हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 193 ☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है दोहा सलिला…।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 193 ☆

☆ दोहा सलिला ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

निज माता की कीजिए, सेवा कहें न भार।

जगजननी तब कर कृपा, देंगी तुमको तार।।

*

जन्म ब्याह राखी तिलक गृह-प्रवेश त्योहार।

सलिल बचा पौधे लगा, दें पुस्तक उपहार।।

*

कोशिश करते ही रहें, कभी न मानें हार।

पहनाए मंजिल तभी, पुलक विजय का हार।।

*

डरकर कभी न दीजिए, मत मेरे सरकार।

मत दें मत सोचे बिना, चुनें सही सरकार।। 

*

कमी-गलतियों को करें, बिना हिचक स्वीकार।

मन-मंथन कर कीजिए, खुद में तुरत सुधार।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

१२.४.२०२४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: salil.sanjiv@gmail.com

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-24 – राहों पे नज़र रखना और होंठों पे दुआ… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग -24 – राहों पे नज़र रखना और होंठों पे दुआ… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

समय के साथ साथ कैसे व्यक्ति ऊपर की सीढ़ियां चढ़ता है, यह देखना समझना हो तो आजकल ‘जनसत्ता’ के संपादक मुकेश भारद्वाज को देखिए !

मुकेश भारद्वाज को याद करते हुए विनम्रता से यह बताना बहुत जरूरी समझता हूँ कि यह उन दिनों की बात है जब मैंने बीएड की परीक्षा पास की ही थी। नवांशहर के मेरे बीएड काॅलेज की प्राध्यापिका व मेरी बहन डाॅ देवेच्छा ने मुझे काव्य पाठ प्रतियोगिता का पहली बार निर्णायक बनाया। परिणाम घोषित किया तो एक लम्बा सा , पतला सा लड़का हम निर्णायकों के पास आया और विनम्रता से द्वितीय पुरस्कार दिए जाने का आभार व्यक्त करने लगा। वह होशियारपुर से आया था। वह मुकेश भारद्वाज था जो आज ‘दैनिक जनसत्ता’ का दिल्ली में संपादक है।

मुकेश ने कहा कि कोई राह सुझा दीजिए। मैं तब तक अध्यापन के साथ ‘दैनिक ट्रिब्यून’ का नवांशहर क्षेत्र में आंशिक रिपोर्टर हो चुका था और मुझे अध्यापन से ज्यादा पत्रकारिता में मज़ा और रोमांच आने लगा था। मैंने उसे पत्रकारिता की जितनी मेरी समझ बनी थी उसकी जानकारी दी और होशियारपुर चूंकि मेरा ननिहाल था , इसलिए लकड़ी के खिलौनों पर फीचर लिखने का सुझाव दिया। मुकेश ने लिखा और ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में भेजा , जिसे तब रविवारीय संस्करण के प्रभारी और सहायक संपादक वेदप्रकाश बंसल ने प्रकाशित भी कर दिया। इसके बाद मुकेश भारद्वाज के भारद्वाज के अनेक फीचर ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में आए। एक बार मैं चिंतपुर्णी (हिमाचल)जाते समय सपरिवार मुकेश का पता खोजते मिलने पहुंच गया और उसके परिवार से मिला। बहन कैलाश भी अब चंडीगढ़ में रहती है। इसके बाद मुकेश सन् 1987 में ‘जनसत्ता’ में टेस्ट दिया और रिपोर्टर चुना गया।

समय का कमाल देखिए कि सन् 1990 में मैं भी शिक्षण को अलविदा कह ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में उपसंपादक बन कर चंडीगढ़ पहुंच गया। ‘जनसत्ता’ कार्यालय में मुकेश से मिलने गया। कैंटीन में भीड़ होने के कारण हमने चाय की चुस्कियां सीढ़ियों पर बैठ कर लीं और खूब बतियाए।

मैं सन् 1997 में हिसार का रिपोर्टर बन कर हरियाणा आ गया तब से मुलाकात नहीं हुई लेकिन सम्पर्क बना रहा।

एक दिन हिसार के ‘नभछोर’ के संपादक ऋषि सैनी ने कहा कि मैं ‘जनसत्ता’ के संपादक मुकेश भारद्वाज को फोन लगाता हूं लेकिन सम्पर्क नहीं होता , बात करने की इच्छा है। असल में वे ‘जनसत्ता’ के फैन हैं और प्रभाष जोशी को भी खूब पढ़ते रहे थे। मैंने कहा कि लीजिए बात करवा देता हूँ।

