(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं प्रदत्त शब्दों पर भावना के दोहे।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है बुंदेली पूर्णिका – कैसे रख हो प्रसन्न सभै खोँ…। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 217 ☆
☆ बुंदेली पूर्णिका – कैसे रख हो प्रसन्न सभै खोँ…☆ श्री संतोष नेमा ☆
☆ “अशीच श्यामल वेळ..सख्या रे…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर☆
.”.. तुमची काही हरकत नसेल तर इथे या बाकड्यावर थोडावेळ बसावं म्हणतो.!”..
..”. मगं बसा की!.. माझी कसली हरकत आली आहे.?. या बागेतला बाक तर सार्वजनिक आहे… कोणीपण बसू शकतो त्याला हवा तेवढा वेळ… मात्र बाक आधीच पूर्ण भरलेला असेल तर मग बसायला मिळायचं नाही बरं… आणि मी तर या बाकावर एकटीच बसलेली आहे.. तसा बाकीचा बाक मोकळाच आहे की!… “
.”.. एक विचारु,मी तुम्हांला रोज या वेळेला इथं असचं या बाकावरं एकटचं बसलेलं पाहत आलेलो आहे… त्यावेळी मी मागे तिकडे झाडाजवळ उभा राहून संध्याकाळची शोभा पाहता पाहता या शोभेकडे कसे डोळे खिळले जातात तेच कळेनासं होतं… अगदी अंधार पडू लागला की तुम्ही उठून जाईपर्यंत हि नजर मागे पर्यंत वळत जाते… “
.”.. माझा काय पाठलाग करत असता कीञ काय या वयात देखील?… शोभतं का तुम्हाला असलं वागणं.?.. आणि माझं नावं शोभा आहे हे कसं शोधून काढलतं तुम्ही?… हेरगिरी वगेरे नोकरीपेशा तर करत नव्हता ना रिटायर्ड होण्याआधी… “
.”.. वा तुम्ही सुद्धा कमी हुशार नाहीत बरं.!.. मी पूर्वी काय करत होतो हे बरोबर ओळखलतं… बायका मुळीच जात्या हुशार असतात हे काही खोटं नाही.!.. “
..”. तुम्हाला ही बाग फार आवडते असं दिसतयं… नेहमी संध्याकाळी इथं जेव्हा येता तेव्हा माझी आणि तुमची येण्याची वेळ कशी अगदी ठरवल्याप्रमाणे जुळते… “
.”.. मला देखील ते लक्षात आलयं बरं.!. पण मी काही ते चेहऱ्यावर माझ्या दाखवून दिलं नाही!… उगाच परक्या माणसाला गैरसमज व्हायचा… आणि आणि… “
…” आणि आणि काय.?.. “
“.. न.. नको.. नाहीच ते!.. काय बोलून दाखवयाचं ते!…तुम्हाला म्हणून सांगते या बागेशी माझं नातं खूप खूप जुनं आहे… ही संबंध बाग माझ्या ओळखीची आहे… इथं खाली तळ्याजवळ गणपतीचं सुंदर मंदिर आहे… संध्याकाळच्या वेळी आरतीला वाजणारी किण किण झांज तो घंटानाद ऐकू येतो तेव्हा आपलं मन तल्लीन होऊन जातं… अगदी स्वतःला विसरून जायला होतं… . पण सात वाजले कि बागेचा रखवालदार कर्कश शिट्या मारून सगळ्यांना बाहेर जायला भाग पडतो… आणि तसं घरी आईनं पण ताकीद केलेली असायची कुठल्याही परिस्थितीत संध्याकाळी सात च्या आत घरात आलचं पाहिजे म्हणून… मग त्या भीतीनं पावलं झपझप टाकत घरी जाणं व्हायचं… जी लग्नाच्या आधी शिस्त तिनं लावली ती लग्नानंतरही तशीच पाळली गेली… तेव्हा आई होती आता सासूबाई आहेत.. एव्हढाच फरक… “
“… बस्स एव्हढाच फरक.!. आणखी काही फरक पडलाच नाही!
