(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – आपके बिन खुशी नहीं भाती…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 87 – आपके बिन खुशी नहीं भाती… ☆ आचार्य भगवत दुबे
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक कविता – “मेड, इन इंडिया… ” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 328 ☆
लघुकथा – एंकर… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
वह एंकर है। शो होस्ट करती है। उस पर कभी लाइव कंसर्ट, कभी टीवी तो कभी रेडियो के एंकर की जिम्मेदारी होती है। लाइव शो के उन घंटों में बिना किसी फ्लाइट में बैठे ही उसका फोन फ्लाइट मोड में होता है, और वह दुनियां से बेखबर, दर्शकों को अपनी खनखनाती आवाज से एक स्वप्न लोक में ले जाती है। जब वह बोलती है , तो बस वह ही बोलती है, शो को एक सूत्र में बांधे हुए। जैसे एंकर तूफानी समुद्र में भी जहाज को स्थिर बनाए रखता है। उसके लाइव शो भी बस उसके इर्द गिर्द ही होते हैं। हर शो के बाद लोग उसकी आवाज के उतार चढ़ाव और संयोजन की प्रशंसा में इंस्टा पर कमेंट्स करते हैं। उसे अपने स्टड होस्टिंग टेलेंट पर नाज होता है।
लेकिन आज स्थिति अजब थी, उसका टी वी शो शिड्यूल था, और उसी वक्त उसके बचपन की सखी नीरा का रो रो कर बुरा हाल था। नीरा की मम्मी मतलब उसकी रीमा मां जिन्होंने बचपन में उसके बेजान घुंघराले उलझे बालों में तेल डालकर उसकी खूब हेड मसाज की थी, उसी वक्त आपरेशन थियेटर में थीं। सच कहें तो उसके स्टड व्यक्तित्व को गढ़ने में रीमा मां का बड़ा हाथ था। वे ही थीं जो उसके बालों में हाथ फेरते हुए उसे दुनियादारी के पाठ पढ़ाया करती थी, और उसे उसके भीतर छिपे टेलेंट को हौसला दिया करती थीं। उनके ही कहने पर उसने पहली बार अपने स्कूल में एनुअल डे की होस्टिंग की थी। इसी सब से पड़ोस में रहने वाली अपनी सहेली की मम्मी को वह कब आंटी से रीमा मां कहने लगी थी, उसे याद नहीं।
इधर स्टूडियो में उसका लाइव शो टेलिकास्ट हो रहा था, उधर आपरेशन थियेटर में रीमा मां का क्रिटिकल आपरेशन चल रहा था। बाहर नीरा हाथों की अंगुलियां भींचे हुए कारीडोर में चक्कर लगा रही थी। उसका टेलिकास्ट पूरा हुआ और वह अस्पताल भागी, वह नीरा के पास पहुंची ही थी कि आपरेशन थियेटर के बाहर लगी लाल बत्ती बुझ गई। डाक्टर सिर लटकाए बाहर निकले, आई एम सॉरी, उन्होंने कहा। नीरा उसकी बांहों में अचेत ही हो गई। उसने नीरा को संभाला, और उसके उलझे बालों में उंगलियां फेरने लगी।
विषम स्थिति से उसे खुद को और नीरा को निकालना होगा, वह अपनी रीमा मां की एंकर है, स्टड और बोल्ड।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – लघुकथा – कूड़ेदान ।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 42 – लघुकथा – कूड़ेदान
पिछली रात मेरे घर में कुछ मेहमान आए थे, रात को सोने में देरी हो गई थी तो सुबह न जल्दी नींद खुली और न घर का कूड़ा मुख्य दरवाज़े के बाहर रखा।
सुबह आठ बजे के करीब घंटी बजी। मुझे कुछ देर और सोने की इच्छा थी पर दरवाज़े पर कौन है यह तो देखना ही था। मैं झल्लाकर उठी, दरवाज़ा खोला तो सामने मोहल्ले का सफ़ाई कर्मी राजू खड़ा था। मुस्कराकर नमस्ते कहकर बोला, तबीयत ठीक नहीं माताजी?
मैंने अलसाते हुए कहा – नहीं, ठीक है बस नींद नहीं खुली।
– आपको डायाबेटिज़ है माताजी ?
– हाँ राजू, बहुत साल हो गए। तुम्हें कैसे पता?
