हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-15 – थियेटर की दुनिया के खुबसूरत मोड़ ! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-15 – थियेटर की दुनिया के खुबसूरत मोड़ ! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

हाँ, तो मैं कल बात कर रहा था, जालंधर के थियेटर, रंगकर्म और‌ रंगकर्मियों के बारे में ! गुरुशरण भाजी के साथ लम्बा साथ रहा और‌ बहुत सी बातें हैं, यादें हैं! वे वामपंथियों को झिंझोड़ते कहते थे कि एक कामरेड हर बात पे कहता है कि आपको पता नहीं कि हम लोगों के बीच में से आये हैं ! इस पर भाजी का जवाब बड़ा मज़ेदार और चुटीला था- कामरेड! यही तो दुख है कि आप लोगों में से निकल आये हो और अब आप इनकी नब्ज़ नहीं समझ पा रहे  ! फिर‌ वे युवाओं को कहते कि गाने के बोल हैं कि

पिच्छे पिच्छे आईं

मेरी तोर बेहदां आईं

इत्थे नीं मेरा लौंग गवाचा!

बताओ भई ! युवा पीढ़ी का यही काम रह गया कि मुटियारों की नाक का कोका ही खोजते ज़िंदगी बिता दें? हमारे संपादक श्री विजय सहगल को भी गुरुशरण पाजी से दोस्ती का पता था। एक बार वे दिल्ली से अकादमी पुरस्कार लेकर देर शाम लौटे उस दिन मेरी नाइट ड्यूटी थी! अचानक रात के ग्यारह बजे सहगल जी का फोन आया कि आपकी दोस्ती आज आजमानी है कि इसी समय उनका फोन पर इंटरव्यू लो! उसी समय फोन लगाया और उनकी पत्नी ने उठाया और बोलीं कि वे तो थक कर सो गये हैं, मैंने कहा कि किसी भी तरह उनको जगा दीजिए ! भाजी आंखें मलते उठे होंगे पर मुझे अपने पुरस्कार पर इंटरव्यू दे दिया ! ज़रा बुरा नही माना ! वे ‘ समता प्रकाशन” भी चलाते थे और  हर नाटक के बाद वे अपने प्रकाशन की पुस्तकें लहरा कर कहते कि ये पुस्तकें लीजिए ! बहुत कम कीमत और‌ बहुत ही गहरी किताबें ! यह बात मैंने भाजी से सीखी कि किताब आम आदमी तक कैसे बिना किसी संकोच के लागत मूल्य पर पहुँचाई जा सकती है और मैं अपनी किताबें आज भी सीधे मित्रों तक पहुंचा कर लागत मूल्य मांगने से कोई संकोच महसूस नहीं करता ! इसके गवाह मेरे अनेक मित्र हैं !

खैर! भाजी के किस्से अनंत और‌ उनकी गाथा अनंत! अफसोस! एक बार जब वे अपनी टीम के साथ कहीं से नाटक मंचन कर देर रात लौट रहे थे, तब उनकी बैन किसी जगह उल्ट गयी और‌ वे घायल हो गये । हालांकि पाजी ने हिम्मत न हारी, फिर भी वे फिर‌ लम्बे समय तक नहीं रहे हमारे बीच ! इस तरह हमारे पास उनकी यादें ही यादें रह गयीं पर उनका थियेटर के लिए जुनून एक मिसाल है आज तक !

अमृतसर से ही थियेटर करने मेंं नाम कमाने वाले दो और रंगकर्मी हैं,  जिनसे मेरी थोड़ी थोड़ी मुलकातेंं हैं । ‌पहले केवल धालीवाल, जिनसे मेरी एक ही मुलाकात है और वह है प्रसिद्ध लेखक स्वदेश दीपक के घर‌ अम्बाला छावनी में ! तब मैं स्वदेश दीपक का इंटरव्यू लेने गया था और‌ केवल धालीवाल ‘कोर्ट मार्शल’ को पंजाबी में मंचित करने की अनुमति लेने पहुंचे हुए थे ! पाजी के बाद केवल धालीवाल ने भी खूब काम किया और नाटक को ऊंची पायदान पर पहुंचाने में योगदान दिया ! अमृतसर से ही नीलम मान सिंह भी आईं थियेटर में ! वे पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के थियेटर विभाग की अध्यक्ष भी रहीं और‌ ‘कंपनी’ नाम से अपना थियेटर ग्रुप भी बनाया, उन्होंने विदेशों तक पंजाबी थियेटर को पहुंचाया ! उन्होंने राॅक गार्डन में भी धियेटर किया !

