हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #267 ☆ बढ़ती संवेदनशून्यता– कितनी घातक… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी की मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख बढ़ती संवेदनशून्यता– कितनी घातक। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 267 ☆

☆ बढ़ती संवेदनशून्यता– कितनी घातक… ☆

‘कुछ अदालतें वक्त की होती हैं, क्योंकि जब समय जवाब देता है, ग़वाहों की ज़रूरत नहीं होती और सीधा फैसला होता है’ कोटिशः सत्य हैं और आजकल इनकी दरक़ार है। आपाधापी व दहशत भरे माहौल में चहुँओर अविश्वास का वातावरण तेज़ी से फैल रहा है।  हर दिन समाज में घटित होने वाली फ़िरौती, दुष्कर्म व हत्या के हादसों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। संवेदनहीनता इस क़दर बढ़ रही है कि इंसान इनका विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाता बल्कि ग़वाही देने से भी भयभीत रहता है, क्योंकि वह हर पल दहशत में जीता है और सदैव आशंकित रहता है कि यदि उसने ऐसा कदम उठाया तो वह और उसका परिवार सुरक्षित नहीं रहेगा। सो! उसे ना चाहते हुए भी नेत्र मूँदकर जीना पड़ता है।

आजकल किडनैपिंग अर्थात् अपहरण का धंधा ज़ोरों पर है। अपहरण बच्चों का हो, युवकों-यवतियों का– अंजाम एक ही होता है। फ़िरौती ना मिलने पर उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है या हाथ-पाँव तोड़कर बच्चों से भीख मंगवाने का धंधा कराया जाता है या ग़लत धंधे में झोंक दिया जाता है, जहाँ वे दलदल में फंस कर रह जाते हैं। जहाँ तक बालिकाओं के अपहरण का संबंध है, उनकी अस्मिता से खिलवाड़ होता है और उन्हें दहिक शोषण के धंधे में धकेल कोठों पर पहुंचा दिया जाता है। वहाँ उन्हें 30-40 लोगों की हवस का शिकार बनना पड़ता है। रात के अंधेरे में सफेदपोश लोग उन बंद गलियों में आते हैं, अपनी दैहिक क्षुधा शांत कर भोर होने से पहले लौट जाते हैं, ताकि वे समाज के समक्ष दूध के धुले बने रहें और सारा इल्ज़ाम उन  मासूम बालिकाओं व कोठों के संचालकों पर रहे।

जी हाँ! यही है दस्तूर-ए-दुनिया अर्थात् ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात् दोषारोपण सदैव दुर्बल व्यक्ति पर ही किया जाता है, क्योंकि उसमें विरोध करने की शक्ति नहीं होती और यह सबसे बड़ा अपराध है। गीता में यह उपदेश दिया गया है कि ज़ुल्म करने वाले से बड़ा दोषी ज़ुल्म सहने वाला होता है। अमुक स्थिति में हमारी सहनशक्ति हमारे दुश्मन होती है, अर्थात् इंसान स्वयं अपना शत्रु बन जाता है, क्योकि वह ग़लत बातों का विरोध करने का सामर्थ्य नहीं रखता। मेरे विचार से जिस व्यक्ति में ग़लत को ग़लत कहने का साहस नहीं होता, उसे जीने का अधिकार नहीं होना चाहिए। सत्य की स्वीकार्यता व्यक्ति का सर्वोत्तम गुण है और इसे अहमियत ना देना जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है।

आजकल लिव-इन का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इसमें दोष युवतियों का है, जो अपने माता-पिता के प्यार-दुलार को दरक़िनार कर, उनकी अस्मिता को दाँव पर लगाकर एक अनजान व्यक्ति पर अंधविश्वास कर चल देती है उसके साथ विवाह पूरव उसके साथ रहने ताकि वह उसे देख-परख व समझ सके। परंतु कुछ समय पश्चात् जब वह पुरुष साथी से विवाह करने को कहती है, तो वह उसकी आवश्यकता को नकारते हुए यही कहता है कि विवाह करके ज़िम्मेदारियों का बोझ ढोनेने का प्रयोजन क्या है– यह तो बेमानी है। परंतु उसके आग्रह करने पर प्रारंभ हो जाता है मारपीट का सिलसिला, जहाँ उसे शारीरिक व मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। श्रद्धा व आफ़ताब, निक्की व साहिल जैसे जघन्य अपराधों में दिन-प्रतिदिन इज़ाफा होता जा रहा है। युवतियों के शरीर के टुकड़े करके फ्रिज में रखना, उन्हें निर्जन स्थान पर जाकर फेंकना इंसानियत की सभी हदों को पार कर जाता है। साहिल का निक्की की हत्या करने के पश्चात् दूसरा विवाह रचाना सोचने पर विवश कर देता है कि इंसान इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? यह तो संवेदनशून्यता की पराकाष्ठा है। मैं इस अपराध के लिए उन लड़कियों को दोषी मानती हूँ, जो हमारी सनातन संस्कृति का अनुकरण न कर पाश्चात्य की जूठन स्वीकार करने में फख़्र महसूसती हैं। वैसे ही पित्तृसत्तात्मक युग में हम यह  अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि पुरुष की सोच बदल सकती है। वह तो पहले ही स्त्री को अपनी धरोहर / बपौती समझता था। आज भी वह उसे उसका मालिक समझता है तथा जब चाहे उसे घर से बाहर का रास्ता दिखा सकता है। उसकी स्थिति खाली बोतल के समान है, जिसे वह बीच राह फेंक सकता है; वह उस पर शक़ के दायरे में अवैध संबंधों का  इल्ज़ाम लगा पत्नी व बच्चों की निर्मम हत्या कर सकता है।  वास्तव में पुरुष स्वयं को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, ख़ुदा समझता है, क्योंकि उसे कन्या-भ्रूण को नष्ट करने का अधिकार प्राप्त है।

‘औरत में जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया / जब जी चाहा मसला-कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।’ ये पंक्तियाँ औरत की नियति को उजागर करती हैं। वह अपनी जीवन-संगिनी को अपने दोस्तों के हम-बिस्तर बनाने का जघन्य अपराध कर सकता है। वह पत्नी पर अकारण इल्ज़ाम लगा कटघरे में खड़ा सकता है। वैसे भी उस मासूम को अपना पक्ष रखने का अधिकार प्रदान ही कहाँ किया जाता है? कचहरी में भी क़ातिल को भी अपना पक्ष रखने व स्पष्टीकरण देने का अधिकार होता है। इतना ही नहीं एक दुष्कर्मी पैसे व रुतबे के बल पर उस मासूम की जिंदगी के सौदे की पेशकश करने को स्वतंत्र है और उसके माता-पिता उसे दुष्कर्मी के हाथों सौंपने को तैयार हो जाते हैं।