– आपके सूखे कूड़े दान में इंजेक्शन का ढक्कन रहता है न तो मालूम पड़ा। रोज़ सोचता हूँ पूछूँ पर आप सुबह ही कूड़ा रख देती हैं तो मुझे मौका नहीं मिलता पूछने का। अपना ध्यान रखो माताजी।
– अरे राजू कूड़ा तो सुबह अंकल ही रखते हैं। आज वे मंदिर चले गए और मेरी नींद न खुली। बेल बजाकर कूड़ा उठाने के लिए थैंक यू राजू।
सफ़ाईवाला राजू कूड़ा लेकर चला गया।
मुझे मेरे प्रति उसकी चिंता और सद्भावना अच्छी लगी। यही तो इन्सानियत होती है।
कुछ दिन बाद मुझे कुछ सामान लेने के लिए पास की दुकान जाना था। मैं सामान लेकर लौटी तो थोड़ी थकावट के कारण मोहल्ले के एक बेंच पर बैठ गई।
बेंच के पीछे से कुछ परिचित -सी आवाज़ आई तो मैंने बेंच के पीछे झाँककर देखा। सफ़ाईवाला राजू और उसका साथी बानी दोनों बेंच के पीछे तंबाकू खाने बैठे थे।
हमारे मोहल्ले के बेंच सिमेंट से बने ऊँचे बेंच हैं। कोई पीछे बैठा हो तो पता नहीं चलता।
मैं चुपचाप बैठी रही। वे आपस में बातें करने लगे।
– “606 वाले अंकल लगता है बहुत दारू पीते हैं। रोज़ बोतलें निकलती हैं उनके घर से। ” राजू बोला।
– “उनको छोड़ ई बिल्डिंग 201 की मैडम हैं न जो अकेली ही रहती हैं, अरे वह मोटी सी, बहुत ज़ोर से हँसती है वह तो 606 की भी गुरु है। ” बानी बोला।
– क्यों उनकी बोतलें ज़्यादा होती है क्या?
– बोतलें तो होती ही हैं साथ में खूब सिगरेट भी फूँकती हैं। वह तो मुझे हर महीने 100 रुपये एकश्ट्रा देती है बोतलें उठाने के लिए। फिर बोतलें बेचकर मैं भी कुछ और रुपया कमा लेता हूँ। आपुनको तो फायदा है रे पर उनका क्या?
– सही है। बोतलें बेचकर कमाता तो मैं भी हूँ।
थोड़ी देर दोनों चुप रहे। दोनों शायद मुँह में ठूँसे हुए तंबाकू का मज़ा ले रहे थे।
थोड़ी देर बाद राजू बोला- लाश्टवाली ऊपर के घर में जो साहब और मैडम रहते हैं न वे बहुत बाहर से खाना मँगवाकर खाते हैं।
– तेरेको कैसे मालूम?
– अरे बाज़ार के वे गोल काले डिब्बे नहीं क्या आते सफेद ढक्कनवाले। अक्सर सूखे कचरे में वे पड़े रहते हैं और खाना बरबाद भी करते हैं।
– ये अमीरों के चोंचले ही कुछ अलग होते हैं।
– सही कहा इनको अन्न के लिए कोई सम्मान नहीं रे। खाना बरबाद करना तो अमीरी के लक्षण हैं। एक हमी को देख लो दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए सुबह से शाम तक लोगों के घर- घर जाकर कूड़ा उठाते रहते हैं। शाम तक तो आपुन के बदन से भी कूड़े का बास आता है। साला नशीबच खोटा है अपुन का।
– सब भाग्य का खेल है रे ! आपुन लोगों के नसीब में गरीबी लिखी है। पता नहीं इन बड़े अमीरों को खाना फेंकने की सज़ा कभी मिलेगी भी कि नहीं।
– मिलती है रे सज़ा, झरूर मीलती है। वो 303 की ऊँची माताजी है न, बड़ी सी बिंदी लगाती है, उसको डायाबिटीज़ है। यार ! कभी तो कुछ बुरा किया होगा न जो आज रोज़ खुद कोइच सुई टोचती रहती है। बुरा लगता है रे बुड्ढी दयालु है। हम गरीबों को अच्छा देखती भी है पर देख भुगत तो रही है न?
