(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना – “वर्षा आई” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – बाल कविता – “वर्षा आई” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख गुण और ग़ुनाह… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 232 ☆
☆ गुण और ग़ुनाह… ☆
‘आदमी के गुण और ग़ुनाह दोनों की कीमत होती है। अंतर सिर्फ़ इतना है कि गुण की कीमत मिलती है और ग़ुनाह की उसे चुकानी पड़ती है।’ हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। गुणों की एवज़ में हमें उनकी कीमत मिलती है; भले वह पग़ार के रूप में हो या मान-सम्मान व पद-प्रतिष्ठा के रूप में हो। इतना ही नहीं,आप श्रद्धेय व वंदनीय भी बन सकते हैं। श्रद्धा मानव के दिव्य गुणों को देखकर उसके प्रति उत्पन्न होती है। यदि हमारे हृदय में उसके प्रति श्रद्धा के साथ प्रेम भाव भी जाग्रत होता है तो वह भक्ति का रूप धारण कर लेती है। शुक्ल जी भी श्रद्धा व प्रेम के योग को भक्ति स्वीकारते हैं। सो! आदमी को गुणों की कीमत प्राप्त होती है और जहां तक ग़ुनाह का संबंध है,हमें ग़ुनाहों की कीमत चुकानी पड़ती है; जो शारीरिक या मानसिक प्रताड़ना रूप में हो सकती है। इतना ही नहीं,उस स्थिति में मानव की सामाजिक प्रतिष्ठा भी दाँव पर लग सकती है और वह सबकी नज़रों में गिर जाता है। परिवार व समाज की दृष्टि में वह त्याज्य स्वीकारा जाता है। वह न घर का रहता है; न घाट का। उसे सब ओर से प्रताड़ना सहनी पड़ती है और उसका जीवन नरक बन कर रह जाता है।
मानव ग़लतियों का पुतला है। ग़लती हर इंसान से होती है और यदि वह उसके परिणाम को देख स्वयं की स्थिति में परिवर्तन ले आता है तो उसके ग़ुनाह क्षम्य हो जाते हैं। इसलिए मानव को प्रतिशोध नहीं; प्रायश्चित करने की सीख दी जाती है। परंतु प्रायश्चित मन से होना चाहिए और व्यक्ति को उस कार्य को दोबारा नहीं करना चाहिए। बाल्मीकि जी डाकू थे और प्रायश्चित के पश्चात् उन्होंने रामायण जैसे महान् ग्रंथ की रचना की। तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली के प्रति बहुत आसक्त थे और उसकी दो पंक्तियों ने उसे महान् लोकनायक कवि बना दिया और वे प्रभु भक्ति में लीन हो गए। उन्होंने रामचरित मानस जैसे महाकाव्य की रचना की, जो हमारी संस्कृति की धरोहर है। कालिदास महान् मूर्ख थे, क्योंकि वे जिस डाल पर बैठे थे; उसी को काट रहे थे। उनकी पत्नी विद्योतमा की लताड़ ने उन्हें महान् साहित्यकार बना दिया। सो! ग़ुनाह करना बुरा नहीं है,परंतु उसे बार-बार दोहराना और उसके चंगुल में फंसकर रह जाना अति- निंदनीय है। उसे इस स्थिति से उबारने में जहां गुरुजन, माता-पिता व प्रियजन सहायक सिद्ध होते हैं; वहीं मानव की प्रबल इच्छा-शक्ति,आत्मविश्वास व दृढ़-निश्चय उसके जीवन की दिशा को बदलने में नींव की ईंट का काम करते हैं।
इस संदर्भ में, मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहूंगी कि यदि ग़ुनाह किसी सद्भावना से किया जाता है तो वह निंदनीय नहीं है। इसलिए धर्मवीर भारती ने ग़ुनाहों का देवता उपन्यास का सृजन किया,क्योंकि उसके पीछे मानव का प्रयोजन द्रष्टव्य है। यदि मानव में दैवीय गुण निहित हैं; उसकी सोच सकारात्मक है तो वह ग़लत काम कर ही नहीं सकता और उसके कदम ग़लत दिशा की ओर अग्रसर नहीं हो सकते। हाँ! उसके हृदय में प्रेम,स्नेह,सौहार्द,करुणा, सहनशीलता,सहानुभूति,त्याग आदि भाव