वास्तव में दोषी तो उसके माता-पिता हैं जो अपनी नादान बच्ची पर भरोसा नहीं करते। वैसे भी वे अंतर्जातीय विवाह की एवज़ में कभी ऑनर किलिंग करते हैं, तो कभी दुष्कर्म का हादसा होने पर समाज में निंदा के भय से उसका तिरस्कार कर देते हैं। उस स्थिति में वे भूल जाते हैं कि वे उस निर्दोष बच्ची के जन्मदाजा हैं। वे उसकी मानसिक स्थिति को अनुभव न करते हुए उसे घर में कदम तक नहीं रखने देते। अच्छा था, तुम मर जाती और उसकी ज़िंदगी नरक बन जाती है। अक्सर ऐसी लड़कियाँ आत्महत्या कर लेती हैं या हर दिन ना जाने वे कितने सफेदपोश मनचलों की हमबिस्तर बनने को विवश होती हैं। काश! हम अपने बेटे- बेटियों को बचपन से यह एहसास दिला पाते कि वे अपने संस्कारों अथवा मिट्टी से जुड़े रहते व सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करते। वे उसे आश्वस्त कर पाते कि यह घर उसका भी है और वह जब चाहे, वहाँ आ सकती है।

यदि हम परमात्मा की सत्ता पर विश्वास रखते हैं, तो हमें इस तथ्य को स्वीकारना पड़ेगा कि परमात्मा की लाठी में आवाज़ नहीं होती और कुछ फैसले रब्ब के होते हैं और जब समय जवाब देता है तो ग़वाहों की ज़रूरत नहीं होती– सीधा फैसला होता है। कानून तो अंधा व बहरा है, जो गवाहों पर आश्रित होता है और उनके न मिलने पर जघन्य अपराधी भी छूट जाते हैं और निकल पड़ते हैं अगले शिकार की तलाश में और यह सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता। हमारे यहाँ फ़ैसले बरसों बाद होते हैं, जब उनकी अहमियत ही नहीं रहती। इतना ही नहीं, मी टू ने भी अपना खाता खोल दिया है। पच्चीस वर्ष पहले घटित हादसे को भी उजागर कर, आरोपी पर इल्ज़ाम लगा हंसते-खेलते परिवार की खुशियों में सेंध लगा लील सकती हैं; उन्हें कटघरे में खड़ा कर सकती हैं। वैसे यह दोनों स्थितियाँ विस्फोटक हैं, लाइलाज हैं, जिसके कारण समाज में विसंगति व विद्रूपताएं निरंतर बढ़ गई हैं, जो स्वस्थ समाज के लिए घातक हैं।

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© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – अधरंगे ख़्वाब  — कवि- राजेंद्र शर्मा ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 26 ?

? अधरंगे ख़्वाब  — कवि- राजेंद्र शर्मा ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- अधरंगे ख़्वाब

विधा- कविता

कवि- राजेंद्र शर्मा

प्रकाशक- बोधि प्रकाशन, जयपुर 

? एक सिनेमेटोग्राफर की डायरी : अधरंगे ख़्वाब  श्री संजय भारद्वाज ?

सपना या ख़्वाब मनुष्य की जीवन यात्रा के अभिन्न अंग हैं। सुप्त इच्छाएँ, आकांक्षाएँ,  अव्यक्त विचार प्राय: ख़्वाब का आकार ग्रहण करते हैं। अधिकांशत: ख़्वाब चमकीले या रंग- बिरंगे होते हैं। कवि राजेंद्र शर्मा की ख़्वाबों की दुनिया उनके कविता संग्रह ‘अधरंगे ख़्वाब’ में उतरी है। अलबत्ता ये ख़्वाब कोरी कल्पना के धरातल से नहीं अपितु जीवन के कठोर यथार्थ एवं जगत की रुक्ष सच्चाइयों से उपजे हैं। यही कारण है कि कवि इन्हें अधरंगे ख़्वाब कहता है।

‘अधरंगे ख़्वाब’ की कविताओं में स्मृतियों की खट्टी-मीठी टीस है। राजनीति के विषैलेपन पर प्रहार है। लॉकडाउन के समय की भिन्न-भिन्न घटनाओं के माध्यम से तत्कालीन मनोदशा का वर्णन है। नगरवधुओं की पीड़ा के चित्र हैं। आचार-विचार  में निरंतर उतर रही कृत्रिमता पर चिंता है। राष्ट्रीयता पर चिंतन है। पर्यावरण के नाश की पीड़ा है। मनुष्य जीवन के विविध रंग हैं। भीतर ही भीतर बहती परिवर्तन की, बेहतरी की इच्छा है। सारी आशंकाओं के बीच संभावनाओं की पड़ताल है।

स्मृतियों का रंग कभी धुंधला नहीं पड़ता अपितु विस्मृति का हर प्रयास, स्मृति को गहरा कर देता है। निरंतर गहराती स्मृतियों की ये बानगियाँ  देखिए-

ये कैसा अमरत्व पा लिया है तूने

मेरे मस्तिष्क की गहराइयों में,

मान्यता प्राप्त किसी दैवीय शक्ति की तरह, अपरिवर्तित सौंदर्य, लावण्य, युवा अवस्था।

प्रेम की अनन्य मृग मरीचिका कुछ यूँ शब्दों में अभिव्यक्त होती है-

जिसे मैं ढूँढ़ रहा हूँ वो मुझमें ही बसती है,

बिन उसके कटता नहीं इक पल मेरा,

ऐसी उसकी हस्ती है।

राज करने की नीति अर्थात राजनीति। इस शब्द के आविर्भाव के समय संभवत: इससे राज्य- शासन के आदर्श नियम, उपनियम वांछित रहे हों पर कालांतर में येन केन प्रकारेण ‘फूट डालो और राज करो’  के इर्द-गिर्द ही राजनीति सिमट कर रह गई । कवि को यह विषबेल बुरी तरह से सालती है।

ये जानते हैं

ज्ञानी से मूर्ख को गरियाना,

ये जानते हैं

मूर्ख से ज्ञानी को लठियाना,

ये जानते हैं

मेरी कमज़ोरी,

ये जानते हैं

तेरी कमज़ोरी।

आम जनता में व्याप्त बिखराव की कमज़ोरी के दम पर सत्ता पिपासु अपनी-अपनी रोटी सेंकते हैं। उनकी आपसी सांठगांठ की पोल खोलती यह अभिव्यक्ति देखिए-

अनीति से नीति के इस हवन में

षड्यंत्र के नाम पर

आहुतियाँ यूँ ही पड़ती रहेंगी,

जय तुम्हारी भी होगी,

जय हमारी भी होगी,

कभी रोटियाँ तुम बेलो,

कभी रोटियाँ हम सेंकें,

कभी हम रोटियाँ बेलें,

कभी रोटियाँ तुम सेंको ,

यही तो समझदारी है,

हम हैं एक,

अलग-अलग कहाँ हैं..!

