(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक प्रेरक रचना – “मतदान करो !” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ व. पु. काळे यांची एक बोधकथा –कथालेखक : व. पु. काळे ☆ प्रस्तुती – सुश्री प्रभा हर्षे ☆
गावे का दुसऱ्याच्या मनासारखे ? हे समजावणारी सुंदर अशी व.पु.काळेंची बोधकथा
बायकोनं घरात मांजर पाळलेलं. तिचं ते खूप लाडकं. ती जेवायला बसली की तिलाही घेवून बसायची. एका वाटीत दूध भाकर कुस्करुन द्यायची.
पण नवऱ्याला ते मांजर अजिबात आवडायचं नाही. उघडं दिसेल त्या भांड्यात तोंड घालायची त्याला सवय. त्याचा त्याला प्रचंड राग यायचा…
एकदा नवरा जेवायला बसलेला, आणि नेमकं मांजराने त्याच्या ताटात तोंड घातलं. नवरा चिडला आणि रागारागाने शेजारी असलेला पाटा त्याच्या डोक्यात घातला.
घाव वर्मी बसल्याने मांजर बराच वेळ निपचित पडून राहीलं. ‘मेलं की काय’ अशी शंका येत असतांनाच ते अंग झटकून उठून बसलं.
त्याने हळूच नवऱ्याकडे हसून बघीतलं, आणि चक्क ‘शॉरी यार, मी मघाशी तुझ्या ताटात तोंड घातलं. क्या करे आदत से मजबूर हूँ, पुन्हा नाही असं करणार..’ असं माणसासारखं बोललं. नवरा वेडा व्हायचाच बाकी..!
त्यानंतर मांजर नम्र आणि आज्ञाधारक झालं. ताटात तोंड घालणे तर सोडाच, दारातला पेपर आणून दे,
टी पॉय वरचा चष्मा आणून दे… अशी बारीकसारीक कामं ते करू लागलं.
मग काय, नवऱ्याची आणि त्याची छान गट्टी जमली. ऑफिसमधून येताच मांजर दिसलं नाही की तो अस्वस्थ व्हायचा. ‘अग मन्या दिसत नाही गं कुठं ?’ बायकोला सतत विचारत राहायचा.
असेच काही दिवस गेल्यावर एकेदिवशी सोसायटीच्या गेटसमोर बेवारस कुत्री आणि मांजरं पकडून नेणारी महापालिकेची व्हॅन येऊन थांबली.
मन्याने खिडकीतून ती व्हॅन बघितली. त्याच्या मनात काय आलं कोण जाणे, पण धावत जावून तो व्हॅन मधे बसला.
नवऱ्याने हे बघितले. हातातला पेपर पटकन बाजूला टाकून तो मन्यामागे धावला. मन्या व्हॅनमध्ये निवांत बसलेला.
नवरा म्हणाला, “मन्या, अरे इथं गाडीत का बसलायस? ही गाडी बेवारस मांजरासाठी आहे. तुझ्यासाठी नाही.”
“मला माहितेय..! पण मला जायचंय आता.” मन्या शांतपणे बोलला.
“मन्या, अरे असं काय करतोस? तू किती लाडका आहेस आम्हा दोघांचाही. माझं तर पानही हालत नाही तुझ्याशिवाय. तू क्षणभर नजरेआड गेलास तरी मला करमत नाही. मी इतकं प्रेम करतो तुझ्यावर आणि तू खुशाल मला सोडून निघालास ? ए प्लिज, प्लिज उतर रे आता.” काकुळतीला येवून नवरा बोलला.
मन्या गोड हसला, आणि बोलला, “तू माझ्यावर प्रेम करतोस? माझ्यावर?”
“म्हणजे काय शंकाय का तुला?”
“मित्रा, अरे मी जेंव्हा माझ्या मनासारखं वागत होतो, हवं तिथं हवं तेंव्हा तोंड घालत होतो, तेंव्हा मी तुझा नावडता होतो. सतत रागवायचास माझ्यावर. अगदी माझ्या जीवावर उठला होतास तू एकदा
पण जेंव्हा मी तुझ्या मनासारखं वागू लागलो, तुला हवं तसं करू लागलो…. तेंव्हा तुला आवडू लागलो. तू माझ्यावर प्रेम करू लागलास, यात नवल ते काय?”
