हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 58 – आप बुलाने आये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – आप बुलाने आये।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 58 – आप बुलाने आये… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

आज क्या बात है जो आप मनाने आये 

फिर से, अहसान नया मुझपे जताने आये

*

आये हैं आतिशी अंदाज में सँवरकर वो 

जब भी आये हैं, इसी भाँति जलाने आये

*

मेरी पुस्तक में, मिला फूल एक मुरझाया 

झूल, आँखों में कई दृश्य पुराने आये

*

आज फिर देर तक बोला मुँडेर पर कागा

लौटकर क्या, वही पल फिर से सुहाने आये

*

उनकी यादों ने, मुझे चैन से सोने न दिया

ख्वाब में आये, तो बस मुझको रुलाने आये

*

कितने परिचित, यहाँ चेहरे दिखाई देते हैं 

याद, गुजरे हुए इक साथ जमाने आये

*

लेके, सद्भाव का मरहम निकल पड़े हैं वो 

दुश्मनी, ऐसे ही हर बार भंजाने आये

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 132 – गौरैया कहती सुनो… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “गौरैया कहती सुनो…। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 132 – गौरैया कहती सुनो… ☆

 कांक्रीट के शहर में, नहीं मिले अब छाँव।

गौरैया कहती सुनो, चलो चलें फिर गाँव।।

 *

रवि है आँख दिखा रहा, बढ़ा रहा है ताप।

ग्रीष्म काल का नवतपा, रहा धरा को नाप।।

 *

कंठ प्यास से सूखते, तन-मन है बैचेन ।

दूर घरोंदे में छिपे, बाट जोहते नैन।।

 *

उनने खुद ही कर दिया, काट उन्हें बेजान।

ठूंठों से है आजकल, जंगल की पहचान।।

 *

सभी घोंसले मिट गए, तनते रोज मकान।

दाना पानी अब नहीं, हम पंक्षी हैरान।।

 *

पोखर पूर तलाब में, तन गईं अब दुकान।

हम पक्षी दर-दर फिरें, खुला हुआ मैदान।।

 *

सूरज के उत्ताप से, सूखे नद-तालाब।

आकुल -व्याकुल कूप हैं, हालत हुई खराब।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 159 ☆ “अब तो बेलि फ़ेल गई” (उपन्यास) – लेखिका – सुश्री कविता वर्मा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है आपके द्वारा  सुश्री कविता वर्मा जी के उपन्यास अब तो बेलि फ़ेल गई पर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 159 ☆

☆ “अब तो बेलि फ़ेल गई” (उपन्यास) – लेखिका – सुश्री कविता वर्मा ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

पुस्तक – अब तो बेलि फैल गई (उपन्यास)

अद्विक प्रकाशन

लेखिका … कविता वर्मा

पृष्ठ 190,

मूल्य 250 रु. – अमेजन पर सुलभ

चर्चा … विवेक रंजन श्रीवास्तव

कुछ किताबें ऐसी होती हैं जिन पर फुरसत से लिखने का मन बनता है, पर यह फुरसत ही तो है जो कभी मिलती ही नहीं। कविता जी ने अब तो बेलि फैल गई प्रकाशन के तुरंत बाद भेजी थी। पर फिर मैं दो तीन बार विदेश यात्राओ में निकल गया और किताब सिराहने ही रखी रह गई। एक मित्र आये वे पढ़ने ले गये फिर उनसे वापस लेकर आया और आज इस पर लिखने का समय भी निकाल ही लिया। साहित्य वही होता है जिसमें समाज का हित सन्नहित हो। समस्याओ को रेखांकित ही न किया जाये उनके हल भी प्रस्तुत किये जायें। उपन्यास के चरित्र ऐसे हों जो मर्म स्पर्शी तो हों पर जिनसे अनुकरण की प्रेरणा भी मिल सके। इन मापदण्ड पर कविता वर्मा का उपन्यास अब तो बेलि फैल गई बहुत भाता है। उनका भाषाई और दृश्य विन्यास परिपक्व तथा समर्थ है। पाठक जुड़ता है। कहानी की अपेक्षा उपन्यास की ताकत जीवन और समाज की व्यापक व्याख्या है।  विश्व साहित्य के महाकाव्यों में भी कथानक ही मूल आधार रहा है। कहानियां हमेशा से रचनात्मक साहित्य का मेरुदंड कही जाती हैं। उपन्यास को आधुनिक युग की देन कहना ज्यादा समीचीन होगा। रचनाकार के अभिव्यक्ति सामर्थ्य के अनुसार उपन्यास में शब्दावली, समकालीन आलोचनात्मक सोच, परिदृश्य के शब्द चित्र,  समाज की व्यवहारिक समझ, सहानुभूति और अन्य दृष्टिकोणों व्यापक संसार एक ही कथानक में पढ़ने मिलता है। पाठक का ज्ञान बढ़ता है। बौद्धिक खुराक के साथ साथ मानसिक आनंद एवं रोजमर्रा की जिंदगी से किंचित विश्रांति के लिये आम पाठक उपन्यास पढ़ता है। पाठक को उसके अनुभव संसार में उपन्यास के पात्र मिल ही जाते हैं और वह कथानक में खो जाता है। पाठक उपन्यास को कितनी जल्दी पढ़कर पूरा करता है, कितनी उत्सुकता से पढ़ता है, यह सब लेखक की रोचक वर्णन शैली और कथानक के चयन पर निर्बर करता है। कविता वर्मा हिन्दी साहित्य सम्मेलन के स्तरीय पुरस्कार सहित कई सम्मानो से पुरस्कृत, अनेक कृतियों की परिपक्व लेखिका हैं जो लम्बे समय से विविध विधाओ में लिख रही हैं। किन्तु कहानी और उपन्यास उनकी विशेषता है। हिन्दी साहित्य में समाज का मध्य वर्ग ही बड़ा पाठक रहा है। स्वयं लेखिका भी मध्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं। अब तो बेलि फैल गई की कहानी मूलतः

इसी वर्ग के इर्द गिर्द बुनी गई है। उपन्यास के चरित्रो को पाठक अपने आस पास महसूस कर सकता है।