लॉकडाउन वर्तमान पीढ़ी द्वारा देखा गया अपने समय का सबसे भयावह सच है। अपने घरों में क़ैद हम क्या सोच रहे थे, इस सोच को विभिन्न घटनाओं पर टिप्पणियों के रूप में उपजी विविध कविताओं में कवि ने उतारा है।

समाज लोगों का समूह है। आधुनिकता ने हमें अकेला कर दिया है। इस लंबी नींद को तोड़ने का आह्वान कवि करता है-

अब मेरी आँखें खुल चुकी थीं,

मैंने उठकर अपने कमरे के

सारे रोशनदान,

सारी खिड़कियाँ,

दरवाज़े खोल दिए और

देखते ही देखते मेरा कमरा

एक सुनहरी रोशनी से भर गया।

भौतिक विकास के नाम पर पर्यावरण और सहजता का विनाश हो चुका। हमने इर्द-गिर्द और मन के भीतर काँक्रीट के जंगल उगा लिए हैं। प्राकृतिक जंगल हरियाली फैलाता है, काँक्रीट का जंगल अशेष को अवशेष कर देता है।

जहाँ स्वच्छ, स्वस्थ, प्राणवायु के नाम पर

बचे रह गए हैं कुछ एक पर्यटन स्थल,

निर्मल जल के नाम पर कुछ एक नदी तट,

और वे भी कब तक रहेंगे शेष?

न जाने किस दिन चढ़ जाएँगे

विकास के नाम पर विनाश की भेंट..!

छमाछम बारिश में भीगना, अब असभ्यता हो चला है। खुद को ख़ुद में डूबते देखना तो कल्पनातीत ही है-

आज मैंने

फिर एक बार

काग़ज़ की नाव बनाई,

फिर एक बार

उसे घर के पास

नाली के तेज़ बहते पानी में उतारा,

फिर एक बार उसमें बैठ

अपने को

दूर तलक जाते देखा,

फिर एक बार

आज बरसों बरस बाद,

ख़ुद को ख़ुद में डूबते देखा।

कविता सपाटबयानी नहीं होती। कविता में मनुष्य का मार्गदर्शन करने का तत्व अंतर्भूत होता है। सूक्ति नहीं तो केवल उक्ति का क्या लाभ?

निर्णय वही सही होता है, जो

सही समय पर लिया गया हो

वक्त के बाद लिया गया सही निर्णय भी,

हानि के उपरांत

उसका प्रायश्चित तो हो सकता है,

उस क्षति की पूर्ति नहीं।

‘बंद कमरे-बौद्धिक चर्चाएँ’ कविता में रोज़ाना घटती ऐसी घटनाओं का उल्लेख है जो हमें विचलित कर देती हैं। तथापि हम समस्या पर मात्र दुख जताते हैं। उसके हल के लिए कोई सूत्र हमारे पास नहीं होता। कहा गया है, ‘य: क्रियावान स पंडित:।’ जिह्वालाप से नहीं, प्रत्यक्ष कार्यकलाप से हल होती हैं समस्याएँ।

परिवर्तन सृष्टि का एकमात्र नियम है जो कभी परिवर्तित नहीं होता। हर समय परिवर्तन घट रहा है। अत: हर समय परिवर्तन के साथ कदमताल आवश्यक है-

कभी मैं बहुत छोटा था,

धीरे-धीरे बड़ा हुआ

और अब

तेज़ी से बूढ़ा हो रहा हूँ

किसी भी देश की सेना की शक्ति अस्त्र-शस्त्र होती है। भारत के संदर्भ में मनोबल और बलिदान का भाव हमारी सेना को विशेष शक्तिशाली बनाता है। ‘लीला- रामकृष्ण’ एक सैनिक और उसकी मंगेतर की प्रेमकथा है। यह काव्यात्मक कथा दृश्य बुनती है, दृश्य से तारतम्य स्थापित होता है और पाठक कथा से समरस हो जाता है।

प्रकृति बहुरंगी है। प्रकृति में सब कुछ एक-सा हो तो एकरसता हो जाएगी। मनुष्य को सारे रंग चाहिएँ, मनुष्य को रंग-बिरंगी सर्कस चाहिए।

ये दुनिया एक सर्कस है

जिसमें कई रूप-रंग,

क़द-काठी वाले स्त्री-पुरुष,

जिसमें कई भिन्न जातियों-प्रजातियों,

नस्लों वाले जीव-जंतु,

जिसमें कई तरह के श्रृंगार, साज़-ओ-सामान, परिधानों से लदे-फदे कलाकार,

अलग-अलग भाषा शैली,

गीत-संगीत के समायोजन से,

हास्य, व्यंग्य, करुणा,

नव रसों का रसपान कराते हैं,

टुकड़े-टुकड़े दृश्यों से

एक सम्पूर्ण परिदृश्य को

परिलक्षित करते हैं,

यही बहुरूपता ख़ूबसूरती है इसकी,

जो जोड़ती है आपको, मुझको इसके साथ।

मनुष्य में अपार संभावनाएँ हैं।  ईश्वरीय तत्व तक पहुँचने यात्रा का अवसर है मनुष्य का जीवन। इस जीवन में हम सबको प्राय: अच्छे लोग मिलते हैं। ये लोग सद्भावना से अपना काम करते हैं, दूसरों के काम आते हैं। ये लोग किसी तरह का कोई एहसान नहीं जताते और काम होने के बाद दिखाई भी नहीं देते। जगत ऐसे ही लोगों से चल रहा है। वे ही जगत के आधार हैं, नींव हैं और नींव दिखाई थोड़े ही देती है।

वे लोग जो एक बार मिलकर

दोबारा फिर कभी नहीं मिलते हैं,

वे लोग जो पहली मुलाक़ात में

सीधे-मन में समा जाते हैं,

वे लोग कहाँ चले जाते हैं?