बरसों बाद अचानक एक अस्पताल से बाहर आते मैंने इन्हें इनकी चमकतीं आंखों के चलते पहचाना ! मेरा छोटा भाई तरसेम वहां एक्सीडेंट के बाद दाखिल‌ था और‌ मैं उसकी कुशल मंगल पूछने आया था ! अचानक वे दिखीं और‌ मैं इनकी कार तक गया और मेरे मुंह से नीलम मान सिंह की बजाय सोनल मान सिंह निकल गया और वे नाराज़ होकर बोलीं-नो और कार स्टार्ट की लेकिन शायद उन्हें भी कुछ याद आई और वे कार से उतर कर आईं और‌ बोलीं – आई एम नीलम मान सिंह! पर आपने क्यों पूछा? मैंने “क़पनी’ का जिक्र करते बताया कि मैं उन दिनों आपके परिचय में आया था जिन दिनों आप राॅक गार्डन में थियेटर का एक्सपेरिमेंट कर रही थीं ! उन्हें भी मेरी हल्की सी याद आई और पूछा कि आज यहा कैसे? मैंने कहा कि आप यह बात छोड़िये ! आजकल मैं हिसार‌ रहता हूँ और वहाँ एक सांध्य दैनिक में कलाकारों के इ़टरव्यू छापता हूँ। ‌आप अपना नम्बर दे दीजिए, किसी दिन फोन पर ही इंटरव्यू कर लूंगा ! आखिर एक दिन उनकी इ़टरव्यू हुई और‌ उन्होंने अपना थियेटर का सफर बताया ! उनकी हीरोइन जो मोहाली रहती थी, रमनदीप की याद दिलाई और बताया कि आजकल वह कोलकाता में रहती है और उसका इंटरव्यू भी कर चुका हूँ । यहीं मैंने एक बार पंजाब के प्रसिद्ध नाटक ‘ लोहा कुट्ट ‘ के रचनाकार बलवंत गार्गी से नवांशहर की कलाकार बीबा कुलवंत के साथ उनके सेक्टर 28 स्थित आवास पर मिला था! बीबा कुलवंत ने ही इस नाटक की हीरोइन का रोल‌ निभाया था, जिसे खटकड़ कलां में ही नहीं पंजाब भर में जसवंत खटकड़ ने पहुंचाया! मैंने बलवंत गार्गी से मज़ाक में कहा कि आप पंजाब में बस लोहा ही कूटते रहे और कूटते कूटते इसे स्टील बना दिया। वे बहुत हंसे और कहि कि एक पैग इसी बात पर‌!

इस तरह मैं चंडीगढ़ में भी थियेटर के लोगों से मिलता रहा ! यहीं थियेटर विभाग में छात्र थे राजीव भाटिया और हिमाचल के धर्मशाला की वंदना, जो बाद में आपस में जीवन साथी बने और स़ंयोग देखिये कि जब हिसार ट्रांसफर हुई तब मैंने जो घर किराये पर  लिया वह राजीव भाटिया की गली में मिला ! इस तरह बरसों बाद देखा कि राजीव भाटिया हरियाणवी फिल्मों में योगदान दे रहे हैं और इसकी फिल्म – पगड़ी द ऑनर’ को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला ! हालांकि राजीव भाटिया और‌ वंदना मुम्बई रहते हैं लेकिन जब जब हिसार आते हैं, तब तब खूब महफिल जमती है हमारी ! खैर! मित्रो! मैं कहां से कहां पहुंच गया । खाली और रिटायर आदमी के पास समय बिताने के लिए, सिवाय किस्सों के कुछ नहीं होता !

आज का किस्सा इतना ही, कल मिलते हैं! यह कहते हुए कि – 

जो अफसाना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन

उसे इक खूबसूरत मोड़ देकर‌ भूलना अच्छा!