मैं और अधिक समय वहाँ न बैठ सकी। कुछ तीव्र तंबाकू की गंध ने परेशान किया और कुछ उनकी आपसी बातों ने।
मैं मन ही मन सोचने लगी कि अपना घर साफ़ करके कूड़ा जब हम बाहर रखते हैं तब प्रतिदिन कूड़ा साफ़ करनेवाला घर के भीतर के इतिहास -भूगोल की जानकारी पा जाता है। हमारे खान -पान और चरित्र का परिचय शायद हमारे कूड़ेदान ही बेहतर दे जाते हैं।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “जल संरक्षण”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 213 ☆
🌻लघुकथा 🌻 कुंभ स्नान 🌻
सारा विश्व, भारतवर्ष प्रयागराज में आस्था के प्रतीक कुंभ महोत्सव में मांँ गंगा स्नान महत्व को अपना धर्म – कर्म की राह में एक कदम आगे बढ़ा रहा है। जय- जयकार करते सभी सोशल मीडिया, चैनल भक्ति से सराबोर दैनिक समाचार पत्र, और जगह जगह कुंभ जाने की इच्छा।
श्री राम और रामायण पर आस्था और पूर्ण विश्वास रखने वाली श्रेया का विधिवत चौपाई का पठन करना प्रतिदिन का उसका नियम था।
वह कर्म का लेख और भाग्य विधाता को सर्वोपरि मान कर अपने जीवन में आने वाली सभी कठिनाईयाँ सब सहती जा रही थी। ।
घर के आसपास रिश्ते- नाते, अडोसी – पड़ोसी, कुटुंब परिवार सभी कुंभ जाने की बात कर रहे थे। ठिठुरती ठंड में पतिदेव पेपर पढ़ने में तल्लीन।
चाय लेकर सोची वह भी याचना करके देखे की कुंभ ले चले। धीरे से दबी जुबान में श्रेया ने कहा – – सुनिए सभी कुंभ स्नान को प्रयागराज जा रहे हैं क्या? हम लोग भी जाएंगे।
कुटिलता भरी मुस्कान लिए अत्यधिक कड़वाहट भरे शब्दों का इस्तेमाल करते सौरभ उठा बाथरूम से भरी बाल्टी का पानी श्रेया के ऊपर डालते बोला – – हो गया पतिदेव के हाथ से कुंभ स्नान। इस जन्म तुम आराम से स्वर्ग पहुँच जाओगी। ठंड की सिहरन से श्रेया कांपने लगी।
पास के मंदिर में घंटी की आवाज और जोर-जोर से रामायण की चौपाई सुनाई दे रही थी—-
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 116 ☆ देश-परदेश – ठंड बहुत है ☆ श्री राकेश कुमार ☆
इन शब्दों के उपयोग से हम अपनी लेट लतीफी पर पर्दा डालने का कार्य करते हैं। मौसम को हथियार बनाना सब से आसान जो होता हैं।
कुछ दिन पूर्व जयपुर से दिल्ली प्रातः काल टैक्सी से यात्रा करनी थी। जयपुर से जाने वाले वर्तमान में परिचितों के लिए मिठाई के स्थान पर विश्व प्रसिद्ध कचौरी चाहे प्याज,कोटा या दाल वाली को ही प्राथमिकता देते हैं। मेजबान भी मीठे के नाम से परहेज करते हैं।
घर के पास के कचौरी निर्माता को फोन पर जानकारी प्राप्त की कितने बजे कचौरी उपलब्ध हो जाएगी। उसने साढ़े सात पर सभी वैरायटी की गारंटी ली। सुबह जब आठ बजे उसके यहां पहुंचे तो बोला अभी तो आधा घंटा और लगेगा। उसने भी ठंड का हवाला दे कर हमारे गुस्से को ठंडा कर दिया। हमने भी तर्क दिया क्या ठंड अचानक आ गई है ? वो हंसते हुए बोला इतनी देरी तो स्वाभाविक हैं। रात को दुकान बंद करने के समय बहुत देरी हो जाती हैं। आजकल लोग निशाचर हो गए हैं। स्विगी वाले “कचोरीखोरों” को रात्रि ग्यारह बजे तक घर पहुंच सेवा देने में तत्पर रहते हैं। आप जैसे बुजुर्ग ही सुबह सुबह हमारी दुकान पर आकर बहस कर दिमाग खाते हैं।
