हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 128 – सजल – एक-एक कर बिछुड़े अपने ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सजल – एक-एक कर बिछुड़े अपने। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 127 – सजल – एक-एक कर बिछुड़े अपने ☆

समांत – आह

पदांत – नहीं है

मात्रा भार – सोलह

 

मन में अब उत्साह नहीं है।

दिखती मुझको राह नहीं है।।

 *

अपनों ने जो जख्म दिए हैं।

उसकी कोई थाह नहीं है।।

 *

मैंने खूब सजाया आँगन।

पर उनको परवाह नहीं है।।

*

एक-एक कर बिछुड़े अपने।

इक जुटता की चाह नहीं है।।

 *

पूरा जीवन खपा दिया जब।

मन में चिंता, दाह नहीं है।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 157 ☆ “रामायण महत्व और व्यक्ति विशेष” – अनुवादक – डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है डॉ. मीना श्रीवास्तव जी द्वारा श्री विश्वास विष्णु देशपांडे जी की मराठी पुस्तक का हिन्दी अनुवाद – रामायण महत्व और व्यक्ति विशेषपर चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 157 ☆

“रामायण महत्व और व्यक्ति विशेष” – अनुवादक – डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

पुस्तक चर्चा 

रामायण महत्व और व्यक्ति विशेष

विश्वास देशपान्डे की किताब का हिन्दी अनुवाद

अनुवादक डा मीना श्रीवास्तव

सोहम क्रियेशन अन्ड पब्लिकेशन

पहला संस्करण २०२३, पृष्ठ १३६, मूल्य २००रु

ISBN 978-81-958488-5-0

डॉ मीना श्रीवास्तव

दैनिक संघर्षो का ही दूसरा नाम जीवन है। अपनी योग्यता और शक्ति के अनुरूप प्रत्येक मनुष्य जीवन रथ हांकते हुये संकटों का सामना करता है पर अनेकानेक विपत्तियां ऐसी होती हैं जो अचानक आती हैं, जो हमारी क्षमताओ से बड़ी हमारे बस में नही होतीं। उन कठिन परिस्थितियों में हमें एक मार्गदर्शक और सहारे की जरूरत पड़ती है। ईश्वर उसी संबल के लिये रचा गया है। भक्ति मार्ग पूजा, पाठ, जप, प्रार्थना और विश्वास का सरल रास्ता प्रशस्त करता है। ज्ञान मार्ग ईश्वर को, जीवन को, कठिनाई को समझने और हल खोजने का चुनौती भरा मार्ग बताता है। कर्म मार्ग स्वयं की योग्यता विकसित करने और मुश्किलों से जूझने का रास्ता दिखाता है। ईश्वर की परिकल्पना हर स्थिति में मनो वैज्ञानिक सहारा बनती है। राम, कृष्ण या अन्य अवतारों के माध्यम से ईश्वर के मानवीकरण द्वारा आदर्श आचरण के उदाहरणो की व्याख्या की गई है।