नव वर्ष पर नए संकल्प लेना और गत वर्ष लिए संकल्पों को भूल जाना आदमी की स्वभावगत निर्बलता है। यूँ देखे तो हर क्षण नया है, हर पल वर्ष नया है।

न वो कहीं गया था, न ही वो कहीं से आ रहा है, उसे तो हमने अपनी सुविधा के लिए बांट रखा है।

अति सदैव विनाशकारी होती है। स्वतंत्रता की अति है उच्छृंलता। लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अनेक बार देश को ही कटघरे में खड़ा करने, येन केन प्रकारेण चर्चा में रहने की दुष्प्रवृत्ति के अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं। इन दुष्प्रवृत्तियों को कवि खरी- खरी सुनाता है-

ये देश है तो

ये धर्म, ये मज़हब, ये सम्प्रदाय,

ये जाति, ये प्रजाति,

ये गण, ये गोत्र,

ये क्षेत्र, ये प्रांत,

ये भाषा, ये बोली,

ये रुतबा, ये हैसियत,

ये पक्ष, ये विपक्ष,

ये स्वतंत्रता, ये आज़ादी,

सब हैं..,

अन्यथा

कुछ भी नहीं..!

जीवन संभावनाओं से लबालब भरा है। अनेक बार परिस्थितियों से घबराकर लोग संभावना को आशंका मान बैठते हैं और जीवन अवसर से अवसाद की दिशा में मुड़ने लगता है।

कभी-कभी जीवन में ऐसा समय आता है,

जब व्यक्ति स्वयं ही

ज्ञान के, सूचना के

सभी मार्गों को अवरुद्ध कर लेता है,

इस वक्त वह एक भ्रम की स्थिति में जीता है,

वह अपने सत्य को ही

अंतिम सत्य मान बैठता है।

मनुष्य संवेदनशील प्राणी है। राजेंद्र शर्मा की रचनाओं में संवेदनशीलता उभर कर सामने आती है। ‘पापा याद है ना’ ऐसे ही एक मार्मिक रचना है। ‘नगरवधु’ विषय पर तीन कविताएँ हैं। पुरुष का स्त्री बनाकर लिखना लिंग पूर्वाग्रह या जेंडर बायस से मुक्ति की यात्रा है। यह अच्छी बात है।

इस संग्रह की अधिकांश रचनाएँ कथात्मक हैं। बल्कि यूँ कहें कि कथाएँ, घटनाएँ, अपने विवरण के साथ कविता में उतरी हैं तो अधिक तर्कसंगत होगा। शीर्षक कविता ‘अधरंगे ख़्वाब’  एक सार्वजनिक व्यक्तित्व के जीवन के उतार-चढ़ाव की लंबी कविता है। वर्तमान में न्यायालय के विचाराधीन इस प्रकरण में महत्वाकांक्षा के चलते प्रकाश से अंधकार की यात्रा पर कवि कुछ इस तरह टिप्पणी करता है-

महत्वाकांक्षी होना तो सुन्दर बात है

पर अति महत्वकांक्षी होना

बिलकुल सुन्दर बात नहीं ।

राजेंद्र शर्मा की रचनाओं की भाषा मिश्रित है शिल्प की तुलना में भाव मुखर है। कोई आग्रह नहीं है। जो देखा, समझा, जाना, काग़ज़ पर उतरा। पाठक उसे अपनी तरह से ग्रहण कर सकता है। यह इन रचनाओं की शक्ति भी है।

कवि सिनेमेटोग्राफर हैं। इन कविताओं में सिनेमेटोग्राफर की मन की आँख के लेंस से दिखते दृश्य उतरे हैं। जो कुछ सिनेमेटोग्राफर देखता गया, संवेदना की स्याही में डुबोकर उसे कथात्मक, घटनात्मक या विवरणात्मक रूप से लिखता गया। अतः ‘अधरंगे ख़्वाब’ में संग्रहित कविताओं को मैं ‘एक सिनेमेटोग्राफर की डायरी’ कहना चाहूँगा।

राजेंद्र शर्मा इसी तरह डायरी लिखते रहें। शुभं अस्तु।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #40 – गीत – साॅंझा-चूल्हे  टूट गए अब… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतसाॅंझा-चूल्हे  टूट गए अब

? रचना संसार # 40 – गीत – साॅंझा-चूल्हे  टूट गए अब…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

साॅंझा-चूल्हे  टूट गए अब  

 

पीपल -बरगद सूख  चुके सब,

कोयल नहीं दिखाई दे।

गौरेया पानी को तरसे,

मैना नहीं सुनाई दे।।

 *

मिटी  झोपड़ी  की यादेंं हैं,

आँखों में पल रही नमी।

पनघट ने पहचान गँवाई

होती जल की नित्य कमी।।

बिखरे रंग  प्रेम के सारे ,

रूठे वन-अमराई दे।

 *

व्याकुल है ये साँझ सुनहरी,

भोर निराशा भरी रहे ।

क्रंदन करते बच्चे प्यारे,

भीषण तृष्णा धार बहे।।

मानव निष्ठा हुई अगोचर,

छलना को गहराई दे।

 *

साॅंझा-चूल्हे  टूट गए अब,

बदली भोली गाँव छटा।

हवा लगी शहरों की सबको,

झीलों का सौन्दर्य घटा।।

निश्छल हँसी नहीं अधरों पर,

गुल्लक टूटी पाई दे।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #267 ☆ भावना के दोहे  – पुलवामा के शहीद ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे  – पुलवामा के शहीद)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 267 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  – पुलवामा के शहीद ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

(पुलवामा के शहीदों को श्रद्धांजलि)

धरती माँ की गोद में, सोये वीर जवान।

कतरा- कतरा बूँद से, सींचा हिंदुस्तान।।

*

माँ के आँसू टपकते, सदा पराक्रम गान।

बच्चा-बच्चा गा रहा, अपना हिंदुस्तान।।

*

मिटते हैं जो देश पर, वे हैं सदा महान।

याद रखेगा देश भी, वीरों का बलिदान।।

*

पुलवामा की याद में, आता हिये उबाल।

बलिदानों के खून से, धरा अभी भी लाल।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

14/2/2025

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #249 ☆ कलयुग केवल नाम अधारा… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे – कलयुग केवल नाम अधारा  आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 249 ☆

