हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 96 – देश-परदेश – अनुशासनहीनता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 96 ☆ देश-परदेश – अनुशासनहीनता ☆ श्री राकेश कुमार ☆

एक पुराना गीत “सारे नियम तोड़ दो” हमारे देशवासियों का प्रिय गीत हैं। हमारे कर्म भी तो वैसे ही हैं। कोई भी धार्मिक, पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक आदि कार्य में नियमों को तोड़ना हमारी फितरत में हैं। हमारी रगों में बहता खून भी नियम तोड़ कर रक्त दबाव बढ़ता रहता हैं। आप यादि नियम से रहेंगे तो खून भी नियमित होकर बह सकता हैं।

बचपन में घर से दो पेंसिल लेकर जाते बच्चे को मां ये कहती है, कोई दूसरा बच्चा यादि पेंसिल मांगे तो कह देना मेरे पास एक ही है। माता पिता बच्चे के साथ होटल में खाना खा कर आने के बाद घर में आकर कोई और बहाना बना देते हैं। बच्चा भी झूठ बोलने की कला सीख लेता हैं।

युवा बच्चे को बिना लाइसेंस वाहन चलाने के लिए प्रेरित कर यातायात के नियमों की धज्जियां उड़ाना सिखा देते हैं। पिता लाल बत्ती नियम का खुलम खुल्ला उलंघन करते हुए, बचपन में ही बच्चों को नियम तोड़ने की कला में महारत बनने की प्रेरणा दे देता हैं।

यौवन की दहलीज पार करते ही सरकारी कार्यालय में गलत कार्यों के लिए रिश्वत देना/ लेना को जीवन की एक अनौपचारिकता का नाम देकर अपना लिया जाता हैं।

पेरिस ओलंपिक में एक महिला पहलवान सुश्री अंतिम पंगल ने अपनी बहन को नियम विरुद्ध अपने कार्ड से उसको “सिर्फ खिलाड़ियों” के लिए निर्धारित स्थान पर ले जाने का प्रयास किया और पकड़ी गई हैं। उनके निजी सहायक भी नशे की हालत में टैक्सी वाले से वाद विवाद कर चर्चा में हैं।

ओलंपिक नियम के अनुसार तुरंत पेरिस से निष्कासित कर दिया गया हैं। तीन वर्ष का प्रतिबंध भी संभव हैं। इससे पूर्व भी एक अन्य पहलवान सुश्री विनेश पोगट ने भी अपने भाई को उसकी कुश्ती के समय विशेष अनुमति की मांग करी थी।

मांग तो पंजाब के मुख्य मंत्री ने भी की थी, वो पेरिस जायेंगे तो हॉकी टीम का मनोबल बढ़ा सकेंगे। हॉकी टीम में अधिकतर खिलाड़ी पंजाबी भाषा वाले ही हैं, यादि पंजाब के मुख्य मंत्री वहां चले जाते, तो हो सकता है, हॉकी का गोल्ड मेडल हमारी झोली में होता। उन्होंने तो विनेश को भी वज़न कम करने के लिए मूढ़ मुड़वाने की सलाह भी दी हैं। यादि वो पेरिस गए हुए होते तो विनेश को और भी ज्ञानवर्धन कर देते।

अब आप सब भी तो दिन भर व्हाट्स ऐप खोल खोल कर देखते रहते है, कोई समय निर्धारित कर लेवें, इसलिए हम सब भी तो अनुशासनहीन श्रेणी में ही आते हैं। खेलों के मेडल हो या जिंदगी की जंग हो सभी अनुशासन से ही संभव हो सकता हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #250 ☆ प्रेमभंग… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 250 ?

प्रेमभंग…  ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

सर्व विसरलो प्रीत सागरी पडल्यावरती

शुद्ध हरपली समोरून ती गेल्यावरती

*

अर्थशास्त्र हे तिचे कळाले नंतर मजला

प्रेमभंग हा झाला पैसे सरल्यावरती

*

हाॅटेलातुन ती तारांकित आली दिसली

चहा पीत मी बसलो होतो ठेल्यावरती

*

पाठवणीचा हृद्य सोहळा तिच्या पाहिला

श्वास मोकळा झाला थोडे रडल्यावरती

*

एक रात्र ती छान राहिली माझ्यासोबत

स्वप्नाने बघ कृपाच केली निजल्यावरती

*

प्रेमभंग अन मधुमेहाचे साटेलोटे

दोन्ही व्याधी संपतात बघ मेल्यावरती

*

भेटायाला तशी एकदा आली होती

मृत्यूशय्येवर तो आहे कळल्यावरती

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 202 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 202 – कथा क्रम (स्वगत)… ✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

क्रमशः आगे…

दिवोदास की पत्नी

निश्चित समय के लिये।

माधवी मां बनी

और जन्म लिया

पुत्र प्रतर्दन ने ।

समयावधि बीती

उपस्थित हुए

गालव ।

माधवी ने

फिर त्यागा

राजमहल

और सद्यः जात शिशु ।

हवा में

उड़ते रहे

राजमहल के परदे

बजती रहीं

घंटियाँ

और सिसकता रहा शिशु ।

चलती रही

गंगा की

प्रवहमान परम्परा

छूटते रहे

अभिशप्त वसु ।

अब

गालव का

पड़ाव था

भोजनगर ।

भेंट हुई

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 202 – “जीवन का संघर्ष कठिन…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत जीवन का संघर्ष कठिन...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 202 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “जीवन का संघर्ष कठिन...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी 

