हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 285 ☆ कथा-कहानी – नवाचारी बिजनेस आइडिया ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक व्यंग्यात्मक लघुकथा – नवाचारी बिजनेस आइडिया। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 285 ☆

? लघुकथा – नवाचारी बिजनेस आइडिया ?

अपने ही सम्मान की सूचना अपनी ही रचना छपने की सूचना, अपनी पुस्तक की समीक्षा वगैरह स्वयं देनी पड़ती हैं, जिसे लोग अपना भोंपू बजाना या आत्म मुग्ध प्रवंचना कहते हैं।

इसलिए एक सशुल्क सेवा शुरू करने की सोचता हूं ।

हमे आप अपने अचीवमेंट भेज दें, हम पूरी गोपनीयता के साथ अलग अलग प्रोफाइल से, उसे मकड़जाल में फैला देंगे ।

ऐसा लगेगा कि आप बेहद लोकप्रिय हैं, और लोग आपकी रचनाएं, सम्मान आदि से प्रभावित होकर उन्हें जगह जगह चिपका रहे हैं।

तो जिन्हें भी गोपनीय मेंबरशिप लेनी हो इनबाक्स में स्वागत है। तब तक इधर हम भी कुछ और नामी गिरामी प्रोफाइल हैक कर लें, कुछ छद्म प्रोफाइल बना डालें, आपकी सेवा के लिए ।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 194 – सत्संगी फिजियोथैरेपी ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित विचारणीय लघुकथा “सत्संगी फिजियोथैरेपी”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 194 ☆

🌻सत्संगी फिजियोथैरेपी🌻

बड़ा प्यारा सा नाम लगा और यह नाम महिलाओं में चर्चा का विषय बनता जा रहा। बदलते परिवेश में आज मनुष्यों के पास सभी प्रकार के साधन सुविधा उपलब्ध है। ऊँगली चलाते ही समान की तो बात छोड़िए, गरमा गरम भोजन भी उपलब्ध हो जाता है।

मशीनों से जूझते कंप्यूटर पर हाथ और आँखें, दिमाग में हजारों तरह की बातें, एक साथ चलती है।

कहीं ना कहीं मानव, मानव द्वारा ही निर्मित यंत्र में ऊलझता चला जा रहा है। परंतु कहते हैं नित आविष्कार ही हमें, ऊँचा उठने की प्रेरणा देता है। अनुचित दिनचर्या, बेहिसाब खान-पान और अनिद्रा के चलते सभी शिकार होते चले जा रहे हैं। घंटो मोबाइल पर समय व्यतीत हो जाता है।

परंतु स्वयं के लिए कोई समय नहीं निकल पाता। खासकर महिला वर्ग अपने लिए समय नहीं निकाल पाती है। निकाले भी कैसे यदि वर्किंग महिला है, तो घर बाहर दोनों की जिम्मेदारी और यदि ग्रहणी है तो फिर तो पूरा दिन रसोईघर पर ही लगी रहे।

बहुत ही प्यारा सा नाम डाॅ निशा फिजियोथैरेपिस्ट। क्लीनिक में उनके पास तरह-तरह की महिलाएं और पुरुषों का आना जाना। क्योंकि कहीं ना कहीं सभी को कुछ समय के बाद हाथ पैरों का दर्द ज्यादातर घुटनों, कमर का दर्द सताने लगा है।

भिन्न-भिन्न प्रकार के मशीन डॉ. निशा के हाथ अपने सभी मरीजों के लिए एक साथ कई काम करते हुए मुस्कुराते अपनी बात रखते सभी की  मदद करते। किसी का व्यायाम, किसी की सिकाई, इलेक्ट्रिक मशीन, किसी को एक्यूप्रेशर तो किसी का ध्यान और सबसे बड़ी बात उनके हँसते मुस्कुराते चेहरे पर चमकती दो बड़ी-बड़ी, धैर्य के साथ देखती दो आँखें।

संतुष्टि से भरा ह्रदय, सत्संग की बातें, कहीं रिश्तो की बातें, कहीं मेहमानबाजी, कहीं घर के कामकाज, कहीं पास पड़ोसियों का मिलना- जुलना, सभी के साथ चर्चा करते-करते ईश्वर पर गहरी आस्था रखती सबका काम करते जाती।

जो भी आते सभी डाॅ निशा की तारीफ करते। सभी को सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करना, उनका अपने कार्य के साथ एक जुगलबंदी हो गई थी।

डॉ निशा को आज किसी महिला ने कुदरते हुए पूछा…. आप थकती नहीं है? कितना सब कुछ करते और साथ ही साथ हम सब का मनोरंजन ज्ञानवर्धक बातें और सत्संग करते, – –