… त्यावेळी कुणाची तरी वाट पाहणे होत असेलच की.. मग कधीतरी नेहमीपेक्षा जास्त उशीर झाला असणारं की.. आईची बोलणी खावी लागली असतील… चवथीच्या चंद्राची कोर खिडकीतून डोकावून बघत असताना… आईला संशय आला असेल… मग घरच्यांना त्या चंद्राचा शोध लागला… आणि ही चंद्राची शोभेची पाठवणी केली असचं ना! “
… ” माझ्या देखील अशाच आठवणी आहेत… आणि इथं आल्यावर त्या एकेक उलगडत जातात…”
… ” काय सांगतायं अगदी सेम टू सेम… म्हणजे पाडगांवकर म्हणतात तसं प्रेम म्हणजे प्रेम असतं तुमचं आमचं सेम असतं.. अगदी तसचं की हे…
बरं झालं बाई तुमची या निमित्ताने ओळख झाली…अंधार पडायला लागला..आणि तो रखवालदार दुष्ट शिट्या मारतोय.. बाहेर निघा म्हणून… मग मी येऊ चंद्रशेखर… “
..” शोभा काय हे.. किती छान रंगला होता खेळ.. कशाला मधेच घाई केलीस खेळ थांबविण्याची.. . तुझं नेहमीच असं असतं जरा म्हणून कल्पेनेत वावरायचं नाही.. सदानकदा वास्तवात राहणारी तू… “
” पूरे चंद्र शेखर.. घरी सुना नातवंड आहेत आपल्या.. त्यांना विसरून कसं चालेल… आपला आजचा खेळ परत उद्या यावेळेला पुढे सुरू करुया… “
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “वन तपोवन सा प्रभु ने किया…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 199 ☆ वन तपोवन सा प्रभु ने किया… ☆
भगवान जो करते हैं अच्छे के लिए करते हैं। कठोर निर्णय भले ही हृदय विदारक हों किंतु न जाने कितनों को शिक्षित करते जाते हैं।
जब सब कुछ सहजता से मिलने लगे तो व्यक्ति उसका महत्व नहीं समझता ,मजाक बनाकर रख देता है। सम्मानित लोगों को अपमानित करना उसके बाएँ हाथ का खेल होता है। इस हार ने न जाने कितनों को आत्म मूल्यांकन हेतु विवश किया है। जो इस क्षेत्र के नहीं हैं वे भी कहीं न कहीं मानसिक रूप से इससे जुड़ाव कर रहे थे। एक साथ इतनी उम्मीदों का टूटना जिसकी आवाज सदियों तक ब्रह्मांड में गूंजती रहेगी।
कोई एक तत्व इसके लिए जिम्मेदार हो तो कहें पूरा का पूरा कुनबा वैचारिक रूप से अहंकारी हो गया था। बड़ बोलापन, शक्ति का केंद्रीकरण, एकव्यक्ति पूरी दुनिया बदल देगा ये भ्रम टूटना आवश्यक है। लोकतंत्र में हर व्यक्ति एक बराबर मूल्यवान है। संख्या बल योग्यता को नहीं परखता। ये सही है कि एक तराजू में सबको तौलने से योग्यता की उपेक्षा होती है जिसका दुष्परिणाम कार्यों में झलकता है।
जब भी अयोग्य लोगों ने चालबाजियों का सहारा लिया है तो उन्हें हारे का सहारा भी नहीं मिलता है क्योंकि सत्य और ईमानदारी की ताकत के आगे कोई नहीं टिक सकता। सत्य भले ही कुछ समय के लिए बेबस दिखे किंतु सत्य अड़िग और चमकदार होता है तभी तो सत्यम शिवम सुंदरम से आगे कुछ भी नहीं होता है।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना अजीब समस्या।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 8 – मुफ्ताटैक ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