 मैंने तुरंत मुकेश को फोन लगा दिया। उसने बड़े आदर से ‘सर’ कह कर  संबोधित किया और मैंने ऋषि सैनी से बात करने को कहा। जब दोनों की बात खत्म हुई तब मुकेश ने कहा कि सर को फोन दीजिए। उसने बड़े आग्रह से कहा कि आप तो पंजाब के कथाकार हो। ‘जनसत्ता’ के लिए कहानी भेजिए। मैंने दूसरे दिन ही कहानी भेज दी और उसी आने वाले रविवारी जनसत्ता में प्रकाशित भी हो गयी। यह उसका मेरे प्रति आदर था या कृतज्ञता या गुरु दक्षिणा, कह नहीं सकता। फिर और कहानियां भी भेजीं जो प्रकाशित होती गयीं। ‘नानी की कहानी’, ‘चरित्र’ आदि कहानियाँ प्रकाशित हुईं।

फिर ‘जनसत्ता’ के गरिमामयी दीपावली विशेषांक में भी मेरी कहानी आई -नीले घोड़े वाले सवार।  फिर ‘दुनिया मेरे आगे’ में भी लेख भी आये।

इन दिनों मुकेश हर शनिवार ‘जनसत्ता’ में अपना साप्ताहिक स्तम्भ-बेबाक बोल लिख रहा है जो खूब चर्चित भी है और पसंद भी किया जा रहा है। लगे रहो। बस, कलम पैनी रखना।

मुकेश भारद्वाज पंजाबी कवियों के अंशों को भी अपने स्तम्भ में बड़ी सही जगह उपयोग करता है, जो यह बता देता है कि मुकेश एक कवि /लेखक भी है और पंजाबी साहित्य से भी जुड़ा है।

 आज सुबह वैसे ही मन आया कि रास्ता तो एक शिक्षक पूरी क्लास को दिखाता है लेकिन कोई कोई मुकेश भारद्वाज जैसा प्रतिभावान अपनी मंजिल खुद बना और पा लेता है। बधाई मुकेश। इसमें तुम्हारी मेहनत ज्यादा झलकती है।

यह चंडीगढ़ ही था जहाँ मुझे डाॅ योजना रावत, बृज मानसी से मिलने का अवसर मिला। ये दोनों ‘जनसत्ता’ में काॅलम लिखती थीं। बृज मानसी पंजाब विश्वविद्यालय के कार्यक्रमों में मिलती और हिमाचल से आई थी एम ए अंग्रेज़ी करने ! उसने एक बार ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में समीक्षा स्तम्भ में जुड़ने की इच्छा जाहिर की और मैंने संपादक विजय सहगल से मिलवाया और उसकी यह इच्छा भी पूरी है गयी। फिर वह अमेरिका चली गयी और संबंध वहीं छूट गया। योजना रावत के कथा संग्रह के विमोचन पर भी मौजूद रहा और कहानी भी प्रकाशित की – ‘कथा समय’ में ! राजी सेठ और निर्मला जैन विशेष तौर पर आमंत्रित थीं।

चंडीगढ़ में ही वरिष्ठ पत्रकार ज्ञानेंद्र भारद्वाज का इंटरव्यू लेने तब भेजा गया जब वे हिंदुस्तान से सेवानिवृत्त होकर अपने पैतृक गांव बद्दी बरोटीवाला जा रहे थे और सामान पैक हो रहा था। वे समाजसेवा में जाना चाहते थे लेकिन ज़िंदगी ने उन्हें यह अवसर न दिया। वैसे वे मेरी साहित्यिक यात्रा के पहले संपादक रहे। वे जालंधर से प्रकाशित ‘जन प्रदीप ‘ के संपादक थे और मेरी पहली पहली रचनाएँ इसी में प्रकाशित हुई और मैं कभी कभी भगत सिंह चौक के सामने बने कार्यालय में भी जाता। वहीं अनिल कपिला से पहली मुलाकात हुई, जो बरसों बाद ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में फिर जुड़ गयी ! ‘जन प्रदीप’ में साहित्य संपादक थे पूर्णेंदू ! वे हर माह किसी न किसी शहर में काव्य गोष्ठी रखते और एक बार लुधियाना में काव्य गोष्ठी रखी साइकिल कंपनी के मालिक मुंजाल की कोठी में, ये वही मुंजाल फेमिली है, जो आजकल हीरो हांडा के लिए जानी जाती है ! वैसे यह भी बताना कम रोचक नही होगा कि ज्ञानेंद्र भारद्वाज की बेटी सुहासिनी  ‘नभ छोर’ द्वारा प्रकाशित अंग्रेज़ी दैनिक ‘ होम पेजिज’ में रिपोर्टर बन कर हिसार आई और कुछ कवरेज के दौरान मुलाकातें होती रहीं। भारद्वाज की बड़ी बेटी मनीषा प्रियंवदा से भी जब हरियाणा ग्रंथ अकादमी का उपाध्यक्ष बना तब मुलाकात हुई और वह हमारे मित्र हरबंश दुआ की पत्नी है, जो खुद एक अच्छे लेखक हैं और उनकी किताबें आधार प्रकाशन से आई हैं। ‌वैसे वे बहुत ही क्रियेटिव शख्स हैं और मोहाली में उनका ऐसा शानदार शो रूम भी देखने को मिला! उन्होंने ही बताया कि सुहासिनी आजकल विदेश में है ! ज्ञानेंद्र भारद्वाज की वही इंटरव्यू मेरी पुस्तक ‘ यादों की धरोहर, में भी शामिल है।

