हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 15 – संस्मरण # 9 – भुलक्कड़ बाबू ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – भुलक्कड़ बाबू)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 15 – संस्मरण # 9 – भुलक्कड़ बाबू ?

कुछ लोग अत्यंत साधारण होते हैं और साधारण जीवन जीते हैं फिर भी वह अपनी कुछ अमिट छाप छोड़ जाते हैं। ऐसे ही एक अत्यंत साधारण व्यक्तित्व के साधारण एवं सरल स्वभाव के व्यक्ति थे बैनर्जी बाबू।

बनर्जी बाबू का पूरा नाम था आशुतोष बैनर्जी। हम लोग उन्हें बैनर्जी दा कहकर पुकारते थे। उनकी पत्नी शीला बनर्जी और मैं एक ही संस्था में कार्यरत थे। हम दोनों में वैसे तो कोई समानता ना थी और ना ही विषय हमारे एक जैसे थे लेकिन हम उम्र होने के कारण हमारी अच्छी दोस्ती हो गई थी। शीला विज्ञान विषय पढ़ाती थी और मैं हिंदी।

शीला कोलकाता की निवासी थी। यद्यपि हिंदी भाषा के साथ दूर तक उसका कोई संबंध नहीं था पर मेरी कहानियाँ वह बड़े चाव से पढ़ती थी। वह अंग्रेज़ी कहानियाँ पढ़ने में रुचि रखती थी फिर चाहे वह बच्चों वाली पुस्तक एनिड ब्लायटन ही क्यों न हो। अगाथाक्रिस्टी की कहानियाँ और शिडनी शेल्डन उसे प्रिय थे। अपने बच्चों के साथ हैरी पॉटर की सारी कहानियाँ भी वह पढ़ चुकी थीं। वह इन सभी लेखकों की कहानियाँ रात भर में पढ़ने का प्रयास करती थी। दूसरे दिन एक साथ जब हम विद्यालय की बस में बैठकर यात्रा करते तब उन कहानियों की मूल कथा वह मुझे सुनाती। कभी-कभी इन कहानियों से हटकर उसके पति बनर्जी साहब के कुछ रोचक किस्से भी सुनाया करती थी।

बनर्जी दा को न जाने हमेशा किस बात की हड़बड़ी मची रहती थी। जब भी वह मिलते कहीं जल्दी में जाते हुए सारस की – सी डगें भरते हुए या तीव्रता से अपनी पुरानी वेस्पा पर सवार दिखते थे। चलो चलो जल्दी करो उनका तकिया कलाम ही था। हर बात के लिए वे इस वाक्य का उपयोग अवश्य करते थे। हर बात में हड़बड़ी, हर बात में जल्दबाज़ी और अन्यमसस्क रहना ही उनकी खासियत थी। इसीलिए शीला के पास अक्सर हमें सुनाने के लिए बैनर्जी दा के रोज़ाना नए किस्से भी हुआ करते थे।

दस वर्ष शीला के साथ काम करते हुए तथा एक साथ काफी वक्त साथ बिताने के कारण दोनों परिवार में एक पारिवारिक संबंध – सा ही जुड़ गया था। कई किस्सों के हम गवाह भी रहे और खूब लुत्फ़ भी उठाए। पर उनके हजारों किस्सों में से कुछ चिर स्मरणीय और हास्यास्पद तथा रोचक किस्सों का मैं यहाँ जिक्र करूँगी।

शीला की दो बेटियाँ थीं। काजोल और करुणा। काजोल बड़ी थी और अभी हमारे ही स्कूल में दसवीं कक्षा की बोर्ड की परीक्षा देकर छुट्टियों के दौरान बास्केटबॉल की ट्रेनिंग ले रही थी। वह शीला के साथ ही आना-जाना करती थी। अप्रैल का महीना था नया सेशन शुरू हुआ था पर 10वीं की बोर्ड परीक्षा समाप्त होने के बाद भी छात्रों को स्कूल में आकर खेलने की इजाज़त थी। करुणा दूसरे विद्यालय में पढ़ती थी।

खेलते – खेलते एक दिन काजोल छलाँग मारती हुई बास्केट में बॉल डालने का प्रयास कर रही थी कि वह गिर पड़ी और उसका दाहिना पैर टखने के पास से टूट गया। शीला ने बनर्जी दा को फोन पर इस बात की जानकारी दी। काजोल का पैर टूट जाने की खबर सुनाकर उसने उन्हें यह भी बताया कि वह पास के अस्पताल में पहुँचे। शीला ने अस्पताल का नाम भी बताया।

हम पहले ही बता चुके हैं कि बनर्जी दा हमेशा ही अन्यमनस्क रहते थे। न जाने हड़बड़ी में उन्होंने क्या सुना वे जल्दबाजी में अस्पताल तो पहुँचे पर वहाँ पूछताछ की खिड़की पर वे करुणा बनर्जी के बारे में ही पूछते रहे। जब उन्हें पता चला कि उस नाम का कोई पेशेंट वहाँ नहीं है तो वह उस इलाके के हर अस्पताल में चक्कर काटते रहे। पर काजोल नाम उनके ध्यान में आया ही नहीं।

उधर शीला घायल बेटी को लेकर एक्सरे रूम में बैठी रही। जब दो-तीन घंटे तक बनर्जी दा का कुछ पता ना चला तो उसने फिर घर पर फोन किया तो किसी ने फोन नहीं उठाया। उन दिनों मोबाइल का कोई प्रचलन हमारे देश में नहीं था। केवल लैंडलाइन की सुविधा ही उपलब्ध थी। शीला समझ गई कि उसके पति निश्चित ही हमेशा की तरह हड़बड़ी में कहीं और पहुँच गए होंगे। उस दिन शीला को बहुत परेशानियों का सामना करना पड़ा। घर जाने पर जब असलियत का पता चला तो शीला बनर्जी दा पर बस बरस ही पड़ी।

एक बार शीला बहुत बीमार पड़ी। शाम के समय स्कूल छूटने के बाद कुछ सहकर्मी महिलाएँ विद्यालय की बस पकड़ कर शीला से मिलने उसके घर पहुँची।

घंटी बजी। शीला को तेज बुखार था वह बिस्तर से उठ न सकी। बनर्जी दा अभी-अभी शीला के लिए दवाइयाँ लेकर घर लौटे थे। वे बाहर पहने गए कपड़े बदल रहे थे। घंटी बजते ही वे जल्दबाज़ी में कपड़े पहने और दरवाज़ा खोलकर सबका स्वागत किया। महिलाओं को शीला के कमरे में ले गए।

उन्हें देखते ही साथ सभी महिलाएँ अपनी आवाज़ दबाए हँसने लगीं। बनर्जी दा उन्हें शीला के पास बेडरूम में बिठाकर सब के लिए उत्साहपूर्वक चाय बनाने चले गए। फिर ट्रे में चार प्याली चाय लेकर वे आए। महिलाएँ

तब भी हँसती हुई नज़र आईं। शीला को हमेशा ही अपने पति की अन्यमनस्कता और हड़बड़ी की आदत की चिंता रहती थी। उसने जब बनर्जी दा की ओर देखा तो पता चला कि अपने पजामे की जगह पर उन्होंने अलगनी से शीला का पेटीकोट उठाकर पहन लिया था और शर्ट के नीचे से उसका नाड़ा लटक रहा था। वह बेचारी शर्म के मारे गड़ी जा रही थी। तीन-चार दिनों के बाद जब वह स्कूल आई तो किसी से वह आँख न मिला पाई।