आजकल कापीकैट चेन मार्केटिंग में मैनेजमेंट गुरू बताते हैं कि बिना किसी घालमेल के उनके व्यापारिक माडेल का अनुकरण करें तो लक्ष्य पूर्ति अवश्यसंभावी होती है। जीवन की विषम स्थितियों में हम भी राम चरित्र का आचरण अपना कर अपना जीवन सफल बना सकें इसलिये वाल्मिकी ने रामायण में ईश्वरीय शक्तियों से विलग कर श्रीराम को मनुष्य की तरह विपत्तियों से जूझकर जीतने के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। रामायण नितांत पारिवारिक प्रसंगो से भरपूर है। राम चरित्र में आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पति, जिम्मेदार शिष्य, कर्तव्य परायण राजा, विषम परिस्थितियों में धैर्य के संग चुनौतियों का सामना करने वाला राजकुमार, नेतृत्व क्षमताओ से भरपूर योद्धा, इत्यादि इत्यादि गुण परिलक्षित होते हैं। राम चरित्र भारत की सांस्कृतिक धरोहर है। धार्मिक मनोवृत्ति वाले सभी भारतीय, जन्मना आस्था और आत्मा से श्रीराम से जुडे हुये हैं। श्री राम का जीवन चरित्र प्रत्येक दृष्टिकोण से हमारे लिये मधुर, मनोरम और अनुकरणीय है। मानस के विभिन्न प्रसंगों में हमारे दैनंदिक जीवन के संभावित संकटों के श्रीराम द्वारा मानवीय स्वरूप में भोगे हुये आत्मीय भाव से आचरण के मनोरम प्रसंग हैं। किन्तु कुछ विशेष प्रसंग भाषा, वर्णन, भाव, प्रभावोत्पादकता, की दृष्टि से बिरले हैं। इन्हें पढ, सुन, हृदयंगम कर मन भावुक हो जाता है। श्रद्वा, भक्ति, प्रेम, से हृदय आप्लावित हो जाता है। हम भाव विभोर हो जाते हैं। भक्तों को अलौलिक आत्मिक सुख का अहसास होता है। इतिहास साक्षी है कि आक्रांताओ की दुर्दांत यातनाओ के संकट भी भारतीय जन मानस राम भक्ति में भूलकर अपनी संस्कृति बचा सकने में सफल रहा है। ज्ञान मार्गी रामायण की जाने कितनी व्यापक व्याख्यायें करते रहे हैं, अनेको ग्रंथ रचे गये हैं। कितनी ही डाक्टरेट की उपाधियां रामायण के किसी एक चरित्र की व्याख्या पर ली जा चुकी हैं। किन्तु सच है कि हरि अनंत हरि कथा अनंता।

श्री विश्वास विष्णु देशपांडे

मूल मराठी लेखक विश्वास देशपांडे जी ने भी “रामायण महत्व और व्यक्ति विशेष” के अंतर्गत रामायण के पात्रों और प्रसंगो पर छोटे छोटे लेखों में उनके सारगर्भित विचार रखे हैं। ईश्वरीय प्रेरणा से डा मीना श्रीवास्तव उन्हें पढ़कर इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने इन लेखों का हिन्दी, अंग्रेजी अनुवाद कर डाला। यही अनुवाद इस छोटी सी किताब का कलेवर है। व्यक्तित्व खण्ड में श्री राम, सीता, लक्षमण, भरत, शत्रुघन, उर्मिला, हनुमान, विभीषण, कैकेयी, रावण पर संक्षिप्त, पठनीय लेख हैं। इन समस्त चरित्रों पर हिन्दी साहित्य में अलग अलग रचनाकारों ने कितने ही खण्ड काव्य रचे हैं और विशद व्याख्यायें, टीकायें की गई हैं। उसी अनवरत राम कथा के यज्ञ में ये लेख भी सारगर्भित आहुतियां बन पड़े हैं।

राम कथा का महत्व, रामायण पारिवारिक संस्था, रामायण कालीन समाज, रामायण कालीन शासन व्यवस्था, रामायण की ज्ञात अज्ञात बातें जैसे आलेख भी जानकारियो से भरपूर हैं। अस्तु पुस्तक पठनीय, और संग्रहणीय है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… परशुराम जयंती विशेष  – भगवान परशुराम ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशनाधीन ।राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 200 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… परशुराम जयंती विशेष  भगवान परशुराम ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

(परशुराम जयंती विशेष – 2 मई)

अमर जयंती शुभ दिवस ,शुक्ल पक्ष तिथि आज।

परशुराम वह नाम है, शूर वीर के काज।।

शूर वीर के काज,विष्णु के जो अवतारी ।

पुत्र हुए मिल पाँच, पिता यह आज्ञाकारी।।

करे योगिता जाप,प्रगट है पूजें संती।

अक्षय मिले वरदान,मनातें अमर जयंती ।।1।।

मात रेणुका हर्ष में , चहुँदिशि देख प्रकाश।

परशुराम जमदग्नि सुत,करते दूर निराश।।

करते दूर निराश, बढ़ी खुशियांँ जग भारी।

ओज शौर्य में पूर्ण, कहें सब फरसाधारी।।

कुल द्रोही बन आप,हुए भू अनालुंबुका।

पाप मिटाते पुत्र,नमन कर मात रेणुका।‌।2।।

 *

वंदन बारंबार है, योद्धा जन्में वीर।।

अस्त्र-शस्त्र संज्ञान से, कहलाते रणधीर।।

कहलाते रणधीर,तभी सब काँपे रिपु दल।

छटे विष्णु अवतार, कष्ट का देते सब हल।।

प्रेमा करें प्रणाम, तिलक कर माथे चंदन।

शुभ अक्षय शुचि प्राप्त, करें जो इनको वंदन।।3।।

 