दो बड़ी बड़ी बूँदें अँखियों से उतर कर कपोलों पर आ गए। मोती जैसे आँसू को पोंछती हुई डॉ. निशा ने अपने सत्संगी फिजियोथैरेपी की बात करते हुए बताने लगी…. मैं जिस समय और वातावरण से गुजरी हूँ, सत्संग ही मेरा सहारा था। बाबा की कृपा जिन्होंने मुझे मानवता के लिए चुना।

आज के समय में दुख – दर्द देने सभी तैयार मिलते हैं। क्या अपने और क्या पराए। परंतु मैं आप सभी की सेवा कर ईश्वर के इस अनमोल उपहार को उन तक पहुंचा रही हूँ। पैसे लेकर ही सही मैं किसी के दर्द को दूर कर रही। दुख – दर्द निवारण का कारण बन गई हूं। मुझे ईश्वर ने इस नेक काम के लिए चुना। उनका मैं हृदय से वंदन करती हूँ ।

क्लीनिक में लगभग सात आठ महिलाएं एक साथ अपने-अपने कामों में लगी थी और सबसे बड़ी बात सभी की सभी शांत थीं

निशा ने हँसते हुए कहा… क्या बात है मेरे इस सत्संगी फिजियोथैरेपी को हमेशा याद रखना। प्रभु का सुमिरन सच्चे हृदय से करते रहना। संसार है दुख – सुख का आना-जाना लगा रहता है।

अपने दुखों को बुलाकर मानवता अपना कर देखो। जिंदगी बदल जाती है। किसी की सेवा करके देखिए— भगवान भी बदल जाते हैं।

चलते-चलते हँसते सभी ने कहा… इस फिजियोथैरेपी का नाम सत्संगी फिजियोथैरेपी होना चाहिए।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 85 – देश-परदेश – बॉम्बे शहर हादसों का शहर ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 85 ☆ देश-परदेश – बॉम्बे शहर हादसों का शहर ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज प्रातः ये गीत गुनगुनाते हुए, स्नानगृह से बाहर आए, तो श्रीमती जी ने प्रश्न दाग दिया, आज प्रभु के भजन के स्थान पर ये घटिया गाना कैसे याद आ गया ?

ज्ञानी लोग सही कहते है, जैसा खाओगे या जैसा मन में विचार करेगें, वैसा ही आपका मन बन जायेगा।कुछ दिनों से हादसों की सुनामी आई हुई है।टीवी, सोशल मीडिया भी हादसों की चर्चा कर रहें हैं।तो हमारा मन भी तो प्रभावित होगा।

भयंकर गर्मी, ऊपर से चुनावों की गर्मी, सोने पर सुहागा।पुणे, राजकोट घटनाओं की आग अभी भी सुलग रही हैं। दिल वालों की दिल्ली भला क्यों पीछे रहेगी, वहां तो स्वास्थ्य प्रहरी ही मौत का कुआं बना कर खुला आमंत्रण दे रहें हैं। गर्मी के मौसम में आग लगने की घटनाएं बढ़ जाती है।

सड़क हादसे सदा बहार रहते है, कैसा भी मौसम हो, ये तो ऑल सीजन वाली श्रेणी में रहते हैं। वाहन चालक को हमारे यहां उचित ध्यान नहीं दिया जाता हैं। काम के घंटे हो या उनके विश्राम, भोजन आदि का स्तर निम्न श्रेणी में आता हैं।

वाणिज्यिक वाहन चालकों को अधिकतम आठ घंटे ही कार्य करना चाइए। प्रातः वो जब भी गाड़ी को स्टार्ट करें, उसी समय से आठ घंटे का काउंट डाउन आरंभ हो जाना चाहिए । जीपीएस मॉड्यूल, कार्यप्रणाली जैसा कि विदेशों में प्रचलित है, को लागू करना पड़ेगा।

ओवर लोडिंग का श्रीगणेश बाइक पर कम से कम तीन लोग और कार में सात से आठ व्यक्ति बैठ कर देश की विदेशी मुद्रा की बचत करने में वर्षों से अनवरत सहयोग दे रहे हैं। सुरक्षा पेटी, ट्रैफिक नियम का पालन आदि का रिवाज़ हमारे देश में है, ही नहीं।

एक खूबसूरत सी फिल्म है ” खूबसूरत” उसका एक गीत बला सी खूबसूरत अदाकारा सुश्री रेखा पर फिल्माया गया था, गीत के बोल ” सारे नियम तोड़ दो” को हमारे देश के अधिकतर लोग मान देते हैं।

हर हादसे के बाद एक जांच समिति बनेगी, कुछ छोटे लोग सस्पेंड होंगे, समिति की रिपोर्ट गुमनाम हो जाती हैं।ये ही अंतिम सत्य हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #239 ☆ सतार हृदयी… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 239 ?

सतार हृदयी ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

छोटेखानी कपाट हृदयी

इथे मांडशी किती पसारा

घर शिस्तीचे माझे सासर

थंड ऋतुतही चढतो पारा

*

तो अश्रूचा आहे ओघळ

आरशास का कळते केवळ ?