चूँकि शीला भी नौकरीपेशा थी इसलिए बनर्जी दा घर से टिफन लेकर दफ्तर जाते थे। दोपहर की छुट्टी में वे घर नहीं जाते थे। उस दिन शाम को जब दफ्तर से छूटे तो टिफिन की अपनी थैली उठाए घर चले आए। शीला ने जब टिफन धोने के लिए थैला खोला तो उसमें से दो ईनो सॉल्ट की काँच की बोतलें निकलीं। एक में पीले रंग का तरल पदार्थ था और दूसरे में मल। जब उसने बनर्जी दा से पूछा तो वे झेंप से गए, ” बोले शायद मैं शर्मा साहब की थैली गलती से उठा लाया हूँ। शाम को दफ्तर छूटने से थोड़ी देर पहले ही उनका बड़ा बेटा यह थैला रख कर गया था। सुना है उनके छोटे बेटे को जॉन्डिस हुआ है।

शीला को समझने में देरी न लगी कि अपनी थैली टिफन बॉक्स समेत पति महोदय वहीं दफ्तर में छोड़ आए थे और शर्मा जी के बेटे के स्टूल टेस्ट के लिए दी जाने वाली बोतलों वाली थैली उठा लाए थे। दूसरे दिन दफ्तर में बनर्जीदा की खूब खिंचाई हुई और टिफन बॉक्स ना रहने के कारण बाहर जाकर भोजन खाना पड़ा।

एक बार बनर्जी दा और शीला स्कूटर पर बैठ कर किसी मित्र के घर के लिए निकले थे। उस मित्र के घर जाने से पहले एक रेलवे लाइन पड़ती थी। उस वक्त जब वे वहाँ पहुँचे तो रेलवे लाइन का फाटक बंद हो गया था। पाँच – सात मिनट के बाद रेलगाड़ी वहाँ से गुज़रने वाली थी। भीड़ – भाड़ वाली जगह पर स्कूटर पर बैठे रहने से बेहतर शीला ने स्कूटर से उतरकर थोड़ी देर खड़ी रहना पसंद किया। उसने बनर्जी दा की कमर से अपना हाथ हटा लिया और वहाँ स्कूटर के पास खड़ी हो गई। थोड़ी देर बाद जब फाटक खुला बनर्जी दा हड़बड़ी में बिना शीला को लिए फाटक पार कर आगे निकल गए। जब तक शीला उन्हें पुकारती वह काफी दूर पहुँच चुके थे। पीछे से कुछ लोगों ने जाकर हॉर्न बजाया और बनर्जी दा को बताया कि आपकी पत्नी फाटक के उस पार छूट गई हैं। तब वे फिर फाटक के पास लौट कर आए। उस दिन शीला इतनी नाराज़ हुई कि उसने बनर्जी दा से कहा कि तुम हमारे मित्र के घर चले जाओ मैं एक रिक्शा पकड़ कर घर जा रही हूँ। उनसे कह देना मेरी तबीयत ठीक नहीं।

हमारे विद्यालय में एक बार प्रधानाचार्य ने हस्बैंड ईव कार्यक्रम का आयोजन रखा। इस कार्यक्रम का उद्देश्य था कि सभी विवाहिता शिक्षिकाओं के पतियों का आपस में मेलजोल हो। यह एक छोटा – सा कार्यक्रम था और उन दिनों के लिए यह एक नई कल्पना थी। सभी बहुत उत्साह और कुतूहल से इस ईव की प्रतीक्षा कर रहे थे। हमारे विद्यालय में शिक्षिकाओं की संख्या ही अधिक थी। संस्था की खासियत भी यही थी कि विद्यालय को विशिष्ट ढंग से हर कार्यक्रम के लिए सजाया जाता था। उस दिन भी उस हस्बैंड ईव के लिए विद्यालय के प्रांगण को पार्टी लुक दिया गया और इसके लिए शिक्षिकाओं को जल्दी बुलाया गया।

शीला बनर्जी दा की कमीज़ मैचिंग टाई, सूट व पतलून बिस्तर पर रख आई थी। साथ में दो जोड़े जूते भी बिस्तर के पास फर्श पर रखकर आई थी। साफ हिदायतें भी दी थी कि वे जो उचित लगे वह जोड़े पहन लें।

सभी हस्बैंड खास तैयार होकर आए। महफिल जमी, कई पार्टी गेम्स का आयोजन किया गया था। टग ऑफ वॉर, म्यूजिकल चेयर, हाउज़ी, आदि खेलों द्वारा सबका मनोरंजन भी किया गया। विभिन्न खेलों में जीते गए लोगों को पुरस्कृत भी किया गया। एक खास पुरस्कार ऐसे व्यक्ति के लिए था जो पार्टी में सबसे अलग हो और उठकर दिखे। और यह पुरस्कार बनर्जी दा को ही मिला कारण था वे दो अलग रंग व डिजाइन के शूज़ पहनकर विद्यालय आए थे। शीला ने जब उन्हें गेट से भीतर आते देखा तो उसे खुशी हुई कि उसके पति महोदय ठीक-ठाक तैयार होकर ही आए थे पर जब पुरस्कार की घोषणा हुई वह बेचारी मारे शर्म के पानी – पानी हो गई।

हमारे विद्यालय की प्रधानाचार्य बहुत बुद्धि मती तथा व्यवहारकुशल थीं। उन्होंने बड़े करीने से परिस्थिति को संभाल लिया और माइक पर बैनर्जी दा का नाम घोषित करती हुई बोली, “दूसरों पर हँसना बड़ा आसान होता है पर जो व्यक्ति अपने आप पर दूसरों को हँसने का मौका देता है वह इस संसार का सबसे बड़ा विनोदी व्यक्ति होता है और आज इस पुरस्कार के हकदार श्रीमान बनर्जी हैं। “

बनर्जी दा के सिर में बहुत कम बाल थे। यह कहना अतिशयोक्ति ना होगी कि वे गंजे ही थे। लेकिन घंटों आईने के सामने खड़े होकर बड़े करीने से अपने सात आठ बाल जो अब भी सिर पर बचे हुए थे उन्हें बाईं तरफ से दाईं तरफ कंघी फेरकर सेट किया करते थे।

जाड़े के दिन थे। नारियल का तेल जम गया था। रविवार का दिन था तो कोई जल्दी भी नहीं थी। शीला बाज़ार गई थी। बनर्जी दा ने नारियल तेल की बोतल धूप में रखी ताकि तेल गल जाए। उसी बोतल के साथ उनकी बड़ी बेटी काजोल ने अपने एन.सी.सी के जूते चमकाने के लिए काली पॉलिश भी धूप में रख छोड़ी थी। बनर्जी दा नहा- धोकर आए और अन्यमनस्कता से हड़बड़ी में बिना आईने में देखे सिर पर तेल लगाने के बजाय जूते की पॉलिश लगा ली। उस पॉलिश में किसी प्रकार की कोई गंध न थी जिस कारण उन्हें तेल और पॉलिश के बीच का अंतर समझ में नहीं आया। वैसे भी वह अन्यमनस्क प्राणी थे।