वो जो हैं कमजोर, लड़कियां

कचरा बीन रहीं

पता चला है सगी बहिन

गिनती में तीन रहीं

 

ताड़ी  पीकर बाप

पड़ा रहता है झुग्गी में

भाई भी जो व्यस्त ताश

की इक्की दुग्गी में

 

झुग्गी पर जो ढकी

प्लास्टिक की चिन्दी चिन्दी

बरस रहे पानी मे स्थिति

थी गमगीन रही

 

यह दीवार वेशरम के

डंडो से गई गढ़ी

बारिश में वे हरियाये

थी उलझन बहुत बड़ी

 

जैसे तैसे रोक रहीं थीं

घर की बौछारें

जीवन का संघर्ष कठिन

कथनी प्राचीन रही

 

एक फटी पन्नी को

लेकर फिर से वे आयीं

किन्तु पड़ोसी की नजरों

को वे तीनों भायीं

 

अधोवस्त्र थे फटे

सो रहीं थीं बेसुध होकर

घुसा पडौसी, जिसे मार

विजयी वे तीन रहीं

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

04 – 8 – 2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २४ – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” – लेखक : श्री अजय कुमार मिश्रा ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है श्री अजय कुमार  मिश्रा जी द्वारा लिखित – “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार -पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी )

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆   

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆ 

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १८ – “राजकुमार सुमित्र : मित्रता का सगुण स्वरुप” – लेखक : श्री राजेंद्र चन्द्रकान्त राय ☆ साभार – श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १९ – “गेंड़ी नृत्य से दुनिया भर में पहचान – बनाने वाले पद्मश्री शेख गुलाब” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २० – “सच्चे मानव थे हरिशंकर परसाई जी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २१ – “ज्ञान और साधना की आभा से चमकता चेहरा – स्व. डॉ कृष्णकांत चतुर्वेदी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २२ – “साहित्य, कला, संस्कृति के विनम्र पुजारी  स्व. राजेन्द्र “रतन”” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २३ – “मेरी यादों में, मेरी मुंह बोली नानी – सुभद्रा कुमारी चौहान” – डॉ. गीता पुष्प शॉ ☆ प्रस्तुती – श्री जय प्रकाश पांडे ☆

स्व. पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी

☆ कहाँ गए वे लोग # २४ ☆

☆ “संस्कारधानी के सिद्धहस्त साहित्यकार – स्व. पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव

(95वी जन्म जयंती पर विशेष)

बौद्धिक परिपक्वता और साहित्यिक गरिमा का जो समन्वय  पंडित हरिकृष्ण त्रिपाठी जी के साहित्य में मिलता है वह और कही देखने को नही मिलता वह साहित्य क्षेत्र के एक ऐसे दैदीप्यमान नक्षत्र रहे जिन्होंने अपनी लेखनी राष्ट्र जीवन से जुड़े अधिकाश विषयों तथा सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्रों पर चलाई और विभिन्न अवसरों पर भी उन्होंने अपने भाषणों में इन विषयों का उल्लेख किया है जो उन्हे साहित्यिक पितामह प्रमाणित करने में पर्याप्त हैं । उनका जो अध्ययन था इतना गहन था की संस्कारधानी में उनके समानांतर और कोई नही दिखाई देता।

जितना विविधतापूर्ण उनका अध्ययन और इस अध्ययन के माध्यम से वो जो साहित्य को ऊंचाई देना चाहते थे और वो उसके लिए प्रयत्न शील रहे।और कहने से नही अपितु अपने व्यक्तित्व के माध्यम से भी उन्होंने प्रमाणित किया हैं। तथा अपने कृतित्व और व्यक्तित्व दोनों के माध्यम से  इस बात को सिद्ध भी किया है ।

 

पं. हरिकृष्ण त्रिपाठी एक सिद्धहस्त साहित्यकार होने के साथ-साथ पत्रकार एवं शिक्षाविद के रूप में नीरक्षीर विवेकी आलोचक के रूप में स्थापित रहे ।उनकी सभी रचनाओं (ग्रंथो)में साहित्यिक प्रतिभाओं के मूल्यांकन की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। उनका हृदय “अय निः परोवेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरिताना तु वसुधैवकुटुम्बकम् ।।” के भावबोध से स्पन्दित होता हुआ विभिन्न कृतियों के माध्यम से दृष्टिगोचर होता है। सहज, सरल और प्रवाहपूर्ण भाषा द्वारा रचित साहित्य पाठकों को अनुप्रमाणित करता है। श्री त्रिपाठी जी ने लगातार युवा पीढ़ी को साहित्य-रस से अभिसिंचित कर सदैव सृजन के लिए प्रेरित किया और आज भी नई पीढ़ी के प्रेरणा स्रोत बने हुए है। कहा जा जाता है कि पुष्प की कोमलता और पाषाण की कठोरता को उन्होंने महापुरुषों की तरह आत्मसात किया है। राष्ट्रभक्ति, साहित्य और समाजसेवा का पाठ यशस्वी पारिवारिक परंपरा में बाल्यकाल से ही सीखा और उसे अपने जीवन में पूर्णरूपेण उतारने का प्रयास किया है। कर्म के प्रति ईमानदारी और अडिग विश्वास सदैव उनके यशस्वी जीवन का सबल रहे हैं। शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी निष्ठापूर्ण सेवाएँ सर्वविदित है। हिन्दी की सेवा उनके लिए राष्ट्रसेवा ही है।जिसे उन्होंने “राष्ट्रभाषा हिंदी और हमारी जनचेतना”नामक लेख में प्रस्तुत किया है की 

