पुस्तक ‘ यादों की द व धरोहर’ में प्रकाशित है! मोहन राकेश का निधन तीन‌ दिसम्वर, सन् 1972 में हुआ था लेकिन अपने गूगल बाबा ने इसे तीन जनवरी कर दिया है! दो तीन साल पहले जब मैंने इस पुण्यतिथि का उल्लेख फेसबुक पर  किया तब अनेक लेखकों ने इसे गलत करार दिया तब सुप्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया मेरे समर्थन में आईं और उन्होंने स्पष्ट किया कि मैं सही हूँ लेकिन गूगल बाबा ने इस वर्ष भी यही गलत तिथि बताई। ‌इसे ठीक कैसे करवाऊं?

 जब ‘आषाढ़ का एक दिन’, हमें एम ए हिंदी में पढ़ने को मिला और‌ जब जालंधर से खरीद कर नवांशहर बस में सवार होकर लौटा तब तक इसे शोर‌-शराबे के बीच पढ़ चुका था! इसे कहते हैं – कलम का जादू! वैसे मोहन राकेश का हिसार कनेक्शन भी है, यहां इनकी दूसरी शादी हुई थी जो देर तक नहीं चल‌ पाई! यदि यह शादी भी निभ गयी होती तो मोहन राकेश के कुछ निशान यहां भी मिल जाते! पर ऐसा नही हुआ! उन्होंने तीसरी शादी दिल्ली की अनीता औलख से की, जो अनीता राकेश कहलाई! मोहन राकेश ने‌ शिमला में अपनी पहली पत्नी और‌ बेटे को देखकर कहानी भी लिखी है! वे देहरादून की रहने वाली थीं!

खैर, इसी तरह जालंधर से वास्ता रखते थे उपेंद्र नाथ अश्क‌! उन्हें मिलने का सौभाग्य मिला, चंडीगढ़ में डॉ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता के घर, सुबह सवेरे नाश्ते पर! उनके बारे में यह मशहूर था कि वे प्रश़ंसा करने वाले को तो भूल जाते थे लेकिन वे आपनी आलोचना करने वाले से बुरी तरह भिड़ जाते थे! इस बात का कड़वा अनुभव मुझे भी हुआ! मैं उन दिनों लखनऊ से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘सुपर ब्लेज’ का साहित्य संपादक था और‌ उसमें‌ इन्हें उकसाने का जानबूझकर प्रयास किया था ताकि यह जांच सकूं कि इस बात में कितनी सच्चाई है! वही हुआ! मैंने अश्क जी पर जानबूझकर टिप्पणी लिखकर इन्हें पत्रिका का अंक पांच, खुसरो बाग, इलाहाबाद के पते पर पोस्ट कर दिया! अश्क जी अपने स्वभाव के अनुसार प्रतिक्रिया देते गये और यह मामला छह माह तक चला!  इसके पीछे कारण यह था कि ‘सुपर ब्लेज़’ चर्चा में आ जाये! खैर, मुझे अश्क जी से उनके बेटे नीलाभ के साथ मिलने का मौका मिल गया! तब अश्क जी ने कहा था कि कमलेश! मैंने अपना बहुत सा समय ऐसे ही बेकार उलझ उलझ कर बर्बाद कर लिया! इसकी बजाय मैं कुछ और‌ लिखने में यह समय लगा सकता था! यही सीख मैं तुम्हें दे रहा हूँ कि समय इन फिजूल बहसों में मत बर्बाद करना मेरी तरह! तभी किचन‌‌ से आलू का गर्मागर्म परांठा लातींं‌ श्रीमती मेहंदीरत्ता ने कहा कि अश्क जी! कमलेश भी तो आपकी तरह दोआबिया ही तो है, यह आपके पदचिन्हों पर ही चलेगा या नहीं! इस बात पर अश्क जी ने जब  ठहाका लगाया तब लगा कि मोहन राकेश भी ऐसे ही ठहाके ‌लगाते होंगे! आज अश्क व‌ मोहन राकेश के ठहाकों की गूंज में अपनी बात समाप्त करने से‌ पहले एक दुख भी है कि मैं सुप्रसिद्ध लेखक और जालंधर के ही मूल निवासी रवींद्र कलिया जी से उनके जीवन काल में एक बार भी मिल नहीं पाया, हालांकि फोन पर बातचीत होती रही और हरियाणा ग्रंथ अकादमी के समय मासिक पत्रिका ‘कथा समय’ के प्रवेशांक में उनसे अनुमति लेकर  कहानी प्रकाशित की थी पर एक तसल्ली भी है कि भाभी ममता कालिया जी से बात भी होती है और मुलाकात भी हो चुकी है! ममता कालिया जी ने मेरे नये प्रकाशित हो रहे  कथा संग्रह – सूनी मांग का गीत के लिए मंगलकामना के शब्द लिखे हैं! कहूँ तो रवींद्र कालिया का भी हिसार कनेक्शन रहा है, वे यहां डीएन काॅलेज में‌ कुछ समय हिंदी प्राध्यापक रहे हैं! हमारे मित्र डाॅ अजय शर्मा ने ममता कालिया पर इन्हीं पर अपनी पत्रिका ‘साहित्य सिलसिला’ का विशेषांक प्रकाशित किया है, जिसमें उन‌ पर लिखा मेरा संस्मरण -नये लेखकों की कुलपति ममता कालिया, भी आया है।

आज की जय जय!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिंदी साहित्य – आलेख ☆ संस्मरण – वह पेंसिल नहीं, मशाल है ! ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆

डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ आलेख ☆ संस्मरण – वह पेंसिल नहीं, मशाल है ! ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

‘‘क्या अरब में महिलायें यहॉँ की तरह आटा गूँथ कर रोटी बनाती हैं? वे तो रोटी खरीद कर ले आती हैं।’’फिलिस्तीनिओं पर इजरायली अत्याचार पर लिखी मेरी कहानी को पढ़ कर पत्रिका लौटाते हुए डा0 श्री प्रसादजी ने कहा।और यही बात उन्होंने कहानी के अंतिम पृष्ठ पर पेंसिल से लिख भी दी थी। जिस कमरे में बैठ कर वे लिखने पढ़ने का काम किया करते थे उसकी खिड़की पर एक कलमदान में कई कलम और वह पेंसिल भी पड़ी रहती थीं।

थोड़ी देर मैं चुप रहा, फिर झेंपते हुए बोला ,‘अब तो मां बेटी रोटी खा चुकी हैं। ’यानी कहानी तो प्रकाशित  हो चुकी है।खैर, बात तो अपनी जगह सही थी। खालेद होशैनी का उपन्यास ‘ए थाउजैंड स्प्लेंडिड सनस्’ पढ़ते हुए पता चला कि काबुल में औरतें तंदूर से रोटी बनवा कर घर ले आती हैं।

उनसे मेरा नाता मेरी ‘गलतिओं के गलियारे’ से होकर ही गुजरता है। आज भी उनके सुपुत्र डा0 आनन्द वर्धन जब भी मेरी कोई रचना पढ़ते हैं तो मैं कहता हूँ,‘कहीं कोई गलती हो तो उसे पेंसिल से जरूर मार्क कर दीजिएगा।’सच वह पेंसिल तो हमारे लिए मशाल ही थी।

और इसी तरह डा0 श्रीप्रसाद जी के घर मेरा आना जाना होता रहा। घंटे दो घंटे की बैठक। सुनने सुनाने का कार्यक्रम। वे मेरी त्रुटिओं की ओर संकेत कर देते। मैं उन्हें ठीक कर लेता। या कोई बेहतर शब्द को ढूँढने में मेरी मदद कर देते ,कोश का पन्ना पलटते। जब भी वे फोन पर कहते, ‘आपकी कहानी अमुक पत्रिका में निकली है।’

मैं पूछ लिया करता,‘पढ़ते समय आपके हाथ में पेंसिल थी न?’

डाक्टर साहब हॅँस देते। वैसे वे अपने नाम के आगे डाक्टर लिखना बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। वे हर समय धोती कुर्ता ही पहनते थे। इसी लिबास में वे विदेश भी हो आये। उनकी किताबें प्रकाशित  होतीं, तो मुझे पहले से ही मालूम हो जाता।

वे और उनकी पत्नी (श्रीमती शांति शर्मा) मेरे क्लिनिक में दिखाने या ऐसे ही भेंट करने आते, और बैठते ही काले पोर्टफोलिओ बैग से वे अपनी सद्यः प्रकाशित  किताब मेरे हाथों में धर देते। पहले पृष्ठ पर उनके अपने हाथों से लिखा होता मेरे लिए सप्रेम भेंट!

उन दिनों हमारे ‘विहान’ नाट्य संस्था के लिए नाटक लिख कर मैं संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रोफेसर्स कालोनी में उनके आवास पर मैं जाया करता था। वे सुनते और ठीक करते जाते। काशी के प्रसिद्ध नाट्य निर्देशक डा0 राजेन्द्र उपाध्याय ने मुझे उनका पता दिया था। सच, बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं संता ……..

उन दिनों उन्हें सांस की तकलीफ होती रहती थी।उसी सिलसिले में शुरू शुरू में वे खुद को दिखाने मेरे पास आते थे। फिर तो आने जाने का ऐसा सिलसिला चल पड़ा कि जानकी नगर के नये मकान बनने के बाद मुझसे कहने लगे,‘आप भी इसी मुहल्ले में आ जाइये।’

बनारस में रहते तो करीब हर इतवार को दोपहर बारह के बाद उनका फोन आता, क्योंकि उस समय मैं भी कुछ खाली हो जाता। फिर काफी देर तक तरह तरह की बातें होती रहतीं।किस रचना को कहाँ भेजा जाए। उनकी कौन सी नयी किताब आनेवाली है।बाल पत्रिकाओं का स्वरूप कैसा हो रहा है। इससे बाल साहित्य के पाठक वर्ग पर क्या प्रभाव पड़ेगा। वगैरह। अगर किसी रविवार को उनका फोन नहीं आता तो अगले दिन या बाद में मैं उनसे कहता, ‘डाक्टर साहब,रविवार के अटेंडेंस रजिस्टर में ‘ए’ लग गया है।’

उनके पारिवारिक रिश्ते – आपस में तालमेल – सास ससुर के साथ बहू का सम्पर्क – सभी अनुकरणीय थे। बात उनदिनों की है जब उनका सुयोग्य पुत्र आनन्द भोपाल में रहते थे। दो एक महीने उनके पास रह कर डाक्टर साहब सपत्नीक वापस आ रहे थे। सास ससुर को विदा करते समय ट्रेन में (डा0) ऊषा अपनी सास से लिपट कर ऐसे रो रही थी कि एक दूसरी महिला यात्री पूछने लगी,‘क्या तुम अपनी मां को विदा करने आयी हो ?’

ऊषा तो कहती ही है कि यहाँ तो मुझे मायके से भी ज्यादा प्यार व स्नेह मिला !

