हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-25 – पेंटर आर्टिस्ट से कार्टूनिस्ट तक संदीप जोशी… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग -25 – पेंटर आर्टिस्ट से कार्टूनिस्ट तक संदीप जोशी… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

चंडीगढ़ की यादों में गुलाब की तरह महकती एक याद हैं – संदीप जोशी ! वही संदीप जोशी, जिसके बनाये कार्टून आप देखते हैं, सुबह सुबह ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में ताऊ बोल्या’ व ‘द ट्रिब्यून’ में ‘ इन पासिंग’ के रूप में ! जी हां, आज उसी की बात होगी, जो‌ उत्तरी भारत के प्रमुख कार्टूनिस्टों में से एक है।

मेरी पहली पहली मुलाकात करवाई थी, खटकड़ कलां के गवर्नमेंट आदर्श सीनियर सेकेंडरी स्कूल के सहयोगी डाॅ सुरेंद्र मंथन ने ! जरा यह भी बताता चलूँ कि डाॅ सुरेंद्र मंथन ‘द ट्रिब्यून’ के चंडीगढ़ के स्टाफ रिपोर्टर श्याम खोसला के छोटे भाई थे। तो एक बार जिन दिनों डाॅ वीरेंद्र मेहंदीरत्ता पंजाब विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे तब उन्होंने दो दिवसीय कहानी कार्यशाला आयोजित की थी, जिसमें डाॅ महीप सिंह मुख्यातिथि थे और पहले दिन सबसे पहले मेरी ही कहानी ‘ अगला शिकार ‘ का पाठ करवाया गया।

पहले दिन का सत्र समाप्त होते ही एक  छोटा सा लड़का डाॅ मंथन को मिलने आया। वह संदीप जोशी था। चर्चित कथाकार बलराज जोशी का बेटा ! बलराज जोशी से मेरी मुलाकात फूलचंद‌ मानव ने ही करवाई थी और चंडीगढ़ के सेक्टर बाइस स्थित काॅफी हाउस में काॅफी की चुस्कियों के बीच मैं अनाड़ी, अनजान सा कथाकार कहानी लिखने का ककहरा सीख रहा था ! फिर बलराज जोशी असमय ही चले गये दुनिया से, पीछे एक बेटा और पत्नी को संघर्ष के लिए जूझने के लिए ! जोशी की पत्नी को पति की जगह अनुकम्पा आधार पर जाॅब भी मिल गयी और सरकारी आवास भी सिर ढंकने के लिए ! वहीं संदीप जोशी से मेरा परिचय करवाया डाॅ मंथन ने और बड़े आग्रह से कहा कि संदीप बहुत ही शानदार पेंटिंग्स बनाता है, क्यों न एक फीचर संदीप पर लिख दूँ ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में ! मैंने कहा कि क्या ऐसे अचानक मुलाकात के बाद खड़े खड़े फीचर लिखा जाता है ! मुझे स़दीप की पेंटिंग्स देखनी पड़ेंगी ! उस दिन रहने का इंतज़ाम विश्वविद्यालय में ही था लेकिन डाॅ मंथन ने सुझाव दिया कि आप संदीप के साथ इसके घर आज रह लीजिए, और देख लीजिए इसकी पेंटिंग्स ! सुझाव अच्छा लगा और मैं अपना बैग लिए संदीप जोशी की साइकिल के पीछे बैठकर इनके सरकारी आवास पर पहुँच गया। वहाँ इनकी मम्मी ने बड़ा अच्छा दाल भात बनाया और जब हम दोनों फ्री हुए खाने पीने से तब मैंने कहा कि अब दिखाओ अपनी पेंटिंग्स ! एक कमरे में संदीप की पेंटिंग्स खाकी कवर्ज में लपेटीं बड़े करीने से रखी थीं। वह एक एक कर कवर उतार कर पेंटिंग्स दिखाता गया और एक पेंटिंग जो मुझे पसंद आई उसकी फोटोकॉपी डाक से भेजने की कहकर मैं नवांशहर लौट आया। कुछ दिनों बाद डाक में फोटोकॉपी मिल गयी जो ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में फीचर के साथ प्रकाशित भी हो गयी। मैं नवांशहर से ‘दैनिक ट्रिब्यून’  का अंशकालिक रिपोर्टर था और जब भी चंडीगढ़ जाता तब ‘दैनिक ट्रिब्यून’ कार्यालय जरूर जाता। संदीप जोशी पर लिखे फीचर के बाद जब ऑफिस गया तब समाचार संपादक व मेरे पत्रकारिता के गुरु सत्यानंद शाकिर ने संकेत से अपनी ओर बुलाया। वे मुझे मेरे प्रकाशित समाचारों पर टिप्स देते रहते, कभी डांट देते तो कभी सराहते ! उस दिन सराहना मिली कि संदीप जोशी पर लिखकर बहुत अच्छा किया, मैं भी बलराज जोशी का मित्र रहा हूँ और मैं इस परिवार की मदद करना चाहता हूँ लेकिन मेरे पास इनकी कोई जानकारी नहीं थी। तुम एक उपकार और कर दो, उनके बेटे संदीप को मिला दो ! मैंने कहा कि आज ही मिलवाता हूँ और मैं लोकल बस में सेक्टर बाइस स्थित संदीप के घर पहुँच गया। जब सारी बात बताई तब संदीप ने अपनी साइकिल उठाई और मुझे पीछे बिठाकर सेक्टर 29 तक ‘दैनिक ट्रिब्यून’ के ऑफिस तक ले गया ! सत्यानंद शाकिर के सामने संदीप को ले जाकर खड़ा कर दिया। उनके मन में पहले से ही कुछ चल रहा था। वे संदीप जोशी और मुझे संपादक राधेश्याम शर्मा के पास ले गये और संदीप पर प्रकाशित मेरा फीचर दिखाकर संदीप के बारे में कुछ प्लान करने की कही और कुछ दिन बाद ‘दैनिक ट्रिब्यून ट्रिब्यून’ में ‘ताऊ बोल्या’ कार्टून के साथ संदीप जोशी का कायाकल्प एक कार्टूनिस्ट के रूप में हो चुका था ! फिर सन् 1990 में मैं ‘दैनिक ट्रिब्यून में उप संपादक के तौर पर आ गया। संदीप तब तक अपनी पढ़ाई पूरी कर चंडीगढ़ प्रशासन में अच्छी नौकरी पा चुका था और अब उसके पास चमचमाता स्कूटर था। उसका कार्टून कोना अब भी बरकरार था। एक दिन संदीप मेरे पास सलाह लेने आया कि उसे ‘जनसत्ता’ के प्रमोद कौंसवाल यह ऑफर दे रहे हैं कि ‘जनसत्ता’ में कार्टून बनाने का काम शुरू करवा देता हूं, जो अस्थायी नहीं बल्कि स्थायी नौकरी के रूप में होगा ! संदीप मेरे से सलाह मांगने आया था कि यह पेशकश स्वीकार कर‌ लूं या नहीं ?