शीला के साथ उस दिन मैं भी बाजार गई थी। सामान लेकर कॉफी पीने के लिए हम उसके घर पहुँचे तो बनर्जी दा ने ही दरवाजा खोला। उनका गंजा सिर जूते के काले पॉलिश से तर हो रहा था और वे वीभत्स- से दिख रहे थे। मेरी तो ऐसी हँसी छूटी कि मैं खुद को रोक न सकी पर शीला उनके इस अन्यमनस्कता से बहुत परेशान थी। पर चूँकि मैं ही उसके साथ थी तो गुस्सा थूककर वह भी ज़ोर – ज़ोर से हँस पड़ी। बनर्जी दा फिर से नहाने चले गए।

काजोल उन दिनों चंडीगढ़ में पी.जी.आई में मेडिकल की पढ़ाई कर रही थी। शीला और बनर्जी दा उससे मिलने जा रहे थे। वे दोनों दिल्ली स्टेशन पहुँचे। दिल्ली से शताब्दी नामक रेलगाड़ी चलती थी। सुबह शताब्दी नाम से कई ट्रेनें चलती थीं। पाँच -दस मिनट के अंतर में शताब्दी नामक ट्रेन अलग-अलग प्लेटफार्म से भी छूटती थीं। प्रातः 6:30 बनर्जी दा और शीला चंडीगढ़ जाने के लिए रवाना हुए। स्टेशन पर पहुँचे हड़बड़ी में वे दोनों एक शताब्दी नामक ट्रेन में बैठ गए। सीट नंबर देखा तो वे भी खाली ही मिले। लंबी यात्रा के कारण दोनों थके हुए थे। उस दिन शीला ने भी ज्यादा ध्यान ना दिया। गाड़ी चल पड़ी। घंटे भर बाद जब टीसी आया तो पता चला कि वे अमृतसर जाने वाली गाड़ी में सवार थे। अब क्या था शताब्दी जहाँ अगले स्टेशन पर रुकने वाली थी उस स्टेशन तक का किराया तो उनको देना ही पड़ा साथ ही निर्धारित दिन और समय पर वे दोनों चंडीगढ़ न पहुँच सके।

एक और मजेदार किस्सा पाठकों के साथ साझा करती हूँ। दफ्तर के किसी कॉन्फ्रेंस के लिए बनर्जी दा को कोलकाता जाना था। फ्लाइट का टिकट था दफ्तर के कुछ और भी दूसरे लोग साथ जाने वाले थे। तीन दिन का काम था। उनके दोस्त ने टिकट अपने पास ही रखा क्योंकि बनर्जी दा भुलक्कड़ स्वभाव के आदमी थे। शीला ने पति महोदय को दफ्तर के लोगों के साथ बातचीत करते हुए सुना था वह निश्चिंत थी कि वे समय पर एयरपोर्ट पहुँच जाएँगे। शाम को 6:00 बजे की फ्लाइट थी बनर्जी दा 3:30 बजे घर से निकले 5:30 बजे वे घर भी लौट आए। बाद में पता चला कि उनकी फ्लाइट सुबह 6:00 बजे की थी ना कि शाम के 6:00 बजे की।

पतिदेव से विस्तार मालूम होने पर शीला ने तो अपना सिर ही पीट लिया।

बैनर्जी दा को गुज़रे आज कई वर्ष बीत चुके। शीला ने भी संस्था छोड़ दी और वह कोलकाता लौट गई पर मेरे पास बैनर्जी दा की हड़बड़ी और अन्यमनस्कता के इतने किस्से हैं कि मैं जब याद करती हूँ तो मुझे ऐसा लगता है कि कल की बातें हैं। हँसी के वे पल थे तो बड़े ही सुखद ! बनर्जी दा तो आज हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी याद आज भी ताजा है।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 88 – देश-परदेश – पिता के संस्कार और परंपरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 88 ☆ देश-परदेश – पिता के संस्कार और परंपरा ☆ श्री राकेश कुमार ☆

पिता शब्द सुनते ही अनुशासन का बोध होने लगता हैं। ऐसा हम इस दावे के साथ कह सकते है, कि पिताजी के पिता यानी हमारा दादा जी के समक्ष पिता जी की भी चूं नहीं निकलती थी।

पिता जी पच्चास वर्ष से ऊपर की आयु के होंगे, लेकिन दादा जी के समक्ष छोटे से युवा के समान पेश आते थे। दादा जी की दृष्टि भी बहुत कमजोर हो चुकी थी। प्रतिदिन जब देर रात्रि पिताजी दुकान को बढ़ा /मंगल कर घर आते तो दुकान की चाबियां और धन राशि की पोटली दादा जी को सम्मान पूर्वक दे दिया करते थे।

दादा जी परिवार के किसी भी सदस्य को बुला कर धन राशि और चाबियां घर की एक अलमारी में रख कर उसकी चाबी को अपने पास सहेज कर रख लेते थे।

हम सब भाई/ बहिनों ने वर्षों तक ये क्रम देखा और महसूस भी किया कि बड़े बुजर्गों का सम्मान और इज्ज़त कैसे की जाती है।

पिताजी की इन आदतों को देख कर हमारे में भी ये संस्कार कब आ गए, ज्ञात ही नहीं हुआ। ये सब संभव हुआ हमारे पिताजी के कारण, उनका अनुशासन पालन एक मिसाल हैं।

पिताजी की बराबरी तो नहीं कर सकते, परंतु उनके द्वारा स्थापित परंपराएं और परिवार के प्रति कर्तव्य प्रयंता के निर्वहन को जारी रखने के लिए कटिबद्ध हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #242 ☆ अमर्ष… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 242 ?

☆ अमर्ष ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

अधी तुझ्यातलाच तू अमर्ष आज नष्ट कर

तुला कसे जगायचे रिवाज आज स्पष्ट कर

*

अजन्म कष्ट पाठिशी शरीर धष्टपुष्ट कर

प्रसन्नता फुलावया स्वतःस तूच तुष्ट कर

*

प्रसंग पाहुनी कधी स्वतः स्वतःस दुष्ट कर

समोर सिंह पाहता नको दया वितुष्ट कर

*

मनात मोद जागता अमूर्तता वरिष्ठ कर

वनाप्रती अखंड तू सुजान भाव निष्ठ कर

*

मिठातल्या खड्यातुनी पदार्थ तू चविष्ट कर

असेल कारले घरी तरी तयास मिष्ट कर

*

विभागलीत माणसे स्वतःस तू विशिष्ठ कर

दुही नकोस वाढवू स्वतःस एकनिष्ठ कर

*

विचार दूरचा नको मितीस याच कष्ट कर

कुटुंब, दुःख, वेदना स्वतःस तूच द्रष्ट कर

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ ज्ञानमंदिर… ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? – ज्ञानमंदिर – ? ☆श्री आशिष  बिवलकर ☆

चित्रकाव्य : “ ज्ञानमंदिर “ 

*

शैक्षणिक वर्ष | आज सुरुवात |

मुले आनंदात | शाळेमध्ये ||१||

*

शिक्षकांच्या मनी | ओसंडला हर्ष |

स्वागत सहर्ष | विद्यार्थ्यांचे ||२||

*

दोन महिन्यांची | संपलीय सुट्टी |

जमणार गट्टी | वर्षंभर ||३||

*

शाळेतली घंटा | रोज वाजणार |

प्रार्थना होणार | शारदेची ||४||

*

सरस्वती पूजा | विद्येचा संकल्प |

नवीन प्रकल्प | अभ्यासात ||५||

*

नवीन पुस्तकं | वही व लेखणी |

रोज उजळणी | अभ्यासाची ||६||

*

किलबिल गुंजे | ज्ञान मंदिरात |

शुभ सुरवात | मांगल्याची ||७||

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 195 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 196 – कथा क्रम (स्वगत)✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