“स्वाधीनता के पूर्व सारे देश ने हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में मान्यता दे दी थी और इस प्रकार की मान्यता देने वाले सभी महापुरुषों में अहिन्दी भाषा-भाषी ही थे। कौन नहीं जानता कि स्वामी दयानंद सरस्वती, आचार्य केशवचंद्र सेन, शारदा नारायण मिश्र, केशव वामन पेठे, लोकमान्य तिलक, माधवराव सप्रे और स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी जैसे महापुरुष अहिन्दी भाषा-भाषी थे। वास्तव में आज से सामाजिक एक्य और राष्ट्रीय एकता की नींव को सुदृढ़ करने की हो हमें चेष्टा करनी चाहिए। अपेक्षित है कि मनीषी और हिन्दी के हित चिंतक अहिन्दी भाषा-भाषी क्षेत्रों के संकल्पशील होकर रचनात्मक भावना से हिन्दी भाषा के माध्यम से राष्ट्रीयता एवं सांस्कृतिक एक्य की चेतना जाग्रत करने की दिशा में सक्रिय होकर जनचेतना का निर्माण करें, क्योंकि राष्ट्र भाषा ही उन्नति का मूलमंत्र होती है।”

सृजन के क्षेत्र में साहित्येतिहास और समीक्षा उनके रुचिगत विषय रहे और उनके सुचितित लेख ग्रंथ ,गंगा प्रसाद अग्निहोत्री रचनावली मैं श्री त्रिपाठी जी ने द्विवेदीयुगीन साहित्य साधना के क्रमागत विकास का अध्ययन बड़े दृढ़ता के साथ करते हुए स्थानीय साहित्यकारों की सक्रियता को प्रस्तुत किया है वह स्वयं कहते है “भारतेन्दुबाबू हरिश्चन्द्र के अवसानोपरान्त और नवजागरण युग के आरंभ काल की सन्धि रेखा पर देश में हिन्दी हित-चितना और साहित्य-सर्जना के क्षेत्र में जो प्रतिभाएँ उदित हुई, उनमें स्वर्गीय अग्निहोत्री जी निश्चय ही एक महत्वपूर्ण स्थान के भागी है। इस काल की सभी प्रतिभाओं को साहित्येतिहास में द्विवेदी-मण्डल के साहित्यकारों में परिगणित किया गया है। इनमें हमारे मध्यप्रदेश के पंडित लोचन प्रसाद पांडेय, पंडित कामता गुरु, पं० रघुवर प्रसाद द्विवेदी, पं० माधवराव सप्रे आदि कुछ ऐसे व्यक्तित्व हैं जिनके कृतित्व और विचार-सरणियों ने द्विवेदी-युग के ताने-बाने की कसावट को निस्सन्देह एक निश्चित स्वरूप प्रदान किया है और इसलिए वे उस काल की ऐतिहासिक महत्ता के अधिकारी भी हैं।”वही श्री त्रिपाठी जी ने भी जबलपुर की काव्य धारा,वार्ता– प्रसंग ,चरित चर्चा, एवम् सृजन के सशक्त हस्ताक्षर,नमक अपने ग्रंथों में जबलपुर महाकोशल क्षेत्र के साहित्य तथा साहित्यकारो का  एक दस्तावेज बड़ी मधुरता के साथ अलोचनात्मक शैली में प्रस्तुत किया है।  आधुनिक हिन्दी साहित्य के व्यवस्थित विकास की प्रक्रिया में जबलपुर का योगदान सराहनीय रहा है। भाषा-विज्ञान के आचार्यों के मतानुसार प्रचलित खड़ीबोली हिन्दी का विशुद्ध रूप जबलपुर की भाषायी विशेषता रही है। हिन्दी भाषी क्षेत्रों में जबलपुर खड़ी बोली हिन्दी का एक प्रमुख केन्द्र रहा है। भाषा के विकास एवं साहित्य-सृजन में इसका अपना विशिष्ट स्थान रहा ।इसलिए जबलपुर की काव्यधारा का संकलन किया जाना अपेक्षित था। इस लिए श्री त्रिपाठी जी ने “जबलपुर की काव्य धारा” में भारतेन्दुयुग के अवसान बेला से  द्विवेदीयुग के प्रवर्तनकाल तक अद्यतन कालावधि के 75 दिवंगत कवियों का समावेश किया है जिससे इन रचनाकारों की कविताएं सहज ही भविष्य में सुलभ हो पाएंगी । उन्होंने अपने लिए ही नहीं साहित्य में कार्य किया क्योंकि साहित्यकारों के साथ एक विडंबना रहती है कि वे अपने लिए काम करना चाहते है वे अपने प्रचार- प्रसार के लिए, अपने यश के लिए काम करना चाहते हैं , लेकिन पंडित हरि कृष्ण त्रिपाठी जी ने उन तमाम साहित्यकारों के लिए कार्य किया ,जो उनकी दृष्टि में साहित्य की सेवा कर रहे थे और संकोच के कारण जो अपने आपको प्रकाश में नहीं ला पाते थे ऐसे लोगों को भी उन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया हैं यह उनके व्यक्तित्व की एक गरिमा थी जिसके कारण वह संस्कारधानी के पितामह कहे जाने की योग्य है।

लेखक – श्री अजय कुमार मिश्रा (शोध छात्र के लेख से साभार)

संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 43 ☆ व्यंग्य – “ये सवाल हैं जोख़िम भरे…” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक अप्रतिम और विचारणीय व्यंग्य  ये सवाल हैं जोख़िम भरे.…”।) 

☆ शेष कुशल # 43 ☆

☆ व्यंग्य – “ये सवाल हैं जोख़िम भरे…” – शांतिलाल जैन 

इसीलिए अपन तो रिस्क लेते ही नहीं.