आज की जय जय!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #234 – 121 – “मुफ़लिस  मुद्दत से  हिसाब लगा रहा…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल मुफ़लिस  मुद्दत से  हिसाब लगा रहा…” ।)

? ग़ज़ल # 119 – “मुफ़लिस  मुद्दत से  हिसाब लगा रहा…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

क़िस्मत  अमीर की है  सिकंदर साहिब,

नहीं  होता ग़रीब का  मुक़द्दर साहिब। 

*

मुफ़लिस  मुद्दत से  हिसाब लगा रहा,

उस तक  चपाती आई  छनकर साहिब।

*

जन्नत की  सैर को मैं भी निकल लेता,

ग़र नसीब में  बदा होता कलंदर साहिब।

*

छलनी में  हाक़िम  दूध छानता रहता है,

रखे  इल्ज़ाम  आख़िर  किस पर साहिब।

*

तुम दिखते एक रंग में रंगने को आमादा,

अध्याय चार लिख गए हैं दिनकर साहिब।

*

हरेक   तकलीफ़  को  आँसू  नहीं मिलते,

ग़मों  का  भी  होता  है  समंदर साहिब।

*

उन्होंने  तो  ख़ाली  नज़र  बिछा राह तकी,

ख़ुद  बना  आतिश कालीन बिछकर साहिब।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 112 ☆ गीत – ।। मैं तो भारत भाग्य  विधाता हूँ, मैं इक कर्तव्यनिष्ठ मतदाता हूँ ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 112 ☆

☆ गीत – ।।मैं तो भारत भाग्य  विधाता हूँ, मैं इक कर्तव्यनिष्ठ मतदाता हूँ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

तू भारत भाग्य विधाता रखता मताधिकार है।

तेरे वोट से ही तो चुनी जातीअच्छी सरकार है।।

मतदान के दिन परम कर्तव्य है यह तुम्हारा।

वोट देकर दिखाना तुझे   अपना सरोकार है।।

[2]

मैं भारत भाग्य विधाता हूँ,मैं इक  मतदाता हूँ।

वोट से अपने देश की   पहचान मैं बनाता हूँ।।

उँगली का काला निशान भाग्य रेखा  देश की।

देकर वोट अपना मैं     पहला फ़र्ज़ निभाता हूँ।।

[3]

राष्ट्र के उत्थान का मुख्य आधार ही मतदान है।

इसी में निहित तेरा मेरा और सबका सम्मान है।।

वोट की शक्ति जानो  और उसका प्रयोग  करो।

नहीं वोट देने का अर्थ कि देश प्रेम सुनसान है।।

[4]

वोट  उसको  दें   जो कि स्वप्न साकार   करे।

जो हमारे  सुख   दुःख कोअपना स्वीकार करे।।

लोकतंत्र यज्ञ चुनाव पर्व मेंआहुति परमावश्यक।

दें वोट उसको ही   जो जनहित में उद्धार  करे।।

[5]

अब हमें शत  प्रतिशत ही  मतदान  चाहिए।

अपने राष्ट्र की विश्व में ऊंची आनबान चाहिए।।

अपने से देश   हमको रखना     सबसे ऊपर।

बस एकता के रंग   में रंगा हिंदुस्तान चाहिए।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈



हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 174 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “गुण बढ़ा नाम जग में कमाना” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “गुण बढ़ा नाम जग में कमाना। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “गुण बढ़ा नाम जग में कमाना” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

सोचो, समझो औ’ मन को टटोलो तुम्हें किस राह जीवन में जाना?

राहें कई हैं जो मन को लुभाती औरों के कहे में तुम न आना ॥1

पहले तौलो तुम्हें क्या है भाता काम क्या लगता तुमको सुहाना।

बनना क्या लगता तुमको है अच्छा रुचि है क्या? माँगता क्या जमाना? ॥2॥

इच्छा घर में सबो की भी क्या है? चाहते वे तुम्हें क्या बनाना?

राय लेके कई अनुभवी की राह में खुद कदम तब बढ़ाना ॥3॥

जिन्दगी एक है बहती सरिता समय के संग जिसे बढ़ते जाना।

जो कि बढ़ जाती जब जितना आगे कठिन होता है फिर लौट पाना ॥4॥

ध्यान रख नर्मदा की विमलता खुद को निर्मल जल जैसा बनना

बनो जिस क्षेत्र में कार्यकर्त्ता गुण बढ़ा नाम अपना कमाना ॥ 5 ॥

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #229 ☆ अधूरी ख़्वाहिशें… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख बहुत तकलीफ़ होती है। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 229 ☆