हमारी समझ में आ गया, इसे अवश्य बस कंडक्टर और सेवानिवृत आई ए एस के थप्पड़/ झगड़े वाली कहानी की जानकारी होगी। हम भी आधे घंटे तक इंतजार कर कचौरी ले कर आ गए। अब ठंड बहुत बढ़ गई, मोबाइल पर उंगलियां नहीं चल रहीं हैं।
आमच्या घरी रविवार हा विशेष दिवस असायचा. म्हणजे तसा तो सगळ्यांकडेच असावा कारण एकतर सुट्टीचा वार आणि सगळे घरात. थोडा निवांतपणा, रोजच्या दिनक्रमापेक्षा वेगळा पण मला एक मात्र आठवतंय की, ” चला रविवार आहे म्हणून गादीत पांघरूण घेऊन उशिरापर्यंत लोळत राहूया. ” हे मात्र नव्हतं. या उलट कधीकधी तर पप्पा शनिवारी रात्री झोपण्यापूर्वी सगळ्यांना सांगून ठेवायचे, ” उद्या प्रत्येकाने पहाटे चार वाजता उठायचे. आपल्याला कशेळीच्या पुलावर जायचे आहे आणि तिथून हजारो वर्षांनी प्रकटलेल्या एका धूमकेतूचे दर्शन घ्यायचे आहे. निसर्गातले दुर्लभ देखावे पाहण्यातली मजा काही औरच असते. ”
आणि आम्ही सारे पहाटेच्या अंधारात चालत कशेळीच्या पुलावर जात असू आणि तिथून आकाश दर्शनाचा महानंद घेत असू. अशा अनेक सुंदर पहाटा (पहाटचे अनेक वचन) आम्ही अनुभवलेल्या आहेत. निसर्गाच्या तत्त्वाशी झालेली तादात्म्यता किती सुखाची असते हे जरी तेव्हा कळत नसलं तरी जाणवलं होतं. मोकळ्या आभाळाखाली उभे राहून अंधारात चमचमणारं आकाश दर्शन किती सुंदर असतं हे केवळ शब्दांच्या पलिकडे आहे.
आज जेव्हा मी घराच्या गच्चीतून कधीतरी पहाटे आकाश निरखण्याचा प्रयत्न करते तेव्हा काहीसं गढुळ, धुरकट, बिनताऱ्यांचंं आकाश बघताना कुठेतरी मन द्रवतं. माणूस निसर्गापासून दूर जात चालला आहे का?” हा प्रश्न वेदनादायी वाटतो.
असो!
तर आमचे अनेक रविवार अशा रितीने सुरू व्हायचे. जेवणाच्या मेनू पासून सारंच विशेष असायचं. संध्याकाळी सेंट्रल मैदानात मस्त रमतगमत फिरायला जायचं. तिथल्या खुरट्या पण गारवा देणाऱ्या गवतावर रिंगण करून बसायचं. सोबत खाण्यासाठी उकडलेल्या भुईमुगाच्या शेंगा किंवा ओवा, मीठ घालून उकळलेल्या चवळीच्या शेंगा नाहीतर वाफवलेल्या शिंगाड्यांचा आस्वाद घ्यायचा. पप्पांकडून अनेक गमतीदार किस्से ऐकायचे. एकेकांच्या मस्त नकला करून ते आम्हाला हसवायचे. काही गल्लीतले सवंगडीही बरोबर असायचे. मग त्यांच्यासोबत लंगडी, रिंग नाहीतर कांदाफोडी सारखे मजेदार खेळही रंगायचे. कधी गाणी तर कधी भेंड्या. मज्जाच मज्जा. त्यावेळी मॉल नव्हते. टाईम झोन सारखे ढॅण ढॅण, कानठळ्या बसणारे कर्कश्श नादमय बंदिस्त क्रीडा विभाग नसायचे. बर्गर, पास्ता, पिझ्झा यांची तोंडओळख ही नव्हती पण सेंट्रल मैदानातला रविवारचा तो हल्लाबोल मात्र विलक्षण असायचा. जडणघडणीतला एक महत्त्वाचा भाग होता तो! संध्याकाळ उलटल्यानंतर सोबतीला आकाशातली आकाशगंगा असायची. सप्तर्षी, व्याध, ध्रुवतारा, कृत्तिका, अनुराधा आमच्याबरोबर जणू काही फेर धरायच्या. आजही माझ्या नातींना मी आकाशात नथीच्या आकड्यासारखा दिसणारा कृत्तिकेचा तारकापुंज दाखवण्याचा प्रयत्न करते तेव्हा त्यांना मजा वाटत नाही असे नाही पण त्या त्यात गुंतत नाहीत हे मात्र खरं. शिवाय आता त्यांच्यासाठी प्लॅनेटोरियम्स आहेतच. बायन्याक्युलर्स, टेलिस्कोप सारखी आधुनिक उपकरणे आहेत पण दोन डोळ्यांनी अथांग आभाळ पाहण्याचे सुख काय असतं हे त्यांना कसं सांगू?