यह कृति लेखिका का दूसरा उपन्यास है। इससे पूर्व वे छूटी गलियां नामक उपन्यास हिन्दी साहित्य जगत को दे चुकीं हैं। इस कृति के कथानक को  दीपक सहाय, गीता,  सोना, राहुल, विजय, नेहा आदि चरित्रो से रचा गया है। आज ज्यादातर परिवारों में बच्चे विदेश जा बसे हैं, उस परिदृश्य की झलक भी पढ़ने मिलती है। भावनात्मक, मानसिक अंतर्द्व्ंद, उलझन, संवाद, सब कुछ प्रभावी हैं। रचनाकार स्त्री हैं, वे कुशलता से स्त्री चरित्रों की विभिन्न स्थितियों में मानसिक उहापोह, समाज की पहरेदारी, बेचारगी और  दोस्ती, सहानुभूति, मदद के सहज प्रस्ताव पर प्रतिक्रया जैसे विषयों का निर्वाह सक्षम तरीके  से करने में सफल रही हैं। मैं कहानी बताकर आपका पाठकीय कौतुहल समाप्त नहीं करूंगा, उपन्यास एमेजन पर उपलब्ध है। खरीदिये, पढ़िये और बताइये कि “अब तो बेलि फैल गई” की जगह और क्या बेहतर शीर्षक आप प्रस्तावित कर सकते हैं ? लेखिका को मेरी हार्दिक बधाई, निश्चित ही बड़े दिनो बाद एक ऐसा उपन्यास पढ़ा जो मर्मस्पर्शी है, हमारे इर्द गिर्द बुना हुआ है और उपन्यास के आलोच्य मानको की कसौटी पर खरा है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 14 – संस्मरण # 8 – जब पराए ही हो जाएँ अपने ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण – जब पराए ही हो जाएँ अपने)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 14 – संस्मरण # 8 – जब पराए ही हो जाएँ अपने?

जिद् दा सऊदी अरब का एक सुंदर शहर है। चौड़ी छह लेनोंवाली सड़कें, साफ – सुथरा शहर, बड़े-बड़े शॉपिंग मॉल, यूरोप के किसी शहर का आभास देने वाला सुंदर सजा हुआ शहर। यह शहर समुद्र तट पर बसा हुआ है। कई यात्रियों की यह चहेती शहर है। हर एक किलोमीटर की दूरी पर सड़क के बीच गोल चक्र सा बना हुआ है जिस पर कई सुंदर पौधे और घास लगे हुए दिखाई देते हैं। रात के समय सड़कें अत्यंत प्रकाशमय है। सब कुछ झिलमिलाता सा दिखता है। जगह-जगह पर विभिन्न प्रकार के आकारों की लकड़ी और पत्थर आदि से बनाई हुई आकृतियां दिखाई देती हैं। यह आकृतियाँ शहर को सजाने के लिए खड़ी की जाती हैं। यहाँ तक कि सड़कों पर बड़े-बड़े झाड़ फानूस भी  लगे हुए दिखाई देते हैं।

जिद् दा  ऐतिहासिक दृष्टिकोण तथा धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण शहर है।  इस शहर से 40 -50 किलोमीटर की दूरी पर मक्का नामक धर्म स्थान है। मुसलमान धर्म को मानने वाले निश्चित रूप से जीवन में एक बार अपने इस दर्शनीय तीर्थस्थल पर अवश्य आते हैं। इसे वे हज करना कहते हैं और हज करनेवाला व्यक्ति हाजी कहलाता है।

भारत से भी प्रतिवर्ष 25 से 30 लाख लोग मक्का जाते हैं। जब तीर्थ करने का महीना आता है, जिसे रमादान कहते हैं तो हर एक एयरलाइन हर हाजी की यात्रा को आसान बनाने के लिए टिकटों की दरें घटा देता है। यह सुविधा केवल हाजियों के लिए ही होती है। जिद् दा शहर में उतरने के बाद हाजियों के लिए बड़ी अच्छी सुविधा उपलब्ध कराई जाती है। मुफ़्त खाने- पीने की व्यवस्था हवाई अड्डे से कुछ दूरी पर ही की जाती है। अलग प्रकार के कुछ टेंट से बने होते हैं जहाँ इनके इमीग्रेशन के बाद इन हाजियों को बिठाया जाता है। यहीं से बड़ी संख्या में बड़ी-बड़ी बसें छूटती  हैं। चाहे यात्री किसी भी देश का निवासी हो,  जो हाजी होता है उसके लिए अनुपम व्यवस्था होती ही है और इन्हीं बसों के द्वारा उन्हें मक्का तक पहुँचाया जाता है हर देश की ओर से जिद्दा में एजेंट्स मौजूद होते हैं और वही हर देश से आने वाले हाजियों की सुख – सुविधाओं की व्यवस्था व्यक्तिगत रूप से करते हैं। कुछ लोग बिना एजेंट के भी यात्रा करते हैं।क्योंकि वहाँ की भाषा अरबी भाषा है जिसे बाहर से आने वाले नहीं बोल पाते हैं तो एजेंट के साथ होने पर आसानी हो जाती है।

उन दिनों मेरे पति बलबीर सऊदी अरब के इसी जिद् दा शहर में काम किया करते थे। मुझे अक्सर वहाँ आना – जाना पड़ता था। मैं भारत में ही अपनी बेटियों के साथ रहा करती थी। प्रतिवर्ष मुझे तीन -चार बार  वहाँ जाने  का अवसर मिलता था इसलिए वहाँ  की नीति और नियमों से भी मैं परिचित हो गई थी। वहाँ के नियमानुसार मैं भी हवाई अड्डे पर उतरने से पूर्व काले रंग का बुर्खा पहन लिया करती थी जिसे वहाँ के लोग अबाया कहते हैं। माथे पर लगी बड़ी बिंदी को हटा देती थी क्योंकि वहाँ के निवासी बिंदी को हराम समझते हैं। मैंने उन सब नियमों का हमेशा पालन किया ताकि कभी किसी प्रकार की मुश्किलों का सामना ना करना पड़े।

जो लोग स्थानीय न थे उन्हें चेहरे पर चिलमन या पर्दा डालने की बाध्यता न थी। अतः केवल काले कपड़े से सिर ढाँककर घूमने की छूट थी। पहले पहल वहाँ के नियम – कानून देखकर मैं भी घबरा गई थी पर धीरे-धीरे आते – जाते मुझे भी उन सबकी आदत – सी पड़ गई फिर अंग्रेजी में कहावत है ना बी अ  रोमन व्हेन यू आर ऐट रोम

