हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – प्रतीक्षा… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता ‘प्रतीक्षा…’।)

☆ कविता – प्रतीक्षा… ☆

करे प्रतीक्षा राधा तेरी,

 तेरी राह निहारे,

कब आओगे कान्हा,

कण कण तुझे पुकारे,

यमुना की लहरों ने अब,

चंचलता को छोड़ दिया,

वंशी वट की शाखों पर,

पुष्पों ने खिलना छोड़ दिया,

कुंज गली के लता पुष्प,

 सब तेरी बाट निहारे,

कब आओगे कान्हा…

बिलख बिलख कर,

सूख गई सबकी अखियां,

निधिवन में अब न जाएंगी

तुझसे बिछड़ी सखियां,

मौन हो गई तेरी बंसी

आकर उसे बजा रे,

कब आओगे कान्हा…

जब साथ नहीं देना था,

तो फिर क्यों आया था,

क्यों इतना नेह लगाया,

क्यों इतना तरसाया था,

जोड़ लिए जब सबसे नाते

इनको मत बिसरा रे,

कब आओगे कान्हा,

कण कण तुझे पुकारे.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 167 ☆ पिकलेली दाढी… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 167 ? 

☆ पिकलेली दाढी… ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

पिकलेली दाढी माझी

मला काही सांगू लागली

सांगता सांगता तीच दाढी

माझ्यावरती हसू लागली.

*

पिकलेली दाढी माझी

संदेश मला देऊ लागली

मध्यंतर झाले तुझे

तुला नं याची चाहूल लागली.?

*

पिकलेली दाढी माझी

सत्यार्थ प्रगट करू लागली

येथे नं काही स्थिर मानवा

याची तुज रे, भूल पडली.

*

पिकलेली दाढी माझी

सत्य गूढ तिने उकलले

विचारशास्त्रात मी गढलो

माझे पाढे मीच वाचले.

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 236 ☆ कहानी – खोया हुआ कस्बा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी कहानी – खोया हुआ कस्बा। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 236 ☆

☆ कहानी – खोया हुआ कस्बा

रामप्रकाश ऊँचे सरकारी ओहदे से रिटायर हो गये। यानी अर्श से गिर कर खुरदरे फर्श पर आ गये। दिन भर उठते सलाम, ख़ुशामद में चमकते दाँत, झूठी मिजाज़पुर्सी, सब ग़ायब हो गये। ड्राइवर द्वारा उनके लिए अदब से कार का दरवाज़ा खोलने का सुख भी ख़त्म हुआ। जो उन्हें देखकर कुर्सी से उठकर खड़े हो जाते थे अब उन्हें देखकर नज़रें घुमाने लगे। मुख़्तसर यह कि रिटायरमेंट के बाद बहुत से रिश्ते बदल गये। रामप्रकाश जी को अब समझ में आया कि उन्होंने रिश्तो की पूँजी की उपेक्षा करके गलती की। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी। अब नये रिश्ते बनाना संभव नहीं था।

रिटायरमेंट के बाद सरकारी कार विदा हो जाने वाली थी और कार से उतर कर स्कूटर पर आने की त्रासद स्थिति को वे बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे, इसलिए उन्होंने रिटायरमेंट से तीन महीने पहले एक कार खरीद ली। हमारे देश में असंगठित क्षेत्र में श्रम बहुत सस्ता है इसलिए पाँच हज़ार रुपये में एक ड्राइवर भी रख लिया। इस तरह इज़्ज़त के कुछ हिस्से को महफूज़ कर लिया गया।

राम प्रकाश जी ने नौकरी के दौरान कहीं मकान नहीं बनाया क्योंकि कई बार हुए ट्रांसफर के कारण अंग्रेज़ी मुहावरे के अनुसार उनके पैरों के नीचे घास नहीं उग पायी। उनके कस्बे में उनका पुश्तैनी मकान था जो अब भी उन्हें शरण देने के लायक था। रिटायरमेंट से पहले उनके बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी कर अपने ठिकाने बनाने के लिए उड़ गये थे और उन्होंने बच्चों के साथ ज़िन्दगी ‘शेयर’ करने के बजाय अपने कस्बे में फैल कर रहने का चुनाव किया था।

