हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – मीराबाई से वार्तालाप — लेखिका- सुश्री रीटा शहाणी ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 16 ?

?मीराबाई से वार्तालाप — लेखिका- सुश्री रीटा शहाणी ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- मीराबाई से वार्तालाप

विधा- लघु उपन्यास

लेखिका- रीटा शहाणी

प्रकाशन- क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? नींद उड़ानेवाली स्वप्नयात्रा  श्री संजय भारद्वाज ?

‘मीराबाई से वार्तालाप’, लेखिका रीटा शहाणी का अपने प्रतिबिंब से संवाद है। शीशमहल में दिखते जिस प्रतिबिंब की बात उन्होंने की है, वह शीशमहल लेखिका के भीतर भी कहीं न कहीं बसा है। अंतर इतना है कि कथा का शीशमहल जीव को प्राण देने के लिए विवश कर देता है जबकि लेखिका के भीतर का शीशमहल नित नए प्रतिबिंबों एवं नए प्रश्नों को जन्म देता है। अपने आप से संघर्ष को उकसाता है, चिंतन को विस्तार देता है। ये सार्थक संघर्ष है।

वस्तुतः इस वार्तालाप को स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर का संवाद भी कहा जा सकता है। नायिका का एक रूप वो है जो वह है, दूसरा वो जो वह होना चाहती हैं। यह स्वप्नयात्रा हो सकती है पर नींद मेें तय की जानेवाली नहीं, बल्कि ऐसी स्वप्नयात्रा जो लेखिका को सोने नहीं देती।

भारतीय समाज में अध्यात्म की जड़ें बहुत गहरी हैं। हमारे आध्यात्मिक चिंतन में अचेतन के चित्र और अवचेतन की धारणा भीतर तक बसी है। ये चित्र और धारणाएँ शाश्वत हैं। लेखिका की मीरा, ललिता गोपी से मीरा तक की यात्रा तो करती ही है, यात्रा के उत्कर्ष में लेखिका तक भी पहुँचती है। सूक्ष्म और स्थूल का मिलन कथा की प्राणवायु है। अवचेतन के सनातन का वर्तमान से एकाकार हो जाता है। यह एकाकार, इहलोक की तमाम चौखटों की परिधि से अधिक विस्तृत है।

अपनी यात्रा को लेखिका संवाद की शैली के साथ-साथ चिंतन-मनन एवं विश्लेषण से जोड़कर रखती हैं। कहीं पात्रों के वार्तालाप से और अधिकांश स्थानों पर सपाटबयानी से वे अपने चिंतन को पाठकों के आगे ज्यों का त्यों रखती हैं।

स्वाभाविक है कि पूरी यात्रा में लेखिका, पथिक की भूमिका में हैं। पथिक होने के खतरों से वे भली-भाँति परिचित हैं। इसलिए लिखती हैं, ‘ यह जानना भी आवश्यक है कि उस रास्ते की मंज़िल कौनसी होगी, अंतिम पड़ाव क्या होगा। उसे पता है कि अपना एक पग उठाने से धरती का एक अंश छोड़ना पड़ता है। पैर उठाने से धरती तो छूट जाएगी और पुन: नई धरती पर पाँव धरना पड़ेगा। कुछ प्राप्त होगा, कुछ खोना पड़ेगा।’

यात्रा में पड़ने वाले संभावित अंधेरों से चिंतित होने के बजाय वे इसे सुअवसर के रूप में लेती हैं। कहती हैं, ‘यदि देखा जाए तो हर वस्तु का जन्म अंधेरे में ही होता है, प्रात: के उजाले में नहीं। बीज अंकुरित होते हैं धरती की कोख की अंधेरी दरारों में।’

जो कुछ भौतिक रूप से पाया, वह स्थायी नहीं हो सकता, इसका भान भी है। ये पंक्तियाँ विचारणीय हैं, ‘किसी प्रकार का भी आनंद अधिक काल तक नहीं टिकता। अत: वह सही अर्थ में आनंद है ही नहीं। वह तो केवल मृग- कस्तूरी का खेल है जिसकी प्रतिध्वनि हमें अन्य वस्तुओं में सुनाई पड़ती है।’