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 191 – बोझिल पहचान ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “बोझिल पहचान”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 191 ☆

🌻 लघुकथा – बोझिल पहचान 🌻

किसी भी व्यक्ति की सुंदरता, उसका व्यक्तित्व, मीठी वाणी, निश्चल व्यवहार, और सादगी से सँवरता हुआ परिधान। हजारों की भीड़ में उसे अलग दिखा सकता है। उसे अपनी पहचान बनाने की जरूरत नहीं है। ज्ञानी के ज्ञान का परचम धीरे-धीरे ही सही बढ़ता और महकता जरूर है।

जीवन का सरल होना आज के समय पर ज्यादा कठिन है क्योंकि सभी नर-नारी अपने संपूर्ण जीवन को बोझिल बन चुके हैं। जरूरत से ज्यादा उदासीनता, ऊपरी दिखावा, मेल मिलाप की कमी और अपने निष्ठुर व्यवहार को यहाँ-वहाँ प्रदर्शित कर अपनी पहचान को छुपा चुके हैं।

वह शायद एक तराशी हुई सुंदर आकर्षक व्यक्तित्व की धनी लगती थी। जिसे कुछ भी कह सकते थे। जब भी वह बाहर निकलती। अपनी आकर्षक मुस्कान बड़ी-बड़ी आँखे केश के सुंदर लट बिखरे हुए, चेहरे पर बनावटी सुंदर मुस्कान, कानों के सहारे मोती माला में झूलते चश्के अंदर से निहारते नयन और उसकी बातों से सभी को लगता शायद यह एक दमदार और सच्ची महिला है।

कई महिलाएं उसके झांसे में आ जाती। परंतु आज अचानक एक भोली- भाली महिला उसकी बातों में आकर उस देवी जी के घर पहुंच गई।

अनजाने लोग, अचानक का समय उसने शायद उसकी कल्पना नहीं की थी। घर के अंदर से खिड़की से झाँक कर उसे लगा शायद वह महिला को कुछ पता नहीं चलेगा।

जैसे ही माननीया ने दरवाजा खोला बिना लेंस के टटोलती हाथों में कापी पेन, सर पर छोटे-छोटे घास फूल जैसे बाल, हाथ पैर झुलसे और परिधान से जाने किस समय से उसने स्नान नहीं किया था।

बस देखते ही बरस पड़ी आपको बिना बताए नहीं आना चाहिए।

अतिथि महिला ने तत्काल कहा… तभी तो आपकी पहचान हो पाई है। आप कितना अपनी पहचान बोझिल बनाकर चल रही हैं।

स्वयं भी उसमें उलझी हुई हैं और दूसरों को भी उलझा कर रखी हैं। आप सादगी और असली पहचान में रहती तो शायद मेरी सद्भावना आपके लिए और होती, परंतु जो स्वयं नकली और नकली मुखौटा लगाकर दुनिया को बेवकूफ बना रही है, वह क्या किसी को समझ पाएगी।

कहती हुई वह महिला बाहर निकलने लगी। महोदया को हजारों रुपए के लटकते नकली केश, इधर-उधर बिखरे मेकअप का सामान आज बिना माल के नजर आने लगा।

जो एक गरीब महिला उसे दो टके का जवाब देकर चली गई। अपनी पहचान के लिए वह आईने के सामने खड़ी थी।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 9 – संस्मरण#3 – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  – संस्मरण)

? मेरी डायरी के पन्ने से # 9 – संस्मरण#3 ?

हमारी पीढ़ी ने अवश्य ही सख्त डाँट, मार खाई है और समय पड़ने पर जमकर कुटाई भी हमारी हुई है। संभव है इसमें लड़कियों की संख्या कम ही रही हो पर इस क्षेत्र के इतिहास में हमारा नाम स्वर्णाक्षरों में निश्चित ही लिखा गया है।