नौकरी में रहते हुए उनका अपने कस्बे में आना कम ही हो पाता था। जब तक उनके माता-पिता वहाँ रहे तब तक चार छः महीने में चक्कर लग जाता था। पिताजी की मृत्यु के बाद माँ उन्हीं के साथ रहने लगीं थीं, इसलिए साल में मुश्किल से एक चक्कर लग पाता था। घर की देखभाल के लिए एक सेवक रख छोड़ा था।

जब पिताजी जीवित थे तब रामप्रकाश कस्बे में आते ज़रूर थे, लेकिन उनका आना वैसा ही होता था जिसे ‘फ्लाइंग विज़िट’ कहते हैं। ज़्यादातर वक्त वे घर में ही महदूद रहते थे। घर से बाहर निकल कर कस्बे की सड़कों पर घूमने में उन्हें संकोच लगता था। उनके ओहदे की ऊँचाई कस्बे की गलियों में पैदल घूमने में आड़े आती थी। वे उम्मीद करते थे कि उनके परिचित उनसे मिलने के लिए उनके घर आयें। इसीलिए कस्बे से ताल्लुक बना रहने के बाद भी कस्बा उनके हाथ से फिसलता जा रहा था। अब कार से झाँकने पर दिखने वाले ज़्यादातर चेहरे अजनबी होते थे। कस्बे की सूरत इतनी बदल गयी थी कि उसमें पुराने निशान ढूँढ़ पाना खासा मुश्किल हो गया था।

अपने कस्बे में आने पर वे पुराने साथियों को फोन करके मिलने का आग्रह करते थे और उनके बचपन के तीन चार साथी उनसे मिलने आ जाया करते थे। ज़ाहिर है ये वही साथी होते थे जो किसी न किसी वजह से कस्बे की सीमाएँ नहीं लाँघ पाये थे और वहीं महदूद होकर रह गये थे। दरअसल ये ऐसे साथी थे जिनका पढ़ाई-लिखाई में लद्धड़पन उनके पाँव की बेड़ियाँ बन गया था। इनमें त्रिलोकी अपवाद था जिसके ज़हीन होने के बावजूद उसके पिता ने गर्दन पकड़कर उसे कपड़े की दूकान पर बैठा दिया था। परिवार की इस  ज़्यादती के बावजूद वह शिकायत नहीं करता था, लेकिन मायूसी और संजीदगी उसके चेहरे पर साफ पढ़ी जा सकती थी।

एक साथी गोपाल था जिसके परिवार की दवा की दूकान थी। रामप्रकाश गोपाल से घबराते थे क्योंकि उसकी ख़तरनाक आदत बात करते-करते सामने वाले के कंधे या जाँघ  पर धौल जमाने की थी। ऐसे मौके पर यदि आसपास उनका ड्राइवर या चपरासी होता तो रामप्रकाश असहज हो जाते। उनकी उपस्थिति से बेफिक्र गोपाल घरहिलाऊ ठहाके लगाता और रामप्रकाश बार-बार पहलू बदलते रहते। अन्य साथी प्रमोद और प्रभुनाथ थे। गोपाल को छोड़कर सभी रामप्रकाश के व्यक्तित्व के सामने दबे दबे रहते क्योंकि उनकी असाधारण सफलता के सामने सभी अपने को पिछड़ा हुआ महसूस करते थे। उन्हें इस बात का गर्व ज़रूर था कि वे इतने सफल और महत्वपूर्ण आदमी के दोस्त थे।

