हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 192 ☆ लही न कतहु हार हिय मानी… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना लही न कतहु हार हिय मानी। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 192 ☆ लही न कतहु हार हिय मानी

हार जीत के साथ आगे बढ़ते हुए नए- नए मुद्दों का बनते जाना कोई नयी बात नहीं है। समय तेजी से बदल रहा है जो अपने अनुसार रणनीति बनाने में माहिर हो वही विजेता बनता है। एक – एक कदम चलते हुए जब व्यक्ति मंजिल पर पहुँचता है तो उसकी जीत सुनिश्चित होती है।वहाँ कोई प्रतिस्पर्धा नहीं रहती है। बस एकछत्र राज्य रहता है। इसका कारण साफ है कि निरन्तर कार्य करने की कला सबके बस की बात नहीं होती। आखिरी समय में जिसको होश आता है वो हड़बड़ाहट में उल्टे- सीधे पैतरे चलने लगता है जिससे उसके सारे कदम उसे गर्त में धकेलने लगते हैं।

जीवन के हर क्षेत्र में ऐसा ही होता है। शैक्षिक डिग्री पाने हेतु कुछ लोग 20 प्रश्नोत्तरी सीरीज पर भरोसा करके पास तो होते हैं किंतु उनकी विषय पर पकड़ मजबूत नहीं होती। सच कहूँ तो एक दो महीने बाद वे ये भी भूल जाते हैं कि कौन – कौन से पेपर इस सेमेस्टर में थे। आलसी लोगों को बड़बोले होते हुये देखना कोई नयी बात नहीं है। बिना सिर पैर की बातों को तर्क संगत बनाकर अपना उपहास करवाना साथ ही अपने समर्थकों को सिर नीचा करने को विवश करना किसी भी सूरत में अच्छा नहीं है। कहते हैं-

आछे दिन पाछे गए, गुरु सो किया न हेत।

अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत।।

रोज गुरु बदलना, सलाहकार बदलना, स्थान बदलना, विचार बदलना, भेष भूषा बदलना, शब्दावली बदलना। जब इतना कुछ बदलता रहेगा तो लोग कैसे विश्वास करेंगे। माना कि स्थायी कुछ भी नहीं है किंतु जीते जी मक्खी कौन निगलना चाहेगा सो जनता जनार्दन है,भाग्यविधाता है, उसे सही गलत में भेद करना बखूबी आता है। तालियों की गड़गड़ाहट, विजयी चिन्ह सभी को दिखायी दे रहें हैं बस औपचारिक घोषणा बाकी है। आइए राष्ट्रवादी विचारों के पोषक बन भारतीय संस्कृति को आगे बढ़ाने में अपना भी अंशदान करें।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 2 – माँ सरकार चली गई ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना माँ सरकार चली गई)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 2 – माँ सरकार चली गई ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

जीवन के आंगन में रखी कुर्सी पर ‘बेरोज़गार’ नामक अंकल बैठे थे। उन्हीं के पास उनके बच्चे भुखमंगालाल, लाचारीदेवी और निराशकुमार उन्हें ध्यान से सुन रहे थे। बेरोज़गार अंकल बच्चों को अपने जीवन का एक किस्सा सुना रहे थे। वे कहने लगे –

“बहुत पहले उनके घर के अड़ोस-पड़ोस में रोज़गार लोग रहते थे। वे हर महीने वेतन उठाते और खूब मौज-मस्ती करते। मुझे भी उनकी तरह रोज़गार करने की इच्छा होती। लेकिन मुझे रोज़गार करने का सौभाग्य नहीं मिला। मैं बस ललचाई आँखों से विज्ञापन देखता और छह महीने बाद रद्द हो जाने पर चुपचाप रह जाता।

