(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – हमें ऐतवार है वफा पर अपनी…। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 223 ☆
☆ एक पूर्णिका – हमें ऐतवार है वफा पर अपनी…☆ श्री संतोष नेमा ☆
परवाच माझी मैत्रिण सांगत होती कि तिच्या कोणालातरी अल्झायमर झालाय. आता त्यांना कोणी आठवत नाही.त्यामुळे त्या कोणाला अोळखत नाहित.•••• वगैरे वगैरे•••• आणि मग विसरणे हे एवढ्या भयंकर थराला जाऊ शकते असे कळल्यावर अंगावर सर्रऽऽऽकन काटा आला.
मग विचार आला का हा असा आजार निर्माण झाला असेल? मग त्यावर उपाय म्हणून स्मरणशक्ती वाढवण्याचे उपाय सांगितले जातात. बदाम खा•••• अक्रोड खा•••• वगैरे उपचार सांगितले जातात;आणि शेवटपर्यंत प्रयत्न केले जातात.पण शक्यतो अशा व्यक्तींना परत फारसे काहिच आठवत नाही.
आता डॉक्टर तज्ञ यावर अनेक उपाय सांगतात पण मला उगीचच एक विचार डोक्यात आला•••• मनुष्य केव्हा एखादी गोष्ट विसरतो? तर एखाद्या गोष्टीला खूप दिवस झाले असतील; त्या गोष्टींशी पुन्हा पुन्हा संपर्क येत नसेल तर मनुष्य ती गोष्ट विसरून जातो. जसे लहानपणी घोकून घोकून पाठ केलेली स्तोत्रे गाणी आपल्याला आता आठवत नाहित पण कोणी म्हणायला सुरुवात केली तर अधून मधून ते आपल्याला आठवू लागते. याच्या उलट जर आपण कधी कोणाशी भांडले असू एखाद्याने आपला अपमान केला असेल किंवा एखादी चांगली घटना घडली असेल तरी ती गोष्ट आपल्याला काही केले तरी विसरता येत नाही. कोणाचा प्रेमभंग झाला असेल तर ते प्रेम त्याला विसरणे शक्य नसते; आणि मग असे वाटले ज्या गोष्टी अापण अगदी मनावर घेतो ज्या गोष्टींमुळे आपल्या हृदयाला काळजाला थरार जाणवला असेल अशा गोष्टी आपण कधीच विसरत नाही.
मग ज्यांना विसरण्याचा आजार झालाय त्यांचे काय? तर ते लोक फार भावूक असावेत.प्रत्येक गोष्ट ते मनावर घेत असावेत. म्हणूनच सगळ्याच गोष्टी ते लक्षात ठेवण्याचा प्रयत्न करतात. मग हे लक्षात ठेवण्याचे पोते ताणून ताणून भरले की मग काही गोष्टी अगदी तळाशी जाऊन बसतात.काही गोष्टी इतर गोष्टिंच्या मधे जाऊन बसतात.मग त्या गोष्टी कितीही महत्वाच्या असल्या तरी वेळेवर त्या आठवत नाहित. मग ही एक प्रकारची सवय लागून जाते; आणि त्याचे रुपांतर अशा भयंकर रोगात होत असावे.
त्यामुळे मला यातून मार्ग काढताना जाणवले जर आपण अगदी महत्वाचे आहे तेच लक्षात ठेवले आणि जे अनावश्यक आहे,ज्याने आपल्याला त्रास होईल अशा गोष्टी जाणिवपूर्वक विसरल्या तर? म्हणजे कोणी आपल्याशी भांडले असेल कोणी आपल्याला त्रास दिला असेल तर असे प्रसंग आपण विसरायला शिकले पाहिजे. म्हणजेच जाणिवपूर्वक किंवा आठवणीने विसरणे हा रोग नसून ती एक कला आहे. आणि हिच कला प्रत्येकाने अंगिकारायला पाहिजे असे वाटते.