अपने गॉँव के बारे में श्री प्रसादजी ढेर सारी बातें किया करते थे। खूब किस्से सुनाया करते थे।उनका गॉँव जमुना के तट पर एक ऊँचे टीले पर स्थित है। किसी जमाने में वह डकैतों का इलाका रहा। एक बार जंगल के रास्ते आते हुए उनकी भेंट गांव के ही एक आदमी से हो गई जो बागी बन गया था। इन्होंने उससे पूछा था,‘तुमने आखिर इस रास्ते को क्यों अपना लिया? घर परिवार से दूर – इस तरह दर दर भटकना -’

उस डकैत ने जबाब दिया था,‘और क्या करता? वहॉँ दबंग लोगों का अत्याचार सह कर और कितने दिन गॉँव में रह सकता था?किससे शिकायत करता? पुलिस भी तो उन्ही की जी हुजूरी में लगी रहती है।’

इन सब बातों से उन्हें बहुत कष्ट होता। दीर्घश्वास छोड़कर कहते,‘इसी तरह सबकुछ बिखर जा रहा है। एक बसा बसाया संसार उजड़ता जा रहा है।’

गांव के बारे में और एक किंवदंती वे सुनाया करते थे। एकबार महात्मा तुलसीदास अपने अग्रज भक्तकवि सूरदास से भेंट करने जा रहे थे। रास्ते में इन्हीं के गांँव से उन्हें जमुना पार करना था। जमुना का अथाह जल देखते हुए कवि ने कहा था,‘पारना!’ यानी इसका तो पार नहीं है! इसीसे गॉँव का नाम भी पारना हो गया। चूँॅकि शाम ढल चुकी थी इसलिए कविवर ने रात वहीं बितायी। मगर किसी को भनक तक नहीं पड़ी कि उनके यहाँ कौन ठहरा हुआ है। कहते हैं सुबह कुछ सुगबुगाहट हुई और ढेर सारी हलचल,‘अरे जानते हो कल यहॉँ कौन ठहरा हुआ था ? और हम्में पता तक नहीं !’

इसी पर लिखी उनकी कहानी ‘पारना’ नंदन में प्रकाशित  हो चुकी है।

हम तीनों (श्रीप्रसादजी, शांति देवी और मैं) की साहित्यिक महफिल घंटे दो घंटे तो आराम से जम जाया करती थी। तीनों तरफ दीवारों पर किताबों के रैक। वहीं दीवारों पर से प्रेमचंद, पंत और निराला के साथ साथ काजी नजरूल इस्लाम और गोर्की भी हमारी ओर देखते रहते। चौकी पर भी ढेर सारी पत्रिकाएॅँ और किताबें। जब चाय पिलाना होता तो आनन्द की माँ कभी कभी हँॅसने लगतीं,‘अरे चाय की ट्रे कहॉँ रक्खूँॅ ?’ मैं झट से किताबों के बीच जगह बनाने लगता। जाड़े के दिनों में मैं तीन चार बजे तक ‘ब्रजभूमि’(उनके आवास का नाम) में पहुॅँच जाता और सात बजे तक बैक टू पैवेलियन। मगर एकबार लौटते समय रात हो गई और महमूरगंज के विवाह मंडपों के सामने बारातिओं के उफान के बीच मेरी ‘कश्ती’ बुरी तरह फॅँस गई। पेट में भूख -दिमाग में झुॅँझलाहट -परिणाम …..? बौड़ा गैल भइया, काशी का साँड़!  

जन्माष्टमी के मौसम में दो एक बार घर से ताड़ की खीर और उसका बड़ा ले गया था। दोनों को खूब पसन्द आये। अपने हाथ से गाजर का हलुआ बना कर ले गया तो वे हॅँसने लगे,‘आप तो रस शास्त्र में ही नहीं पाकशास्त्र में भी निपुण हैं।’

मैं ने कहा,‘मगर आप कोशिश मत कीजिएगा। याद है न एकबार कद्दूकश से गाजर काटते समय आपकी उँगली शहीद होते होते बच गई ?’

वे खूब हॅँसने लगे। शांति देवी कहने लगी,‘मैं तो इनसे कोई काम कहती ही नहीं। बस, अपना लिखना पढ़ना लेके रहें ,वही ठीक है।’  

वे तो बस जी जान से सरस्वती के उस मंदिर को सँभालने सॅँवारने में ही लगी रहती थीं। वे सचमुच साहित्य की पारखी थीं। किस सम्मेलन में कौन आया था और कौन नहीं – ये सारी बातें भले ही श्रीप्रसादजी कभी कभी भूल जाते थे, मगर उन्हे ठीक याद रहता था। गाय घाट के माहौल में पली बढ़ी होने के कारण बनारस की कई पारंपरिक बातें वे बखूबी से जानती थीं। नलीवाले लोटे को ‘सागर’ कहा जाता है यह बात उन्होंने ही मुझे बतायी थीं। कहानी के संप्रेश्य मर्म बिंदु को वह ठीक पकड़ लेती थीं। जिसे कहा जाय सेन्स ऑफ एप्रिसियेशन – अनुभूति एवं उपलब्धि की तीक्ष्णता उनमें कूट कूट कर भरी थी। उचित जगह पर ही दाद देतीं या पंक्ति को दोहराने लगतीं ……..