☆ संतोष के दोहे – कलयुग केवल नाम अधारा ☆ श्री संतोष नेमा ☆

कहे   सनातन   सबसे   यारा

कलयुग  केवल  नाम अधारा

*

सदियों  से  थी  आस  हमारी

राम  लला  ने  जो   स्वीकारी

धन्य  अयोध्या  नगरी   हमरी

जहाँ   बना   है   मंदिर  प्यारा

*

भजन  कीर्तन  पूजा  आरती

नित  मंदिर  में   करें   भारती

आओ हम सब मिल कर गाएं

प्रभु  राम  का  नाम  है  प्यारा

*

उत्सव   प्राण  प्रतिष्ठा  का  है

सबकी  फलित  इच्छा  का  है

शिक्षा  सबको   मिले सनातन 

आज  लगाओ  एक  ही  नारा

*

हिंदू   धर्म  सनातन   क्या   है

क्या   मानव  की  मानवता  है

देता   सनातन   उत्तर   सबके

सबसे    न्यारा    धर्म   हमारा

*

हम  सहिष्णुता के  हैं  पुजारी

नफरत,  हिंसा    हमसे   हारी

सत्य, अहिंसा, दया भाव संग

राम  लला  को  प्रेम  है  प्यारा

*

आओ   खुद  के  अंदर  झांके

औरों   के  हम  दोष  न  ताकें

मिलेगा   “संतोष”   तुम्हें   तब

जब  लोगे  प्रभु   राम   सहारा

*

कहे    सनातन    सबसे   यारा

कलयुग  केवल  नाम   अधारा

 

 

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 242 ☆ राजे आमुचे शिवाजी..! ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 242 – विजय साहित्य ?

☆ राजे आमुचे शिवाजी..! ☆

(अष्टाक्षरी रचना)

साल सोळाशेचे तीस

एकोणीस फेब्रुवारी

जन्मा आले शिवराय

गडावर शिवनेरी….! १

*

शिव जन्मोत्सव करू

शौर्य तेज कीर्ती गाऊ

माय जिजाऊंचे स्वत्व

रूप स्वराज्याचे पाहू..! २

*

किल्ले रायरेश्वरात

स्वराज्याची आणभाक

हर हर‌ महादेव

शूर मावळ्यांची हाक…! ३

*

असो पन्हाळीचा वेढा

वध अफ्झल खानाचा

आग्र्याहून सुटकेचा

पेच प्रसंग धैर्याचा…! ४

*

वेगवान‌ हालचाली

तंत्र गनिमी काव्याचे

युद्ध,शौर्य,प्रशिक्षण

मूर्त रूप शासकाचे…! ५

*

लढा मुघल सत्तेशी

स्वराज्याच्या विरोधका

शाही आदिल कुतुब

नष्ट गुलामीचा ठसा…! ६

*

नौदलाचे आरमार

शिस्तबद्ध संघटन

अष्ट प्रधान मंडळ

प्रजाहित प्रशासन…! ७

*

रायगडी अभिषेक

स्वराज्याचे छत्रपती

राजे आमुचे शिवाजी

हृदी जागृत महती…! ८

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-१८ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

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☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-१८ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

बाळसेदार पुणे..

रोज सकाळी सुस्नात होऊन, तुळशीपुढे दिवा लावून, सुबकशी रांगोळी काढून, हातात हळदी कुंकवाची कुयरी सांवरत सुवासिनी, श्री जोगेश्वरी दर्शन घेऊन मगच स्वयंपाकाला पदर बांधायच्या. वारांप्रमाणे वेळ काढून एखादी उत्साही गृहिणी समोरच्या बोळातून बेलबागेकडे प्रस्थान ठेवायची. आमच्या हातात आईच्या पदराचे टोक असायचं. आई भगवान विष्णूच दर्शन घ्यायला सभा मंडपात शिरली की आईच्या पदराचं टोक सोडून आमचा मोर्चा मोराकडे कडे वळायचा. खिडकी वजा जागेत दोन मोर पिसारा फुलवित दिमाखात फिरायचे.

