हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 19 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग -2 ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भूटान की अद्भुत यात्रा)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 19 – भूटान की अद्भुत यात्रा – भाग – 2 ?

(26 मार्च 2024)

सुबह 9 बजे आज से थिंप्फू की  हमारी यात्रा प्रारंभ हुई। हम जल्दी ही नाश्ता करके निकल पड़े। गाड़ी में बैठते ही हम लोगों ने गणपति जी की प्रार्थना की, माता का सबने स्मरण किया। तत्पश्चात साँगे ने अपनी प्रार्थना भूटानी भाषा में गाई।ये प्रार्थना नाभी से कंठ तक चढ़ती अत्यंत गंभीर स्वरवाले शब्द प्रतीत हुए।फिर उसने बौद्ध प्रार्थना गाड़ी में लगाई जो अत्यंत मधुर थी।

सर्व प्रथम हम बुद्ध की एक विशाल मूर्ति का दर्शन करने गए। इसे डोरडेन्मा बुद्ध मूर्ति कहा जाता है। यहाँ कोई प्रवेश शुल्क नहीं होता है। इस विशाल बुद्ध की मूर्ति की ऊँचाई 169 फीट है।

यह संसार की सबसे ऊँची और विशाल बुद्ध मूर्ति है। शांत सुंदर मुख,  आकर्षक मुखमुद्रा अर्ध मूदित नेत्र मन को भीतर तक शांत कर देनेवाली मूर्ति।

यह एक खुले परिसर में बना हुआ है।परिसर भी बहुत विशाल है। समस्त परिसर पहाड़ों से ढका हुआ  है।फिर कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर मंदिर के भीतर प्रवेश किया जाता है। भीतर बुद्ध की कई मूर्तियाँ हैं और एक विशाल मूर्ति मंदिर के गर्भ गृह में है।

पीतल के कई  बर्तनों में प्रतिदिन ताज़ा पानी बुद्ध की मूर्ति के सामने रखते हैं।फल आदि रखने की भी प्रथा है। भीतर प्रार्थना करने की व्यवस्था है। हर धर्म के अनुयायी यहाँ दर्शन करने आते हैं।परिसर के चारों ओर कई सुंदर सुनहरे रंग की मूर्तियाँ बनी हुई हैं। ये मूर्तियाँ स्त्रियों की हैं।संपूर्ण परिसर शांति का मानो प्रतीक है। हर दर्शक मंदिर की परिक्रमा अवश्य करता है।सीढ़ियों के बाईं ओर विशाल हाथी की मूर्ति बनी हुई है जिसका संबंध गौतम बुद्ध के जन्म से भी है। मंदिर के भीतर तस्वीर लेने की इजाज़त नहीं है।

यह मूर्ति शाक्यमुनि बुद्धा कहलाती है।

यह भूटान के चौथे राजा जिग्मे सिंग्ये वाँगचुक के साठवें जन्म दिवस के अवसर पर पहाड़ी के ऊपर बनाई गई  विशाल मूर्ति है। यह संसार का सबसे विशाल बुद्ध  मूर्ति है।इसके अलावा यहाँ एक लाख छोटे आकार की बुद्ध प्रतिमाएँ भी हैं। कुछ आठ इंच की हैं और कुछ बारह इंच की प्रतिमाएँ हैं।ये काँसे से बनाई मूर्तियाँ हैं, जिस पर सोने की पतली परत चढ़ाई गई  है। इस मंदिर का निर्माण 2006 में प्रारंभ हुआ था और सितंबर 2015 में जाकर कार्य पूर्ण हुआ।

इसके बाद हम भूटान की सांस्कृतिक जन जीवन की झलक पाने के लिए एक ऐसे स्थान पर गए जिसे सिंप्ली भूटान कहा जाता है। यहाँ प्रवेश शुल्क प्रति पर्यटक एक हज़ार रुपये है।

यहाँ यह बताना आवश्यक है कि भूटान का राष्ट्रीय रोज़गार का स्रोत पर्यटन है जिस कारण हर एक व्यक्ति पर्यटक को देवता के समान समझता है।पर्यटक का सम्मान करते हैं, खूब आवभगत भी करते हैं।

भूटान में हर स्थान पर प्रवेश शुल्क कम से कम पाँच सौ रुपये हैं या हज़ार रुपये हैं कहीं -कहीं पर पंद्रह सौ भी है।इस दृष्टि से यह राज्य बहुत महँगा है।

कोई पर्यटक जब भूटान जाने की तैयारी करता है तो उससे यह बात कोई नहीं बताता कि एन्ट्री फी कितनी होती है।इस आठ दिन की ट्रिप में हमने प्रति व्यक्ति साढ़े पाँच हज़ार रुपये केवल प्रवेश शुल्क के रूप में दिया है।सहुलियत यह है  कि यह मुद्राएँ भारतीय रुपये के रूप में स्वीकृत हैं। मेरी दृष्टि में यह बहुत महँगा है। पर जिस राज्य के पास खास कुछ उत्पादन का ज़रिया न हो तो यही एक मार्ग रह जाता है।

खैर जो घूमने जाता है वह खर्च भी करता है इसमें दो मत नहीं। यहाँ यह भी बता दूँ कि भारतीय रुपये तो बड़ी आसानी से स्वीकार करते हैं और बदले में छुट्टे पैसे अगर लौटाने हों तो वह भूटानी मुद्रा ही देते हैं।भूटानी मुद्रा को नोंग्त्रुम (न्गुलट्रम) कहा जाता है। भारतीय एक रुपया भूटानी एक नोंग्त्रुम के बराबर है।

यहाँ गूगल पे नहीं चलता।

जिस तरह हमारे देश में कच्छ उत्सव मनाया जाता है ठीक वैसे ही यहाँ कृत्रिम रूप में एक विशाल स्थान को भूटानी गाँव में परिवर्तित किया गया। इस स्थान का नाम है सिंप्ली भूटान।

यहाँ  हमारा स्वागत थोड़ी- सी वाइन देकर किया गया। वाइन पीने से पूर्व हमसे कहा गया कि हम अपनी अनामिका और अंगूठे को वाइन में डुबोएँ तथा हवा में उसकी बूँदों का छिड़काव करें। जिस प्रकार हम भोजन पकाते समय  अग्निदेव को अन्न समर्पित करते हैं या भोजन से पूर्व इष्टदेव को अन्न समर्पित करते हैं ठीक उसी प्रकार उनके देश में इस तरह देवता को अन्न -जल का समर्पण किया जाता है।

उसके बाद हमें वहाँ की लोकल बेंत की टोपी (हैट) पहनाई गई और खुले हिस्से में ले जाकर मिट्टी से घर बनाने की प्रथा दिखाई गई।इस प्रक्रिया में जब धरती को एक विशिष्ट प्रकार के भारी औज़ार से पीटते हैं ताकि घर की फर्श समतल हो जाए तो वे निरंतर धरती माता से क्षमा याचना करते हैं कि “हमारी आवश्यकता के लिए हम धरती को औज़ार से पीट रहे हैं। जो जीवाणु घायल हो रहे हैं या मर रहे हैं हम उन सबसे क्षमा माँगते हैं। ” यह एक सुमधुर गीत के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। कितनी सुंदर कल्पना है और ऐसे समर्पण के भाव मनुष्य को ज़मीन से जोड़े रखते हैं।

इसके पश्चात हमें भूटानी रसोई व्यवस्था से परिचय करवाया गया। आटा पीसने का पत्थर, नूडल बनाने की लकड़ी के बर्तन, चार मिट्टी के बनाए लिपे -पुते चूल्हे, भोजन पकाने के बर्तन, लोकल फलों से तथा भुट्टे से वाइन बनाने की प्रक्रिया आदि स्थान दिखाए गए।यद्यपि आज सभी के घर गैस के चूल्हे हैं पर यह उनके ग्रामीण जीवन से जुड़ी वस्तुएँ हैं।

इस देश में कई प्रकार के मुखौटे पहनकर नृत्य करने का एक त्योहार होता है। हमने विविध प्रकार के मुखौटे देखे। उनमें अधिकतर राक्षस के मुखौटे  ही थे। उनका यह विश्वास है कि ऐसे मुखौटे पहनकर जब वे नृत्य करते हैं तो नकारात्मक उर्जाएँ समाप्त हो जाती हैं। उनके कुछ तारवाले वाद्य रखे हुए थे। हमें उन्हें बजाने और मधुर ध्वनियों को सुनने का मौक़ा मिला। ये हमारे देश के संतूर जैसे वाद्य थे।