मैंने कहा- संदीप कार्टून के कैरीकैचर रोज़ रोज़ लोकप्रिय नहीं होते ! इसी ‘ताऊ बोल्या’ ने तुम्हें चौ देवीलाल से पांच हज़ार रुपये का इनाम दिलवाया और नये कार्टून को लोकप्रिय होने में समय लगेगा और यह जरूरी नहीं कि लोगों को पसंद आये या न आये ! इस तरह मेरी राय संदीप को सही लगी और उसकी लम्बी पारी आज तक जारी है।

इसके बाद मैंने ‘द ट्रिब्यून’ के सहायक संपादक कमलेश्वर सिन्हा को जानकारी दी कि संदीप को कैसी ऑफर आ रही है। इसके बारे में कुछ सोचिए ! अब आगे क्या हुआ या कैसे हुआ, मैं नही जानता लेकिन संदीप जोशी ‘ट्रिब्यून’ में स्थायी तौर पर आ गया और इस तरह कार्टूनिस्ट के तौर पर हम उसे आज तक देख रहे हैं। उसके बनाये दो कार्टूनों का आनंद लीजिए ! पहला जब चौ बंसीलाल को केंद्र से हटाकर हरियाणा का मुख्यमंत्री बनाया गया था और उन्हें बगल में फाइलें दबाये दिखा कर नीचे कैप्शन‌ थी – इबकि बार मैं इमरजेंसी लगाने नहीं आया ! यह ह्यूमर नहीं भूला। इसी तरह दूसरा कार्टून याद है। ‌मैं हिसार आ चुका था। ‌कार्टून था चौ भजनलाल पर ! गोलमेज़ के एक तरफ कांग्रेस हाईकमान सोनिया गाँधी बैठी हैं और सामने चौ भजनलाल !

नीचे कैप्शन थी – यो कैसी मीटिंग होवे? एक को हिंदी को न आवै और दूजे को अंग्रेज़ी ! उस दिन चौ भजनलाल हिसार में ही थे और मीडिया को बुला रखा था। मैं ‘दैनिक ट्रिब्यून’ साथ ही ले गया और चौ भजनलाल को वह कार्टून दिखाया। वे बहुत हंसे और बोले- इतनी अंग्रेज़ी तो आवै सै !