इससे किसी भी प्रकार की मुसीबतों से हम बचते हैं।

इस देश में स्त्रियों को वह आजादी नहीं दी जाती है जो हमें अपने देश में देखने को मिलती है। यदि हम उनके नियमों का सही रूप से पालन करते हैं तो सब ठीक ही रहता है अब सालभर  में कई बार आते जाते मैं काले पहनावे में स्त्रियों को देखने और स्वयं भी उसी में लिपटे रहने की आदी हो चुकी थी।

2003 के दिसंबर का महीना था मैं अपनी छुट् टी जिद् दा में बिताकर अब घर लौट रही थी। हवाई अड् डे में इमीग्रेशन के बाद मैं अन्य यात्रियों के साथ कुर्सी पर जा बैठी इमीग्रेशन के लिए जब मैं कतार में खड़ी थी तब एक वृद्ध व्यक्ति को विदा करने के लिए कई भारतीय आए हुए थे। वे सबसे गले मिलते और आशीर्वाद देते। उनके  मुँह से शब्द अस्पष्ट  फूट रहे थे। आँखों पर मोटे काँच का  चश्मा था। आँखों से बहते आँसू और काँपते हाथ निरंतर उपस्थित लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे।

इमीग्रेशन  के बाद वे भी  एक कुर्सी पर जाकर बैठ गए। उनके कंधे पर एक छोटा -सा अंगोछा था जिससे वे अपनी आँखें बार-बार पोंछ रहे थे। मेरा हृदय अनायास ही उनकी ओर आकर्षित हुआ। मैंने देखा वे अकेले ही थे इसलिए मैंने उनकी बगल वाली कुर्सी के सामने अपना केबिन बैग रखा और पानी की एक बोतल खरीदने चली गई। जाते समय उस बुजुर्ग से मैंने अपने बैग की निगरानी रखने के लिए प्रार्थना की। (वैसे एयरपोर्ट पर अनएटेंडड बैग्स की तलाशी ली जाती है। मेरे बैग पर मेरा नाम और घर का लैंडलाइन नंबर लिखा हुआ था। उन दिनों यही नियम प्रचलन में था।)

लौट कर देखा बुजुर्ग की आँखों से निरंतर आँसू बह रहे थे। उनके पोपले मुँह वाले पिचके गाल आँसुओं से तर थे। उनकी ठुड् ढी पर सफेद दाढ़ी थी जो हजामत ना करने के कारण यूं ही बढ़ गई थी। उन्हें रोते देख मैं उनके बगल में बैठ गई। बोतल खोलकर गिलास में पानी डालकर उनके सामने थामा फिर बुजुर्ग के हाथ पर हाथ रखा तो सांत्वना के स्पर्श ने उन्हें जगाया और उन्होंने काँपते हाथों से गिलास ले लिया।  दो घूँट पानी पीकर शुक्रिया कहा। बुजुर्ग के काँपते ओंठ और कंपित स्वर ने न जाने क्यों मुझे भीतर तक झखझोर दिया। न जाने मुझे ऐसा क्यों लगा कि वह इस शहर में अपनी कुछ प्रिय वस्तु छोड़े जा रहे थे। उनका इस ढलती उम्र में इस तरह मौन क्रंदन करना मेरे लिए जिज्ञासा का कारण बन गया। मैंने फिर एक बार बाबा को स्पर्श किया और उनसे पूछा, “बाबा क्या किसी प्रिय व्यक्ति को इस शहर में छोड़कर जा रहे हैं ?” उन्होंने मेरे सवाल का कोई उत्तर नहीं दिया बस रोते रहे।

 विमान के छूटने का तथा यात्रियों को द्वार क्रमांक 12 पर कतार बनाकर खड़े होने के लिए निवेदन किया गया। सभी से कहा गया कि वे अपने पासपोर्ट तथा बोर्डिंग पास तैयार रखें। लोगों ने तुरंत द्वार क्रमांक 12 पर एक लंबी कतार खड़ी कर ली। हम मुंबई लौट रहे थे। एयर इंडिया का विमान था। जिद् दा से मुंबई का सफर तय करने के लिए 5:30 घंटे लगते हैं। अभी सुबह के 10:00 बजे थे 11:00 बजे हमारा विमान उड़ान भरने वाला था। हम 4:30 बजे मुंबई पहुँचने वाले थे। अनाउंसमेंट के बाद भी जब बाबा ना उठे तो मैंने भी उनके साथ हो लेने का निश्चय किया।  हवाई अड्डे के मुख्य द्वार से काफी दूर विमान खड़े किए जाते थे। वहाँ तक पहुँचाने के लिए हवाई अड्डे द्वारा नियोजित सुंदर बसों की व्यवस्था थी। जब आखरी बार यात्रियों को बस में बैठने के लिए अनाउंसमेंट किया गया तब मैंने उनसे कहा बाबा चलिए हमारे विमान के उड़ान भरने का समय हो गया। वे  कुछ ना बोले। कंधे पर एक थैला था, हाथ में एक  लाठी। वे लाठी  टेकते हुए आगे बढ़ने लगे। मैं भी उनके पीछे-पीछे चलने लगी। पासपोर्ट और बोर्डिंग पास दिखाने के लिए कहा गया। मैंने उनके कुरते की जेब से झाँकते पासपोर्ट और टिकट निकाल कर उपस्थित अफसर को दिखाया और हम आखरी बस की ओर अग्रसर हुए।

न जाने क्यों बुज़ुर्ग के प्रति मेरे हृदय में  एक दया की भावना सी उत्पन्न हो रही थी। वे असहाय और किसी दर्द से गुज़र रहे थे। साथ ही उनके बारे में और अधिक जानकारी प्राप्त करने की मेरे मन में लालसा सी जागृत हो गई थी। बुज़ुर्ग भी मेरे द्वारा दी गई सहायता को चुपचाप स्वीकारते चले गए। अब दोनों के बीच एक अपनत्व की भावना ने जन्म ले लिया था।*