फिर एक दिन मैं और तुम्हारी बुआ डिग्री ने निर्णय किया कि कल कुछ भी हो जाए माँ सरकार से रोज़गार लेकर ही रहेंगे। अगले दिन मैं उठा। लेकिन तुम्हारी बुआ डिग्री नहीं उठी। मैंने उसे डाँट-फटकारकर जैसे-तैसे उठाया। लेकिन माँ सरकार नहीं उठी। मैंने बगल के कमरे में सो रहे उम्मीद चाचा को आवाज़ देकर उठाया। लेकिन माँ सरकार नहीं उठी। मैं दौड़े-दौड़े बस स्टैंड गया। वहाँ जान-पहचान के ड्राइवर फिक़र अंकल को बहुत दूर शहर में रहने वाले संकल्प भैया को यह बताने के लिए कह दिया कि माँ सरकार नहीं उठ रही है। दौड़े-दौड़े फिर घर लौटा। पड़ोस में भ्रष्टाचार, लूटपाट, स्कैम नामक तीन ताऊ रहा करते थे। उनकी माँ सरकार से बहुत जमती थी। फिर भी उनके पास जाकर मैं खूब रोया और गिड़गिड़ाया।  उनके हाथ-पैर जोड़े। मिन्नतें कीं। घर पर चुपचाप लेटी माँ सरकार को उठाने की प्रार्थना की। आखिरकार वे तीनों घर पहुँचे। तीनों ने बारी-बारी से माँ की नब्ज़ टटोली। बड़े ताऊ भ्रष्टाचार ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए गंभीरता से कहा – बेटा बेरोज़गार! तेरी माँ सरकार इस दुनिया में नहीं रही।  वह हम सबको छोड़कर बहुत दूर चली गई है। अब उसे भूल जा। इतना सुनना था कि मैं और मेरी बहन छाती पीटकर रोने लगे।”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : मोबाइलः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 278 ☆ आलेख – अमर रहेंगे मोहम्मद रफी साहब ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक आलेख  – अमर रहेंगे मोहम्मद रफी साहब । 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 278 ☆

? आलेख – अमर रहेंगे मोहम्मद रफी साहब ?

अच्छे से अच्छे गीतकार के शब्द तब तक बेमानी होते हैं जब तक उन्हें कोई संगीतकार मर्म स्पर्शी संगीत नही दे देता और जब तक कोई गायक उन्हें अपने गायन से श्रोता के कानो से होते हुये उसके हृदय में नही उतार देता. फिल्म बैजू बावरा का एक भजन है मन तड़पत हरि दर्शन को आज,  इस अमर गीत के संगीतकार नौशाद और गीतकार शकील बदायूंनी हैं,  इस गीत के गायक मो रफी हैं.रफी साहब की बोलचाल की भाषा पंजाबी और उर्दू थी, अतः इस भजन के तत्सम शब्दो का सही उच्चारण वे सही सही नही कर पा रहे थे. नौशाद साहब ने बनारस से संस्कृत के एक विद्वान को बुलाया, ताकि उच्चारण शुद्ध हो. रफी साहब ने समर्पित होकर पूरी तन्मयता से हर शब्द को अपने जेहन में उतर जाने तक रियाज किया और अंततोगत्वा यह भजन ऐसा तैयार हुआ कि आज भी मंदिरों में उसके सुर गूंजते हैं, और सीधे लोगो के हृदय को स्पंदित कर देते हैं.

मोहम्मद रफ़ी जी का जन्म 24 दिसंबर 1924 को हुआ था.  उन्होने अपनी गायकी की बारीकियो से हिन्दी सिनेमा के श्रेष्ठतम पार्श्व गायकों में अपना स्थान युगो युगो के लिये सुरक्षित कर लिया. एल पी, एस पी, कैसेट, सीडी, डी वी डी से पेन ड्राईव का डीजिटल सफर बदलता रहेगा पर रफी हर युग में अपनी आवाज के कारण अमर रहेंगे. उनके  समकालीन गायकों के बीच रफी साहब आवाज की मधुरता से  विशिष्ट पहचान बना सके. उन्हें शहंशाह-ए-तरन्नुम भी कहा जाने लगा. 1940 के दशक में रफी मात्र अठारह बीस बरस के थे, पर तब से ही वे व्यवसायिक गायक के रूप में पहचान बनाने लगे थे,  1980 में 31  जुलाई को वे हमें छोड़ गये पर इन लगभग ४० वर्षो की गायकी के सफर में उन्होने  26,000 से अधिक गाने गाए.  जिनमें मुख्यतः  हिन्दी फिल्मी गानों के अतिरिक्त ग़ज़ल, मेरे मन में हैं राम मेरे तन में हैं राम, सुख के सब साथी दुख में न कोई, ईश्वर अल्लाह तेरो नाम, बड़ी देर भई नंदलाला जैसे भजन,सूफी,सुनो सुनो ऐ दुनिया वालों बापू की ये अमर कहानी..जैसे  देशभक्ति गीत, नन्हें मुन्ने बच्चे तेरी मुठ्ठी में क्या है, जैसे बाल गीत, क़व्वाली तथा अन्य भाषाओं में गाए गाने भी शामिल हैं.  उन्होने गुरु दत्त, दिलीप कुमार, देव आनंद, भारत भूषण, जॉनी वॉकर, जॉय मुखर्जी, शम्मी कपूर, राजेन्द्र कुमार, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, धर्मेन्द्र, जीतेन्द्र तथा ऋषि कपूर के अलावे स्वयं गायक अभिनेता किशोर कुमार के लिये भी फिल्मी पर्दे पर अपनी रोमांचक आवाज दी.