जगा वाटते श्रावण धारा

इथे मांडशी किती पसारा

*

ऋतू कोवळे इथे फुलांचे

फूल पाखरा बागडण्याचे

माझ्यासाठी का ही कारा ?

इथे मांडशी किती पसारा

*

संसाराचे स्वप्न पाहिले

सुरात होते गीत गायिले

सतार हृदयी तुटल्या तारा

इथे मांडशी किती पसारा

*

दिसले कोठे गलबत नाही

नुसते पाणी दिशास दाही

मला रोखतो रोज किनारा

इथे मांडशी किती पसारा

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 192 – कथा क्रम (स्वगत)… ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण कविता – कथा क्रम (स्वगत)।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 192 – कथा क्रम (स्वगत)✍

(नारी, नदी या पाषाणी हो माधवी (कथा काव्य) से )

मित्र,

नेत्रपटल पर उभरा

मित्र गरुड़ का चित्र ।

गरुड़ का स्मरणः

एकाएक

मुख पर

खिल गई मुस्कान् ।

मानो मिल गया –

समाधान ।

गरुड़ बोले-

चलो

चलकर मिलते हैं

महाराज ययाति से

जो कर चुके हैं

सहस्त्रों यज्ञों का

अनुष्ठान ।

निश्चय ही

वे

पूर्ण करेंगे

मनो कामना ।

मित्र गरुड़

और

ऋषि गालव को

राजसभा में

उपस्थित पाकर,

आदर से

उठ खड़े हुए

ययाति महाराज ।

बोले

शुभ दिन है आज।

मैं

कृतार्थ हुआ

आप दोनों के दर्शन पाकर।

क्रमशः आगे —

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 192 – “धूपमे सूखे दिखे हैं…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत धूपमे सूखे दिखे हैं...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 192 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “धूपमे सूखे दिखे हैं...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

शब्द तेरे प्रेमरासो के

चित्र जैसे हों पिकासो के

 

मुस्कराहट जहाँ

इसमें टँकी दिखती है

जो यहाँ पर एक कविता

सहज लिखती है

 

क्या बतायें प्रेम की

देते परीक्षा

धूपमे सूखे दिखे हैं

दिन ” प्रकासो ” के

 

डुबकियाँ लेती

नदी में दिखाई देती

जो किनारे पर खड़ी

जमुहाइयाँ लेती

 

फिर प्रयत्नो मे जुटी

जैसे निरंतर

लगा होंगे पूर्ण सब

सपने ” प्रयासो”  के

 

बहुत है विस्तृत

सुनो परछाई इसकी

कौनसा आकार इसमें

ले रहा सिसकी

 

कौन दिखता

जूझता रेखांकनों से

रंग में डूबी हुई

लड़की  “हुलासो ” के

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

19-5-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक श्री प्रतुल श्रीवास्तव, भाषा विज्ञान एवं बुन्देली लोक साहित्य के मूर्धन्य विद्वान, शिक्षाविद् स्व.डॉ.पूरनचंद श्रीवास्तव के यशस्वी पुत्र हैं। हिंदी साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतुल श्रीवास्तव का नाम जाना पहचाना है। इन्होंने दैनिक हितवाद, ज्ञानयुग प्रभात, नवभारत, देशबंधु, स्वतंत्रमत, हरिभूमि एवं पीपुल्स समाचार पत्रों के संपादकीय विभाग में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। साहित्यिक पत्रिका “अनुमेहा” के प्रधान संपादक के रूप में इन्होंने उसे हिंदी साहित्य जगत में विशिष्ट पहचान दी। आपके सैकड़ों लेख एवं व्यंग्य देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। आपके द्वारा रचित अनेक देवी स्तुतियाँ एवं प्रेम गीत भी चर्चित हैं। नागपुर, भोपाल एवं जबलपुर आकाशवाणी ने विभिन्न विषयों पर आपकी दर्जनों वार्ताओं का प्रसारण किया। प्रतुल जी ने भगवान रजनीश ‘ओशो’ एवं महर्षि महेश योगी सहित अनेक विभूतियों एवं समस्याओं पर डाक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण भी किया। आपकी सहज-सरल चुटीली शैली पाठकों को उनकी रचनाएं एक ही बैठक में पढ़ने के लिए बाध्य करती हैं।

प्रकाशित पुस्तकें –ο यादों का मायाजाल ο अलसेट (हास्य-व्यंग्य) ο आखिरी कोना (हास्य-व्यंग्य) ο तिरछी नज़र (हास्य-व्यंग्य) ο मौन

ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार प्रस्तुत है नया साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है एक बहुआयामी व्यक्तित्व “स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास” के संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति  – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ८ ☆ “बुंदेली की पाठशाला- डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव” ☆ डॉ.वंदना पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ९ ☆ “आदर्श पत्रकार व चिंतक थे अजित वर्मा” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ११ – “स्व. रामानुज लाल श्रीवास्तव उर्फ़ ऊँट बिलहरीवी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १२ ☆ डॉ. रामदयाल कोष्टा “श्रीकांत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १३ ☆ स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, लोकप्रिय नेता – नाट्य शिल्पी सेठ गोविन्द दास ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