रिटायरमेंट के बाद से रामप्रकाश ने सोच लिया था कि अब कस्बे के पुराने संबंधों को पुख्ता बनाना है क्योंकि अब ये ही लोग उनकी बाकी ज़िन्दगी के हमसफर रहने वाले थे। लेकिन अब मुश्किल यह थी कि अपने घर से बाहर निकलने पर वे पाते थे कि कस्बा उनकी पकड़ से बाहर हो गया है और उससे पहचान बनाने का कोई सिलसिला उन्हें नज़र नहीं आता था। कस्बे की पुरानी खाली ज़मीनें  ग़ायब हो गयी थीं और सब तरफ बेतरतीब मकान और दूकानें उग आये थे। पुराने मकान ढूँढ़ पाना ख़ासा मुश्किल हो रहा था। जो पुराने लोग अब मिलते थे उनके चेहरे इतने बदल गये थे कि उनमें पुराना चेहरा ढूँढ़ निकालने के लिए ख़ासी मशक्कत करनी पड़ती थी। लोग पहले की तुलना में बहुत व्यस्त और कारोबारी दिखने लगे थे।

रामप्रकाश अपने घर के आँगन में लेटते तो आकाश का जगमगाता वितान देखकर उनकी आँखें चौंधया जातीं। यह इतना विशाल आकाश अब तक कहाँ था? शहरों में तो मुद्दत से इतना बड़ा आकाश नहीं देखा, या फिर उन्हें ही उस तरफ सर उठाकर देखने की फुरसत नहीं मिली। बड़े शहरों के लोगों को आकाश और ज़्यादा ज़मीन की ज़रूरत महसूस नहीं होती।

कस्बे में आकर रामप्रकाश ने फुरसत से सुबह घूमना भी शुरू कर दिया था। घने पेड़ों से घिरे, भीड़-भाड़ से मुक्त खुले रास्ते थे। चाहे जैसे चलो, कोई टोकने वाला नहीं। तकलीफ यही होती थी कि यहाँ रास्ते में सलाम करने वाला कोई नहीं मिलता था। रामप्रकाश ही पुराने परिचित लोगों को अपनी कैफियत बताकर संबंधों पर जमी धूल साफ करने की कोशिश करते थे। उन्हें साफ लग रहा था कि लोगों से आत्मीयता बनाने में समय लगेगा।

रामप्रकाश ने निश्चय कर लिया था कि अब घर में रोज़ पुराने दोस्तों की महफिल जमाएँगे। कस्बे में आते ही उन्होंने पुराने दोस्तों से संपर्क करना भी शुरू कर दिया था। दिक्कत यही थी कि टेलीफोन पर जवाब नहीं मिल रहा था। एक त्रिलोकी से ही बात हुई थी और वे बात होने के दूसरे दिन मिलने भी आ गये थे। रामप्रकाश को गोपाल की शिद्दत से याद आ रही थी। अब उसके धौल-धप्पे से बचने की ज़रूरत नहीं थी। त्रिलोकी से मिलते ही उन्होंने गोपाल के बारे में पूछा।

त्रिलोकी ने उनके मुँह की तरफ देख कर जवाब दिया, ‘उसे मरे तो साल भर हो गया। तगड़ा हार्ट अटैक आया था। आधे घंटे में सब खतम हो गया।’

रामप्रकाश ने सुना तो हतप्रभ रह गये। उनका सारा शीराज़ा बिखर गया। कस्बे में सुकून से ज़िन्दगी काटने के समीकरण गड़बड़ हो गये। हसरत जागी कि काश, पहले गोपाल का हाल-चाल लिया होता!

बुझे मन से प्रमोद और प्रभुनाथ के बारे में पूछा। त्रिलोकी ने बताया, ‘प्रमोद भोपाल चला गया। बड़े बेटे ने वहाँ बिज़नेस जमा लिया है। वह बाप का खयाल रखता है। छोटा बेटा यहाँ है।

‘प्रभुनाथ तीन चार महीने पहले स्कूटर से गिर गया था। सिर में चोट लगी थी। तब से दिमागी हालत ठीक नहीं है। बात करते करते बहक जाता है। इसीलिए घर से बाहर कम निकलता है। इलाज चल रहा है।’

रामप्रकाश का सारा प्लान चौपट हो रहा था। अब यहाँ नये सिरे से संबंध बनाना कैसे संभव होगा? स्थिति जटिल हो गयी थी। उनकी पुरानी दुनिया ने उनसे हाथ छुड़ा लिया था और यह नयी दुनिया इसलिए अपरिचित हो गयी थी कि उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की थी।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 235 – परिवर्तन का संवत्सर ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 235 परिवर्तन का संवत्सर ?