बस में बैठते ही मैंने फैसला कर लिया था  कि मैं भी उस बुजुर्ग के साथ वाली सीट पर बैठने के लिए एयरहोस्टेस से निवेदन करूँगी ताकि यात्रा के साढ़े पाँच घंटों में और कुछ जानकारी उनसे हासिल कर सकूँ। ईश्वर ने मेरी सुन ली कहते हैं ना जहाँ चाह वहीं राह। एयरहोस्टेस ने तुरंत मेरी सीट  बदल दी और बुजुर्ग की बगल वाली सीट मिल गई। मुझे देखकर बुजुर्ग ने एक छोटी – सी मुस्कान दी।  मानो वे अपनी प्रसन्नता जाहिर कर रहे थे। मैंने अपनी सीट पर  बैठने से पहले उनकी  लाठी ऊपर वाले खाने में रख दी साथ ही अपना केबिन बैग भी। बैठने के बाद  पहले बेल्ट बाँधने में उनकी सहायता की, उनके हाथ काँप रहे थे।संभवतः कुछ अकेले यात्रा करने का भय था, कुछ आत्मविश्वास का अभाव भी। फिर अपनी बेल्ट लगा ली। इतने में एयर होस्टेस ने हमें फ्रूटी का पैकेट पकड़ाया। मैंने दो पैकेट लिए और बुजुर्ग की ओर एक पैकेट बढ़ाया।

मेरी छोटी – छोटी सेवाओं ने बुजुर्ग के दिल में मेरे लिए खास जगह बना दी। अब उनका रोना भी बंद हो चुका था। मैं भी आश्वस्त थी और अब जिज्ञासा ने प्रश्नावलियों का रूप ले लिया था। मन में असंख्य सवाल थे जिनके उत्तर यात्रा के दौरान इन साढ़े पाँच  घंटों में ही मुझे हासिल करना था।

मैंने ही पहला सवाल पूछा, फिर दूसरा, फिर तीसरा और फिर चौथा …..

थोड़ी देर बाद मैं चुप हो गई,  बिल्कुल चुप और बुज़ुर्ग बस बोलते रहे, बस बोलते ही चले गए। उन्होंने जो कुछ मुझसे कहा आज मैं उन सच्चाइयों को आप पाठकों के सामने रख रही हूँ। उन्हें सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे शायद इन घटनाओं  के सिलसिले को पढ़कर आपका हृदय भी  द्रवित हो उठे। मैं इस कहानी में बुजुर्गों का नाम तथा पहचान गुप्त रखना चाहूँगी क्योंकि किसी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुँचाना उचित नहीं है।

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बुजुर्ग का बेटा मुंबई शहर में टैक्सी चालक था।काम ढूँढ़ने के लिए  सत्रह वर्ष की उम्र में वह इस शहर में आया था। वह जब सफल रूप से पर्याप्त धन कमाने लगा तो वह अपने माता – पिता को भी गाँव से मुंबई ले आया था। माता-पिता गाँव में दूसरों के खेत में मज़दूरी करके अपना गुज़ारा करते थे। बेटा बड़ा हुआ तो  उसका विवाह किया गया। अब तो उसके बच्चे भी कॉलेज में पढ़ रहे थे। बुजुर्ग की पत्नी और  बहू के बीच अब धीरे-धीरे  अनबन होने लगी थी। संभवतः कम जगह, बढ़ती महंगाई ने रिश्तों में दरारें पैदा कर दीं। अनबन  की मात्रा इतनी बढ़ गई कि बुज़ुर्ग के बेटे ने उन्हें अलग रखने का फैसला किया।

2000 के फरवरी माह की एक सुहानी शाम के समय बुजुर्गों का बेटा अपने माता-पिता के लिए हज करने के लिए मक्का मदीना भेजने की व्यवस्था कर आया।वे अत्यंत प्रसन्न हुए अपने बेटे – बहू को आशीर्वाद देते  नहीं थकते थे। उनकी खुशी का कोई ठिकाना न था। बुजुर्ग और उनकी पत्नी ने अपने सपने  में भी कभी नहीं सोचा था कि उन्हें हज पर जाने का मौका मिलेगा। बेटे से पूछा कि इतने पैसों का प्रबंध कैसे हो पाया तो उसने कहा कि उसने अपना घर गिरवी रखा है। वह अपने माता पिता को लेकर हज कर आना चाहता है।उनके पड़ोसी  उनसे मिलने आते और उनके सौभाग्य की सराहना करते।  बूढ़ा अपने बेटे बहू की प्रशंसा करते ना थकते।

फिर वह सुहाना दिन भी आ गया। बुजुर्ग और उनकी पत्नी अपने बेटे के साथ छत्रपति शिवाजी अंतर्राष्ट्रीय हवाईअड्डे पर पहुँचे। कोई फूलों का गुच्छा देता तो कोई फूलों की माला पहनाता। अनेक पड़ोसी और  रिश्तेदार उन्हें  विदा करने एयरपोर्ट आए थे।

 बुजुर्ग ने अपनी जिंदगी बड़े कष्टों में गुजारी थी तभी तो उनका बेटा 17 वर्ष की उम्र में उत्तर प्रदेश के एक गाँव से उठकर रोज़गार की तलाश में मुंबई आया था। उन्होंने कभी भी नहीं सोचा था कि वह कभी हज करने जा सकेंगे। दो वक्त की रोटी जहाँ ठीक से नसीब ना हो वहाँ इतना बड़ा खर्च कैसे किया जा सकता है भला?  पर बेटे ने तो वह सपना पूरा करना चाहा जो कभी आँखों ने देखे भी न थे।

हवाई यान ने उड़ान भरी। मां-बाप और सुपुत्र चले मक्का। 10 मार्च 2001 व्यवस्थित योजना के मुताबिक सुचारू रूप से सब कुछ होता रहा। जिद् दा हवाई अड् डे  से बस में बैठकर अन्य यात्रियों के साथ उसी दिन रात को तीनों मक्का पहुँचे।

बुजुर्ग और उनकी पत्नी की खुशी की सीमा न थी वह तो मानो स्वर्ग पहुँच गए थे। अल्लाह के उस दरवाजे पर आकर उस दिन खड़े हुए जहाँ नसीब वाले ही पहुँच सकते थे। मक्का में यात्रियों और हाजियों की भीड़ थी बेटे ने हिदायत दी थी कि वे एक दूसरे के साथ ही रहे साथ ना छोड़े।

बुजुर्ग और उनकी पत्नी अनपढ़ थे। मजदूरी करके जीवन काटने वाला व्यक्ति दुनिया की रीत भला क्या समझे उसके लिए तो दो वक्त की रोटी पर्याप्त होती है मक्का का दर्शन हो गया काबा के सामने खड़े अल्लाह  से दुआएँ माँग रहे थे। अपने बेटे की लंबी उम्र और सफल जीवन के लिए दुआएँ कर रहे थे। उन्हें क्या पता था कि वह उसी स्थान पर कई दिनों तक खड़े-खड़े बेटे की प्रतीक्षा ही करते रहेंगे।