अधूरी ख़्वाहिशें… ☆

‘कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही ठीक है/ ज़िंदगी जीने की चाहत बनी रहती है।’ गुलज़ार का यह संदेश हमें प्रेरित व ऊर्जस्वित करता है। ख़्वाहिशें स्वप्न की भांति हैं, जिन्हें साकार करने में हम अपनी सारी ज़िंदगी लगा देते हैं। यह हमें जीने का अंदाज़ सिखाती हैं और जीवन-रेखा के समान हैं, जो हमें मंज़िल तक पहुंचाने की राह दर्शाती है। इच्छाओं व ख़्वाहिशों के समाप्त हो जाने पर ज़िंदगी थम-सी जाती है; उल्लास व आनंद समाप्त हो जाता है। इसलिए अब्दुल कलाम जी ने खुली आंखों से स्वप्न देखने का संदेश दिया है। ऐसे सपनों को साकार करने हित हम अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं और वे हमें तब तक चैन से नहीं बैठने देते; जब तक हमें अपनी मंज़िल प्राप्त नहीं हो जाती। भगवद्गीता में भी इच्छाओं पर अंकुश लगाने की बात कही गई है, क्योंकि वे दु:खों का मूल कारण हैं। अर्थशास्त्र  में भी सीमित साधनों द्वारा असीमित आवश्यकताओं की पूर्ति को असंभव बताते हुए उन पर नियंत्रण रखने का सुझाव दिया गया है। वैसे भी आवश्यकताओं की पूर्ति तो संभव है; इच्छाओं की नहीं।

इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि अपेक्षा व उपेक्षा दोनों मानव के लिए कष्टकारी व उसके विकास में बाधक हैं। उम्मीद मानव को स्वयं से रखनी चाहिए, दूसरों से नहीं। प्रथम मानव को उन्नति के पथ पर अग्रसर करता है; द्वितीय निराशा के गर्त में धकेल देता है। सो! गुलज़ार की सोच भी अत्यंत सार्थक है कि कुछ ख़्वाहिशों का अधूरा रहना ही कारग़र है, क्योंकि वे हमारे जीने का मक़सद बन जाती हैं और हमारा मार्गदर्शन करती हैं। जब तक ख़्वाहिशें ज़िंदा रहती हैं; मानव निरंतर सक्रिय व प्रयत्नशील रहता है और उनके पूरा होने के पश्चात् ही सक़ून प्राप्त करता है। 

‘ख़ुद से जीतने की ज़िद्द है/ मुझे ख़ुद को ही हराना है/ मैं भीड़ नहीं हूं दुनिया की/ मेरे अंदर एक ज़माना है।’ जी हां! मानव से जीवन में संघर्ष करने के पश्चात् मील के पत्थर स्थापित करना अपेक्षित है। यह सात्विक भाव है। यदि हम ईर्ष्या-द्वेष को हृदय में धारण कर दूसरों को पराजित करना चाहेंगे, तो हम राग-द्वेष में उलझ कर रह जाएंगे, जो हमारे पतन का कारण बनेगा। सो! हमें अपने अंतर्मन में स्पर्द्धा भाव को जाग्रत करना होगा और अपनी ख़ुदी को बुलंद करना होगा, ताकि ख़ुदा भी हमसे पूछे कि तेरी रज़ा क्या है? विषम परिस्थितियों में स्वयं को प्रभु-चरणों में समर्पित करना सर्वश्रेष्ठ उपाय है। सो! हमें वर्तमान के महत्व को स्वीकारना होगा, क्योंकि अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य अनिश्चित है। इसलिए हमें साहस व धैर्य का दामन थामे वर्तमान में जीना होगा। इन विषम परिस्थितियों में हमें आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे रखना है तथा पीछे मुड़कर कभी नहीं देखना है।