नूतन और पुरातन का अद्भुत संगम है प्रकृति। वह अगाध सम्मान देती है परिपक्वता को तो असीम प्रसन्नता से नवागत को आमंत्रित भी करती है। जो कुछ नया है स्वागत योग्य है। ओस की नयी बूँद हो, बच्चे का जन्म हो या हो नववर्ष, हर तरफ होता है उल्लास,  हर तरफ होता है हर्ष।

भारतीय संदर्भ में चर्चा करें तो हिन्दू नववर्ष देश के अलग-अलग राज्यों में स्थानीय संस्कृति एवं लोकचार के अनुसार मनाया जाता है। महाराष्ट्र तथा अनेक राज्यों में यह पर्व गुढी पाडवा के नाम से प्रचलित है। पाडवा याने प्रतिपदा और गुढी अर्थात ध्वज या ध्वजा। मान्यता है कि इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि का निर्माण किया था। सतयुग का आरंभ भी यही दिन माना गया है।

स्वाभाविक है कि संवत्सर आरंभ करने के लिए इसी दिन को महत्व मिला। गुढीपाडवा के दिन महाराष्ट्र में ब्रह्मध्वज या गुढी सजाने की प्रथा है। लंबे बांस के एक छोर पर हरा या पीला ज़रीदार वस्त्र बांधा जाता है। इस पर नीम की पत्तियाँ, आम की डाली, चाशनी से बनी आकृतियाँ और लाल पुष्प बांधे जाते हैं। इस पर तांबे या चांदी का कलश रखा जाता है। सूर्योदय की बेला में इस ब्रह्मध्वज को घर के आगे विधिवत पूजन कर स्थापित किया जाता है।

माना जाता है कि इस शुभ दिन वातावरण में विद्यमान प्रजापति तरंगें गुढी के माध्यम से घर में प्रवेश करती हैं। ये तरंगें घर के वातावरण को पवित्र एवं सकारात्मक बनाती हैं। आधुनिक समय में अलग-अलग सिग्नल प्राप्त करने के लिए एंटीना का इस्तेमाल करने वाला समाज इस संकल्पना को बेहतर समझ सकता है। सकारात्मक व नकारात्मक ऊर्जा तरंगों की सिद्ध वैज्ञानिकता इस परंपरा को सहज तार्किक स्वीकृति देती है। प्रार्थना की जाती है,” हे सृष्टि के रचयिता, हे सृष्टा आपको नमन। आपकी ध्वजा के माध्यम से वातावरण में प्रवाहित होती सृजनात्मक, सकारात्मक एवं सात्विक तरंगें हम सब तक पहुँचें। इनका शुभ परिणाम पूरी मानवता पर दिखे।” सूर्योदय के समय प्रतिष्ठित की गई ध्वजा सूर्यास्त होते- होते उतार ली जाती है।

प्राकृतिक कालगणना के अनुसार चलने के कारण ही भारतीय संस्कृति कालजयी हुई। इसी अमरता ने इसे सनातन संस्कृति का नाम दिया। ब्रह्मध्वज सजाने की प्रथा का भी सीधा संबंध प्रकृति से ही आता है। बांस में काँटे होते हैं, अतः इसे मेरुदंड या रीढ़ की हड्डी के प्रतीक के रूप में स्वीकार किया गया है। ज़री के हरे-पीले वस्त्र याने साड़ी-चोली, नीम व आम की माला, चाशनी के पदार्थों के गहने, कलश याने मस्तक। निराकार अनंत प्रकृति का साकार स्वरूप में पूजन है गुढी पाडवा।

कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश में भी नववर्ष चैत्र प्रतिपदा को ही मनाया जाता है। इसे ‘उगादि’ कहा जाता है। केरल में नववर्ष ‘विशु उत्सव’ के रूप में मनाया जाता है। असम में भारतीय नववर्ष ‘बिहाग बिहू’ के रूप में मनाया जाता है।  बंगाल में भारतीय नववर्ष वैशाख की प्रतिपदा को मनाया जाता है। इससे ‘पोहिला बैसाख’  यानी प्रथम वैशाख के नाम से जाना जाता है।

तमिलनाडु का ‘पुथांडू’ हो या नानकशाही पंचांग का ‘होला-मोहल्ला’ परोक्ष में भारतीय नववर्ष के उत्सव के समान ही मनाये जाते हैं। पंजाब की बैसाखी यानी नववर्ष के उत्साह का सोंधी माटी या खेतों में लहलहाती हरी फसल-सा अपार आनंद। सिंधी समाज में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ‘चेटीचंड’ के रूप में मनाने की प्रथा है। कश्मीर में भारतीय नववर्ष ‘नवरेह’ के रूप में मनाया जाता है। सिक्किम में भारतीय नववर्ष तिब्बती पंचांग के दसवें महीने के 18वें दिन मनाने की परंपरा है।

सृष्टि साक्षी है कि जब कभी, जो कुछ नया आया, पहले से अधिक विकसित एवं कालानुरूप आया। हम बनाये रखें परंपरा नवागत की, नववर्ष की, उत्सव के हर्ष की। साथ ही संकल्प लें अपने को बदलने का, खुद में बेहतर बदलाव का। इन पंक्तियों के लेखक की कविता है-

न राग बदला, न लोभ, न मत्सर,

बदला तो बदला केवल संवत्सर।

परिवर्तन का संवत्सर केवल काग़ज़ों तक सीमित न रहे। हम जीवन में केवल वर्ष ना जोड़ते रहें बल्कि वर्षों में जीवन फूँकना सीखें। मानव मात्र के प्रति प्रेम अभिव्यक्त हो, मानव स्वगत से समष्टिगत हो।

दो दिन बाद गुढी पाडवा है। सभी पाठकों को शुभ गुढी पाडवा।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ महाशिवरात्रि साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा। 🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 182 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 182 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 182) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 182 ?

☆☆☆☆☆

गर यूँही घर में बैठा रहा

मार डालेगी तनहाइयाँ…

चल चलें मैखाने में जरा

ये फ़ना दिल बहल जायेगा…

☆☆

If I keep staying at home like this

The aloofness is going to  kill me

O’ dear  let’s  just  go to the bar…

This dying heart will come alive!

☆☆☆☆☆

इक किस्सा अधूरे इश्क़ का

आज भी है दरम्यान तेरे मेरे…

हैं मौजूद साहिलों की रेत पे

पैरों के कुछ निशान तेरे मेरे…

☆☆

A tale of inconclusive love still

exists between us, even today…

Few of our footprints are still

Present on the sand of shores…

☆☆☆☆☆

मरता तो कोई नही

किसी के प्यार में…

बस यादें कत्ल करती

रहती है किश्तों-किश्तों में…

☆☆

Nobody ever dies in

someone’s  love…

In installments just the

Memories  keep killing you…

☆☆☆☆☆

दीदार की तलब हो तो

नज़रें जमाये रखिये,

क्योंकि नक़ाब हो या नसीब, 

सरकता  तो  जरूर है…

☆☆

If urge of her glimpse is there

Then keep an eye on it patiently

Coz whether it’s the  mask or

luck , it moves for sure…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 181 ☆ त्रिपदियाँ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है त्रिपदियाँ।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 181 ☆

☆ त्रिपदियाँ ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

प्राण फूँक निष्प्राण में, गुंजित करता नाद

जो- उससे करिये ‘सलिल’, आजीवन संवाद

सुख-दुःख जो वह दे गहें, हँस- न करें फ़रियाद।

*

शर्मा मत गलती हुई, कर सुधार फिर झूम

चल गिर उठ फिर पग बढ़ा, अपनी मंज़िल चूम

फल की आस किये बिना, काम करे हो धूम।

*

करी देश की तिजोरी, हमने अब तक साफ़

लें अब भूल सुधार तो, खुदा करेगा माफ़?