तीसरी बार संदीप ने फिर सलाह मांगी, जिन दिनों मैं ‘दैनिक ट्रिब्यून’ से इस्तीफा देकर हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष हो गया था। ‌संदीप को हरियाणा साहित्य अकादमी पुरस्कृत करने जा रही थी और वह असमंजस में था कि पुरस्कार ग्रहण करे या नहीं ? मैने सलाह दी कि यह तुम्हारी अपनी प्रतिभा का सम्मान है, ले लो और वह पुरस्कार लेने समारोह में आया। एक बार वह हिसार के बड़े स्कूल  विद्या देवी ज़िंदल स्कूल की आर्टिस्ट कार्यशाला में आया, तब मुझे इतनी खुशी हुई कि उसे अपने घर बुलाया और मीडिया के मित्रों को भी बुला लिया ! इस तरह अनजाने ही मैं संदीप जोशी की ज़िंदगी के महत्त्वपूर्ण मोड़ों पर मैं शायद उसके साथ रहा ! अब वह रिटायरमेंट के निकट है और सोच रहा है कि फिर से कार्टूनिस्ट से पेंटर आर्टिस्ट बन‌ जाये और अपने कथाकार पिता बलराज जोशी पर किताब प्रकाशित करने की योजना भी है !

मेरे अंदर से आवाज़ आती है कि कहीं मुझसे कोई भूल‌ तो नहीं हुई, एक प्रतिभाशाली पेंटर आर्टिस्ट को कार्टूनिस्ट बनने की ओर‌ सहयोग करके?

शायद आज इतना ही काफी! कल फिर मिलते हैं!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #244 – 129 – “उम्मीद ए वफ़ा फिर दगा दे गई है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “उम्मीद ए वफ़ा फिर दगा दे गई है…” ।)

? ग़ज़ल # 129 – “उम्मीद ए वफ़ा फिर दगा दे गई है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

मिला हमको भी हमसफ़र ज़िंदगी का,

मगर मुख़्तसर था सफ़र ज़िंदगी का।

*

मुश्किलें  इस  कदर सिर पर आईं,

हमदम बन बैठा क़हर ज़िंदगी का।

*

उम्मीद ए वफ़ा फिर दगा दे गई है,

किस तरह अब कटे पहर ज़िंदगी का।

*

न  होंगी  कम  दिक़्क़तें मेरी रोने से,

ग़म मुझे मिला इस कदर ज़िंदगी का।

*

सरेशाम  अंधेरा  छाया  है ‘आतिश’,

किस तरह अब हो बसर ज़िंदगी का।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 122 ☆ ।।मुक्तक।। ☆ ।।स्वर्ग से भी सुंदर धरती पर संसार चाहिये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 122 ☆

।।मुक्तक।। ☆ ।।स्वर्ग से भी सुंदर धरती पर संसार चाहिये।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

हर दिल में प्यार का   उपहार   चाहिये।

एक दूजे से जुड़ा हुआ सरोकार चाहिये।।

चाहिये जीने का हक़ हर किसीके लिए।

प्रेम की डोरी में   बंधा   संसार चाहिये।।

[2]

महोब्बत   का     बहता सैलाब    चाहिये।

भावनाओं का हरओर बस फैलाव चाहिये।।

चाहिये प्यार से भी प्यारा   रिश्ता  हमको।

दुनिया में हमें अब कोई नहीं दुराब चाहिये।।

[3]

एक धरती इक़आसमां संबको मिले छाया है।

हवा पानी इसको कौन कब बांध पाया है।।

चाहिये प्रभु का हाथ हर किसी  के सर पर।

बस मिट जाए संसार पर पड़ा  बुरा साया है।।

[4]

नफरत का नामोनिशान मिट जाये जहान से।

बस किरदार की खुशबू आये हर मकान से।।

चाहिये नहीं हमें बारूद और बम की दुनिया।

हमकदम हमसाया नजरआए हर इंसान से।।

[5]

तेरा मेरा इसका उसका नहीं हर बार चाहिये।

बिना छल कपट के हर एक व्यापार  चाहिये।।

चाहिये सम्मान से   चिंतन मनन की दुनिया।

स्वर्ग से भी सुंदर धरती    पर संसार चाहिये।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 184 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – क्या भरोसा जिंदगी का ! ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “क्या भरोसा जिंदगी का !। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ काव्य धारा # 184 ☆ ‘अनुगुंजन’ से – क्या भरोसा जिंदगी का ! ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