नॉट सो स्ट्रेंज यार…!!
वपुंची ही कथा खूप काही सांगून जाते……
जेंव्हा आपण एखाद्यावर प्रेम करतो, तेंव्हा ते खरंच त्याला बरं वाटावं म्हणून, की स्वतःला बरं वाटावं म्हणून करतो ?
समोरचा जो पर्यंत आपल्या मनासारखं वागत असतो, तोपर्यंत त्याच्यावर आपलं प्रचंड प्रेम असतं. कारण त्याचं वागणं आपल्याला सुखावणारं असतं.
पण जेंव्हा तो आपलं ऐकत नाही, आपल्याला हवं तसं वागत नाही, तेंव्हा त्याचं आपल्या सोबत असणंही आता नकोसं वाटतं. त्याला टाळत राहतो.
भेटलाच कधी तर त्याच्यावर चिडतो, रागावतो. त्यानं नाहीच ऐकलं की मग वर्मी घाव घालून नातंच संपवून टाकतो. ज्याच्यावर जीवापाड प्रेम असतं, त्याला क्षणात परकं करून टाकतो.
आश्चर्य आहे ? का वागतो असं आपण ? त्याच्यावर खरंच आपलं प्रेम असतं की निव्वळ time pass म्हणून केलेली खोटी भावनिक गुंतवणूक?
आपल्या मनासारखं वागणाऱ्या माणसावर कुणीही प्रेम करतं.
अवघड असतं त्याच्यावर प्रेम करणं, त्याला समजून घेणं, जेंव्हा तो आपल्या मनासारखं वागत नसतो..!!
कथालेखक : व.पु.काळे
संग्रहिका : प्रभा हर्षे
≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈
(डा. मुक्ता जीहरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ज़िन्दगी समझौता है… । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 231 ☆
☆ ज़िन्दगी समझौता है… ☆
‘ज़िन्दगी भावनाओं व यथार्थ में समझौता है और हर स्थिति में मानव को अपनी भावनाओं का त्याग कर यथार्थ को स्वीकारना पड़ता है।’ यदि हम यह कहें कि ‘ज़िंदगी संघर्ष नहीं, समझौता है’, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। वैसे औरत को तो कदम-कदम पर समझौता करना ही पड़ता है, क्योंकि पुरुष-प्रधान समाज में उसे दोयम दर्जे का प्राणी समझा जाता है और कानून द्वारा प्रदत्त समानाधिकार भी कागज़ की फाइलों में बंद हैं। प्रसाद जी की कामायनी की यह पंक्तियां ‘तुमको अपनी स्मित-रेखा से/ यह संधि-पत्र लिखना होगा’—औरत को उसकी औक़ात का एहसास दिलाती हैं। मैथिलीशरण गुप्त जी की ‘आंचल में है दूध और आंखों में पानी’ द्वारा नारी जीवन का मार्मिक चित्र प्रस्तुत करते हुए उसकी नियति, असहायता, पराश्रिता व विवशता का आभास कराया गया है; जो सतयुग से लेकर आज तक उसी रूप में बरक़रार है।
यहाँ हम आधी आबादी की बात न करके सामान्य मानव के जीवन के संदर्भ में चर्चा करेंगे, क्योंकि औरत के पास समझौते के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प होता ही नहीं। चलिए! दृष्टिपात करते हैं कि ‘जीवन भावनाओं व यथार्थ में समझौता है और वह मानव की नियति है।’ यह संघर्ष है…हृदय व मस्तिष्क के बीच अर्थात् जो हमें मिला है… वह हक़ीक़त है; यथार्थ है और जो हम चाहते हैं; अपेक्षित है…वह आदर्श है, कल्पना है। हक़ीक़त सदैव कटु और कल्पना सदैव मनोहारी होती है; जो हमारे अंतर्मन में स्वप्न के रूप में विद्यमान रहती है और उसे साकार करने में इंसान अपना पूरा जीवन लगा देता है। मानव को अक्सर जीवन के कटु यथार्थ से रू-ब-रू होना पड़ता है और उन परिस्थितियों का विश्लेषण व गहन