भष्टाचार न कर- रहें, साफ़ यही इन्साफ।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२८.११.२०१४

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆– “नवा हुंकार…” – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? – “नवा हुंकार– ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

दगडातील मार्दवता

कलाकृतीत जन्मा येते

तेंव्हा ती सुयोग्य  रचना

आपणाशी संवाद  साधते …. 

*

संवाद  असा जो मानवाचा

मनाचाच आरसा असतो

दगडामधील कणाकणातुन 

 नवाच मग हुंकार जन्मतो …. 

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

मो 8149144177

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-12 – अपने पांव तले कभी आसमान मत रखना! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-12 – अपने पांव तले कभी आसमान मत रखना! ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

अभी जालंधर ही जालंधर है मन में ! यादों की पगडंडियों पर चलता जा रहा हूँ, कभी आगे तो कभी पीछे ! चलता जा रहा है, यादों का करवां ! कभी किसी की याद आती है, तो कभी किसी की याद सताती है ! किसी शख्स को याद कर मन खुशियों से भर जाता है, तो किसी का जिक्र आने पर मन में कुछ कसैला सा भाव उपजता है ! मैं इस कसैलेपन को पूरी तरह छिटक कर, दूर फेंक कर उनकी अच्छी छवि गढ़ना चाहता हूँ और यह सवाल कौंध जाता है कि पुराने, परिपक्व रचनाकारों को अपने से पीछे आने आने वाले लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? क्या उन्हें नये रचनाकारों को  सम्मान नहीं देना चाहिए ? नयी पौध को अपने स्नेह से सींचना नहीं चाहिए?

आज ऐसे ही आत्ममुग्धता से घिरे व्यक्तित्व‌ मित्र सुरेश सेठ की याद ह़ो आई है ! इनका घर जालंधर के बस स्टैंड के बिल्कुल बायीं ओर‌ पड़ता है ! बस से उतरते ही कदम उनके घर की ओर बढ़ जाते रहे हैं ! कभी जालंधर आकाशवाणी केंद्र या दूरदर्शन पर कार्यक्रम देने जाते समय इनके पास दो घड़ी बतिया कर जाता था । यह तो बाद में पता चला कि इनके बड़े भाई ही हैं, सुरेंद्र सेठ, जो बहुत ही शानदार एंकर थे दूरदर्शन पर ! यानी दोनों भाई अपने अपने क्षेत्र में पारंगत !

सुरेश सेठ की कुछ कहानियां आज भी मन में ताज़ा हैं ! ये कहानियां ‘ धर्मयुग’ और ‘ सारिका’ में प्रकाशित हुई थीं। इनमें एक कहानी राजनीतिक दलालों पर है, जो पहले अपनी खूबसूरत पत्नी को साथ लेकर बड़े नेताओं या उच्चाधिकारियों के पास लुभाने के लिए ले जाता है और पत्नी की खूबसूरती ढल जाने पर अपनी बेटी को ही दांव पर लगा देता है! उफ्फ!

दूसरी कहानी मध्यवर्गीय समाज की विवशताओं  पर केंद्रित है! इसमें एक मध्यवर्गीय नवविवाहित जोड़ा यह सोचता ही रह जाता है कि काश ! वे भी हनीमून पर किसी पहाड़ पर जा पाते ! पारिवारिक जिम्मेदारियां इनको ज़िंदगी भर अपने बोझ तले बुरी तरह दबाये रहती हैं । आखिरकार पति इतना बीमार पड़ जाता है कि उसे पी जी आई में दाखिल करना पड़ता है, जहां प्राइवेट रूम में वह कांच की खिड़की के बाहर दो चिड़ियों को देखकर सोचता है- वन फार साॅरो एंड टू फार जाॅय! वह अपनी पत्नी को कहता है कि हम हनीमून पर तो नहीं जा पाये लेकिन यह रूम ऐसे ही है, जैसे कि हम किसी हिल स्टेशन पर आ गये हो़‌ंं !