राजस्व विभाग में मेरा काम मुफ्त में हो गया। इतनी खुशी मुझे जीवन में कभी नहीं मिली थी। एक बार के लिए मैं मूर्छित होने वाला था। वो तो मेरे परिजनों ने मुझे सही समय पर डॉक्टर के पास पहुँचाया। डॉक्टर ने मेरे परिजनों को बताया कि मुझे मुफ्ताटैक का दौरा पड़ा है। इन्हें ज्यादा खुश होने के अवसर मत दीजिए। नहीं तो आगे इन पर फिर से इस तरह का दौरा पड़ सकता है।
मुझे घर पर लाया गया। कुछ दिन बीते। एक दिन अचानक मेरी बंजर भूमि के लिए किसान फसल योजना के पैसे मेरे खाते में जमा होने लगे। मैं दिल्ली का किसान हूँ। यहाँ केवल राजनीति नहीं होती। कभी-कभी चमत्कार भी होते हैं। मैंने जीवन में कभी खेती नहीं की। इसलिए बिन उगाई फसल के लिए पैसे मिलने लगे तो किसे खुशी नहीं होगी। मुझे फिर से मुफ्ताटैक का दौरा पड़ने ही वाला था कि बेटे ने आकर बताया कि सरकार ने केवल आधे पैसे जमा किए हैं और आना बाकी है। जैसे-तैसे मैं मुफ्ताटैक से बच पाया।
मैं आधार कार्ड से बूढ़ा हो चला हूँ। इसलिए वृद्ध पेंशन योजना का लाभार्थी हूँ। असलियत में मेरी उम्र कुछ और है। उम्र ऐसी कि मैं कहीं भी नौकरी कर सकता हूँ। लेकिन जब बैठे-बिठाए चार पैसे मिल रहे हों, तो भला कोई नौकरी क्यों करेगा। कभी-कभी मेरा ईमान जाग उठता था। चुल्लू भर पानी में डूब मरने की इच्छा भी होती थी। हाय मैं यह भी न कर सका, क्योंकि सरकार मुफ्त का पानी चुल्लू भर की मात्रा से अधिक देती थी।
मैं अपनी इकाई से कम सरकार की इकाई से ज्यादा चलता हूँ। सरकार ने फलाँ इकाई तक बिजली मुफ्त कर दी थी। इसलिए मैंने उस इकाई को कभी पार नहीं की जहाँ मुझे सरकार को एक रुपया भी देना पड़े। कहते हैं मुफ्त की आदत पड़ जाए तो कैंसर और एड़स की बीमारियाँ भी बौने लगने लगती हैं। कभी-कभी तो लगता है कि मुफ्त की फिनाइल पैसे देकर खरीदे गए दूध से भी अधिक मजा देता होगा। मैं जब भी टीवी चलाता हूँ तो एक नई उम्मीद जाग उठती है कि आज सरकार कौनसी मुफ्त योजना लाने जा रही है। अब मुझे मुफ्तखोरी की आदत पड़ गई है। बीवी-बच्चों को भी मुफ्तभोगी बनने की ट्रेनिंग देता रहता हूँ। वे समझदार हैं। इसीलिए काम की तलाश से ज्यादा मुफ्त स्कीमों की खोज में लगे रहते हैं। मुझे गर्व है कि वे मुझ पर गए हैं। अब तो डॉक्टरों का कहना है कि मुझे मुफ्ताटैक का दौरा नहीं पड़ सकता, क्योंकि उन्होंने मुझे अनंत इच्छाओं की डोज़ वाली दवा लेने की सलाह जो दी है।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – राष्ट्रीय एकता के प्रवर्तक “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” उर्फ शहीद उधमसिंह।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 287 ☆
आलेख – राष्ट्रीय एकता के प्रवर्तक “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” उर्फ शहीद उधमसिंह
सरदार उधमसिंह की फिलासफी सदैव सर्वधर्म समभाव और राष्ट्रीय एकता की रही।