 मक्का में दो दिन बीत गए। बेटा उसी भीड़ में कहीं खो गया। भाषा नहीं आती थी। किसी तरह अन्य भारतीयों हाजियों की सहायता लेकर  पुलिस से गुमशुदा बेटे की शिकायत दर्ज़ कराई।  बुजुर्ग की पत्नी का रो-रोकर हालत खराब हो रही थी।

गायब होने से पहले बेटे ने अपने वालिद के हाथ में पाँच सौ रियाल रखे थे और कहा था थोड़ा पैसा अपने पास भी रखो अब्बा।

पुलिस ने छानबीन शुरू की। बुजुर्ग के पास न पासपोर्ट  था, न वीज़ा,न हज पर आने की परमिट पत्र।भाषा आती न थी। घर से बाहर ही कभी मुंबई  शहर में अकेले कहीं नहीं गए थे यह तो परदेस था। पति-पत्नी भयभीत होकर काँपने लगे, पत्नी रोने लगी।पर पुलिस को तो नियमानुसार अपनी ड्यूटी करनी थी।

पुलिस ने कुछ दिनों तक उन्हें जेल में रखा क्योंकि उन पर बिना पासपोर्ट के पहुँचने का आरोप था। पर छानबीन करने पर कंप्यूटर पर उनका पासपोर्ट नंबर और नाम मिला तो मान लिया गया कि उनका पासपोर्ट कहीं खो गया। उन्होंने अपने बेटे का नाम और मुंबई का पता बताया तो पता चला कि उस नाम के व्यक्ति की जिद् दा  से एग्जिट हो चुकी थी।

एक और एक जोड़ने पर बात स्पष्ट हो गई। बुजुर्ग और उनकी पत्नी से पिंड छुड़ाने के लिए उन्हें मक्का तक ले आया और उन्हें धोखा देकर उनका पासपोर्ट तथा टिकट लेकर स्वयं भारत लौट गया।

बात यही॔ खत्म नहीं हुई। घर का जो पता दिया गया था उस पते अब उस नाम का कोई व्यक्ति नहीं रहता था। बूढ़े को याद आया कि उसके रहते ही उस घर को देखने कुछ लोग आए थे। तब बेटे ने बताया था कि वह घर गिरवी रख रहा था बुजुर्ग को क्या पता था कि बेटे और बहू के दिमाग में कुछ और शातिर योजनाएँ चल रही थीं।

उधर भारतीय एंबेसी लगातार बुजुर्ग के परिवार को खोजने की कोशिश कर रही थी। इधर बुजुर्ग और उनकी पत्नी  की हालत खराब हो रही थी। एक तो बेटे  द्वारा दिए गए धोखे का गम था, दूसरा बुढ़ापे में विदेश में जेल की हवा खानी पड़ी। अपमान और ग्लानि के कारण बुजुर्ग की पत्नी की तबीयत दिन-ब-दिन खराब होने लगी थी। पुलिस की निगरानी में आश्रम जैसी जगह में उन्हें रखा गया था। यहाँ उन हाजियों को रखा जाता था जो हज करने के लिए मक्का तो पहुँच जाते थे पर उनके पास पर्याप्त डॉक्यूमेंट ना होने के कारण वे लौटकर अपने देश नहीं जा पाते। यह लोग अधिकतर इथियोपिया,चेचनिया इजिप्ट या अन्य करीबी देशों से आने वाले निवासी हुआ करते थे। फिर कुछ समय बाद वे  इसी देश में रह जाते थे।

बुजुर्ग और उनकी पत्नी गरीब जरूर थे पर उनकी अपनी इज्जत थी उनके गाँव के निवासी, मुंबई के पड़ोसी सब मान करते थे वरना मुंबई के हवाईअड् डे पर फूल लेकर  उनसे मिलने क्यों आते? यह तो हर हज पर जाने वाले व्यक्ति का अनुभव होता है उसे विदा करने और लौट आने पर स्वागत करने के लिए असंख्य लोग आते हैं।

तीन  महीने बीत गए।  बुजुर्ग और उनकी पत्नी अब मक्का से जिद् दा लाए गए। उसी शहर में कुछ ऐसे भारतीय थे जो जिद् दा शहर में नौकरी के सिलसिले में कई सालों से रह रहे थे वे साधारण नौकरी करते थे तथा बड़े-बड़े फ्लैट किराए पर लेकर कई लोग एक साथ रहा करते थे। उन लोगों में कुछ टैक्सी चालक थे कुछ टेलीफोन के लाइनमैन तो कुछ फिटर्स तथा कुछ बड़ी दुकान में सेल्समैन। सभी अपने-अपने परिवारों को भारत में छोड़ आए थे और वहीं सारे पुरुष एक साथ भाई – बंधुओं की तरह रहा करते थे।

इन तीन  महीनों में इन्हीं लोगों ने दौड़ भाग कर इंडियन एंबेसी से पत्र व्यवहार किया पैसे इकट्ठे किए कागजात बनवाए और बुजुर्गों को जिद् दा  ले आए। बुजुर्ग की उम्र सत्तर से ऊपर थी और उनकी पत्नी अभी सत्तर से कम। वे दिन रात प्रतीक्षा में रहते। जिन लोगों ने उन्हें अपने साथ रखा था वे जानते थे बुज़ुर्ग का बेटा उन्हें ले जाने के लिए यहाँ छोड़ कर नहीं गया था। उसकी तो साज़िश थी उन से पीछा छुड़ाने का। बुजुर्ग इस सच्चाई को कुछ हद तक मान भी लेते लेकिन उनकी पत्नी इस बात को मानने को तैयार नहीं थी।  वे दोनों इसी गलतफ़हमी में थे कि उनका बेटा कहीं खो गया था।

पत्नी का रो – रो कर बुरा हाल हो रहा था। जिस तरह पानी बरसने के बाद कुछ समय बीतने पर जमीन ऊपर से सूख तो जाती है पर भीतर तक लंबे समय तक उसमें  गीलापन बना रहता है।ठीक उसी तरह बूढ़ी की हर साँस से दर्द का अहसास होता था। अब रोना बंद हो गया पर साँसें भारी हो उठीं।