चिंतन-मनन कर के समझौता करना पड़ता है। वैसे भी जीवन की हक़ीक़त व सच्चाई कड़वी होती है। सो! मानव को ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चल कर, विपरीत परिस्थितियों का सामना करते हुए अपनी मंज़िल तक पहुंचना होता है। इस स्थिति में यथार्थ को स्वीकारना उसकी नियति बन जाती है। इसमें सबसे अधिक योगदान होता है…हमारी पारिवारिक, सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों का …जो मानव को विषम परिस्थितियों का दास बना देती हैं और लक्ष्य-प्राप्ति के निमित्त उसे हरपल उनसे जूझना पड़ता है। वास्तव में वे विकास के मार्ग में अवरोधक के रूप में सदैव विद्यमान रहती हैं।
आइए! चर्चा करते हैं पारिवारिक परिस्थितियों की… जैसा कि सर्वविदित है कि प्रभु द्वारा प्रदत्त जन्मजात संबंधों का निर्वहन करने को व्यक्ति विवश होता है। परंतु कई बार आकस्मिक आपदाएं उसका रास्ता रोक लेती हैं और वह उनके सम्मुख नतमस्तक हो जाने को विवश हो जाता है। पिता के देहांत के बाद बच्चे अपने परिवार का आर्थिक- दायित्व वहन करने को मजबूर हो जाते हैं और उनके स्वर्णिम सपने राख हो जाते हैं। अक्सर पढ़ाई बीच में छूट जाती है और उन्हें मेहनत-मज़दूरी कर अपने परिवार का पालन-पोषण करना पड़ता है। उस विषम परिस्थिति में वे सृष्टि-नियंता को भी कटघरे में खड़ा कर प्रश्न कर बैठते हैं कि ‘आखिर विधाता ने उन्हें जन्म ही क्यों दिया? अमीर- गरीब के बीच इतनी असमानता व दूरियां क्यों पैदा कर दीं?’ ये प्रश्न उनके मनोमस्तिष्क को निरंतर कचोटते रहते हैं और सामाजिक विसंगतियाँ–जाति-पाति विभेद व अमीरी-गरीबी रूपी वैषम्य उन्हें उन्नति के समान अवसर प्रदान नहीं करतीं।
प्रेम सृष्टि का मूल है तथा प्राणी-मात्र में व्याप्त है। कई बार इसके अभाव के कारण उन अभागे बच्चों का बचपन तो खुशियों से महरूम रहता ही है; वहीं युवावस्था में भी वे माता-पिता की इच्छा के प्रतिकूल, मनचाहे साथी के साथ विवाह-बंधन में नहीं बंध पाते; जिसका घातक परिणाम हमें ऑनर-किलिंग व हत्या के रूप में दिखाई पड़ता है। अक्सर उनके विवाह को अवैध क़रार कर खापों व पंचायतों द्वारा उन्हें भाई-बहिन के रूप में रहने का फरमॉन सुना दिया जाता है; जिसके परिणाम-स्वरूप वे अवसाद की स्थिति में पहुँच जाते हैं और चंद दिनों पश्चात् आत्महत्या तक कर लेते हैं।
‘शक्तिशाली विजयी भव’ के रूप में समाज शोषक व शोषित दो वर्गों में विभाजित है। दोनों एक-दूसरे के शत्रु रूप में खड़े दिखाई पड़ते हैं; जिससे सामाजिक-व्यवस्था चरमरा कर रह जाती है और उसका प्रमाण इंडिया व भारत के रूप में परिलक्षित है। चंद लोग ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं में सुख-सुविधाओं से रहते हैं; वहीं अधिकांश लोग ज़िंदा रहने के लिए दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पाते। उनके पास सिर छुपाने को छत भी नहीं होती; जिसका मुख्य कारण अशिक्षा व निर्धनता है। इसके प्रभाव-स्वरूप वे जनसंख्या विस्फोटक के रूप में भरपूर योगदान देते हैं। जहाँ तक चुनावों का संबंध है…हमारे नुमांइदे उनके आसपास मंडराते हैं; शराब की बोतलें देकर इन्हें भरमाते हैं और वादा करते हैं– सर्वस्व लुटाने का, परंंतु सत्तासीन होते ये दबंगों के रूप में शह़ पाते हैं।’ आजकल सबसे सस्ता है आदमी…जो चाहे खरीद ले…सब बिकाऊ है…एक बार नहीं, तीन-तीन बार बिकने को तैयार है। यह जीवन का कटु यथार्थ है; जहां समझौता तो होता है, परंतु उपयोगिता के आधार पर और उसका संबंध हृदय से नहीं; मस्तिष्क से होता है।
