(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “बरसात…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 61 ☆ बरसात… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “परिंदों की चहक शीतल पवन पूरब दिशा स्वर्णिम…“)
☆ साहित्यिक स्तम्भ ☆ कविता # 65 ☆
परिंदों की चहक शीतल पवन पूरब दिशा स्वर्णिम… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “जीवन यात्रा“ की अगली कड़ी।)
☆ कथा-कहानी # 109 – जीवन यात्रा : 4 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
पंद्रहवीं शताब्दी के पहले स्थिरता पृथ्वी का स्थायी गुण थी और यह माना जाता है कि रात और दिन, सूर्य का पृथ्वी के चक्कर लगाने से होते हैं. पर विज्ञान, निरंतरता और ऑब्जेक्टिविटी की प्रक्रिया पर आधारित है. बाद में जब पंद्रहवीं शताब्दी में वैज्ञानिक निकोेलस कोपरनिकस ने यह प्रतिपादित किया कि खगोलीय वास्तविकता इसके विपरीत है तो अरस्तु के पूर्व प्रचलित सिद्धांत का विरोध करने पर उन्हें और गैलीलियो गैलिली को दंडित किया गया. पर अविष्कारों का विरोध कूपमंडूकता और अविष्कारकों को दंड देने की तानाशाही, प्राकृतिक विकास को अवरुद्ध नहीं कर सकती. ऐतिहासिक तथ्य यही हैं कि वेग हमेशा स्थिरता को परास्त करता है. तूफानों के हौसलों के आगे स्थिरता के प्रतीक चट्टानें, इमारतें और वृक्ष खंडित हो जाते हैं.वास्तव में विस्थापन आपदा नहीं बल्कि प्राकृतिक घटना है. विस्थापन की ही अगली पायदान movement है जो गति का अलौकिक साथ पाकर वेग के रूप में शक्तिशाली बन जाती है. ये वेग का ही कमाल है कि 24 घंटे से भी कम समय में हम दुनिया के एक छोर से दूसरे जा सकते हैं, यही वेग speed अपनी चरम स्थिति में राकेट को पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति को पारकर अंतरिक्ष की यात्रा पर भेज देता है.
शिशु वत्स की जीवनयात्रा भी विस्थापन और विचलन से प्रारंभ होकर,समयानुसार गति प्राप्त करने की ओर बढ़ती है. करवट लेना, पलटना, बैठना, सरकना, घुटनों के बल चलना, पहले सहारा पकड़कर खड़े होना, फिर सहारे से धीरे धीरे आगे बढ़ना, और फिर आत्मनिर्भरता की शक्ति पाकर खड़े होना, चलना ,दौड़ना और फिर चलने या दौड़ने की इस प्रक्रिया में एक दिन बॉय बॉय करके सुदूर नगर/राज्य/देश में विस्थापित हो जाना. पेरेंट्स की सालों से पोषित ममता इस प्राकृतिक अवस्था को मानने से शुरु में तैयार नहीं होती, असहज हो जाती है पर “समय” ही ईश्वर का वो उपहार है जो हर अव्यवस्था को धीरे धीरे नये रूप में सहज कर देता है और ये अव्यवस्था ही नई परिस्थिति में व्यवस्था बन जाती है. लोग सहजता से इसे स्वीकार कर लेते हैं. इसीलिए कहा जाता है कि समय ही सबसे अधिक बलशाली है, जो कभी भी, कहीं भी और कुछ भी बदलने में सक्षम है. वो मां जो शुरुआत में एक पल भी संतान से दूर नहीं हो पाती, समय के साथ पुत्र को देखे बिना दिन, महीने, साल गुजार लेती है. मानवीय भावनायें, संवेदनायें सापेक्ष होती हैं और इसी के अनुसार ही मानवजीवन की दिनचर्या को प्रभावित करती हैं.
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – अंधी दौड़।)
अरे ! भाग्यवान तुमने कार में गूगल मैप सेट कर दिया है मैं लेफ्ट राइट मुड़ कर परेशान हो गया फेसबुक में सर्च करने पर सारी जगह ही फोटो में अच्छी लगती है पर असल ….. नहीं होती।
पूरे रविवार की छुट्टी खराब कर दी इस सन्नाटे में गाड़ी खराब हो जाए और कुछ भी हो सकता है, सोचो श्रीमती जी।
यहां पर कोई तुम्हें मानव दिखाई दे रहा है?