संसार में असंभव कुछ भी नहीं। हम वह सब कर सकते हैं, जो हम सोच सकते हैं और हम वह सब सोच सकते हैं; जिसकी हमने आज तक कल्पना नहीं की। कोई भी रास्ता इतना लम्बा नहीं होता, जिसका अंत न हो। मानव की संगति अच्छी होनी चाहिए और उसे ‘रास्ते बदलो, मुक़ाम नहीं’ में विश्वास रखना चाहिए, क्योंकि पेड़ हमेशा पत्तियां बदलते हैं, जड़ें नहीं। जीवन संघर्ष है और प्रकृति का आमंत्रण है। जो स्वीकारता है, आगे बढ़ जाता है। इसलिए मानव को इस तरह जीना चाहिए, जैसे कल मर जाना है और सीखना इस प्रकार चाहिए, जैसे उसको सदा ज़िंदा रहना है। वैसे भी अच्छी किताबें व अच्छे लोग तुरंत समझ में नहीं आते, उन्हें पढ़ना पड़ता है। श्रेष्ठता संस्कारों से मिलती है और व्यवहार से सिद्ध होती है। ऊंचाई पर पहुंचते हैं वे लोग, जो प्रतिशोध नहीं, परिवर्तन की सोच रखते हैं। परिश्रम सबसे उत्तम गहना व आत्मविश्वास सच्चा साथी है। किसी से धोखा मत कीजिए; न ही प्रतिशोध की भावना को पनपने दीजिए। वैसे भी इंसान इंसान को धोखा नहीं देता, बल्कि वे उम्मीदें धोखा देती हैं, जो हम किसी से करते हैं। जीवन में तुलना का खेल कभी मत खेलें, क्योंकि इस खेल का अंत नहीं है। जहां तुलना की शुरुआत होती है, वहां अपनत्व व आनंद भाव समाप्त हो जाता है।

ऐ मन! मत घबरा/ हौसलों को ज़िंदा रख/ आपदाएं सिर झुकाएंगी/ आकाश को छूने का जज़्बा रख। इसलिए ‘राह को मंज़िल बनाओ,तो कोई बात बने/ ज़िंदगी को ख़ुशी से बिताओ तो कोई बात बने/ राह में फूल भी, कांटे भी, कलियां भी/ सबको हंस के गले से लगाओ, तो कोई बात बने।’ उपरोक्त स्वरचित पंक्तियों द्वारा मानव को निरंतर कर्मशील रहने का संदेश प्रेषित है, क्योंकि हौसलों के जज़्बे के सामने पर्वत भी नत-मस्तक हो जाते हैं। ऐ मानव! अपनी संचित शक्तियों को पहचान, क्योंकि ‘थमती नहीं ज़िंदगी, कभी किसी के बिना/ यह गुज़रती भी नहीं, अपनों के बिना।’ सो! रिश्ते-नातों की अहमियत समझते हुए, विनम्रता से उनसे निबाह करते चलें, ताकि ज़िंदगी निर्बाध गति से चलती रहे और मानव यह कह उठे, ‘अगर देखना है मेरी उड़ान को/ थोड़ा और ऊंचा कर दो मेरी उड़ान को।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 4 – नवगीत – ऋतुपति… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – ऋतुपति

? रचना संसार # 4 – नवगीत – ऋतुपति…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

अनुरक्त हुए ऋतुपति को मैं,

पीने को हाला देती हूँ।

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

 *

मधुरिम अधरों पर रसासिक्त,

आँखें सुंदर भी  हैं नीली।

यौवन मद में मखमली बदन,

स्वर्णिम आभा नथ चमकीली,

प्रेयसी प्राणदा प्रियतम को,

प्यारी मधुशाला देती हूँ।

 *

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

 *

नित मदिर -गीत गाता  यौवन,

बौराती पुलकित तरुणाई।

मैं बँधीं प्रीति की डोरी से,

हूँ बिना पिया के अकुलाई।।।

सिंदूरी माथे को खुश हो,

निज मन मतवाला देती हूँ।

 *

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

 *

यौवन का झीना घूँघट पट,

रेशम की अँगिया शरमाती।

अभिसार वल्लरी नित पुष्पित,

है चन्द्र प्रभा सी  मुस्काती।।

प्रिय प्रांजल मूरत प्रांजल को

मैं प्रेमिल प्याला देती हूँ।

 *

कंचनवर्णी इस यौवन को,

मधुरस का प्याला देती हूँ।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #229 ☆ भावना के मुक्तक ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के मुक्तक।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 229 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के मुक्तक ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

हवाओं का ये झोंका तो हमें जीना सीखाता है।

थपेड़े जो लगे जीवन में वो सब कुछ बताता है।

हमें महसूस होता है ये जीवन  के निराले रंग –

हवा का रूख निराला है वो ही हमको जताता है।

*

चुनावी रंग है अब तो हवा वैसी ही बहती है।

किसे हमको तो चुनना है हवा वैसी बहकती है।

नेताओं का परचम तो हरपल  रंग ही बदले है-

समझना है हमें अब तो हवा हमको जो कहती है।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #211 ☆ बाल गीत – तोता मेरा… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बाल गीत – तोता मेरा आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 211 ☆