☆ कहाँ गए वे लोग # १४ ☆

☆ “गुंजन” के संस्थापक ओंकार श्रीवास्तव “संत” ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

प्रतिभाओं को खोजना – निखारना ही लक्ष्य था

ओंकार श्रीवास्तव “संत” एक निहायत ही सामान्य कद – काठी वाले व्यक्ति थे जिन्हें उनके जन्म भूमि और संस्कृति प्रेम ने, बच्चों, किशोर – किशोरियों और युवाओं को सन्मार्ग पर बनाए रखने की तत्परता ने, इरादे और वचनों की दृढ़ता तथा साथियों के प्रति समर्पण की भावना ने उनके जीवनकाल में ही विशिष्ट बना दिया था। उन्होंने 1958 में अपने बाल्यकाल में ही कुछ मित्रों के साथ साहित्यिक, सांस्कृतिक, सामाजिक संस्था “गुंजन कला सदन” की स्थापना की। ओंकार जी द्वारा बनाई गई यह संस्था जबलपुर नगर और आसपास के क्षेत्रों में अपने 66 वें वर्ष में भी पूरी तरह से गतिशील है। श्रीवास्तव जी ने अपनी प्रतिभा, संगठन शक्ति और सक्रियता से गुंजन में ऐसे प्राण फूंक कि चहुं ओर उसकी गूंज सुनाई देने लगी। विगत 66 वर्षों में “गुंजन” और ओंकार एक दूसरे में ऐसे समाहित हुए कि अब इन्हें एक दूसरे से अलग करके नहीं देखा जा सकता। ओंकार श्रीवास्तव के व्यक्तित्व – कृतित्व को समझने के लिए गुंजन के स्थापना काल से ओंकार जी के जीवन काल तक उनके गुंजन के प्रति समर्पण और सामाजिक कार्यों पर दृष्टि डालना होगी। गुंजन कला सदन के स्थापना काल के उनके कुछ अभिन्न साथी समाजसेविका अन्नपूर्णा तिवारी, इंजी. जीवानंद पांडे, सुप्रसिद्ध चिकित्सक डॉ. घनश्याम असरानी, इनायत खान अब नहीं हैं, किंतु भाई गौरीशंकर केशरवानी, सरदार गुरवचन सिंह चौपरा, नरेंद्र जैन “एन सी”, डॉ. आनंद तिवारी, पूर्व मंत्री अजय विश्नोई, सुरेश सराफ, जादूगर एस. के. निगम, लोकगंदर्भ पंडित रुद्रदत्त दुबे “करुण”, राजेंद्र साहू, अजय अग्रवाल, लायन राजीव अग्रवाल, लायन नरेन्द्र जैन, विजय जायसवाल सहित अनेक लोग आज भी अपने – साथियों के साथ समर्पित भाव से गुंजन कला सदन के उद्देश्य पूर्ण कार्यक्रमों को करते चले आ रहे हैं जो ओंकार श्रीवास्तव जी ने प्रारंभ किए थे। गुंजन कला सदन में प्रांतीय स्तर, नगर स्तर के स्वतंत्र संगठनों के साथ ही महिला प्रकोष्ठ, साहित्य प्रकोष्ठ व युवा गुंजन संगठन भी सक्रिय हैं।