उनके इर्द-गिर्द रहनेवाले वे सारे लोग उनके आज अपने थे। एक बाप अपने कलेजे के टुकड़े को न छोड़ पाएगा पर माँ-  बाप को बोझ समझनेवाला शायद उन्हें छोड़ सकता है।यह किसी धर्मविशेष की बात नहीं है, वरना स्वदेश में इतने वृद्धाश्रम न होते।

बुजुर्गों की पत्नी की तबीयत बिगड़ती गई और माह भर सरकारी अस्पताल में रहने के बाद अपने नालायक बेटे को याद करते – करते उसने दम तोड़ दिया। धर्मपत्नी की मय्यत को वहीं मिट्टी दी गई क्योंकि भारत में अब बेटे का भी पता न था और हाथ में किस प्रकार के कोई डॉक्यूमेंट लौटने के लिए नहीं थे। घर बेचकर किस शहर को वह चला गया था यह तो खुदा ही जानता था।  बुजुर्ग अब अकेले रह गए पत्नी की मौत ने मानो उनकी कमर ही तोड़ दी। वे भी  उसी के साथ जाना चाहते थे मगर मौत अपनी मर्जी से थोड़ी आती है। उनका कलेजा हरदम मुँह को आ जाता था पर शायद उन्हें अभी और दुख झेलने थे।

सारे अन्य भारतीय लोगों के बीच रहते और इंडियन एंबेसी के निर्णय का वे रास्ता देखते रहे।

आज वही दिन था जब जिद् दा शहर से हमेशा के लिए वे विदा हो  रहे थे।  अपनी औलाद ने पिंड छुड़ाने के लिए इतनी दूर लाकर छोड़ा था और जिनके साथ उनका रिश्ता भी नहीं वे  अपनों से बढ़कर निकले। पराए देश में एक असहाय दंपति का साथ दिया,  उनकी सेवा की,  सहायता की, आश्रय दिया।  यहां तक कि बुजुर्ग की पत्नी का अंतिम संस्कार भी नियमानुसार किया। बुजुर्ग के लिए एंबेसी जाते रहते और अंत में विभिन्न एजेंटों की सहायता से पासपोर्ट बनाकर वीजा की व्यवस्था करके एग्जिट का वीजा लेकर आए। वह आज उनके कितने अपने थे उनके साथ पिछले छह महीने रहते-रहते ऐसा अहसास हुआ कि संसार का सबसे बड़ा रिश्ता प्रेम का रिश्ता है।  जिद् दा शहर में रहने वाले लोग चाहे भारत के किसी भी राज्य के हों,  चाहे जिस किसी धर्म के हों उनमें प्रेम है, एकता है। वे सब मिलजुलकर सभी त्यौहार मनाते हैं। खुशी और ग़म में एक दूसरे का साथ देते हैं।

बुजुर्ग की आँखें चमक उठी और बोले यह सब जो मुझे छोड़ने आए थे वह सब हिंदू, मुसलमान और ईसाई लोग थे। पर उन सब की एक ही जाति और धर्म है और वह है मानवता। फिर बुजुर्ग ने अल्लाह का शुक्रिया करते हुए कहा कि मैं तो जिद् दा की पुलिस, सरकार, राजा सबको धन्यवाद देता हूं क्योंकि सब ने हमारी बहुत देखभाल की।

विमान को उड़ान भरे पाँच घंटे हो गए हमें पता ही न चला। एक बार फिर से सीट बेल्ट बाँधने का अनाउंसमेंट हुआ और मुझे अहसास हुआ कि हम छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर उतरने जा रहे थे। मेरा दिल एक बार इस चिंता से धड़क उठा और समझ में नहीं आ रहा था कि मैं बुजुर्ग से कैसे पूछूँ फिर भी साहस जुटाकर मैंने उनसे पूछ लिया कि मुंबई उतर कर वे  कहाँ जाएँगे। तब उन्होंने अपनी जेब से काँपते हाथों से एक लिफाफा निकाला जिसमें एक महिला की तस्वीर थी और उसका पता लिखा हुआ था।

विमान उतरा,  हम इमीग्रेशन की ओर निकले। औपचारिकता पूरी  करने के बाद अपना सामान बेल्ट पर से उतारकर ट्रॉली पर रखा और बाहर आए। एक मध्यवयस्का महिला एक व्हीलचेयर  लेकर खड़ी थी। हम जब थोड़ा और आगे बढ़े तो  उस महिला ने बुजुर्ग को आवाज लगाई, “अब्बाजान मैं रुखसाना!” और वह एक सिक्योरिटी के अफसर के साथ बुजुर्ग के पास आई। बड़े प्यार से उन्हें गले लगाई मीठी आवाज में बोली, “अब्बाजान  घर चलिए। सब आपका इंतजार कर रहे हैं।

 मैंने उनसे पूछा,”रुखसाना जी बाबा को कहाँ ले जा रही हैं ? “

उन्होंने मेरी ओर ऊपर से नीचे  एक बार देखा फिर पूछा, ” आपका परिचय?”  मैंने भी झेंपते  हुए कहा, ” बस कुछ घंटों का साथ था बाबा के साथ। मैं भी यात्री हूँ।

बाबा बोले,”  रुखसाना बेटा साढ़े पाँच  घंटों में यह सफ़र कैसे कटा पता ही न चला।अगर ये ख़ार्तून ना मिलतीं तो यह सफ़र मेरे लिए तय करना बड़ा मुश्किल होता। आपने पूछा था ना कि मैं क्या पीछे छोड़े जा रहा हूँ ? मैं  अपनों को छोड़ आया हूँ जिन्होंने मुझे आज अपने देश लौटने का मौका दिया।  इसलिए मैं अपने आँसू रोक न पा  रहा था। अगर आप ना मिलतीं तो शायद  इसी तरह रोता रहता। आपका बहुत-बहुत शुक्रिया,आपने बोझ हल्का करने में मदद की।

रुखसाना ने अपने पर्स से अपना पहचान पत्र निकाला ‘सोशल वर्कर मुंबई’।  बाबा का नया घर था वृद्धाश्रम! जिद् दा के  बच्चों ने ही यह व्यवस्था  की थी जिनके साथ उनका कोई खून का रिश्ता नहीं था।

बाबा ने मेरे कंधे पर हाथ रखकर पूछा आपने अपना नाम क्या बताया बेटा ?