वे कृष्ण की अनुयायी हैं। अतः सिद्धांतों से परे वे कर्म में विश्वास करती हैं। जीवन को ‘लीला’-सा विस्तार देना चाहती हैं। फलतः शब्द बोलते हैं, ‘कृष्ण ने अपने को सिद्धांतों के बंधनों से मुक्त रखा है । उसने कोई रेखा नहीं खींची है। परिणामस्वरूप उसके जीवन को लीला कहा जाता है।’

लेखिका अपनी यात्रा में दीवानगी के आलम की शुरुआत ढूँढ़ती हैं। इस शुरुआत का दर्शन और तार्किक विश्लेषण देखिए, ‘पर्दा हमने खुद डाला है, अत: हमें ही हटाना है। वह पट बाह्य नेत्रों पर नहीं है । वह है हमारी आन्तरिक चक्षुओं पर। हम उसको हटाने की शक्ति रखते हैं। एक बार घूँघट हट गया तो दीवानगी का आलम आरंभ होता है।’

दीवानगी के चरम का सागर लेखिका ने अपनी गागर में समेटने का प्रयास किया है। उनकी गागर भी मीरा की गागर की भाँति तरह-तरह के भाव एवं भावनाओं से लबालब है। ‘तारी’, ‘बैत’, ‘सुर्त चढ़ना’ जैसे सिंधी शब्दों का प्रयोग हिंदी पाठकों को नया आनंदमयी विस्तार देता है। सिंधी आंचलिकता गागर के जल को सौंधी महक व मिठास देती है।

लेखिका परम आनंद की अनुभूति के साथ यात्रा के उत्कर्ष तक पहुँचना चाहती हैं। इसलिए टहनी के दृष्टांत की भाँति स्वयं को सागर को समर्पित कर देती हैं, ‘टहनी आनंदित थी, प्रफुल्लित थी। उसे कोई भी चिंता न थी क्योंकि उसने खुद को लहरों के हवाले  कर दिया था।’

इस आनंदमयी यात्रा का पथिक होने के लिए समर्पण या दीवानगी पाठकों से भी अपेक्षित है-

अक्ल के मदरसे से उठ, इश्क के मयकदे में आ।

जामे पयामें बेखुदी हम नेे पिया, जो हो सो हो।

निराकार प्रेम के इस साकार शब्दविश्व में पाठक अनोखी अनुभूति से गुजरेगा, इसका विश्वास है। लेखिका को बधाई।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #24 – कविता – प्रेम पंथ… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम कविता प्रेम पंथ

? रचना संसार # 24 – कविता – प्रेम पंथ…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

प्रेम पंथ पर चलते जाओ,

पथिक मिलेगा तुम्हें किनारा।

सच्चे प्रेमी के हिय मे ही,

नित्य बहे शुचि प्रेमिल धारा।।

राधा सी तुम प्रीति करो अब,

मीरा सी बनके  दीवानी।

युगों युगों तक याद करेगी,

दुनिया तेरी अमर कहानी ।।

बनो श्याम से सखा जगत में,

नित्य बढ़ेगा मान तुम्हारा।

प्रेम पंथ पर चलते जाओ,

पथिक मिलेगा तुम्हें किनारा।।

 *

प्रीत अलौकिक अनुपम होती,

नव विश्वास जगाती मन में।

स्वर्ग सरिस सुख सागर मिलता,

खुशियां भर देती जीवन में।।

संयम सदा प्रेम में रखिए,

वेद ऋचा सा जीवन सारा।

प्रेम पंथ पर चलते जाओ,

पथिक मिलेगा तुम्हें किनारा।।

 *

अर्पण संजीवन बूटी है,

गंग धार सी निर्मल पावन।

भाव अमल हो सागर जैसे,

मर्यादा के पुष्प लुभावन।।

आत्मबोध में बसे नेह का,

मिले निबल को सदा सहारा।।

प्रेम पंथ पर चलते जाओ,

पथिक मिलेगा तुम्हें किनारा।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #252 ☆ भावना के दोहे – नवरात्रि ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – नवरात्रि)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 252 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे –  नवरात्रि ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

