हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 24 – हैदराबादी कुर्सी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना हैदराबादी कुर्सी।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 24 – हैदराबादी कुर्सी ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

अरे भाई, अपने शहर हैदराबाद की बात ही निराली है। यहाँ की गली-गली में जो बयार बहती है, वो क्या कहें! अब देखिए, दिल्ली में कभी कोई तैमूर, तो कभी चंगेज खाँ आए, वहाँ से लेकर यहां तक बड़े-बड़े लोग आए, लूट कर चले गए। सोने-चाँदी, हीरे-जवाहरात सब उठा ले गए, लेकिन हमारे हैदराबाद का वो ‘सिंहासन’, मतलब यहाँ के कल्चर का कोई जवाब नहीं मिला उनको। वो सिंहासन जो कि रिवायत और इज़्ज़त का हिस्सा था, वो यहाँ की हवा में ही रचा-बसा है।

अब बात करें सिंहासन की, तो आजकल वो कुर्सी बन गया है। पहले राजा-महाराजा सिंहासन पर बैठते थे, और शेर की तरह दहाड़ते थे, अब ये कुर्सी वाले भी कम नहीं हैं। कुर्सी पर बैठते ही बंदा खुद को असली शेर समझने लगता है। कुर्सी का अंग्रेजी नाम ‘चेयर’ है, जो अंग्रेजों की देन है। वैसे, उन्होंने हमें रंगरेज बना दिया, हर चीज़ में अपने रंग भर दिए। अब ये ‘चेयर’ असल में ‘चीयर’ से निकला है, जो उनके दोस्त-चमचों ने कुर्सी पर बैठने वाले पहले हिन्दुस्तानी को चियर-चियर करके इतना चीयर किया कि वो चेयर हो गया।

अब भाई, हम भी एक रिसर्च करने लगे थे, टॉपिक था ‘सिंहासन से कुर्सी तक – एक नज़र’। इसके लिए हमने किसी प्रोफेसर को गाइड नहीं बनाया, सीधे हमारे शहर के एक मंत्री साहब को गाइड बना लिया। उनकी एक खासियत थी – जब तक मंत्री रहे, उनका मुँह हमेशा टेढ़ा रहता था। सीधे मुँह बात कभी की ही नहीं। मुँह से सीधे शब्द भी निकलते थे, तो टेढ़े हो जाते थे। जैसे ही कुर्सी छूट गई, मुँह एकदम सीधा हो गया। फिर सोचा कि भाई, गलती मंत्री जी की नहीं, बल्कि कुर्सी की है।

एक दिन हम मेगनीफाइंग ग्लास लेकर मंत्री जी की कुर्सी का मुआयना करने लगे। वहाँ हमें छोटे-छोटे खटमल जैसे जीव मिले, जो सिर्फ वीआईपी लोगों की कुर्सियों में पनपते हैं। ये जीव, मंत्री साहब के साथ उनके बंगले तक चले आते थे और वहाँ जाकर अपनी जनसंख्या बढ़ा लेते थे। ये जीव परिवार नियोजन के सख्त खिलाफ थे। जो भी इन कुर्सियों पर ज्यादा समय तक बैठता, उसका मुँह भी टेढ़ा हो जाता। वजह ये कि ये जीव कुर्सीधारी के खून में से जनसेवा, कर्तव्यपरायणता, ईमानदारी, और काम के प्रति निष्ठा के कीटाणु चूस लेते हैं, और बदले में अहंकार, चालाकी, और वाक् पटुता के कीटाणु भर देते हैं। कुछ ही दिनों में कुर्सीधारी में बदलाव दिखने लगता है, और उसे इन जीवों से कटवाने का ऐसा नशा हो जाता है कि बिना इनके काटे एक दिन भी गुज़ारना मुश्किल हो जाता है।