तत्पश्चात हमें एक खुले आंगन में ले जाया गया जहाँ उनकी कलाकृति से वस्तुएँ निर्माण की जाती हैं। पर्यटक उन वस्तुओं को खरीद सकते हैं।पाठकों को बता दें कि भूटानी पेंटिंग, मूर्तियाँ, लकड़ी छील कर बनाई वस्तुएँ सभी कुछ काफी महँगी होती है। अधिकतर पैंटिंग सिल्क के कपड़े पर विशिष्ट प्रकार के रंग से की जाती है। इन्हें बनने में बहुत समय लगता है और ये अत्यंत सूक्ष्म काम होते हैं। कुछ पैंटिंग तो लाख रुपये के भी दिखाई दिए। हम चक्षु सुख लेकर आगे बढ़ गए।

इसी स्थान पर एक विकलांग नवयुवक अपने पैरों से लकड़ी छीलकर गोलाकार में कुछ आकृतियाँ बना रहा था। उसी स्थान पर उसके द्वारा बनाई गई कई आकृतियाँ छोटी – छोटी कीलों पर लटकी हुई थीं। हम सहेलियों ने भी कई आकृतियाँ खरीदीं। हमारे मन में उस विकलाँग नवयुवक की प्रशंसा करने का यही उपाय था। वह न बोल सकता था न अपने  हाथों का उपयोग ही कर सकता था।उसने कलम भी अपने पैरों की उँगलियों में फँसाई और खरीदी गई हर आकृति पर हस्ताक्षर भी किए। कहते हैं राजमाता ने उसे पाला था और यह कला उसे  सिखाई थी।

हम आगे बढ़े। एक खुले आँगन में पुरुष के गुप्त अंग की कई विशाल आकृतियाँ बनी हुई थीं।भूटान में प्रजनन की भारी समस्या है। इसलिए वे मुक्त रूप से पुरुष के गुप्त अंग अर्थात शिश्न की पूजा करते हैं। कई  घरों के बाहर, दुकानों में, तथा एक विशिष्ट मंदिर में यह देखने को मिला। हमें जापान में भी इस तरह का अनुभव मिला था।नॉटी मंक नामक एक मंक का मंदिर भी बना हुआ है जो पारो में है।

अब हमें भूटानी नृत्य और संगीत का दर्शन कराने ले जाया गया। वहाँ के स्थानीय  स्त्री -पुरुष, स्थानीय पोशाक में एक साथ नृत्य प्रदर्शन करते हैं और पर्यटकों को भी सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित करते हैं।यहाँ हमें भुट्टे के ऊपर जो रेशे होते हैं उसे उबालकर काली चाय दी गई  और साथ में मीठा पुलाव ( दोनों की मात्रा बहुत थोड़ी होती है। यह केवल उनकी संस्कृति की झलक मात्र के लिए  है) यह सब कुछ एक घंटे के लिए ही होता है।

 सिंपली भूटान में भूटानी संस्कृति की झलक का आनंद लेकर हम जब बाहर निकले तो डेढ़ बज चुके थे।

हमने दोपहर के समय भूटानी व्यंजन लेने का निर्णय लिया। भूटान में मांसाहारी और शाकाहारी मोमो बड़े चाव से खाए जाते हैं। नूडल्स भी यहाँ का प्रिय भोजन है। इसके अलावा लोग लाल चावल खाना पसंद करते हैं। यह चावल न केवल भूटान की विशेषता है बल्कि अत्यंत पौष्टिक भी माना जाता है। स्थानीय लोग इस चावल के साथ अधिकतर चिकन या पोर्क करी खाते हैं। पाठकों को इस बात को जानकर आश्चर्य भी होगा कि कई स्थानीय लोग निरामिष भोजी भी हैं।

होटलों में भारतीय व्यंजन भी बड़ी मात्रा में उपलब्ध होते हैं। हमने लाल चावल, रोटी और शाकाहारी कुकुरमुत्ते की तरीवाली सब्ज़ी मँगवाई। साथ में स्थानीय सब्ज़ी की सूखी और तरीवाली सब्ज़ियाँ भी मँगवाई।हमने साँगे और पेमा से भी कहा कि वे भी हमारे साथ भोजन करें।

 भोजन के दौरान हमें साँगे ने बताया कि भूटान में पुरुष एक से अधिक पत्नियाँ रख सकते हैं। वर्तमान राजा के पिता जो अब राज्य के कार्यभार से मुक्त हो चुके थे,  उन्होंने चार शादियाँ की थीं।आज वे राजकार्य से मुक्त होकर एक घने जंगल जैसे इलाके में संन्यास जीवन यापन कर रहे हैं।

सभी रानियाँ अलग -अलग महलों में रहती हैं। राजमाता उनकी दूसरी पत्नी हैं। वे काफी समाज सेवा के कार्य हाथ में लेती हैं।भूटान के लोग नौकरी के लिए खास देश के बाहर नहीं जाते। उनकी जनसंख्या कम होने के कारण वे अपने देश में रहकर देश की सेवा करना अपना कर्तव्य समझते हैं। हर किसी को रोज़गार मिल ही जाता है। मूलरूप से वे राष्ट्रप्रेमी हैं।

सुस्वादिष्ट भोजन के बाद हम टेक्सटाइल संग्रहालय पहुँचे। इस स्थान पर भूटान के बुनकरों की जानकारी दी गई  है तथा विभिन्न वस्त्र के कपड़े की बुनाई तथा सिलाई कैसे होती है इसकी विस्तृत जानकारी स्लाइड द्वारा भी दी गई है। संग्रहालय दो मंज़िली इमारत है और काफी वस्त्रों का प्रदर्शन भी है। इस संग्रहालय को राजमाता ने ही बनवाया था। आज यहाँ प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति ₹500 है।

संग्रहालय स्वच्छ सुंदर और आकर्षक है।

अब तक चार बज चुके थे। हमें चित्रकारी देखने के लिए आर्ट ऍन्ड कल्चर सेंटर जाना था। इस स्थान पर छात्र रेशम के कपड़ों पर तुलिका से रंग भरकर अपने चित्र को सुंदर बनाते हैं।अधिकतर चित्र बुद्ध के जीवन से संबंधित होते हैं।यहाँ कई छात्र तल्लीन होकर चित्रकारी भी कर रहे थे। यहाँ ऊपर एक कमरे में कई  नक्काशीदार बर्तन आदि प्रदर्शन के लिए रखे गए थे।छोटी -सी जगह पर हर छात्र अपने आवश्यक वस्तुओं को लेकर तन्मय होकर अपने चित्र को सजा रहा था। उन्हें हमारी उपस्थिति से कोई फ़र्क नहीं पड़ा। यह भूटान का आर्ट कॉलेज है।

अब दिन के छह बज गए।हम भी थक गए  थे।अब होटल लौटकर आए।कमरे में आकर हम सखियों ने चाय पी।पेमा और साँगे को भी चाय पीने के लिए आमंत्रित किया।चाय के साथ हमने उन्हें भारतीय नमकीन भी खिलाए जिसे खाकर वे अत्यंत प्रसन्न भी हुए।उनके जाने पर आठ बजे तक हम सखियाँ ताश खेलती रहीं।

क्रमशः… 

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 164 ☆“विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया” (जीवनी) – लेखक … श्री सुरेंद्र सिंह पवार ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा श्री सुरेंद्र सिंह पवार  द्वारा लिखित  विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया” (जीवनी) पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 164 ☆

☆ “विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया” (जीवनी) – लेखक … श्री सुरेंद्र सिंह पवार ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा

विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया (जीवनी)

आई एस बी एन ८१.७७६१.०१९.८

सुरेंद्र सिंह पवार

समन्वय प्रकाशन अभियान,  जबलपुर

मूल्य १२५ रु

चर्चा …. विवेक रंजन श्रीवास्तव

ए २३३,  ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी,  जे के रोड,  भोपाल ४६२०२३

मो ७०००३७५७९८

 मुझे भारत रत्न मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया जी के जीवन पर लिखी गई कई किताबें पढ़ने मिली हैं। मानव जीवन में विज्ञान के विकास को मूर्त रूप देने में इंजीनियर्स का योगदान रहा है और हमेशा बना रहेगा। किन्तु बदलते परिवेश में भ्रष्टाचार के चलते इंजीनियर्स को रुपया बनाने की मशीन समझने की भूल हो रही है। भौतिकवाद की इस आपाधापी में राजनैतिक दबाव में तकनीक से समझौते कर लेना इंजीनियर्स की स्वयं की गलती है। देखना होगा कि निहित स्वार्थों के लिये तकनीक पर राजनीति हावी न होने पावे। भारत रत्न मोक्षगुण्डम विश्वेश्वरैया तकनीक के प्रति समर्पित इंजीनियर थे,  उनका जीवन न केवल इंजीनियर्स के लिये वरन प्रत्येक युवा के लिये प्रेरणा है।