माँ तुम जननी जगत की, करती जग उद्धार।

कृपा आपकी बरसती, मिलता प्यार अपार।।

*

दीप ज्ञान का जल रहा, लगता माँ में ध्यान।

 राह कठिन है माँ करो, मेरा तुम कल्याण।।

*

ब्रह्मचारिणी  मातु को, करते सभी प्रणाम।

नौ देवी की नवरात्रि, द्वितीय तेरे नाम।।

*

तप करती  तपश्चारिणी, निर्जल निरहार।

हाथ जोड़कर पूजते, हो देवी अवतार।।

*

करना अंबे तुम दया, रखना मेरी लाज।

भक्तों के तुम कर रही, माता पूरे काज।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #234 ☆ कविता – समय… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है कवितासमय आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 234 ☆

☆ कविता – समय ☆ श्री संतोष नेमा ☆

अब निद्रा से जागो भाई

अवसर ने आवाज लगाई

*

बढ़ो खोलकर अपनी आँखें

समय स्वयं दे रहा दुहाई

*

कूद पड़ो इस धर्म युद्ध में

लेकर साहस की अँगड़ाई

*

दरवाजे पर शत्रु खड़ा है

लड़नी होगी बड़ी लड़ाई

*

पहचानो अपने दुश्मन को

कौन हितैषी समझो भाई

*

बहुरुपियों की भीड़ बहुत है

समझो तुम इनकी चतुराई

*

माफ न करता समय किसी को

हो ‘संतोष’ न फिर भरपाई

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-४ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

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☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-४ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

विडा घ्या हो अंबाबाई

‘ठेविले अनंते तैसेची रहावे ‘  अशी  आईची समाधानी, आनंदी वृत्ती होती. हातात कांचेच्या बांगड्या, गळ्यात काळी पोत आणि चेहऱ्यावरचे समाधानी हास्य हेच होते आईचे दागिने आणि वैभव.. शेवटपर्यंत सोने कधी आईच्या अंगाला लागलंच नाही. आई गरीबीशी सामना करणारी, आहे त्यात संसार फुलवणारी होती . नानांच्या पिठाला तिची मिठाची जोड असायची. मसाले करून देणे. सुतकताई, पिंपरीला कारखान्यात काम करायला पण जायची . विद्यार्थ्यांना डबा करून देणे अशी छोटी मोठी कामे करून मिळणारी मिळकत हाच तिचा  महिन्याचा पगार होता. 

माहेरी मोकळ्या हवेत हेलावणारा तिचा पदर सासरी आल्यावर पूर्णपणे बांधला गेला .वेळात वेळ काढून महिला मंडळ, एखादा सिनेमा हाच तिचा विरंगुळा होता. त्यावेळी सिनेमाचे तिकीट 4 आणे होतं. प्रभात टॉकीज मध्ये (म्हणजे आत्ताच कीबे)   माझे काका विठू काका ऑपरेटर होते. त्यांचा आईवर फार जीव.  ते आईला कामात खूप मदत करायचे.  तिला मराठी सिनेमाचे पास आणून द्यायचे. तेवढाच तिच्या शरीराला आणि मनाला विसावा.  

तिचा कामाचा उरक दांडगा होता. घरच्या व्यापातून वेळ काढून घरी पांच पानांचा सुंदरसा गोविंदविडा (हा सुंदरसा विडा करायला माझ्या वडिलांनी तिला शिकवलं होतं.)देवीसाठी तयार करून ती रोज जोगेश्वरीला द्यायची. हा नेम तिचा कधीही चुकला नाही.रात्रीच्या आरतीच्या वेळी तबकामध्ये निरांजनाशेजारी सुबक आकाराचा, पिरॅमिड सारखा गोविंदविडा विराजमान व्हायचा. “विडा घ्या हो अंबाबाई” म्हणून अंबेला  रोज विनवणी  असायची.  एक दिवस कसा कोण जाणे विडा द्यायला उशीर झाला. (गुरव )भाऊ बेंद्रे आणि भक्त विड्याची वाट बघत होते.  तबकात जागा रिकामी आहे हे सगळ्यांनी ओळखलं, प्रत्येकाच्या चेहऱ्यावर प्रश्नचिन्ह होतं.  विडा विसरला असं कधीच झालं नव्हतं. विड्याची वाट बघत सगळेजण थांबले होते.  भाऊ बेंद्रे तबक घेऊन उभेच राहयले.भक्त आईची विडा घेऊन येण्याची  वाट बघत होते… 