मानव के हृदय पर सदैव बुद्धि भारी पड़ती है। हमारे आसपास का वातावरण और हमारी मजबूरियाँ हमारी दिशा-निर्धारण करती हैं और मानव उनके सम्मुख घुटने टेकने को विवश हो जाता है …क्योंकि उसके पास इसके अतिरिक्त अन्य विकल्प होता ही नहीं। अक्सर लोग विषम परिस्थितियों में टूट जाते हैं; पराजय स्वीकार कर लेते हैं और पुन: उनका सामना करने का साहस नहीं जुटा पाते। ‘वास्तव में पराजय गिरने में नहीं, बल्कि न उठने में है’ अर्थात् जब आप धैर्य खो देते हैं; परिस्थितियों को नियति स्वीकार सहर्ष पराजय को गले लगा लेते हैं–उस असामान्य स्थिति से कोई भी आपको उबार नहीं सकता अर्थात् मुक्ति नहीं दिला सकता और वे निराशा रूपी गहन अंधकार में डूबते-उतराते रहते हैं।
ग़लत लोगों से अच्छे की उम्मीद रखना; हमारे आधे दु:खों का कारण है और आधे दु:ख अच्छे लोगों में दोष-दर्शन से आ जाते हैं। इसलिए बुरे व्यक्ति से शुभ की अपेक्षा करना आत्म-प्रवंचना है, क्योंकि उसके पास जो कुछ होगा; वही तो वह देगा। बुराई-अच्छाई में शत्रुता है… दोनों इकट्ठे नहीं चल पातीं, बल्कि वे हमारे दु:खों में इज़ाफ़ा करने में सहायक सिद्ध होती हैं। अक्सर यह तनाव हमें अवसाद के उस चक्रव्यूह में ले जाकर छोड़ देता है; जहां से मुक्ति पाना असंभव हो जाता है। उस स्थिति में भावनाओं से समझौता करना हमारे लिए हानिकारक होता है। दूसरी ओर जब हम अच्छे लोगों में दोष व अवगुण देखना प्रारंभ कर देते हैं, तो हम उनसे लाभान्वित नहीं हो पाते और हम भूल जाते हैं कि अच्छे लोगों की संगति सदैव कल्याणकारी व लाभदायक होती है। इसलिए हमें उनका साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए। जैसे चंदन घिसने के पश्चात् उसकी महक स्वाभाविक रूप से अंगुलियों में रह जाती है और उसके लिए मानव को परिश्रम नहीं करना पड़ता। भले ही मानव को सत्संगति से त्वरित लाभ प्राप्त न हो, परंतु भविष्य में वह उससे अवश्य लाभान्वित होता है और उसका भविष्य सदैव उज्ज्वल रहता है।
‘मानव का स्वभाव कभी नहीं बदलता।’ सोने को भले ही सौ टुकड़ों में तोड़ कर कीचड़ में फेंक दिया जाए; उसकी चमक व मूल्य कभी कम नहीं होता। उसी तरह ‘कोयला होय न उजरा, सौ मन साबुन लाय’ अर्थात् ‘जैसा साथ, वैसी सोच’… सो! मानव को सदैव अच्छे लोगों की संगति में रहना चाहिए, क्योंकि इंसान अपनी संगति से ही पहचाना जाता है। शायद! इसीलिए यह सीख दी गयी है कि ‘बुरी संगति से व्यक्ति अकेला भला।’ सो! व्यक्ति के गुण-दोष परख कर उससे मित्रता करनी चाहिए, ताकि आपको शुभ फल की प्राप्ति हो सके। आपके लिए बेहतर है कि आप भावनाओं में बहकर कोई निर्णय न लें, क्योंकि वे आपको विनाश के अंधकूप में धकेल सकती हैं; जहां से लौटना नामुमक़िन होता है।