रिस्क रहती है श्रीमान् साड़ी पसंद करवाने के काम में. ताज़ा ताज़ा हाथ जला बैठे हैं डिज़ाइनर तरूण तहिलियानी. पेरिस ओलंपिक के लिए उनकी डिज़ाइन की गई साड़ी विवाद के केंद्र में आ गई है. मुर्गे की जान गई और खानेवाले को मज़ा नहीं आया. ओलंपिक दल की महिला सदस्यों ने पहन भी ली, ओपनिंग सेरेमनी में पहन कर चलीं भी, अब कह रहे हैं साड़ी पसंद नहीं आई. आजकल छोटे-छोटे आयोजनों में प्रिंटेड साड़ी तो कामवाली बाई नहीं पहनतीं, तरूणबाबू आपने ओलंपिक में पहनवा दी. ‘इकत’ प्रिंट है. तो क्या हुआ इकत प्रिंट का चलन तो इन दिनों बेडशीट में भी नहीं रहा! घर जैसे टंटे पेरिस में भी. होता है – जब साड़ी ननद लाई हो – ‘ऐसी तो दो-दो सौ रूपये में सेल में मिल जाती है’. एक्जेक्टली यही ओलंपिक साड़ी के लिए कहा जा रहा है – ‘दो सौ रूपये में दादर स्टेशन के बाहर मिलती है.’ जो पीहर से वैसी ही साड़ी आ जाए तो ट्रायल रन में ही केटवॉक, ऑन दी सेम-डे, किचन टू पोर्च वाया ड्राईंगरूम एंड बैक, हुज़ूर इस कदर भी न इतरा के चलिए. तो श्रीमान कहानी का पहला मोराल तो ये कि तारीफ़ करने या खोट निकालने से पहले सुनिश्चित कर लीजिए साड़ी आई कहाँ से है. बेचारे तरूणबाबू को इल्म भी नहीं रहा होगा कि सेम-टू-सेम एटीट्यूड इंटरनॅशनल लेवल पर नुमायाँ हो जाएगा. काश! उन्होंने सप्लाय करने से पहले इंडियन ओलंपिक असोसिएशन से पूछ लिया होता – ‘देनेलेने में दिखाऊँ ?’ तो उनकी इतनी आलोचना न होती. कस्बे के दुकानदार को पता होता है इस तरह की साड़ियों का कपड़ों में वही स्थान होता है जो दिवाली की मिठाई में सोन-पपड़ी का होता है. कभी कभी तो वही की वही साड़ी आठ-दस घरों में लेनदेन निपटाकर फिर से वहीं आ जाती है. ऐसे में बेचवाल सेफ हो जाता है, साफगोई से उसने पहले ही बता दिया कि ये देनेलेने के काम की है, पहनकर ट्रैक पर चलने को किसने कहा था!

रिस्क साड़ी खरीदवाने के काम में ही नहीं रहती, ‘आज क्या पहनूँ ?’ को रिस्पांड करने में भी रहती है. ऐसा करो वो एरी सिल्क की देख लो. कौन सी एरी सिल्क ? वही जो अभी अभी खरीदी है मूँगिया ग्रीन. अभी कभी? अरे अभी तो कुछ समय पहले तो खरीदी तुमने. सालों गुजर गए जो आपने एक साड़ी भी दिलाई हो. क्यों, अपन जोधपुर चले थे तब नहीं खरीदी तुमने, महिना भर भी नहीं हुआ है. वो तो मैंने मेरी मम्मी के पैसों से खरीदी थी, कौनसी आपने दिला दी है. कब से कह रही हूँ आइसी-ब्लू शेड में एक साड़ी लेनी है. आपके पास सबके लिए बजट है मेरे लिए नहीं. लगा कि अब और कुछ कहा तो मौसम बदल जाएगा. रिस्क तो रहती है श्रीमान, डर लगता है, बेध्यानी में भी सच न निकल जाए मुँह से.  बेटर हॉफ की मम्मी ने तो खाली पाँच सौ रूपये भिजवाए थे साड़ी के, फॉल-पिको में निकल गए. पूरी फंडिंग अपन की लगी है. फिर सात वचन से बंधा जो हूँ, त्याग तो करना ही पड़ता है. वैसे असल त्याग तो रेशम के कीड़ों का है श्रीमान, उबलते पानी में जान देकर भी….