म्हणजे बघा हं•••• जर आपण ज्या गोष्टी महत्वाच्या नाहित त्रासदायक आहेत अशा गोष्टी पुढच्या क्षणी विसरायचे ठरवले तर मनामड्ये चांगल्या गोष्टी लक्षात ठेवायला जागा शिल्लक राहिल. एक वाईट गोष्ट विसरली कि पुढच्या दहा चांगल्या गोष्टिंसाठी जागा होईल. मग चांगल्या गोष्टी आठवत राहिल्या तर मन प्रसन्न राहिल. अर्थातच त्यामुळे आरोग्य चांगले राहिल••••
आपण आपल्या घरातूनही जुने फाटके कपडे काढून फेकून देतो तेव्हा नवे चांगले कपडे ठेवण्यासाठी कपाटात जागा होते. घरातील जुन्या वस्तू जेव्हा बाहेर काढतो तेव्हा नव्या वस्तूंचा उपभोग आपल्याला घेता येतो•••• तसेच आपण आठवणीने काही गोष्टी विसरू या.म्हणजे चांगल्या गोष्टी आपोआपच लक्षात राहतील.मग म्हणूया खरच विसरणं ही एक कला आहे•••• ती आत्मसात करू या•••••
टूट गया.. दिलका सपना हाये टूट गया.. वो इंडिया वाले ने हमे लूट लिया.. नही नही कंबख्त सालोने छिन लिया… दस साल से उनके साथ हमने भाईचारा करते आ रहे थे… आय.पी.एल.के रूप में… हर एक खिलाडी का अंदाज को बडी ध्यान से पढ चुके थे… कमजोरी कहा है पता चुके थे… बल्लेबाजी, गेंदबाजी का हर एक पैलू के कोने को गौर से समझाकर हमने ये फायनल मुकाबले मे मास्टर प्लान बनाकर खेल कर रहे थे… सबकुछ तो वैसैही चल रहा था..तीस गेंद पर तीस रन्स… याने जीत हाथ में चुकी थी… बस्स उसपर पहलेसे जो चोकर्स का निशाना मिटाकर & the winner of T20 of 2024 is South Africa. लिखना शुरु कर रहे थे….बार बार कोशीश चालू थी वो बदनाम चोकर्स का निशाना मिटाने के लिए…एकेक करके हमारे जी तोड करने वाले बल्लेबाज बंदे परास्त होते गये… आखिरी चार गेंद में नऊ रन्स कि बाकी थी… पर मिले दो… और सात रन्स से हमे शर्मनाक हारगये… वो इंडिया वाले ने हमे गुमराह कर दिया… ये इनकी चालाकी इसे पहले कभी आय. पी. एल में नही देखी थी… सालोने हमारा गेम हमी पर बुमरॅंग कर दिया… और और फिर हम चोकर्स के चोकर्स ही रह गये… हम से क्या भुल हो गई जिसकी हमे ये सज़ा मिली.. हम ढूंढते रह गये…आसू के घुट पिते पिते…एक अचरज बात ये है कि.. हारे थे हम.. टुटा था दिल हमारा… पर वो साले इंडिया वाले फुट फुट कर रो रहे थे… बाजीगर थे ना….. आज हमे पहलीबार पता चला कि जब कोई जीत के नजदीक आकर भी हारता है तो तभी दु:ख कितना गहरा होता है इसका अहसास हुआ… Cricket is game of chance का अर्थ हम जिंदगी भर नही भुलेगें… एक बडी खुशी बात और है कि अगली बार रोहीत शर्मा और विराट कोहली तो विश्वकप नही खेलेंगे… और हम इंतजार करेंगे कि बुमराह कभी रिटायर्ड हो रहा है… उसके बाद जो विश्वकप कि मॅच होगी तो जीत हमारी ही पक्की होगी…
वो कुल कॅप्टन ने हमारे मुह से जीत छिन ली… हम बहुत ही इस पर शरमिंदा है… जाते जाते हम सभी खिलाडीयोंने आज के दिन अपनी दाहिने हाथोपर हम चोकर्स है करके गुदवा लिया है… जब कभी विश्वकप जीत कि बारी आयेगी तभी ये निशाना हमेशा हमेशा के लिए मिटा देंगे… कहने वाले तो यही कहेंगे कि खेल में हार जीत तो होती है… पर जो हार के भी जीतते है उसे बाजीगर कहते है… और उसका नाम इंडिया है…