आणि इतक्यात लगबगीने आई पुढे धावली, विडा देवीपुढे ठेवला गेला. आणि टाळ्यांच्या गजरांत  आरतीचा   सूर मिसळला…              

“विडा घ्या हो अंबाबाई,  ही विनंती तुमच्या पायी.”  

… आई अवघडून गेली. आपल्याकडून उशीर झाला म्हणून आईला अगदी अपराध्यासारखं झालं होतं. तिने देवीपुढे नाक घासले. त्यानंतर कधीही तिचा हा नियम चुकला नाही. आम्ही नंतर पेशवेकालीन मोरोबा दादांच्या वाड्यात राहायला गेलो, तरीसुद्धा आईने हा नियम चालू ठेवला होता. ती म्हणाली, “ जोगेश्वरी आईनी आपल्याला पोटाशी होतं ते पाठीशी घालून तिच्याच परिसरात  तिच्या नजरेसमोरच ठेवलंय.”  कारण मोरोबा दादांचा पेशवेकालीन वाडा जोगेश्वरीच्या  पाठीमागेच…  म्हणजे आप्पाबळवन्त चौकातच होता.

 – क्रमशः भाग ४

© सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १४ — गुणत्रयविभागयोग — (श्लोक २१ ते २७) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय १४ — गुणत्रयविभागयोग — (श्लोक २१ ते २७) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

अर्जुन उवाच

कैर्लिङ्गैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो । 

किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते ॥ २१ ॥

कथित अर्जुन

त्रिगुणांच्या अतीत गेला काय लक्षणे त्याची

कसे तयाचे असे आचरण वृत्ती काय तयाची 

प्रभो माधवा कथन करावे गुह्य याचे मजला

काय उपाये साध्य करावे त्रिगुणातीत स्थितीला ॥२१॥

श्रीभगवानुवाच 

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव । 

न द्वेष्टि सम्प्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति ॥ २२ ॥

*

कार्यप्रकाशे सत्वगुणाच्या रजोगुण प्रवृत्ती

तमोगुणाच्या मोहाची अप्राप्ती वा न्राप्ती

विषाद नाही समाधान नच असे समप्रवृत्ती

नाही वासना उदासीन ना जाण सुभद्रापती ॥२२॥

*

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते । 

गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते ॥ २३ ॥

*

विचलित नाही होत त्रिगुणे उदासीन साक्षीरूप

गुणात वसती गुण जाणून परमात्मी एकरूप ॥२३॥

*

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः । 

तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः ॥ २४ ॥

*

सुख-दुःख शिळा-सुवर्ण समान मानुन दंग आत्मभावी

प्रिय-अप्रिय स्वस्तुती वा दूषण ज्ञानी जाणी समभावी ॥२४॥

*

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः । 

सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ॥ २५ ॥

*

मान असो वा अपमान निर्विकार वृत्ती

शत्रू असो वा मित्र तयांस्तव समसमान वृत्ती

कर्ता मी नाही अहंकार कर्मकाज निर्विकार

जाणावे त्या गुणातीत तो तर श्रेष्ठ अपरंपार ॥२५॥

*

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते । 

स गुणान्समतीत्यैतान्ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २६ ॥

*

अव्यभिचारी भक्तियोगे निरंतर मज भजतो

त्रिगुण उल्लंघुन ब्रह्मप्राप्तिचा अधिकारी असतो ॥२६॥

*

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च । 

शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ॥ २७ ॥

*

शाश्वत परब्रह्माचा नित्य धर्माचा अमृताचा

आश्रय मी तो अखंड एकत्व परमानंदाचा ॥२७॥

ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे गुणत्रयविभागयोगो नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥

ॐ श्रीमद्भगवद्गीताउपनिषद तथा ब्रह्मविद्या योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुन संवादरूपी गुणत्रयविभागयोग नामे निशिकान्त भावानुवादित चतुर्दशोऽध्याय संपूर्ण ॥१४॥

मराठी भावानुवाद  © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “रुलाके गया सपना मेरा…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “रुलाके गया सपना मेरा…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

पौर्णिमेचं  शशीबिंब आज माझ्या गवाक्षाशी बराच वेळ थबकलं.. तिथून न्याहाळलं होतं त्याला मी त्या गवाक्षात उभी असताना… आणि पुढे जाताना एक मंद स्मित रेषा आपल्या चेहऱ्यावर फुलवून निघायचं ठरवलं… अन मी नकळतपणे  आलेही… नव्हे नव्हे ओढले गेले.. त्या गवाक्षापाशी… हळूच मान लवून बघत राहीले… रस्त्यावरती सांडलेला चांदणचुरा चमचमताना किती गोड नि मोहक दिसत होता… हरपून बसले भान माझं..वेडं लावलं मला त्यानं स्वत:चं… नजर मिटता मिटत नव्हती नि कितीही पाहिलं तरी तृप्ती होत नव्हती… तरी बरं त्यावेळी आजुबाजूला.. खाली रस्त्यावर कुणी कुणीच नव्हते.. माझ्याकडे पाहत.. प्रेमात पडलीस वाटतं असचं एखाद्याला मला चिडवायला मिळालं असतं…

मी पण छे.. काही तरीच काय तुमचं…नुसत्या नजरेने पाहिलं तर ते का प्रेम असतं… असं मी स्वतःशीच म्हणाले… हो स्वतःशीच.. तिथं माझं ऐकायला तरी कोण होतं… पण मी ते सांगताना खूप लाजले तेव्हा गालावरची खळी खट्याळपणानं सारं काही सुचवून गेली… असा किती वेळ माझा.. माझाच का आम्हा दोघांचाही.. गेला.. नंतर रोजचा तसाच जात राहिला… भेटण्याची वेळ नि भेटण्याचं ठिकाणं ठरून गेलेलं….

नंतर हळूहळू त्याचं येणं उशीरा उशीरानं होऊ लागलं… माझी चिडचिड होऊ लागली… आधीच भेटायचा वेळ तो किती थोडा .. त्यात याच्या उशीरानं येण्यानं भेटीचा क्षण संपून जाई…तो नुसता जात नसे तर माझ्या मनाला चुटपूट लावून जाई.. हुरहुर लागे जीवाला ..  उद्यातरी  भेटायला वेळ भरपूर मिळेल नं… छे तसं कुठं घडायला दोन प्रेमी जीवांच्या आयुष्यात… नाही का…

आणि एक दिवस त्याचं येणचं झालं नाही… विरहाचं दुख काय असतं ते त्या दिवशी कळलं… मी गवाक्षात उभी होते नेहमी सारखी.. पण आज चंद्र प्रकाश नव्हता ..  होता तो काळोख सभोवताली… डोळे भिरभिरत होते त्याची वाट पाहताना…रस्त्यावरचा मर्क्युरी दिव्याचा प्रकाश माझी छेड काढू पाहताना  नारळाच्या झावळीतून तिरकस नजरेने बघत होता… आमच्या आठवणींच्या सावल्यांचा खेळ माझ्या नजरेसमोर मांडताना.. इतकंच कानात सांगून गेला…’ वो जब याद आये बहूत याद आये…’  आणि आणि माझं वेडं मन गुणगुणत होतं… ‘ रूला के गया सपना मेरा.. ‘

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 215 ☆ हिन्दी पखवाड़ा … ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना हिंदी पखवाड़ा। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 215 ☆ हिंदी पखवाड़ा