☆ 

इच्छित कार्य का सम्पादन

ययाति की

विनीत और अबूझ

वचनावली से आश्चर्य आहत थे

गालव और गरुड़।

आश्चर्य भेदन किया

ययाति ने –

मैं आपको सौंपता हूँ।

अपनी

देवकन्यासी कांतिवाली

अक्षत योनि कन्या

माधवी

जो करेगी

चार कुलों की स्थापना

और वृद्धि करेगी

सम्पूर्ण धर्म की।”

“हे। ऋषिवर

इस रूपवती गुणवती

को पाने

सुर, असुर, और मनुष्य

सभी लालायित है

आतुर हैं।”

ग्रहण करें

मेरी पुत्री

और

सिद्ध करें

अपना अभीष्ट।

जो

इससे करना चाहे

हो—

 क्रमशः आगे —

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 195 – “कड़ियों शहतीरों में…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “कड़ियों शहतीरों में...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 195 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “कड़ियों शहतीरों में...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

पूछे मेहराब से

डरे अनाथ कंगूरे

राजपाट चलागया

हम रहेअधूरे

 

कड़ियों शहतीरों में

चिह्न राजवंशो के

टूटकर बिखर गये

बचे अंश ध्वंशों के

 

अर्दली दरवान सभी

वक्त रहे निकल गये

जो थे विश्वास पात्र

आधे अधूरे

 

रेगरेंग चलते थे

ड्योढ़ी के जो आगे

वे सब बौने सेवक

फेरफेर मुँह भागे

 

दारोगा प्रहरी सब

या फिर दीवान सभी

लगा यहाँ करते थे

कभी कनखजूरे

 

तुर्कीटोपी और हेट

लगाये तिरछे

भागते रहे आये

जो घोड़ों के पीछे

 

इनकी अपनी बिसात

वैसे तो कुछ न थी

ऐंठ चला करते थे

राजसी जमूरे

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

16-06-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १७ – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है।

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  – “डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १५ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कविवर – पंडित गोविंद प्रसाद तिवारी ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १६ – “औघड़ स्वाभाव वाले प्यारे भगवती प्रसाद पाठक” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # १७ ☆

डॉ. श्री राम ठाकुर दादा- समाज सुधारक☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

जीवन तो मिलता नहीं, हमको बारंबार।

ईश्वर ने हमको दिया, ये अमूल्य उपहार॥

मनुष्य चूँकि सामाजिक प्राणी है, अतः समाज के सर्वजनीन और सर्वकालीन सरोकारों की दृष्टि से आदर्श व्यक्ति और उसके साथ आदर्श व्यक्तित्व की कसौटी है। इस कसौटी पर खरे उतरने वाले व्यक्ति समाज के दिशादर्शक और सच्चे अर्थों में समाज के निर्माता होते हैं। जो विभिन्न माध्यमों से अपने इस महायज्ञ में निर्लिप्त भाव से संलग्न होते हैं। ऐसा ही एक व्यक्तित्व डॉक्टर श्री राम ठाकुर दादा के नाम से पहचाना जाता है।

कृतिकार रहे ना रहे, कृति जीवित रहती है जिसके माध्यम से कृतिकार अमर हो जाता है। हम स्मरण करते हैं स्वर्गीय डॉक्टर श्री राम ठाकुर ‘दादा’ को जो आज हमारे बीच नहीं हैं परंतु जिन्होंने कविता ‘ कहानी ‘लघु कथा’ व्यंग्य, उपन्यास, संस्मरण आदि अपना संपूर्ण साहित्य हमें दिया। हम उनके कृतज्ञ हैं निश्चित तौर पर दादा ने सद्‌कार्य करते हुए साहित्य सृजन किया। साहित्य समाज का दर्पण होता है और साहित्यकार एक सच्चा समाज सुधारक होता है विशाल व्यक्तित्व के धनी थे। ‘दादा’ यानि सिर्मौर।

संस्कारधानी जबलपुर के साहित्यकार -डॉक्टर श्री राम ठाकुर “दादा?

फूलों की सुगंध वायु के विपरीत नहीं जाती है परंतु मानव के गुणों की सुगंध चारों ओर जाती है।

व्यंग्यकार : डॉ. श्री राम ठाकुर “दादा” का लेखन परिवेश

जन्म :- 28 जनवरी 946 ग्राम बारंगी, तहसील सोहागपुर, जिला होशंगाबाद

शिक्षा: – एम.ए., पी.एच. डी. (संस्कृत), साहित्य रत्न (हिंदी)

सृजन :- व्यंग्य लेख, कविताएं, लघुकथाएं, उपन्यास, कहानियां

मध्य प्रदेश के रचनाधर्मियों की संपर्क संचयिका ‘हस्ताक्षर’ सृजनधर्मी, साहित्य अकादमी की हुजह॒ ऑफ इंडिया राइटर्स, एशिया इंटरनेशनल, की लर्नेंड इंडिया, हिंदी साहित्यकार संदर्भ कोष, ” हू ज हू ‘ इन मध्यप्रदेश हिंदी आदि परिचय ग्रंथों में उल्लेखा

पुस्तकें- दादा के छक्‍्के- हास्य व्यंग काव्य संग्रह, अभिमन्यु का सत्ताव्यूह- लघुकथा संग्रह, ऐसा भी होता है -व्यंग्य निबंध, पच्चीस घंटे- व्यंग्य उपन्यास” सृजन परिवेश,

मेरी प्रतिनिधि व्यंग्य रचनाएं- गद्य व्यंग्य, प से पर्स, पिल्‍ला और पति -व्यंग्य लेख, दादा की रेल यात्रा- व्यंग्य खंडकाव्य, अफसर को नहीं दोष गुसाईं -व्यंग्य लेख, स्वतंत्रयोत्तर संस्कृत काव्य में हास्य व्यंग्य – शोध ग्रंथ, आत्म परिवेश, दांत दिखाने के- व्यंग्य लेख, मेरी प्रिय छब्बीस कहानियां -निजी कहानी संग्रह, मेरी एक सौ इक्कीस लघु कथाएं, बात पते की -व्यंग्य निबंध, मेरी इक्यावन व्यंग्य रचनाएं (गद्य)

संपादन- साहित्य निर्देशिका, पोपट, अभिव्यक्ति एवं दूरसंचार विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिका नर्मदा संचार का संपादन

प्रसारण- दूरदर्शन, सिटी केबल, डायनामिक मीडिया से रचनाएं प्रसारित, जबलपुर, भोपाल, रायपुर, रीवा, छतरपुर, बालाघाट, जगदलपुर आकाशवाणी केंद्रों से रचनाएं प्रसारित।