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “जाहि निकारि गेह ते…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
वैचारिक रूप से समृद्ध व्यक्ति सही समय पर सही फैसले करता है। जनकल्याण उसके जीवन का मूल उद्देश्य होता है। कहते हैं-
प्रतिष्ठा का वस्त्र जीवन में कभी नहीं फटता, किन्तु वस्त्रों की बदौलत अर्जित प्रतिष्ठा, जल्दी ही तार- तार हो जाती है।
अक्सर लोग कहते हुए दिखते हैं- चार दिन की जिंदगी है, मौज- मस्ती करो, क्या जरूरत है परेशान होने की। कहीं न कहीं ये बात भी सही लगती है। अब बेचारा मन क्या करे? सुंदर सजीले वस्त्र खरीदे, पुस्तकें पढ़े, सत्संग में जाए या मोबाइल पर चैटिंग करे?
प्रश्न तो सारे ही कठिन लग रहे हैं, एक अकेली जान अपनी तारीफ़ सुनने के लिए क्या करे क्या न करे?
15 लोगों का समूह जिन्हें एक जैसी परिस्थितियों में रखा गया , भले ही वे अलग- अलग पृष्ठभूमि के थे किन्तु मिलजुलकर रहने लगे। इस सबमें थोड़ी बहुत नोकझोक होना स्वाभाविक है। यहाँ अवलोकन इस आधार को ध्यान में रखकर किया गया कि सबसे ज्यादा सक्रिय कौन सा सदस्य है। जो लगातार न केवल स्वयं को योग्य बना रहा है वरन वो सब भी करता जा रहा है जिसके कारण उसका चयन यहाँ हुआ है।
देखने में स्पष्ट रूप से पाया गया कि जमीन से जुड़ी प्रतिभा न केवल शारीरिक दृष्टि से मजबूत है बल्कि उसकी सीखने की लगन भी उसे शिखर पर पहुँचा रही है। वहाँ उपस्थित सभी लोग उसका लोहा मान रहे हैं। कुछ लोग दबी जुबान से उसकी तारीफ करते हैं।
कहने का अर्थ यही है कि लगातार सीखने की इच्छा आपको सर्वश्रेष्ठ बनाती है। केवल एक पल का विजेता बनना आपको शीर्ष पर भले ही विराजित कर दे किंतु हर क्षण का सदुपयोग करने वाला सच्चा विजेता होता है। उसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना आधुनिक गधे की कहानी।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 14 – आधुनिक गधे की कहानी☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
किसी गाँव में एक सीधा-सादा गधा रहता था, जिसका नाम गधेराम था। गधेराम बेहद मेहनती था, दिन-रात अपने मालिक के खेतों में काम करता था। गाँव के लोग उसे सम्मान की नजर से देखते थे, क्योंकि वह कभी किसी से शिकायत नहीं करता था और हमेशा अपने काम में लगा रहता था। लेकिन क्या मेहनत और ईमानदारी का जमाना सच में बीत चुका है?
एक दिन, गधेराम के मालिक ने सोचा, “क्यों न गधेराम को शहर ले जाया जाए और वहाँ उसका इस्तेमाल किया जाए?” मालिक की यह सोच सुनकर गधेराम बहुत उत्साहित हुआ। उसने सोचा, “शहर की चमक-धमक और आराम की जिंदगी का मजा लूंगा।” लेकिन क्या सच में शहर की चमक-धमक गाँव की सादगी से बेहतर है?