मैं अपने माता -पिता की चौथी संतान हूँ। मुझसे पहले दो बेटियों और एक बेटे को माँ जन्म दे चुकी थीं। मैं जब गर्भ में थी तो माँ ने संभवतः फिर बेटे की आस रखी होगी। माँ अक्सर कहती थीं कि मैं अगर लड़का होती तो वे मुझे आर्मी में भेज देतीं। तो निश्चित है गर्भावस्था में सपने भी बेटे को लेकर ही बुनी होंगी। पर दुर्भाग्य ही था कि मेरे रूप में पुत्री ने जन्म लिया। पर पुत्री स्वभाव और बर्ताव से पुत्र समान थी।

ख़ैर कुछ घटनाएँ जीवन में ऐसी घटी कि कूट-पीटकर मुझे सत्तू बना दिया गया पर हर पिटाई ने मेरे चरित्र और व्यक्तित्व को भी सँवार दिया।

घटना है 1960 की। मेरी उम्र थी चार वर्ष। हम कालिंगपॉग या कालिपुंग में रहते थे। यह पश्चिम बंगाल का पहाड़ी क्षेत्र है। बाबा रिसर्च साइंटिस्ट थे। बाबा अक्सर दार्जीलिंग और नाथुला पास अपने काम के सिलसिले में जाया करते थे।

उस दिन भी बाबा दार्जीलिंग गए हुए थे। कालिपुंग पहाड़ी शहर होने के कारण ठंड के दिनों में चार बजे के करीब वहाँ अँधेरा होने लगता है। बाबा घर लौट आए, देखा सब उदास बैठे हैं और माँ रो रही है। तीन बजे से मैं गायब थी। पड़ोसी मुझे ढूँढ़ने निकले थे। बाबा तुरंत कुछ और लोगों के साथ लाठी और बड़ा, लंबा टॉर्च लेकर बेचैनी से मुझे ढूँढ़ने निकले। हमारे घर से थोड़ी दूरी पर तिस्ता नदी बहती थी। दिन भर उसकी आवाज़ घर तक सुनाई देती थी। मैं उस दिन उसी आवाज़ के पीछे निकल गई थी।

बीच में एक घना जंगल था खास बड़ा नहीं था पर वहाँ अजगर और लकड़बग्घे काफी मात्रा में रहते थे। सबको इसी बात की चिंता और भय था कि अँधेरा हो जाने पर कहीं लकड़बग्घे मुझे उठा न ले जाए। तक़रीबन पौने पाँच के करीब हमारे पड़ोसी छिरपेंदा के पिता बहादुर काका मुझे गोद में उठाए घर ले आए।

मुझे माँ ने झट गोद में भर लिया होगा। खूब चूमा होगा, वात्सल्य ने आँसू बहाए होंगे। मैं तो अभी चार ही साल की थी तो घटना स्मरण नहीं। पर बाबा जब लौटे तो चार वर्ष की उस अबोध बालिका पर ऐसे बरसे मानो तिस्ता पर बना पुल टूटा हो और पानी सारा शहर में घुस आया हो! खूब मार पड़ी, बाबा कहते रहे, ” आर जाबी कखूनो तिस्ता नोदीर धारे?”

(अर्थात फिर जाओगी कभी तिस्ता नदी किनारे) मैं तो भारी मार खाकर रो- रो कर सिसकती हुई सो हो गई। रात को अचानक मैं नींद में ही बाबा की छाती पर बैठ गई और उन्हें खूब मारा और कहती रही ” आर जाबी कखूनो तिस्ता नोदीर धारे?” मैं तो नींद में थी पर बाबा समझ गए कि मेरे कोमल हृदय पर उनकी मार का गहरा सदमा था। माँ कहती थीं कि बाबा रात भर मुझे अपनी छाती पर चिपकाकर सिसकते रहे। मुझे तो घटना स्मरण नहीं पर हाँ यह घटना कईबार हमारे घर में चर्चा का विषय रहा और मैं टारगेट।

उस घटना की बारंबार चर्चा ने मेरे मन पर एक अमिट बात की छाप छोड़ी है और वह है मैं आज भी बिना बताए कहीं नहीं जाती हूँ। घर में सबको पता होता है कि माँ इस वक्त कहाँ है। हमारी बेटियों को भी यही आदत है और नाती और नतिन भी सीख गए।

दूसरी बार मेरा भुर्ता बनाया गया था जब मैं नौ-दस दस वर्ष की थी। उन दिनों गुलैल मारना सीख ही रही थी कि दादा के मित्रों के कहने पर गुलैल मारकर पड़ोसी आजोबा के घर आँवले तोड़ने निकली थी और उनके घर के झरोखे का काँच तोड़ दिया था। आजोबा ने बाबा से शिकायत की तो जो मार पड़ी उसे याद कर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। शायद रुई भी उस तरह से नहीं धुनें जाते!