वैसे डाक्टर साहब रोटी तो बना नहीं पाते थे मगर कहते थे – ‘मैं पराठा अच्छा बना लेता हूँ।’ वे बिलकुल अल्पभोजी थे। खैर, फलों में आम उनको बहुत पसंद था।

‘ब्रजभूमि’ से लौटते समय मैं कहता था, ‘बनारसी विप्र की दक्षिणा मत भूलियेगा।’

डाक्टर साहब हॅँस कर करीपत्ते के पेड़ से कई डालियॉँ तोड़कर एक प्लास्टिक में भर कर मुझे थमा देते थे।

आनन्द की शादी के पहले जब वे ऊषा को देखने पौड़ी गये थे तो उसी समय केदारनाथ बद्रीनाथ भी हो आये थे। इधर तो बाहर कम ही जाते थे ,वरना बाल साहित्य सम्मेलनों में भाग लेने खूब जाया करते थे। आनन्द जब बुल्गारिया में थे तो वे दोनों बुल्गारिया, तुर्की और ग्रीस सभी जगह घूम आये थे। गांडीव में उनकी यात्रा की डायरी भी किस्तवार आ चुकी है। बुल्गारिया की जो बात उन्हें बहुत अच्छी लगती थी वह यह कि वहाँ की सड़कों या जगहों का नाम लेखक या कविओं के नाम से हुआ करता है। न कि राजनयिकों के नाम से।

सभी को मालूम है कि उनकी कविता ‘बिल्ली को जुकाम’ को स्वीडिश विश्व बाल काव्य संग्रह में स्थान मिला है। दो संग्रहों में संकलित इसकी पहली पंक्ति में कुछ अंतर है। एक में हैःःबिल्ली बोली, बड़ी जोर का मुझको हुआ जुकाम, तो दूसरे में है :ःबिल्ली बोली म्याऊँ म्याऊँ मुझको …..। वे अपनी कविता ‘हाथी चल्लम चल्लम’ को बड़े चाव से सुनाते थे। जैसे फैज साहब तरन्नुम में षेर सुनाना पसंद नहीं करते थे (नया पथ, फैज जन्मशती विशेषांक,पृ.327),वे भी सीधे सपाट ठंग से कविता का पाठ करना ही पसंद करते थे। उन्होंने कहा था श्रद्धेय बच्चन सिंह भी इस कविता को इसी ठंग से सुनना चाहते थे। और मार्क्सवादी आलोचक चंद्रवली सिंह को उनकी कविता -‘रसगुल्ले की खेती होती/बड़ा मजा आता’ में ‘देश के अभावग्रस्त बालकों की आकांक्षा की अभिव्यक्ति’ दिखाई दी।(जनपक्ष-12, पृ.190)

बाल साहित्यकारों के बीच चल रही गुटबाजी से वे दुखी रहते थे। कई ऐसे भी हैं जो उनके पास आते बनारस आने पर उनके यहॉँ ठहरते, मगर अवसर मिलने पर उनका पत्ता गोल करने से कभी न कतराते थे। किसी ने लिखा कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का इतिहास में बाल साहित्य की चर्चा क्यों नहीं की। उनका जबाब था – यह काम तो हम लोगों को करना चाहिए। आचार्य के समय बाल साहित्य की सामग्री ही कितनी थी ?

कविता में छंद की अशुद्धि उन्हें तकलीफ देती थी। वे हर महीने कई पत्रिकायें खरीदते थे। खास कर कविता ही पढ़ते और मात्रा आदि की गड़बड़ी के नीचे पेंसिल से लकीर खींच देते।

शांति देवी के देहावसान के बाद तो वे जैसे बिलकुल टूट गये थे। मानो उनका जीवन ही बिखर गया था। मैं वह दृश्य कैसे भूल सकता हूँ – जब हमलोग उनकी बैठक के दरवाजे के पास शांति देवी के पार्थिव शरीर को फर्श पर लेटाकर बैठे हुए थे। रो रोकर ऊषा का हाल बेहाल था। इधर सभी की ऑँखें छलक रही थीं। उसी समय डाक्टर साहब ने उनकी अधखुली पलकों को अपनी उॅँगलिओं से मूँॅद दिया। मैं उनकी बगल ही में बैठा था। मुझे लगा मेरी सांस ही गले में अटक गयी -!

उन्होंने ‘बाल साहित्य की अवधारणा’नामक आलोचना की पुस्तक को इसतरह अर्पण किया था – ‘सहधर्मिणी शांति को’……..

वे अखबार के किनारे या छोटे छोटे कागज के टुकड़ों पर ही कविता लिखना प्रारंभ कर देते थे। प्लैटफार्म पर बैठे बैठे या ट्रेन की सफर में इसी तरह उनका वक्त बीत जाता था। मैं ने कितनी बार कहा कि मेरे पास तो इतने सफेद पैड पड़े रहते हैं, डायरी मिल जाती हैं। आप इन पर लिखा करें।वे केवल हॅँस देते थे,‘अब यह मेरी आदत बन गयी है। उतने सफेद पन्नों पर शायद मैं लिख न सकूॅँ!’

दुर्गा पूजा के पहले बांग्ला में आनंदमेला शुकतारा आदि पत्रिकाओं के शारदीय विशेषांक निकलते है। वे उन्हें भी कभी कभी खरीद लेते थे। उन्हें तकलीफ होती थी कि उनमें भी आजकल उतनी कविता नहीं छपती है। ‘बाल साहित्य की अवधारणा’ में ‘बाल साहित्य का उद्देश्य’ में उन्होंने लिखा है -‘एक ओर समर्पित बाल साहित्यकारों को अवसर नहीं मिल पाता, दूसरी ओर बाल साहित्य के रूप में अबाल साहित्य चलता रहता है।’ (पृ.6)हिन्दी बाल साहित्य में हास्य कथा, भूत कथा, डिटेकटिव कहानी आदि के अभाव के बारे में कई बार उनसे बातें होती रही। यहॉँ तक कि अब तो दो पृष्ठों में ही कहानी को समेटना आवश्यक हो गया है,वरना लौटती डाक से आपकी रचना आपके द्वारे। मैं ने उनसे कहा था – आज अगर ईदगाह या दो बैलों की कथा जैसी कहानी लिखी जाती तो वह प्रकाशित  कहॉँ होती ?