सुरेंद्र सिंह पवार एक कुशल शब्द शिल्पी हैं। वे नियमित रूप से हिन्दी साहित्य जगत की महत्वपूर्ण त्रैमासिक पत्रिका साहित्य संस्कार का संपादन कर रहे हैं,  उन्होने इंस्टीट्यूशन आफ इंजीनियर्स की वार्षिक बहुभाषी पत्रिका अभियंता बंधु का संपादन भी किया है। विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया में उन्होंने विषय वस्तु को शाश्वत,  पाठकोपयोगी,  और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। यह जीवनी केंद्रित कृति हाल ही समन्वय प्रकाशन जबलपुर से छपी है। योजनाबद्ध तरीके से विश्वेश्वरैया जी पर प्रामाणिक सामग्री संजोई गई है। महान अभियंता की जीवन यात्रा को १२ अध्यायों में बांटकर रोचक फार्मेट में पाठको के लिये प्रस्तुत किया है। प्रासंगिक फोटोग्राफ के संग प्रकाशन से जीवनी अधिक ग्राह्य बन सकी है। विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया उन पर केंद्रित सहज,  प्रवाहमान शैली में,  हिन्दी में पहली विशद जीवनी है। किसी के जीवन पर लिखने हेतु रचनाकार को उसके समय परिवेश और परिस्थितियों में मानसिक रूप से उतरकर तादात्म्य स्थापित करना वांछित होता है। विज्ञ शिल्पी विश्वेश्वरैया में सुरेंद्र सिंह पवार ने विश्वेश्वरैया जी के प्रति समुचित तथ्य रखने में सफलता पाई है।

पहले अध्याय में विश्वेश्वरैया जी की १०१ वर्षो के सुदीर्घ जीवन,  उनके घर परिवार की जानकारियां संजोई गई हैं। किताब के अंत में संदर्भो का उल्लेख भी है,  जो शोधार्थियों के लिये उपयोगी होगा। दूसरा अध्याय विश्वेश्वरैया जी के ब्रिटिश सरकार के रूप में कार्यकाल पर केंद्रित किया गया है। इसमें उनके द्वारा डिजाइन की गई सिंचाई की ब्लाक पद्धति,  खडकवासला झील के लिये बनवाया गया स्वचलित गेट,  सिंध प्रांत में सख्खर पर निर्मित बांध और नहरें, आदि कार्यों की जानकारियां समाहित की गई हैं। उल्लेखनीय है कि विश्वेश्वरैया जी ने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देकर हैदराबाद में मूसा नदी पर बाढ़ नियंत्रण,  उस्मान सागर तथा हिमायत सागर के निर्माण कार्यों में भागीदारी की थी,  यह सब तीसरे अध्याया का हिस्सा है। चौथे और पांचवे अध्याय में उनके मैसूर के कार्यकाल में निर्मित सुप्रसिद्ध कृष्ण राज सागर डैम,  बृंदावन गार्डन विषयक जानकारियां तथा मैसूर रियासत के दीवान के रूप में किये गये शिक्षा,  रेल,  बंदरगाह स्टील वर्क्स आदि कार्य वर्णित हैं। छठा अध्याय उनकी विदेश यात्राओ की रोचक बातें बताता है। सातवें अध्याय में देश के विभिन्न हिस्सों में कंसल्टैंट के रूप में किये गये विश्वैश्वरैया जी के अनेक कार्यो पर प्रकाश डाला गया है। आठवां अध्याय उनके लोकप्रिय व्यक्तित्व के बारे में लिखा गया है। महात्मा गांधी तब एक राष्ट्र पुरुष के रूप में मुखरित हो चुके थे,  उनके साथ विश्वेश्वरैया की भेंट के वर्णन यहां मिलते हैं। नौं वें अध्याय में विश्वेश्वरैया जी के भाषण,  भात के आर्थिक विकास की उनकी सोच,  तथा उनके जीवन की सुस्मृतियां संजोई गई हैं। विश्वेश्वरैया जी को देश विदेश से अनेकानेक सम्मान मानद उपाधियां,  मिलीं उन्हें भारत रत्न प्रदान किया गया,  उन पर डाक टिकिट जारी की गई। ये जानकारियां दसवें अध्याय का पाठ्य हैं। ग्यारवें अध्याय में गूगल द्वारा उन्हें प्रदत्त सम्मान,  उनके जन्म दिवस पर इंजीनियर्स डे का प्रति वर्ष आयोजन,  तथा उनकी अंतिम यात्रा का वर्णन है। बारहवां और अंतिम अध्याय परिशिष्ट है जिसमें अनेक महत्वपूर्ण संदर्भ प्रस्तुत किये गये हैं।

१९०२ में एक मैसूर वासी नाम से युवा विश्वेश्वरैया ने तकनीकी शिक्षा के संदर्भ में उनके विचार एक पत्रक के रूप में लिखे थे। इससे उनके वृहद सिद्धांत,  स्व नहीं समाज की झलक मिलती है। उन्होंने कहीं लिखा कि मैं काम रते करते मरना चाहता हूं,  वे जीवन पर्यंत सक्रिय रहे। उनकी दीर्घ आयु का राज भी यही है कि उन्होंने स्वयं पर जंग नहीं लगने दी,  वे इस्पात की तरह सदा चमचमाते रहे। कुल मिलाकर स्पष्ट दिखता है कि सुरेंद्र सिंह पवार ने एक श्रम साध्य कार्य कर हिन्दी में विश्वेश्वरैया जी की जीवनी लिखने का बड़ा कार्य किया है,  जो सदैव संदर्भ बना रहेगा। त्रुटि रहित साफ सुथरी प्रिंट में स्वच्छसफेद कागज पर पूर्ण डिमाई आकार की १३६ पृष्ठीय किताब मात्र १०० रु में सुलभ है। मेरा सुझाव है कि इसे सभी इंजीनियरिंग कालेजों में अवश्य खरीदा जाना चाहिये। यदि भीतर के चेप्टर्स में भी अनुक्रम के अध्याय नम्बर डाल दिये जाते तो रिफरेंस लेने में और सरलता होती,  अगले एडीशन में यह सुधार वांछित है। अस्तु खरीदिये,  पढ़िये।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 200 – रिश्तों की तुरपाई ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा रिश्तों की तुरपाई ”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 200 ☆

🌻लघु कथा🌻 🌳 रिश्तों की तुरपाई 🌳

ये लघुकथा का शीर्षक मेरी अपनी कृति रिश्तो की तुरपाई है।

पेशे से वकील हजारीलाल (एच लाल) । गंभीर, तीक्ष्ण बुद्धि, मधुर व्यवहार, सौम्य, शांत, उनके पास न जाने कितने केस आते और सबकी पैरवी भी करते।

सदैव सुलझाते हुए परिणाम सुखद दिलाते हैं। पारिवारिक, घरेलू विवाद, बँटवारा, आपसी मतभेद के केस को ज्यादा महत्व देते थे और एक मौका उसे सुधारने का जरूर देते थे।

शायद इसे ही अच्छे वकील की पहचान कह सकते हैं। फीस की राशि पर कोई कंप्रोमाइज नहीं करते थे। बल्कि आम वकील से दुगना फीस लेते।

मनुष्य को तो सरल सहज और कोर्ट के चक्कर लगाना ना पड़े। इसलिए भी एच लाल की पैरवी सभी को बहुत पसंद आई थी।

उम्र का पड़ाव और तजुर्बा दोनों से परिपक्व, आज उसके स्वयं के बेटा बहू जिन्होंने अपनी पसंद से, दूर पढ़ते समय ही अपने जीवन की फैसला कर लिया।

विवाह के बंधन में बनने का निर्णय ले चुके थे दोनों प्राइवेट कंपनी में काम करते थे न जाने कब दूरियाँ बन गई। अभी ठीक से गृहस्थी का सामान भी नहीं आया और बेटे और बहू को गलतफहमी की वजह से एक छत के नीचे अजनबी की तरह रहना पड़ रहा था।

तेज बारिश और सावन का महीना लगते ही बागों में हरियाली होती है धरा की सुंदरता बढ़ जाती है।

आज कोर्ट से लौटते समय वकील साहब के हाथों में सुंदर दो छोटे-छोटे पौधे थे। उन्होंने पौधे को बेटा बहू को बुला कर देते हुए कहा… तुम दोनों अलग तो हो ही रहे हो क्यों ना अपने अलग होने की निशानी के तौर पर इन पौधों को यहाँ बगीचे पर लगा दो।

ताकि जब कभी किसी को बताना पड़े तो मुझे बताते हुए कह सकूँ कि यह पौधा मेरे बेटा बहू के तलाक के कारण लगाया गया है।

मगर मेरी शर्त है कि यह दोनों पौधे को सहेजने और बड़ा करने के लिए कम से कम एक वर्ष तक मेरी शर्तों पर तुम दोनों को इन पौधों की सेवा करना है।

जिसका पौधा ज्यादा सुंदर बड़ा और अच्छा होगा कि उसी के पक्ष में निर्णय जाएगा।

आज बेटे बहू दोनों को वकील साहब ने बुलाया और निर्णय की बात रखी।

निर्णय का इंतजार हो रहा था। पौधे तो दोनों के बराबर लगे हुए थे। चश्मे के अंदर से आँखों को पोंछते हुए आज वकील साहब (पिताजी) बने दोनों को गले लगाए।