मित्रो फिर‌ वही बात कि मैं कहाँ से कहां पहुंच गया ! इन पंक्तियों से आज विदा लेता हूँ :

होंठों पे दुआ रखना, राहों पे नज़र रखना

आ जाये कोई शायद दरवाजा खुला रखना!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #243 – 128 – “तुम हर वक्त ख़ुद से ही लड़ते रहते हो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल तुम हर वक्त ख़ुद से ही लड़ते रहते हो…” ।)

? ग़ज़ल # 128 – “तुम हर वक्त ख़ुद से ही लड़ते रहते हो…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

नसीब  सबके  कुछ  इसी तरह होते हैं,

तुम्हारी क़िस्मत में कुछ भी अजीब नहीं।

*

तुम हर वक्त ख़ुद से ही लड़ते रहते हो,

जमाने में  तुमसे बड़ा कोई रक़ीब नहीं।

*

इस महफ़िल में सब सुनाने आए खुदी को,

तुम्हारी ग़ज़ल  सुनने  कोई  अदीब नहीं।

*

इश्क़ का  अमृत चख  कर देख यारा तू,

है  आबे जमज़म  नरक की ज़रीब नहीं।

*

मुसीबत से  निकलने  तरसता  आतिश,

सिवाय फ़ना अब बची कोई तरकीब नहीं।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 121 ☆ ।।मुक्तक।। ☆ ।। बहुत ही लाजवाब है जिंदगी।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 121 ☆

।।मुक्तक।। ☆ ।। बहुत ही लाजवाब है जिंदगी।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

जरा प्यार का अफसाना है ज़िंदगी।

हर रंग   को    समेटे  कोई तराना  है      जिंदगी।।

ज़िंदगी इम्तेहान लेती  है हमें मजबूत बनाने लिए।

मिलकर जिओ खुशी गम का याराना है जिंदगी।।

[2]

मन हार कर कभी भी  कोई जीत पाता नहीं है।

बिना संघर्ष के ख्याति कभी कोई  लाता नहीं  है।।

मत इंतज़ार करते रहो कुछअच्छा करने के लिए।

बात एक जान लो कि कल कभी आता नहीं है।।

[3]

बहुत सस्ती हैं खुशियां   बसती इसी जहान में।

मत खोजो उन्हें दूर कहीं     किसी   मुकाम में।।

छोटी-छोटी खुशियां ही बन जाती जाकर बडी।

बस सोच हो आपकी  अच्छी हर एक काम में।।

[4]

जान लो जरूर मेहनत का हमें फल  मिलता है।

देर से सही पर   आज नहीं तो कल मिलता है।।

कोई मुश्किल नहीं ऐसी जिससे पार न पा सकें।

कोशिश से ही हर समस्या का    हल मिलता है।।

[5]

यूँ जिओ कि जैसे कोई सुनहरा ख्वाब है जिन्दगी।

हर मुश्किल सवाल का लिए जवाब है  जिन्दगी।।

जो दोगे वही ही    लौट कर आएगा  जिन्दगी में।

यूँ समझ लो कि बहुत ही लाजवाब है जिन्दगी।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #238 ☆लालसा ज़हर है… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख लालसा ज़हर है… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 238 ☆

☆ लालसा ज़हर है… ☆

‘आवश्यकता से अधिक हर वस्तु का संचय व सेवन ज़हर है…सत्ता, संपत्ति, भूख, लालच, सुस्ती, प्यार, इच्छा, प्रेम, घृणा और आशा से अधिक पाने की हवस हो या जिह्वा के स्वाद के लिए अधिक खाने की इच्छा…दोनों ज़हर हैं, घातक हैं, जो इंसान के पतन का कारण बनती हैं।’ परंतु बावरा मन सब कुछ जानने के पश्चात् भी अनजान बना रहता है। जन्म से लेकर मृत्यु- पर्यंत इच्छाओं-आकांक्षाओं के मायाजाल में उलझा रहता है तथा और… और…और पाने की हवस उसे पल-भर के लिए भी चैन की सांस नहीं लेने देती। वैसे एक पथिक के लिए निरंतर चलना तो उपयोगी है, परंतु उसमें जिज्ञासा भाव सदैव बना रहना चाहिए। उसे बीच राह थककर नहीं बैठना चाहिए; न ही वापिस लौटना चाहिए, क्योंकि रास्ते तो स्थिर रहते हैं; अपने स्थान पर बने रहते हैं और चलता तो मनुष्य है।