संचित होने चाहिए। ऐसा व्यक्ति सबकी नज़रों में श्रद्धेय,उपास्य,प्रमण्य व वंदनीय होता है। ‘जाकी रही भावना जैसी,प्रभु तिन मूरत देखी तैसी’ अर्थात् मानव की जैसी सोच,भावना व दृष्टिकोण होता है; उसे वही सब दिखाई देता है और वह उसमें वही तलाशता है। इसलिए सकारात्मक सोच व सत्संगति पर बल दिया जाता है। जैसे चंदन को हाथ में लेने से उसकी महक लंबे समय तक हाथों में बनी रहती है और उसके बदले में मानव को कोई भी मूल्य नहीं चुकाना पड़ता। इसके विपरीत यदि आप कोयला हाथ में लेते हो तो आपके हाथ काले अवश्य हो जाते हैं और आप पर कुसंगति का दोष अवश्य लगता है। कबीरदास जी का यह दोहा तो आपने सुना होगा, ‘कोयला होय न ऊजरा,सौ मन साबुन लाय’ अर्थात् व्यक्ति के स्वभाव में परिवर्तन लाना अत्यंत दुष्कर कार्य है। परंतु बार-बार अभ्यास करने से मूर्ख भी विद्वान बन सकता है। इसलिए मानव को निराश नहीं होना चाहिए और अपने सत् प्रयास अवश्य जारी रखने चाहिए। यह कथन कोटिश: सत्य है कि यदि व्यक्ति ग़लत संगति में पड़ जाता है तो उसको लिवा लाना अत्यंत कठिन होता है,क्योंकि ग़लत वस्तुएं अपनी चकाचौंध से उसे आकर्षित करती हैं–जैसे माया रूपी महाठगिनी अपनी हाट सजाए सबका ध्यान आकर्षित करने में प्रयासरत रहती है।
शेक्सपीयर भी यही कहते हैं कि जो दिखाई देता है; वह सदैव सत्य नहीं होता और हमें छलता है। सो! सुंदर चेहरे पर विश्वास करना स्वयं को छलना व धोखा देना है। इक्कीसवीं सदी में सब धोखा है, छलना है,क्योंकि मानव की कथनी- करनी में बहुत अंतर होता है। लोग अक्सर मुखौटा धारण कर जीते हैं। इसलिए रिश्ते भी विश्वास के क़ाबिल नहीं रहे। रिश्ते खून के हों या अन्य भौतिक संबंध–भरोसा करने योग्य नहीं हैं। संसार में हर इंसान एक-दूसरे को छल रहा है। इसलिए रिश्तों की अहमियत रही नहीं; जिसका सबसे अधिक खामियाज़ा मासूम बच्चियों को भुगतना पड़ रहा है। अक्सर आसपास के लोग व निकट के संबंधी उनकी अस्मत से खिलवाड़ करते पाए जाते हैं। उनकी स्थिति बगल में छुरी ओर मुंह में राम-राम जैसी होती है। वे एक भी अवसर नहीं चूकते और दुष्कर्म कर डालते हैं,क्योंकि उनकी रिपोर्ट दर्ज नहीं कराई जाती। वास्तव में उनकी आत्मा मर चुकी होती है,परंतु सत्य भले ही देरी से उजागर हो; होता अवश्य है। वैसे भी भगवान के यहां सबका बही-खाता है और उनकी दृष्टि से कोई भी नहीं बच सकता। यह अकाट्य सत्य है कि जन्म-जन्मांतरों के कर्मों का फल मानव को किसी भी जन्म में भोगना अवश्य पड़ता है।
आइए! आज की युवा पीढ़ी की मानसिकता पर दृष्टिपात करें, जो ‘खाओ पीयो,मौज उड़ाओ’ में विश्वास कर ग़ुनाह पर ग़ुनाह करती चली जाती है निश्चिंत होकर और भूल जाती है ‘यह किराये का मकाँ है/ कौन कब तक ठहर पायेगा/ खाली हाथ तू आया है बंदे/ खाली हाथ तू जाएगा।’ यही संसार का नियम है कि इंसान कुछ भी अपने साथ नहीं ले जा सकता। परंतु वह आजीवन अधिकाधिक धन-संपत्ति व सुख- सुविधाएं जुटाने में लगा रहता है। काश! मानव इस सत्य को समझ पाता और देने में विश्वास रखता तथा परहितार्थ कार्य करता तो उसके ग़ुनाहों की फेहरिस्त इतनी लंबी नहीं होती। अंतकाल में केवल कर्मों की गठरी ही उसके साथ जाती है और कृत-कर्मों के परिणामों से बचना सर्वथा असंभव है।