क्या भरोसा जिंदगी का, बुलबुला है नीर का

पेड़ अधउखड़ी जड़ों का ज्यों नदी के तीर का ।

कभी आँधी की घड़ी में जो खड़ा फूला-फला

वही वर्षा की झड़ी में गिर पड़ा औं’ बह चला ।

ज्यों तरल आंसू नयन का विवश मन की पीर का ।।१।।

कभी बासंती पवन ने प्यार से हुलसा दिया

कभी झंझा के झकोरों ने जिसे झुलसा दिया ।

नियति जिसकी, ज्यों कोई बंदी बँधा जंजीर का ।।२।।

चार दिन के लिए जो संसार में मेहमान है

व्यस्तता में आज की जिसको न. कल का ध्यान है ।

साथ भी जिसको मिला तो नाशवान शरीर का ।।३।।

एक मिट्टी का खिलौना डर जिसे आघात का

ताप का भी, शीत का भी, वात का, बरसात का ।

ज्ञान कुछ जिसको न अपनी ही सही तासीर का ।।४।।

नहीं कोई अंदाज जिसको स्वतः अपनी राह का

पर न कोई अंत जिसकी चाह औ’ परवाह का ।

भटकना जिसको जगत में सदा एक फकीर सा ।।५।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ प्रकाश वाट… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

श्री रवींद्र सोनावणी

? कवितेचा उत्सव ?

☆ प्रकाश वाट… ☆ श्री रवींद्र सोनावणी ☆

चालत होतो मी एकाकी आयुष्याची वाट

पसरत होता अवतीभवती अंधकार घनदाट

पूर्वाचल कधी निघेल उजळून नव्हते ठाऊक मजला

ठेचाळत धडपडत चाललो रेटीत काळोखाला ||१ ||

*

कर्म भोग हा असा न जाई भोगून झाल्याविना

गिळेल मज अंधार परंतु राहतील पाऊल खुणा

जे होईल ते खुशाल होवो मधे थांबणे नाही

असेल संचित त्याचप्रमाणे न्यायनिवाडा होई ||२ ||

*

निश्चय ऐसा होता उठली नवीन एक उभारी

शीळ सुगंधित वाऱ्याची मज देई सोबत न्यारी

बेट बांबूचे वन केतकीचे पल्याड मिणमिणता दीप

दूर दूर तो प्रकाश तरीही मज भासला समीप हे||३ ||

*

हे देवाने जीवन आम्हा दिधले जगण्यासाठी

उषःकाल तो नक्कीच आहे अंधाराच्या पाठी

मनात आली उसळून तेव्हा उत्साहाची लाट

त्या मिणमिणल्या दीपाने मज दाविली प्रकाश वाट ||४||

© श्री रवींद्र सोनावणी

निवास :  G03, भूमिक दर्शन, गणेश मंदिर रोड, उमिया काॅम्पलेक्स, टिटवाळा पूर्व – ४२१६०५

मो. क्र.८८५०४६२९९३

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #239 ☆ बढ़ती संवेदनशून्यता– कितनी घातक… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख बढ़ती संवेदनशून्यता– कितनी घातक… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 239 ☆

☆ बढ़ती संवेदनशून्यता– कितनी घातक… ☆

‘कुछ अदालतें वक्त की होती हैं, क्योंकि जब समय जवाब देता है, ग़वाहों की ज़रूरत नहीं होती और सीधा फैसला होता है’ कोटिशः सत्य हैं और आजकल इनकी दरक़ार है। आपाधापी व दहशत भरे माहौल में चहुँओर अविश्वास का वातावरण तेज़ी से फैल रहा है।  हर दिन समाज में घटित होने वाली फ़िरौती, दुष्कर्म व हत्या के हादसों में बेतहाशा वृद्धि हो रही है। संवेदनहीनता इस क़दर बढ़ रही है कि इंसान इनका विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाता बल्कि ग़वाही देने से भी भयभीत रहता है, क्योंकि वह हर पल दहशत में जीता है और सदैव आशंकित रहता है कि यदि उसने ऐसा कदम उठाया तो वह और उसका परिवार सुरक्षित नहीं रहेगा। सो! उसे ना चाहते हुए भी नेत्र मूँदकर जीना पड़ता है।