रीमा ने धीमी आवाज में कहा- ये पिकनिक स्पॉट है। मैंने सर्च किया था बहुत सुंदर जगह है इसे लोगों ने बहुत पसंद किया था बहुत लाइक और कमेंट किया….।
तुम्हें क्या ?
आराम से गाड़ी में बैठकर गाने सुन रही हो ड्राइवर तो मैं बन गया हूं लो तुम्हारी जगह आ गई?
वहां कुछ लोग दिखे तो रहे हैं तुम्हें तो हर चीज में बुराई निकालने की आदत है।
कोई बात नहीं मोबाइल में यही बाहर से फोटो खींचे और सीधे घर चलो?
ठीक है जल्दी से मैं बाहर से ही फोटो खींचकर चलती हूं एक नई जगह तो मिली ।
हां मैं समझ रहा हूं रीमा।
तभी सामने से आता हुए एक परिवार (पति पत्नी और बच्चे ) उसे राहगीर ने कहा& साहब बाहर फोटो क्यों खींच रहे हैं? अंदर चले जाइए ये जगह बाहर से ऐसी दिख रही है पर अंदर ठीक-ठाक है आप इतनी दूर पैसा खर्च करके आए हैं तो घूम लीजिए।
हां भाई ठीक कह रहे हो लग रहा है तुम भी इन्हीं के बिरादरी के लग रहे हो लगता है मायके के हो।
रीमा ने कहा- यहां पर एक झरना भी है और मंदिर भी दिख रहे हैं बहुत अच्छा वीडियो बनाकर रील बन सकती हूं । अब जल्दी यहां से घर चलो मैं तो तुम्हारे झमेले से थक गया?
तुमने मुझे काठ का उल्लू बना के रखा है।
तुम तो मोबाइल के नशे में हो कुछ इलाज का तरीका ढूंढना होगा।
हर अच्छी चीज सोना नहीं होती रीमा।
बच्चों को भी देवी जी किताबी ज्ञान सिखाओ ।
नहीं तो एक दिन बड़ी मुसीबत मैं फंस सकते हैं। मोबाइल और फेसबुक से सबको पता चल जाएगा कि हम घर पर नहीं है थोड़ा दिमाग लगाओ, सभी को एक अंधे कुएं में धकेल दोगी।
बचाओ हे प्रभु ।
जरूरी नहीं की जो सब काम करें वह तुम भी करो।
रीमा ने झुंझलाते हुए कहा – तुम्हें तो टंप्रवचन देने की आदत हो गई है।
ऐसा नहीं है कि मैं घूमने फिरने के खिलाफ हूं ऐसा होता तो मैं तुम्हें क्यों स्मार्टफोन खरीद के देखा और उसे चलाना सीखता।
लगता है मैंने अपने पैर पर स्वयं कुल्हाड़ी मार ली भोगना तो पड़ेगा? तुम भी सब की तरह अंधी दौड़ में दौड़ा रही हो ।
विरंगुळा म्हणून आजी आपल्या लेकाकडे राहायला आली. आज रविवार, सगळे घरी एकत्र भेटतील या विचाराने सुखावली. सकाळी उठल्यावर पाहते तर तीन खोल्यात तीन माणसं बघून भांबावली. लेकाची आणि सुनेची खोली वगळून तिने नातीच्या रूमकडे पावलं टाकली. मोबाईलवर स्क्रोलिंग करत लोळत पडलेली नात आजीला पाहून ‘ये बस’ म्हणाली. नाश्त्याला काय करायचं हे विचारायला आले होते, असं म्हणत आजी मऊ गादीवर बसताच बेडमध्ये रुतून गेली. नातीने तिघांच्या फॅमिली व्हॉट्स अप ग्रुपवर आजीचा मेसेज फॉरवर्ड केला. स्वीगीने मागवून घेऊया असा आईचा रिप्लाय आला. घरातल्या घरात मेसेजवर बोलणारे लोक पाहून आजी आश्चर्यचकित झाली. इथे हाकारे ऐकू आले नाहीत, तरी मेसेज पुढच्या क्षणाला रीड होतो, असं नात म्हणाली. गृह कलह टाळण्याचा नवीन फंडा बघून आजी इम्प्रेस झाली. नातीकडून मोबाईल शिकून घेत फॅमिली ग्रुपमध्ये टेम्पररी ऍड झाली. आजी तिच्या सेपरेट रूममध्ये मोबाईलसह दहा दिवस सुखाने राहिली. मुलाला-सुनेला आशीर्वादाचा इमोजी आणि नातीला gpay करून परत निघताना ग्रुपमधून लेफ्ट झाली.