कभी कभी किस तरह छोटी सी घटना जीवन में बड़ा मोड़ ले आती है यह  मोहम्मद रफ़ी के पहले स्टेज प्रोग्राम से समझ आता है. उनका जन्म अमृतसर, के पास कोटला सुल्तान सिंह में हुआ था। उनके बचपन में ही उनका परिवार लाहौर से अमृतसर आ गया. जब रफी मात्र सात साल के थे तो वे अपने बड़े भाई की नाई की दुकान में बैठा करते थे. उधर से रोज गुजरने वाला एक फकीर मधुर स्वर में  गाता हुआ निकलता था. नन्हे रफी उस फकीर का पीछा किया करते और उसके जैसा ही गाने का प्रयत्न करते.शायद वह अनाम फकीर ही उनका प्रथम संगीत गुरू था. उनकी गायकी की  नकल के स्वर भी   लोगों को  पसन्द आते.  लोग नन्हें से रफी के गाने की प्रसंशा करने लगे.  रफी के बड़े भाई मोहम्मद हमीद ने  संगीत के प्रति उनकी रुचि को देख  उन्हें उस्ताद अब्दुल वाहिद खान के पास संगीत शिक्षा लेने को भेजा और इस तरह रफी को विधिवत संगीत की कुछ तालीम मिली. एक बार ऑल इंडिया रेडियो लाहौर में उस समय के प्रख्यात गायक व अभिनेता कुन्दन लाल सहगल कार्यक्रम देने आए थे, श्रोताओ में  रफ़ी और उनके बड़े भाई भी  थे. अचानक बिजली  गुल हो गई, जिससे श्रोता बेचैन होने लगे,रफ़ी के बड़े भाई ने आयोजकों से निवेदन किया की भीड़  को शांत करने के लिए मोहम्मद रफ़ी को गाने का मौका दिया जाय, उनको अनुमति मिल गई और बिना बिजली बिना माईक 13 वर्ष की आयु में मोहम्मद रफ़ी का यह पहला सार्वजनिक गायन था. उस समय के प्रसिद्ध संगीतकार  श्याम सुन्दर भी वहां उपस्थित थे  उन्होने जब नन्हें रफी को सुना तो उन्होने रफी की आवाज के हुनर को पहचाना, और उन्होने मोहम्मद रफ़ी को  गाने का न्यौता दिया. इस तरह  मोहम्मद रफ़ी का प्रथम गीत एक पंजाबी फ़िल्म गुल बलोच के लिए रिकार्ड हुआ था जिसे उन्होने श्याम सुंदर के निर्देशन में 1944 में गाया था. मुम्बई तब भी फिल्म नगरी थी, देश आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, ऐसे समय में युवा रफी  ने फिल्मो में पार्श्व गायन को व्यवसाय के रूप में अपनाने का फैसला लिया और 1946 में वे  बम्बई आ गये.  जाति के आधार पर पाकिस्तान बनने के बाद भी उन्होने भारत के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को ही चुना. उन्होने जाने कितने हृदय स्पर्शी भजनो को स्वर देकर यह बता दिया कि भावना, स्वर और संगीत धर्म की सीमाओ से परे नैसर्गिक वृत्तियां हैं.

संगीतकार नौशाद जी ने “पहले आप” नाम की फ़िल्म में उन्हें गाने का अवसर दिया. और उनका फिल्मो में गायन का सफर चल निकला.  नौशाद द्वारा संगीत बद्ध गीत तेरा खिलौना टूटा, फ़िल्म अनमोल घड़ी, 1946 से रफ़ी को  हिन्दी फिल्म जगत में प्रसिद्धि मिली.  इसके बाद शहीद, मेला तथा दुलारी फिल्मो में भी रफ़ी ने गाने गाए जो  पसंद किये गये.   1951 में जब नौशाद फ़िल्म बैजू बावरा के लिए गाने बना रहे थे तो उन्होने  तलत महमूद के स्वर में रिकार्डिंग  करने की सोचा पर कहा जाता है कि नौशाद जी ने  एक बार तलत महमूद को धूम्रपान करते देखकर अपना मन बदल लिया और रफ़ी से ही गाने को कहा. बैजू बावरा के गानों ने रफ़ी को मुख्यधारा गायक के रूप में स्थापित कर  दिया. इसके बाद नौशाद ने रफ़ी को अपने निर्देशन में लगातार कई गीत गाने को दिए.  शंकर-जयकिशन की जोड़ी को भी उनकी आवाज पसंद आयी और उन्होंने भी रफ़ी से गाने गवाना आरंभ कर दिया। शंकर जयकिशन उस समय राज कपूर के पसंदीदा संगीतकार थे, पर राज कपूर अपने लिए सिर्फ मुकेश की आवाज पसन्द करते थे किन्तु  शंकर जयकिशन की सिफारिश पर रफी साहब की आवाज पर भी राजकपूर ने अभिनय किया. शंकर जयकिशन की जोड़ी ने उनके कम्पोज किये गये लगभग सभी गानो के पुरुष स्वर के लिये रफ़ी साहब को ही मौका दिया. अपनी आवाज के बल पर रफ़ी साहब संगीतकार सचिन देव बर्मन, ओ पी नैय्यर,रवि, मदन मोहन, गुलाम हैदर, जयदेव, सलिल चौधरी इत्यादि संगीतकारों की पहली पसंद  बन गए.