आजकल किडनैपिंग अर्थात् अपहरण का धंधा ज़ोरों पर है। अपहरण बच्चों का हो, युवकों-यवतियों का– अंजाम एक ही होता है। फ़िरौती ना मिलने पर उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है या हाथ-पाँव तोड़कर बच्चों से भीख मंगवाने का धंधा कराया जाता है या ग़लत धंधे में झोंक दिया जाता है, जहाँ वे दलदल में फंस का रह जाते हैं। जहाँ तक बालिकाओं के अपहरण का संबंध है, उनकी अस्मिता से खिलवाड़ होता है और उन्हें दहिक शोषण के धंधे में धकेल कोठों पर पहुंचा दिया जाता है। वहाँ उन्हें 30-40 लोगों की हवस का शिकार बनना पड़ता है। रात के अंधेरे में सफेदपोश लोग उन बंद गलियों में आते हैं, अपनी दैहिक क्षुधा शांत कर भोर होने से पहले लौट जाते हैं, ताकि वे समाज के समक्ष दूध के धुले बने रहें और सारा इल्ज़ाम उन  मासूम बालिकाओं व कोठों के संचालकों पर रहे।

जी हाँ! यही है दस्तूर-ए-दुनिया अर्थात् ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात् दोषारोपण सदैव दुर्बल व्यक्ति पर ही किया जाता है, क्योंकि उसमें विरोध करने की शक्ति नहीं होती और यह सबसे बड़ा अपराध है। गीता में यह उपदेश दिया गया है कि ज़ुल्म करने वाले से बड़ा दोषी ज़ुल्म सहने वाला होता है। अमुक स्थिति में हमारी सहनशक्ति हमारे दुश्मन होती है, अर्थात् इंसान स्वयं अपना शत्रु बन जाता है, क्योकि वह ग़लत बातों का विरोध करने का सामर्थ्य नहीं रखता। मेरे विचार से जिस व्यक्ति में ग़लत को ग़लत कहने का साहस नहीं होता, उसे जीने का अधिकार नहीं होना चाहिए। सत्य की स्वीकार्यता व्यक्ति का सर्वोत्तम गुण है और इसे अहमियत ना देना जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है।

आजकल लिव-इन का प्रचलन बढ़ता जा रहा है। इसमें दोष युवतियों का है, जो अपने माता-पिता के प्यार-दुलार को दरक़िनार कर, उनकी अस्मिता को दाँव पर लगाकर एक अनजान व्यक्ति पर अंधविश्वास कर चल देती है उसके साथ विवाह पूरव उसके साथ रहने ताकि वह उसे देख-परख व समझ सके। परंतु कुछ समय पश्चात् जब वह पुरुष साथी से विवाह करने को कहती है, तो वह उसकी आवश्यकता को नकारते हुए यही कहता है कि विवाह करके ज़िम्मेदारियों का बोझ ढोनेने का प्रयोजन क्या है– यह तो बेमानी है। परंतु उसके आग्रह करने पर प्रारंभ हो जाता है मारपीट का सिलसिला, जहाँ उसे शारीरिक व मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जाता है। श्रद्धा व आफ़ताब, निक्की व साहिल जैसे जघन्य अपराधों में दिन-प्रतिदिन इज़ाफा होता जा रहा है। युवतियों के शरीर के टुकड़े करके फ्रिज में रखना, उन्हें निर्जन स्थान पर जाकर फेंकना इंसानियत की सभी हदों को पार कर जाता है। साहिल का निक्की की हत्या करने के पश्चात् दूसरा विवाह रचाना सोचने पर विवश कर देता है कि इंसान इतना संवेदनहीन कैसे हो सकता है? यह तो संवेदनशून्यता की पराकाष्ठा है। मैं इस अपराध के लिए उन लड़कियों को दोषी मानती हूँ, जो हमारी सनातन संस्कृति का अनुकरण न कर पाश्चात्य की जूठन स्वीकार करने में फख़्र महसूसती हैं। वैसे ही पित्तृसत्तात्मक युग में हम यह  अपेक्षा कैसे कर सकते हैं कि पुरुष की सोच बदल सकती है। वह तो पहले ही स्त्री को अपनी धरोहर / बपौती समझता था। आज भी वह उसे उसका मालिक समझता है तथा जब चाहे उसे घर से बाहर का रास्ता दिखा सकता है। उसकी स्थिति खाली बोतल के समान है, जिसे वह बीच राह फेंक सकता है; वह उस पर शक़ के दायरे में अवैध संबंधों का  इल्ज़ाम लगा पत्नी व बच्चों की निर्मम हत्या कर सकता है।  वास्तव में पुरुष स्वयं को सर्वश्रेष्ठ ही नहीं, ख़ुदा समझता है, क्योंकि उसे कन्या-भ्रूण को नष्ट करने का अधिकार प्राप्त है।