आजकल बलबीर के साथ जब टीवी पर WWE का खेल देखती हूँ तो मन-ही-मन प्रसन्न भी होती हूँ कि उस छोटी- सी उम्र में मेरे भीतर मार खाने की प्रचंड क्षमता भी थी। मार सहन करना भी बड़ी ताकत की बात है!यह सबके लिए संभव नहीं। इसके लिए अदम्य साहस, शक्ति, मनोबल की आवश्यकता होती है।

उस घटना के बाद मैं किसी के कहने में नहीं आती। जब तक मैं बात को परख न लूँ, जाँच न लूँ, मैं कन्विंस न हो जाऊँ तब तक मैं किसी बात को स्वीकार नहीं करती। इसके कारण एनालाइज करने की क्षमता बढ़ गई। कहते हैं न मुँह का जला छाछ भी फूँक-फूंँककर पीता है। साथ ही मैं मित्रता और उससे घनिष्ठता भी खूब परखकर ही करती हूँ।

एक और घटना स्मरण हो आया 1974 की। मैं फर्ग्यूसन कॉलेज में बी.ए पढ़ रही थी। गणेशखिंड रोड पर माता आनंदमयी का आश्रम है, मैं वहीं से बस पकड़ती थी। पिताजी के एक कलीग सुबह 6.30 बजे सैर करने निकलते थे। उन्हें मैं नहीं पहचानती थी। वे रोज़ मुझसे बातें करते, इधर – उधर की बातें! मैं अभी सत्रह वर्ष की ही थी। माँ का आदेश था किसी अनजान व्यक्ति से बातचीत नहीं करना। पर ये सज्जन तो कुछ ज्यादा ही स्नेह बरसाने लगे। दूसरे दिन मैं एन.सी.सी.के गणवेश में थी। रविवार था, मैं परेड के लिए जा रही थी। सज्जन फिर आए और बात करने की कोशिश करने लगे। जब मैं न बोली तो पूछे नाराज़ हो! मुझे आया गुस्सा, मैंने तपाक से कहा कि, मैं अपरिचित व्यक्ति से बात नहीं करती। तो वे रोज की मुलाकात की बात कहने लगे। मैंने भी कड़क आवाज़ में कहा कि, ” आप शायद रोज़ मेरी जुड़वाँ बहन से मिलते हैं। मैं आपको नहीं जानती। ” उस दिन तो छुटकारा मिल गया।

दो दिन बाद बाबा रौद्र रूप धरकर दफ्तर से घर आए और मुझसे सवाल करने लगे कि मैंने जुड़वाँ बहन की बात उनके कलीग श्री हेगड़े से क्यों कही। झूठ बोलने के कारण दो चार थप्पड़ पड़े, खूब डाँट पड़ी। फिर माँ ने बाबा को मेरे झूठ बोलने की बाध्यता का कारण समझाया कि मैं उस व्यक्ति का रोज़ बस स्टॉप पर मिलने आने से तंग आकर छुटकारा पाना चाहती थी। तो बाबा ने मुझे बुलाकर प्यार किया और सॉरी भी कहा। (जीवन में आगे चलकर मेरी धुनाई करनेवाले मेरे बाबा मेरे सबसे अच्छे दोस्त साबित हुए। जरावस्था में वे हेरी ही सलाह लिया करते थे। )

इस उम्र में सेल्फडिफेंस की अक्ल आ गई थी। साथ मार खाकर कभी झूठ न बोलने का प्रण भी किया। बाबा के सॉरी कहने पर, दूसरों से क्षमा माँगना भी सीख लिया।

1977 में जब बलबीर मेरा हाथ माँगने घर आए ( वे मेरे बाल सखा हैं) तो बाबा ने उनसे कहा था, ” तलवार की धार है यह, संभाल सकोगे?” बलबीर ने कहा था, ” ढाल बना लूँगा मैं इसे, आप देख लेना। “