अब हमारे हैदराबाद में एक बड़े ही नेक जनसेवक हैं। सोते-जागते जनसेवा करना उनकी आदत है। कांधे पर झोला लटकाए, और झोले में हर किस्म की चीजें ठूंसे हुए, बिना किसी स्वार्थ के लोगों की मदद करते हैं। उनकी निःस्वार्थ सेवा को देखते हुए शहर के कुछ बड़े लोग सोचने लगे कि इन्हें विधानसभा में होना चाहिए ताकि ये और अच्छी तरह से सेवा कर सकें। सो 67 में उन्हें जबरदस्ती एमएलए बना दिया गया। कुछ दिन कुर्सी पर बैठने के बाद ये जनसेवक भी कुर्सी के जीवों के असर में आ गए। अब हाल ये है कि कुर्सी के बिना उनका नशा पूरा ही नहीं होता। एक साथ तीन-तीन कुर्सियों पर बैठे रहते हैं, और हमेशा ऐसी कुर्सी की तलाश में रहते हैं जिसमें ज्यादा जीव बसते हों। सुना है कि एक खास मंत्रालय की कुर्सी में ये जीव भर-भर के होते हैं, तो अब जनाब उसी कुर्सी के पीछे पागलों की तरह दौड़ते फिर रहे हैं।

इससे सेठ लोग बहुत समझदार होते हैं। उन्हें पता है कि कुर्सी का नशा नुकसानदेह होता है। इसलिए उनकी दुकानों में कुर्सियों की जगह तख्त होते हैं, और उन पर मोटे गद्दे और तकिए रखते हैं। सेठ हमेशा सीधे मुँह बातें करता है, दाँत निपोरे रहता है, और इतनी दीनता दिखाता है कि तोंद के नीचे उसका सिर ही नहीं दिखता।

तो भाई, हैदराबाद की कुर्सी का मिजाज ऐसा है कि उस पर बैठते ही आदमी को अपने अहम का पूरा एहसास हो जाता है। ये कुर्सी धर्म, जाति, सब में बराबर है। चाहे कोई भी धर्म मानने वाला हो, कुर्सी उसे अपनाने में एक पल भी नहीं लगाती। आखिर, कुर्सी के जोड़ों में जो जीव बसे हैं, वो जानते हैं कि खून तो हर धर्म का लाल ही होता है, और उन्हें हर धर्म के लोगों की ईमानदारी, निष्ठा, और जनसेवा का खून चाहिए, जिससे वे खुद को तंदुरुस्त रख सकें।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 307 ☆ आलेख – कृषि और देश की सुरक्षा को बराबर महत्व देने वाले हमारे दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री  श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 306 ☆

?  आलेखकृषि और देश की सुरक्षा को बराबर महत्व देने वाले हमारे दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

2 अक्टूबर को महात्मा गांधी के जन्मदिन के साथ-साथ स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री का भी जन्मदिन है। जब दूसरे भारत पाकिस्तान युद्ध के समय हमे अपनी खाद्य जरूरतों के लिए अमेरिका का मुंह देखना पड़ा तो स्वर्गीय लाल बहादुर शास्त्री ने जय जवान जय किसान का महत्वपूर्ण नारा दिया था। उन्होंने देश व्यापी उपवास को अपना अस्त्र बनाया। जनता में देश के लिए उत्सर्ग का आचरण प्रदर्शित किया। आम लोगों ने उनके आव्हान पर आगे बढ़कर प्रधानमंत्री सहायता कोष में अपने गहने दान किए। सदैव अपने परिश्रम, कर्तव्य और आचरण से ईमानदारी और सादगी की एक अनुकरणीय मिसाल उन्होंने बनाई । छोटी उम्र में ही उनने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया था, और कई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बने।

 लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर 1904 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी से सात मील दूर एक छोटे से रेलवे टाउन, मुगलसराय में हुआ था। उनके पिता शारदा प्रसाद श्रीवास्तव एक स्कूल शिक्षक थे। जब लाल बहादुर शास्त्री केवल डेढ़ वर्ष के थे तभी उनके पिता का देहांत हो गया था। तब उनकी माँ रामदुलारी देवी अपने तीनों बच्चों के साथ अपने पिता के घर मिर्जापुर जाकर बस गईं। यहीं पर शास्त्री जी का पालन पोषण हुआ और उनकी प्राथमिक शिक्षा शुरू हुई। कहा जाता है कि उस छोटे-से शहर में शास्त्री जी की स्कूली शिक्षा कुछ खास नहीं रही उन्होंने वहाँ काफी विषम परिस्थितियों में शिक्षा हासिल की। वहीं उन्हें स्कूल जाने के लिए रोजाना मीलों पैदल चलना और नदी पार करनी पड़ती थी। बड़े होने के साथ ही शास्त्री जी ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के लिए देश के संघर्ष में रुचि रखने लगे। वे भारत में ब्रिटिश शासन का समर्थन कर रहे भारतीय राजाओं की महात्मा गांधी द्वारा की गई निंदा से अत्यंत प्रभावित हुए थे। शास्त्री जी जब केवल ग्यारह वर्ष के थे तब से ही उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर कुछ करने का मन बना लिया था। शास्त्री जी स्वतंत्रता के पहले आजादी की लड़ाई के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता थे। वे स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लेते थे। आंदोलन के लिए उन्होंने अपनी पढ़ाई से भी समझौता किया। वर्ष 1930 में शास्त्री जी को कांग्रेस कमेटी के स्थानीय इकाई का सचिव बनाया गया था। शास्त्री जी स्वतंत्रता आंदोलन के उन क्रांति कारी नेताओ में शामिल हैं जिन्हें 1942 में ब्रिटिश गर्वेमेंट द्वारा जेल में बंद किया गया था। देश के आजाद होने के बाद उन्होंने कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। वो आजादी के बाद उत्तर प्रदेश में पुलिस मंत्री भी रहे थे। इसके बाद पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उन्हें केंद्र में रेल मंत्री का पद दिया। पर शास्त्री जी के लिए नैतिकता सबसे उपर थी, 1956 में हुई एक रेल दुर्धटना के कारण उन्होंने अपना इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद वे एक बार फिर 1957 में परिवहन और संचार मंत्री बने। इसके बाद 1961 में वे गृह मंत्री बनाए गए। वर्ष 1925 में काशी विद्यापीठ से ग्रेजुएट होने के बाद उन्हें “शास्त्री” की उपाधि दी गई थी। ‘शास्त्री’ शब्द एक ‘विद्वान’ या एक ऐसे व्यक्ति को इंगित करता है जिसे शास्त्रों का अच्छा ज्ञान हो। काशी विद्यापीठ से ‘शास्त्री’ की उपाधि मिलने के बाद उन्होंने जन्म से चला आ रहा सरनेम ‘श्रीवास्तव’ हमेशा हमेशा के लिये हटा दिया और अपने नाम के आगे ‘शास्त्री’ लगा लिया। इसके पश्चात् शास्त्री शब्द लालबहादुर के नाम का पर्याय ही बन गया। 16 मई 1928 में शास्त्री जी का विवाह मिर्जापुर निवासी गणेशप्रसाद की पुत्री ललिता जी से हुआ। उनके क्रान्ति कारी सामाजिक विचार इसी से समझे जा सकते हैं की उन्होंने अपनी शादी में दहेज लेने से इनकार कर दिया था। लेकिन अपने ससुर के बहुत जोर देने पर उन्होंने कुछ मीटर खादी का दहेज लिया था। गांधी जी ने असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिए देशवासियों से एकजुट होने का आह्वान किया था, उस समय शास्त्री जी केवल सोलह वर्ष के थे। उन्होंने महात्मा गांधी के इस आह्वान पर अपनी पढ़ाई छोड़ देने का निर्णय कर लिया था। वर्ष 1930 में महात्मा गांधी ने नमक कानून को तोड़ते हुए दांडी यात्रा शुरू की। इस प्रतीकात्मक सन्देश ने पूरे देश में एक तरह की क्रांति ला दी। शास्त्री जी विह्वल ऊर्जा के साथ स्वतंत्रता के इस संघर्ष में शामिल हो गए। उन्होंने कई विद्रोही अभियानों का नेतृत्व किया एवं कुल सात वर्षों तक ब्रिटिश जेलों में रहे। आजादी के इस संघर्ष ने उन्हें पूर्णतः परिपक्व बना दिया। स्वतंत्रता संग्राम के जिन जन आन्दोलनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही उनमें वर्ष 1921 का ‘असहयोग आंदोलन’, वर्ष 1930 का ‘दांडी मार्च’ तथा वर्ष 1942 का ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ महत्वपूर्ण है। लाल बहादुर शास्त्री भारत के दूसरे प्रधानमंत्री थे उससे पहले जब नेहरू जी बीमार थे वे बिना विभाग के मंत्री के रूप में सारा काम देख ही रहे थे। नेहरू जी मृत्यु के 13 दिनों बाद उन्होंने प्रधानमंत्री का पद संभाला। अन्न संकट के कारण तब देश भुखमरी की स्थिति से गुजर रहा था। वहीं 1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान देश आर्थिक संकट से जूझ रहा था। उसी दौरान अमरीकी राष्ट्रपति ने शास्त्री जी पर दबाव बनाया कि अगर पाकिस्तान के खिलाफ लड़ाई बंद नहीं की गई तो हम गेहूँ के आयात पर प्रतिबंध लगा देंगे। यह वो समय था जब भारत गेहूँ के उत्पादन में आत्मनिर्भर नहीं था इसलिए शास्त्री जी ने देशवासियों को सेना और जवानों का महत्व बताने के लिए ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया था। इस संकट के काल में शास्त्री जी ने अपनी तनख्वाह लेना भी बंद कर दिया था और देशवासियों से कहा कि हम हफ़्ते में एक दिन का उपवास करेंगे। पाकिस्तान के साथ वर्ष 1965 का युद्ध खत्म करने के लिए वह समझौता पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए ताशकंद में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान से मिलने गए थे लेकिन इसके ठीक एक दिन बाद 11 जनवरी 1966 को अचानक खबर आई कि हार्ट अटैक से उनकी मृत्यु हो गई है। हालांकि उनकी मृत्यु पर वर्तमान समय में भी संदेह है। भारत सरकार ने वर्ष 1966 में लाल बहादुर शास्त्री को देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से सम्मानित कर उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापन किया था। उनके सिद्धांत आज भी प्रेरक और प्रासंगिक हैं।