अनुभव कर रहे थे की पीठ के पीछे बेटा बहू के हाथ एक दूसरे के हाथ में जुड़ा हुआ था। पश्चाताप से सरोबार बेटा बहू अपने पिताजी के कारण अपनी गलतफहमियों को दूर कर चुके थे।

आज सावन का पावन महीना हाजारी लाल फिर से एक बार अपने केबिन में जाकर वकालत की किताबों की जगह ‘रिश्तों की तुरपाई’ पढ़ रहे थे।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 93 – देश-परदेश – सोने की सीढ़ी चढ़ना ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 93 ☆ देश-परदेश – सोने की सीढ़ी चढ़ना ☆ श्री राकेश कुमार ☆

विगत दिन एक परिचित ने सोने की सीढ़ी चढ़ने की रस्म अदायगी के लिए हमें मैसेज द्वारा आमंत्रित किया था। फोन द्वारा हमने इस बाबत जानकारी प्राप्त करी, हमारे तो होश ही फक्ता हो गए। प्रतीकात्मक रूप से छोटी सी सोने की सीढ़ी पर घर के सबसे बड़े बुजर्ग का पैर छुआ जाता हैं।

परिचित ने बताया उनके यहां पौत्र का जन्म हुआ है। उनकी माता जी अभी जीवित है, इसलिए हम उनको सोने की सीढ़ी चढ़ा कर, चौथी पीढ़ी की खुशी मनाएंगे।

परिचित के सभी बच्चे अच्छे स्कूल से पढ़े लिखे होने के साथ ही साथ सुयोग्य श्रेणी में आते हैं। उससे हमने कहा तुम्हारे यहां तो चौथी पीढ़ी (पोत्री) तीन वर्ष पूर्व ही आ चुकी थी।

उसने बताया की हमारे समाज में तो बेटों से ही पीढ़ी गिनी जाती है, बेटियों से नहीं। इस विषय पर उससे हमारी लम्बी बहस भी हो गई। हम कभी कभी दुश्मन देश पाकिस्तान के ड्रामे (सीरियल) देखते है, जिसमें सम्पन्न और पढ़े लिखे परिवारों में अक्सर बेटे को महत्व दिया जाता हैं।

हमने भी परिचित को कह दिया, कि तुम्हारे और पाकिस्तान के लोगों में क्या फर्क रह गया है ? पढ़े लिखे होकर भी तुम इस कुत्सित विचार धारा वाली तालिबानी सोच के साथ जीवनयापन कर रहे हो।

हमने तो उसे स्पष्ट मना कर दिया कि मैं ऐसी तुष्ट समझ के साथ वालों से कोई संबंध नहीं रखना चाहता हूं।

परिचित हंसते हुए बोला, देख लो वर्षा ऋतु के इस मौसम में मुफ्त की असीमित दाल बाटी और चूरमा का रसवादान से चूक जाओगे। हम भी आखिर इंसान है, जबान के स्वाद के सामने हथियार डाल, समय से पूर्व ही कार्यक्रम में पहुंच गए।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #247 ☆ मी घसरते… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 247 ?

☆ मी घसरते ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

नीज येता येत नाही चांदणे डोळ्यात सलते

रात्र आहे मख्ख जागी स्वप्न माझे दूर पळते

*

पेटलेला हा निखारा शांत झाला अन तरीही

थंड राखेच्या ढिगावर एक भाकर रोज जळते

*

काल घरघर करत होते एक जाते पाहटेला

आज तेही मूक आहे अन तरीही पीठ दळते

*

कोरड्या डोळ्यात माझ्या होय सागर त्यात लाटा

हे कुणाला कळत नाही पापण्यांना अश्रु छळते

*

चांदण्यांना पेंग आली झोपुनी गेल्या पहाटे

मी तशी जागीच आहे पाहुनी मज झोप हसते

*

तू बरसतो मी तुझ्यावर प्रेम करते पावसा रे

वाट होते ही घसरडी आणि त्यावर मी घसरते

*

सैल होताना मिठी ही हुडहुडी छळते गुलाबी

दामिनी धावून येता चूक झाली हेच कळते

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ माझी जडणघडण… भाग – ३ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

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☆ माझी जडणघडण… भाग – ३ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

(सौजन्य : न्यूज स्टोरी टूडे)

शाळा नंबर १२

रॉबर्ट ब्रेक एकदा म्हणाला होता, 

“I FEEL I WANT TO GO BACK IN TIME,NOT TO CHANGE THINGS BUT TO FEEL A COUPLE OF THINGS TWICE…

I WISH I COULD GO BACK TO SCHOOL NOT TO BECOME A CHILD BUT TO SPEND  MORE TIME WITH THOSE FRIENDS,I NEVER MET AFTER SCHOOL.”

माझं अगदी असंच काहीसं झालेलं आहे.

आम्ही मुलं नगरपालिकेच्या शाळेत शिकलो.  म्हणजे माझं प्राथमिक पहिली ते चौथीपर्यंत शिक्षण नगरपालिकेच्या शाळेत झालं. माझ्या शाळेचे नाव शाळा नंबर १२.  घरापासून अगदी जवळच आमची शाळा होती.  माझ्या काही बालमैत्रिणी शाळा नंबर चार मध्ये जात तर मुलगे दगडी शाळेत जात. आमची शाळा फक्त मुलींची होती. शाळेची अशी नावं आठवली तरी आता गंमत वाटते. लिटिल मिलेनियम स्कूल, ब्लूमिंग पेटल्स, किडझी. स्माईल अशी आकर्षक नावं असलेल्या शाळा तेव्हा नव्हत्याच.  नर्सरी, प्लेग्रुप्स यांची ओळखही नव्हती म्हणजे शिशुविहार, बालक मंदिर वगैरे सारखे काही खासगी शैक्षणिक समूह होते पण आमच्या शिक्षणाची सुरुवात मात्र शाळा नंबर १२ या नगरपालिकेच्या शाळेपासूनच झाली.

त्यावेळी ठाण्यात एक कॉन्व्हेंट स्कूल होतं. सेंट जॉन द बाप्टीस्ट हायस्कूल पण मला वाटतं आमची पालक मंडळी मराठी भाषेचा जाज्वल्य अभिमान बाळगणारी होती.  आपल्या मुलांचं शिक्षण हे मातृभाषेतूनच झालं पाहिजे याच विचारांची होती.  कदाचित आपल्या मुलांना एखाद्या मिशनरी इंग्रजी माध्यमाच्या कॉन्व्हेंट स्कूलमध्ये का पाठवू नये असा विचारही त्यांच्या मनाला तेव्हा शिवला नसेल आणि आमच्या बालमनावरही नगरपालिकांच्या शाळांतून मिळणारं  शिक्षण हेच खरं शिक्षण असा काहीतरी विचार पक्का केला असावा आणि त्यावेळी आमचा जो मराठी माणसांचा एक गट होता त्यातली सगळीच मुलं मराठी आणि नगरपालिकांच्या शाळेतून शिकत होती. त्यामुळे याहून काहीतरी उच्च, दर्जेदार असू शकतं हा विचार त्यावेळेच्या मुलांच्या मनात कशाला येईल?  मात्र काही अमराठी मुलं आमच्या परिसरात होती आणि ती मात्र कॉन्व्हेंट स्कूलमध्ये शिक्षण घेत होती. याचा परिणाम असा झाला की   नकळतच इंग्लिश माध्यमातून शिकणारी मुलं आणि मराठी माध्यमातून शिकणारी  मुलं यांच्यात संस्कृतीच्या  भिंती त्यावेळी निर्माण झाल्या. या भिंती थेट महाविद्यालयीन शिक्षणापर्यंत टिकल्या.

टेंभी नाक्यावर टाऊन हॉल समोर बारा नंबर शाळेची इमारत होती. ब्रिटिश कालीन दगडी इमारत होती ती! शाळेला मागचं— पुढचं अशी दोन प्रवेशद्वारे होती. मागच्या बाजूला पटांगण होतं आणि ते रस्त्याला लागून होतं पुढचे प्रवेशद्वार हे मुख्य द्वार होते आणि नऊ दहा लांबलचक अशा दगडी पायऱ्या चढून आमचा शाळेच्या मधल्या आवारात प्रवेश व्हायचा आणि त्याच्या डाव्या उजव्या बाजूला वर्ग होते.