सागर में मिलती धाराएँ, हिन्दी सबकी संगम है।

शब्द, नाद, लिपि से भी आगे, एक भरोसा अनुपम है। ।

गंगा कावेरी की धारा, साथ मिलाती हिन्दी है।

पूरब- पश्चिम, कमल- पंखुरी, सेतु बनाती हिन्दी है। ।

 – गिरजा कुमार माथुर

हिन्दी का गुणगान करती हुयी अद्भुत पंक्ति अपने आप में सबके हृदय की भावनाओं का उद्गार ही है जो कवि गिरजा कुमार माथुर जी की लेखनी से प्रस्फुटित हुआ।

राष्ट्र निर्माण का कार्य हमारे शिक्षक बखूबी करते हैं। भारत के द्वितीय राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन जी के जन्मदिवस को शिक्षक दिवस के रूप में मनाकर हम सभी अपने शिक्षकों को नमन करते हुए उनके दिखाए रास्तों को याद कर उस पर चलने हेतु हर वर्ष संकल्प लेते हैं।

हिन्दी को जब तक हम बोलचाल, लेखन, कार्यालयीन व अध्ययन में शामिल नहीं करेंगे तब तक इसे राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित होने के लिए संघर्ष करना ही पड़ेगा। हमें प्रान्तवाद से ऊपर उठ कर देशहित में चिंतन करना चाहिए। जहाँ के निवासी अपनी भाषा व बोली का सम्मान नहीं करते उनका विकास वहीं रुक जाता है।

हम सबको एक जुट होकर संकल्प लेना चाहिए कि केवल हिन्दी को ही बढ़ावा देंगे। विश्व गुरु बनने की चाहत मातृ हिन्दी के प्रयोग से ही संभव हो सकती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 222 ☆ गीत – बहुत दिखावा, जग है छइयाँ… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मानबाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंतउत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 222 ☆ 

गीत – बहुत दिखावा , जग है छइयाँ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

बहुत दिखावा , जग है छइयाँ

माया रे संसार।

मुँह देखी में सिमट गया रे

सारा ममता , प्यार।

जीते जी ये करें ईर्ष्या

कपट, घृणा की छानी रे।

आँखों में भी सूख रहा अब

मम भावों का पानी रे।

 *

अदले का बदला है सारा

मोबाइल अब सार।

मुँह देखी में सिमट गया रे

सारा ममता , प्यार।

 *

कोठी, कनका , कार ही सब कुछ

रिश्तों की वह डोर कहाँ।

भाव प्रेम का कहाँ वो आँचल

बढ़ता ही अब शोर वहाँ।

 *

बढ़े आदमी सभी हुए अब

टूट रहे अब तार।

मुँह देखी में सिमट गया रे

सारा ममता , प्यार।

 *

भाग रहा जग चाहत मैं ही

अपने से भी दूर रहा।

दीपक बाती बन कब पाया

उड़ता हुआ कपूर रहा।

 *

छोटी-छोटी बात अहमवश

बढ़ीं बहुत तकरार।

मुँह देखी में सिमट गया रे

सारा ममता, प्यार।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #188 – आलेख – बाल साहित्यकार कैसा हो ? – ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख “बाल साहित्यकार कैसा हो?

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 188 ☆

☆ आलेख – बाल साहित्यकार कैसा हो? ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ 

☆ जो बच्चों को जाने वही बाल साहित्यकार : जो बच्चों को दुनिया की सैर कराएं

क्या सच में सिर्फ बच्चे को जानने वाला ही बाल साहित्यकार हो सकता है?

यह एक दिलचस्प सवाल है जिसके जवाब में हमें बाल साहित्य की गहराइयों में उतरना होगा। क्या बाल साहित्य सिर्फ मनोरंजन का माध्यम है या इससे कहीं ज्यादा है? क्या एक बाल साहित्यकार का काम सिर्फ बच्चों को कहानियां सुनाना है या उनका मन और मस्तिष्क भी विकसित करना है?