गधेराम को शहर लाया गया और उसे एक बड़े उद्योगपति के हवाले कर दिया गया। उद्योगपति ने गधेराम को देखा और हँसते हुए कहा, “यह गधा हमारे ऑफिस के लिए एकदम सही रहेगा।” अब सोचिए, एक गधे को ऑफिस में काम करने के लिए सही कैसे माना जा सकता है? क्या यह आधुनिक समाज की मानसिकता पर एक तंज नहीं है?
गधेराम को अब एक नयी जिम्मेदारी सौंपी गई – ऑफिस के कागजात और फाइलें इधर-उधर ले जाना। शहर के ऑफिस की जिंदगी बिल्कुल अलग थी। गधेराम ने देखा कि वहाँ के लोग अपने काम के लिए नहीं बल्कि अपनी चालाकी और होशियारी के लिए जाने जाते हैं। ऑफिस में सभी लोग एक-दूसरे की तारीफ करते थे, लेकिन पीठ पीछे बुराई करने से बाज नहीं आते थे। क्या यह सच में तरक्की का रास्ता है?
गधेराम ने अपने काम में पूरी मेहनत और लगन दिखाई, लेकिन ऑफिस के लोग उसे कभी गंभीरता से नहीं लेते थे। वे हमेशा उसे नीचा दिखाने की कोशिश करते थे। एक दिन, ऑफिस के एक कर्मचारी ने गधेराम से कहा, “अरे गधेराम, तुम तो बड़े मेहनती हो, लेकिन इस ऑफिस में मेहनत से नहीं, चालाकी से काम होता है।” क्या यह सीखने की बात है या फिर एक कटाक्ष?
गधेराम ने सोचा, “शायद मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि यहाँ कैसे काम किया जाता है।” उसने अपने आप को बदलने की कोशिश की। अब वह भी ऑफिस की राजनीति में शामिल हो गया। लेकिन क्या ईमानदारी और सच्चाई को छोड़कर सफल होना सही है?
अब गधेराम भी चालाकी और धूर्तता की राह पर चल पड़ा। लेकिन फिर भी, उसके साथियों ने उसे कभी स्वीकार नहीं किया। ऑफिस के लोग उसे पहले से भी ज्यादा परेशान करने लगे। उसे छोटे-मोटे कामों में उलझा कर रखा जाने लगा, ताकि वह कभी अपने असली काम में सफल न हो सके। गधेराम के आँखों में आँसू आने लगे। उसे अपने गाँव और वहाँ की सादगी भरी जिंदगी याद आने लगी। क्या वास्तव में सच्चाई और ईमानदारी का कोई मोल नहीं?
एक दिन, गधेराम ने अपने मालिक से कहा, “मालिक, मुझे गाँव वापस जाने दो। यहाँ की जिंदगी मेरे लिए नहीं है।” मालिक ने गधेराम की बात सुनी और उसे गाँव वापस भेजने का फैसला किया। लेकिन क्या वापस लौटने से समस्याओं का समाधान हो जाएगा?
गधेराम जब गाँव लौटा, तो वहाँ के लोगों ने उसका स्वागत किया। सभी ने देखा कि गधेराम ने शहर की चमक-धमक से क्या सीखा है। गधेराम ने गाँव के लोगों से कहा, “शहर की जिंदगी में चमक-धमक तो बहुत है, लेकिन सच्चाई और ईमानदारी का कोई मूल्य नहीं। वहाँ हर कोई एक-दूसरे को नीचे गिराने की कोशिश करता है। लेकिन यहाँ गाँव में, सादगी और मेहनत का सम्मान होता है।” क्या यह हमारे समाज की असली तस्वीर नहीं है?
गधेराम की यह बात सुनकर गाँव के लोग भावुक हो गए। उन्होंने गधेराम से वादा किया कि वे कभी भी अपनी सादगी और ईमानदारी नहीं छोड़ेंगे। गधेराम ने भी यह वादा किया कि वह हमेशा अपने गाँव और वहाँ की सादगी भरी जिंदगी के लिए मेहनत करेगा। लेकिन क्या वास्तव में यह वादे निभाए जा सकते हैं?
