(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – साक्षात् भगवान हो गया…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 51 – साक्षात् भगवान हो गया… ☆ आचार्य भगवत दुबे
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “सजल – बदल गया है आज जमाना”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – संस्मरण।)
मेरी डायरी के पन्ने से # 8 – संस्मरण#2
दिल्ली में पूसा कॉलोनी में अपने बचपन का कुछ हिस्सा हमने बिताया था। सब परिचित थे। कई परिवारों के साथ रोज़ाना उठना – बैठना था। सभी आई.ए.आर. आई. में कर्मरत थे। अधिकतर रिसर्च साइंटिस्ट थे।
वे बाबा -माँ के दोस्त हमारे काका काकी या जेठू -जेठी थे। बँगला भाषा में जेठू पिता के बड़े भाई और जेठिमा उनकी पत्नी कहलाती हैं।
उनके बड़े बच्चे हमारे दादा और दीदी हुआ करते थे।
सबके घर आँगन एक दूसरे से सटे हुए थे। सरकारी एक मंज़िला मकान थे। एक विशाल मैदान के तीनों तरफ सारे मकान अर्ध गोलाई में बने हुए थे। सामने मुख्य सड़क और कॉलोनी को अलग करती हुई पीले फूलों की झाड़ी वाली हेज लगी हुई थी। बीच की खुली जगह बच्चों के खेलने का मैदान था।
गर्मी के मौसम में घर के पीछे वाले बगीचे में बैठते तो पड़ोस की दीदी सिर में तेल लगाकर देतीं। आँगन में बैठकर माँ – मासियाँ, काकी चाची जेठियाँ उड़द दाल पीसकर बड़ियाँ बनातीं। शीतकाल में स्वेटर बुनतीं। पुरानी सूती साड़ियों की थिगली या पैबंध लगाकर गुदड़ियाँ सिलतीं।
कॉलोनी के सारे दादा मोहल्ले के पेड़ों पर लगे कच्चे आम काटकर नमक के साथ हम बच्चों को खिलाते, दीदी पके काम काटकर सब बच्चों में फाँकिया बाँटतीं। फालसा का, जामुन का, लीची का सब मिलकर स्वाद लेते।
ठंड के दिनों में दृश्य वही रहता पर वस्तुएँ बदल जातीं। संतरे छीलकर फाँकियाँ सबमें बाँटी जातीं। कच्चे -पके अमरूद मिलते। रेवड़ियाँ, भूनी मूँगफलियाँ, भुर्रे गजख का स्वाद मिलता। हरे चने जिसे बूट कहते हैं, उसे सब बच्चे मिलकर छील-छीलकर खाते। पके बेर मिलते।
जीवन सरल और सरस था। स्व की भावना पूर्ण रूप से लुप्त थी। जिसके घर में जो आता वह अपने पड़ोस के बच्चों के साथ बाँटकर ही खाता। कभी नापकर न किसी के घर सब्ज़ियाँ बनाई जाती थीं न गिनकर रोटियाँ। किसके बच्चे दिन के समय खेलते हुए किसके घर खाकर सो जाते इसका पता ही न रहता।
ठंड के दिनों में मुहल्ले की घास पर लाल रंग के खूबसूरत मखमली कीड़े दिखाई देते थे। इन्हें इंद्रवधू, बीरबहूटी या बूढ़ी माई के नाम से भी जाना जाता है। हम बच्चे उन कीड़ों को हाथ से पकड़कर दियासलाई की डिबिया में बंद करके रखते थे। कभी किसी ने टोका नहीं, रोका नहीं और हम हत्यारे बनकर उन निर्दोष निरीह कीड़ों को डिबिया में पकड़कर बंद कर देते। उनके शरीर का ऊपरी हिस्सा लाल मखमली होता और हमें उन्हें छूने में आनंद आता। कई डिब्बे जमा हो जाते और प्राणवायु के अभाव में वे कब मर जाते हमें पता ही न चलता। हम उन्हें घर के पिछवाड़े गड्ढा खोदकर एक साथ गाड़ देते। पता नहीं क्यों उस वक्त संवेदनाएँ इतनी तीव्र क्यों नहीं थी।
आज हमारा जीवन उसी दियासलाई के बक्से में बंद प्राणवायु के अभाव में घुटते मखमली कीड़ों की तरह ही है। हम सुंदर सजीले घर में रहते हैं। पर हमारे घर अब पड़ोसी नहीं आते।
हम गिनकर फुलके पकाते हैं अब किसी के बच्चे हमारे घर भोजन खाकर सोने नहीं आते।