बाल साहित्य: सिर्फ कहानियां नहीं

बाल साहित्य बच्चों के लिए एक खिड़की की तरह होता है, जिसके ज़रिए वे दुनिया को देखते हैं। यह उनके मन को समृद्ध करता है, उनकी कल्पना शक्ति को बढ़ाता है और उन्हें जीवन के मूल्यों से परिचित कराता है। एक अच्छा बाल साहित्यकार न केवल बच्चों को मनोरंजन करता है बल्कि उन्हें सोचने, समझने और सवाल करने के लिए प्रेरित भी करता है।

बच्चों को जानना जरूरी, लेकिन काफी नहीं

हाँ, यह सच है कि एक बाल साहित्यकार को बच्चों की मनोदशा, उनकी रुचियों और उनकी भाषा को अच्छी तरह समझना चाहिए। लेकिन सिर्फ इतना ही काफी नहीं है। एक सफल बाल साहित्यकार को एक अच्छे लेखक की तरह होना भी जरूरी है। उसे कहानी कहने की कला आनी चाहिए, पात्रों को जीवंत बनाना आना चाहिए और भाषा पर पकड़ होनी चाहिए। वह क्या लिखकर क्या संदेश भेज देना चाहता है? यह सब बातें उसे आनी चाहिए।

बच्चे जिस चीज के बारे में नहीं जानते हैं उस अज्ञात चीजों को बातें करके उनकी रूचि और जिज्ञासा को बढ़ाया जा सकता है। उदाहरण के लिए हम रूडयार्ड किपलिंग का उदाहरण लें। उन्होंने ‘जंगल बुक’ जैसी कहानियों के माध्यम से बच्चों को प्रकृति और जानवरों के बारे में बहुत कुछ सिखाया। चूँकि बच्चे उनके बारे में नहीं जानते हैं इसलिए ऐसी कहानी पढ़ने में उनकी बहुत जरूरी रहती है। ऐसी कहानियों को आनंद के साथ पढ़ते हैं।

एक अच्छा बाल साहित्यकार वह होता है जो:

बच्चों की भाषा में लिखता है: वह ऐसी भाषा का प्रयोग करता है जिसे बच्चे आसानी से समझ सकें।

कल्पना शक्ति को बढ़ाता है: वह बच्चों की कल्पना शक्ति को उड़ान देने के लिए नए-नए विचारों और कहानियों का प्रयोग करता है।

सकारात्मक मूल्यों को बढ़ावा देता है: वह बच्चों में सत्य, अहिंसा, प्रेम और करुणा जैसे गुणों को विकसित करने के लिए प्रेरित करता है।

बच्चों को सोचने के लिए प्रेरित करता है: वह बच्चों को सवाल करने और अपनी राय बनाने के लिए प्रोत्साहित करता है।

बच्चों के हितों को ध्यान में रखता है: वह ऐसी कहानियाँ लिखता है जो बच्चों को पसंद आती हैं और उन्हें पढ़ने के लिए प्रेरित करती हैं।

निष्कर्ष

बाल साहित्यकार होना सिर्फ एक बच्चे को जानने से कहीं ज्यादा है। यह एक कला है, एक शिल्प है, एक भाव और एक जिम्मेदारी भी है। एक अच्छा बाल साहित्यकार बच्चों के लिए एक मित्र, एक गुरु, एक पालक और एक मार्गदर्शक होता है। वह बच्चों के मन में बीज बोता है जो पूरे जीवन भर फलते-फूलते रहते हैं।

अंत में, यह कहना गलत होगा कि सिर्फ बच्चे को जानने वाला ही बाल साहित्यकार हो सकता है। एक सफल बाल साहित्यकार वह होता है जो बच्चों को जानने के साथ-साथ एक अच्छा लेखक भी होता है।

आप क्या सोचते हैं? क्या आप सहमत हैं इस बात से कि सिर्फ बच्चे को जानने वाला ही बाल साहित्यकार हो सकता है?

© श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

14-08-2024

संपर्क – 14/198, नई आबादी, गार्डन के सामने, सामुदायिक भवन के पीछे, रतनगढ़, जिला- नीमच (मध्य प्रदेश) पिनकोड-458226

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675 /8827985775

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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