मानव के सबसे बड़े शत्रु है अहं और मिथ्याभिमान; जो उसे डुबा डालते हैं। अहंनिष्ठ व्यक्ति स्वयं को श्रेष्ठ और दूसरों को हेय मानता है। इसलिए वह कभी दयावान् नहीं हो सकता। वह दूसरों पर ज़ुल्म ढाने में विश्वास कर सुक़ून पाता है और जब तक व्यक्ति स्वयं को उस तराजू में रखकर नहीं तोलता; वह प्रतिपक्ष के साथ न्याय नहीं कर पाता। सो! कर भला, हो भला अर्थात् अच्छे का परिणाम अच्छा व बुरे का परिणाम सदैव बुरा होता है। शायद! इसीलिए शुभ कर्मण से कबहुं न टरौं’ का संदेश प्रेषित है। गुणों की कीमत हमें आजीवन मिलती है और ग़ुनाहों का परिणाम भी अवश्य भुगतना पड़ता है; उससे बच पाना असंभव है। यह संसार क्षणभंगुर है,देह नश्वर है और मानव शरीर पृथ्वी,जल,वायु, अग्नि व आकाश तत्वों से बना है। अंत में इस नश्वर देह को पंचतत्वों में विलीन हो जाना है; यही जीवन का कटु सत्य है। इसलिए मानव को ग़ुनाह करने से पूर्व उसके परिणामों पर चिन्तन-मनन अवश्य करना चाहिए। ऐसा करने के पश्चात् ही आप ग़ुनाह न करके दूसरों के हृदय में स्थान पाने का साहस जुटा पाएंगे।
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – प्रभु श्री राम जी की महिमा…।
रचना संसार # 7 – नवगीत – प्रभु श्री राम जी की महिमा… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं प्रदत्त शब्दों पर भावना के दोहे।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – खूब चाहा छिपाना दर्द को…। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 214 ☆
☆ एक पूर्णिका – खूब चाहा छिपाना दर्द को…☆ श्री संतोष नेमा ☆
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “आ पहुँचा था एक अकिंचन…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 196 ☆ आ पहुँचा था एक अकिंचन… ☆
अक्सर हम अपने विचारों में बदलाव उनके लिए करते हैं जो कुछ नहीं करते क्योंकि हर व्यक्ति आखिरी क्षण तक जीत के लिए प्रयास करता है उसे लगता है शायद ऐसा करने से कोई अंतर आए। सत्य तो यही है कि मूलभूत स्वभाव किसी का नहीं बदलता, हाँ इतना अवश्य होता है कि परिस्थितियों के आगे घुटने टेकने पड़ जाते हैं।
ऐसे लोग जो निरन्तर अपने लक्ष्य के प्रति संकल्पबद्ध होकर परिश्रम करते हैं उनसे भले ही कुछ गलतियाँ जाने- अनजाने क्यों न हो जाएँ अंत में वे विजयमाल वरण करते ही हैं। ऐसी जीत जिससे कई लोगों को फायदा हो वो वास्तव में स्वागत योग्य होती है।
व्यक्ति के अस्तित्व की पहचान उसका व्यक्तित्व होता है। जैसे परिवेश में हम रहते हैं वैसा ही हमारा व्यवहार होने लगता है। संगत का असर हमेशा से ही लोगों के आचरण को प्रभावित करता है। हमारे व्यवहार से ही हमारी पहचान होती है, जो हम लोगों के साथ करते हैं।
कुछ लोग अकारण ही क्रोध करते हैं, हर बात पर चीखना चिल्लाना ही उनकी आदत बन जाती है। झूठ बोलने वाले अक्सर नजरें झुका कर ऊँची- ऊँची बातें करते हैं और पकड़े जाने पर अपशब्दों के प्रयोग से बात को ढाँकने की नाकामयाब कोशिश करते हैं।
हमारे कार्यकलापों का मूल्यांकन लोगों द्वारा किया जाता है इसलिए हमेशा सत्य के साक्षी बन मीठे वचनों के प्रयोग की कोशिश होनी चाहिए। ये बात अलग है कि कार्य क्षेत्रों में कटु शब्दों का प्रयोग करना आवश्यक हो जाता है क्योंकि बिना डाँट- फटकार अधीनस्थों से कार्य करवाना मुश्किल होता है। कहते हैं न जब घी सीधी उँगली से न निकले तो उँगली टेढ़ी करनी ही पड़ती है।
कुल मिलाकर कार्यों का उद्देश्य यदि सार्थक हो, सबके हित में हो तो ऐसे व्यक्ति सबके प्रिय बन जाते हैं। देर सवेर ही सही उसकी कार्यकुशलता व व्यक्तित्व से सभी प्रभावित होते हैं व उसके अनुयायी बन पद चिन्हों पर चल पड़ते हैं।