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #249 – कविता – ☆ जहर भी अब शुध्द मिलता है कहाँ… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “जहर भी अब शुध्द मिलता है कहाँ…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #249 ☆

☆ जहर भी अब शुध्द मिलता है कहाँ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

चमकते बाजार में सब भ्रमित, है कुछ ज्ञात क्या

आवरण में छिपे सच के,  झूठ का अनुपात क्या।

*

जहर भी अब मोल महँगे, शुद्ध मिलता है कहाँ

जरूरी जो वस्तुएँ, उनकी करें हम बात क्या।

*

माह सावन और भादो में, तरसते रह गए

बाद मौसम के, बरसते मेह की औकात क्या।

*

तुम जहाँ हो, पूर्व दो दिन और कोई था वहाँ

कल कहीं फिर और , ऐसा अल्पकालिक साथ क्या।

*

चाह मन की तृप्त, तृष्णायें न जब बाकी रहे

सहज जीवन की सरलता में, भला शह-मात क्या।

*

छोड़कर परिवार घर को, वेश साधु का धरा

चिलम बीड़ी न छुटी, यह भी हुआ परित्याग क्या।

*

अब न बिकते बोल मीठे, इस सजे बाजार में

एक रँग में हैं रँगे सब, क्या ही कोयल काग क्या।

*

अनिद्रा से ग्रसित मन, जो रातभर विचरण करे

पूछना उससे कभी, सत्यार्थ में अवसाद क्या।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 73 ☆ समझौते अटपटे हुए हैं… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “समझौते अटपटे हुए हैं…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 73 ☆ समझौते अटपटे हुए हैं… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

घर में ही घर बँटे हुए हैं

दीवारों से सटे हुए हैं ।

*

अम्मा बाबूजी परछी में

आँगन तुलसी कटे हुए हैं ।

*

बड़की भौजी अब भी कहती

समझौते अटपटे हुए हैं ।

*

सबके सब कानून कायदे

बच्चों तक को रटे हुए हैं।

*

किसको कहें कौन है दोषी

सबके सब तो छटे हुए हैं ।

*

अपनापन खो गया कहीं पर

रिश्ते सारे फटे हुए हैं ।

*

भरें उड़ान भला अब कैसे

सबके ही पर कटे हुए हैं ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 77 ☆ अब शाखे गुलिस्ता पै नहीं एक भी पत्ता… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “अब शाखे गुलिस्ता पै नहीं एक भी पत्ता“)

☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 77 ☆

✍ अब शाखे गुलिस्ता पै नहीं एक भी पत्ता… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