इसलिए रवींद्रनाथ टैगोर ने ‘एकला चलो रे’ का संदेश देकर मानव को प्रेरित व ऊर्जस्वित किया था, जिसके अनुसार मानव को कभी भी दूसरों से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वह मानव को भ्रम में उलझाती है…पथ-विचलित करती है और उस स्थिति में उसका ध्यान अपने लक्ष्य से भटक जाता है। अक्सर वह बीच राह थक कर बैठ जाता है और उसे पथ में निविड़ अंधकार-सा भासता है। परंतु यदि वह अपने कर्तव्य-पथ पर अडिग है; अपने लक्ष्य पर उसका ध्यान केंद्रित है, तो वह निरंतर कर्मशील रहता है और अपनी मंज़िल पर पहुंच कर ही सुक़ून पाता है।

आवश्यकता से अधिक हर वस्तु की उपलब्धि व सेवन ज़हर है। यह मानव के लिए हानिकारक ही नहीं; घातक है, जानलेवा है। जैसे नमक शरीर की ज़रूरत है, परंतु स्वाद के लिए उसका आधिक्य रक्तचाप अथवा ब्लड-प्रैशर को  आह्वान देता है। उसी प्रकार चीनी भी मीठा ज़हर है; असंख्य रोगों की जन्मदाता है। परंतु सत्ता व संपत्ति की भूख व हवस मानव को अंधा व अमानुष बना देती है। उसकी लालसाओं का कभी अंत नहीं होता तथा अधिक …और अधिक पाने की उत्कट लालसा उसे एक दिन अर्श से फ़र्श पर ला पटकती है, क्योंकि आवश्यकताएं तो सबकी पूर्ण हो सकती हैं, परंतु निरंकुश आकांक्षाओं व लालसाओं का अंत संभव नहीं है।

आवश्यकता से अधिक मानव जो भी प्राप्त करता है, वह किसी दूसरे के हिस्से का होता है तथा लालच में अंधा मानव उसके अधिकारों का हनन करते हुए तनिक भी संकोच नहीं करता। अंततः वह एक दिन अपनी सल्तनत क़ायम करने में सफलता प्राप्त कर लेता है। उस स्थिति में उसका लक्ष्य अर्जुन की भांति निश्चित होता है, जिसे केवल मछली की आंख ही दिखाई पड़ती है… क्योंकि उसे उसकी आंख पर निशाना साधना होता है। उसी प्रकार मानव की भटकन कभी समाप्त नहीं होती और न ही उसे सुक़ून की प्राप्ति होती है। वास्तव में लालसाएं पेट की क्षुधा के समान हैं, जो कभी शांत नहीं होतीं और मानव आजीवन उदर-पूर्ति हेतु संसाधन जुटाने में व्यस्त रहता है।

परंतु यहां मैं यह स्पष्ट करना चाहूंगी कि नियमित रूप से मल-विसर्जन के पश्चात् ही मानव स्वयं को भोजन ग्रहण करने के योग्य पाता है। उसी प्रकार एक सांस को त्यागने के पश्चात् ही वह दूसरी सांस ले पाने में स्वयं को सक्षम पाता है। वास्तव में कुछ पाने के लिए कुछ खोना अर्थात् त्याग करना आवश्यक है। यदि मानव इस सिद्धांत को जीवन में अपनाता है, तो वह अपरिग्रह की वृत्ति को तरज़ीह देता है। वह हमारे पुरातन संत-महात्माओं की भांति परिग्रह अर्थात् संग्रह में विश्वास नहीं रखता, क्योंकि वे जानते थे कि भविष्य अनिश्चित है और गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। सो! आने वाले कल की चिंता व प्रतीक्षा करना व्यर्थ है और जो मिला है, उसे खोने का दु:ख व शोक मानव को कभी नहीं मानना चाहिए। गीता का संदेश भी यही है कि मानव जब जन्म लेता है तो उसके हाथ खाली होते हैं। वह जो कुछ भी ग्रहण करता है, इसी संसार से लेता है और अंतिम समय में सब कुछ यहीं छोड़ कर, उसे अगली यात्रा के लिए अकेले निकलना पड़ता है। यह चिंतनीय विषय है कि इस संसार में रहते हुए ‘पाने की खुशी व खोने का ग़म क्यों?’ मानव का यहां कुछ भी तो अपना नहीं…जो कुछ भी उसे मिला है– परिश्रम व भाग्य से मिला है। सो! वह उस संपत्ति का मालिक कैसे हुआ? कौन जानता है, हमसे पहले कितने लोग इस धरा पर आए और अपनी तथाकथित मिल्क़ियत को छोड़ कर रुख़्सत हो गए। कौन जानता है आज उन्हें? इसलिए कहा जाता है कि जिस स्थान की दो गज़ ज़मीन मानव को लेनी होती है; वह स्वयं वहां चलकर जाता है। यह सत्य कथन है कि जब सांसो का सिलसिला थम जाता है, तो हाथ में पकड़ा हुआ प्याला भी ओंठों तक नहीं पहुंच पाता है। सो! समस्त जगत्-व्यवहार सृष्टि-नियंता के हाथ में है और मानव उसके हाथों की कठपुतली है।