सो! यथार्थ से कभी मुख मत मोड़िए। साक्षी भाव से सब कुछ देखिए, क्योंकि व्यक्ति भावनाओं में बहने के पश्चात् उचित-अनुचित का निर्णय नहीं ले पाता। इसलिए सत्य को स्वीकारिए; भले ही उसके उजागर होने में समय लग जाता है और कठिनाइयां भी उसकी राह में बहुत आती हैं। परंतु सत्य शिव होता है और शिव सदैव सुंदर होता है। सो! सत्य को स्वीकारना ही श्रेयस्कर है। जीवन में संघर्ष रूपी राह पर यथार्थ की विवेचना करके समझौता करना सर्वश्रेष्ठ है। जब गहन अंधकार छाया हो; हाथ को हाथ भी न सूझ रहा हो…एक-एक कदम निरंतर आगे बढ़ाते रहिए; मंज़िल आपको अवश्य मिलेगी। यदि आप हिम्मत हार जाते हैं, तो आपकी पराजय अवश्यंभावी है। सो! परिश्रम कीजिए और तब तक करते रहिए; जब तक आपको अपने लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। संबंधों की अहमियत स्वीकार कीजिए; उन्हें हृदय से महसूसिए तथा बुरे लोगों से शुभ की अपेक्षा कभी मत कीजिए। बिना सोचे-विचारे जीवन में कभी कोई भी निर्णय मत लीजिए, क्योंकि एक ग़लत निर्णय आपको पथ-विचलित कर पतन की राह पर ले जा सकता है। सो! भावनाओं को यथार्थ की कसौटी पर कस कर ही सदैव निर्णय लेना तथा उसकी हक़ीक़त को स्वीकारना श्रेयस्कर है। यथा-समय, यथा-स्थिति व अवसरानुकूल लिया गया निर्णय सदैव उपयोगी, सार्थक व अनुकरणीय होता है। उचित निर्णय व समझौता जीवन-रूपी गाड़ी को चलाने का सर्वश्रेष्ठ माध्यम है, उपादान है; जो सदैव ढाल बनकर आपके साथ खड़ा रहता है और प्रकाश-स्तंभ अथवा लाइट-हाउस के रूप में आपका पथ-प्रशस्त करता है।
(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम रचना – नवगीत – प्रिय नेताजी…।
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – बस एक इम्तिहान काफी है…। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 213 ☆
☆ एक पूर्णिका – बस एक इम्तिहान काफी है…☆ श्री संतोष नेमा ☆
… अजुन किती पैसे पैसै करतेस गं…पाकिट तर केव्हाच रिकामं करून झालं… शर्टाचे नि पॅंटचेही खिसे सगळे झाडून झाडून दाखवले… आता माझ्या जवळ एक दिडकी देखील शिल्लक ठेवली नाही… नोकरी धंद्याचा माणूस मी ,मलाही काही किरकोळ खर्च वगैरे रोज करावे लागतात कि … आणि तू तर मला कफ्फल्लकच करून सोडलसं… तरी बरं तुला महिन्याच्या पगाराचा नि त्यानंतर केलेल्या सततच्या मागणीनुसार दिलेल्या पैशाचा हिशोब कधीच मागितला नाही… आणि इनमिन दोघचं आपण नवरा बायको घरात राहत असताना एव्हढे भरमसाठ पैसै लागतातच कशाला.. त्यात माझं दिवसाचं जेवणखाण, चहापाणी तर बाहेरच्या बाहेर निपटत असतं…ती तुझी सतरा महिला मंडळ, अठरा भिशीची वर्तुळं, किटी पार्टीची महिला संमेलनं, साडी ड्रेसेचे सतराशेसाठ exhibitions…गेला बाजार माॅल मधील शाॅपिंग,अख्खं टाकसाळ जरी तुझ्या हाती दिलं तरी तुला ते कमीच पडेल… आणि आणि एव्हढी ढिगानं ढिग खरेदी करूनही कुठल्याही समारंभासाठी म्हणून नेसण्यासाठी एकही साडी तुझ्याकडे कधीच नसते…याबाबत तु कायम चिंतित राहतेस… मला