इख़्लास की नायाब सदा ढूंढ रहा हूँ

पागल हूँ जमाने में वफ़ा ढूंढ रहा हूँ

 *

बारूद के ढेरों पै लिए हाथ में मश्अल

महकी हुई पुर कैफ़ फ़ज़ा ढूंढ रहा हूँ

 *

मैं तेरी जुस्तज़ू में भटकता हूँ जा-ब-जा

दुनिया समझ रही है ख़ुदा ढूंढ रहा हूँ

 *

दुनिया है कि सुख चैन से महरूम हुई है

इक मैं हूं कि मदहोश अदा ढूंढ रहा हूँ

 *

दफ़्तर में घिरी रहती है अग्यार से हरदम

मैं उसकी निगाहों में हया ढूंढ रहा हूँ

 *

अब शाखे गुलिस्ता पै नहीं एक भी पत्ता

नादान हूँ बुलबुल की सदा ढूंढ रहा हूँ

 *

अब कृष्ण सुदामा की कहाँ मित्रता अरुण

मैं व्यर्थ ही अब ऐसे सखा ढूंढ रहा हूँ

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ ऋतूओं का राजा बसंत… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कविता ?

☆ ऋतूओं का राजा बसंत☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

है वसुंधरा सजधज के तैयार,

छायी है  सृष्टी पे बसंत बहार।

फूल फूल पर भँवर मंडराए

प्राणी मात्र गीत मिलन के गाए ।

 *

मौसम आया है प्यार का

पशु पंछियों के शृंगार का।

बेहद खुश है सब किसान,

फसल हुई है अब जवान ।

 *

आए फसल कटाई के त्यौहार

पोंगल, बिहू ,बैसाखी शानदार।

बोले कोयल भी मीठे बोल

कुहूऽऽऽ कुहू  स्वर बडे अनमोल।

 *

पीले वसन पहिन सुंदरियाँ  

हँसती नाचती है सजनियाँ।

मस्त हवा में लहराती है पतंग,

खुश है सभी ऋतू राजा के संग ।

 *

मर्द गाते हैं, ढोल बजाते हैं

पीते और…..  पिलाते हैं ।

रंग लाता है बसंत भरपूर,

हो जाता है ये मौसम मशहूर।

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ लघुकथा # 42 – बुढ़ापा…  ☆ श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ ☆

श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा –  गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी,  संस्मरण,  आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – बुढ़ापा।)

☆ लघुकथा # 42 – बुढ़ापा  श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

अम्मा क्या हो गया? आज सुबह जल्दी उठकर तुम खाना बना रही हो। अम्मा से पूछा अमित ने।

बेटा आज तुम्हारे दादा-दादी का श्राद्ध है।

तभी बहू अवंतिका भी आ गई उसने कहा क्या हो गया मां बेटे हल्ला मचा रहे हो ये श्राद्ध क्या होता है ?

बेटे जो हमारे पूर्वज भगवान के पास चले गये, या जिंदा नहीं है। पितृ पक्ष  मे धरती पर आते हैं उनके पसंद के  पकवान बनाकर ब्राह्मण को भोजन कराते और रुपया वस्त्र देकर विदा करते हैं। इसी को श्राद्ध कहते हैं।

बहू ने कहा – क्या माँ यह सब  दिखावा करके उनकी आत्मा को शांति मिलती है? पता नहीं बहू लेकिन मैंने सोचा तुम्हारे टिफिन के लिए भी कुछ अच्छा बना देती हूं और इसी बहाने ऐसा सोचो कि हम लोग अच्छे पकवान बनाकर खा लेते हैं।

नवमी और अमावस्या के दिन मेरी मां और सास भी बनाती थी।

सुन बेटा अमित मुझे कुछ पैसे दे देना तुम लोग तैयार हो जाओ नाश्ता कर लो तुम्हारे लिए टिफिन पैक कर दिया है।

तभी बहू ने कहा – माँ मैं खीर तो ले जाऊंगी पर पूरी की जगह मुझे रोटी दे दो और थोड़ा ही रखना मुझे ज्यादा तेल का खाना पसंद नहीं है।

इतना सब जब आपने बनाया है तो पैसे लेकर क्या करेंगे।

बेटा बाजार से जलेबी रसगुल्ला और समोसे भी लाऊंगी।

तो ऐसा क्यों नहीं कहती मां कि आपका खाने का मन है और दादा दादी सास का बहाना कर रही हैं।