हर मौसम में कई फल घर लाते हैं पर किसी के साथ साझा कर खाने की वृत्ति समाप्त हो गई।
रेवड़ियाँ, गजख, गुड़धनी, अचार, पापड़ बड़ियाँ सब ऊँचे दाम देकर ऑनलाइन मँगवाते हैं। अब किसीके साथ बाँटने का मन धन और कीमत के साथ जुड़ गया।
आजकल लोगों के पास सब कुछ है बड़े घर, नौकर चाकर, गाड़ी सुख -सुविधाएँ बस लुप्त हो गया अगर कुछ तो वह है साझा करने की वृत्ति। अब सब कुछ स्व में सिमटकर रह गया।
बच्चों के लिए कई बार माता-पिता भी पराए हो जाते हैं। मैं और मेरे बच्चों के बाहर की दुनिया से अब खास कोई परिचय नहीं न सरोकार है।
आज की पीढ़ी इकलौती संतान वाली पीढ़ी है फिर उन्हें किसीके साथ बाँटकर खाने या देने की वृत्ति कहाँ से आएगी!
हर समय मित्रों का वह जो आना- जाना था सो कम हुआ फिर धीरे -धीरे बंद हुआ। मोबाइल फोन ने हमारी गतिविधियों को इममोबाइल कर दिया। संतानें घर से दूर हो गईं। एक शहर में रहकर भी उनका आना – जाना न के बराबर ही है।
और हमारी पीढ़ी ? वह तो मखमली कीड़ों को पकड़ने और प्राणवायु के अभाव में मारने की सज़ा भुगत रही है। ब्रह्माण्ड से परे कुछ नहीं है। समय लौटकर आता है। सबक सिखाता है और करनी का फल देता है। हम केवल सुखद स्मृतियों को, अपने अतीत को निरंतर वर्तमान बनाकर जीवित रहने का प्रयास करते चल रहे हैं। ईश्वर की असीम कृपा ही समझे कि हमारे पास स्मृतियों की सुखद संपदा है वरना जीवन का यह अंतिम पड़ाव कितना कष्टप्रद हो उठता।
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धकआलेख – देश में बिजली आने की कहानी।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 279 ☆
आलेख – देश में बिजली आने की कहानी
1899 में कोलकाता के कुछ हिस्से में अंग्रेजो ने शाम के समय बिजली के प्रकाश की व्यवस्थाये कर दिखाईं थी. 20वीं शताब्दी की शुरुआत में १९०५ में दिल्ली में भी बिजली से प्रकाश व्यवस्था का प्रारंभ हुआ. शुरुआती दौर में डीजल से बिजली बनाई जाती थी. 1911 के तीसरे दिल्ली दरबार के समय जब अंग्रेज राजा ने बुराड़ी के कोरोनेशन पार्क में आयोजित एक समारोह में ब्रिटिश भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित करने की घोषणा की, उसी साल यहां पर भाप से बिजली उत्पादन स्टेशन बनाया गया. अंग्रेजों ने 20वीं सदी के पहले दशक में भारतीय परंपरा की नकल करते हुए दिल्ली में दो दरबार सन 1903 एवं 1911 में किए, जिनमें बिजली से साज-सजावट की गई. लियो कोल्मैन ने अपनी पुस्तक ‘ए मॉरल टेक्नॉलजी, इलेक्ट्रिफिकेशन एज पॉलिटिकल रिचुअल इन न्यू डेल्ही’ में भारत की राजधानी के बिजलीकरण के बहाने सांस्कृतिक राजनीति, राजनीतिक सोच को आकार देने में प्रौद्योगिकी की भूमिका को रेखांकित किया है. ‘दिल्ली, पास्ट एंड प्रेजेन्ट’ के लेखक एच सी फांशवा ने पूर्व (यानी भारत) में बिजली की रोशनी की शुरुआत पर चर्चा करते हुए इसे एक फिजूल खर्च के रूप में खारिज कर दिया था. उसने तर्क देते हुए कहा कि दिल्ली में कलकत्ता के विपरीत कारोबार शाम के समय खत्म हो जाता है. ऐसे में मिट्टी के तेल से होने वाली रोशनी ही काफी है. ‘मैसर्स जॉन फ्लेमिंग’ नामक एक अंग्रेज कंपनी ने दिल्ली में 1905 में पहला डीजल पावर स्टेशन बनाया था. इस कंपनी के पास बिजली बनाने और डिस्ट्रीब्यूशन दोनों की जिम्मेदारी थी.