परंतु आवश्यकता से अधिक प्यार-दुलार, प्रेम-घृणा, राग-द्वेष आदि के भाव भी हमारे पथ की बाधा व अवरोधक हैं। प्यार में इंसान को अपने प्रिय के अतिरिक्त संसार में कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता। परंतु उस परमात्मा के प्रति श्रद्धा व प्रेम मानव को उस चिरंतन से मिला देता है; आत्म-साक्षात्कार करा देता है। इसके विपरीत किसी के प्रति घृणा भाव उसे दुनिया से अलग-थलग कर देता है। वह केवल उसी का चिंतन करता है और उसके प्रति प्रतिशोध की बलवती भावना उसके हृदय में इस क़दर घर जाती है कि वह उस स्थिति से उबरने में स्वयं को असमर्थ पाता है।

इसी प्रकार ‘लालच बुरी बला है’ यह मुहावरा हम सब बचपन से सुनते आ रहे हैं। लालच वस्तु का हो या सत्ता व धन-संपत्ति का; प्रसिद्धि पाने का हो या समाज में दबदबा कायम करने का जुनून– मानव के लिए हानिकारक है, क्योंकि ये सब उसमें अहं भाव जाग्रत करते हैं। अहं संघर्ष का जन्मदाता है, जो द्वन्द्व का परिणाम है अर्थात् स्वयं को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध करने का भाव मानव को नीचे गिरा देता है। वह अहंनिष्ठ मानव औचित्य- अनौचित्य व विश्वास-अविश्वास के भंवर में डूबता-उतराता रहता है और सही राह का अनुसरण नहीं कर पाता, क्योंकि वह भूल जाता है कि इन इच्छाओं-वासनाओं का अंत नहीं। परिणामत: एक दिन वह अपनों से दूर हो जाता है और रह जाता है नितांत अकेला; एकांत की त्रासदी को झेलता हुआ…और वह उन अपनों को कोसता रहता है कि यदि वे अहं का त्याग कर उसका साथ देते, तो उसकी यह मन:स्थिति न होती। एक लंबे अंतराल के पश्चात् वह अपनों के बीच लौट जाना चाहता है, जो संभव नहीं होता है। ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ अर्थात् सब कुछ लुट जाने के पश्चात् हाथ मलने अथवा प्रायश्चित करने का क्या लाभ व प्रयोजन अर्थात् उसे कुछ भी प्राप्त नहीं होता। जीवन की अंतिम वेला में उसे समझ आता है कि वे महल-चौबारे, ज़मीन-जायदाद, गाड़ियां व सुख-सुविधाओं के उपादान मानव को सुक़ून प्रदान नहीं कर सकते, बल्कि उसके दु:खों का कारण बनते हैं। वास्तविक सुख तो संतोष में है; परमात्मा से तादात्म्य में है; अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाकर संग्रह की प्रवृत्ति त्यागने में है; जो आपके पास है, उसे दूसरों को देने में है;  जिसकी सुधबुध उसे जीवन-भर नहीं रही। वह सदैव संशय के ताने-बाने में उलझा मृग- तृष्णाओं के पीछे दौड़ता रहा और खाली हाथ रहा। जीवन की अंतिम बेला में उसके पास प्रायश्चित करने के अतिरिक्त खोने के लिए शेष कुछ नहीं रहता। सो! मानव को स्वयं को माया- जाल से मुक्त कर सृष्टि-नियंता का हर पल ध्यान करना चाहिए, क्योंकि वह प्रकृति के कण-कण में वह समाया हुआ है और उसे प्राप्त करना ही मानव जीवन का अभीष्ठ है।