रविवारची दुपार मात्र थोडी वेगळी असायची. तरीही त्या दुपारींना मी सुस्त दुपार असे विशेषण लावणार नाही. त्याचे कारण म्हणजे माझी आई. आई अतिशय व्यवस्थित. स्वच्छता, टापटीप याविषयी अत्यंत जागरूक, सतत आवराआवरी करणारी एक शिस्तप्रिय व्यक्ती होती. त्या बाबतीत पप्पा मात्र थोडे शिथिल होते म्हणजे ते व्यवस्थित नव्हते असं मी मुळीच म्हणणार नाही पण त्यांचा व्यवस्थितपणा आणि आईचा व्यवस्थितपणा यांच्या व्याख्याच वेगळ्या होत्या आणि त्या एकमेकांना छेद देणाऱ्या होत्या. पप्पांची पुस्तके, लेखनाचा पसारा म्हणजे कागद, पेन, पेन्सिली वगैरे …त्यांचे संदर्भ ग्रंथ, फाइल्स, वाचकांची पत्रे अशा अनेक गोष्टी घरभर पसरलेल्या असत. पप्पांची विद्वत्ता, त्यांचा लौकिक, लोकप्रियता, व्यासंग, अभ्यास हे सगळं मनोमन मान्य करूनही आईला हा सगळा पप्पांचा पसारा वाटायचा. ती अनेकदा तळमळीने तो आवरूनही ठेवायची. कशा पद्धतीने तो ठेवला गेला पाहिजे यावर पप्पांची शिकवणी घ्यायची. त्यावरून त्यांचे वादही व्हायचे. पप्पांचे एकच म्हणणे असायचे, ” मला हवी ती, हवी तेव्हा कुठलीही वस्तू या जंजाळातच सापडते. तू कशाला आवरतेस?”
आम्ही कुणीही कुणाचीच बाजू घ्यायचो नाही पण एखाद्या रविवारी दुपारी पप्पाच फर्मान काढायचे, ” चला ग पोरींनो! आज आपण हे भलं मोठं काचेचं पुस्तकांचं कपाट आवरूया. जरा नीटनेटकं लावूया. ”
हे कपाट आवरणं म्हणजे एक उपक्रम होता म्हणण्यापेक्षा एक महान सोहळाच होता असं मी म्हणेन. पप्पांचा पुस्तक संग्रह विशाल होता. कितीतरी जुनी क्लासिक मराठी, इंग्रजी, संस्कृत भाषेमधील अनेक विषयांची पुस्तके त्यात होती. एकेक पुस्तक हातात घेतल्यावर ते म्हणायचे, “पाहिलं? हे कालिदासाचे मेघदूत. काव्यानंद आणि काव्यभावाचा उच्चांक म्हणजेच हे मेघदूत. मग भर दुपारी आमच्या त्या अरुंद घरात साक्षात अलकापुरी अवतारायची. कुबेर, यक्ष आमच्या दारात उभे राहायचे. प्रेमिकेसाठी व्याकुळ झालेला यक्ष, आषाढातला पाऊस आणि त्या मेघदूताचे दर्शन आम्हाला तेव्हाच घडायचे. हातात कालिदासाचे मेघदूत आणि पप्पांच्या मुखातून आलेले सहजोद्गार..