☆ बाल गीत – तोता मेरा… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

तोता    मेरा   गाता    गाना

घर   लाये   थे   मेरे    नाना

तोता    मेरा    गाता    गाना

*

सीख सीख कर वो बतियाता

सुन  सुन  बातें  वो   दुहराता

रहकर  पिंजड़े  में  भी  तोता

टे  टे  कर -कर खाता  खाना

तोता     मेरा    गाता    गाना

*

लाल  चोंच  और  रंग- विरंगे 

दिखते  हमको  खूब  ही चंगे

जब  भी  कोई  घर  में आता

राम  राम  कह  उसे   बुलाना

तोता     मेरा    गाता     गाना

*

हरी  मिर्च   लगती   है  प्यारी

केरी   खाकर   करता  व्यारी

मीठे   बोल   कंठ   है   सुंदर

मैना  बिन  वह  लगे  दिवाना

तोता     मेरा    गाता    गाना

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈




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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय सातवा — ज्ञानविज्ञानयोग — (श्लोक २१ ते ३०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय सातवा — ज्ञानविज्ञानयोग — (श्लोक २१ ते ३०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक…

यो यो यां यां तनुं भक्त: श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।

तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ।।२१।।

*

मनी कामना जोपासुनी पूजितो ज्या देवतेला

त्या देवतेप्रति स्थिर करितो मी त्या भक्ताला ॥२१॥

*

स तया श्रद्धया युक्तस्तस्याराधनमीहते ।

लभते च तत: कामान्मयैव विहितान्हि तान् ।।२२।।

*

श्रद्धा बाळगुनी मनात भक्त पूजितो त्या देवतेला

प्राप्त होती माढ्याकडुनी वांच्छित भोग त्या भक्ताला ॥२२॥

*

अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् ।

देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि ।।२३।।

*

अल्पमती त्या नरास लाभे फल परि ते नाशवंत

अर्चना करित ते देवतेची ज्या तयास ती होई प्राप्त 

भक्तांनी मम कसेही पुजिले श्रद्धा मनि ठेवुनी

मोक्ष तयांना प्राप्त होतसे मम चरणी येउनी ॥२३॥

*

अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धय: ।

परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम् ।।२४।।

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मूढ न जाणत अविनाशी माझे परम स्वरूप 

गात्रमनाच्या अतीत मजला मानत व्यक्तिस्वरूप॥२४॥

*

नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत: ।

मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम् ।।२५।।

*

आवृत मी योगमायेने सकलांसाठी अप्रकाशित

अज्ञानी ना जाणत म्हणती मज जननमरण बद्ध ॥२५॥

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वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन ।

भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन ।।२६।।

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भूतवर्तमानभविष्यातील सकल भूता मी जाणतो

श्रद्धाभक्तिविरहित कोणीही ना मजला जाणतो ॥२६॥

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इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।

सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परंतप ॥२७॥

*

जन्म अर्जुना द्वेषापोटी वासनेच्या कारणे

अज्ञ राहती सकल जीव सुखदुःखादी मोहाने ॥२७॥

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येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम् ।

ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रता: ।।२८।।

*

निष्काम कर्मयोग्याचे होत पापविमोचन

द्वेषासक्ती द्वंद्वमुक्त ते माझेच करित पूजन ॥२८॥

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जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।

ते ब्रह्म तद्विदु: कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम् ।।२९।।

*

जरामरण मुक्तीकरिता येत मला शरण

ब्रह्माध्यात्म्याचे कर्माचे पूर्ण तया ज्ञान ॥२९॥ 

*

साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदु: ।

प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतस: ।।३०।।

*

अधिभूताचा अधिदैवाचा अधियज्ञाचा आत्मरूप मी

प्रयाणकाळी मला जाणती युक्तचित्त तयास प्राप्त मी ॥३०॥

*

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्याय: ॥७॥

 

ॐ श्रीमद्भगवद्गीताउपनिषद तथा ब्रह्मविद्या योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुन संवादरूपी आत्मसंयमयोग  नामे निशिकान्त भावानुवादित सप्तमोऽध्याय  संपूर्ण ॥७॥

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