(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक
श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना फेंकू ज्ञान।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 5 – फेंकू ज्ञान ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆व
“आप रहने ही दीजिए। आपसे नहीं हो पाएगा। भैया जी आज के जमाने में लोगों को ज्ञान देने के लिए उन्हें अज्ञानी बनाना जरूरी है। केवल वाट्सप ग्रुप बनाकर एडमिन बने रहने से सिर्फ घांस छील पाओगे। ऐसा करते रहोगे तो समझो हो गया, कारवाँ गुज़र जाएगा और आप गुबार में ही फसें रहोगे। टुकड़ों में यहाँ-वहाँ से बटोरने से कुछ नहीं होता। यह फेंकू ज्ञान है। असली ज्ञान से भी ज्यादा कीमती। असली ज्ञान की तथ्यता स्रोतों, संदर्भों, इंटरनेट से सिद्ध हो जायेंगे। लेकिन फेंकू ज्ञान को जलेबीदार उलझाऊ बातों से सिद्ध करना पड़ता है। समझे बरखुरदार! मैं और मेरे जैसे अनेक बंधु ताजमहल, ज्ञानवापी, कुतुब मीनार, जामा मस्जिद, लाल किला देखकर लौट भी आये और अब खुदाई करने वालों सहित सब को अपना ज्ञान रोजाना परोस रहे हैं और आप यहीं व्यंग्य जैसी बेकार चीज़ लिख रहे हैं। आपने कल देखा नहीं कि ऊधर खोजी लोग ज्ञानवापी पहुँचे कि नहीं इधर ज्ञान की सहस्त्रधारा चहुँ ओर बह निकलीं थीं।”
बिअंग भैया जैसे व्यंग्यकार के भीतर से व्यंग्य का कीड़ा निकालने की कसम खाए फेंकूराम ने कहा- “हम वॉट्सऐपियों ने ही बताया कि ज्ञानवापी के तहखाने में शिवलिंग दैदीप्यमान की तरह चमक रहा है। एक से बढ़कर एक छवियाँ क्रॉप करके धड़ल्ले से पोस्ट कर डाले। सामने वाले की गैलरिया चुटकियों में फुल कर डाले। वह ससुरा इसी में उलझा रहेगा कि तस्वीरें देखें या गैलरी साफ करे। किसी की जगह पर कोई दूसरा कुछ बनाएगा तो खोजबीन होगी ही। आगे तेजोमहल का भी यही हाल होने वाला है। सारा इतिहास हम अपने व्हाट्सप में धरकर चलते हैं। ज्ञानवापी से शिवलिंग की ली गयी पहली तस्वीर को खोजियों को प्राप्त करने, देखने और जारी करने के पहले ही हम व्हाट्सपवीरों ने उसे सोशल मीडिया में वायरल कर दिया था। सारी दुनिया जैसा करती है, वैसा आप भी किया करो बिअंग भाई। जानते नहीं, हाथी के दाँत दिखाने के कुछ और तथा खाने के कुछ और होते हैं। भीड़ तंत्र का हिस्सा बनो भीड़ तंत्र का। गधा भी अपने को कभी गधा नहीं बोलता, वह चुप रहने के बजाय मौका मिलते ही अपने को घोड़ा साबित करने पर तुल जाता है चाहे उसका ढेंचू-ढेंचू पसंद किया जाये या न किया जाए।
फेंकूराम ने कहा तुम मूरख के मूरख रहोगे। तुम्हारे काले अक्षर भैंस बराबर नहीं सारी दुनिया की कालिख बराबर है। तुम हमेशा अपनी मुर्गी की डेढ़ टांग पर अटक जाते हो। किसी चीज़ को समझने का प्रयास नहीं करते। अरे भाई जी, कुछ समझ में आये न आये, तो भी इस देश की पितृ भाषा अंग्रेजी में बोला करिये – यस, करेक्ट, सब समझ गया, आई कनो, आई कनो ऑल वैरी वेल। बिअंग भैया आपको कहीं भी ‘नो’ याने ‘नहीं’ तो भूल के भी नहीं बोलना है। ‘नो’ के स्थान पर ‘कनो’ चलेगा, दौड़ेगा। जानते हैं न, आजकल सोशल मीडिया में सब कुछ दौड़ रहा है। सारी दुनिया दौड रही है, आप भी उस मैराथान दौड की भीड़ में शामिल हो जाइए। आप ये जताइए कि आप को सब आता है।” बिअंग भैया इससे आगे नहीं सुन सकते थे। उन्होंने हाथ जोड़े और फेंकूराम की सुबह को शाम और शाम को सुबह बोलने का वादा कर वहाँ नौ दो ग्यारह हो गए।