(‘शांतीप्रिय माणसं’ ग्रंथातून साभार)
लेखिका – सुश्री ज्योत्स्ना गाडगीळ
प्रस्तुती : सुश्री प्रभा हर्षे
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – चातक व्रत का वरण किया है…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 62 – चातक व्रत का वरण किया है… ☆ आचार्य भगवत दुबे
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “मनोज के दोहे”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है आपके द्वारा सुश्री संतोष श्रीवास्तव जी द्वारा लिखित “कर्म से तपोवन तक ” (उपन्यास) पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 163 ☆
☆ “कर्म से तपोवन तक ” (उपन्यास) – लेखिका … सुश्री संतोष श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
पुस्तक – कर्म से तपोवन तक (उपन्यास)
माधवी गालव पर केंद्रित कथानक
लेखिका … सुश्री संतोष श्रीवास्तव
दुनियां में विभिन्न संस्कृतियों के भौतिक साक्ष्य और समानांतर सापेक्ष साहित्य के दर्शन होते हैं। भारतीय संस्कृति अन्य संस्कृतियों से कहीं अधिक प्राचीन है। रामायण और महाभारत भारतीय संस्कृति के दो अद्भुत महा ग्रंथ हैं। इन महान ग्रंथों में धार्मिक, पौराणिक, ऐतिहासिक और दार्शनिक, आध्यात्मिक और वैचारिक ज्ञान की अनमोल थाथी है। महाभारत जाने कितनी कथायें उपकथायें ढ़ेरों पात्रों के माध्यम से न्याय, शिक्षा, चिकित्सा, ज्योतिष, युद्धनीति, योगशास्त्र, अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र, शिल्पशास्त्र, कामशास्त्र, खगोलविद्या के गुह्यतम रहस्यों को संजोये हुये है। परंपरागत रूप से, महाभारत की रचना का श्रेय वेदव्यास को दिया जाता है। धारणा है कि महाभारत महाकाव्य से संबंधित मूल घटनाएँ संभवतः 9 वीं और 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के बीच की हैं। महाभारत की रचना के बाद से ही अनेकानेक विद्वान सतत उसकी कथाओ का विशद अध्ययन, अनुसंधान, दार्शनिक विवेचनायें करते रहे हैं। वर्तमान में अनेकानेक कथावाचक देश विदेश में पुराणो, भागवत, रामकथा, महाभारत की कथाओ के अंश सुनाकर समाज में भक्ति का वातावरण बनाते दिखते हैं। विश्वविद्यालयों में महाभारत के कथानकों की विवेचनायें कर अनेक शोधार्थी निरंतर डाक्टरेट की उपाधियां प्राप्त करते हैं। प्रदर्शन के विभिन्न माध्यमो में ढ़ेरों फिल्में, टी वी धारावाहिक, चित्रकला, साहित्य में महाभारत के कथानकों को समय समय पर विद्वजन अपनी समझ और बदलते सामाजिक परिवेश के अनुरूप अभिव्यक्त करते रहे हैं।
न केवल हिन्दी में वरन विभिन्न भाषाओ के साहित्य पर महाभारत के चरित्रों और कथानको का व्यापक प्रभाव परिलक्षित होता है। महाभारत कालजयी महाकाव्य है। इसके कथानकों को जितनी बार जितने तरीके से देखा जाता है, कुछ नया निकलता है। हर समय, हर समाज अपना महाभारत रचता है और उसमें अपने अर्थ भरते हुए स्वयं को खोजता है। महाभारत पर अवलंबित हिन्दी साहित्य की रचनायें देखें तो डॉ॰ नरेन्द्र कोहली का प्रसिद्ध महाकाव्यात्मक उपन्यास महासमर, महाभारत के पात्रों पर आधारित रचनाओ में धर्मवीर भारती का अंधा युग, आधे-अधूरे, संशय की रात, सीढ़ियों पर धूप, माधवी (नाटक), शकुंतला (राजा रवि वर्मा), कीचकवधम, युगान्त, आदि जाने कितनी ही यादगार पुस्तकें साहित्य की धरोहर बन गयी हैं।