शाळेच्या समोर चाळ वजा घरे होती. अडचणीची, खडबडीत बोळातली आणि अरुंद घरात दाटीवाटीने राहणारी, खालून पाणी भरणारी, भाजीपाला किराणाच्या पिशव्या सांभाळणारी, सायकलवरून कामाच्या ठिकाणी जाणारी, जीवनाची दहा टोकं एकमेकांशी जुळवण्यासाठी अहोरात्र कष्ट करणारी माणसं होती ती. वयाच्या सहाव्या वर्षापासून डोक्यात बसलेलं हे जीवन आज इतकी वर्ष झाली, स्वतःच्याच आयुष्यात इतकी स्थित्यंतरे झाली. एका उजळ वाटेवरून प्रवास होत गेला तरीही ही चित्रं पुसली गेली नाहीत.

बारा नंबर शाळेच्या त्या दगडी पायऱ्यांवर दहा मिनिटाच्या आणि अर्ध्या तासाच्या सुट्टीत बालमैत्रिणींसोबत केलेल्या गप्पा,  गायलेली बडबड गीते आणि चवीने चोखत खाल्लेली आंबट चिंबट चिंचा बोरं, एकमेकांना दिलेली सोनचाफ्याची फुलं आजही आठवतात. 

एक छोटसं दफ्तर… शाळेत जाताना आईच  दफ्तर भरायची.  त्यात एखादं पाठ्यपुस्तक, काळी दगडी पाटी आणि पेन्सिल आणि मधल्या सुट्टीत खायचा डबा एवढेच सामान शाळेसाठी आम्हाला पुरायचं.  आमच्या शालेय जीवनाचं नातं होतं पाटी— पेन्सिल, खडू —फळा आणि बुटके लांबलचक वर्गात बसायचे बाक यांच्याशी.

एकेका वर्गाच्या अ ब क ड अशा तुकड्या असायच्या.”अ तुकडीतली  मुलं हुशार आणि “ड” तुकडीतली मुलं ढ!

 “ढ” हे अक्षर मला तेव्हा फार त्रासदायकच वाटायचं कारण “ढ” या अक्षराला माझ्या मते फारशी चांगली पार्श्वभूमी नसताना माझे आडनाव मात्र ढगे  होतं.

एक दिवस वर्णमाला शिकत असताना बाई सांगत होत्या “क कमळातला …

“ख”  खटार्‍यातला ..

“ग”  गडूतला ..

असं करत करत त्या “ढ”जवळ आल्या आणि माझ्या शेजारी बसलेली रत्ना पेडणेकर नावाची मुलगी मोठ्याने म्हणाली “ढ” ढगेतला.

सगळा बालचमु  हसला.  माझे डोळे पाण्याने भरले.

बाईंनी मात्र रत्नाला हात पुढे करायला सांगितला आणि तिच्या हातावर सपकन छडी मारली.  तिचेही डोळे गळू लागले आणि त्याचेही मला फार वाईट वाटले. पण त्यानंतर  मी आणि रत्ना एकमेकींच्या जीवाभावाच्या मैत्रिणी झालो हे नवल नाही का?  यालाच मी आमचे बालविश्व म्हणेन.

मात्र त्यादिवशी शाळेतून घरी परतल्यावर मी— संध्याकाळी पप्पा ऑफिसमधून घरी आल्यावर त्यांना पहिला प्रश्न विचारला होता,

“ आपण आपलं आडनाव बदलू शकतो का?”

त्यावेळी पपा मिस्कीलपणे म्हणाले होते..

“म्हैसधुणे,धटींगण,झोटींग असे आपले  आडनाव असते तर..”

शेक्सपियर म्हणतो नावात काय आहे? मला आजही असं वाटतं नावात खूप काही असतं. सहज आठवलं म्हणून सांगते वरपरीक्षेच्या त्या अप्रिय काळात माझ्या कन्येने “टकले” नावाच्या सर्वगुणसंपन्र स्थळाला केवळ आडनावापायी नकार दिला होता.असो..

रत्ना  पेडणेकर ही ठाण्यातल्या एका मोठ्या कलाकाराची मुलगी होती. सिव्हील हॉस्पिटलच्या समोर त्यांचा सुंदर बंगला होता.  गणपती उत्सवात तिचे वडील गणेश मूर्ती समोर अतिशय कलात्मक असे पौराणिक  कथांवर आधारित  देखावे  उभे करायचे आणि ठाण्यातली सगळी मंडळी पेडणेकर यांचा गणपती बघण्यासाठी त्यांच्या बंगल्यासमोर प्रचंड गर्दी करायचे.

अशा घरातली ही रत्ना  शाळा नंबर १२ मध्ये टांग्याने यायची. सुरेख इस्त्री केलेले तिचे फ्रॉक्स असायचे. तिच्या वडिलांचा ठाण्यात दबदबा होता.  हे सांगण्याचे कारण इतकंच की असे असतानाही तिने केलेल्या एका किरकोळ चुकीलाही बाईंनी थोडेसे हिंसक शासन केले पण तिच्या वडिलांनी शाळेत येऊन कुठल्याही प्रकारची तक्रार केली नाही. एकदा आपलं मूल शाळेत गेलं की ते शिक्षकांचं. तिथे हस्तक्षेप नसायचा हे महत्त्वाचं. त्यामुळे घर, शाळा, आजुबाजूची वस्ती ही सारीच आमची संस्कार मंदिरे होती. आम्ही सारे असे घडलो. नकळत, विना तक्रार.

१२ ते ५ अशी शाळेची वेळ होती. एक दहा मिनिटांची सुट्टी आणि एक डबा खायची सुट्टी.

सगळे वर्ग एका शेजारी एक. मध्ये भिंत नाही फक्त एक लाकडी दुभाजक असायचा.  वर्ग चालू असताना शेजारच्या वर्गातल्या बाईंचा आवाज आणि शिकवणंही ऐकू यायचं.  कुठे गणितातले पाढे, कुठे कविता पठण, कुठे उत्तर दक्षिण दिशांचा अभ्यास, कुठे बाराखड्या, तोंडी गणितं आणि अशा सगळ्या खिचडी अभ्यासातून आम्ही एकाग्र चित्ताने शिकत होतो.

“आईने आणssले चाssर पेरू.

माधवने दोन चोरून खाल्ले. किती उरलेsss?

आम्ही आमच्या हाताची चार बालबोटं उघडायचो, दोन दुमडायचो आणि एक साथ उत्तर द्यायचचो

दोssन.

मग बाई म्हणायच्या, “शाब्बास!”

आयुष्यातल्या बेरजा, वजाबाक्या, गुणाकार, भागाकार या साऱ्यांची सुरुवात जणू काही अदृश्यपणे या शाळा नंबर १२ पासूनच सुरू झाली.

आज नातीचा अभ्यास घेताना लॅपटॉप,टॅब्लेट(यास मी अधुनिक युगातली पाटी असेच म्हणते.) त्यावरचे अभ्यासक्रम, उत्तरे देण्याची पद्धत, आकर्षक पुस्तके, त्यातील रंगीत चित्रे! एकंदरच दृक् श्राव्य अभ्यासाचं बदलतं, नवं,स्वरूप बघताना मला माझी बारा नंबरची शाळा हमखास आठवते.

पण इथेच आम्ही शिकलो, वाढलो घडलो.

आजही नजरेसमोर ते फुलपाखरू बागडतं,

“फुलपाखरू छान किती दिसते फुलपाखरू ..”

नाही तर 

“देवा तुझे किती सुंदर आकाश

सुंदर प्रकाश सूर्य देतो ।”

ये ग ये ग सरी 

माझे मडके भरी 

सर आली धावून

मडके गेले वाहून 

 

सरसर गोविंदा येतो 

मजवरी गुलाल फेकि.तो…

 

झिम पोरी झिम कपाळाचा भीम

भीम गेला फुटून

पोरी आल्या उठून..

 

अडम तडम तडतड बाजा

उक्का तिक्का लेशमास

करवंद डाळिंब फुल्ला…

 

लहान माझी बाहुली

मोठी तिची सावली…

अशा  सुंदर गाण्यातून खरोखरच आमचं बालपण हसलं, बागडलं.

मला जर आज कोणी प्रश्न विचारला,” मराठी भाषेनं तुला काय दिलं तर मी नक्की सांगेन माझ्या  मराठी भाषेने मला असं सुंदर काव्यमय बालपण दिलं.”

आजही त्या शाळेतल्या दफ्तराची मला आठवण येते.  माझं दफ्तर आणि माझी आई यांच्याशी माझं एक सुंदर, भावनिक अतूट नातं आहे.

आठवणीच्या पेटीत

एक दफ्तर होतं

एक पाटी होती

दफ्तर जागोजागी

ऊसवलं होतं

पाटीही फुटली होती.

पण पाटीवरची अक्षरं

नव्हती पुसली.

कळायला लागेपर्यंत

आईने रोज

पाटी दफ्तर भरलं

वह्या पुस्तकं,खडु पेन्सीली..

आज आई नाही

पण दफ्तर आहे

पाटी फुटली

तरी अक्षरे आहेत

त्या जीर्ण दफ्तरावर आता

माझाच सुरकुतलेला

हात फिरवताना वाटतं,

हेच तर आईनं

दिलेलं संचीत.