सन् 2005 दिसंबर में मेरा पितृवियोग हुआ। उस समय वे दोनों अस्पताल में बाबूजी को देखने आये हुए थे। फिर अक्टूबर 2012 में मैं दोबारा अनाथ हो गया। उन्हें दिल्ली के मैक्स में हार्ट के ऑपरेशन के लिए भर्ती किया गया था। हालत में कुछ सुधार भी हुआ था। मगर तीसरे दिन रात के करीब आठ बजे आनंद का फोन आया। मैं सन्न रह गया। क्या कहता? सांत्वना के सारे शब्द मानो मूक हो गये थे……रोते रोते मैं पत्नी को यह खबर देने ऊपर जा पहुॅँचा….

कुछ दिनों के लिए मुझे लगा मेरी कलम की वाणी ही गूॅँगी हो गई है। मता (पूॅँजी)-ए-दर्द बहम है तो बेशो-कम क्या है /….बहुत सही गमे गेती (सांसारिक दुःख), शराब क्या कम है…….(फैज)

फिर एकदिन अचानक मेरा मोबाइल बजने लगा। स्क्रीन पर नाम देख कर मैं चौंक उठता हूँ ….यह क्या! दिल की धड़कनें तेज हो गईं। स्क्रीन पर उनका नाम जगमगा रहा था। यद्यपि मुझे मालूम था कि श्रीप्रसादजी का फोन आजकल उनकी बहूरानी ऊषा के पास ही रहता है, फिर भी एक उम्मीद की लौ ….कहीं ….! मैं कॉँपती उॅँगली से हरा बटन दबाता हूँ… शायद फिर से वही आवाज सुनाई दे… ‘हैलो… मैं श्रीप्रसाद…!

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो: 9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-10 – उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-10 – उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

मित्रो, जालंधर, एक ऐसा शहर, जहाँ मेरा साहित्यिक जीवन शुरू हुआ। यही वह शहर है, जहाँ मैंने साहित्य में अच्छे- बुरे, खट्टे- मीठे अनुभव प्राप्त किये! यही वह शहर है, जहाँ मैंने साहित्य व साहित्यकारों के चेहरों को बड़े गौर से देखना और समझना शुरू किया।

इन चेहरों में डाॅ चंद्रशेखर भी एक हैं, जो लायलपुर खालसा काॅलेज, जालंधर में हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे और‌ उन्होंने पंजाब में हिंदी के लिए बहुत ज्यादा योगदान दिया – एक मिशनरी की तरह! वे मेरी मुंह बोली बहन‌ डाॅ देवेच्छा के पति थे और मेरा जालंधर में एक ठिकाना इनका घर‌ भी था, जो बस स्टैंड के दायीं‌ ओर रणजीत नगर में था। वे गुरु नानक देव विश्वविद्यालय से बीए के उन छात्रों को चुनते जिनके बहुत अच्छे अंक आये हों! संयोग से एक वर्ष ऐसा आया जब विश्वविद्यालय में बीए अंतिम वर्ष में मैं 76‌ अंक लेकर सर्वप्रथम था, तो वे जब नवांशहर आये देवेच्छा जी के पास तो मुझे बुला कर खालसा काॅलेज में हिंदी एम ए में दाखिला लेने के लिए कहा ! इस पर मेरी बहन ने कहा कि कमलेश नहीं जा सकता जालंधर! इसकी परिस्थितियां ऐसी नहीं! इसके पिता नहीं रहे और‌ घर में बड़ा बेटा होने के कारण शहर छोड़कर नहीं जा सकता और यह मेरे पास बी एड करेगा , बाद में कोई भी डिग्री ले ले! इस तरह मैंने बीएड की लेकिन मेरा आना जाना बना रहा। ‌रणजीत नगर के आवास की सीढ़ियां तय करते मैंने मोहन सपना, सेवा सिंह, कैलाश नाथ भारद्वाज, कुलदीप अग्निहोत्री और हिमाचल के गौतम व्यथित को न केवल देखा बल्कि जाना और समझा! डाॅ चंद्रशेखर अपने छात्रों को बहुत प्यार करते थे और‌ कैलाश नाथ भारद्वाज के संपादन में ‘ रक्ताभ’ पत्रिका भी फगवाड़ा से शुरू करवाई । वे आकाशवाणी, जालंधर के निर्देशक विश्ववर्धन प्रकाश दीक्षित ‘बटुक’ के साथ अच्छे से घुले मिले थे और‌ मुझ जैसे न जाने कितने नये लेखकों को आकाशवाणी के स्टुडियो तक पहुँचाया ! वे तब आकाशवाणी के लिए खूब ‘ध्वनि नाटक’ लिखते थे, जिनमें मुझे ‘ कटा नाखून’ की याद है!  उन्हें ध्वनि नाटकों पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले‌! इसी तरह डाॅ चंद्रशेखर हिंदी को लेकर बहुत भावुक होकर कहते थे कि

यह हिंदी सिर्फ हिंदी नहीं है

यह भारत माता के माथे की बिंदी है!