फिर विवाह के बाद ढाल बनकर परिवार की देखरेख में मैं पूरी तरह तैनात हो गई। ससुराल में खूब सम्मान और स्नेह मिला। ढाल बनते – बनते मेरा व्यक्तित्व ही बदल गया। शरारतें जिंदगी की न जाने किस झरोखे से काफ़ुर हो गईं। सहन शक्ति, मुसीबतों का सामना करने की क्षमता, न लड़ने – झगड़ने की वृत्ति, असत्य से घृणा आदि सब कुछ न जाने व्यक्तित्व में कहाँ से समा गए।

आज लिखने बैठी तो ध्यान आ रहा है कि वह मार, वह कुटाई, वह डाँट सब भलाई के लिए ही तो थे। जीवन अनुशासित और मूल्यों से भर गया।

यह भी सच है कि अपने अतीत के उन पलों को याद कर सच्चाई बयान करने के लिए भी साहस चाहिए जो बाबा ने कूट-कूट कर मुझ में भर दिया था।

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 82 – देश-परदेश – आज से चालीस पार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 82 ☆ देश-परदेश – आज से चालीस पार ☆ श्री राकेश कुमार ☆

मौसम के थर्मामीटर ने बता दिया है, कि अब देश के अधिकतर हिस्सों में पारा चालीस डिग्री पार कर जाएगा। विश्व में प्रगति हुई, तो मौसम विज्ञान में भी कुछ नए आयाम जुड़ गए हैं। मोबाइल हर घंटे का तापक्रम, वायु की गति आदि की जानकारी उपलब्ध करवा रहा हैं। कल एक युवा से बात हुई तो उसने कहा तापमान मायने नहीं रखता है, “फील लाइक” कितना है, ये अधिक महत्वपूर्ण है।

हमने भी अपने मोबाइल पर फील लाइक की जानकारी प्राप्त कर अपने आप को युवा फील करने लगे हैं। पुराने समय के लोग कहते थे, चित्त शांत रहे तो गर्मी/ सर्दी का प्रभाव नहीं होता हैं।

आज जब व्हाट्स ऐप पर ऊंगली चला रहे हैं, तो बहुत अधिक गर्म लग रहा है, इसलिए हाथ में दस्ताने (ग्लोव्स) पहन कर लिख पा रहे हैं। विगत कुछ समय से चुनाव की आग हमारे अधिकतर समूहों को भी प्रभावित कर रही हैं। मोहल्ले के समूह में तो एडमिन ने राजनीति और धर्म से संबंधित मैसेज भेजने पर प्रतिबंध की  मुनादी तक करवा दी थी। अंत में तीन सदस्यों को जो विपक्ष, सत्ता और एक स्थानीय दल से संबंधित मैसेज शेयर करते रहते थे, को निष्कासित तक कर दिया हैं। अब उन सदस्यों की पत्नियां जोकि समूह की सदस्य भी है, ने राजनीति के तीर छोड़ने आरंभ कर दिए है।

किसी भी समूह का एडमिन एक नीति निर्धारित कर समूह का संचालन करता है, फिर उसकी बात को मानना सभी सदस्यों के लिए आवश्यक हैं। वर्ना समूह छोड़ देना चाइए।

हमें तो भय लग रहा है, यादि व्हाट्स ऐप पर राजनीति के अंगारे परोसे जायेंगे तो, हमारा मोबाइल कहीं गर्मी से फट ही ना जाय।

आपसी संबंधों को राजनीति के तीर तार तार भी कर रहे हैं। हर व्यक्ति ये मानने लगा है, कि उसके द्वारा प्रेषित मैसेज ही अंतिम सत्य हैं।

राजनीतिक कारणों से मन में पड़ी हुई गांठ हो या दरार कभी ठीक नहीं होती हैं। जीवन के इस अंतिम पड़ाव में नए संबंध बनाए और पुराने संबंधों को भी टूटने से बचाएं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #236 ☆ फूलपाखरू… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

 

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 236 ?