ओंकार श्रीवास्तव जो भी कार्यक्रम करते थे वे सफलता के कीर्तिमान रचते थे। आखिर क्यों ? उन्होंने अपने साथियों को स्वयं इसका रहस्य बताते हुए कहा था कि जब किसी आयोजन में पूरे मन – प्राण समर्पित किए जाते हैं, केवल लक्ष्य रूपी चिड़िया की आंख को देखा जाता है तो सफलता को कदम चूमना ही पड़ते हैं। ओंकार जी ने अपने जीवन काल में नगर की प्रतिभाओं के विकास को ध्यान में रखते हुए प्रति वर्ष अनेक कार्यक्रम किए जिनमें प्रमुख हैं – बड़े – बड़े नाट्य समारोह, अ.भा. कवि सम्मेलन, अ.भा. महिला कवि सम्मेलन, अ.भा. हास्य कवि सम्मेलन, मुशायरे, नृत्य समारोह, चित्रकला – मूर्तिकला, गायन – वादन, भाषण प्रतियोगिताएं, नाटककार सांसद सेठ गोविन्द दास समारोह, बुंदेली दिवस समारोह तथा होली पर “रसरंग बारात” जैसे बड़े बजट के विशाल और व्यवस्थित सांस्कृतिक कार्यक्रम। इन सभी आयोजनों में नगर के किशोरों, युवाओं की भागीदारी सुनिश्चित रहती थी। इन कार्यक्रमों ने गुंजन और ओंकार जी की प्रतिष्ठा बढ़ाई।  होलिका दहन की संध्या को नगर के लगभग 4 किलो मीटर मुख्य मार्ग पर निकलने वाली “रसरंग बारात” ने तो टी वी चैनलों के कव्हरेज के कारण सम्पूर्ण देश में एक अनोखे कार्यक्रम के रूप में ख्याति प्राप्त कर ली थी। इस कार्यक्रम के पीछे होली के विकृत हो चुके स्वरूप को पुनः सांस्कृतिक गरिमा प्रदान कराना लक्ष्य था। इस रसरंग बारात में दूल्हे के वेश में शामिल हजारों महिलाओं – पुरुषों के साथ बैंड वादकों, शहनाई और ढोल वादकों के साथ  नृत्य करती दुलदुल घोड़ियां, किन्नरों की टीम, महिला घुड़सवार, गुलाल उड़ती बैलगाड़ियां, ऊंट, नृत्य करते रीछ, विविध प्रसंगों पर झांकियां, गधों पर सवार समाजसेवी और नेता लोगों के आकर्षण का केंद्र होते थे। उल्लेखनीय है कि नगर के जितने विधायकों ने इस बारात में गधों पर सवार होकर भाग लिया वे सभी आगे चलकर मंत्री बने। लोगों को प्रतिवर्ष इस बारात की प्रतीक्षा रहती थी किंतु निरंतर 15-16 वर्षों तक जारी रही इस बारात को यातायात व्यवस्था को दृष्टिगत रखते हुए बंद करने का निर्णय लेना पड़ा यद्यपि यह आयोजन अब भी बदले स्वरूप में “रसरंग महोत्सव” के नाम से प्रतिवर्ष होलिका दहन की संध्या को जबलपुर के शहीद स्मारक रंगमंच व सभागार में होता है। इसमें सभी महिला – पुरुष आयोजक, अतिथि और दर्शकों को साफा, माला पहनाकर दूल्हे के रूप में सजाकर ही मंच व दर्शक दीर्घा में भेजा जाता है। बहुत बड़े क्षेत्र में अपनी विशिष्टता के कारण यह कार्यक्रम अति लोकप्रिय है। इस कार्यक्रम को हाल में बैठे सैकड़ों लोगों के साथ ही हाल के बाहर लगे बड़े परदे पर भी सैकड़ों लोग देखते हैं।

ओंकार जी की संस्कृति संरक्षण एवं प्रतिभा विकास की सकारात्मक भावना के कारण गुंजन कला सदन को उसके स्थापना काल से ही जबलपुर के प्रबुद्ध व संपन्न जनों का संरक्षण मिला। सांसद सेठ गोविन्द दास, सांसद रात्नकुमारी देवी, सांसद जयश्री बैनर्जी, सांसद पत्रकार पंडित मुंदर शर्मा, प्रखर पत्रकार संपादक पंडित कालिका प्रसाद दीक्षित “कुसुमाकर”, पंडित भगवतीधर वाजपई, समाजसेवी पंडित नर्मदाप्रसाद तिवारी, शिक्षाविद डॉ. पूरनचंद श्रीवास्तव, व्यंग्यकार पंडित श्रीबाल पांडेय, शिक्षाविद मनोरमा चटर्जी, पूर्व उपमहापौर अन्नपूर्णा तिवारी आदि “गुंजन” के सशक्त संरक्षक थे। आज भी गुंजन को समाज के श्रेष्ठजनों का संरक्षण प्राप्त है। ओंकार जी का मानना था कि संस्कृति संरक्षण और समाज को सकारात्मक दिशा में के जाने के लिए चंद संस्थाएं पर्याप्त नहीं हैं इसके लिए अनेक संस्थाएं बनना चाहिए। उन्होंने स्वयं “ज्ञान गुंजन” एवं “गूंज” आदि संस्थाएं बनवाईं। कभी अन्य संस्थाओं से द्वेष नहीं रखा।

एक बात की जानकारी और दे दूं जो चंद लोग ही जानते हैं। ओंकार श्रीवास्तव अपने पिता को बहुत प्रेम करते थे। एक अवसर पर उन्होंने बताया था कि उनके पिता ने कक्षा पांचवीं तक उन्हें अपने कंधे पर बैठाकर स्कूल छोड़ा और स्कूल से लेकर घर आए। उन्हें अपने ऐसे प्रिय पिता के निधन की खबर शहीद स्मारक भवन, जबलपुर में उस समय मिली जब वे वहां एक नाटक में अभिनय कर रहे थे। उन्होंने सोचा कि नाटक को बीच में छोड़ कर जाना पूरी टीम और दर्शकों के साथ अन्याय होगा अतः संदेशवाहक को मौन रहने का संकेत करते हुए पिता के निधन की खबर को आयोजन की समाप्ति तक अपने साथियों से गोपनीय रखा और नाटक की समाप्ति के बाद ही घर पहुंचे।