उन्होंने मुझे अपने छात्रों जैसा ही स्नेह दिया, बेशक हिंदी एम ए नहीं की बल्कि बी एड के बाद हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से पत्राचार से हिंदी एम ए कर सका! वे मुझे काॅलेज के हर कार्यक्रम में आमंत्रित करते! इस तरह मैं उनके छात्रों के करीब आता गया !  वे एक आदर्श प्राध्यापक थे, जो अपने प्रिय शिष्यों को सिर्फ हिंदी ही नहीं पढ़ाते थे बल्कि उनकी ज़िंदगी भी संवारते थे और रचनायें भी! ‌डाॅ चंद्रशेखर ने पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की जीवनी भी लिखी और उनसे राष्ट्रपति भवन में पंजाब के लेखकों को सम्मानित भी करवाया!

आज डाॅ कैलाश नाथ भारद्वाज पंजाब हिंदी साहित्य अकादमी को चला रहे हैं और‌ डाॅ चंद्रशेखर की स्मृति में सम्मान प्रदान करते हैं, जो सम्मान मुझे भी एक वर्ष यह प्रदान किया गया ! डाॅ सेवा सिंह गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर के हिंदी विभाग में रहे और आजकल कपूरथला में रहते हैं। इसी प्रकार डाॅ कुलदीप अग्निहोत्री आजकल‌ हरियाणा साहित्य अकादमी के कार्यकारी उपाध्यक्ष हैं। वे अच्छे विचारक भी हैं।  वे पंजाब स्कूल एजुकेशन बोर्ड के उपाध्यक्ष ह नहीं बल्कि धर्मशाला (हिमाचल) के केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके हैं।

यही नहीं डाॅ गौतम व्यथित हिमाचल से ‘बागेश्वरी’ पत्रिका निकाल रहे हैं जिसमें वे मुझसे भी बहुत प्यार से रचनाएँ आमंत्रित करते हैं। इसी प्रकार इनके प्रिय शिष्यों में से एक मोहन सपरा जो नकोदर के डी ए वी काॅलेज में हिंदी विभाग के वर्षों अध्यक्ष रहे और‌ नकोदर से ही, ‘फिर’ नाम से हिंदी पत्रिका निकालते रहे और पिछले कई वर्षों से वे जालंधर में बसे हुए हैं। ‘फिर’ का स़पादन बहुत अच्छा होने के बावजूद कभी मोहन सपरा इसे नियमित प्रकाशित नहीं कर पाये ! उन्होनें’ आस्था प्रकाशन भी शुरू किया पर प्रकाशित कृतियों को बेचने के पैंतरे नहीं जानते या अपनाते! जिससे वे प्रकाशन तो करते हैं लेकिन विक्रय नहीं कर पाते। उनकी प्रकाशन की समझ बहुत बढ़िया है। उन्होंने मेरी इंटरव्यूज की पुस्तक ‘ यादों की धरोहर’ के दो संस्करण प्रकाशित किये! उन्हें यह मलाल है कि शानदार लंबी कवितायें लिखने के बावजूद उनका लंबी कविता में कोई खास जिक्र नहीं!

चलिए, इस बात को छोड़कर उनके कवि पक्ष की बात करते हैं। उनकी पहली काव्य कृति थी ‘कीड़े’ और फिर हाल ही के वर्षों में प्रेम के रंग भी खूब चर्चित रही। अनेक काव्य संकलन और पंजाब शिरोमणि साहित्यकार होने के साथ साथ वे हरियाणा साहित्य अकादमी से भी सम्मानित हो चुके हैं! हरियाणा के वरिष्ठ आईएएस रमेंद्र जाखू को  साहित्यिक क्षेत्र में लाने में बड़ा सहयोग दिया!

आज लगता है कि डाॅ चंद्रशेखर स्कूल के सभी छात्रों को मैंने याद करने की छोटी सी कोशिश भर की है! हां, आज आंखें भीग गयीं डाॅ चंद्रशेखर को याद करते क्योंकि वे सन्‌1989 में 29 अगस्त को दिल्ली से अपनी कार‌ ड्राइव करते लौट रहे थे कि करनाल के निकट हरियाणा रोडवेज की बस से सीधी टक्कर में वे हमसे बिछड़ गये!

अब आज आगे लिख पाना बहुत मुश्किल लग रहा है और डाॅ चंद्रशेखर को याद करते इतना ही कहूँगा :

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो

न जाने किस गली में

ज़िंदगी की शाम हो जाये!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 4 – जम्मूवाली दादी – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  जम्मूवाली दादी)

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – जम्मूवाली दादी  ?

माताजी तो माताजी थीं। मोहल्ले भर की गली – मोहल्ले की माताजी, और क्यों ना हो! 101 वर्ष उम्र और अनुभव दोनों का अद्भुत मिलन जो था।

माताजी 100 साल तक जिंदा रहना चाहती थीं। अब उसके ऊपर एक और साल जुड़ गया। पूरे कुनबे को जोड़कर रखने वाली माताजी गली – मोहल्ले के लोगों से भी आजीवन जुड़ी ही  रहीं। घर में कुल मिलाकर 40 लोग होंगे और मोहल्ले वाले उनकी तो कोई गिनती ही नहीं!