उन्होने आत्मनिर्भर होते ही अमृतसर में पेंटर केरूप में एक दूकान शुरू की थी, जिस पर अपना नाम “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” लिखा था, तब उनकी आयु मात्र २० बरस रही होगी । डायर की हत्या के बाद भी जब उनकी उम्र ४० बरस थी उन्होंने पोलिस को अपना यही स्वयं से स्वयं को दिया गया नाम “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” ही बताया था। वे इस नाम को हिन्दू, मुस्लिम, सिख एकता के प्रतीक केरूप में देखते थे। जीवन पर्यंत सरदार उधमसिंह राष्ट्रीय एकता के प्रबल समर्थक रहे, वे दुनियां भर में हर भारतवंशी को अपने भाई की तरह भारतीय ही देखते रहे।
आज जब देश में धर्म और जातिगत ध्रुवीकरण, आरक्षण की राजनीति हो रही है तो यदि वे होते तो उन्हें कितना दुख होता, कल्पनातित है। आज जब सरदार उधमसिंह की जाति कम्बोज, अर्थात पंजाब के चर्मकार ढ़ूढ़ ली गई है, और देश की आजादी में दलित जातियों का योगदान जैसे विषयों पर दिल्ली के विश्वविद्यालय में संगोष्ठी के आयोजन हो रहे हैं, या ऐसे राष्ट्रीय एकता के विघटनकारी विषयों पर पी एच डी के शोध कार्य किये जा रहे हैं, तो भले ही सामाजिक अध्ययन की दृष्टि से यह सब कितना ही उचित क्यों न हो किन्तु यह उस शहीद उधमसिंह की आत्मा को शांति देने वाला नहीं हो सकता जिसने अपना नाम ही “राम मोहम्मद सिंह आज़ाद” रख लिया था ।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक लघुकथा“एक और फोन कॉल..”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 173 ☆
☆ लघुकथा – एक और फोन कॉल☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
फोन की घंटी बजती तो पूरे परिवार में सन्नाटा छा जाता। किसी की हिम्मत ही नहीं होती फोन उठाने की। पता नहीं कब, कहाँ से बुरी खबर आ जाए। ऐसे ही एक फोन कॉल ने तन्मय के ना होने की खबर दी थी। तन्मय कोविड पॉजिटिव होने पर खुद ही गाडी चलाकर गया था अस्पताल में एडमिट होने के लिए। डॉक्टर्स बोल रहे थे कि चिंता की कोई बात नहीं, सब ठीक है। उसके बाद उसे क्या हुआ कुछ समझ में ही नहीं आया।अचानक एक दिन अस्पताल से फोन आया कि तन्मय नहीं रहा। एक पल में सब कुछ शून्य में बदल गया। ठहर गई जिंदगी। बच्चों के मासूम चेहरों पर उदासी मानों थम गई। वह बहुत दिन तक समझ ही नहीं सकी कि जिंदगी कहाँ से शुरू करे। हर तरह से उस पर ही तो निर्भर थी अब जैसे कटी पतंग। एकदम अकेली महसूस कर रही थी अपने आप को। कभी लगता क्या करना है जीकर ? अपने हाथ में कुछ है ही नहीं तो क्या फायदा इस जीवन का ? तन्मय का यूँ अचानक चले जाना भीतर तक खोखला कर गया उसे।
ऐसी ही एक उदास शाम को फोन की घंटी बज उठी, बेटी ने फोन उठाया। अनजान आवाज में कोई कह रहा था – ‘बहुत अफसोस हुआ जानकर कि कोविड के कारण आपके मम्मी –पापा दोनों नहीं रहे। बेटी ! कोई जरूरत हो तो बताना, मैं आपके सामनेवाले फ्लैट में ही रहता हूँ।’
बेटी फोन पर रोती हुई, काँपती आवाज में जोर–जोर से कह रही थी – ‘मेरी मम्मी जिंदा हैं, जिंदा हैं मम्मा। पापा को कोविड हुआ था, मम्मी को कुछ नहीं हुआ है। हमें आपकी कोई जरूरत नहीं है। मैंने कहा ना मम्मी —‘
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक कुल 148 मौलिक कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।