स्व. ओंकार श्रीवास्तव जी का जन्म दिवस एवं “गुंजन कला सदन” का स्थापना दिवस प्रतिवर्ष 27 दिसंबर को विविध आयोजनों के साथ धूमधाम से मनाया जाता है। 29 जुलाई 2016 को ओंकार जी ने अंतिम सांस ली, किंतु प्रतिभाओं को खोजकर उन्हें निखार कर सामने लाने का जो काम ओंकार जी ने शुरू किया था उसे “गुंजन” आज भी कर रही है। गुंजन से प्रोत्साहन पाकर विविध क्षेत्रों के अनेक कला साधकों ने राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की और कर रहे हैं। गुंजन के माध्यम से ओंकार जी की लक्ष्य यात्रा उनके बाद भी जारी है।

श्री प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

संकलन –  जय प्रकाश पाण्डेय

संपर्क – 416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 179 ☆ # “रिश्ते और दर्द” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “रिश्ते और दर्द”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 179 ☆

☆ # “रिश्ते और दर्द” #

जब कभी चलते चलते

जीवन रूक जाता है

सांस का तूफान

दर्द में छुप जाता है

जब जीवन का अर्थ

समझ में आता है

तब अहंकार का भरम

अचानक टूट जाता है

 

चाहे कितना भी बलशाली हो

आंखों में धन की हरियाली हो

जब देखते देखते टूटतीं हैं सांसें

तब लगता है हाथ कितने खाली हैं  

 

हर पल जिनके लिए जीते हैं

दुःख दर्द जिनके लिए पीते हैं

वो ही जब फेर लेते हैं आंखें

कांपते होठों को

मजबूरी में सी लेते हैं

 

किससे कोई फरियाद करें

किसको बताएं ,

किसको याद करें

किसको अब हमारी परवाह है

कोई क्यों अपना समय बर्बाद करें

 

रिश्ते भी यहां पर अजीब हैं

कौन किसके यहां कितने करीब हैं

परस्पर देते हैं

एक दूसरे को धोका

रिश्ते निभ जाये तो

उसका नसीब है

 

रिश्तों और दर्द का संबंध

बहुत पुराना है

इस मे बंधा हुआ

सारा ज़माना है

मौत भी इनको

जुदा नहीं करती

हर जगह गूंजता  

यही तराना है /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 175 ☆ माणुसकी…☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 175 ? 

☆ माणुसकी☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

(अंत्यओळ काव्य…)

प्रेमाचा मळा फुलला पाहिजे

मनाला मनं, भिडलं पाहिजे

आमंगल सर्व निघूनी जाता

ऐसे हे सर्व, झालेच पाहिजे.

*

ऐसे हे सर्व, झालेच पाहिजे

ऋणानुबंध जपल्या जावा

वैरभाव संपूनी सर्वतोपरी

माणुसकीच्या जावे गावा.!!

*

माणुसकीच्या जागे गावा

मनुष्य बनूनी जगून पहावे

शांत वृत्ती समतोल वृत्ती

आपुले आपण होऊनि असावे.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 243 ☆ व्यंग्य – ‘ग़मे-इश्क और ग़मे-रोज़गार’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम व्यंग्य  – ग़मे-इश्क और ग़मे-रोज़गार। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 243 ☆

☆ व्यंग्य – ग़मे-इश्क और ग़मे-रोज़गार

आम आदमी के लिए भले ही ‘ग़म’ या ‘दर्द’ या ‘रंज’ नागवार रहा हो, लेकिन शायरों और गीतकारों ने इसे ख़ूब पाला-पोसा है। उनके उनवान से लगता है कि ज़िन्दगी में ग़म न हो तो ज़िन्दगी दोज़ख हो जाए। शायरों और गीतकारों के लिए ग़म ख़ूबसूरत भी है और मीठा भी। फिल्मी गीतों के नमूने देखिए— ‘शुक्रिया अय प्यार तेरा, दिल को कितना ख़ूबसूरत ग़म दिया।’ और, ‘एक परदेसी मेरा दिल ले गया, जाते-जाते मीठा मीठा ग़म दे गया।’

यह ग़म या दर्द शायरों को बेतरह परेशान करता रहा है। न इसका कारण समझ में आता है, न उपचार। प्रमाण के तौर पर ‘ग़ालिब’ को देखें— ‘दिले नादाँ तुझे हुआ क्या है, आख़िर इस दर्द की दवा क्या है?’