माताजी 60 साल की रही होंगी जब बाबूजी गुज़र गए पर माताजी टूटी नहीं, और न  सारे परिवार को ही टूटने -बिखरने  दिया। जिस भूमिका को बाबूजी निभाते थे, वही भूमिका अब माताजी निभाती आ रही थीं।वह विशाल छायादार वटवृक्ष के समान सशक्त थीं।

माता जी के पाँच पुत्र थे । आज उनका बड़ा बेटा 85 साल का है उसकी दुल्हन 82 साल की है, उनका बड़ा बेटा 62 साल का है उसका बेटा 38 साल का है और उसका बच्चा 16 साल का। कुल मिलाकर इस तरह घर के हर एक बेटे उनके बच्चे, पढ़ पोते- पतोहू सब मिलाकर कुनबे में 40 लोगों का समूह रहता आ रहा था। साझा व्यापार था।

आज भी जम्मू-कश्मीर में ऐसे अनेक परिवार मिल जाएँगे जो संयुक्त परिवार में रहते हैं। सेब, बादाम, अखरोट, चिलगोज़ा, खुबानी के बाग हैं और व्यापार भी उसी का ही है।

माताजी का एक बेटा कटरा में व्यापार करता था, वही ड्राईफ्रूट और गरम कपड़ों का। पर रोज़ रात को घर लौटकर आता ही था।यद्यपि जम्मू और कटरा के बीच चालीस किलोमीटर का अंतर है। प्रति घंटे बसें चलती हैं तो घर आना ही होता है।यह माताजी का आदेश था।रात के भोजन के समय वे बेटे बहुओं को लेकर भोजन करना पसंद करती थीं।शायद परिवार को जोड़कर रखने का यह एक गुर था।

माताजी के तीसरे बेटे की अकाल मृत्यु हुई थी।पर माताजी ने बहू को अपने मायके न जाने दिया और न सफ़ेद कपड़े ही पहनने दिए।माताजी का कहना था, “पति मर गया, यादें तो हैं !चिट्टे ( सफेद) कपड़े पाकर ओदा दिल न दुखाईं पुत्तर।” बड़ी प्रोग्रेसिव थिंकिंग थी माताजी की।

माताजी के घर में आज तक कभी किसी ने ऊँची आवाज में बात ना की थी और ना उस घर में विवाद का कभी प्रश्न ही उठ खड़ा हुआ।सभी एक दूसरे का सम्मान करते थे चाहे भूषण हों या पड़पोते का पाँच साल का गुड्डू।

बड़ा बेटा भूषण आज भी गुल्लक संभालते थे। सूखे मेवे का व्यापार था उनका जिसे बाबूजी चलाते आ रहे थे। उनके देहांत के बाद बड़ा बेटा चलाने लगा और अब उसके बेटे चलाते हैं। पर गुल्लक संभालने की जिम्मेदारी आज भी माता जी के बड़े बेटे के पास ही है। यही नहीं हर रोज की कमाई का हिसाब माताजी को जरूर देना पड़ता था। माताजी अपने पास जरूरत के हिसाब से पैसे रख लेती थी॔ बाकी जमा करवा देती थीं। जो धनराशि वह अपने पास रखती थी वह  घर के बच्चे और उनके जन्मदिन, तीज -त्योहार,  विवाह वार्षिक दिन के उत्सव पर उन्हें आशीर्वाद के रूप में दिया करती थी॔। शुरू में तो यह ₹11 हुआ करते थे । समय की बढ़ती चाल देखकर माता जी अब ₹101 पर आकर अटक गईं। कहती थीं “मेरी भी तो उमरा 101 ही है तो क्यों ना 101 दिया करूँ।”

गली मोहल्ले में कोई बीमार पड़े तो माताजी जरूर पहुँच जाती थीं।यदि कोई पुरुष बीमार हो तो वहाँ उनके पास बैठकर पाठ करती  और ठीक होने की दुआ कर घर लौट आतीं।

यदि कोई स्त्री बीमार हो तो उन्हें पता होता था कि परिवार को भोजन की आवश्यकता होती है। माताजी सुबह-शाम भोजन भेजने की व्यवस्था भी करतीं और समय-समय पर उनसे मिलने भी जातीं।

कोई बच्चा बीमार हो तो न जाने माताजी कौन-कौन से काढ़ा और  घुट्टियाँ तैयार करके बच्चे को पिलातीं। लोगों को पता था अनुभवी माताजी एक लंबा जीवन देख चुकी थीं।ऐसा जीवन जहाँ  आज जैसी दवाइयाँ नहीं थी इसलिए लोगों का  उन पर बड़ा भरोसा था।

खाली बैठना माताजी को कभी गवारा न था।इन एक सौ एक वर्ष की उम्र तक पचास -साठ स्वेटर बुन चुकी थीं साथ में न जाने कितने ही शालों पर कढ़ाई कर चुकी थीं।पड़ोस में किसीकी शादी हो तो माताजी चद्दर काढ़ने बैठ जातीं।

प्रातः चार बजे उठना, नहा धोकर पाठ करने बैठना उनकी बरसों की आदत थी। वे पाँच क्लास तक पढ़ी थीं जिस कारण पढ़ने लिखने की आदत बनी रही।तेरह वर्ष की उम्र में ब्याहकर आई थी इस परिवार में। यह परिवार जम्मू का डोगरी परिवार था।माताजी श्रीनगर की थीं जिस कारण उनकी वेष-भूषा आज भी काश्मीरियों जैसी ही थीं।हाँ भाषा वे डोगरी सीख गई थीं।