महाभारत से छोटे छोटे कथानक लेकर अनेकानेक रचनायें हुईं हैं जिनमें रचनाकार ने अपनी सोच से कल्पना की उड़ान भी भरी है। इससे निश्चित ही साहित्य विस्तारित हुआ है, किन्तु इस स्वच्छंद कल्पना के कुछ खतरे भी होते हैं। उदाहरण स्वरूप रघुवंश के एक श्लोक की विवेचना के अनुसार माहिष्मती में इंदुमती प्रसंग में कवि कुल शिरोमणी कालिदास ने वर्णन किया है कि नर्मदा, करधनी की तरह माहिष्मती से लिपटी हुई हैं। अब नर्मदा के प्रवाह के भूगोल की यह स्थिति मण्डला में भी है और महेश्वर में भी है। दोनो ही शहर के विद्वान स्वयं को प्राचीन माहिष्मती सिद्ध करने में जुटे रहते हैं। साहित्य के विवेचन विवाद में वास्तविकता पर भ्रम पल रहा है।
मैं भोपाल में मीनाल रेजीडेंसी में रहता हूं, सुबह घूमने सड़क के उस पार जाता हूं। वहाँ हाउसिंग बोर्ड ने जो कालोनी विकसित की है, उसका नाम करण अयोध्या किया गया है, एक सरोवर है जिसे सरयू नाम दिया गया है। हनुमान मंदिर भी बना हुआ है, कालोनी के स्वागत द्वार में भव्य धनुष बना है। मैं परिहास में कहा करता हूं कि सैकड़ों वर्षों के कालांतर में कभी इतिहासज्ञ वास्तविक अयोध्या को लेकर संशय न उत्पन्न कर देँ। दुनियां में अनेक स्थानो पर जहां भारतीय बहुत पहले बस गये हैं जैसे कंबोडिया, फिजी आदि वहां राम को लेकर कुछ न कुछ साहित्य विस्तारित हुआ है और समय समय पर तदनुरूप चर्चायें विद्वान अपने शोध में करते रहते हैं। इसी भांति पढ़ने, सुनने से जो भ्रम होते हैं उसका एक रोचक उदाहरण बच्चों की एक बहस में मिलता है। एक साधु कहीं से गुजर रहे थे, उन्हें बच्चों की बहस सुनाई दी। कोई बच्चा कह रहा था मैं हाथी खाउंगा, तो कोई ऊंट खाने की जिद कर रहा था, साधु का कौतुहल जागा कि आखिर यह माजरा क्या है, यह तो शुद्ध सनातनी मोहल्ला है। उन्होंने दरवाजे पर थाप दी, भीतर जाने पर वे अपनी सोच पर हंसने लगे दरअसल बच्चे होली के बाद शक्कर के जानवरों को लेकर लड़ रहे थे। यह सब मैं इसलिये कह रहा हूं क्योंकि मैंने संतोष श्रीवास्तव जी का उपन्यास कर्म से तपोवन तक पढ़ा। और महाभारत के वे श्लोक भी पढ़े जहां से माधवी और गालव पर केंद्रित कथानक लिया गया है। अपनी भूमिका में ही संतोष जी स्पष्ट लिखती हैं, उधृत है ..”माधवी पर लिखना मेरे लिये चुनौती था। इस प्रसंग पर उपन्यास, नाटक, खंडकाव्य बहुत कुछ लिखा जा चुका है, थोडे बहुत उलट फेर से वही सब लिखना मुझे रास नहीं आया। मुझे माधवी के जीवन को नए दृष्टिकोरण से परखना था। गालव, माधवी धीरे-धीरे अंतरंग होते गए और दोनों के बीच दैहिक संबंध बन गए। मैंने इसी छोर को पकडा। ये अंतरंग संबंध मेरी माधवी कथा का सार बन गया, और मैंने माधवी का चरित्र इस तरह रचा जिसमें वह गालव से प्रेम के चलते ही राजा हर्यश, दिवोदास और उशीनर की अंकशायनी बनकर अपने अक्षत यौवना स्वरूप के साथ तीनों के बच्चों की माँ बनी। ” मेरा मानना है कि यह लेखिका की कल्पनाशीलता और उनकी साहित्यिक स्वतंत्रता है।
