(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं। हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं।)
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक
श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है।
ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है एक नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है हिंदी – उर्दू के नामचीन वरिष्ठ साहित्यकार – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी”।)
आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –
☆ “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆
जब हम छोटे थे और राइट टाउन में नरसिंह बिल्डिग में रहते थे तब पैदल-पैदल महाराष्ट्र स्कूल वाले रोड से माडल स्कूल पढ़ने जाते थे रास्ते में सत्कार होटल के बाजू में बने हवेलीनुमा मकान में अक्सर नजर जाती थी,बाद में पता चला था कि ये बिलहरी वाले ऊंट जी की हवेली है। उसी समय की बात है लोरमी बिलासपुर से हमारे चचेरे भाई नारायण पाण्डेय फोटोग्राफी सीखने जबलपुर आए थे और मालवीय चौक पर उपाध्याय जी के फोटो स्टूडियो में वे फोटोग्राफी सीख रहे थे और उनको ये कला सिखा रहे थे ऊंट जी के दामाद उपाध्याय जी। (उपाध्याय जी श्रीमती साधना उपाध्याय जी के पति)। अपन स्कूल से लौटते हुए उपाध्याय जी के स्टूडियो में रुकते थे, वहां साहित्यकार, फोटोग्राफर, आर्टिस्ट का पुख्ता ठीहा था। शायद वहीं से’जज्बाते ऊंट’ व्यंग्य पुस्तक अपन चुरा लाए थे।
थोड़े से बड़े हुए तो परसाई जी की संगत पकड़ी तो ऊंट जी की दोनों बेटियां श्रीमती साधना उपाध्याय और श्रीमती अनामिका तिवारी जी से विभिन्न आयोजनों में भेंट होने लगी, अनामिका जी तो एक दो बार हम लोगों की व्यंग्यम गोष्ठी में भी व्यंग्य पाठ करने आयीं। फिर बाद में मुझे प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्था कादम्बरी ने व्यंग्य विधा का “रामानुज लाल श्रीवास्तव ‘ऊंट’ सम्मान” से सम्मानित किया था, तब से उन्हें और करीब से जानने की लगातार इच्छा बनी रहती थी, जब मैं कटनी में स्टेट बैंक में डिस्ट्रिक्ट लीड बैंक मेनेजर था तो कई बार बिलहरी गांव भी जाना हुआ, कटनी से 15 किलोमीटर दूर स्थित ग्राम बिलहरी के मूल निवासी रामानुज लाल श्रीवास्तव (ऊँट बिल्हरीवी) हिंदी – उर्दू के नामचीन वरिष्ठ साहित्यकार माने जाते हैं । उन्होंने हास्य व्यंग्य में अपना ऊँचा स्थान बनाया था । आपके चार काव्य संकलन , चार गद्य संकलन प्रकाशित हुए। इसके अलावा महाकवि ग़ालिब, अनीस एवम जफर के दीवान पर आपकी टीकाएँ भी प्रकाशित हुई हैं । वरिष्ठ साहित्यकार हरिशंकर परसाई के संपादन में आपकी ‘प्रतिनिधि रचनाएं ‘ शीर्षक से एक संचयन मध्यप्रदेश साहित्य परिषद भोपाल द्वारा 1972 में प्रकाशित किया गया था। उल्लेखनीय है कि ऊंट जी ने जबलपुर से ‘प्रेमा’ पत्रिका का प्रकाशन 1929 में ही आरंभ कर दिया था।