उनकी उम्र की महिलाएँ सारा दिन लेटी बैठी रहती होंगी पर माताजी को बैठे रहना मंजूर न था।सारे परिवार के लिए रात को बादाम भिगोकर रखना भी उनकी आदत में शामिल थी।हर कोई जब सुबह उठ कर उनके कमरे में पैरीपौना (प्रणाम) करने आता तो माताजी उसके हिस्से के बदाम – अखरोट उन्हें पकड़ा देतीं। घर के छोटे बच्चे कहीं बादाम अखरोट कूड़ेदान में ना डालें इसलिए उन्हें अपने सामने बिठाकर बादाम अखरोट चबाने के लिए कहती थीं।यह उनके अनुभव का ही एक हिस्सा था। रोज अखरोट तोड़ना,  खरबूजे के सूखे बीज से बीज निकालना, कद्दू के  सूखे बीज से छोटे बीज निकालना माताजी का ही काम था।नाखून अब काले से पड़ गए थे, हथेलियों पर रेखाओं का जाल बिछा था जिन्हें देखकर कोई भी कह सकता है कि वे कर्मठ हाथ थे।घर परिवार के लोगों को अपने हाथ से  खिलाना माता जी का निजी शौक था।

यही नहीं गर्मी के मौसम में आम का अचार- मुरब्बा बनाना आज भी माता जी का ही काम था। ठंड के मौसम में  जब फूल गोभी, गाजर शलगम, मटर खूब सस्ते हो जाते तो माताजी उन सब से अचार बनातीं। जम्मू के लोगों का यह बड़ा प्रिय अचार होता है ।

ठंड के दिनों में जब बड़ी-बड़ी, लाल – लाल मिर्चे  आते तो माता जी अपने हाथ से मसाले तैयार करके भरवे मिर्ची के अचार बनातीं। जम्मू में आज भी लोग सरसों का तेल भोजन के लिए प्रयोग में लाते हैं इसलिए सभी चीजें घर पर होने के कारण माताजी दिन भर अपने काम को लेकर व्यस्त रहती थीं। किसी पड़ पतोहू को साथ में ले लेती मदद के लिए और उन्हें सिखाती भी चलती।

ठंड के मौसम में जब वह भी गाजर शलगम मटर बाजार में आते तो माताजी उन सब को साफ करके खूब धूप में सुखातीं ताकि बारिश के दिनों में किसी को भोजन की कमी ना हो। रात के समय दही जमाने का काम भी माताजी ही किया करती थीं। गर्मी के मौसम में माताजी का अधिकांश समय घर की छत पर ही कटती थीं।लौकी -कद्दू डालकर बड़ियाँ डालना, मसालेवाली बड़ियाँ बनाना, पापड़ बनाना सब सुखाना माताजी का शौक था।

घर के हर सदस्य के स्वास्थ्य की देखभाल का मानो उन्होंने जिम्मा उठा रखा था। आजकल कुछ दिनों से माताजी अक्सर जोर से चिल्ला पड़ती और परिवार के लोगों को एकत्रित करती कहतीं ” ओए, ओए बड़ी पीड़ है छाती ते, आ … आ गया मैंन्नू लैंण। चलो मेन्नू मंजीते उतार लो, थल्ले जमीन पर चदरा बिछा दो मेरे जाणे दा वखत आ गिया।”

माताजी अक्सर कहती थीं “मैं मंजी ते न मरणा, थल्ले लिटाणा।”

इस तरह पिछले छह माह में माताजी ने कई बार कुनबे को अपने कमरे में एकत्रित कर लिया था।पहली बार जब ऐसा हुआ तो सब घबड़ा गए।तुरंत डॉक्टर बुलाया गया।डॉक्टर ने कहा हाइपर एसिडिटी है माताजी को घबराने की बात नहीं।” फिर जब कभी छाती में दर्द होता तो बच्चे दो चम्मच जेल्यूसिल उन्हें पिला देते।

एक दिन ब्रह्म मुहूर्त में माताजी ने न शोर मचाया न किसी को एकत्रित किया।न चाहकर भी अपने पलंग पर जिसे वे आजीवन मंजी कहती आईं थीं, पड़ी रहीं। सुबह जब भूषण माताजी से रोज़ की तरह पैरीपौना करने आया तो देखा हाथ में जप माला पकड़े वह निस्तेज पड़ी हैं।देह शांत, चेहरे पर मृदु मुस्कान!

खबर मिलते ही गली- मोहल्ले के लोग दर्शन के लिए आने लगे।देह को खूब सजाया गया पशमीना शाल ओढ़ाया गया, गुब्बारे बाँधे गए।

बड़ी उम्र के लोगों के देहांत के बाद इस तरह सजाकर ले जाना संभवतः डोगरी लोगों की संस्कृति है।  कंधे देनेवाले अनेक थे। खूब छुट्टे पैसे लुटाए  गए। घाट तक सौ दो सौ लोग पहुँचे। माताजी कहती थीं, “लकड़ी न सुलगाई मेरे लई, बच्च्यांदे काम्म आणा लकड़ियाँ। मेन्नू भट्टी विच पा देणा।” अर्थात फर्नेस में। लकड़ियाँ बच्चों के काम आएगी कहती थीं शायद इसलिए कि भारत में सबसे ज्यादा पेंसिल का कच्चा माल लखीमपुरा पुलवामा काश्मीर में बनाया जाता है। क्या सोच है माताजी की!

एक एरा, प्रचुर तजुर्बा लेकर,  कुनबे को, गली- मोहल्ले को अपने संस्कार से अवगत कराती हुई  प्रोग्रेसिव  सोच रखनेवाली माताजी परलोक सिधार गईं।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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