31 जुलाई 1980 को जब अचानक हृदयगति रुक जाने के कारण उनका देहान्त हुआ तो उनके गीतो से जागने और सोने वाले उनके प्रसंशको के लिये इस सत्य को स्वीकार करना बेहद दुष्कर था. उनकी असाधारण संगीत साधना के लिये उन्हें भारत सरकार से पद्मश्री सहित, अनेक बार फिल्मफेयर अवार्ड आदि अनेकानेक सम्मान समय समय पर मिले.  इन सम्मानो को प्रदान कर स्वयं सम्मान देने वाले ही उनसे सम्मानित हुये क्योकि रफी साहब का वास्तविक सम्मान तो यह ही है कि उनके इस दुनिया से बिदा हो जाने के वर्षो बाद भी हम उन्हें भुला नही सकते. वे धार्मिक नही मानवीय मूल्यो के प्रतीक थे.वे सहज सरल और अपने कार्य के प्रति समर्पित अनुकरणीय व्यक्तित्व थे.  वे संगीत के पुजारी मात्र नही उसके प्रतिष्ठाता थे.

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 201 ☆ बाल गीत – गुड़ होता है सबसे अच्छा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 201 ☆

बाल गीत – गुड़ होता है सबसे अच्छा ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

सोच समझ कर चीनी खाना

गुड़ होता है अच्छा।

नहीं समझ जल्दी आया तो

पछताओगे बच्चा।।

 *

कैल्शियम चीनी खा जाती।

हड्डी को कमजोर बनाती।

चाय गैस सँग कब्ज बढ़ाती।

आलस से मित्रता कराती।

 *

गन्ने का रस पर शक्ति बढ़ाए।

तन रखना मजबूत अगर तो

गन्ना चूसो कच्चा।।

 *

नहीं रोज खा बर्फी ,रसगुल्ला।

कभी – कभी बस खाना लल्ला।

फल खाना पर मत खा भल्ला।

फास्ट फूड करता मोटल्ला।

 *

जूस फलों का नरियल पानी

इनको मित्र बना ले सच्चा।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #167 – बाल कहानी – मोना जाग गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक “बाल कहानी – मोना जाग गई)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 167 ☆

बाल कहानी – मोना जाग गई ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

मोना चकित थी। जिस सुंदर पक्षी को उसने देखा था वह बोल भी रहा था। एक पक्षी को मानव की भाषा बोलता देखकर मोना बहुत खुश हो गई।

उसी पक्षी ने मोना को सुबह-सवेरे यही कहा था,

चिड़िया चहक उठी

उठ जाओ मोना।

चलो सैर को तुम

समय व्यर्थ ना खोना।।”

यह सुनकर मोना उठ बैठी। पक्षी ने अपने नीले-नीले पंख आपस में जोड़ दिए। मोना अपने को रोक न सकी। इसी के साथ वह हाथ जोड़ते हुए बोली, “नमस्ते।”

पक्षी ने भी अपने अंदाज में ‘नमस्ते’ कहा। फिर बोला,

“मंजन कर लो

कुल्ला कर लो।

जूता पहन के

उत्साह धर लो।।”

यह सुनकर मोना झटपट उठी। ब्रश लिया। मंजन किया। झट से कपड़े व जूते पहने। तब तक पक्षी उड़ता हुआ उसके आगे-आगे चलने लगा।

मोना का उत्साह जाग गया था। उसे एक अच्छा मित्र मिल गया था। वह झट से उसके पीछे चलने लगी। तभी पक्षी ने कहा,

“मेरे संग तुम दौडों

बिल्कुल धीरे सोना।

जा रहे वे दादाजी

जा रही है मोना।।”

“ओह! ये भी हमारे साथ सैर को जा रहे हैं,” मोना ने चाहते हुए कहा। फिर इधर-उधर देखा। कई लोग सैर को जा रहे थे। गाय जंगल चरने जा रही थी।

पक्षी आकाश में कलरव कर रहे थे। पूर्व दिशा में लालिमा छाने लगी थी। पहाड़ों के सुंदर दिख रहे थे। तभी पक्षी ने कहा,

“सुबह-सवेरे की

इनसे करो नमस्ते।

प्रसन्नचित हो ये

आशीष देंगे हंसते।।”

यह सुनते ही मोना जोर से बोल पड़ी, “नमस्ते दादा जी!”