ते दर वेळेला न चुकता ऐकवून दाखवतेस.. यावर मी काही आहेत त्या साड्यांमध्ये सुचवू पाहतो तेव्हा वसकन अंगावर येत म्हणतेस शी या कार्यक्रमाला असल्या साड्या काही उपयोगाच्या नाहीत.. त्याला ती तसलीच हवी… मागच्या वेळी माझी घ्यायची राहून गेली… आता ती साडी नसेल तर मला काही या कार्यक्रमला जायला लाज वाटेल बाई… म्हणजे थोडक्यात काय आली नवी खरेदी… मी आता असं करतो साड्यांच्या दुकानातच नोकरी करतो.. म्हणजे निदान तुला साड्यांचीं चिंता कधीच भेडसावणार नाही…
… तुम्ही सारखं सारखं माझ्या साडीवर काय घसरताय… तुम्हा पुरुषांना त्यातलं काय कळणार म्हणा… आणि तुम्ही दिवसभर ऑफिस मध्ये असता मग मी काय घरी बसून माश्या मारू… विरंगुळा म्हणून महिला मंडळ, भीशी क्लब, किटी पार्टी, यातून चार शहाण्या , हूशार बायकांच्या सहवासात काढते… कितीतरी नवी नवीन गोष्टी कळतात…आजं जगं कुठं चाललयं आणि आजची महिला कुठे आहे… याचं वास्तवातलं भान येतं… तो आपल्या केंद्र सरकारने केलेला महिला आत्मनिर्भर चा कायदा आता मला चांगलाच समजलाय बरं… सारखं सारखं उठसुठ तुमच्या कडून किती दिवस पैश्यासाठी याचना ती करावी म्हणतेय मी… मलाही वाटतं आता आपण आत्मनिर्भर व्हायला हवं… आणि आणि तुम्ही मला ते तसं होऊ देण्यास तयार असायलाचं हवं… नाही का?.. मग देताय ना दर महिन्याला माझे म्हणून खास आत्मनिर्भरतेचे पैसे…
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘चटकन‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 140 ☆
☆ लघुकथा – चटकन☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
सुबह उठकर रोज की तरह अखबार उठाया और छत पर चली गई। उसे अच्छी लगती है छत पर लगे पेड़-पौधों से मुलाकात। हवा में लहराती डालियां मानों गलबहियां करने को आतुर हैं। उसकी नजर पड़ी –‘अरे ! खिल गया यह फूल ,कितना सुंदर है’, धीरे से सहला दिया। फूल मानों बालों में टँक गया। वह गमलों में पड़ी सूखी पत्तियां निकालने लगी, खर-पतवार भी निकाल फेंके। अब इनको पूरा पोषण मिलेगा। जीवन में खर -पतवार नजर क्यों नहीं आते? मुरझाते पौधों को पानी से सींच वह मानों खुद ही हरी – भरी हो गई।
पेड़ – पौधों को खाद – पानी देते कितना समय निकल गया, पता ही नहीं चला। नाश्ता बनाना है, वह नीचे आ गई। पति सुबह जाकर रात में ही घर आते हैं, कहते हैं बहुत काम रहता है उन्हें। घर में वह सारा दिन अकेली। अपने कमरे में आकर चादर की सलवटें ठीक कीं, तकिए जगह पर रखे ,हाँ अब ठीक। बच्चों के कमरे पर नजर डाली, सब साफ ही है, पहले कितना बिखरा रहता था घर, अब तो — उसने गहरी साँस ली। डाईनिंग टेबिल से चाय के कप , गिलास , सॉस की बोतल हटाकर जगह पर रखी। फूलदान में रखे फूलों का पानी बदला। पानी बदलने से फूलों में जैसे जान आ गई हो। कितने दिनों से घर के बाहर निकली ही नहीं , रोज वही काम , वही रूटीन । ड्राइंगरूम में रखे काँच के फूलदान को बहुत संभालकर उठाया।‘ओह! कितना नाजुक है,’ धीरे से रख रही थी फिर भी अनायास जोर से रखा गया, ‘उफ! चटक गया।‘ जीवन में रिश्ते भी तो ना जाने कब, कैसे बिखर जाते हैं –?