पुरस्कार सम्मान और अलंकरण- मध्य प्रदेश साहित्य परिषद द्वारा पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पुरस्कार, मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा वागीश्वरी पुरस्कार, मध्य प्रदेश लेखक संघ द्वारा पुष्कर जोशी सम्मान, जबलपुर पत्रकार संघ द्वारा हरिशंकर परसाई स्मृति पुरस्कार, करवट कला परिषद भोपाल द्वारा रत्र भारती पुरस्कार, पत्रकार विकास मंच जबलपुर द्वारा परसाई सम्मान -95, मित्र संघ जबलपुर द्वारा विशिष्ट कवि सम्मान, अखिल भारतीय कला संस्कृति, साहित्य परिषद मथुरा उत्तर प्रदेश द्वारा साहित्य अलंकार सम्मान उपाधि » महाप्रबंधक जबलपुर दूरसंचार द्वारा हिंदी पुस्तक लेखक सम्मान, अखिल भारतीय साहित्य कला मंच मुरादाबाद (उ. प्र.) द्वारा डॉ. परमेश्वर गोयल व्यंग्य शिखर सम्मान, साहित्यिक सांस्कृतिक कला संगम अकादमी परियावा, प्रतापगढ़ (उत्तर प्रदेश) द्वारा विवेकानंद सम्मान, मध्य प्रदेश लघुकथाकार परिषद द्वारा व्यंग्यकार रासबिहारी पांडे स्मृति सम्मान अलंकरण, मध्य प्रदेश नवलेखन संघ भोपाल द्वारा साहित्य मनीषी सम्मान, अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच पटना द्वारा डॉ. परमेश्वर गोयल लघुकथा शिखर सम्मान, सृजन सम्मान संस्था रायपुर द्वारा “लघुकथा गौरव सम्मान, अखिल भारतीय अंबिका प्रसाद दिव्य स्मृति रजत अलंकरणा इनके अतिरिक्त देश के विभिन्न नगरों में आयोजित कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ कई गोष्टियों व समारोहों में व्याख्यान एवं अनेक संस्थाओं द्वारा स्वागत एवं सम्मान।

डॉ. श्री राम ठाकुर दादा का नाम किसी परिचय का मुखापेक्षी नहीं है। विगत 40 वर्षों से अधिक वर्षों से भी अपनी व्यंग्य रचनाओं से जनमानस को गुदगुदाते रहे हैं और एक वैचारिक आंदोलन को बड़ी सहजता से चला रहे हैं। उनकी लघुकथाएं चेतना के विभिन्न स्तरों पर पाठकों को झकझोरती रही हैं और अपनी तरह के अनूठे मौलिक शिल्प वाला उपन्यास लिखकर वे चर्चाओं के केंद्र में रहे हैं। मध्य प्रदेश साहित्य परिषद में “पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पुरस्कार तथा मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के वागीश्वरी पुरस्कार की चर्चा जब भी होती है तो जबलपुर के संदर्भ में दादा का उल्लेख अनिवार्य होता है। आकाशवाणी और दूरदर्शन के अतिरिक्त विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में दादा की उपस्थिति सहज रूप से दिखलाई देती है।

हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रविंद्र नाथ त्यागी, श्रीलाल शुक्ल और उनके समकालीन साहित्यकारों ने साहित्य में व्यंग्य को विशिष्ट स्थान दिलाने में सफलता प्राप्ति की। वहीं उनके बाद की पीढ़ी के साहित्यकारों ने इसे समृद्ध किया और निखारा भी। इन रचनाकारों में डॉ. श्री राम ठाकुर “दादा? का महत्वपूर्ण स्थान है।

समाज में फैली विद्वरूपताओं, भ्रष्टाचार, असमानताओं, कुरीतियों, भाई- भतीजावाद, लोगों के बदले नैतिक मूल्य आदि पर जितनी तीखी चोट व्यंग्य कर सकता है उतनी अन्यथा कोई विधा नहीं। व्यंग्य  वर्तमान व्यवस्था पर लिखा जाता है उसका प्रभाव भी तात्कालिक होता है किंतु पाठक वर्ग में यह सदैव अभिरुचि का साहित्य रहा है इसी का प्रतिफल है कि आज साहित्य में व्यंग्य की अलग पहचान है।

स्वतंत्र उत्तर संस्कृत काव्य में हास्य व्यंग – *दादाः अत्यंत पढ़ाकू और परिश्रमी व्यक्ति थे। वे किसी कार्य को करने की ठान लेते तो अपने श्रम और निष्ठा के बल पर पूरी करके ही दम लेते थे।

इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है पी .एच . डी. करना। “दादा? ने अपनी संपूर्ण शिक्षा दूरसंचार विभाग में नौकरी करते हुए प्राप्त की है। एक तरफ पढ़ाई, दूसरी तरफ गृहस्थी और तीसरी तरफ साहित्य सृजन और चौथी तरफ साहित्यिक गोष्ठियों का आयोजन में भागीदारी करना। इन सब क्षेत्रों में मेहनत और लगन से वे हमेशा अग्रणी रहे और उन्होने पी .एच .डी. भी ऐसे मौलिक एवं श्रमसाध्य विषय पर की जिसके प्रकाशित होने के लिए ख्याति लब्ध संस्कृत विद्वान डॉ. कमलेश दत्त त्रिपाठी ने अपनी अनुशंसा में लिखा है -‘प्रस्तुत ग्रंथ एक ओर सामान्य रूप से आधुनिक युग के प्रमुख संस्कृत महाकाव्यों, खंड काब्यों, मुक्तकों, काव्य संग्रहों, गीति काव्य, नाटकों, रुपको तथा स्फुट रचनाओं का सर्वेक्षण करता है और दूसरी ओर उन्हें दृश्यमान हास्य और व्यंग्य की प्रवृत्तियों को रेखांकित करता है।

हम जानते हैं कि लेखन की सबसे बड़ी और उच्चतम प्रयोजनीयता, विकृतियों से दूर मनीष को सच्चा इंसान बनाना और हमेशा बेहतरी की ओर ले जाने से जुड़ी रहती है। इस तरह वह समाज के लिए बेहतरी की लड़ाई का अगवा होता है जिसमें उसे जुगाड़ -तुगाड़ के समझौतों से परे, लगातार अपने रास्ते पर खुद की प्रतिभा और परिश्रम से अपने को विकसित करते हुए, लेखन के भीतरी और बाहरी संघर्ष से सीधे जुड़ कर आगे बढ़ना जरूरी हो जाता है। वाहवाही लूटने का अंदाज ज्यादा कारगर नहीं होता, अपितु निरंतर अपने काम में लगे रहने और अपनी आंतरिक और बाहरी पड़ताल को खुला रख पाने से ही लेखन संभव हो पाता है। ‘ दादा ने इन कसौटियों पर अपने को रखा और सतत लेखक बने रहे। लेखक और एक अच्छा इंसान, क्योंकि इंसानियत के रास्ते को आगे और सजग और व्यापक बनाना बल्कि संभव करना ही लेखक का पहला काम है। वे सहज स्वभाव के लेखक थे, कोई बनावटी लहजा नहीं या किसी तरह के आडंबर या अहम के शिकार व्यक्ति की तरह, एकदम नहीं। उनकी आत्मीयता, प्रेम, स्वभाविक विनम्रता, सक्रियता और अपनी बोली- वाणी में उनके एक खास तरह के मीठेपन से सभी परिचित हैं। यही वजह है कि उनके नगर के साहित्यिक साथियों से अच्छे संबंध थे और वे उनसे यथोचित आदर व स्नेह भी पाते थे।