आम्ही मोरपिसांचे मोहक रंग आणि पिसाऱ्यावरची पिसं मोजत असतांना मोर आपला पिसांचा पसारा आवरता घ्यायचा. आणि मग मनांत खट्टू होऊन आम्ही मागे वळायचो, तर काय! आनंदाने आणि सुगंधान वेडच लागायचं. पानोपान फुलांनी डंवरलेल्या झाडांनी, बकुळीचा सडा शिंपलेला असायचा. अगदी ‘अनंत हस्ते कमलावराने देता किती घेशिल दोहो कराने, ‘अशी स्थिती व्हायची आमची. इवल्याश्या सुवासिक, मोहक बकुळ फुलांचा गजरा मग लांब सडक वेणीवर रुळायचा. अलगद पावलं टाकली तरी नाजूक फुलं पायाखाली चिरडली जायचीचं. अग बाई! नाजूक फुलांना आपण दुखावलं तर नाही ना?असं बाल मनात यायचं. बिच्चारी फुलं ! रडता रडता हसून म्हणायची, “अगं चुकून तू आमच्यावर पाय दिलास, तरी मी तुझ्या पायांना सुगंधचं देईन हो! देवळाच्या पायरीवर बसलेल्या आईला आम्ही विचारलं, ” आई इथे मोर आहेत म्हणून या देवळाला मोरबाग का नाही गं म्हणत? बेलबाग काय नाव दिलंय.? आई बेल बागेचं गुपित सांगायची, ” हे भगवान श्री विष्णूंचं मंदिर आहे. इथे पूर्वी बेलाचं बन होत. फडणवीसांचं आहे हे मंदिर. इथे शंकराची पिंड असून खंडोबाचे नवरात्र पेशवे काळातही साजरं व्हायचं. तुळशीबागेत पूर्वी खूप तुळशी म्हणून ती तुळशीबाग. हल्लीचं एरंडवणा पार्क आहे ना! तिथे खूप म्हणजे खूपच एरंडाची झाड होती अगदी सूर्यकिरणांनाही जमिनीवर प्रवेश नव्हता. एरंडबन म्हणून त्याचं नाव अपभ्रंश होऊन पडलं एरंडवणा पार्क. रस्त्यानें येताना ही नावांची गंमत सांगून आई आम्हांला हंसवायची. प्रवचन कीर्तन असेल तर ते ऐकायला ति. नानांबरोबर ( माझेवडील )आम्ही पंत सचिव पिछाडीने रामेश्वर चौकातून, बाहुलीच्या हौदा कडून, भाऊ महाराज बोळ ओलांडून, गणपती चौकातून नू. म. वि. हायस्कूल वरून श्री जोगेश्वरी कडे यायचो. ऐकून दमलात ना पण चालतांना आम्ही मुळीचं दमत नव्हतो बरं का!गुरुवारी प्रसादा साठी हमखास, घोडक्यांची सातारी कंदी पेढ्याची पुडी घेतली जायची. तिथल्याच ‘काका कुवा’ मेन्शन ह्या विचित्र नावांनी आम्ही बुचकळ्यात पडायचो. वाटेत गणपती चौकाकडून घरी येताना सितळा देवीचा छोटासा पार लागायचा. कधीकधी बाळाला देवीपुढे ठेवून एखादी बाळंतीण बारावीची पूजा करताना दिसायची. तेला तुपानी मॉलिश केलेल्या न्हांहूनमाखून सतेज झालेल्या बाळंतपणाला माहेरी आलेल्या माझ्या बहिणी, बाळांना, माझ्या भाच्यांना देवीच्या ओटीत घालून बाराविची पूजा करायच्या, तेव्हां त्या अगदी तुकतुकीत, छान दिसायच्या. नवलाईची गोष्ट म्हणजे घरी मऊशार गुबगुबित गादीवर दुपट्यात गुंडाळलेली, पाळण्यात घातल्यावर किंचाळून किंचाळून रडणारी आमची ‘भाचरं ‘सितळा देवीच्या पायाशी, नुसत्या पातळ दुपट्यावर इतकी शांत कशी काय झोपतात? हा प्रश्न आम्हाला पडायचा. अगदी नवलच होतं बाई ते एक ! कदाचित सितळा आईचा आशीर्वादाचा हात, बाळांच्या अंगावरून फिरत असावा. गोवर कांजीण्यांची साथ आली की नंतर उतारा म्हणून दही भाताच्या, सितळा देवी पुढे मुदी वर मुदी पडायचा. तिथली व्यवस्था बघणाऱ्या आजी अगदी गोल गरगरीत होत्या. इतक्या की त्यांना उठता बसता मुश्किल व्हायचं, एकीनी आगाऊपणा करून त्यांना विचारलं होतं “आजी हा सगळा दहीभात तुम्ही खाता का? आयांनी हाताला काढलेला चिमटा आणि वटारलेले डोळे पाहून आम्ही तिथून पळ काढायचो ‘आगाऊ ते बालपण ‘ दुसरं काय! पाराच्या शेजारी वि. वि. बोकील प्रसिद्ध लेखक राह्यचे. त्यांच्याकडे बघतांना आमच्या डोळ्यात कमालीचा आदर आणि कुतूहल असायचं. त्यांच्या मुलीला चंचलाला आम्ही पुन्हां पुन्हां नवलाईने विचारत होतो”, ए तुझे बाबा ग्रेट आहेत गं, एवढं सगळं कधी लिहितात ? दिवसा की रात्री? शाई पेननी, की बोरुनी? ( बांबू पासून टोकदार केलेल लाकडी पेनच म्हणावं लागेल त्याला) एवढं सगळं कसं बाई सुचतं तुझ्या बाबांना? साधा पेपर लिहीतांना मानपाठ एक होते आमची. शेवटी शेवटी तर कोंबडीचे पाय बदकाला आणि बदकाचे पाय कोंबडीला असे अक्षर वाचताना सर चरफडत गोल गोल भोपळा देतात. कारण पेपर लिहितानाअक्षरांचा कशाचा कशाला मेळच नसायचा, त्यामुळे सतत लिहीणारे वि. वि. बोकील आम्हाला जगातले एकमेव महान लेखक वाटायचे. आमची भाचे कंपनी, मोठी होत होती. विश्रामबाग वाड्या जवळच्या सेवा सदनच्या भिंतीवर( हल्लीच चितळे बंधू दुकान, )सध्या इथली मिठाई, करंजी, समोसे, वडा खाऊन गिऱ्हाईक गोलमटोल होतात, पण तेव्हां त्या भिंतीवर किती तरी दिवस डोंगरे बालामृतची गुटगुटीत बाळाची जाहिरात झळकली होती. ती जाहिरात बघून प्रत्येक आईला वाटायच माझं बाळ अगदी अस्स अस्सच बाळसेदार व्हायला हवं ग बाई, ‘ मग काय मोहिमेवर निघाल्या सारखी डोंगरे बालामृतची बघता बघता भरपूर खरेदी व्हायची. सगळी बाळ गोंडस, गोपाळकृष्णचं दिसायची. आणि मग काय!सगळं पुणचं बाळसेदार व्हायचं. बरं का मंडळी म्हणूनच त्यावेळची पिढी अजूनही भक्कम आहे. आणि हो हेच आहे त्या पिढीच्या आरोग्याचे गमक. जोडीला गाईच्या दुधातून पाजलेली जायफळ मायफळ मुरडशिंग हळकुंड इत्यादी नैसर्गिक संपत्तीची अगदी मोजून वेढे दिलेली बाळगुटी असायचीच. मग ते गोजिरवाणं गोंडस पुणं आणखीनच बाळसेदार दिसायचं.

– क्रमशः… 

© सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १८ — मोक्षसंन्यासयोगः — (श्लोक ६१ ते ७०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १८ — मोक्षसंन्यासयोगः — (श्लोक ६१ ते ७०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति । 