वेळोवेळी तिने

हव्या असलेल्या गोष्टी

आत भरल्या.

नको असलेल्या काढल्या.

हळुच….ऊसवलेल्या ,

दफ्तरात डोकावून पाह्यलं,

त्यात नव्हते मानअपमान,

दु:खं ,निराशा, राग,

होतं फक्त समाधान,

आनंद….तृप्ती!!

एकेका अक्षरात ,

जपून ठेवलेला…

मानवतेचा ओलावा….

 

खरंच या साऱ्या आठवणींच्या लाटेवर मी तरंगतच राहिले की… आता थोडा ब्रेक घेऊया.

 

शाळेची घंटा घणघण वाजली

दहा मिनिटांची सुट्टी झाली…

–  क्रमशः भाग ३. 

© सौ. राधिका भांडारकर

पुणे

मो.९४२१५२३६६९

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #241 ☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख आज ज़िंदगी : कल उम्मीद… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 241 ☆

☆ आज ज़िंदगी : कल उम्मीद… ☆

‘ज़िंदगी वही है, जो हम आज जी लें। कल जो जीएंगे, वह उम्मीद होगी’ में निहित है… जीने का अंदाज़ अर्थात् ‘वर्तमान में जीने का सार्थक संदेश’ …क्योंकि आज सत्य है, हक़ीकत है और कल उम्मीद है, कल्पना है, स्वप्न है; जो संभावना-युक्त है। इसीलिए कहा गया है कि ‘आज का काम कल पर मत छोड़ो,’ क्योंकि ‘आज कभी जायेगा नहीं, कल कभी आयेगा नहीं।’ सो! वर्तमान श्रेष्ठ है; आज में जीना सीख लीजिए अर्थात् कल अथवा भविष्य के स्वप्न संजोने का कोई महत्व व प्रयोजन नहीं तथा वह कारग़र व उपयोगी भी नहीं है। इसलिए ‘जो भी है, बस यही एक पल है, कर ले पूरी आरज़ू’ अर्थात् भविष्य अनिश्चित है। कल क्या होगा… कोई नहीं जानता। कल की उम्मीद में अपना आज अर्थात् वर्तमान नष्ट मत कीजिए। उम्मीद पूरी न होने पर मानव केवल हैरान-परेशान ही नहीं; हताश भी हो जाता है, जिसका परिणाम सदैव निराशाजनक होता है।

हां! यदि हम इसके दूसरे पहलू पर प्रकाश डालें, तो मानव को आशा का दामन कभी नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह वह जुनून है, जिसके बल पर वह कठिन से कठिन अर्थात् असंभव कार्य भी कर गुज़रता है। उम्मीद भविष्य में फलित होने वाली कामना है, आकांक्षा है, स्वप्न है; जिसे साकार करने के लिए मानव को निरंतर अनथक परिश्रम करना चाहिए। परिश्रम सफलता की कुंजी है तथा निराशा मानव की सफलता की राह में अवरोध उत्पन्न करती है। सो! मानव को निराशा का दामन कभी नहीं थामना चाहिए और उसका जीवन में प्रवेश निषिद्ध होना चाहिए। इच्छा, आशा, आकांक्षा…उल्लास है,  उमंग है, जीने की तरंग है– एक सिलसिला है ज़िंदगी का; जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है, हमारे जीवन को ऊर्जस्वित करता है…राह को कंटक-विहीन बनाता है…वह सार्थक है, सकारात्मक है और हर परिस्थिति में अनुकरणीय है।

‘जीवन में जो हम चाहते हैं, वह होता नहीं। सो! हम वह करते हैं, जो हम चाहते हैं। परंतु होता वही है, जो परमात्मा चाहता है अथवा मंज़ूरे-ख़ुदा होता है।’ फिर भी मानव सदैव जीवन में अपना इच्छित फल पाने के लिए प्रयासरत रहता है। यदि वह प्रभु में आस्था व विश्वास नहीं रखता, तो तनाव की स्थिति को प्राप्त हो जाता है। यदि वह आत्म-संतुष्ट व भविष्य के प्रति आश्वस्त रहता है, तो उसे कभी भी निराशा रूपी सागर में अवग़ाहन नहीं करना पड़ता। परंतु यदि वह भीषण, विपरीत व विषम परिस्थितियों में भी उसके अप्रत्याशित परिणामों से समझौता नहीं करता, तो वह अवसाद की स्थिति को प्राप्त हो जाता है… जहां उसे सब अजनबी-सम अर्थात् बेग़ाने ही नहीं, शत्रु नज़र आते हैं। इसके विपरीत जब वह उस परिणाम को प्रभु-प्रसाद समझ, मस्तक पर धारण कर हृदय से लगा लेता है; तो चिंता, तनाव, दु:ख आदि उसके निकट भी नहीं आ सकते। वह निश्चिंत व उन्मुक्त भाव से अपना जीवन बसर करता है और सदैव अलौकिक आनंद की स्थिति में रहता है…अर्थात् अपेक्षा के भाव से मुक्त, आत्मलीन व आत्म-मुग्ध।

हां! ऐसा व्यक्ति किसी के प्रति उपेक्षा भाव नहीं रखता … सदैव प्रसन्न व आत्म-संतुष्ट रहता है, उसे जीवन में कोई भी अभाव नहीं खलता और उस संतोषी जीव का सानिध्य हर व्यक्ति प्राप्त करना चाहता है। उसकी ‘औरा’ दूसरों को खूब प्रभावित व प्रेरित करती है। इसलिए व्यक्ति को सदैव निष्काम कर्म करने चाहिए, क्योंकि फल तो हमारे हाथ में है नहीं। ‘जब परिणाम प्रभु के हाथ में है, तो कल व फल की चिंता क्यों?

वह सृष्टि-नियंता तो हमारे भूत-भविष्य, हित- अहित, खुशी-ग़म व लाभ-हानि के बारे में हमसे बेहतर जानता है। चिंता चिता समान है तथा चिंता व कायरता में विशेष अंतर नहीं अर्थात् कायरता का दूसरा नाम ही चिंता है। यह वह मार्ग है, जो मानव को मृत्यु के मार्ग तक सुविधा-पूर्वक ले जाता है। ऐसा व्यक्ति सदैव उधेड़बुन में मग्न रहता है…विभिन्न प्रकार की संभावनाओं व कल्पनाओं में खोया, सपनों के महल बनाता-तोड़ता रहता है और वह चिंता रूपी दलदल से लाख चाहने पर भी निज़ात नहीं पा सकता। दूसरे शब्दों में वह स्थिति चक्रव्यूह के समान है; जिसे भेदना मानव के वश की बात नहीं। इसलिए कहा गया है कि ‘आप अपने नेत्रों का प्रयोग संभावनाएं तलाशने के लिए करें; समस्याओं का चिंतन-मनन करने के लिए नहीं, क्योंकि समस्याएं तो बिन बुलाए मेहमान की भांति किसी पल भी दस्तक दे सकती हैं।’ सो! उन्हें दूर से सलाम कीजिए, अन्यथा वे ऊन के उलझे धागों की भांति आपको भी उलझा कर अथवा भंवर में फंसा कर रख देंगी और आप उन समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए छटपटाते व संभावनाओं को तलाशते रह जायेंगे।

सो! समस्याओं से मुक्ति पाने के लिए संभावनाओं की दरक़ार है। हर समस्या के समाधान के केवल दो विकल्प ही नहीं होते… अन्य विकल्पों पर दृष्टिपात करने व अपनाने से समाधान अवश्य निकल आता है और आप चिंता-मुक्त हो जाते हैं। चिंता को कायरता का पर्यायवाची कहना भी उचित है, क्योंकि कायर व्यक्ति केवल चिंता करता है, जिससे उसके सोचने-समझने की शक्ति कुंठित हो जाती है तथा उसकी बुद्धि पर ज़ंग लग जाता है। इस मनोदशा में वह उचित निर्णय लेने की स्थिति में न होने के कारण ग़लत निर्णय ले बैठता है। सो! वह दूसरे की सलाह मानने को भी तत्पर नहीं होता, क्योंकि सब उसे शत्रु-सम भासते हैं। वह स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझता है तथा किसी अन्य पर विश्वास नहीं करता। ऐसा व्यक्ति पूरे परिवार व समाज के लिए मुसीबत बन जाता है और गुस्सा हर पल उसकी नाक पर धरा रहता है। उस पर किसी की बातों का प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह सदैव अपनी बात को उचित स्वीकार कारग़र सिद्ध करने में प्रयासरत रहता है।