आलस्य समस्त रोगों का जनक है और जीवन- पथ में अवरोधक है, जो मानव को अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंचने देता। इसके कारण न तो वह अपने जीवन में  मनचाहा प्राप्त कर सकता है; न ही अपने लक्ष्य की प्राप्ति का स्वप्न संजो सकता है। इसके कारण मानव को सबके सम्मुख नीचा देखना पड़ता है। वह सिर उठाकर नहीं जी सकता और उसे सदैव असफलता का सामना करना पड़ता है, जो उसे भविष्य में निराशा-रूपी गहन अंधकार में भटकने को छोड़ देती है। चिंता व अवसाद की स्थिति से मानव लाख प्रयत्न करने पर भी मुक्त नहीं हो सकता। इस स्थिति से निज़ात पाने के लिए जीवन में सजग व सचेत रहना आवश्यक है। वैसे भी अज्ञानता जीवन को जड़ता प्रदान करती है और वह चाहकर भी स्वयं को उसके आधिपत्य, नियंत्रण अथवा चक्रव्यूह से मुक्त नहीं कर पाता। सो! जीवन में सजग रहते हुए अच्छे-बुरे की पहचान करने व लक्ष्य-प्राप्ति के निमित्त अनथक प्रयास करने की आवश्यकता है। आत्मविश्वास रूपी डोर को थाम कर इच्छाओं व आकांक्षाओं पर अंकुश लगाना संभव है। इस माध्यम से हम अपने श्रेय-प्रेय को प्राप्त कर सकते हैं तथा वह हमें उस मुक़ाम तक पहुंचाने में सहायक सिद्ध हो सकता है।

‘ब्रह्म सत्यं, जगत् मिथ्या’ अर्थात् केवल ब्रह्म ही सत्य है और भौतिक संसार व जीव-जगत् हमें माया के कारण सत्य भासता है, परंतु वह मिथ्या है। सो! उस परमात्मा के अतिरिक्त, जो भी सुख-ऐश्वर्य आदि मानव को आकर्षित करते हैं; मिथ्या हैं, क्षणिक हैं, अस्तित्वहीन हैं और पानी के बुलबुले की मानिंद पल-भर में नष्ट हो जाने वाले हैं। इसलिए मानव को इच्छाओं का दास नहीं; मन का मालिक बन उन पर नियंत्रण रखना चाहिए, क्योंकि आवश्यकता से अधिक हर वस्तु रोगों की जननी है। सो! शारीरिक स्वस्थता के लिए जिह्वा के स्वाद पर नियंत्रण रखना श्रेयस्कर है। स्वाद का सुख मानव के लिए घातक है; सर्वांगीण विकास में अवरोधक है और हमें ग़लत कार्य करने की ओर प्रवृत्त करता है। अहंतुष्टि के लिए कृत-कर्म मानव को पथ- विचलित ही नहीं करते; अमानुष व राक्षस बनाते हैं और उन पर विजय प्राप्त कर मानव अपने जीवन को सफल व अनुकरणीय बना सकता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि –  पुरानी डायरी के फटे पन्ने – कहानीकार – ऋता सिंह ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? समीक्षा का शुक्रवार # 2 ?

? संजय दृष्टि –  पुरानी डायरी के फटे पन्ने – कहानीकार – ऋता सिंह ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक – पुरानी डायरी के फटे पन्ने

विधा – कहानी

कहानीकार – ऋता सिंह

प्रकाशक – क्षितिज प्रकाशन, पुणे

? प्रभावी कहन – श्री संजय भारद्वाज?

माना जाता है कि कहानी का जन्म मनुष्य के साथ ही हुआ। सत्य तो ये है कि हर आदमी की एक कहानी है।

आदमी एक कहानी लेकर जन्मता है, अपना जीवन एक कहानी की तरह जीता है। यदि एक व्यक्ति के हिस्से केवल ये दो कहानियाँ भी रखी जाएँ तो विश्व की जनसंख्या से दोगुनी कहानियाँ तो हो गईं। आगे मनुष्य के आपसी रिश्तों, उसके भाव-विश्व, चराचर के घटकों से अंतर्संबंध के आधार पर कहानियों की गणना की जाए तो हर क्षण इनफिनिटी या असंख्येय स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।

श्रीमती ॠता सिंह

श्रीमती ॠता सिंह की देखी, भोगी, समझी, अनुभूत, श्रुत, भीतर थमी और जमी कहानियों की बस्ती है ‘पुरानी डायरी के फटे पन्ने।’ संग्रह की कुल चौबीस कहानियाँ, इन कहानियों के पात्रों, उनकी स्थिति-परिस्थिति, भावना-संभावना, आशा-आशंका सब इस बस्ती में बसे हैं।

इस बस्ती की व्याप्ति विस्तृत है। बहुतायत में स्त्री वेदना है तो पुरुष संवेदना भी अछूती नहीं है, निजी रिश्तों में टूटन है तो भाइयों में  प्रेम का अटूट बंधन भी है। आयु की सीमा से परे मैत्री का आमंत्रण है तो युद्धबंदियों के परिवार द्वारा भोगी जाती पीड़ा का भी चित्रण है। वृद्धों की भावनाओं की पड़ताल है तो अतीत की स्मृतियों के साथ भी कदमताल है। सामाजिक प्रश्नों से दो-चार होने  का प्रयास है तो स्वच्छंदता के नाम पर मुक्ति का छद्म आभास भी है। आस्था का प्रकाश है तो बीमारी के प्रति भय उपजाता अंधविश्वास भी है। आदर्शों के साथ जीने की ललक है तो व्यवहारिकता की समझ भी है।  