बहरहाल, ‘आज क्या पहनूँ ?’ अपन के दिए सारे ऑप्शंस रिजेक्ट हो चुके हैं. टसर सिल्क, कोसा सिल्क, मैसूर सिल्क, चंदेरी सिल्क हर ऑप्शन खारिज़. उधर उत्तर में बनारस से लेकर सुदूर दक्षिण में कांजीवरम तक कुछ जम नहीं रहा. पता नहीं कौन लोग हैं जो भारत को विकसित राष्ट्र मानते हैं. एक साड़ी तो ऐसी आज तक बना नहीं पाए जो पहली नज़र में पसंद आ सके चलें हैं विश्व का नेतृत्व करने. ‘अलमारी में कपड़े जमाकर कैसे रखें जाएँ’ – मैरी-कोंडो ये तो दुनिया को सिखा सकती हैं, मगर ‘आज क्या पहनूँ ?’ रिस्पांड करने में भारतीय पति की मदद नहीं कर सकती. कुदरत ने आर्यावर्त में महिलाओं को एलिफेंट मेमोरी की नेमत बख्शी है. दस साल पहले किसी परिवार में, किसी आयोजन में कौनसी साड़ी पहनी थी, याद रहता है उन्हें. याद रखना पड़ता है. उसी परिवार में, वैसे ही आयोजन में साड़ी रिपीट न हो जाए, कांशियस बना रहता है. ओवरफ्लो होते तीन तीन वार्डरोब. खोलने के लिए दरवाजा थोड़ा सा स्लाइड करते ही साड़ियाँ कोरस में सवाल करने लगती हैं – ‘क्या मुझे दूसरी बार कभी पहना जाएगा?’ वे आज फिर रिजेक्ट हो चुकी हैं. थकहार कर अगले ने उसी साड़ी को पहनना नक्की किया है जिसे वे शुरू में मना कर चुकी हैं – एरी सिल्क का मूँगिया ग्रीन. रिस्क गाड़ी छूट जाने की भी है – एरी की मूँगिया ग्रीन ड्रेप-रेडी नहीं है, तैयार होने में अभी टाईम लगेगा. 

उधर ओलंपिक का साड़ी विवाद इस पर भी बढ़ गया कि तरूणबाबू ने डिज़ाइंड साड़ी पर अपनी कंपनी तस्व का लोगो ही छाप डाला. ‘ये साड़ी आपने कहाँ से ली ?’ ऐसे सवालों के जवाब सचाई से नहीं दिए जाते तरूणबाबू, नंदिता अय्यर जैसियों को तो बिलकुल भी नहीं, और आपने कंपनी का लोगो छाप कर सीक्रेट ख़त्म कर दिया. आलोचना तो होनी ही थी. वैसे भी कपड़े का नौ वार लम्बा यह टुकड़ा भारतीयों को इस कदर लुभाता है कि हम पदकों से ज़्यादा खिलाड़ियों की साड़ी के बारे में चिंतित होते हैं, गोया कि स्टेडियम का रेसिंग ट्रेक न हो, फैशन शो का रैम्प हो. ओलंपिक तो 11 अगस्त को ख़त्म हो जाएगा, साड़ी पसंद करवाने के काम में रिस्क तो ताउम्र बनी रहेगी. आप नज़र पदक पर रखिए, अपन साड़ी विवाद पर रखते हैं.

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© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 189 ☆ # “सावन की झड़ी” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता सावन की झड़ी

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 189 ☆

☆ # “सावन की झड़ी” # ☆

 “

 

आइये आप की प्रतीक्षा है बड़ी

देखिये लग गई है सावन की झड़ी

 

भीगा भीगा है तन

भीगा भीगा है मन

भीगा भीगा है मौसम

भीगा भीगा है बदन

इंतजार कर रही है

बूंदों की लड़ी

आइये आप की प्रतीक्षा है बड़ी

देखिये लग गई है सावन की झड़ी

 

उफ़! यह कैसा भीगने का डर

बारिश आ रही है रूक रूक कर

आ भी जाओ थोड़ी हिम्मत कर

कहीं बीत ना जाये भीगने का पहर

कब तक यूं ही रहोगी

दरवाजे पर खड़ी

आइये आप की प्रतीक्षा है बड़ी

देखिये लग गई है सावन की झड़ी

 

तू दुपट्टा अपने सर पर डाल

भीगने दे अपने रेशम से बाल

तू तेज़ कर देना अपनी चाल

आरक्त हुए हैं तेरे भीगकर गाल

मदिरा से भरी हुई है

तेरी आंखें बड़ी-बड़ी

आइये आप की प्रतीक्षा है बड़ी

देखिये लग गई है सावन की झड़ी

 

सावन की फुहारों में

भीगती जवानी है

कितना खुशकिस्मत

वर्षा का पानी है

हर एक बूंद की

अपनी कहानी है

साजन से मिलने

आतुर दिवानी है

सावन में मिलन की

कभी बीते ना यह घड़ी

आइये आप की प्रतीक्षा है बड़ी

देखिये लग गई है सावन की झड़ी/

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ – थोड़ा और… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख  थोड़ा और…।)

☆ आलेख – थोड़ा और… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

पेरिस ओलंपिक, अब समापन की ओर है। करीब करीब सभी खेल हो चुके हैं और ओलंपिक क्लोजिंग सेरेमनी करीब आ गई है।  देश के 140 करोड़ लोगों में से 117 लोगों का दल, 16 स्पर्धा में, 70 पुरुष और 46 महिलाएं ओलंपिक खेलों में भाग लेने के लिए पेरिस गया था।