‘दुनिया की सबसे अच्छी किताब हम स्वयं हैं… ख़ुद को समझ लीजिए; सब समस्याओं का अंत स्वत: हो जाएगा।’ ऐसा व्यक्ति दूसरे की बातों व नसीहतों को अनुपयोगी व अनर्गल प्रलाप तथा अपने निर्णय को सर्वदा उचित उपयोगी व श्रेष्ठ ठहराता है। वह इस तथ्य को स्वीकारने को कभी भी तत्पर नहीं होता कि दुनिया में सबसे अच्छा है–आत्मावलोकन करना; अपने अंतर्मन में झांक कर आत्मदोष-दर्शन व उनसे मुक्ति पाने के प्रयास करना तथा इन्हें जीवन में धारण करने से मानव का आत्म-साक्षात्कार हो जाता है और तदुपरांत दुष्प्रवृत्तियों का स्वत: शमन हो जाता है; हृदय सात्विक हो जाता है और उसे पूरे विश्व में चहुं और अच्छा ही अच्छा दिखाई पड़ने लगता है… ईर्ष्या-द्वेष आदि भाव उससे कोसों दूर जाकर पनाह पाते हैं। उस स्थिति में हम सबके तथा सब हमारे नज़र आने लगते हैं।

इस संदर्भ में हमें इस तथ्य को समझना व इस संदेश को आत्मसात् करना होगा कि ‘छोटी सोच शंका को जन्म देती है और बड़ी सोच समाधान को … जिसके लिए सुनना व सीखना अत्यंत आवश्यक है।’ यदि आपने सहना सीख लिया, तो रहना भी सीख जाओगे। जीवन में सब्र व सच्चाई ऐसी सवारी हैं, जो अपने शह सवार को कभी भी गिरने नहीं देती… न किसी की नज़रों में, न ही किसी के कदमों में। सो! मौन रहने का अभ्यास कीजिए तथा तुरंत प्रतिक्रिया देने की बुरी आदत को त्याग दीजिए। इसलिए सहनशील बनिए; सब्र स्वत: प्रकट हो जाएगा तथा सहनशीलता के जीवन में पदार्पण होते ही आपके कदम सत्य की राह की ओर बढ़ने लगेंगे। सत्य की राह सदैव कल्याणकारी होती है तथा उससे सबका मंगल ही मंगल होता है। सत्यवादी व्यक्ति सदैव आत्म-विश्वासी तथा दृढ़-प्रतिज्ञ होता है और उसे कभी भी, किसी के सम्मुख झुकना नहीं पड़ता। वह कर्त्तव्यनिष्ठ और आत्मनिर्भर होता है और प्रत्येक कार्य को श्रेष्ठता से अंजाम देकर सदैव सफलता ही अर्जित करता है।

‘कोहरे से ढकी भोर में, जब कोई रास्ता दिखाई न दे रहा हो, तो बहुत दूर देखने की कोशिश करना व्यर्थ है।’ धीरे-धीरे एक-एक कदम बढ़ाते चलो; रास्ता खुलता चला जाएगा’ अर्थात् जब जीवन में अंधकार के घने काले बादल छा जाएं और मानव निराशा के कुहासे से घिर जाए; उस स्थिति में एक-एक कदम बढ़ाना कारग़र है। उस विकट परिस्थिति में आपके कदम लड़खड़ा अथवा डगमगा तो सकते हैं; परंतु आप गिर नहीं सकते। सो! निरंतर आगे बढ़ते रहिए…एक दिन मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपका स्वागत अवश्य करेगी। हां! एक शर्त है कि आपको थक-हार कर बैठना नहीं है। मुझे स्मरण हो रही हैं, स्वामी विवेकानंद जी की पंक्तियां…’उठो, जागो और तब तक मत रुको, जब तक तुम्हें लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए।’ यह पंक्तियां पूर्णत: सार्थक व अनुकरणीय हैं। यहां मैं उनके एक अन्य प्रेरक प्रसंग पर प्रकाश डालना चाहूंगी – ‘एक विचार लें। उसे अपने जीवन में धारण करें; उसके बारे में सोचें, सपना देखें तथा उस विचार पर ही नज़र रखें। मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों व आपके शरीर के हर हिस्से को उस विचार से भरे रखें और अन्य हर विचार को छोड़ दें… सफलता प्राप्ति का यही सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।’ सो! उनका एक-एक शब्द प्रेरणास्पद होता है, जो मानव को ऊर्जस्वित करता है और जो भी इस राह का अनुसरण करता है; उसका सफल होना नि:संदेह नि:शंक है; निश्चित है; अवश्यंभावी है।

हां! आवश्यकता है—वर्तमान में जीने की, क्योंकि वर्तमान में किया गया हर प्रयास हमारे भविष्य का निर्माता है। जितनी लगन व निष्ठा के साथ आप अपना कार्य संपन्न करते हैं; पूर्ण तल्लीनता व पुरुषार्थ से प्रवेश कर आकंठ डूब जाते हैं तथा अपने मनोमस्तिष्क में किसी दूसरे विचार के प्रवेश को निषिद्ध रखते हैं; आपका अपनी मंज़िल पर परचम लहराना निश्चित हो जाता है। इस तथ्य से तो आप सब भली-भांति अवगत होंगे कि ‘क़ाबिले तारीफ़’ होने के लिए ‘वाकिफ़-ए-तकलीफ़’ होना पड़ता है। जिस दिन आप निश्चय कर लेते हैं कि आप विषम परिस्थितियों में किसी के सम्मुख पराजय स्वीकार नहीं करेंगे और अंतिम सांस तक प्रयासरत रहेंगे; तो मंज़िल पलक-पांवड़े बिछाए आपकी प्रतीक्षा करती है, क्योंकि यही है… सफलता प्राप्ति का सर्वोत्तम मार्ग। परंतु विपत्ति में अपना सहारा ख़ुद न बनना व दूसरों से सहायता की अपेक्षा करना, करुणा की भीख मांगने के समान है। सो! विपत्ति में अपना सहारा स्वयं बनना श्रेयस्कर है और दूसरों से सहायता व सहयोग की उम्मीद रखना स्वयं को छलना है, क्योंकि वह व्यर्थ की आस बंधाता है। यदि आप दूसरों पर विश्वास करके अपनी राह से भटक जाते हैं और अपनी आंतरिक शक्ति व ऊर्जा पर भरोसा करना छोड़ देते हैं, तो आपको असफलता को स्वीकारना ही पड़ता है। उस स्थिति में आपके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त अन्य कोई भी विकल्प शेष रहता ही नहीं।

सो! दूसरों से अपेक्षा करना महान् मूर्खता है, क्योंकि सच्चे मित्र बहुत कम होते हैं। अक्सर लोग विभिन्न सीढ़ियों का उपयोग करते हैं… कोई प्रशंसा रूपी शस्त्र से प्रहार करता है, तो अन्य निंदक बन आपको पथ-विचलित करता है। दोनों स्थितियां कष्टकर हैं और उनमें हानि भी केवल आपकी होती है। सो! स्थितप्रज्ञ बनिए; व्यर्थ के प्रशंसा रूपी प्रलोभनों में मत भटकिए और निंदा से विचलित मत होइए। इसलिये ‘प्रशंसा में अटकिए मत और निंदा से भटकिए मत।’ सो! हर परिस्थिति में सम रहना मानव के लिए श्रेयस्कर है। आत्मविश्वास व दृढ़-संकल्प रूपी बैसाखियों से आपदाओं का सामना करने व अदम्य साहस जुटाने पर ही सफलता आपके सम्मुख सदैव नत-मस्तक रहेगी। सो! ‘आज ज़िंदगी है और कल अर्थात् भविष्य उम्मीद है… जो अनिश्चित है; जिसमें सफलता-असफलता दोनों भाव निहित हैं।’ सो! यह आप पर निर्भर करता है कि आपको किस राह पर अग्रसर होना चाहते हैं।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – कुएँ का पानी (काव्य संग्रह) – कवयित्री – अपर्णा कडसकर ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 5 ?

?कुएँ का पानी (काव्य संग्रह) – कवयित्री – अपर्णा कडसकर ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम – कुएँ का पानी

विधा – कविता

कवयित्री – अपर्णा कडसकर

प्रकाशन – क्षितिज प्रकाशन, पुणे

 

? अंतस से उपजी ‘इनबिल्ट’ कविताओं का संग्रह  श्री संजय भारद्वाज ?

सेतु का जन्म

पहले हृदय में होता है,

बाद में ही हो सकता है

प्रत्यक्ष निर्माण!