तभी उधर से भी आवाज आई, “नमस्ते मोना! सदा खुश रहो।”

यह सुनकर मोना चौंक उठी। उसने आंखें मल कर देखा। वह बिस्तर पर थी। सामने दादा जी खड़े थे। वे मुस्कुरा रहे थे, “हमारी मोना जाग गई!”

“हां दादा जी,” कहते हुए मोना झट से बिस्तर से उठी, “दादा जी, मैं भी आपके साथ सैर को चलूंगी,” कह कर वह मंजन करके तैयार होने लगी।

“हां क्यों नहीं!” दादा जी ने कहा।

यह देख सुनकर उसकी मम्मी खुश हो गई।

 –0000–

 © ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

17-01-2022

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – विविधा ☆ तो आणि मी…! – भाग ५ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

श्री अरविंद लिमये

? विविधा ?

☆ तो आणि मी…! – भाग ५ ☆ श्री अरविंद लिमये ☆

(पूर्वसूत्र – “नाही वहिनी. आम्ही आणि डॉक्टरांनी काहीच केलेले नाही. आम्ही फक्त निमित्त होतो. बाळ वाचलंच नाहीय फक्त तर ते ‘वर’ जाऊन परत आलंय.” लेले काका सांगत होते,”आत्ता पहाटे आम्ही इथे आलो ते मनावर दगड ठेवून पुढचं सगळं अभद्र निस्तरण्याच्या तयारीनेच आणि इथे येऊन पहातो तर हे आक्रित! दादा, तुम्हा दोघांच्या महाराजांवरील अतूट श्रद्धेमुळेच या चमत्कार घडलाय.बाळ परत आलंय.”

या आणि अशा अनेक अनुभवांचे मनावर उमटलेले अमिट ठसे बरोबर घेऊनच मी लहानाचा मोठा झालोय.सोबत ‘तो’ होताच…!)

पुढे तीन वर्षांनी बाबांची कुरुंदवाडहून किर्लोस्करवाडीला बदली झाली ते १९५९ साल होतं. कुरुंदवाड सोडण्यापूर्वी आई न् बाबा दोघेही नृसिंहवाडीला दर्शनासाठी गेले.आता नित्य दर्शनाला येणं यापुढे जमणार नाही याची रुखरुख दोघांच्याही मनात होतीच. आईने दर पौर्णिमेला  वाडीला दर्शनाला येण्याचा संकल्प मनोमन सोडून ‘माझ्या हातून सेवा घडू दे’ अशी प्रार्थना केली आणि प्रस्थान ठेवलं!

किर्लोस्करवाडीला पोस्टातल्या कामाचं ओझं कुरुंदवाडपेक्षाही कितीतरी पटीने जास्त होतं.पूर्वी घरोघरी फोन नसायचे.त्यामुळे ‘फोन’ व ‘तार’ सेवा पोस्टखात्यामार्फत २४ तास पुरवली जायची.त्यासाठी पोस्टलस्टाफला दैनंदिन कामांव्यतिरिक्त जादा

रात्रपाळीच्या ड्युटीजनाही जावे लागायचे. त्याचे किरकोळ कां असेनात पण जास्तीचे पैसे मिळायचे खरे, पण ती बिले पास होऊन पैसे हातात पडायला मधे तीन-चार महिने तरी जायचेच. इथे येऊन बाबा अशा प्रचंड कामाच्या दुष्टचक्रात अडकून पडले.त्यांना शांतपणे वेळेवर दोन घास खाण्याइतकीही उसंत नसायची. दर पौर्णिमेला नृसिंहवाडीला दत्तदर्शनासाठी जायचा आईचा नेम प्रत्येकवेळी तिची कसोटी बघत सुरू राहिला होता एवढंच काय ते समाधान. पण तरीही मनोमन जुळलेलं अनुसंधान अशा व्यस्ततेतही बाबांनी त्यांच्यापध्दतीने मनापासून जपलं होतं. किर्लोस्करवाडीजवळच असलेल्या रामानंदनगरच्या आपटे मळ्यातल्या दत्तमंदिरातले नित्य दर्शन आणि सततचे नामस्मरण हा त्यांचा नित्यनेम.कधीकधी घरी परत यायला कितीही उशीर झाला तरी त्यांनी यात कधीही खंड पडून दिला नव्हता!