‘औरत में जन्म दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया / जब जी चाहा मसला-कुचला, जब जी चाहा दुत्कार दिया।’ ये पंक्तियाँ औरत की नियति को उजागर करती हैं। वह अपनी जीवन-संगिनी को अपने दोस्तों के हम-बिस्तर बनाने का जघन्य अपराध कर सकता है। वह पत्नी पर अकारण इल्ज़ाम लगा कटघरे में खड़ा सकता है। वैसे भी उस मासूम को अपना पक्ष रखने का अधिकार प्रदान ही कहाँ किया जाता है? कचहरी में भी क़ातिल को भी अपना पक्ष रखने व स्पष्टीकरण देने का अधिकार होता है। इतना ही नहीं एक दुष्कर्मी पैसे व रुतबे के बल पर उस मासूम की जिंदगी के सौदे की पेशकश करने को स्वतंत्र है और उसके माता-पिता उसे दुष्कर्मी के हाथों सौंपने को तैयार हो जाते हैं।

वास्तव में दोषी तो उसके माता-पिता हैं जो अपनी नादान बच्ची पर भरोसा नहीं करते। वैसे भी वे अंतर्जातीय विवाह की एवज़ में कभी ऑनर किलिंग करते हैं, तो कभी दुष्कर्म का हादसा होने पर समाज में निंदा के भय से उसका तिरस्कार कर देते हैं। उस स्थिति में वे भूल जाते हैं कि वे उस निर्दोष बच्ची के जन्मदाजा हैं। वे उसकी मानसिक स्थिति को अनुभव न करते हुए उसे घर में कदम तक नहीं रखने देते। अच्छा था, तुम मर जाती और उसकी ज़िंदगी नरक बन जाती है। अक्सर ऐसी लड़कियाँ आत्महत्या कर लेती हैं या हर दिन ना जाने वे कितने सफेदपोश मनचलों की हमबिस्तर बनने को विवश होती हैं। काश! हम अपने बेटे- बेटियों को बचपन से यह एहसास दिला पाते कि वे अपने संस्कारों अथवा मिट्टी से जुड़े रहते व सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करते। वे उसे आश्वस्त कर पाते कि यह घर उसका भी है और वह जब चाहे, वहाँ आ सकती है।

यदि हम परमात्मा की सत्ता पर विश्वास रखते हैं, तो हमें इस तथ्य को स्वीकारना पड़ेगा कि परमात्मा की लाठी में आवाज़ नहीं होती और कुछ फैसले रब्ब के होते हैं और जब समय जवाब देता है तो ग़वाहों की ज़रूरत नहीं होती– सीधा फैसला होता है। कानून तो अंधा व बहरा है, जो गवाहों पर आश्रित होता है और उनके न मिलने पर जघन्य अपराधी भी छूट जाते हैं और निकल पड़ते हैं अगले शिकार की तलाश में और यह सिलसिला थमने का नाम नहीं लेता। हमारे यहाँ फ़ैसले बरसों बाद होते हैं, जब उनकी अहमियत ही नहीं रहती। इतना ही नहीं, मी टू ने भी अपना खाता खोल दिया है। पच्चीस वर्ष पहले घटित हादसे को भी उजागर कर, आरोपी पर इल्ज़ाम लगा हंसते-खेलते परिवार की खुशियों में सेंध लगा लील सकती हैं; उन्हें कटघरे में खड़ा कर सकती हैं। वैसे यह दोनों स्थितियाँ विस्फोटक हैं, लाइलाज हैं, जिसके कारण समाज में विसंगति व विद्रूपताएं निरंतर बढ़ गई हैं, जो स्वस्थ समाज के लिए घातक हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे – मूल लेखक – नीलेश ओक – अनुवाद – डॉ. नंदिनी नारायण ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 3 ?

? रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे – मूल लेखक – नीलेश ओक – अनुवाद – डॉ. नंदिनी नारायण ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम – रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे

विधा – अनुवाद

मूल लेखक – नीलेश ओक

अनुवाद – डॉ. नंदिनी नारायण

प्रकाशन – क्षितिज प्रकाशन

? रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे – श्री संजय भारद्वाज ?