अलग-अलग आयामों की इन कहानियों में स्त्री का मानसिक, शारीरिक व अन्य प्रकार का शोषण प्रत्यक्ष या परोक्ष कहीं न कहीं उपस्थित है। इस अर्थ में ये स्त्री वेदना को शब्द देनेवाली कही जा सकती हैं।

विशेष बात ये है कि स्त्री वेदना की प्रधानता के बावजूद ये कहानियाँ शेष आधी दुनिया के प्रति विद्रोह का बिगुल नहीं फूँकती। पात्र के व्यक्तिगत विश्लेषण को समष्टिगत नहीं करतीं। सृष्टि युग्म राग है, इस युग्म का आरोह-अवरोह लेखिका की कलम के प्रवाह में ईमानदारी से देखा जा सकता है। लगभग आठ कहानियों में कहानीकार ने पुरुष को केंद्रीय पात्र बनाकर उससे बात कहलवाई है। इन सभी और अन्य कहानियों में भी वे पुरुष की भूमिका के साथ न्याय करती हैं।

अतीत को आधार बनाकर कही गई इन कहानियों में इंगित विसंगतियाँ तत्कालीन हैं। विडंबना ये है कि यही ‘तत्कालीन’ समकालीन भी है। इसे समाज का दुर्भाग्य कहिए कि विलक्षणता कि यहाँ कुछ अतीत नहीं होता। अतीत, संप्रति और भविष्य समांतर यात्रा करते हैं तो कभी गडमड भी हो जाते हैं।

बंगाल लेखिका का मायका है। सहज है कि मायके की सुगंध उनके रोम-रोम में बसी है। बंगाली स्वीट्स की तरह ये ‘स्वीट बंगाल’ उनकी विभिन्न कथाओं में अपनी उपस्थिति रेखांकित करवाता है।

कहानी के तत्वों का विवेचन करें तो कथावस्तु सशक्त हैं। देशकाल के अनुरूप भाषा का प्रयोग भी है। कथोपकथन की दृष्टि से देखें तो इन कहानियाँ में केंद्रीय पात्र अपनी कथा स्वयं कह रहा है। अतीत में घटी विभिन्न घटनाओं का कथाकार की स्मृति के आधार पर वर्णन है। इस आधार पर ये कहानियाँ, संस्मरण की ओर जाती दृष्टिगोचर होती हैं।  

लेखिका, शिक्षिका हैं। विद्यार्थियों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए शिक्षक विभिन्न शैक्षिक साधनों यथा चार्ट, मॉडेल, दृक-श्रव्य माध्यम आदि का उपयोग करता है। न्यूनाधिक वही बात लेखिका के सृजन में भी दिखती है। समाज का परिष्कार करना, परिष्कार के लिए समाज की इकाई तक अपनी बात पहुँचाने के लिए वे किसी विधागत साँचे में स्वयं को नहीं बाँधती। ये ‘बियाँड बाउंड्रीज़’ उनके लेखन की संप्रेषणीयता को विस्तार देता है।

अपनी बात कहने की प्रबल इच्छा इन कहानियों में दिखाई देती है। साठोत्तरी कहानी के अकहानी, सहज कहानी, समांतर कहानी जैसे वर्गीकरण से परे ये लेखन अपने समय में अपनी बात कहने की इच्छा रखता है, अपनी शैली विकसित करता है। मनुष्य के नाते दूसरे मनुष्य के स्पंदन को स्पर्श कर सकनेवाला लेखन ही साहित्य है। इस अर्थ में ॠता सिंह का लेखन साहित्य के उद्देश्य तथा शुचिता का सम्मान करता है।

इन अनुभूतियों को ‘कहन’ कहूँगा। ॠता सिंह अपनी कहन पाठक तक प्रभावी ढंग से पहुँचाने में सफल रही हैं। प्रसिद्ध गज़लकार दुष्यंतकुमार के शब्दों में-

अपाहिज व्यथा को वहन कर रहा हूँ

तुम्हारी कहन थी, कहन कर रहा हूँ।

आपके-हमारे भीतर बसे, अड़ोस-पड़ोस में रहते, इर्द-गिर्द विचरते परिस्थितियों के मारे मूक रहने को विवश अनेक पात्रों को लेखिका  श्रीमती ॠता सिंह ने स्वर दिया है। उनके स्वर की गूँज प्रभावी है। इसकी अनुगूँज पाठक अपने भीतर अनुभव करेंगे, इसका विश्वास भी है।

© संजय भारद्वाज  

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

writersanjay@gmail.com

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 11 – नवगीत – जीवन को वसंत करो… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – जीवन का आधार प्रिय