अपने गांव बिलहरी से उनका इतना लगाव था कि आरंभिक दिनों आप ‘ऊँट बिल्हरीवी ‘ के नाम से ही जबलपुर में स्तंभ लिखते रहे । तथा अपनी व्यंग्य कृति ‘ जज्बाते ऊँट ‘ ऊँट बिल्हरीवी के नाम से ही प्रकाशित कराई थी, साथ ही वे उर्दू में ऊंट नाम से व्यंग्य लिखा करते थे। उन्होंने प्रेमा प्रकाशन के माध्यम से जबलपुर में साहित्यिक वातावरण के निर्माण में अमूल्य योगदान दिया। ‘प्रेमा’ की अपने समय में साहित्यिक पत्रिकाओं में बडी प्रतिष्ठा रही है। ‘प्रेमा’ के माध्यम से अनेक प्रतिभाएं उभरीं। सौम्य किन्तु अत्यंत गरिमामय व्यक्तित्व के धनी, प्रखर व्यंग कवि लेखक व संपादक ऊंट जी से हमें मिलने का अवसर तो नहीं मिला,पर पता चला था कि प्रसिद्ध कवि हरिवंश राय बच्चन जी की कविता को भी अपनी साहित्यिक पत्रिका “प्रेमा” में छपने के प्रथम अवसर इन्होंने ही दिया था। ऊंट जी मस्तमौला तबियत के मालिक थे। उनका नाम तो था रामानुज लाल श्रीवास्तव पर खुद का नामाकरण कर लिया था, ‘ऊँट बिलहरीवी’ , क्योंकि वे अपने गांव बिलहरी की मिट्टी से हमेशा जुड़े रहना चाहते थे।
एक जगह वे लिखते हैं….
न समझो के फ्कत ठूँठ हूँ मैं, मये-मंसूर के दो घूंट हूँ मैं।
जिस पर ‘लैला’ हुई सौ बार सवार,हलिफया कहता हूँ वो ‘ऊँट’ हूँ मैं।
यहां यह बताना जरूरी लगता है कि हरिवंशराय बच्चन जी की पहली कविता प्रेमा पत्रिका में ही प्रकाशित हुई थी और उमर खैयाम की रूबाइत का अनुवाद कर अमर हो जाने वाले जबलपुर के कवि केशव पाठक की इस अनुदित रचना को प्रेमा ने ही प्रकाशित किया था। लोग बताते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम के समय जब सुभद्रा कुमारी चौहान जेल जाने लगीं थीं तो ऊंट जी ने उनके बच्चों का पालन-पोषण किया था।
ऐसे विराट हृदय वाले सहज सरल व्यक्तित्व के धनी रामानुज लाल जी 1976 में धरती छोड़कर पता नहीं कहां चले गए। जाते जाते कह गए…
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “गर्मी ”)
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘राम जाने…’।)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक हृदयस्पर्शी कहानी – ‘एक कमज़ोर आदमी की कहानी‘। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 240 ☆
☆ कहानी – एक कमज़ोर आदमी की कहानी ☆
उमाकान्त निश्चिंतता ओढ़े हुए ट्रेन के डिब्बे में सवार हो गये, लेकिन बेटे के चेहरे पर उद्विग्नता साफ दिखती थी। पिता की अटैची उनकी सीट के ऊपर सामान रखने वाली जगह में जमा कर रविकान्त बोला, ‘पापा आप सुनते नहीं हैं। मैं एक दिन की छुट्टी लेकर चला चलता। कौन सी मुसीबत आने वाली थी?’