ज़ाहिर है कि यह ग़म या दर्द इश्क से पैदा होने वाला ग़म है, इसका ग़मे-रोजगार से कोई ताल्लुक़ नहीं है। ग़मे-रोज़गार से उलट यह ग़म सुकून और चैन देने वाला होता है, इसीलिए शायर उससे निजात पाने की ख्वाहिश नहीं रखता।

शायरों,गीतकारों की ज़िन्दगी में ग़मों की आवाजाही बनी रहती है। एक फ़िल्मी गीतकार ने लिखा— ‘घर से चले थे हम तो ख़ुशी की तलाश में, ग़म राह में खड़े थे वही साथ हो लिये।’ हालत यह होती है कि ग़म या दर्द ज़िन्दगी का ज़रूरी हिस्सा बन जाते हैं। एक फ़िल्मी गीत का मुलाहिज़ा करें—‘मुझे ग़म भी उनका अज़ीज़ है, कि उन्हीं की दी हुई चीज़ है। यही ग़म है अब मेरी ज़िन्दगी,इसे कैसे दिल से जुदा करूँ?’ यानी   महबूबा को प्रेमी का दिया हुआ ग़म भी इतना प्यारा है कि उसे दिल से जुदा करना मुश्किल हो जाता है।

एक और फ़िल्म में नायिका फ़रमाती है— ‘न मिलता ग़म तो बरबादी के अफ़साने कहाँ जाते, अगर दुनिया चमन होती तो वीराने कहाँ जाते?’ मतलब यह कि ज़िन्दगी में बरबादी के अफ़साने ज़रूरी हैं और उनकी पैदावार के लिए ग़मों का होना ज़रूरी है। अगर चमन ज़रूरी हैं तो वीराने भी ज़रूरी हैं।

इसी गीत में आगे देखें—‘तुम्हीं ने ग़म की दौलत दी, बड़ा एहसान फ़रमाया। ज़माने भर के आगे हाथ फैलाने कहाँ जाते?’ यानी ग़म न  हों तो ग़मों को हासिल करने के लिए ज़माने के आगे हाथ फैलाने की नौबत आ सकती है।

एक और नायिका ग़मों से मिली समृद्धि से गद्गद है— ‘दिल को दिये जो दाग़, जिगर को दिये जो दर्द, इन दौलतों से हमने ख़ज़ाने बना लिये।’ यानी, दूसरों के लिए भले ही ग़म या दर्द तक़लीफ़देह हों, नायिका के लिए वे ख़ज़ाने से कम नहीं हैं।

दर्द की स्वाभाविकता के बारे में ‘ग़ालिब’ ने लिखा, ‘दिल ही तो है न संगो-ख़िश्त, दर्द से भर न आये क्यों : रोयेंगे हम हज़ार बार, कोई हमें सताये क्यों?’ और, ‘दर्द मिन्नत कशे दवा न हुआ, मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ।’

मतलब यह कि मेरे दर्द का अच्छा न होना बेहतर है क्योंकि मुझे दवा का मोहताज नहीं होना पड़ा।

प्रेमी के प्रति नायिका का लगाव इस मयार का है कि नायिका प्रेमी से इल्तिजा करती है कि वह अपने दुख उसे देकर हल्का हो जाए। ‘तुम अपने रंजो-ग़म, अपनी परेशानी मुझे दे दो।’ और, ‘अगर मुझसे मुहब्बत है, मुझे सब अपने ग़म दे दो।’ वैसे यह समझना मुश्किल है कि ग़मों का स्थानांतरण कैसे हो सकता है। ग़म अगर कर्ज़- वर्ज़ का है तो बात अलहदा है।

हमारे शायरों ने ज़िन्दगी में ग़म को बहुत तरजीह दी। ‘शकील’ साहब ने लिखा— ‘मेरी ज़िन्दगी है ज़ालिम तेरे ग़म से आशकारा, तेरा ग़म है दर हकीकत मुझे ज़िन्दगी से प्यारा।’

एक दिलचस्प थियरी हमारे शायरों ने पेश की है, जिस पर आज के औषधि-विशेषज्ञों को तवज्जो देना चाहिए। अनेक शायरों का मत है कि दर्द हद से गुज़र जाए तो ख़ुद ही दवा बन जाता है। ‘ग़ालिब’ ने लिखा— ‘इशरते क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना, दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।’ दूसरी जगह ‘ग़ालिब’ लिखते हैं—‘रंज से ख़ूगर हुआ इंसाँ तो मिट जाता है रंज, मुश्किलें मुझ पर पड़ीं इतनी कि आसाँ हो गयीं।’

शायर का मक़सद शायद यह है कि दर्द या ग़म के हद से गुज़रने पर आदमी उसका आदी हो जाता है, जो बड़ी सीमा तक सच भी है। हर दिल अज़ीज़ गायक तलत महमूद के जिस गीत में ‘ख़ूबसूरत ग़म’ देने के लिए प्यार का शुक्रिया अदा किया गया है, उसी में आगे गीतकार कहता है— ‘आँख को आँसू दिये जो मोतियों से कम नहीं, दिल को इतने ग़म दिये कि अब मुझे कोई ग़म नहीं।’