नीत्वा मासान्कनकवलय भ्रंशरिक्त प्रकोष्ठ
आषाढस्य प्रथम दिवसे मेघमाश्लिष्टसानुं
वप्रक्रीडापरिणत गजप्रेक्षणीयं ददर्श।।
आम्ही ऐकत बसायचो. कपाटातून एका मागून एक पुस्तकं निघायची. शाकुंतल, मालविकाग्नीमित्र, चक्रधर, भवभूती, मोरोपंत …एकेकांना पप्पा रांगेत अत्यंत मानाने जमिनीवर पसरलेल्या चादरीवर ठेवत. मध्येच मृच्छकटिक नाटकाची गोष्टही ते सांगायचे. आर्या वृत्तातल्या केकावल्या रंगायच्या.
।। सुश्लोक वामनाचा
अभंगवाणी तुकयाची
ओवी ज्ञानेशाची
आर्या मयुरपंतांची।।
मोरोपंतांचीच एक मिश्कील काव्यरचना त्यांनी आम्हाला वाचून दाखवली.
स्वस्त्री घरात नसता कंडु शमनार्थ रंडीरा खावी।
तीही घरात नसता स्वहस्ते चिबुल्ली दाबावी।।
वाचकहो! हे फालतु काव्य नाही बरंका?
अहो मोरोपंतच ते.. त्यांचं काव्य अस्सलच.
कंडु म्हणजे घशातली खवखव.
रंडीरा म्हणजे खडीसाखर.
चिबुल्ली म्हणजे पडजीभ.
या ओळींचा अर्थ एव्हढाच की घरांत कुणी नसताना खोकल्याची उबळ आली तर खडीसाखर खावी, तीही नसेल तर मग स्वत:च्या हाताने पडजीभेवर दाब द्यावा.
पपांच्या तोंडून हे सारं ऐकताना आम्ही खरोखरच रमून जायचो.
मग कपाट आवरणं दूरच रहायचं.
पप्पा त्या कपाटातून बाहेर आलेल्या पुस्तकांच्या गराड्यातत पार रंगून गेलेले असायचे. एकेकीच्या खांद्यावर हात ठेवून म्हणायचे. ” हे पहा! हे बर्नाड शॉचे पिग्मॅलियन नाटक. त्याची कल्पकता तर पहा! एका ग्रीक दंतकथेवरून सुचलेलं हे सुंदर विनोदी अंगाने जाणारं पण प्रेमाविष्काराचं सुरेख नाटक. एक उत्कृष्ट शिल्पकार त्याच्या स्वतःच्याच निर्मितीच्या प्रेमात कसा पडतो ते सांगणारी ही एक ग्रीक दंतकथा आणि या कथेचा आधार घेऊन एका प्रोफेसर आणि ग्रामीण फुलराणीची ही अप्रतिम प्रेमकहाणी म्हणजेच हे बर्नार्ड शाॅचे पिग्मॅलियन नाटक.
भर दुपारी ही कथा इतकी रंगायची की आम्ही कपाट आवरण्याविषयी पूर्णपणे विसरलेलेच असायचो.
शेक्सपियरची जुलिएट, डेस्डेमोना, हॅम्लेट, ते काल्पनिक भूत, ऑथेल्लो, ब्रूटस सारेच आमच्या या सोहळ्यात हळूहळू सहभागी व्हायचे.
मध्येच पपा मला म्हणायचे, ” लंडनला राणीच्या देशात जाऊ आणि शेक्सपियरच्या स्ट्रॅटफॉर्डला नक्की भेट देऊ बरं का बाबी!
मग मी म्हणायचे!” काय पप्पा आधी कबूल केल्याप्रमाणे बेळगावला तर न्या. मध्येच हे लंडन कुठून आलं?”
“अगं जाऊ की! आणि समजा मी नसलो तरी तुम्ही जालच आयुष्यात कधीतरी. त्यावेळी एक वेडा वाचक म्हणून त्याच्याशी माझी ओळख करून द्या. ” पप्पांची भविष्यवाणी खरी ठरली पण आमच्या धोबी गल्लीतल्या घरातलं पप्पांमुळे निर्माण झालेलं ते स्ट्रॅटफोर्ड मला आजही आठवतं आणि तेच खरं वाटतं.
अँटन चेकाव हा एक पप्पांचा आवडता लेखक. त्याची “नेकलेस” ही कथा ते इतकी रंगवून सांगायचे की आकाशातून ऐकणारा तो प्रत्यक्ष लेखकही सुखावत असेल.