 मैं जोर से हँस पड़ी, मैंने कहा “बाबा मैंने तो आपको मेरा परिचय दिया ही ना था। “

 तब तक हम तीनों बाहर  पहुंच गए थे जहाँ टैक्सी मिलती है। मैंने बाहर आने पर झुककर बाबा को प्रणाम किया और कहा “मैं भी आपकी हिंदू बेटी हूँ। फिर मिलूँगी आपसे।”

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 195 – जल संरक्षण ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “जल संरक्षण”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 195 ☆

🌻लघु कथा🌻 🌧️जल संरक्षण🌧️

बिजली और पानी का मेल जन्म-जन्मांतर होता है। बिजली का चमकना और पानी का गिरना मानो ईश्वर का वरदान है मानव जीवन के लिए।

एक छोटा सा ऐसा गाँव जहाँ उंगली में गिने, तो सभी के नाम गिने जा सकते हैं।

उस गाँव में पीने के पानी के लिए एक तालाब और निकासी, स्नान, पशु पक्षी, और सभी कामों के लिए एक तालाब।

गाँव वाले इसका बखूबी पालन करते। चाहे कोई देखे या ना देखें।

“बिजली” वहाँ की एक तेज तर्रार उम्र दराज समझदार महिला। जैसा नाम वैसा गुण। पानी का संग्रहण पानी बचाओ और पानी की योजनाओं को थोड़ा बहुत समझती और उस पर अमल भी करती।

बातों से भी सभी को ठिकाने लगाने वाली। उसकी एक बहुत ही अच्छी आदत पानी संग्रह करने की।

घर में उसके यहां सीमेंट की बड़ी टंकी और जितने भी बड़े बर्तन, गंजी, गगरी, कसेडी, बाल्टी और जो भी बर्तन उसे समझ में आता, बस पानी से भरकर रख लेती। और कहती पानी को उतना ही फेंकना, जिससे औरों को तकलीफ न हो।

जब कभी पानी की परेशानी आती लोग दूर दूसरे गांव में सरपंच को खबर देते और फिर शहर से पानी का टैंक आता।

पानी का मोल गाँव वाले भली-भाँति जानते थे। कहने को तो सरकारी टेप नल लगा था, परंतु पथरीले गाँव और पानी का स्तर नीचे होने के कारण वहाँ पानी नहीं के बराबर आता।

आज अचानक लगा कि गाँव में पीने का पानी दूषित हो गया है।सभी एक दूसरे का मुँह तक रहे थे। सरपंच से बात होने में पता चला कि कुछ हो जाने के कारण तालाब का पानी पीने योग्य नहीं रहा। और पानी का टैंक शाम तक ही आ पाएगा।

बच्चे बूढ़े सभी परेशान। तभी किसी ने हिम्मत कर बिजली से जाकर कहा कि… “आज वह सभी को पानी पिला दे। साँझ टैक्कर से सब तुम्हारे घर में पानी भर देंगे।” गाँव वाले हाथ जोड़ बिजली से पानी मांग रहे थे।

आज तो बिजली अपने पानी बचाने और संग्रह कर रखने के लिए अपने आप को धन्य मानने लगी। सभी को पीने का पानी, निस्तार का पानी थोड़ा-थोड़ा मिल गया। राहत की सांस लेने लगे।

खबर हवा की तरह फैल गई। मीडिया वाले शहर से आ गए। सरपंच अपने मूंछों पर ताव देते अपने गाँव की तारीफ करते बिजली के साथ शानदार तस्वीर खिंचवाई ।

‘जल ही जीवन है, जल है अनमोल, समझे इसका मोल।’

जिस गाँव को कभी कोई जानता नहीं था। कभी पेपर पर नाम नहीं छपा था। आज बिजली के पानी बचाकर, अपने गाँव का नाम रौशन कर दिया।

बिजली और पानी संरक्षण। आज एक नई दिशा। सभी बिजली के गुण गा रहे हैं। सरपंच की तरफ से गाँव के मध्य बिजली को सम्मानित किया गया।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 87 – देश-परदेश – गर्मी की छुट्टियां ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 87 ☆ देश-परदेश – गर्मी की छुट्टियां ☆ श्री राकेश कुमार ☆

गर्मी की दो माह की छुट्टियां याने बच्चों को आगामी वर्ष के लिए रिचार्ज होने का सुनहरा अवसर होता था।

गर्मी की छुट्टी मतलब ” ननिहाल चलो” मै और मेरे बड़े भाई अम्मा जी के साथ अपने अस्थाई निवास मुम्बई से रेल द्वारा दिल्ली आकर बस यात्रा से ननिहाल जोकि बुलंदशहर जिले के डिबाई नामक छोटे से कस्बे में स्थित है,पहुंच जाते थे।

पूरा कस्बा हमारे आने का इंतजार कर रहा होता था।घर पहुंचते ही बड़े भैया तो खेत में लगे हुए रहट पर जल क्रीड़ा करते रहते थे। हमारे लिए घर का  कुआं होता था।आरंभ में कुएं से पानी निकलना हमारे लिए कठिन कार्य होता था। दो तीन दिन में तो दस्सीयों बाल्टी पानी की खींच लेते थे।वो बात अलग थी,कई बार बाल्टी पानी में गिर जाती थी।

मामा लोग लोहे के कांटे से बाल्टी बाहर निकाल कर प्यार से कहते थे, हमारी नाजुक मुम्बई की गुड़िया, ये तेरे बस का नहीं है। हमें बता दिया कर।एस

आज तो घर के हर कोने में नल है,पर गर्मी में कुएं के ठंडे जल का स्नान दिन भर आज के ए सी से भी ठंडा रखता था।

कुएं में शाम के समय तरबूज़ को पानी में तैरने दिया जाता था। प्रातः काल का वो ही कलेवा होता था। नाना जी की पहेली”खेलने की गेंद,गाय का चारा,पीने को शरबत,खाने को हलवा… याने की तरबूज़।

तरबूज़ के छिलके को काटते समय सफाई से कार्य कर ही घर में रखी हुई गाय को चारा दिया जाता था ।घर में सभी गाय को “राधा” के नाम से बुलाते थे। हम सब भी उसके शरीर पर हाथ फेर कर प्रतिदिन उससे आशीर्वाद लेते थे।

प्रकृति,पशु धन का सम्मान होते हमने अपने ननिहाल में ही देखा था। उत्तर प्रदेश को”आम प्रदेश” कहना भी गलत नहीं होगा। दिन भर आमों को बर्तन में डूबो कर, उनकी गर्मी निकाल कर ही ग्रहण किया जाता था।

रात्रि खुले आंगन में बर्फ से ठंडा दूध और आम ये ही भोजन होता था। आम दशहरी से आरंभ होकर बनारसी लंगड़े तक हज़म किए जाते थे।बसआम बिना गिनती के खाने का चलन था,हमारे ननिहाल के आंगन में।

रात्रि शयन खुली छत में बिना पंखे के सोना,आज सिर्फ स्वपन में ही संभव है।दोपहर के भोजन में पड़ोसियों के विभिन्न व्यंजन,कच्चे आम के आचार के साथ कब पच जाते थे,पता ही नही चलता था।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #241 ☆ न्याय… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 241 ?