उमाकान्त हँसकर बोले, ‘यहाँ से बैठकर सीधे हबीबगंज में उतर जाना है। कौन कहीं गाड़ी बदलना है या जर्नी ब्रेक करना है। मेरे साथ जाते और तुरन्त लौटते। व्यर्थ की भागदौड़। मैं आराम से चला जाऊँगा। वहाँ तो कोई न कोई लेने आएगा। पहुँचते ही फोन करूँगा।’
रविकान्त चुप हो गया।
उमाकान्त व्यवस्थित हो कर बैठ गये। यह इंटर-सिटी गाड़ी थी, यानी सिर्फ बैठने की व्यवस्था। दूरी भी तो ज़्यादा नहीं थी, लगभग साढ़े छः घंटे की। उन्हें खिड़की के पास वाली सीट मिल गयी थी। बगल में एक सज्जन थे और उनकी प्यारी सी आठ दस साल की बच्ची। बातचीत से मालूम हुआ उन्हें भी हबीबगंज जाना था।
उमाकान्त अब बहुत कम शहर से बाहर निकलते थे। दो साल पहले पत्नी की मृत्यु के बाद वे पूरी तरह हिल गये थे। मृत्यु का एकदम निर्मम रूप सामने आ गया था। उमाकान्त को लगा जैसे ज़िन्दगी का खेल खेलते खेलते वे अचानक दर्शक-दीर्घा में आ गये हों। ज़िन्दगी की गतिविधियों से जी उचट गया था। बस रस्म- अदायगी रह गयी थी।
अब अकेले रहने या कहीं अकेले जाने पर उन्हें अवसाद और व्यर्थता-बोध घेरने लगता था। अकेले सफर करने पर अचानक भय और बेचैनी का अनुभव होता। उन्हें लगता उन्हें कुछ हो जाएगा और उनके परिवार वालों को पता भी नहीं लगेगा। वे बेचैनी में किसी परिचित चेहरे को ढूँढ़ने लगते जिसकी मदद से वे अपने भय से उबर सकें।
उमाकान्त सुशिक्षित व्यक्ति थे। वे जानते थे कि ये सब भावनाएं आधारहीन हैं, लेकिन उनके उभरने पर उनका कोई वश नहीं चलता था। वे अपने मन में चलती ऊहापोह के दृष्टा मात्र बन कर रह जाते थे। अचानक नकारात्मक विचारों का रेला आता और वे मन पर नियंत्रण खोकर बदहवास होने लगते।
फिलहाल उनके सफर की वजह यह थी कि भोपाल में, उनके सहकर्मी रहे मेहता जी की नातिन की शादी थी और मेहता जी ने अनेक बार फोन करके उन्हें बता दिया था कि उनकी चरन- धूल पड़े बिना कार्यक्रम अधूरा माना जाएगा। मेहता जी उन्हें अपना बड़ा भाई मानते थे और ‘दादा’ कह कर संबोधित करते थे। उमाकान्त मेहता जी को समझाने में असफल रहे थे कि अब वे अपनी चरन-धूल घर की चौहद्दी में गिराना ही पसन्द करते हैं, सफर अब उनके लिए छोटी-मोटी त्रासदी होता है।
ट्रेन चल पड़ी और रविकान्त दूर तक चिन्तित आँखों से उनकी तरफ देखता रहा। उमाकान्त अब अपने को सँभालने में लग गये। वे उस भय और अवसाद को काबू में रखना चाहते थे जो अकेले में उन्हें घेरता था। वह कब अचानक मन के किसी कोने से उठकर उन्हें जकड़ने लगेगा, यह जानना उनके लिए संभव नहीं था। ऐसे मौकों पर वे कोशिश में रहते थे कि आसपास के लोगों पर उनकी कमज़ोरी ज़ाहिर न हो।
उनकी बगल में बैठी बालिका अपने पिता से बातें करने में मशगूल थी। बहुत चंचल और बातूनी लगती थी। वह लगातार पिता से कुछ सवाल किये जा रही थी। पिता शान्त स्वभाव के दिखते थे। वे धीमी आवाज़ में उसके सवालों के जवाब दे रहे थे। ज़ाहिर था कि बेटी पिता की लाड़ली थी।