WHEN ALL AT ONCE I SAW A CROWD
A HOST OF GOLDEN DAFFODILS
BESIDE THE LAKE BENEATH THE TREES
FLUTTERING AND DANCING
IN THE BREEZE.
वर्ड्सवर्थची “डॅफोडील” ही अशीच अलगद कपाटातून बाहेर यायची. त्यासोबत बालकवींची फुलराणी असायची.
आईच्या बाळा ठावे
प्रेमाच्या गावा जावे
मग ऐकावे या बोला
राजहंस माझा निजला…ही गोविंदाग्रजांची कविता म्हणून दाखवताना पप्पांच्या डोळ्यातून अक्षरशः पाण्याचा पूर व्हायचा.
जे कृष्णमूर्ती म्हणजे चैतन्यवादी तत्त्वचिंतक. पप्पांच्या विचारांवर त्यांच्या विचारांचा पगडा होता. त्यांची तत्त्वचिंतनपर लिहिलेली अनेक पुस्तके पप्पांनी संग्रही ठेवली होती. काही पुस्तकांचे मराठी अनुवादही पप्पांनी केले होते. अनेक लेख त्यांचे मासिकातून प्रसिद्ध झाले होते. या सर्वांची कात्रणे पपांनी जपून ठेवलेली होती. कपाट लावण्याच्या निमित्ताने तीही बाहेर आली आणि काही काळ आम्ही “जे कृष्णमूर्ती” यांच्या विचार प्रवाहात नकळत गुंतून गेलो.
शैक्षणिक पुस्तकांच्या राशीत छुंदाला गोखले यांचं अंकगणित हे पुस्तक दिसलं. ते बघताच पपा तिला म्हणाले,
“बाजूलाच ठेव ते. उद्यापासून रोज यातली पाच गणितं तरी सोडवायचीच.
कपाट आवरणं फक्त निमित्त! त्या काही वेळात आमच्या घरात जणू काही विश्व साहित्य संमेलन भरलेलं असायचं. तमाम, गाजलेले, देश विदेशातले मृत अथवा जिवंत लेखक- लेखिका त्यांच्या साहित्यांचा एक सुंदर मेळावाच तिथे भरलेला असायचा. त्या साहित्य गंगेच्या प्रवाहात आम्ही आनंदे विहार करायचो.
तिथे फक्त पुस्तकंच नसायची तर अनेक जपून ठेवलेले आठवणींचे कागदही असायचे. त्यात उषाने अगदी लहान असताना काढलेल्या प्रमाणबद्ध रेषांची चित्रं असायची, छुंदाने सोडवलेल्या एखाद्या कठीण गणिताचा वहीतला कागद असायचा, ” मला फक्त सुखात राहायचे आहे” अशी मी कधीतरी लिहिलेली कागदावरची ओळही जपलेली असायची. कपाट आवरताना एका कागदावर स्थिर झालेली पप्पांची नजर मला दिसली आणि मी विचारले, ” काय बघता एवढं त्या कागदावर?”
“बाबी! हे माझ्या बापाचं हस्ताक्षर आहे. मी चार महिन्यांचा असताना त्यांनी हे जग सोडले. मी माझा बाप पाहिला नाही अनुभवला नाही. या हस्ताक्षरात मी माझा बाप अनुभवतो. ”
काळजात चुकलेला तो ठोका आजही माझ्या आठवणीत तसाच्या तसाच आहे.
आई म्हणायची, ” पसारा आवरा तो. ” कसला पसारा आणि कसा आवरायचा? मुळातच याला पसारा का म्हणायचं?
संध्याकाळ झालेली असायची. भराभर आम्ही सारी पुस्तकं कपाटात ठेवून द्यायचो. खरं म्हणजे पूर्वीपेक्षाही ते कपाट आता अधिकच भरलेलं दिसायचं पण आम्हाला ते तसंच नीटनेटकं वाटायचं.
आज हे सारं काही आठवून लिहिताना जाणवतं, मनाच्या बंद तिजोरीत ही मौल्यवान संस्कार भूषणं अजूनही तशीच आहेत. ज्यांनी आमच्या जगण्यातला आनंद वाढवला, टिकवला.
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे सदैव हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते थे। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 222 – कथा क्रम (स्वगत)…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “रख लाई कई रिश्ते...”)