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥ ६१ ॥ 

*

सकल चरांचा देह यंत्र आत्म्याचे 

सुकृतानुसार कर्म करुनी घ्यायाचे

ईश्वरमाया चालविते कायायंत्राला

हृदयी तो स्थित राही कर्म करायाला ॥६१॥

*

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत । 

तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्‌ ॥ ६२ ॥

*

सर्वभावाने शरणागत परमेशा होई

तया कृपेने परम शांती स्थान प्राप्त होई ॥६२॥ 

*

इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्‍गुह्यतरं मया । 

विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु ॥ ६३ ॥ 

*

गुह्यात गुह्यतम श्रेष्ठ ज्ञान कथिले पार्था मी तुजला

विचार अन्ती कर्म करावे स्वीकार जे तव इच्छेला ॥६३॥

*

सर्वगुह्यतमं भूयः शृणु मे परमं वचः । 

इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्‌ ॥ ६४ ॥ 

*

तू मजसि अतिप्रिय यास्तव हितवचन मी सांगेन तुला

गुह्यतम सकल ज्ञानामधील परम रहस्य कथितो तुजला ॥६४॥

*

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु । 

मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ॥ ६५ ॥ 

*

माझ्याठायी गुंतवुनी मन भक्त अनन्य होई तू माझा

पूजन करी मम प्रणाम करी मज जन्म धन्य हो तुझा

करशील याने प्राप्त मजला सत्य आहे माझे वचन

अतिप्रिय मजला तू असशी जाणौन घेई हे अर्जुन ॥६५॥

*

सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज । 

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ॥ ६६ ॥ 

*

धर्म सर्व त्यागूनीया तू केवळ मज येई शरण

शोकमुक्त हो पापमुक्त करुनी मोक्ष तुला मी देईन ॥६६॥

*

इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन । 

न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ॥ ६७ ॥ 

*

अभक्त असुनी तपरहित जो त्यास ज्ञान हे देउ नको

मनी ज्यास ना ऐकायाचे त्यास शास्त्र हे कथू नको

अनिष्ट दृष्टी माझ्या ठायी त्यास कदापि बोलू नको

अपात्र तयासी दिव्य ज्ञान हे पार्था कधिही देऊ नको ॥६७॥

*

य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति । 

भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः ॥ ६८ ॥ 

*

परमभक्त माझा कथील गीतारहस्य मद्भक्तांसी

वचन माझे माझी प्राप्ती निःसंशये होईल तयासी ॥६८॥

*

न च तस्मान्मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तमः । 

भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ॥ ६९ ॥ 

*

कार्यमग्न मम प्रिय कार्ये तो श्रेष्ठ अखिल जगती

तयापरीस मज अधिक कोणी प्रिय ना या जगती ॥६९॥

*

अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः । 

ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः ॥ ७० ॥ 

*

धार्मिक गीताशास्त्र संवाद उभयांमधील आपुला

श्रद्धेने जो पठण करील पोहचेल कार्य मजला

यज्ञाद्वारे ज्ञानाच्या लाभेल तयाची अर्चना मला

घोषित करितो मी धनंजया होईन प्राप्त मी तयाला ॥७०॥ 

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 41 – घाव करे गंभीर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना घाव करे गंभीर )  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 41 – घाव करे गंभीर ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

कहानी एक छोटे से गाँव की है, जहाँ हम रामू से मिलते हैं, एक साधारण किसान जो सूरज की तपिश में काम करता है, उसके सपने उसके खेतों की तरह विस्तृत हैं। रामू की ज़िंदगी एक प्रकार की दृढ़ता की मिसाल है, जो पुराने कहावत का जीता-जागता प्रमाण है: “मेहनत का फल मीठा होता है।” सरकार, हमेशा एक दयालु देवता की भूमिका निभाने को तत्पर, मुफ्त शिक्षा, वित्तीय सहायता, और कौशल प्रशिक्षण की बौछार करने का वादा करती है। मीडिया इन पहलों का जश्न मनाते हुए, दीवाली की रात के उत्साह के साथ, उन लोगों की कहानियाँ प्रसारित करती है जिन्होंने अपनी ज़िंदगी बदल दी, जबकि रामू सोचता है कि उसकी बैंक की स्थिति क्यों खाली है।

इसी बीच, नौकरशाही का विशालकाय तंत्र, अपने जटिल प्रक्रियाओं के साथ, एक अनसुना खलनायक बनकर उभरता है। फॉर्म ऐसे जटिल होते हैं जैसे किसी नेता का भाषण, रामू की सहायता के लिए की गई आवेदनों का कोई अता-पता नहीं रहता। हर दिन, वह स्थानीय दफ्तर जाता है, केवल यह जानने के लिए कि वहाँ “आपात” बैठकों के लिए बंद है—जो उन अधिकारियों के चाय के अंतहीन कप का आनंद लेने के लिए निर्धारित होते हैं, जबकि आम आदमी बाहर इंतज़ार करता है। “एक दिन,” वे उसे आश्वासन देते हैं, “आप भी ऊंचा उठेंगे।” रामू केवल कड़वा हंसता है, जानता है कि असली उत्थान तो चाय के गहरे कप और अधिकारियों की आरामदायक कुर्सियों में है।

फिर मीडिया का प्रवेश होता है, जो आशा के संदेश वाहक होते हैं, जो जब एक सफलता की कहानी सामने आती है, तब कैमरा और रिपोर्टर लेकर आते हैं। वे एक चमकदार विज्ञापन प्रदर्शित करते हैं जिसमें एक युवा लड़की की कहानी होती है जो अपनी दृढ़ता के माध्यम से तकनीकी उद्यमी बन जाती है। “रगड़ से रौशनी!” वे चीखते हैं, जबकि रामू का दिल थोड़ा और भारी हो जाता है। उसे स्कूल के साल याद आते हैं, जहाँ उसने बॉलीवुड की भूगोल के बारे में तो ज्यादा सीखा, लेकिन अपने देश के भूगोल के बारे में बहुत कम। यह विडंबना उसके लिए छिपी नहीं है: वही मीडिया जो सफलता का जश्न मनाता है, उन अनसुने नायकों की ओर से बेखबर है जो गरीबी के चक्र में फंसे हुए हैं, स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ते हुए।

जब रामू चमचमाते हेडलाइनों को देखता है, तो वह “मेक इन इंडिया” अभियान पर विचार करने से खुद को रोक नहीं पाता, एक चमकदार पहल जो देश को विनिर्माण महाशक्ति बनाने का वादा करती है। लेकिन असलियत में, यह अक्सर उन कारखानों का निर्माण करने के रूप में बदल जाती है जो श्रमिकों का शोषण करते हैं, जिन्हें वे खुद को उठाने का दावा करते हैं। रामू जानता है कि जब कारखाने विदेशी बाजारों के लिए उत्पादों का उत्पादन करते हैं, तो वह और उसके साथी किसान अपने आप को केवल सूखे फसलों और बढ़ते कर्ज में फंसा पाते हैं। “अहा, उत्थान का मीठा स्वाद,” वह व्यंग्यात्मक रूप से सोचता है, जब वह अपनी मेहनत के फल को कॉर्पोरेट लालच में गायब होते देखता है।

फिर भी, रामू आशावादी रहता है, नेताओं की प्रेरणादायक कहानियों से उत्साहित होकर, जो गरीबों के कारण का समर्थन करते हैं। “हम गरीबी को मिटा देंगे!” वे अपने मंचों से घोषणा करते हैं, उनकी आवाज़ें पूरे देश में एक सुखद लोरी की तरह गूंजती हैं। लेकिन जब कैमरे चमकते हैं और भीड़ ताली बजाती है, तो रामू यह नहीं देख सकता कि पास में खड़ी लक्जरी कारें, उनकी चमकती बाहरी चमक उस धूल भरी सड़क के विपरीत हैं, जिस पर वह चलता है। उनकी ज़ुबान से निकलने वाले शब्दों की विडंबना उसकी आँखों के सामने खुलती है, जब वे उन लोगों को उठाने का वादा करते हैं, जिनकी नीतियाँ उन्हें नजरअंदाज करती हैं।