हो सकता है, यदि मैं इस प्रसंग पर लिखता तो शायद मैं माधवी के भीतर छुपी उस माँ को लक्ष्य कर लिखता जो बारम्बार अपनी कोख में संतान को नौ माह पालने के बाद भी लालन पालन के मातृत्व सुख से वंचित कर दी जाती है। गालव बार बार उसका दूध आंचल में ही सूखने को विवश कर उसे क्रमशः नये नये राजा की अंकशायनी बनने पर मजबूर करता रहा। मुझे संतोष जी की तरह गालव में माधवी के प्रति प्रेम नहीं दिखता। अस्तु।
उपन्यास में सीधा कथानक संवाद ही है, मुंशी प्रेमचंद या कोहली जी की तरह परिवेश के विस्तृत वर्णन का साहित्यिक सौंदर्य रचा जा सकता था जिसका अभाव लगा। उपन्यास का सारांश भूमिका में कथा सार के रूप में सुलभ है। महाभारत के उद्योग पर्व के अनुसार राजा ययाति जब अपने सबसे छोटे पुत्र पुरु को उसका यौवन लौटाकर वानप्रस्थ ग्रहण कर चुके होते हैं तभी गालव उनसे काले कान वाले ८०० सफेद घोड़ों का दान मांगने आता है। ययाति जिनका सारा चरित्र ही विवादस्पद रहा है, गालव को ऐसे अश्व तो नहीं दे सकते थे, क्योंकि वे राजपाट पुरु दे चुके थे। अपनी दानी छबि बचाने के लिये वे गालव को अपनी अक्षत यौवन का वरदान प्राप्त पुत्री माधवी को ही देते हैं, और गालव को अश्व प्राप्त करने का मार्ग बताते हैं कि माधवी को अलग अलग राजाओ के संतानो की माँ बनने के एवज में गालव राजाओ से अश्व प्राप्त कर ले। सारा प्रसंग ही आज के सामाजिक मापदण्डों पर हास्यास्पद, विवादास्पद और आपत्तिजनक तथा अविश्वसनीय लगता है। मुझे तो लगता है जैसे हमारे कालेज के दिनों में यदि ड्राइंग में मैने कोई सर्कल बनाया और किसी ने उसकी नकल की, फिर किसी और ने नकल की नकल की तो होते होते सर्कल इलिप्स बन जाता था, शायद कुछ इसी तरह ये असंभव कथानक किसी मूल कथ्य के अपभ्रंश न हों। कभी कभी मेरे भीतर छिपा विज्ञान कथा लेखक सोचता है कि महाभारत के ये विचित्र कथानक कहीं किसी गूढ़ वैज्ञानिक रहस्य के सूत्र वाक्य तो नहीं। ये सब अन्वेषण और शोध के विषय हो सकते हैं।
आलोच्य उपन्यास से कुछ अंश उधृत कर रहा हूं, जो संतोष जी की कहन की शैली के साथ साथ कथ्य भी बताते हैं।
“महाराज आपका यह पुत्र वसुओं के समान कांतिमान है। भविष्य में यह खुले हाथों धन दान करने वाला दानवीर राजा कहलाएगा। इसकी ख्याति चारों दिशाओं में कपूर की भांति फैलेगी। प्रजा भी ऐसे दानवीर और पराक्रमी राजा को पाकर सुख समृद्धि का जीवन व्यतीत करेगी। राजा हर्यश्व और सभी रानियां राजपुरोहित के कहे वचनों से अत्यंत प्रसन्न थी। “
“वसुमना के जन्म के बाद से ही राजा हर्यश्च ने माधवी के कक्ष में आना बंद कर दिया था। इतने दिन तो माधवी को वसुमना के कारण इस बात का होश न था पर राजमहल से प्रस्थान की अंतिम बेला में उसने सोचा पुरुष कितना निर्माही होता है। “
“गालव निर्णय ले चुका था ठीक है राजन, आप माधवी से अपने मन की मुराद पूरी करें। आज से ठीक। वर्ष पक्षात में माधवी को तथा 200 अश्वों को आकर ले जाऊंगा। “
इतने अश्वों का विश्वामित्र जैसे तपस्वी करेंगे क्या? उनके आश्रम का तपोवन तो अश्वों से ही भर जाएगा। ” “मेरे मन में तो यह प्रश्न भी बार-बार उठता है कि गुरु दक्षिणा में उन्होंने ऐसे दुर्लभ अश्वों की मांग ही क्यों की ?