हम अभी तक केवल एक सिल्वर और पांच ब्रांज मेडल प्राप्त कर सके हैं। क्या हम इसी से खुश हैं, या हमें थोड़े और मेडल मिलना चाहिए थे? हम आकलन करें, हमसे कहां भूल हुई कि जिन खेलों में हम चौथे स्थान पर रहे, हम तीसरे स्थान पर आ सकते थे। जिनमें तीसरे पर रहे उससे और आगे जा सकते थे। हम एक दूसरे को शाबाशी दे रहे हैं, एक दूसरे को बधाई दे रहे हैं कि हम एक सिल्वर और चार पांच मेडल लेकर लौटे हैं।

 इसको लेकर भी बातें हो रही हैं, कि हम कहां पर पिछड़ गए?  क्या कमी रह गई हमारे खिलाड़ियों की ट्रेनिंग में? क्या हम और बेहतर सुविधा अपने देश में खिलाड़ियों को दे सकते थे? क्या हम उनके लिए और अच्छी परिस्थितियों का निर्माण कर सकते थे? अगर 28 राज्यों से हम खिलाड़ी देखें तो क्यों नहीं? राज्यों की प्रतिस्पर्धा में जिन राज्यों के खिलाड़ी नहीं पहुंच पाए, उनमें क्या कमी है क्या वह राज्य इस बात का आकलन करेंगे कि वह अपने खिलाड़ियों को और अधिक सुविधा देकर उन्हें अच्छे ग्राउंड, अच्छी ट्रेनिंग, अच्छी डाइट, अच्छे उपकरण देकर तैयार करेंगे ताकि देश की टीम में उनका भी प्रतिनिधित्व हो सके। जो अभी बहुत कम है, छोटे-छोटे देश हमसे आगे निकल गए, छोटे-छोटे देशों में, खेलों पर अधिक राशि खर्च की जाती है, खिलाड़ियों को शुरू से ही बेहतर तकनीक और बेहतर साधन मुहैया कराए जाते हैं।  अच्छे विदेशी कोच उन्हें ट्रेनिंग देते हैं, जो हमारे यहां नहीं है हमारे यहां खेल संघो पर उनका कब्जा है जो कभी खेले ही नहीं। जो कभी खेल नहीं खेला, वह खिलाड़ियों की मनोदशा को नहीं समझ सकता। वह खेलों में नए-नए किस्म की टेक्नोलॉजी के बारे में बात नहीं कर सकता। आजकल खेल केवल शारीरिक क्षमता से नहीं बल्कि तकनीकि और मनोवैज्ञानिक ढंग से खेले जाते हैं, परंतु जो कभी खेला ही नहीं, वह यह सब बातें जान ही नहीं पाता। इस तरह हम खेलों में पिछड़ते जाते हैं। फिर आती है बात खेलों में राजनीति की, भाई भतीजावाद की, यह सब खेल का ही हिस्सा है। खैर हम तो यह कहेंगे कि थोड़ी मेहनत और, थोड़ा और…

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 185 ☆ अभंग…कर्म बंध ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 185  ? 

☆ अभंग… कर्म बंध ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

श्रीकृष्ण सांगती, अर्जुनासी कर्म

जाणावेची मर्म, याचे पार्था.!!

*

कर्माचे बंधन, मजला नाही रे

वेगळा आहे रे, सर्व अर्थी.!!

*

ऐसे जे जाणती, ऐसे जे मानती

त्यासी नं लागती, कर्म बंध.!!

*

कविराज म्हणे, गीता अभ्यासावी

सदैव करावी, उजळणी.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 253 ☆ व्यंग्य – नवाब साहब का पड़ोस☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम व्यंग्य – नवाब साहब का पड़ोस। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 253 ☆

☆ व्यंग्य ☆ नवाब साहब का पड़ोस 

मैंने उनके पड़ोस में बसने की गुस्ताख़ी करीब डेढ़ साल पहले की थी। सुनता था कि वे किसी मशहूर नवाब ख़ानदान के भटके हुए चिराग़ हैं। कभी-कभार गेट के पास मिल जाने पर सलाम- दुआ हो जाती थी, लेकिन आना जाना कतई नहीं था। उनके घर कई लोगों का आना- जाना लगा रहता था। बहुत से कार वाले लोग आते थे। उनके पास भी एक पुरानी  एंबेसेडर थी जो घंटों में स्टार्ट होती थी और जो रोज़ हमारे घर को धुएँ और शोर से भर देती थी। मैं लिहाज़ में धुएँ के घूँट पीता बैठा रहता था।

एक दिन सवेरे सवेरे वे गेट खोलकर हमारे घर आ गये। मैं उन्हें देखकर उलझन में पड़ गया क्योंकि मैं अमूमन मामूली इंसानों से ताल्लुक रखता हूँ, सामन्तों और ऊँचे लोगों से निभाव करने का मुझे अभ्यास नहीं है। उनके आने से मैं  सपरिवार कृतार्थ हो गया।

वे कुर्सी पर विराज कर बोले, ‘आपसे मिलने की तबीयत तो कई बार हुई, लेकिन आ ही नहीं सका। अजीब बात है कि हम डेढ़ साल से पड़ोसी हैं और एक दूसरे को बाकायदा जानते भी नहीं।’