तभी पिताजी को जोर से गुस्सा आ गया उन्होंने कहा बहू और अमित तुम लोगों के पैसों की  कोई जरूरत नहीं है। देखो कमला जितना हो सके तुम उतना ही ढंग से श्राद्ध करो और पूजा भी अब हमें कमी कर देनी चाहिए क्योंकि अब यह हमारे ऊपर एहसान कर रहे हैं। हमारे मरने  के बाद श्राद्ध का  नाटक मत करना।  

अमित ने कहा मां आपको क्या चाहिए? आप बताओ मैं बाजार से लाता  हूँ। थोड़ी देर बाद ऑफिस चला जाऊंगा।

नहीं बेटा रहने दो? अवंतिका बहू  सच बोल रही है। फालतू फिजूल खर्ची करने की कोई जरूरत नहीं है।

तू मेरा भी श्राद्ध,  कर्मकांड और ब्राह्मण को बुलाकर भी कुछ मत देना, ज्यादा खर्च मत करना क्योंकि श्राद्ध तो श्रद्धा से होती है…।

उनकी आंखों से आंसू बहने लगते हैं।

अच्छा है बेटा जो हमारे जमाने में हमारे माँ-बाप हमें ज्यादा नहीं पढ़ा पाये, नहीं तो मुझे लगता है कि यह संस्कार जिंदा नहीं रहते।

हे प्रभु किसी को बुढ़ापा न देना ये बहुत लाचारी से भरा होता है।

© श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’

जबलपुर, मध्य प्रदेश मो. 7000072079

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कथा-कहानी # 119 –पुरखे, असहमत और चौबे जी ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय संस्मरणात्मक कथा पुरखे, असहमत और चौबे जी

☆ कथा-कहानी # 119 –  पुरखे, असहमत और चौबे जी ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

बहुत दिनों के बाद असहमत की मुलाकात बाज़ार में चौबे जी से हुई, चौबे जी के चेहरे की चमक कह रही थी कि यजमानों के निमंत्रणों की बहार है और चौबे जी को रोजाना चांदी की चम्मच से रबड़ी चटाई जा रही है. वैसे अनुप्रास अलंकार तो चटनी की अनुशंसा करता है पर चौबे जी से सिर्फ अलंकार ज्वेलर्स ही कुछ अनुशंसा कर सकता है.असहमत के मन में भी श्रद्धा, 😊कपूर की भांति जाग गई. मौका और दस्तूर दोनों को बड़कुल होटल की तरफ ले गये और बैठकर असहमत ने ही ओपनिंग शाट से शुरुआत कर दी.

चौबे जी इस बार तो बढिया चल रहा है, कोरोना का डर यजमानों के दिलों से निकल चुका है तो अब आप उनको अच्छे से डरा सकते हो, कोई कांपटीशन नहीं है.

चौबे जी का मलाई से गुलाबी मुखारविंद हल्के गुस्से से लाल हो गया. धर्म की ध्वजा के वाहक व्यवहारकुशल थे तो बॉल वहीँ तक फेंक सकते थे जंहां से उठा सकें. तो असहमत को डपटते हुये बोले : अरे मूर्ख पापी, पहले ब्राह्मण को अपमानित करने के पाप का प्रायश्चित कर और दो प्लेट रबड़ी और दो प्लेट खोबे की जलेबी का आर्डर कर.

असहमत : मेरा रबडी और जलेबी खाने का मूड नहीं है चौबे जी, मै तो फलाहारी चाट का आनंद लेने आया था.

चौबे जी : नासमझ प्राणी, रबड़ी और जलेबी मेरे लिये है, पिछले साल का भी तो पेंडिंग पड़ा है जो तुझसे वसूल करना है.

असहमत : चौबे जी तुम हर साल का ये संपत्ति कर मुझसे क्यों वसूलते हो, मेरे पास तो संपत्ति भी नहीं है.

चौबे जी : ये संपत्ति टेक्स नहीं, पूर्वज टेक्स है क्योंकि पुरखे तो सबके होते हैं और जब तक ये होते रहेंगे, खानपान का पक्ष हमारे पक्ष के हिसाब से ही चलेगा.

असहमत : पर मेरे तो पिताजी, दादाजी सब अभी इसी लोक में हैं और मैं तो घर से उनके झन्नाटेदार झापड़ खाकर ही आ रहा हूं, मेरे गाल देखिये, आपसे कम लाल नहीं है वजह भले ही अलग अलग है.