इसी तबियत के एक गीत की पंक्ति है— ‘ये दर्द दवा बन जाएगा, इक दिन जो पुराना हो जाए।’ लेकिन गीत के रचने वाले ने यह नहीं बताया कि दर्द से निजात देने वाला वह शुभ दिन कब आएगा।

शायर ‘जिगर’ मुरादाबादी एक कदम आगे बढ़ जाते हैं। उन्हें उनका दर्द मज़ा देने लगता है— ‘आदत के बाद दर्द भी देने लगा मज़ा, हँस हँस के आह आह किये जा रहा हूँ मैं।’ इसी रंग के एक फ़िल्मी गीत के बोल हैं— ‘जब ग़मे इश्क सताता है तो हँस लेता हूँ।’

एक दूसरी ग़ज़ल में, जिसे बेगम अख़्तर ने अपना ख़ूबसूरत स्वर दिया, ‘जिगर’ फ़रमाते हैं— ‘तबीयत इन दिनों बेगानए ग़म होती जाती है, मेरे हिस्से की गोया हर ख़ुशी कम होती जाती है।’ यानी ज़िन्दगी में ग़म के न रहने से ख़ुशियाँ भी घटती जाती हैं। ग़रज़ यह कि ख़ुशियाँ ग़मों पर ही मुनहसिर हैं।

ग़ालिब ने लिखा— ‘इश्क से तबीयत ने ज़ीस्त का मज़ा पाया, दर्द की दवा पायी, दर्द बे-दवा पाया।’ यानी इश्क से ज़िन्दगी का मज़ा भी मिला और दर्द की दवा और  लाइलाज दर्द भी।

प्रेमी के लिए दर्दे-इश्क इतना ज़रूरी है कि सोये दर्द को जगाया जाता है— ‘जाग दर्दे  इश्क जाग। दिल को बेक़रार कर, छेड़ के आँसुओं का राग।’

कहने की ज़रूरत नहीं कि ये ग़म और दर्द इश्के-मजाज़ी से  पैदा होते हैं, इनका ताल्लुक़ ग़मे-रोज़गार से क़तई नहीं है। ग़मे- रोज़गार से यह ख़ूबसूरत और मीठा-मीठा दर्द हासिल होना मुमकिन नहीं है। ‘ग़ालिब’ ने लिखा कि किसी न किसी ग़म में मुब्तिला होना इंसान की नियति है— ‘ग़मे इश्क गर न होता, ग़मे रोज़गार होता।’

लेकिन सब शायर ग़म को ओढ़ने- बिछाने के क़ायल नहीं हैं। उनके लिए ग़म कोई पालने-पोसने की चीज़ नहीं है। शायर जाँनिसार अख़्तर लिखते हैं— ‘ग़म की अँधेरी रात में, दिल को न बेक़रार कर, सुबह ज़रूर आएगी, सुबह का इन्तज़ार कर।’

और वह ‘फ़ैज़’ साहब का सदाबहार शेर— ‘दिल नाउमीद तो नहीं, नाकाम ही तो है। लंबी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है।’

‘ग़ालिब’ के फलसफ़े के अनुसार ग़म ज़िन्दगी का ज़रूरी हिस्सा हैं, उन्हें ज़िन्दगी से अलग करना मुमकिन नहीं है— ‘क़ैदे हयात बन्दे ग़म अस्ल में दोनों एक हैं, मौत से पहले आदमी ग़म से निजात पाये क्यों?’

‘फ़ैज़’ साहब की एक और मशहूर नज़्म, जिसे महान गायिका नूरजहाँ ने स्वर देकर अमर बना दिया, का शेर है— ‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा, राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा।’ वहीं एक दूसरी तबियत का, प्यारा शेर, शायर अमीर ‘मीनाई’ का है— ‘ख़ंजर चले किसी पे, तड़पते हैं हम अमीर, सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।’

ग़म को पालने-पोसने वाला क्लासिक पात्र मशहूर अंग्रेज़ उपन्यासकार चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास ‘ग्रेट एक्सपेक्टेशंस’ में मिस हैविशाम के रूप में मिलता है। मिस हैविशाम का प्रेमी उन्हें धोखा देकर उस वक्त भाग जाता है जब वे शादी की पूरी तैयारियों के साथ उसका इंतज़ार कर रही थीं। उसके धोखे की ख़बर पाकर मिस हैविशाम ने समय को उसी क्षण पर रोक देने की कोशिश की। घर की घड़ियाँ उसी क्षण पर रोक दी गयीं, वे जीवन भर शादी की वही पोशाक पहने रहीं, शादी की केक पर मकड़जाले तन गये, एक जूता पैर में और एक मेज़ पर ही रहा। लेकिन उनकी सारी कोशिशों के बावजूद वक्त उनकी बन्द मुट्ठी से रिसता गया और धीरे-धीरे वे बूढ़ी हो गयीं।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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