मैंने उन्हें चाय पेश की। वे चुस्कियाँ लेते हुए बोले, ‘दरअसल मैं इस वक्त इसलिए आया था कि अचानक दो हज़ार रुपये की ज़रूरत आ पड़ी है। वैसे तो बहुत रुपया आता जाता रहता है, लेकिन इस वक्त नहीं है।’

मैं उनके आने से अभिभूत था। लगा, पैसा माँग कर वे मुझ पर इनायत कर रहे हैं।’

भीतर से पैसे लाकर मैंने उनके सामने रख दिये। मैं पैसे जेब में रखते हुए बोले, ‘दरअसल पानवाला और गोश्तवाला सवेरे सवेरे पैसों के लिए सर पर खड़े हो गये हैं। इसलिए आपको तकलीफ देनी पड़ी।’

मैंने संकोच से कहा, ‘कोई बात नहीं।’

वे बोले, ‘हमारे यहाँ रोज़ सौ डेढ़-सौ रुपये के पान आते हैं। गोश्त भी रोज डेढ़ दो किलो आ जाता है। मेहमान आते हैं तो बढ़ भी जाता है। महीने डेढ़-महीने में हिसाब होता है।’

फिर ठंडी साँस लेकर बोले, ‘क्या ज़माना आ गया है कि पानवालों और गोश्तवालों की हिम्मत पैसे माँगने के लिए हमारे घर आने की होने लगी। पुराना ज़माना होता तो पैसा मांगने वाली ज़बान काट ली जाती।’

फिर व्यंग्य से हंँसकर बोले, ‘डेमोक्रेसी है न! डेमोक्रेसी में सब तरह के लोगों को सर पर बैठाना पड़ेगा।’

मैंने सहानुभूति में सिर हिला कर कहा, ‘दुरुस्त फरमाते हैं।’

वे उठ खड़े हुए। बोले, ‘अब इजाज़त चाहता हूँ। आप फिक्र मत कीजिएगा, पैसे जल्दी भेज दूँगा। मौके की बात है, वर्ना पैसे तो आते जाते रहते हैं।’

मैंने जवाब दिया, ‘कोई बात नहीं। आप फिक्र न करें।

वे चले गये। मैं दो हज़ार देकर भी खुश था। इतने इज्ज़तदार लोगों को कर्ज़ देने के मौके बार-बार नहीं मिलते।

धीरे-धीरे दिन गुज़रते गये, लेकिन नवाब साहब के पास से पैसा लौट कर नहीं आया। जब दो महीने बीत गये तो मेरे सब्र का पैमाना छलक उठा। एक शाम को हिम्मत जुटाकर उनके दौलतख़ाने में घुस गया। वे बरामदे में ‘सब रोगों की दवा’ का गिलास लिये बैठे थे। बगल में पानदान रखा था और एक तरफ पीकदान। मुझे देखकर उन्होंने बड़े तपाक से स्वागत किया।

गिलास की तरफ इशारा करके बोले, ‘थोड़ी सी नोश फ़रमाएंँगे?’

मैंने क्षमा मांँगी तो हँस कर बोले, ‘अपनी तो इससे पक्की दोस्ती है। इसके बिना शाम नहीं कटती। आप भी इससे दोस्ती कर लीजिए तो ज़िन्दगी रंगीन हो जाएगी।’

मैंने हँसकर उनकी बात टाल दी।

उन्होंने पॉलिटिक्स की बात शुरू कर दी। बोले, ‘इन नेताओं को हुकूमत करना नहीं आता। हम जैसे ख़ानदानी नवाबों से कुछ सीखते तो मुल्क का भला होता। हमारे तो ख़ून में हुकूमत बैठी है। मेरे जैसे सैकड़ों राजाओं-नवाबों के काबिल वारिस बेकार बैठे हैं, लेकिन हमारी काबिलियत का इस्तेमाल करने वाला कोई नहीं। हमें क्या, नुकसान तो मुल्क का हो रहा है।’

थोड़ी देर तक उनकी लंतरानी सुनने के बाद मैंने जी कड़ा करके कहा, ‘नवाब साहब, वे पैसे मुझे मिल जाते तो मेहरबानी होती। मुझे ज़रूरत है।’

वे  माथे पर बल देकर बोले, ‘कौन से पैसे?’

मैंने हैरान होकर कहा, ‘वही जो लेने आप मेरे गरीबख़ाने पर तशरीफ लाये थे।’

वे उसी तरह बोले, ‘वे रुपये मैंने आपको लौटाये नहीं?’

मैंने अपराध भाव से गिड़गिड़ा कर कहा, ‘अभी नहीं लौटे, नवाब साहब।’

वे गाल पर उँगली टिकाकर बोले, ‘मैं तो बिलकुल भूल ही गया था। दरअसल मैं समझ रहा था कि मैंने लौटा दिये हैं। एक मिनट में हाज़िर हुआ।’

वे उठकर कुछ अप्रसन्न भाव से भीतर चले गये। लौट कर बोले, ‘माफ कीजिएगा। पैसे आये तो थे, लेकिन पिछले हफ्ते हमारे साले साहब फेमिली के साथ आ गये थे। उनके साथ सैर के लिए कार से पचमढ़ी चला गया था। काफी पैसा खर्च हो गया। दो-तीन दिन में भिजवा देता हूँ।’

मैं चलने लगा तो वे बोले, ‘दरअसल मैं शाम को किसी से लेन-देन नहीं करता। पीने का सारा मज़ा किरकिरा हो जाता है।’