साहित्यिक चेतना के विस्तार में, लोगों में रुचि और लगाव पैदा करने के मामले में, नगर में, उन्होंने जो कार्य किया, उससे सभी परिचित हैं। इस मंच के माध्यम से नई पीढ़ी के युवक और पाठक संपर्क में आए और इस वर्ग का अपेक्षित परिष्कार भी संभव हो सका। इसलिए यह कहना ठीक लगता है कि साहित्यिक आयोजनों के सिलसिले में “दादा’ का नाम एक सक्रिय व्यक्ति के रूप में था।

“दादा? जीवन भर एक साधारण, सरल व्यक्ति रहे अभिजात्य उनके जीवन से दूर ही रहा। इसलिए उनकी रचनाओं में साधारण व्यक्ति की रोजमर्रा की समस्याएं ही अधिक महत्व पाती हैं। वे अपने आसपास होते अन्याय और भ्रष्टाचार से अधिक व्यथित रहते थे।

“दादा? के लेखन की शुरुआत हास्य व्यंग की कविताओं से हुई और नए सोपान गढ़ती गई उनकी यह लेखनी। बीच-बीच में स्पुट रूप से उन्होंने कहानियां और रिपोर्ताज शैली का भी उपयोग करते हुए लेखन

किया ।बाद में वे चंपू काव्य, लघुकथा के क्षेत्र में भी आए। उनकी अनेक विधाओं पर निरंतर चलती लेखनी रुकी नहीं अंतिम दिनों में भी सक्रिय बनी रही।

लेखन में दादा ने सामाजिक, राजनैतिक एवं लौकिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर जहां भी दृष्टि डाली, वहां से व्यंग के पक्षको उजागर किया और समाज के सामने रखा तथा लोगों को उस ओर भी सोचने समझने के लिए बाध्य किया, झकझोरा । उनके व्यंग में तीखापन तो है ही , मीठी चुटकी भी असरदार है। मारक क्षमता के साथ चुटीला पन खासतौर पर सहजता लिए दिखता है। जिसे परसाई जी सटायर की संज्ञा देते थे । वे तमाम पक्ष दादा की रचनाओं में यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं।

“दादा? ने अपने समय में जब लघुकथा एक फिलर के रूप में अखबारों पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थी, तब से लघुकथा का लेखन कार्य किया और उसे एक स्वतंत्र मंच देने की महती भूमिका अदा की ।

लघुकथा पर दादा? ने अनेक लेख लिखे तथा उसकी महत्ता पर बल दिया। जबलपुर में लघु कथा को एक मंच प्रदान करते हुए दादा के सहयोग से मोइनुद्दीन अतहर द्वारा युवा रचनाकार समिति का गठन हुआ जिसमें प्रमुख रुप से प्रदीप शशांक अभय बोर्ड निर्मोही, गुरु नाम सिंह रीहल, कुंवर प्रेमिल, रमेश सैनी, धीरेंद्र बाबू खरे तथा रविंद्र अकेला जैसे रचनाकारों को एक मंच दिया । जिसे अब मध्यप्रदेश लघुकथाकार परिषद के नाम से जाना जाता है। इस मंच के माध्यम से लघुकथा पढ़ी गई। लघु कथा के वर्तमान स्वरूप पर आलेख पढ़े गए तथा उस पर केंद्रित विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं की चर्चा भी की गई और सभी प्रकार के कार्यक्रमों में दादा” की अपनी भूमिका रहा करती थी जिसका जबलपुर क्षेत्र की साहित्य विधा में एक अलग महत्व है।

जाने-अनजाने ऐसे और भी रचनाधर्मी होंगे जिनको दादा का यथा समय योगदान मिलता रहा है चाहे वह परोक्ष रूप में अथवा अपरोक्ष रूप में | श्री राम ठाकुर दादा ने सभी को हर संभव सहायता प्रदान की है चाहे वह किसी भी रूप में हो | अतः दादा की छवि उन सभी के दिलों में आज भी स्थान बनाए हुए हैं।

याद कोई आए तो इस तरह ना आए

जिस तरह घटा कोई बिजलियां गिराती हैं

सम्मान और पुरस्कार की परंपरा में भी दादा का योगदान नगर की अनेक संस्थाओं को मिला| जिससे संस्थाएं भी गौरवान्वित हुई और जबलपुर का मान भी बढ़ा।

दादा के द्वारा पाठक मंच की अनेक गोष्ठी आयोजित की गई और जबलपुर के साहित्य जगत को बांध के रखा अनेक समीक्षा गोष्टियों में उन्होंने नए पुराने साहित्यकारों को शामिल किया। समीक्षाओं पर मंतव्य व्यक्त किए और उस पर बहस की परंपरा भी डाली। ऐसी समीक्षा गोष्ठियों में उभरते साहित्यकार एक नई ऊर्जा के साथ सामने आए। जिसका श्रेय ठाकुर *दादा” को ही जाता है। इस तरह ‘दादा’ ने परंपराओं को गढ़ा है। उनका सरल, सहज स्वभाव व्यक्ति को अपनी ओर खींच लेता था। चाहे वह उनका सहकर्मी हो या आम आदमी। होटल पर बैठे हुए रिक्शेवाले हो अथवा पान के टपरे पर खड़ा व्यक्ति। जुझारू, जीवट और जमीन से जुड़े रहने वाले दादा का हंसमुख स्वभाव और प्रसन्नचित्त रहने का गुण मनुष्य मात्र को जीवन जीने की प्रेरणा देता है । उनकी लेखन शैली जबलपुर साहित्य के नए शिल्पियों को सदा ही प्रेरणा प्रदान करती रहेंगी ।

उनका व्यंग्य लेखन मरते दम तक चलता रहा उनकी अंतिम 2 पुस्तकें मृत्यु के। या 2 माह पूर्व दिल्‍ली से प्रकाशित होकर आई। उन्होंने अपने लेखन में व्यंग्य को प्रमुखता दी और एक सफल व्यंग्यकार के रूप में अपने आप को प्रस्तुत किया। हरिशंकर परसाई जैसा बेबाक कथन तथा शरद जोशी जैसा तीखा तेवर वाले इस महान व्यंग्य शिल्पी ने व्यंग्य के लगभग पन्द्रह तीर चलाएं जिसने साहित्य के क्षेत्र में धूम मचाई कि चारों ओर दादा का नाम बड़े सम्मान से लिया जाने लगा। मान- सम्मान, पुरस्कार, अलंकरण से पूरे देश में सम्मानित डॉ. श्री राम ठाकुर ‘दादा’ के व्यक्तित्व में घमंड की छांव तक नहीं थी। वह बहुत सरल तथा सहज व्यक्तित्व के धनी थे। जो भी उनके संपर्क में आता उनसे प्रभावित होकर धन्य हो जाता। उनके व्यक्तित्व का खास पहलू यह है कि उन्हें सभी छोटे -बड़े “दादा” कहकर पुकारते थे।

सपनों के दर्पणों में निहारा किए तुम्हें

यादों की पालकी से उतारा किए तुम्हें

डॉक्टर श्री राम ठाकुर “दादा अपने सृजन के आरंभ काल से जीवन के संध्या काल तक संघर्षरत रहे। उनकी साहित्यिक कृतियां अमूल्य धरोहर हैं। कुल मिलाकर यदि हम “दादा? की जीवन स्थितियों का निष्पक्ष अवलोकन करें तो सहजी उनकी मूल्यवत्ता से साक्षात्कार कर सकेंगे। पाठक मंच के माध्यम से संगठनकर्ता के रूप में भी “दादा ने सराहनीय योग दिया है।