फूलपाखरू ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

कळते मजला परि ना वळते

दुःख स्वतःचे स्वतःच गिळते

जेव्हा करते हरिचा धावा

जिवाशिवाशी नाते जुळते

*

शेण मातिने घर सारवले

पोतेऱ्याने ते आवरले

घरात नाही कचरा काडी

तरी कशाने मन हे मळते

*

चरण शृंखला नव्हते तोडे

जगता जगता झिजले जोडे

गोल भिंगरी या पायांना

मृत्यु पासून दूरच पळते

*

हळूच गेली दूर सावली

वाटत होती माय माऊली

मधुर सुखाचा काळ संपता

शीतल छाया कोठे मिळते

*

कायम कष्टी असतो मानव

जीवन वाटे त्याला बेचव

फुलाफुलांवर फूलपाखरू

मजेत उडताना आढळते

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ महाराष्ट्र देशा… ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– महाराष्ट्र देशा – ? ☆श्री आशिष  बिवलकर ☆

दगडांच्या देशा,

राकट देशा,

कणखर देशा,

महाराष्ट्र देशा |

*

धैर्याच्या देशा,

शौर्याच्या देशा,

विरांच्या देशा,

महाराष्ट्र देशा |

*

कीर्तीच्या देशा,

स्फूर्तीच्या देशा,

त्यागमूर्तींच्या देशा,

महाराष्ट्र देशा |

*

साधूंच्या देशा,

संतांच्या देशा,

महंताच्या देशा,

महाराष्ट्र देशा |

*

साहित्याच्या देशा,

कलेच्या देशा,

खेळाच्या देशा 

महाराष्ट्र देशा |

*

उद्योगाच्या देशा,

सामर्थ्याच्या  देशा,

प्रगतीच्या देशा,

महाराष्ट्र देशा |

*

सह्याद्रीच्या देशा,

सागराच्या देशा,

दऱ्याखोऱ्यांचा देशा,

महाराष्ट्र देशा |

*

पांडुरंगाच्या देशा,

खंडोबाच्या देशा,

नरसोबाच्या देशा,

महाराष्ट्र देशा |

*

ज्ञानियाच्या देशा,

तुकोबांच्या देशा,

समर्थांच्या देशा,

महाराष्ट्र देशा |

*

भक्तीच्या देशा,

शक्तीच्या देशा,

युक्तीचा देशा,

महाराष्ट्र देशा |

*

विचारवंतांच्या देशा,

सुधारकांच्या देशा,

क्रांतीकारकांच्या देशा,

महाराष्ट्र देशा |

*

वैभवाच्या देशा,

सुबत्तेच्या देशा,

भारताची भाग्य रेषा,

महाराष्ट्र देशा |

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 188 – मन का केनवास… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – मन का केनवास।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 188 – मन का केनवास✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य))

मन के

कैनवास पर

चित्रित हो तुम

मौनमुखी माधवी।

मोनालिसा की

अबूझ

मुस्कान

की तरह।

आखिर

कौन सा रहस्य है।

तुम्हारे अंतः में

माधवी ।

कौन सी विवशता थी

तुम्हारी?

क्या थे

तुम्हारे

इच्छा

आकांक्षा

महत्वाकांक्षा?

क्या है

ऋषि द्वारा

तुम्हें दिये गये

अक्षत कौमार्य

के वरदान का

रहस्य?

वरदान

सत्य था

या भ्रम?

या प्रतिष्ठा का कवच !

यातत्कालीन सामाजिक संरचना का

तथ्य ?

जो भी हो

मुझे लगता है

अब तक चल रहा है

वरदानों

और विवशताओं का क्रम !

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 189 – “और शाम घिर आई अब…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  और शाम घिर आई अब...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 189 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “और शाम घिर आई अब...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

देख रही आँगन ठिठकी

विस्थापित संयुक्ता

अपभ्रंश रहगया गाँव

होता था लिपा पुता

 *

कभी बाढ हो जाती थी

अभिशप्त जानलेवा

सिमरन करते सब वर्षा में

देवा हे देवा

 *

उसी नदी पर बाढ़ रोकने

बाँध बना भारी

हटा दी गई गाँव संग

जिससे वह ग्राम सुता

 *

उसी गाँव का ग्रीष्म

खिल खिलाकर हँसता रहता

वृक्षों की नवजात कोंपलों

में कोई कहता –

 *

यह प्रसन्नता नकली दिखती

पोल खुली इसकी

आखिर हुई शील मर्यादा

सारी अनावृता

 *

सिमट रही है बहू सरीखी

धरती  कोने में

अपना हर्ष विषाद समेटे

छोटे दोने में

 *

और शाम घिर आई अब

पश्चिमी किनारे पर

जबकि झरोखों में प्रतीक्षा

बैठी अलंकृता

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

03-05-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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