चौबेजी : नादान बालक, पुरखों की चेन बड़ी लंबी होती है जो हमारे चैन का स्त्रोत बनी है. परदादा परदादी, परम परदादा आदि आदि लगाते जाओ और समय की सुइयों को पीछे ले जाते जाओ. धन की चिंता मत कर असहमत, धन तो यहीं रह जायेगा पर ब्राह्मण का मिष्ठान्न भक्षण के बाद निकला आशीर्वाद तुझे पापों से मुक्त करेगा. ये आशीर्वाद तेरे पूर्वज तुझे दक्षिणा से संतुष्ट दक्षिणमुखी ब्राह्मण के माध्यम से ही दे पायेंगे.

असहमत बहुत सोच में पड़ गया कि पिताजी और दादाजी को तो उसकी पिटाई करने या पीठ ठोंकने में किसी ब्राह्मण रूपी माध्यम की जरूरत नहीं पड़ती.

उसने आखिर चौबे जी से पूछ ही लिया : चौबे जी, हम तो पुनर्जन्म को मानते हैं, शरीर तो पंचतत्व में मिल गया और आत्मा को अगर मोक्ष नहीं मिला तो फिर से नये शरीर को प्राप्त कर उसके अनुसार कर्म करने लगती है तो फिर आपके माध्यम से जो आवक जावक होती है वो किस cloud में स्टोर होती है. सिस्टम संस्पेंस का बेलेंस तो बढता ही जा रहा होगा और चित्रगुप्तजी परेशान होंगे आउटस्टैंडिंग एंट्रीज़ से.

चौबे जी का पाला सामान्यतः नॉन आई.टी.यजमानों से पड़ता था तो असहमत की आधी बात तो सर के ऊपर से चली गई पर यजमानों के लक्षण से दक्षिणा का अनुमान लगाने की उनकी प्रतिभा ने अनुमान लगा लिया कि असहमत के तिलों में तेल नहीं बल्कि तर्कशक्ति रुपी चुडैल ने कब्जा जमा लिया है. तो उन्होंने रबड़ी ओर जलेबी खाने के बाद भी अपने उसी मुखारविंद से असहमत को श्राप भी दिया कि ऐ नास्तिक मनुष्य तू तो नरक ही जायेगा.

असहमत : तथास्तु चौबे जी, अगर वहां भी मेरे जैसे लोग हुये तो परमानंद तो वहीं मिलेगा और कम से कम चौबेजी जैसे चंदू के चाचा को नरक के चांदनी चौक में चांदी की चम्मच से रबड़ी तो नहीं चटानी पड़ेगी.

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 74 – इसने झेले हैं जलजले कितने… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – इसने झेले हैं जलजले कितने।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 74 –इसने झेले हैं जलजले कितने… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

मेरे दिल पर तेरी हुकूमत है 

तेरी हस्ती मेरी बदौलत है

*

पहले ठोकर दी, अब उठाते हो 

तुमको शायद मेरी जरूरत है

*

काम, सय्याद अब दिखायेगा 

उड़ने की, दी तुम्हें इजाजत है

*

जंग, उनके खिलाफ जारी है 

जिनसे, हमको बहुत मुहब्बत है

*

इसने झेले हैं जलजले कितने 

देश की, सांस्कृतिक इमारत है

*

आप ‘आचार्य’, गर समझ पाते 

प्यार पूजा है, प्यार दौलत है

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 147 – मनोज के दोहे ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है  “मनोज के दोहे। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 147 – मनोज के दोहे ☆

मुक्त छंद के काव्य में, सुर- संगीत-अभाव।

दिल को छूता छंद है, स्वर-सरिता की नाव।।

*

सब को छप्पर चाहिए, जहाँ करें विश्राम।

श्रम की दौलत से सजे, दरवाजे पर नाम।।

*

मानवता कहती यही, होगी युग में भोर।

मुलाकात होती रहे, कुशल-क्षेम पर जोर।।

*

मौसम करवट ले रहा, धूप कहीं बरसात।

जहाँ न वर्षा थी कभी, बरसे अब दिन रात।।

*

संकट के बादल बढ़े, छिड़ा हुआ है युद्ध।

भारत का प्रस्ताव यह, अब तो पूजो बुद्ध।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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