इस उत्थान की भव्य कथा में, कथा का प्रवाह चरमोत्कर्ष की ओर बढ़ता है: चुनाव। रामू पर वादों की बौछार होती है, हवा में उम्मीद और निराशा का घनत्व होता है। राजनीतिक नेता उसके गाँव में मानसून की तरह बरसते हैं, प्रत्येक एक रातोंरात उसके जीवन को बदलने का वादा करते हैं। “हमारे लिए वोट करो, और हम सड़कें, स्कूल, और अस्पताल बनाएंगे!” वे चिल्लाते हैं, उनकी आँखों में महत्वाकांक्षा और आत्म-स्वार्थ की चमक। विडंबना यह है? रामू के गाँव की सड़कों की मरम्मत लंबे समय बाद वोटों की गिनती के बाद भी नहीं होती, जिससे उसे यह सोचने पर मजबूर कर दिया जाता है कि क्या वह एक अलग भारत में जी रहा है।

जैसे-जैसे साल बीतते हैं, रामू के उत्थान के सपने सुबह की धुंध की तरह dissipate होते जाते हैं। सरकार द्वारा घोषित आंकड़े गरीबी दरों में कमी का प्रचार करते हैं, लेकिन रामू के लिए, हर दिन भाग्य की लहरों के खिलाफ एक निरंतर संघर्ष की तरह महसूस होता है। उत्थान की जीवंत कहानियाँ एक कड़वी याद दिलाती हैं कि सत्ता की बयानबाजी और अस्तित्व की वास्तविकता के बीच कितना बड़ा फासला है।

एक हताशा की स्थिति में, रामू उन सत्ताधारियों के नाम एक पत्र लिखता है, जिसमें वह अपनी पीड़ा को शब्दों में व्यक्त करता है जो अनगिनत अन्य लोगों की भावनाओं का गूंज करते हैं। “प्रिय नेता,” वह शुरू करता है, “आपके उत्थान की कहानियाँ तपती धूप पर एक मृगतृष्णा के समान आनंददायक हैं। जबकि आप भव्य भोज में बैठते हैं, हम आशा के अवशेषों पर जीवन बिताते हैं।” उसके शब्दों की विडंबना हवा में भारी लटकती है, एक महत्वपूर्ण याद दिलाते हुए कि देश में कितनी बड़ी दूरी है।

इस व्यंग्यात्मक उत्थान की कथा का परदा गिरते ही, कोई भी रामू के दिल में भारी दुःख का बोझ महसूस किए बिना नहीं रह सकता। रगड़ से रौशनी का वादा एक दूर का सपना बना रहता है, जो नौकरशाही, मीडिया की सनसनीखेजी, और राजनीतिक पाखंड के कुहासे के पीछे छिपा है। निष्कर्ष? एक गहरी हानि की भावना, यह एहसास कि जबकि सफलता की कहानियों का जश्न मनाया जाता है, अनगिनत जिंदगियों की वास्तविकता केवल इतिहास के पन्नों में एक फुटनोट बनकर रह जाती है।

अंत में, रामू क्षितिज की ओर देखता है, जहां सूरज रंगों के एक चमत्कारी शो में ढलता है, जो उसके सपनों की याद दिलाता है—चमकीला लेकिन अंततः पहुंच से बाहर। भारतीय उत्थान का मिथक सोने की तरह चमकता हो सकता है, लेकिन रामू और उसके जैसे कई लोगों के लिए, यह एक मृगतृष्णा बनकर रह जाता है, जो हमेशा के लिए सामर्थ्य और उत्थान की तलाश में संघर्षरत रहते हैं। जैसे ही वह मुड़ता है, एक बूँद आंसू उसके गाल पर बह जाती है, जो उन लाखों लोगों की मौन संघर्ष की गवाही है जो अक्सर भुला दिए जाते हैं।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

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≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 233 ☆ सर्वे भवन्तु सुखिनः… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना सर्वे भवन्तु सुखिनः। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 233 ☆ सर्वे भवन्तु सुखिनः

लोगों के मेलजोल का पर्व महाकुम्भ है, अथक परिश्रम, लंबा जाम, कई किलोमीटर की पैदल यात्रा के वावजूद लोग सपरिवार आस्था की डुबकी लगाने प्रयागराज आ रहे हैं। धैर्य के साथ जब कोई कार्य किया जाएगा तो उसके परिणाम सुखद होंगे। भारत के कोने- कोने से आते हुए लोग एकदूसरे को समझने का भाव रखते हैं। वास्तव में भारत की यही सच्ची तस्वीर है। यही कल्पना हमारे ऋषिमुनियों ने की थी जिसे योगी सरकार ने साकार कर दिया है।

माना कि कुछ असुविधा हो रही है किंतु जब नियत अच्छी हो तो ये सब स्वीकार्य है।

हमारे आचरण का निर्धारण कर्मों के द्वारा होता है। यदि उपयोगी कार्यशैली है तो हमेशा ही सबके चहेते बनकर लोकप्रिय बनें रहेंगे। रिश्तों में जब लाभ -हानि की घुसपैठ हो जाती है तो कटुता घर कर लेती है। अपने आप को सहज बना कर रखें जिससे लोगों को असुविधा न हो और जीवन मूल्य सुरक्षित रह सकें।

कोई भी कार्य करो सामने दो विकल्प रहते हैं जो सही है वो किया जाय या जिस पर सर्व सहमति हो वो किया जाए। अधिकांश लोग सबके साथ जाने में ही भलाई समझते हैं क्योंकि इससे हार का खतरा नहीं रहता साथ ही कम परिश्रम में अधिक उपलब्धि भी मिल जाती है।

सब कुछ मिल जायेगा पर कुछ नया सीखने व करने को नहीं मिलेगा यदि पूरी हिम्मत के साथ सच को स्वीकार करने की क्षमता आप में नहीं है तो आपकी जीत सुनिश्चित नहीं हो सकती।

शिखर तक पहुँचने का रास्ता आसान नहीं होता किन्तु इतना कठिन भी नहीं होता कि आप के दृढ़संकल्प से जीत सके। तो बस जो सही है वही करें उचित मार्गदर्शन लेकर, पूर्ण योजना के साथ।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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