अचानक लड़की उमाकान्त से बोली, ‘दादा जी, मैं खिड़की वाली सीट पर आ जाऊँ? मुझे वहाँ अच्छा लगेगा।’
उमाकान्त तुरन्त राज़ी हो गये। अब लड़की के पिता बीच में थे और वे कोने में। उमाकान्त बेटियों को बहुत प्यार करते थे, विशेषकर चौदह-पन्द्रह साल तक की। अल्हड़, बेफिक्र और बिन्दास। उनकी कॉलोनी में जब इसी उम्र की लड़कियाँ शाम को साइकिलें लेकर हँसते, बातें करते चक्कर लगातीं तब उन्हें लगता जैसे चिड़ियों का चहचहाता झुंड कॉलोनी में उड़ान भर रहा हो। सोयी हुई कॉलोनी जैसे जाग जाती।
लड़की के हाथ में मोबाइल था, जो शायद पिता का था। बीच बीच में वह सिर झुका कर उस पर उँगलियाँ फेरने लगती।
चार घंटे बाद गाड़ी इटारसी स्टेशन पर रुकी। लड़की के पिता उठे, बोले, ‘पानी लेकर आता हूँ। गरम हो गया है।’
लड़की बोली, ‘मेरे लिए चिप्स और चॉकलेट आइसक्रीम का कोन लाना।’
पिता ‘देखता हूंँ’ कह कर उतर गये। थोड़ी दूर तक दिखायी पड़े, फिर भीड़ में ओझल हो गये। लड़की मोबाइल से खेल रही थी।
थोड़ी देर बाद अचानक गाड़ी चल पड़ी। लड़की के पिता अभी लौटे नहीं थे। लड़की का ध्यान उधर गया। वह खिड़की में मुँह डालकर ‘पापा, पापा’ चिल्लाने लगी। गाड़ी ने गति पकड़ ली लेकिन लड़की के पिता नहीं लौटे। लड़की ने उमाकान्त की तरफ चेहरा घुमाया। उसका चेहरा भय से विकृत और आँखों में आँसू थे। वह फिर चिल्लायी, ‘पापा’।
उमाकान्त के मन में सुगबुगाता अपना भय और अवसाद कहीं दुबक गया। वे लड़की की हालत देखकर परेशान हो गये। उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले, ‘रो मत। किसी दूसरे डिब्बे में चढ़ गये होंगे। अभी आ जाएँगे। ऐसा हो जाता है।’
काफी देर हो गयी, लेकिन लड़की के पिता का कहीं पता नहीं था। लड़की लगातार रोये जा रही थी। अचानक लड़की के मोबाइल पर फोन आया। पिता बोल रहे थे। वे उसके लिए आइसक्रीम ढूँढ़ते प्लेटफार्म पर छूट गये थे। वैसे भी उनमें वह फुर्ती नहीं दिखती थी जो ऐसे मौकों पर ज़रूरी हो जाती है।
पिता ने बेटी को बताया कि उन्होंने भोपाल फोन कर दिया था, उसकी माँ समय से स्टेशन पहुँच जाएगी। घबराने की कोई बात नहीं है।
उमाकान्त ने लड़की के हाथ से फोन ले लिया। पिता से कहा कि वे बिल्कुल चिन्ता न करें। वे भोपाल तक उनकी बेटी की देखभाल करेंगे। अलबत्ता उसे लेने के लिए कोई स्टेशन ज़रूर पहुँच जाए।
पिता से बात खत्म होते ही माँ का फोन आ गया। वे खासी घबरायी थीं। बेटी की कुशलक्षेम पूछने के बाद वे उसे बार-बार ढाढ़स बँधाती रहीं। साथ ही यह आश्वासन भी कि वे स्टेशन ज़रूर पहुँच जाएँगीं। लड़की ने उन्हें भी बताया कि बगल वाली सीट के दादा जी उसकी देखभाल कर रहे हैं।
थोड़ी देर में डिब्बे का टी.टी. ई. भी लड़की का हालचाल लेने आ गया। उसके पास इटारसी से स्टेशन मास्टर का फोन आया था कि हबीबगंज तक लड़की की देखभाल करता रहे और उसे वहाँ परिवार वालों को सौंप दे।
लड़की अब काफी शान्त हो गयी थी। उसका भय लगभग खत्म हो गया था। उमाकान्त को भी अभी तक अपने भय को जगह देने की फुरसत नहीं मिली थी।