यह कहानी हमें सिखाती है कि चाहे दुनिया कितनी भी बदल जाए, सादगी और ईमानदारी का मूल्य हमेशा बना रहता है। गधेराम की कहानी एक प्रेरणा है उन सभी के लिए जो अपनी मेहनत और सच्चाई से कभी पीछे नहीं हटते। लेकिन सवाल यह है कि क्या हम वास्तव में इस प्रेरणा को अपनाते हैं? क्या हम भी गधेराम की तरह सच्चाई और ईमानदारी की राह पर चल सकते हैं? या फिर हम भी आधुनिक समाज की चालाकियों में उलझ कर रह जाएंगे?
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कविता – सेवा निवृत्ति पर।
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – “ओजोन कवच की आत्मकथा ”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 179 ☆
☆ आलेख – ओजोन कवच की आत्मकथा☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
मैं हूं ओजोन कवच, पृथ्वी की पारदर्शक छत। मैं वायुमंडल के ऊपरी भाग में मौजूद हूं, जहां से मैं सूर्य से आने वाले हानिकारक पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करता हूं। ये विकिरण मनुष्यों, पौधों और जानवरों के लिए बहुत ही हानिकारक होते हैं। वे त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद, प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान और अन्य कई बीमारियों का कारण बन सकते हैं।
मेरी खोज 1913 में फ्रांस के भौतिकविदों फैबरी चार्ल्स और हेनरी बुसोन ने की थी। उन्होंने सूर्य से आने वाले प्रकाश के स्पेक्ट्रम में कुछ काले रंग के क्षेत्रों को देखा, जो पराबैंगनी विकिरण के अवशोषण के कारण थे।
मेरा निर्माण सूर्य से आने वाले ऑक्सीजन के अणुओं से होता है। ये अणु वायुमंडल में ऊपर उठते समय, उच्च तापमान और ऊर्जा के कारण टूट जाते हैं और ऑक्सीजन के तीन अणुओं से बने ओजोन अणुओं में बदल जाते हैं।
मैं पृथ्वी के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण सुरक्षा कवच हूं। मैं सूर्य से आने वाले हानिकारक पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करके, जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं।
अंतर्राष्ट्रीय ओजोन परिषद की स्थापना 1985 में हुई थी। इस परिषद ने ओजोन परत के संरक्षण के लिए कई समझौते किए हैं। इन समझौतों के तहत, दुनिया भर के देश ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों का उपयोग कम करने या समाप्त करने पर सहमत हुए हैं।
ओजोन परत के संरक्षण के लिए किए गए प्रयासों के परिणामस्वरूप, ओजोन परत में क्षरण की दर में कमी आई है। हालांकि, ओजोन परत पूरी तरह से ठीक होने में अभी भी कई वर्षों का समय लगेगा।
मैं पृथ्वी के लिए एक अनिवार्य हिस्सा हूं। मैं जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं। मैं सभी लोगों से मेरा संरक्षण करने का आग्रह करता हूं।
मेरा संदेश
मैं ओजोन कवच हूं, पृथ्वी की पारदर्शक छत। मैं आप सभी को याद दिलाना चाहता हूं कि मैं आपके लिए कितना महत्वपूर्ण हूं। मैं आपके जीवन को सुरक्षित रखने में मदद करता हूं। कृपया मेरा संरक्षण करें।
मैं आपसे निम्नलिखित बातें करने का अनुरोध करता हूं:
मुझे यानी ओजोन परत के बारे में जागरूकता बढ़ाएं।
मुझको नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों का उपयोग कम करें या समाप्त करें।
अपने आसपास के पर्यावरण की रक्षा करें।
मैं आपके सहयोग की सराहना करता हूं। मिलकर हम मुझे यानी ओजोन परत को बचा सकते हैं और एक सुरक्षित भविष्य सुनिश्चित कर सकते हैं।