मात्र बाबांच्या व्यस्ततेमुळे घरची देवपूजा मात्र रोज आईच करायची. माझा धाकटा भाऊ अजून लहान असला तरी त्याच्यावरच्या आम्हा दोन्ही मोठ्या भावांच्या मुंजी नुकत्याच झालेल्या होत्या. पण तरीही आईने पूजाअर्चा वगैरे बाबीत आम्हा मुलांना अडकवलेलं नव्हतं. या पार्श्वभूमीवरचा एक प्रसंग…

पोस्टलस्टाफला किर्लोस्कर कॉलनीत रहायला क्वार्टर्स असायच्या. आमचं घर बैठं,कौलारू व सर्व सोयींनी युक्त असं होतं. मागंपुढं अंगण, फुलाफळांची भरपूर झाडं, असं खऱ्या ऐश्वर्यानं परिपूर्ण! आम्ही तिथे रहायला गेलो तेव्हा घरात अर्थातच साधी जमिनच होती. पण कंपनीतर्फे अशा सर्वच घरांमधे शहाबादी फरशा बसवायचं काम लवकरच सुरू होणार होतं. त्यानुसार आमच्याही अंगणात भिंतीना टेकवून शहाबादी फरशांच्या रांगा रचल्या गेल्या.

त्याच दिवशी देवपूजा करताना आईच्या लक्षात आलं की आज पूजेत नेहमीच्या दत्ताच्या पादुका दिसत नाहीत. देवघरात बोटांच्या पेराएवढ्या दोन चांदीच्या पादुका होत्या आणि आज त्या अशा अचानक गायब झालेल्या!आई चरकली.अशा जातील कुठ़ न् कशा?तिला कांहीं सुचेचना.ती अस्वस्थ झाली. तिने कशीबशी पूजा आवरली. पुढची स्वयंपाकाची सगळी कामंही सवयीने करीत राहिली पण त्या कुठल्याच कामात तिचं मन नव्हतंच. मनात विचार होते फक्त हरवलेल्या पादुकांचे!

खरंतर घरी इतक्या आतपर्यंत बाहेरच्या कुणाची कधीच ये-जा नसायची. पूर्वीच्या सामान्य कुटुंबात कामाला बायका कुठून असणार?

धुण्याभांड्यांसकट सगळीच कामं आईच करायची. त्यामुळे बाहेरचं कुणी घरात आतपर्यंत यायचा प्रश्नच नव्हता. आईने इथं तिथं खूप शोधलं पण पादुका मिळाल्याच नाहीत.

बाबा पोस्टातून दुपारी घरी जेवायला आले. त्यांचं जेवण पूर्ण होईपर्यंत आई गप्पगप्पच होती. नंतर मात्र तिने लगेच ही गोष्ट बाबांच्या कानावर घातली.ऐकून बाबांनाही आश्चर्य वाटलं.

“अशा कशा हरवतील?”

“तेच तर”

“सगळीकडे नीट शोधलंस का?”

“हो..पण नाही मिळाल्या”

आई रडवेली होऊन गेली.

“नशीब, अजून फरशा बसवायला गवंडीमाणसं आलेली नाहीत.”

“त्यांचं काय..?”

“एरवी त्या गरीब माणसांवरही आपल्या मनात कां होईना पण आपण संशय घेतलाच असता..”

त्या अस्वस्थ मनस्थितीतही बाबांच्या मनात हा विचार यावा याचं त्या बालवयात मला काहीच वाटलं नव्हतं,पण आज मात्र या गोष्टीचं खूप अप्रूप वाटतंय!

नेमके त्याच दिवशी गवंडी आणि मजूर घरी आले. पूर्वतयारी म्हणून त्यांनी जमीन उकरायला सुरुवात केली. त्यानिमित्ताने घरातले सगळे कानेकोपरेही उकलले गेले. पण तिथेही कुठेच पादुका सापडल्या नाहीत. पूजा झाल्यानंतर आई ताम्हणातलं तीर्थ रोज समोरच्या अंगणातल्या फुलझाडांना घालायची. ताम्हणात चुकून राहिल्या असतील तर त्या पादुका त्या पाण्याबरोबर झाडात गेल्या असायची शक्यता गृहीत धरून त्या फुलझाडांच्या भोवतालची माती खोलवर उकरून तिथेही शोध घेतला गेला पण पादुका मिळाल्याच नाहीत.