कविता मानवता का सेतु है। इस सेतु के जन्म की पृष्ठभूमि को अभिव्यक्त करने के लिए उपरोक्त पंक्तियाँ सार्थक हैं। कोरी लफ़्फ़ाज़ी नहीं होती कविता। सच्ची कविता को पहले जीना पड़ता है, तब जाकर काग़ज़ पर उतरी शब्द-लहरी, सेतु बना पाती है। समाज की सोच को वही कविता प्रभावित कर सकती है जो भीतर से जन्मती है। कवयित्री अपर्णा कडसकर की सोच और कलम में कविता ‘इनबिल्ट’ है। यह इनबिल्ट प्रस्तुत कविता संग्रह ‘कुएँ का पानी’ में यत्र-तत्र-सर्वत्र दिखाई देता है।

यद्यपि कवयित्री कहती है,‘मुझे नहीं, मेरी कविता को जानो’ पर कविता को जानना, कवि को जानना होता है। व्यक्तित्व का परिचय हैं शब्द। भीतर और बाहर अंतर हो तो अंतस से नहीं उपजती कविता। जो कविता कवि के अंतस से नहीं उपजती, वह पाठक के अंतस को बेधती भी नहीं। कृत्रिम रूप से शब्दों की जुगत द्वारा हिज्जों की मदद से खड़ी कर भी ली जाए कविता तो ऐसी कृति संकर प्रजाति के फल-सी होती है, सुडौल, चटक पर बेस्वाद।

कविता, विशेषकर अतुकांत कविता में चमत्कृत करने की क्षमता होती है। घने बादलों की मूसलाधार बारिश के बाद सहसा इंद्रधनुष-सा प्रकट होता है कवित्व। यही चमत्कारी कवित्व अपर्णा की कुछ रचनाओं में दृष्टिगोचर होता है। यथा-

दुनिया कभी सर पे बिठा लेती है,

कभी ज़मीन पर पटक देती है,

लेकिन दुनिया छोड़ कर

कोई नहीं जाना चाहता,

…तुम मेरी दुनिया हो!

रचना की अंतिम पंक्ति काव्य का रस है। यह पंक्ति न केवल चमत्कृत करती है वरन रचनाधर्मी की बहुआयामी प्रतिभा को भी प्रकट करती है। प्रत्येक पाठक, अपने अनुभव जगत के आधार पर इस पंक्ति में अपने जीवन-दर्शन का दर्शन कर सकता है।

कविता का आलेख आरोही होना चाहिए। वैचारिक उधेड़बुन को मथकर नवनीत निकालने की इच्छा रखने वाले कवि की कविता अपनी यात्रा की दिशा, मार्ग और गंतव्य को लेकर स्पष्ट होती है। यह स्पष्ट-भाव रचना को उत्कर्ष पर ले जाता है। बानगी स्वरूप एक रचना का आरंभ बिंदु देखिए-

मुझे पता नहीं था

कोई आसमान होता है!…

इसी कविता का उत्कर्ष देखिए-

मुझे पता नहीं था

ऐसे भी कोई आसमान होता है!

कवयित्री अपने समय की साहित्यिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्थितियों में दख़ल रखती हैं। बिकाऊ विषयों विशेषकर स्त्री की दैहिकता को विषय बनाकर चर्चित होने की वृत्ति हो या इसके ठीक उलट स्त्री की सहज स्वतंत्रता को स्वच्छंदता निरूपित करने की मानसिकता हो, समाज की विभिन्न प्रकार की सोच के कटाक्ष झेलती कविता, कटाक्ष से ही प्रखर उत्तर देती है-

नहीं होगी मेरी कविता में

पुरुषों से अधिक बुद्धिमत्ता,

……….

स्त्री के लिए तथाकथित

अशोभनीय, अकल्पित,

असराहनीय, असाहित्यिक,

और हाँ अपौरुषेय कुछ भी,

नहीं मिलेगा कोई चिह्न

मेरे मनुष्य होने का,

नहीं होगी कविता बदनाम

 ….निश्चिंत रहो!

बदले काल में भी  लड़की  की ‘पौरुषेय’ परिभाषा को धता बताती लड़कियों में कवयित्री अपना प्रतिबिम्ब देखती हैं-

मुझे पसंद हैं लडकियाँ ,

थोड़ा डर-डरके ही सही

जो जीती हैं

मस्त, मज़ेदार ज़िंदगी

खुद के साथ,

अलग स्वतंत्र दुनिया में

बिलकुल मेरे जैसी…!

हिंदी आंदोलन परिवार में हमने एक सूत्र दिया है- ‘ जो बाँचेगा-वही रचेगा, जो रचेगा-वही बचेगा।’ रचने के लिए अनिवार्य है बाँचना। पुस्तकों से लेकर मनुष्य और मनुष्येतर जो कुछ है, उसे भी बाँचना। यह वाचन कवयित्री के सृजन में परिलक्षित होती है। यही कारण है कि चंद्रकांत देवल की पुस्तक से माधवी को जानकर उस पर आधारित कविताएँ हों, परवीन शाकिर से प्रेरित रचनाएँ हों, अमृता प्रीतम के प्रेम को समझने का प्रयास हो, अरुणा शानबाग की अमानवीय त्रासदी हो, स्त्री की वेदना और चेतना के विविध स्वर हों, साहित्यिक जगत के आडम्बर हों, किन्नरों के प्रश्न हों, पर्यावरण विमर्श हो, प्रेम के रंग हों, कल्पना हो या यथार्थ, निराशा हो या जिजीविषा, सभी कुछ अपर्णा कडसकर के कवित्व की परिधि में आता है। माधवी के संदर्भ में स्थापित मूल्यों की दारुण शोकांतिका द्रष्टव्य है-

निष्काम स्त्रियों को

यही फल मिलता है कि

वे निर्फल रह जाती हैं..!

अपर्णा कडसकर की यह पहली पुस्तक है। पुस्तकों की संख्या मायने नहीं रखती। शिल्प में सुघड़ता, भाव में अबोधता और कहन में परिपक्वता हो तो प्रश्नों के बीच प्रसूत होती कविता, प्रश्नों का उत्तर बन जाती है, औरत की तरह। बस इन उत्तरों को पढ़ने, समझने की व्यापक दृष्टि पाठक में होनी चाहिए। बकौल कवयित्री-

प्रश्नोें के बीच ही

पैदा होती हैं औरतें,

औरतों को पता  होते हैं

उनके जवाब,

बस वे जवाब नहीं देती!

साहित्यिक जगत में अपर्णा कडसकर की उम्मीद जगाती कविताओं का स्वागत है। अनेकानेक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 14 – नवगीत – माँ शारदा वंदन… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत –माँ शारदा वंदन

? रचना संसार # 13 – नवगीत – माँ शारदा वंदन…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

हे शारदे करुणामयी माँ,भक्त को पहचान दो।

श्वेतांबरा ममतामयी माँ,श्रीप्रदा हो ध्यान दो।।

गूँजे मधुर वाणी जगत में,वल्लकी बजती रहे।

कामायनी माँ चंद्रिका सुर,रागिनी सजती रहे।।

वागीश्वरी है याचना भी,भक्त का उद्धार हो।

विद्या मिले आनंद आए,प्रेम की रसधार हो।।

आभार शुभदा है शरण लो,बुद्धि का वरदान दो।

 *

उल्लास दो नव आस दो प्रिय,ज्ञान की गंगा बहे।

चिंतन मनन हो भारती का,लेखनी चलती रहे।।

मैं छंद दोहे गीत लिख दूँ,नव सृजन भंडार हो।

आकाश अनुपम गद्य का हो,प्रार्थना स्वीकार हो।।

भवतारिणी तम दूर हो सब,नित नवल सम्मान दो।

 *

तुम प्रेरणा संवाहिका हो,चेतना संसार की।

वासंतिका हो ज्ञान की माँ,पद्य के शृंगार की।।

साहित्य में नवचेतना हो,कामना कल्याण भी।

संजीवनी हिंदी सुजाता,श्रेष्ठ हो मम प्राण भी।।

आलोक प्रतिभा हो धरा की,लक्ष्य का संधान दो।

 *

भामा कहें महिमामयी माँ,प्राणदा भावार्थ हो।

त्रिगुणा निराली साधना हो,भावना परमार्थ हो।।

हर क्षेत्र में साधक सफल हो ,चँहुदिशा जय घोष हो।

विपदा टरे उत्कर्ष हो माँ,ज्ञान संचित कोष हो।।

उत्थान हो इस देश का भी,शांति का परिधान दो।

 

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected][email protected]

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #241 ☆ भावना के दोहे – – मेघ ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे – मेघ)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 241 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे – मेघ ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

घिरे मेघ अब कह रहे,  सुनो गीत मल्हार।

बरसेंगे हम झूम के, नाचेगा संसार।।

**

मेघ गरजते दे रहे, प्यारा सा संदेश।

देखो साजन आ रहे, वापस अपने देश।।

**

रिमझिम रिमझिम आ रही, है वर्षा की  फुहार।

 आ जाओ अब सजन तुम, आया है त्योहार।।

**

मौसम है बरसात का, गिरी कृषक पर गाज।

खेत लबालब हैं भरे , मेघ बरसते आज ।।

**

जगह – जगह पर बाढ़ है,  उजड़ रहे घरबार।

खोज रहे हैं हम सभी , नहीं बचा  परिवार।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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