वे अब लड़की को बहलाने में लग गये। उन्होंने उसे बताया कि कैसे जब वे कई साल पहले वैष्णो देवी गये थे तब जम्मू में उस वक्त ट्रेन चल दी थी जब वे बुक-स्टॉल पर पत्रिकाएँ देख रहे थे। तब उन्होंने दौड़ कर ट्रेन पकड़ी थी, और उस वक्त उनके हाथ में जो झटका लगा उसका दर्द कई दिन तक रहा। उन्होंने पूरे अभिनय के साथ लड़की को यह कहानी सुनायी। उसे बताया कि अब भी उस घटना को याद करके वे सिहर उठते हैं। लड़की उनकी बातों को रुचि लेकर सुनती रही।
उमाकान्त के पास बिस्कुट थे। इसरार करके उन्होंने लड़की को खिलाये। फिर उसे व्यस्त रखने के लिए उसके परिवार के बारे में पूछते रहे। उसके दो भाइयों, स्कूल, क्लास, सहेलियों, पसन्द-नापसन्द के बारे में तफसील से जानकारी ली। उनकी पूरी कोशिश रही कि लड़की को अपने अकेलेपन का एहसास न हो।
राम राम करते गाड़ी हबीबगंज पहुँच गयी। रात के करीब साढ़े दस बज गये थे। गाड़ी यहीं खत्म होती थी। लड़की व्यग्रता से खिड़की से बाहर झाँकने लगी। तभी भीड़ के बीच से एक महिला दौड़ती हुई आती दिखायी पड़ी। वह चिन्ता से बदहवास थी। खिड़की के पास आकर ‘गीता,गीता’ पुकारने लगी। लड़की भी खड़ी होकर ‘मम्मी, मम्मी’ पुकार रही थी। माँ ने उसे देख लिया था।
उमाकान्त ने लड़की का हाथ पकड़ा और उसे दरवाज़े तक पहुँचा दिया। पीछे पीछे टी.टी.ई. भी आया। वह माँ-बेटी को दफ्तर में ले जाकर इत्मीनान करेगा कि लड़की सही हाथों में सौंप दी गयी।
माँ बेटी को छाती से चिपका कर आँसू बहा रही थी। लड़की ने उमाकान्त का परिचय माँ से कराया और माँ ने हाथ जोड़कर उन्हें धन्यवाद दिया। उमाकान्त को लेने मेहता जी का बेटा आ गया था। ट्रेन से उतरते उतरते उमाकान्त उस भय और अवसाद को ढूँढ़ने लगे जो इस घटना-चक्र के बीच कहीं गुम हो गया था।
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 239☆ मायोपिआ
दिन के गमन और संध्या के आगमन का समय है। पदभ्रमण करते हुए बहुत दूर निकल चुका हूँ। अब लौट रहा हूँ। आजकल कोई मार्ग ऐसा नहीं बचा जिस पर ट्रैफिक न हो। ऐसी ही एक सड़क के पदपथ पर हूँ। कुछ दूरी पर सेना द्वारा संचालित एक स्थानीय विद्यालय है। इसके ठीक सामने एक सैनिक संस्थान है। धुँधलके का समय है, स्वाभाविक है कि इमारतें और पेड़ भी धुँधले दिख रहे हैं। इससे विपरीत स्थिति वह है, जिसमें धुँधलाती तो आँखें हैं और लगता है जैसे इमारतें और पेड़ धुँधला गए हों। प्रत्यक्ष और आभास में यही अंतर है।
विद्यालय से लगे पदपथ पर चल रहा हूँ। देखता हूँ कि कुछ दूरी पर पथ से सटकर एक बाइक खड़ी है। पुरुष बाइक के सहारे खड़ा है। यह भी आभासी है। सत्य तो यह है कि बाइक उसके सहारे खड़ी है। उसके साथ की स्त्री नीचे पदपथ पर चेहरा झुकाए बैठी है। एक तरह की आशंका भीतर घुमड़ने लगी। यद्यपि किसी के निजी जीवन में प्रवेश करने का अधिकार किसी दूसरे को नहीं होता तथापि संबंधित स्त्री यदि किसी प्रकार की कठिनाई में है तो उसकी सहायता की जानी चाहिए। इस भाव ने कदम उसी दिशा में बढ़ाए। थोड़ा और चलने पर यह जोड़ा साफ-साफ दिखाई देने लगा । दूर से ऐसा कुछ लग नहीं रहा था कि दोनों में किसी प्रकार के विवाद की स्थिति हो । मेरे और उनके बीच की दूरी अब मुश्किल 20 फीट रह गई थी। देखता हूँ कि अपने आँचल से ढक कर वह शिशु को स्तनपान करा रही है। स्वाभाविक है था कि मैंने अपने दिशा में परिवर्तन कर लिया।