मग मात्र आईसारखेच बाबाही अस्वस्थ झाले. नेहमीप्रमाणं रोजचं रुटीन सुरू झालं तरी बाबांच्या मनाला स्वस्थता नव्हतीच.कुणाकडूनतरी  बाबांना समजलं की जवळच असणाऱ्या पलूस या गावातील सावकार परांजपे यांच्या कुटु़ंबातले एक गृहस्थ आहेत जे पूर्णपणे दृष्टीहीन आहेत.ते केवळ अंत:प्रेरणेने हरवलेल्या वस्तूंचा माग अचूक सांगतात अशी त्यांची ख्याती आहे म्हणे.बाबांच्या दृष्टीने हा एकमेव आशेचा किरण होता! बाबा स्वत: त्यांनाही जाऊन भेटले. आपलं गाऱ्हाणं आणि मनातली रूखरूख त्यांच्या कानावर घातली. त्यांनीही आपुलकीने सगळं ऐकून घेतलं. काहीवेळ अंतर्मुख होऊन बसून राहिले.तोवरच्या त्यांच्या चेहऱ्यावरच्या शांतपणाची  जागा हळूहळू काहीशा अस्वस्थपणानं घेतलीय असं बाबांना जाणवलं. त्यांची अंध,अधूदृष्टी क्षणभर समोर शून्यात स्थिरावली आणि ते अचानक बोलू लागले.बोलले मोजकेच पण अगदी नेमके शब्द!

“घरी देवपूजा कोण करतं?” त्यांनी विचारलं.

“आमची मंडळीच करतात”

बाबांनी खरं ते सांगून टाकलं.

” तरीच..”

“म्हणजे?”

” संन्याशाची पाद्यपूजा स्त्रियांनी करून कसं चालेल?”

“हो पण.., म्हणून..”

” हे पहा ” त्यांनी बाबांना मधेच थांबवलं.” मनी विषाद नको, आणि यापुढे हरवलेल्या त्या पादुकांचा शोधही नको. त्या कधीच परत मिळणार नाहीत.”

” म्हणजे..?”

” त्या हरवलेल्या नाहीयत. त्या गाणगापूरच्या पादुकांमध्ये विलीन झालेल्या आहेत.”

बाबांच्या मनातली अस्वस्थता अधिकच वाढली.कामात मनच लागेना ‘घडलेल्या अपराधाची एवढी मोठी शिक्षा नको’ असं आई-बाबा हात जोडून रोज प्रार्थना करीत विनवत राहिले.भोवतालच्या मिट्ट काळोखातही मनातला श्रध्देचा धागा बाबांनी घट्ट धरुन ठेवला होता. कांहीही करून हरवलेल्या त्या पादुका घरी परत याव्यात एवढीच त्यांची इच्छा होती पण ती फरुद्रूप होण्यासाठी कांहीतरी चमत्कार होणं आवश्यक होतं!आणि एक दिवस अचानक……?

क्रमश: दर गुरुवारी

©️ अरविंद लिमये

सांगली (९८२३७३८२८८)

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ.मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ एक हरीण… – चित्र एक काव्ये दोन ☆ सुश्री वर्षा बालगोपाल ☆

सुश्री वर्षा बालगोपाल

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? एक हरीण… – चित्र एक काव्ये दोन ?  सुश्री वर्षा बालगोपाल 

( १ ) 

एका रानात होता हरीण कळप सुरेख

होते लंगडे बिचारे पिल्लू तयात एक

*

सारे पळूनी जाती दिसता समोर शिकारी 

लपवुनी स्वतःला ते शोधते कपारी 

वाचे हरेक वेळी हा दैव योग एक 

होते लंगडे बिचारे पिल्लू तयात एक

*

सदा भेदरे राही , पळता येईल का नाही 

मदतीची वेळ येता , जो तो हो पळ काढी 

टर उडवून त्याची खोड्या काढती कैक 

होते लंगडे बिचारे पिल्लू तयात एक

*

एके दिनी परंतु नवल मोठेच घडले 

अरुणाच्या हस्त स्पर्षे लंगडेपण निमाले 

पाण्यात पाहताना प्रतिबिंब आपले नेक 

त्याचेच त्या कळले, तो सुवर्णमृग एक

*

पिलाची चिंता वाढली अरुणास ते म्हणाले

मज “मारीच” समजून मारतील लोक इथले

नको ही सुवर्णकाया असुदे पाय बारीक

होते लंगडे बिचारे पिल्लू तयात एक

कवयित्री : वर्षा बालगोपाल 

( २ ) 