जॉन फ्लेमिंग कंपनी’ ने पुरानी दिल्ली में लाहौरी गेट पर दो मेगावाट का एक छोटा डीजल स्टेशन बनाया. बाद में इसका नाम ‘दिल्ली इलेक्ट्रिसिटी सप्लाई एंड ट्रैक्शन कंपनी’ हो गया. 1911 में, बिजली उत्पादन के लिए स्टीम जनरेशन स्टेशन यानी भाप से बिजली बनाने वाले स्टेशन की शुरुआत हुई. ‘दिल्ली गजट, 1912’ के अनुसार, बिजली से रोशनी के मामले में दिल्ली किसी भी तरह से दुनियां से पिछड़ी नहीं थी. 1939 में दिल्ली सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी पॉवर अथॉरिटी बनाई गई थी.
समय के साथ युग परिवर्तन हुआ, विकास और विस्तार होता रहा. आज बिजली उत्पादन थर्मल, हाइडल, एटामिक, विंड से होते हुए सोलर पॉवर तक आ पहुंचा है.
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है पारिवारिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “शिकन”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 190 ☆
🌻 लघुकथा 〰️ शिकन 〰️
माथे या ललाट पर पड़ने वाली मोटी पतली आडी़ रेखाओं को शिकन कहते हैं। आज से थोड़े पहले पुराने वर्षों में देखा जाए और सोचा जाए तो बुजुर्ग लोग बताया करते थे…. कि देखो वह साधु बाबा ज्ञानी ध्यानी आए हैं। उनके ललाट पर कई रेखाएं(शिकन) हैं। बहुत ही विद्वान और शास्त्र जानते हैं। कोई भी प्रश्न जिज्ञासा हो सभी का समाधान करते हैं।
सभी के बताए अनुसार अजय भी इस बात को बहुत ही ध्यान से सुनता था। दादी – दादा की बातों को बड़े गौर से मन में रख नौ वर्ष का बालक अपने ज्ञान बुद्धि विवेक से जान सकता था कि क्या अभी करना और क्या नहीं करना है।
परंतु बच्चों के मन में कई सवाल उठता है। पहले वह देखा करता था कि दादाजी बड़े ही खुश होकर उठते बगीचे की सैर करते और दिनचर्या निपटाकर अपने-अपने कामों में लगे सभी के साथ बातचीत करते अपना समय व्यतीत करते थे।
परंतु वह देख रहा था कि कुछ दिनों से दादा जी के माथे पर एक दो लकीरें बनी हुई दिखाई दे रही हैं।
बच्चे ने गौर से देखा और चुपचाप रहा परंतु देखते-देखते उनके माथे पर कई रेखाएँ/ शिकन बढ़ने लगी थी।
आज खाने की टेबल पर सभी भोजन कर रहे थे। दादाजी के माथे की ओर देख अजय दादी से कहने लगा… दादी – दादी देखो दादाजी अब ज्ञानी ध्यानी बनने लगे हैं। उनको भी बहुत सारी बातों का ज्ञान हो गया है। साधु संत बन जाएंगे।
दादी – दादा के चेहरे का रंग उड़ने लगा। अपने पोते की बातों का… कैसा अर्थ निकाल रहा है?