? रचना संसार # 11 – नवगीत – जीवन का आधार प्रिय…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

जीवन का आधार तुम्हीं प्रिय,

सजन सुभग आभास हो।

हो तुम मधुर रागिनी मनहर  ,

तुम प्रियतम उल्लास हो।।

प्राणाधार सजन तुम मेरे,

चातक की मनुहार हो।

रजनीगंधा से बन महके,

मन वीणा झंकार हो।।

*

साँस-साँस में प्रेम तुम्हारा,

मधुकर उर गुंजार हो।

झूमे मनवा आहट सुनकर,

नेह सुधा मधुमास हो।।

हो तुम मधुर रागिनी मनहर,

तुम प्रियतम उल्लास हो।।

 

कण-कण में तो प्रीति बसी है,

पुलकित उर यह जान लो।

तुम हो तो हर दिन सावन है,

प्रीत चकोरी मान लो।।

तनमन अर्पण करती तुमको,

प्रीति मधुर पहचान लो।

राह निहारूँ बन मीरा मैं,

मन मंदिर शुभ वास हो।।

 *

हो तुम मधुर रागिनी मनहर,

तुम प्रियतम उल्लास हो।।

 *

प्रीति रीति प्रिय तुम ही जानो,

नेह समर्पण खान है।

पावन है अनुराग भक्ति ये,

सूरदास रसखान है।।

इस जीवन को पावन करती,

सुरधारा रस पान है ।

मोहे सूरत कामदेव सी ,

तुम मधुवन की रास हो।।

 *

हो तुम मधुर रागिनी मनहर,

तुम प्रियतम उल्लास हो।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- meenabhatt18547@gmail.com, mbhatt.judge@gmail.com

≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #238 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 237 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

जीवन ऐसा हो सदा, खुशियों की बरसात।

सुख जीवन में दिखें, जैसे दिन हो रात।।

*

जीवन होता कठिन है, रखो लक्ष्य पर ध्यान।

प्रभु से हिम्मत मिल रही, प्रभु करें कल्याण।।

*

यात्रा जीवन नाम की, सब बैठे इस नाव।

चलना है इस सफर में, नहीं थकेंगे पाँव।।

*

धूप छांव की जिंदगी, थका थका विश्वास।

जीवन के इस सफर में, कभी न छूटे आस।।

*

अब तो सब  करने लगे, जीवन का अनुवाद।

जीवन जीना प्रेम से, होगा नहीं विवाद।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : bhavanasharma30@gmail.com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #220 ☆ संतोष के दोहे – नारी… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे – नारी आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 220 ☆

☆ संतोष के दोहे – नारी… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

नारी की महिमा बड़ी, नारी जगताधार

नारी बिन दुनिया नहीं, नारी से परिवार

*

नारी से परिवार, मान नारी का कीजै

पूज्या हैं यह जान, नहीं दुख उनको दीजे

*

कहें कवि “संतोष”, समझिये दुनियादारी

दुर्गा,लक्ष्मी,आदि, सभी अवतारी नारी

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 227 ☆ त्याची कविता… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 227 – विजय साहित्य ?

☆ त्याची कविता… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

(मात्रा वृत्त..अनलज्वाला)

नाविन्याची, कल्पक मात्रा , त्याची कविता.

चराचराची, मंगल यात्रा

त्याची कविता. १

 

सुखदुःखाची, करी साठवण,

पद्य तालिका.

शाब्दिक चित्रे,घडवी पात्रा,

त्याची कविता. २

 

भावमनाची, खळाळ खळखळ

संजीवन ते.

विद्रोहाची,सचैल धारा,

त्याची कविता. ३

 

मना मनाला, वाचत जाते, टिपून घेते.

लेक लाघवी, लळा लावते,‌

त्याची कविता. ४

 

अनुभूतीने, अनुभवलेली,

रसाळ बोली.

काळजातला, अत्तर फाया

त्याची कविता. ५

 

कशी नसावी,कशी असावी

ठरे दाखला .

पहा वाचुनी, साधी सोपी,

त्याची कविता. ६

 

गंध मातीचा,रंग मानसी

काजळ कांती.

थेंब टपोरा, शब्द घनांचा

त्याची कविता. ७

 

कधी माय ती,कधी बाप ती

कधी लेक ती.

नात्यांमधली,नाळ जोडते,

त्याची कविता. ८

 

पोषण करते, लालन पालन,

घडवी त्याला.

घास भुकेचा, ध्यास मिठीचा,

त्याची कविता. ९

 

टाळी देते, टाळी घेते, सभा गाजवी .

प्रतिभा वाणी,अक्षर राणी

त्याची कविता. १०

 

भाव सरीता, रसिक मनाची,

गूज सांगते.

कविराज तो, वही बोलकी,

त्याची कविता. ११

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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