डॉ. श्री राम ठाकुर “दादा” आज हमारे बीच नहीं हैं परंतु एक साहित्यकार सुधि चिंतक, सहृदय विचार वान व्यक्तित्व के रूप में भी सदैव जीवंत रहेंगे।

डॉ. श्री राम ठाकुर दादा” ऐसे समर्थ कृतिकार हैं जो आडंबरहीन भाषा और संक्षिप्त प्रारूप में यानी लघुकथाओं में मनुष्य के बहुरंगी मन और आधुनिक जीवन को विविध भंगिमाओं में प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करते हैं।

“दादा’ की जिजीविषा और जीवन के प्रति उनका राग जबरदस्त था। इसीलिए उनका अचानक चले जाना हमें स्तब्ध कर गया। लगता है ऐसे जिजीविषा- संपन्न लोगों के साथ जीवन अधिक छल करता है।

जमाना बड़े शौक से सुन रहा था,

हमीं सो गए दास्तां कहते कहते।

डॉ. श्री राम ठाकुर *दादा”के निधन पर श्रद्धांजलि

कुमार सोनी- उनका साहित्य, उनका विनोद खसतौर से रेलयात्रा का उल्लेख बरबस याद आता है। नये-पुराने को बटोरकर चलना आज के समय में दुरूह कार्य है। दादा जिसे बखूबी निभाते रहे।

रमेश सैनी –मुझे दादा के पहले उपन्यास’ पच्चीस घंटे’की घटनाओं में उनका जीवन संघर्ष, जीवन के प्रति जिजीविषा, मुस्कुरा कर जवाब देने का उनका नायाब तरीका और विद्वूपता से मुठभेड़ करता उनका भरा- पूरा चेहरा याद आ गया।

कुंवर प्रेमिल – दादा जरूर इस भौतिक संसार से रूठ गए हैं पर ऐसे विचारक, कवि, कहानीकार, व्यंग्यकार और लघु कथा कार को हम सब हमेशा हमेशा याद करते रहेंगे दादा को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि है।

गुरनाम सिंह रीहल- मैं दादा से सदा से प्रभावित रहा उनके साथ मैंने जीवन के विगत 30 वर्षों के कालखंड को, अपने अमूल्यवान यादों के साथ संजोकर रखा है। वे क्षण बेशकीमती धरोहर के रूप में यूँ मेरे साथ रच बस गए हैं कि उन्हें कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता।

आनंद कृष्ण- दादा के विराट व्यक्तित्व में महासागरों से प्रशांति थी पर भीतर लहरें उद्वेलित होती थीं जब कोई बात हद से बाहर गुजरती तो उनकी कलम उसे कागज पर उगल देती और उसके बाद उस विसंगति या विद्वूप से उत्पन्न उनका संभास भी शांत होता यह अमोघ मंत्र है, जो रचनाकार को संयत और संयमित रखने में मदद करता है इसका मैंने भी स्वयं व्यावहारिक रूप से अनुभव किया है।

श्रीमती नम्नता पंचभाई- डॉक्टर श्री राम ठाकुर दादा एक महान साहित्यकार थे। एकदम शांत गंभीर से दिखने वाले ‘दादा ‘अपने अंदर इतनी कला छुपाए हुए थे जिसका अंदाजा उनके द्वारा रचित साहित्य को पढ़ने के बाद से ही पता चलता है। जिस प्रकार सागर की गहराई का पता नहीं चलता उसी प्रकार दादा के अंदर कितने रत्नों का भंडार साहित्य के रूप में भरा पड़ा था वह किसी को पता नहीं। ऐसी महान हस्ती का हमारे बीच से असमय चले जाना एक बहुत बड़ी क्षति है जिसकी पूर्ति असंभव है।

प्रदीप शशांक- ‘दादा’ के सहज हंसमुख, मिलनसार स्वभाव के कारण हमें बिल्कुल भी महसूस नहीं होता था कि दादा उम्र में हमसे काफी बड़े तथा साहित्य क्षेत्र की बहुत बड़ी हस्ती हैं उनमें घमंड तो लेशमात्र भी नहीं था।

हमारी रचनाओं को पढ़कर वे मुक्त कंठ से सराहना करते थे तथा बड़े भाई के रूप में महत्वपूर्ण सुझाव देने के साथ ही विभिन्न व्यंग पत्रिकाओं के पते भी देते थे।

 

आज आज दादा हमारे बीच नहीं हैं, किंतु साहित्य जगत में उनका नाम अमर हो गया है। ईमानदार, स्वाभिमानी और सहज व्यक्तित्व के धनी ‘दादा’ की अनगिनत अंमूल्य यादें सदा हमारे साथ रहेंगी।

मलय – दादा एक पिछड़े समाज से आए और उन्होंने अपनी समझ को विकसित करते हुए प्रतिभा को प्रति फलित करते हुए लेखन को पूरी मशक्कत के रास्ते से धीरे-धीरे अर्जित किया दादा के लेखन और सक्रियता की बढ़ती पहचान के कारण ही मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद ने उन्हें जबलपुर में पाठक मंच का संयोजक बनाया इसलिए यह कहना ठीक लगता है कि साहित्यिक आयोजनों के सिलसिले में ‘दादा’ का नाम एक सक्रिय व्यक्ति के रूप में था और नगर की इस क्षति का तत्काल ही पूरी कर पाना संभव नहीं लगता।

कुंदन सिंह परिहार- ‘दादा’ बड़े स्वाभिमानी थे। अपने साथ होने वाले किसी भी अन्याय को वे बर्दाश्त नहीं करते थे, चाहे उन्हें कितनी भी क्षति क्‍यों न हो [साहित्य में भी उन्हें जहां पक्षपात दिखाई पड़ता था वे तत्काल उसका विरोध करते थे। ‘दादा’ के जाने से उनके मित्रों का संसार जरूर संकुचित हुआ है और इस क्षति की पूर्ति बहुत मुश्किल है क्योंकि दादा सिर्फ एक संख्या नहीं थे।

गुप्तेश्वर द्वारका गुप्त- ‘दादा’ नाम जबान पर आते ही, उनकी मधुर मुस्कान के साथ उनका अक्स एक चलचित्र की भांति मेरे मस्तिष्क में उभर आता है। उनकी एक स्वाभाविक भाव मुद्रा बरबस ही अपनी ओर खींच लेती है। ‘ दादा’ की शिराओं में खून के साथ-साथ एक व्यंग की धारा भी सहज रूप में प्रवाहमान रही है [ उनका बातचीत करने का ढंग, कहने और सुनाने की कला बड़ी ही रोचक लगती थी। वे जब भी लिखते एक आम आदमी के इर्द-गिर्द घटती हर बारीक से बारीक चीज को पकड़ कर लिखते थे। यह सहजपन बड़ा ही कठिन होता है, जो ‘दादा’ में था। व्यंग के हास्य और हास्य के साथ व्यंग दादा में एक दूसरे के पूरक रहे हैं उन्हें अलग -अलग नहीं किया जा सकता, यही ‘दादा ‘की लेखन शैली की अपनी पहचान को उजागर करता है। उनकी लेखन शैली जबलपुर साहित्य के नये शिल्पियों को सदा ही प्रेरणा प्रदान करती रहेगी।