तभी दादाजी बोल उठे…. हाँ हांँ बेटा हम और तुम्हारी दादी अब साधु बनेंगे और यहाँ से दूर शहर के बाहर जो बगीचा वाला आश्रम है। वहाँ जाकर रहेंगे और वहाँ प्रभु भजन करेंगे।
बेटे बहु समझ नहीं पा रहे थे कि हमारी गुप्त योजना को मम्मी- पापा कैसे समझ गए और नन्हें अजय ने उसे जाने अनजाने ही कैसे पूरी शिद्दत से बाहर कर दिया।
तभी अजय भौंहे चढ़ा कर बोल उठा… दादाजी मेरी भी एक लकीर बन रही है। अब मैं भी आपके साथ चलूँगा क्योंकि पता नहीं कब यह बहुत सारी बन जाए आपके माथे जैसी तो आप मुझे आगे – आगे बताते जाना मैं आपसे रोज कहानी सुना करूंगा।
मैं भी एक दिन विद्वान बन जाऊंगा। दादा ने गले लगाते हुए कहा – – – नहीं नहीं बेटे अभी तुम्हारी उम्र नहीं है। शिकन – – बुड्डे होने पर बनती है। इसके लिए बुड्ढा होना पड़ता है।
अजय जिद्दमें अड़ा रहा आपको देख – देख कर मेरे माथे में भी शिकन बन जाएगी। मैं तो आपके साथ ही चलूंगा।
दादा- दादी पोते को लेकर सीने से लगाए हंसते हुए रोने लगे। शायद बेटा बहू समझ चुके थे कि अब उनके माथे में लकीरें बनना आरंभ हो जाएगी। माथे को पोंछते वह जाकर मम्मी- पापा के चरणों पर झुक गया।
ना जाने क्या सोच वह गले से लग रो पड़ा। अजय ने कहा… देखो मैं भी साधु बन गया है ना दादाजी, बता दिया तो पापा रोने लगे।
दादा दादी की आँखों से अश्रु धार बहने लगी। माथे की शिकन मिटाते वे अपने बेटे बहु को गले से लगा लिये।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 81 ☆ देश-परदेश – कुछ दिन तो गुजारो… ☆ श्री राकेश कुमार ☆
दो सदियों पूर्व ये बात सदी के महनायक अभिताभ बच्चन ने लाखों बार टीवी पर आकर दोराही हैं। एक हम है, उनकी बताई गई कोई भी बात मानते ही नहीं हैं, जैसे की कल्याण ज्वेलर से सस्ता सोना खरीदने की हो या मुथूट फाइनेंस से उसी सोने को गिरवी रख कर धन जुटाने की हो। खाने में भी उनकी बताई भुजिया हो या विमल गुटका हम सेवन नहीं करते है चाहे मुफ्त में ही क्यों ना उपलब्ध हो।
विगत कुछ वर्षों से अभिताभ बच्चन गुजरात की खुशबू की बात भी नहीं कर रहे हैं। गुजरात की राजधानी अहमदाबाद की ट्रेन टिकट भी एक माह बाद की आसानी से मिल रही थी, इसका मतलब अभिताभ जी की बात का असर खत्म हो रहा हैं। लेकिन इस चक्कर में हमसे गलती से अहमदाबाद की टिकट बुक हो गई हैं।
मौसम आम चुनाव का हमेशा ही रहता है। कभी किसी राज्य, नगर निगम इत्यादि में चुनाव नहीं तो उपचुनाव हो जाते हैं। आम का मौसम भी है, जब अहमदाबाद पहुंचे तो ” केसर” आम की खुशबू से कैसे बच सकते हैं। हमारे हिसाब से तो आम के शौकीन लोगों के मद्देनजर गुजरात राज्य का नाम बदल कर ” आम प्रदेश” या फिर अहमदाबाद का नाम ” आमबाद” कर देने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
एक मित्र से जब बात हुई तो उसने बताया जबलपुर से भी अहमदाबाद की रेल टिकट आसानी से मिल है। फिर क्या वो भी पहुंच गए, अहमदाबाद!
दूर कहीं गीत बज रहा था, “जहां चार यार मिल जाएं” वहां आम का मौसम में भी खास हो ही जाता हैं।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण कविता – सुनो माधवी…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 187 – सुनो माधवी…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “अपने जीवित होने की...”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 188 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “अपने जीवित होने की...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