दिशा में परिवर्तन के साथ विचार भी बदले, मंथन आरंभ हुआ। कैसी और किन-किन परिस्थितियों में संतान का पोषण करती है माँ, उसे अमृत-पान कराती है! माँ के लिए सर्वोच्च प्राथमिकता है शिशु।
मंथन कुछ और आगे बढ़ा और विचार उठा कि प्रकृति भी तो माँ है। मनुष्य द्वारा मचाये जाते सारे विध्वंस के बीच आशा की एक किरण बनकर खड़ी रहती है प्रकृति। आश्चर्य देखिये कि माँ की कोख में विष उँड़ेलता मनुष्य अपने कृत्य पर लज्जित नहीं होता, प्रकृति का अनवरत शोषण करता हुआ लजाता नहीं अपितु पंचतत्वों के संहार में निरंतर जुटा होता है। विरोधाभास यह कि पंचतत्वों का संहारक, पंचतत्वों से बनी काया के छूटने पर दुख मनाता है। मनुष्य लघु तो देख लेता है पर प्रभु उसे दिखता नहीं, निकट का देख लेता है, पर दूर का ओझल रहता है। नेत्रविज्ञान इसे मायोपिआ कहता है। आदमी के इस शाश्वत मायोपिआ का एक चित्र कविता के माध्यम से देखिए-
वे रोते नहीं
धरती की कोख में उतरती
रसायनों की खेप पर,
ना ही आसमान की प्रहरी
ओज़ोन की पतली होती परत पर,
दूषित जल, प्रदूषित वायु,
बढ़ती वैश्विक अग्नि भी,
उनके दुख का कारण नहीं,
अब…,
विदारक विलाप कर रहे हैं,
इन्हीं तत्वों से उपजी
एक देह के मौन हो जाने पर…,
मनुष्य की आँख के
इस शाश्वत मायोपिआ का
इलाज ढूँढ़ना अभी बाकी है..!
हर हाल में मानव और मानवता को पोषित करने वाली प्रकृति के प्रति मनुष्य का यह मायोपिआ समाप्त होना चाहिए। इससे अनेक प्रश्न भी हल हो सकते हैं।
काँक्रीटीकरण, ग्लोबल वॉर्मिंग, कार्बन उत्सर्जन, पिघलते ग्लेशियर सब रुक सकते हैं। बहुत देर होने से पहले आवश्यक है, अपने-अपने मायोपिआ से मुक्त होना..। इति
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
श्री हनुमान साधना – अवधि- मंगलवार दि. 23 अप्रैल से गुरुवार 23 मई तक
श्री हनुमान साधना में हनुमान चालीसा के पाठ होंगे। संकटमोचन हनुमनाष्टक का कम से एक पाठ अवश्य करें। आत्म-परिष्कार एवं ध्यानसाधना तो साथ चलेंगे ही। मंगल भव
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
Anonymous Litterateur of Social Media # 186 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 186)
Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.
Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.
He is also an IIM Ahmedabad alumnus.
His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!
English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 186
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है गीत – अभिन्न…।)