☆ न्याय ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

पैशा समोर जीवाची सांगा किंमत ती काय

रात्रीमध्ये श्रीमंताच्या पोरट्याला मिळे न्याय

अल्पवयीन मुलाला नको अटक व्हायला

त्याच्यासाठी पिझ्झा म्हणे होता आणला खायला

दोन मेले त्यात सांगा असं झालं मोठं काय ?

रोज निर्दयी माणसे फिरतात रस्त्यातुन

दुःख कुणाचेच कुणी नाही घेत हो जाणून

लोकशाही कुचलुन करतात ते अन्याय

खेळ चालतो नोटांचा गरिबाला कोण वाली

न्याय कसा मिळणार ज्याचा आहे खिसा खाली

नेते, बाबु, वर्दीचाही इथे फसलेला पाय

झोपलेलं कोर्ट सुद्धा त्यांच्यासाठी होतं जागं

डोळ्यांवर काळी पट्टी तरी त्याच्यावर डाग

रोग आहे भयंकर नाही काहीच उपाय

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ ठराव / आखाडा – चित्र एक काव्ये दोन ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के आणि श्री आशिष बिवलकर ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? ठराव / आखाडा – चित्र एक काव्ये दोन ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के आणि श्री आशिष बिवलकर 

सुश्री नीलांबरी शिर्के

(१) ठराव 

कधी भुंकायचं  !

किती भुंकायचं  !

आताच ठरवून

 लक्षात ठेवायचं  

 नंतर आपापला

 एरिया सांभाळायचं 

 भुंकून भागलं नाही

तर चावे घेत सुटायचं 

 किती सज्जन असो    

समोर लक्ष ठेवायचं

विरोधी आपला नसतो

आपण फक्त भुंकायचं 

 पोटाला तर मिळतंच

 काळजी का करायची

 संधी मिळाली की मात्र

 तुंबडी आपली भरायची

 आपल्या अस्तित्वाची

  भुंकणं ही खूण आहे

  पांगलो तरी जागे राहू

  चौकस नजर हवी आहे

   खाऊ त्याची चाकरी करू

    म्हण जुनी झाली आहे

   रंगानं, अंगानं वेगवेगळे

   तरी काम आपलं एकच आहे

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

मो 8149144177

श्री आशिष बिवलकर

(२) आखाडा

गल्लीबोळातले जमलेत श्वान,

म्हणे एकत्र येऊन सर्व भुंकू |

आज नाही उद्या,

सिंहाशी आपण नक्कीच जिंकू |

*

सिंह फोडेल डरकाळी,

जराही विचलित नाही व्हायचे |

भुंकण्यापलीकडे आपण,

काहीच नाही करायचे |

*

आपले भुंकणे ऐकून,

इतर प्राणीही देतील साथ |

जंगलाच्या राजाला,

मारतील जोरात लाथ |

*

आपण एकत्र भुंकतो आहोत ,

येईल सहानुभूतीची लाट |

शेपटीवाले करतील मतदान,

लावतील सिंहाची वाट |

*

संख्याबळाच्या जीवावर,

आपल्यास मिळेल राजाचे पद |

सहा सहा महिने एकेकाने,

वापरून घ्यायचा सत्तेचा कद |

*

श्वानसभेचे जाणावे तात्पर्य एक,

अंगी कर्तृत्व जरी असले गल्लीचे |

एकत्र येऊन आज सगळे,

मनी बांधत आहेत आखाडे दिल्लीचे |

© श्री आशिष बिवलकर

बदलापूर 

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 194 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 194 – कथा क्रम (स्वगत)✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

‘मेरा जन्म सफल हुआ

मैं धन्य हुआ

कृतार्थ हुआ कि आपने

मुझे

इस योग्य समझा।

किन्तु

ग्लानि में डूबा

मैं हतमागा

क्या कहूँ

कैसे कहूँ

कि अब

मेरा वैभव क्षीण हो गया है।

अब नहीं रहा मैं

वैसा सम्पत्तिवान्

जैसा पहले था।

श्यामकर्ण अश्व भी नहीं है

मेरी अश्व शाला में

और

उन्हें क्रय करने योग्य

धन भी नहीं है

राजकोष में।

किन्तु

‘याचक को निराश कर

कलंकित नहीं होने दूंगा

अपना कुल गौरव ।

निष्फल नहीं रहेगी

आपकी याचना ।

फलवती होगी इच्छा।

ऐसी वस्तु दूंगा

जिससे होगा।

 क्रमशः आगे —

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 194 – “रूपवती जैसे अखनूर की…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत रूपवती जैसे अखनूर की...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 194 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “रूपवती जैसे अखनूर की...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

कहने को हिलगी है

एक अदद टहनी खजूर की ।

डोरी पर क्लिप लगी सूख रही

कुर्ती ज्यों डायना कुजूर की ॥

 

तपी रेत नीचे, धूप चढ़ी –

आसमान में ।

बदल गई गढ़ी जैसे

चौड़े मकान मे ।

 

मुर्गी की कलगी है

रक्तवर्ण अग्निरेख दूर की ।

या जैसे आरक्ता आँखों से

झाँक रही भावना हुजूर की ॥

 

लम्बग्रीव तना, पीठ –

जैसे घडियाल की ।

छायातक नहीं मिली

जिसकी पड़ताल की ।

 

शापग्रस्त मुलगी है

रूपवती जैसे अखनूर की ।

नजरों से बची रही  कब से वह

भाग्यवश  बेटी मजूर की ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

26 – 11 – 2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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