मैं उनसे बार-बार माफी माँग कर अपराधी की तरह लौट आया।

दो-तीन दिन की जगह तीन महीने गुज़र गये। नवाब साहब के घर से खाने की ख़ुशबू  और कार का धुआँ आता रहा लेकिन पैसे नहीं आये।’

आख़िरकार एक बार फिर बेशर्मी की चादर ओढ़ कर उनके हुज़ूर में हाज़िर हो गया। इस बार थोड़ा जल्दी गया ताकि उनके सुरूर में ख़लल न पड़े।

वे बेगम के साथ बैठे चौपड़ खेल रहे थे। मुझे देखकर बेगम अन्दर तशरीफ ले गयीं। नवाब साहब पहले की तरह जोश से मुझसे मिले, बोले, ‘आप तो ईद के चाँद हो गये। मुद्दत के बाद मुलाकात हो रही है।’

फिर वे मुझे बताने लगे कि कैसे उनसे मिलने एक मिनिस्टर साहब आये थे जिनके दादा उनके दादाजान के यहाँ बावर्ची हुआ करते थे। बोले, ‘अब भी बहुत इज्ज़त से पेश आता है। भई वो इंडिया का प्रेसिडेंट हो जाए, फिर भी हम हमीं रहेंगे और वो वही रहेगा।’

मैंने कहा, ‘इसमें क्या शक है।’

वे एक शिकार का किस्सा शुरू करने जा रहे थे कि मैंने बीच में कहा, ‘माफ कीजिएगा, नवाब साहब, मैं ज़रा जल्दी में हूँ। मैं अपने पैसों के बारे में आया था। आपने फरमाया था कि दो-तीन दिन में पहुँच जाएँगे।’

नवाब साहब ने पहले तो ‘ओह’ कह कर माथे पर हाथ मारा, जैसे मेरी रकम भूल जाने का उन्हें अफसोस हो। फिर पहले की तरह ‘एक मिनट’ कह कर भीतर गुम हो गये। लौट कर बोले, ‘आप एक घंटे पहले आ जाते तो दे देता। अब तो गड़बड़ हो गया। पैसा आते ही लेनदार सूँघते हुए आ जाते हैं। आप चलिए, मैं कल तक कुछ इन्तज़ाम करता हूँ।’

चलने लगा तो उन्होंने हँसकर टिप्पणी की, ‘आपका दिल पैसों में कुछ ज़्यादा ही रहता है। पैसा तो हाथ का मैल है। ज़िन्दगी का लुत्फ़ लीजिए। कुछ हमसे सीखिए।’

मैंने कहा, ‘कोशिश करूँगा।’

उस दिन सारी शाम दिमाग ख़राब रहा। जब एक हफ्ते तक नवाब साहब का ‘कल’ नहीं आया तो इस बार गुस्से में फिर उनके घर जा धमका। वे बालों और मूँछों में ख़िज़ाब लगाये कुछ चिन्तित से बैठे थे। मुझे देखकर आधा उठकर हाथ मिलाया।

मेरे कुछ बोलने से पहले ही बोले, ‘बड़ा ख़राब ज़माना आ गया है। आज शराब के लिए आदमी भेजा जो गुस्ताख़ शराब वाले ने कहलवा भेजा कि पहले पिछला उधार चुका दूँ, फिर आगे शराब मिलेगी। आदमी की कोई कद्र, कोई इज्ज़त नहीं रह गयी। पैसा ही सब कुछ हो गया। पुराना ज़माना होता तो—‘

मैंने उनकी बात काट कर कहा, ‘आपने दूसरे दिन पैसा भेजने को कहा था। तब से इन्तज़ार ही कर रहा हूँ।’

वे गुस्से में हाथ नचाकर बोले, ‘हद हो गयी। मैं इस फ़िक में परेशान हूं कि मेरी आज की शाम कैसे गुज़रेगी और आपको अपना पैसा दिख रहा है। खूब पड़ोसी हैं आप! रुकिए, अभी आता हूँ।’

वे भीतर चले गये। भीतर कुछ देर तक मियाँ-बीवी में ज़ोर-ज़ोर से बात करने की आवाज़ें आती रहीं, फिर वे गुस्से में मुँह बिगाड़े बाहर निकले। मेज़ पर कुछ नोट रख कर बोले, ‘ये लीजिए। एक हज़ार हैं। अपना कलेजा ठंडा कर लीजिए और मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए। उधर बेगम हैं कि एक एक पैसे के लिए झिकझिक करती हैं, और इधर आप जैसे लोग सूदख़ोरों की तरह पीछे पड़े रहते हैं।’

मैंने उठते हुए पूछा, ‘बाकी?’

वे हाथ हिलाते हुए बोले, ‘बाकी भी मिल जाएँगे। थोड़ा सब्र रखना सीखिए। हम ख़ानदानी लोग हैं, आपका पैसा लेकर भाग नहीं जाएँगे। अब मेहरबानी करके पैसों का तकाज़ा करने के लिए तशरीफ़ मत लाइएगा। हम खुद भिजवा देंगे।’

तब से फिर एक महीना गुज़र गया है और नवाब साहब के घर से खुशबुओं के अलावा और कुछ नहीं आया। अब फिर किसी दिन मेरा दिमाग ख़राब होगा और नवाब साहब की शाम ख़राब करने उनके दौलतख़ाने पर जा धमकूँगा।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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