राजेंद्र दानी- दादा” की सक्रियता व्यक्ति केंद्रित कभी नहीं रही। अपने लेखन से तथा अपनी भौतिक सक्रियताओं से बार-बार यह प्रमाणित करते रहे कि वे जिन सरोकारों के लिए क्रियाशील हैं, उनसे दुखों, असमानताओं, जातिगत संकीर्ण विश्वासों, अभावों और बौद्धिक सीमाओं का अंत अवश्यंभावी है और वे अपनी समग्र द्रढ़ताओं के साथ इससे पीछे हटने वाले नहीं है। लंबी काया के इस द्रढ़ व्यक्ति ने कभी हार नहीं मानी और जीवन पर्यत अपनी समस्त ऊर्जा के साथ साहित्य सृजन के लिए समर्पित रहे।

अपने लेखन के लिए जिस माध्यम का चयन उन्होंने किया वह बेहद चुनौतीपूर्ण था और उस पर एकांगी और निषेधता के आरोप तब भी लगते थे और अब भी लगते हैं यह व्यंग था, यह परसाई की राह थी, यह शरद जोशी की राह थी और श्रीलाल शुक्ल की राह थी और श्रीलाल शुक्ल की राह अब भी है।

अफसोस यह है कि ‘दादा’ की यात्रा अभी जारी थी और उन्हें मिलो दूर जाना था वह सेवानिवृत्त हो चुके थे और अपनी राह को निरंतर चौड़ा होते देखना चाहते थे। ऐसे में उनका जाना बहुत बड़ी सामाजिक और व्यक्तिगत क्षति है। यह तथ्य कल्पनातीत है श्री राम ठाकुर ‘दादा’ का निधन एक ऐसी ही बड़ी दुर्घटना है।

मोहम्मद मुइनुद्दीन अतहर‘- सादा जीवन उच्च विचार के धनी मौन तपस्वी ज्योतिष श्री राम ठाकुर दादा ने अपने 63 वर्ष की अल्पायु में अपने सामाजिक और पारिवारिक कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए साहित्य के क्षेत्र में जो योगदान दिया है जो भुलाया नहीं जा सकता। अपने कार्य के प्रति जिस लगन, निष्ठा / वैर्य तथा ईमानदारी से कार्य करते हुए मैंने दादा को देखा किसी अन्य को नहीं। “दादा? के इस उद्बार को मैंने अपने गले का हार बना लिया और एक लक्ष्य बनाकर उनके साथ हो लिया।

* दादा? के सत्संग से मुझे उनसे यह प्रेरणा मिली सत्सहित्य का पठन, चिंतन, मनन ही हमारे जीवन को संवार सकता है। साहित्य के पौधे को चिंतन से जितना सींचोगे उतना ही वह परवान चढ़ेगा। साहित्य हमारे विवेक को जागृत करता है और मुख्य बात यह है कि यह समाज सुधारक की भूमिका अदा करता है।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 182 ☆ # “घरौंदा” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता घरौंदा

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 182 ☆

☆ # “घरौंदा” #

जीवन भर की

मेहनत से

लगन से

बचत से

हम एक घरौंदा बनाते हैं  

अपनी आशाएं

इच्छाएं

संभावनाएं

लगाकर

उसे सजाते हैं

हमारी सिर्फ

यही कोशिश होती है

कि  पूरा परिवार

साथ रह सके

खुशी हो या गम

कांटे हो या फूल

दुःख हो या सुख

साथ-साथ सह सकें

जब घरौंदा बनता है

प्यार और स्नेह

आपस में छनता है

हर पल खिलखिलाहट

घर में जगमगाहट

रिश्तों की नई पहचान होती है

घर की आन और शान होती है

हम आत्मविभोर हो जाते हैं

सुन्दर सपनों में खो जाते हैं

मीठी मीठी नींद गुदगुदाती है

ठंडी ठंडी हवा

आगोश में सुलाती है

 

तभी आसमान से

एक परी उतरती है

घर में सज धज कर आती है

सारा घर उसके स्वागत में

पलकें बिछाता है

छोटा हो या बड़ा

हर कोई गले लगाता है

वो सबके आंखों

का नूर होती है

अपनी प्रशंसा से

मगरूर होती है

धीरे धीरे वो अपना

रंग दिखाती है

दूसरे देश से आई है

यह अपने व्यवहार से दर्शाती है

घर की खुशियां

बिखर जाती है

अपने तानों से

सबका दिल दुखाती है

अपने प्राणाधार के साथ

दूसरी दुनिया में

चली जाती है

घरौंदा टूटता है

राख बच जाती है

 

पति-पत्नी जीवन भर

एक खुशगवार फूलों सा

घरौंदा बनाने का

सपना देखते हैं

ऐसी परियां

उनके सपने तोड़ कर

कौड़ी के दाम

बेचते हैं

जीवन के आखिरी पड़ाव पर

क्या यही उनके जीवन भर के

त्याग, परिश्रम का मोल है ?

टूटते घरौंदे, बिखरते परिवार

बिलखते मां-बाप

असहाय, निर्बल

क्यों

घर और बाहर

दोनों जगह बेमोल हैं ? /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – हमारा देश…भारत ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता हमारा देश…भारत।)

☆ कविता – हमारा देश…भारत ☆

सिर पर ताज हिमालय का है,

 सागर चरण पखारता,

गंगा यमुना की बाहों को,

 अंबर पुलक निहारता,

 देश के हर कोने से उठता,

 हर स्वर यही पुकारता,

 वंदे मातरम्, वंदे मातरम्,

*

 राम कृष्ण की भूमि है ये,

इस मिट्टी की शान है,

सभी देवता गोद में खेले,

 भारत भूमि महान है,

एक बंधन में हम सब आएं

एक ही सुर में मिलकर गाएं,

वंदे मातरम्, वंदे मातरम्,

*

आओ मिलकर शपथ उठाएं,

भारत मां की आन की,

कभी शान ना झुकने पाए,

भारत मां की शान की,

भारत मां का दर्शन पाएं

सभी देवता सस्वर गाएं,

वंदे मातरम्, वंदे मातरम्.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 178 ☆ नको कुणाची चाकरी… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 178 ? 

☆ नको कुणाची चाकरी ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

(काव्य प्रकार:- अंत्यओळ अष्टाक्षरी.)

(विषय:- मृग बरसून जावा.)

मृग बरसून जावा

धरा तृप्त शांत व्हावी

धूळ निघूनिया जावी

छटा धरेची खुलावी.!!

*

छटा धरेची खुलावी

मुक्त धरणी हसावी

छटा दिसाव्या बोलक्या

ऐसी करणी होवावी.!!

*

ऐसी करणी होवावी

बळीराजा तो हसावा

हाती घेऊनिया हल

कष्ट करण्या निघावा.!!

*

कष्ट करण्या निघावा

त्याला नं चिंता असावी

बीज रोपताना भूमी

भूमी निर्भेळ बोलावी.!!

*

भूमी निर्भेळ बोलावी

बीज ग्रहण करावे

यावे अंकुर जोमाने

सोने कष्टाचे होवावे.!!

*

सोने कष्टाचे होवावे

मिळो सर्वांना भाकरी

दिस बदलो सर्वांचे

नको कुणाची चाकरी.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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