जीव धरूनी मुठीत बिचारे धावत होते हरीण

हरीनं पण कृपा केली ठरवून याला मी तारीन

तारी न जो कोणी त्याला शासन ही करीन

करी न जो आदेश पालन तो दंड पात्र ठरवीन||

*

सलमान मागे लागला आणि आठवला नारायण

नारायण दिसता गगनी हरीण पाही स्तब्ध होऊन

होऊ न आता चिंतीत सोपवू सारे मित्रावर

मित्रा वर देतो अभयाचा हत्यारोप सलमानवर ||

*

कवच लाभले वाटे हस्त पाहुनी डोईवर

डोई वर करुनी दान घेतले शिंग अंजलीभर

भर सकाळी साक्षी याचे झाले मोठे तरुवर

तरु वरही कृपादृष्टी दिनेशाची प्रतिबिंब दावी सरोवर ।।

© सुश्री वर्षा बालगोपाल

मो 9923400506

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #227 – बाल गीत – ☆ पुस्तक मेला… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक अप्रतिम बाल गीत  पुस्तक मेला…” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #227 ☆

☆ बाल गीत – पुस्तक मेला… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

पुस्तक मेला लगा शहर में

संग चलेंगे दादाजी

बात हमारी मान के उनने

किया हुआ है वादा जी।

 

किया आज ही जाना तय है

राघव, हर्षल साथ में

दादाजी ने सूची बनाकर

रख ली अपने हाथ में,

जी भर आज किताबें लेंगे

हम ज्यादा से ज्यादा जी।

पुस्तक मेला लगा शहर में

संग चलेंगे दादाजी।।

 

सदाचरण, आदर्श ज्ञान की

कुछ विज्ञान की नई किताबें

कुछ कॉमिक्स कहानी कविता

जो मन में सद्भाव जगा दे,

सोच समझकर चयन करेंगे

अब न रहे, हम नादां जी।

पुस्तक मेला लगा शहर में

संग चलेंगे दादाजी।।

 

दादा जी ने भी खुश होकर

अपना बटुआ खोला है

हमने भी अपने गुल्लक को

तह तक आज तक टटोला है,

पढ़ लिख, उच्च विचार रखें

पर, जीवन तो हो सादा जी।

पुस्तक मेला लगा शहर में

संग चलेंगे दादाजी।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 50 ☆ झुलसाते दिन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “झुलसाते दिन…” ।

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 50 ☆ झुलसाते दिन… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

 धूल उड़ाते आँधी पाले 

 फिर आ पहुँचे झुलसाते दिन ।

 

 ख़त्म परीक्षा बैग टँगे

 खूँटी पर सब 

 निकल पड़े टोली के सँग

 लो बच्चे अब 

 

 हँसी ठिठोली मस्ती वाले 

 इतराते कुछ इठलाते दिन ।

 

 सुबह बिछी आँगन में 

 तपती दोपहरी 

 शाम ज़रा सी नरम 

 रात है उमस भरी 

 

 गरमी के हैं खेल निराले 

 आलस भरते तरसाते दिन ।

 

 चलो किसी पर्वत पर 

 खुशियाँ बिखराएँ 

 पढ़ें प्रकृति का पाठ 

 फूल से मुस्काएँ

 

 किलकारी से रचें उजाले 

 गंध सुवासित महकाते दिन ।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ मुझे न विरसे में हिस्से की चाह है भाई… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “मुझे न विरसे में हिस्से की चाह है भाई“)

✍ मुझे न विरसे में हिस्से की चाह है भाई… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

इधर उधर की न बातों में वक़्त ज़ाया करो

पते की बात जो है सीधे उसपे  आया करो

 *

अगर है क़द तेरा बरगद सा तो ये ध्यान भी रख

मुसाफिरों के परिंदों के सिर पे साया करो

 *

बनाते लोग कहानी नई सुनें जो भी

गिले जो मुझसे है वो मुझको ही सुनाया करो

 *

रकीब को दो तबज़्ज़ो मेरे ही सामने तुम

सितम गरीब पे ऐसे सनम न  ढाया करो

 *

दिखाता राय शुमारी का क्यों  तमाशा ये

पसंद अपनी बताओ न यूँ घुमाया करो

 *

मुझे न विरसे में हिस्से की चाह है भाई

जमीन ज़र न बुजुर्गों की यूँ घटाया करो

 *

भरो न कान किसी के भी चुगलियाँ करके

बुरी है लत ये बने काम मत नशाया करो

 *

जुए की लत है बुरी कौन  बन सका टाटा

कमाया खूँ जो पसीने से मत लुटाया करो

 *

कमी जो अपनी  छुपाया है झूठ से बेटा

हरेक बात पे बेटे की शक़ न लाया करो

 *

बदल रहा है समय छूट चाहते बच्चे

जरा सी बात है घर सिर पे मत उठाया करो

 *

गिराने वालों की कोई कमी नहीं है कहीं

बड़ी है बात गिरे को अगर उठाया करो

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

सिरThanks मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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