पत्थर पर खिंची रेखा

रमते कणे कणे इति राम:।

सृष्टि के कण-कण में जो रमते हैं वही (श्री) राम हैं। कठिनाई यह है कि जो कण-कण में है अर्थात जिसका यथार्थ, कल्पना की सीमा से भी परे है, उसे सामान्य आँखों से देखना संभव नहीं होता। यह कुछ ऐसा ही है कि मुट्ठी भर स्थूल देह तो दिखती है पर अपरिमेय सूक्ष्म देह को देखने के लिए दृष्टि की आवश्यकता होती है। नश्वर और ईश्वर के बीच यही सम्बंध है।

सम्बंधों का चमत्कारिक सह-अस्तित्व देखिए कि निराकार के मूल में आकार है। इस आकार को साकार होते देखने के लिए रेटिना का व्यास विशाल होना चाहिए। सह-अस्तित्व का सिद्धांत कहता है कि विशाल है तो लघु अथवा संकीर्ण भी है।

संकीर्णता की पराकाष्ठा है कि जिससे अस्तित्व है, उसके अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगाया जाए। निहित स्वार्थ और संकुचित वृत्तियों ने कभी श्रीराम के अस्तित्व पर प्रश्न उठाए तो कभी उनके काल की प्रामाणिकता पर संदेह व्यक्त किया। कालातीत सत्य है कि समुद्र की लहरों से बालू पर खिंची रेखाएँ मिट जाती हैं पर पत्थर पर खिंची रेखा अमिट रहती है। यह पुस्तक भी विषयवस्तु के आधार पर पत्थर पर खिंची एक रेखा कही जा सकती है।

प्रस्तुत पुस्तक ‘रामकथा : ग्रह-नक्षत्रों के आईने सेे’ में प्रभु श्रीराम के जीवन-काल की प्रामाणिकता का वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचन किया गया है। वाल्मीकि रामायण में वर्णित ग्रह नक्षत्रों की स्थिति का कालगणना के लिए उपयोग कर उसे ग्रेगोरियन कैलेंडर में बदला गया है। इसके लिए आस्था, निष्ठा, श्रम के साथ-साथ अपनी धार्मिक-सांस्कृतिक धरोहर के मानकीकरण की प्रबल इच्छा भी होनी चाहिए।

इस संदर्भ में पुस्तक में वर्णित कालगणना के कुछ उदाहरणों की चर्चा यहाँ समीचीन होगी। सामान्यत: चैत्र माह ग्रीष्म का बाल्यकाल होता है। महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम के जन्म के समय शरद ॠतु का उल्लेेख किया है। बढ़ती ग्लोबल वॉर्मिग और ॠतुचक्र में परिवर्तन से हम भलीभाँति परिचित हैं। वैज्ञानिक रूप से तात्कालिक ॠतुचक्र का अध्ययन करें तो चैत्र में शरद ॠतु होने की सहजता से पुष्टि होगी। राजा दशरथ द्वारा कराए यज्ञ के प्रसादस्वरूप पायस (खीर) ग्रहण करने के एक वर्ष बाद रानियों का प्रसूत होना तर्कसंगत एवं विज्ञानसम्मत है। राजा दशरथ की मृत्यु के समय तेजहीन चंद्र एवं बाद में दशगात्र के समय के वर्णन के आधार पर तिथियों की गणना की गई है। किष्किंधा नरेश सुग्रीव द्वारा दक्षिण में भेजे वानर दल का एक माह में ना लौटना, वानरों के लिए भोजन उपलब्ध न होना, रामेश्वरम के समुद्र का वर्णन, लंका का दक्षिण दिशा में होना, सब कुछ तथ्य और सत्य की कसौटी पर खरा उतरता है। एक और अनुपम उदाहरण रावण की शैया का अशोक के फूलों से सज्जित होना है। इसका अर्थ है कि अशोक के वृक्ष में पुष्प पल्लवित होने के समय हनुमान जी लंका गए थे।

साँच को आँच नहीं होती। श्रीराम के साक्ष्य अयोध्या जी से लेकर वनगमन पथ तक हर कहीं मिल जाएँगे। अनेक साक्ष्य श्रीलंका ने भी सहेजे हैं। अशोक वाटिका को ज्यों का त्यों रखा गया है। नासा के सैटेलाइट चित्रों में रामसेतु के अवशेष स्पष्ट दिखाई देते हैं।