“क्या कह रहे हो मित्र, माधवी का तो स्वयंवर होने वाला था। ” “हां गालव स्वयंवर तो हुआ था देवी माधवी का, किंतु उन्होंने उस स्वयंवर में पधारे अतिथियों में से किसी का भी चयन न कर तपोवन को स्वीकार किया। यहां तक कि उन्होंने हाथ में पकड़ी वरमाला तपोवन की ओर उछालते हुए कहा कि मैं तुम्हें स्वीकार करती हूं। हे तपोवन, आज से तुम ही मेरे जीवन साथी हो। “
इस तरह की सरल सहज संवाद शैली में “कर्म से तपोवन तक” के रूप में सुप्रसिद्ध लोकप्रिय बहुविध वरिष्ठ कथा लेखिका, कई किताबों की रचियता और देश विदेश के साहित्यिक पर्यटन की संयोजिका, ढ़ेर सारे सम्मान और पुरस्कार प्राप्त संतोष श्रीवास्तव जी का यह साहित्यिक सुप्रयास स्तुत्य है। मन झिझोड़ने वाला असहज कथानक है। स्वयं पढ़ें और स्त्री विमर्श पर तत्कालीन स्थितियों और आज के परिदृश्य का अंतर स्वयं आकलित करें।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “पग विद्यालय”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 198 ☆
🌻लघुकथा🌻 👣पग विद्यालय 👣
संस्कारों की शिक्षा घर से ही आरंभ हो जाती है। बच्चा जैसा देखता सुनता है। वही उसे अच्छा लगने लगता है। आजकल बढ़ते कोचिंग सेंटर, पढ़ाई का खर्च और महंगी पाठशाला सभी को समझ आने लगा है।
घर-घर की कहानी कहते इसमें कब एक वृद्धा आश्रम आ गया और जुड़ गया। पता ही नही चला।
यह केवल शहरों में ही नहीं गाँव तक पहुंच चुका है। गाँव की एक छोटी सी पाठशाला जहाँ पर सभी उम्र के बच्चों को पढ़ाया जाता है ।
अध्यापक भी गिनती में होते हैं। तेज बारिश की वजह से आज सभी एक बड़ी कक्षा में बैठे थे। अध्यापक सभी से बारी – बारी प्रश्न कर रहे थे कि– कौन-कौन बड़ा होकर क्या-क्या बनना चाहता है।
अध्यापक, संस्थापक, संपादक,लेखक, डॉक्टर, इंजीनियर मंत्री, सरपंच, कृषक, बिजनेसमैन, सेनापति, दुकानदार आदि – आदि सभी बालक अपनी-अपनी राय पसंद बता रहे थे।
मासूम सा एक बालक चुपचाप बैठा था। अध्यापक ने पूछा–क्यों? समीर क्या – – तुम क्या बनना चाहते हो।
सिर नीचे झुकते हुए उसने कहा गुरु जी मुझे पग विद्यालय खोलना है। हंसी का फव्वारा फूट पड़ा।
अध्यापक ने शांत परंतु आश्चर्य से कहा – – – यह क्या होता है और क्यों खोलना चाहते हो।
अध्यापक की समझ से भी परे था। समीर ने बड़ी ही मासूमियत से बोला– गुरू जी यह पग, पांव, पैर हैं – – जो यह कभी शिकायत नहीं करता कि मैं नहीं चलूंगा। चाहे कहीं भी जाना हो बिना थकावट के चलता जाता है।
जो हमारे अन्नदाता, किसान, सेना के जवान और जो भी निस्वार्थ हमारी सेवा करते हैं। मैं पग विद्यालय खोलकर उनकी सेवा के लिए संगठन बनान चाहता हूँ।
ऐसे पग का निर्माण करना चाहता हूँ । जो भारत की पहचान और शान बने। इस विद्यालय के सभी पग पूजनीय और वंदनीय बनकर निकालेंगे। जहाँ चलेंगे, राहों में फूल बिखरेंगे और फिर एक दिन ऐसा आएगा कि— कभी कोई पग वृद्धा आश्रम, पागलखाना,रैन बसेरा या सेवा आश्रम की ओर नहीं बढ़ेगा।
पूरी कक्षा शांत हो गई। अध्यापक की सोच से कहीं हटकर। समीर अपनी बात कहता जा रहा था।
तालियां बजनी आरंभ हो गई। अध्यापक ने आगे बढ़ कर समीर को सीने से लगा लिया।