श्री नीलेश ओक द्वारा मूल रूप से अँग्रेज़ी में लिखी इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद डॉ. नंदिनी नारायण ने किया है। अनुवाद किसी भाषा के किसी शब्द के लिए दूसरी भाषा के समानार्थी शब्द की जानकारी या खोज भर नहीं होता। अनुवाद में शब्द के साथ उसकी भावभूमि भी होती है। अतः अनुवादक के पास भाषा कौशल के साथ-साथ विषय के प्रति आस्था होगी, तभी भावभूमि का ज्ञान भी हो सकेगा। डॉ. नंदिनी नारायण द्वारा किया हिंदी अनुवाद, विधागत मानदंडों पर खरा उतरता है। अनुवाद की भाषा प्रांजल है। अनुवाद में सरसता है, प्रवाह है। पढ़ते समय लगता नहीं कि आप अनुवाद पढ़ रहे हैं। यही अनुवादक की सबसे बड़ी सफलता है।

विश्वास है कि जिज्ञासु पाठक इस पुस्तक का स्वागत करेंगे। लेखक और अनुवादिका, दोनों को हार्दिक बधाई।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 12 – नवगीत – नीलकंठी शंभु… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत –नीलकंठी शंभु

? रचना संसार # 12 – नवगीत – नीलकंठी शंभु…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

हे नीललोहित नीलकंठी शंभु गंगाधार हो।

अक्षत चढ़ाते भक्त भोलेनाथ को स्वीकार हो।।

 *

ओंकार हो भीमा सुशोभित बाल मयंक माथ प्रभु।

हे विष्णुवल्लभ भक्त वत्सल सोम निर्गुण साथ प्रभु।।

हो सर्व -व्यापी तुम शिवाशंकर बसे कैलाश भी।

सादर नमन आशीष दो प्रभु तुम धरा आकाश भी।।

भर दो सभी भंडार गिरिधन्वा शिवं साकार हो।

 *

बम-बम त्रिलोकीनाथ जगमग है शिवाला जाइए।

शिवरात्रि ओंकारा उमापति सुख प्रदाता आइए।।

प्रभु नित्य बाजे प्रेम की डमरू हरो संताप भी।

मंगल करो भूलोक आकर के बिराजो आप भी।।

हे भूतपति हम तो खड़े चरणों प्रभो उद्धार हो।

 *

गणनाथ अभ्यंकर पुरारी भीम अनुपम आस है।

अवधूतपति पशुपति पिनाकी भूतपति उर वास है।।

अभिमान तोड़ो दुष्ट का जीवन सफल श्रीकंठ हो।

हे शूलपाणी हो कृपानिधि सोमप्रिय शिति कंठ हो।।

तांडव करें विपदा हरें दाता त्रिलोकी सार हो।

शंकर शिरोमणि प्रभु जटाधारी प्रजापति सत्य हैं।

स्वामी विरूपाक्षाय अभिनंदन करें आदित्य हैं।।

तन केसरी छाला अगोचर शक्ति भी अध्यात्म प्रभु।

नंदी बिराजे भस्मधारी प्राणदा एकात्म प्रभु।।

हो सृष्टि पालक श्रेष्ठ प्रमथाधिप शिवा त्रिपुरार हो।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #239 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 239 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

थाम लिया है आपने, चलते रहना संग।

थामें रहना राह में, हूँ मैं आधा अंग।।

*

साथी तुमको मानना, स्वामी मेरे आज।

दासी के इस रूप में, करती सारे काज।।

*

मिलते थे हम आपसे, वही पुरानी याद।

पूरी की है आपने, सपनों की फरियाद।।

*

तू मोहन का रूप है, मैं राधिके सुजान।

प्रभु आपसे ही मिलती, राधा को पहचान।।

*

जीवन जीने की कला, तुझ से सीखी मीत।

तेरा ही गुण गा रहे, लिखते तुझ पर गीत।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #221 ☆ एक पूर्णिका – हमें  ऐतवार है वफा पर अपनी… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – हमें  ऐतवार है वफा पर अपनी आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 221 ☆

☆ एक पूर्णिका – हमें  ऐतवार है वफा पर अपनी ☆ श्री संतोष नेमा ☆

बंद जब उनकी ज़ुबां  होती है

बात  नजरों से  बयां  होती  है

*

मोम  क्या है  वो क्या  समझेंगे

संग-दिल जिनकी अदा होती है

*

तिश्नगी प्यार की बढ़ी इस कदर

लरजते  होठों  से अयां  होती है

*

सुकूं  रूह को  मिले  जो प्यार  में

तनवीर    ऐसी   कहाँ   होती   है

*

याद   उनकी  लाती  है  बे- सुधी

देख  उनको  उम्मीदें जवां होती हैं

*

हमें  ऐतवार  है वफा  पर  अपनी

पर तकदीर सभी की जुदा होती है

*

“संतोष” प्यार में खोए हैं इस तरह

न आग लगती है, न धुआँ  होती है

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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