अफसोस! इस बड़े रचनाकार का दिल कभी भी अपने पीछे आने वालों के प्रति प्रोत्साहन वाला नहीं बल्कि ईष्यालु भाव से भरा रहा, जिस कारण ये नयी पीढ़ी से संवाद नही कर पाये! यह बहुत बड़ी ट्रेजेडी है! अब बहुत देर‌ हो चुकी है! वैसे ये अच्छे व्यंग्यकार और स्तम्भकार भी हैं ! जब कभी जालंधर जाता हूँ तो आज भी कदम इनके घर की ओर बढ़ जाते हैं! यह भाव, यह प्यार तो बना रहना चाहिए!

मित्रो ! यहीं रमेश बतरा फिर से याद हो आये हैं, जो अपने सहयात्री लेखकों को अपने साथ लेकर चलते रहे ओर चाहे ‘साहित्य निर्झर’ का संपादन हो या फिर ‘ सारिका’ या फिर ‘संडे मेल’ साप्ताहिक, सभी में अपने सहयात्रियों की रचनाएँ मांग कर प्रोत्साहित करते रहे! मैंने भी ‘दैनिक ट्रिब्यून’ या फिर हरियाणा ग्रंथ अकादमी क्षकी मासिक पत्रिका ‘कथा समय’ हो, नये रचनाकारों को मंच प्रदान करने की कोशिश की !

आज का यही सबक है कि किसी भी क्षेत्र में, जो वरिष्ठ हैं, उन्हैं नयी पीढ़ी को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसीलिये यह कहीं पढ़ा हुआ याद आ रहा है कि नयी पीढ़ी को रास्ता दे दो, नही तो वह ज़ोरदार धक्का देकर अपना स्थान बना लेगी ! इसलिए अपनी छांव देनी चाहिए न कि ईर्ष्या !

बस! आज इतना कहकर बात के सिलसिले को थाम लूंगा कि

तुम ही तुम हो एक मुसाफिर, यह गुमान मत करना

अपने पांव तले कभी आसमान मत रखना!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #231 – 118 – “नुमाइश…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “नुमाइश…” ।)

? ग़ज़ल # 115 – “नुमाइश…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी खुशनुमा है जब दिल से दिल मिलता है,

जमाने में दिल को कहाँ सच्चा दिल मिलता है।

*

वक़्त ने बदल कर रख दी तहरीर आशियाने की,

रहते खुद के घर में पता दुश्मन का मिलता है।

*

मुहब्बत में गुमसुम लोगों से पता पूछते हो ?

ढूँढने पर उनको नहीं ख़ुद का पता मिलता है।

*

दोस्ती का खेल भी खूब खेला जा रहा आजकल,

काम निकला फिर कहाँ दोस्त का घर मिलता है।

*

रिश्ते नाते दिखावटी नुमाइश बन कर रह गए हैं,

आतिश प्यार माँगने पर ही अपनों से मिलता है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – आलेख ☆ अभी अभी # 331 ⇒ हृदय परिवर्तन… ☆ श्री प्रदीप शर्मा ☆

श्री प्रदीप शर्मा

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “हृदय परिवर्तन।)

?अभी अभी # 331 ⇒ हृदय परिवर्तन? श्री प्रदीप शर्मा  ?

हृदय हमारे शरीर का वह अंग है, जो हमेशा धड़कता ही रहता है। बड़ा नाजुक अंग है यह, हमेशा घड़ी की टिक टिक की तरह, धक धक किया करता है, एक मिनिट में 60 से लगाकर 90 बार तक।

इसमें घड़ी की तरह कांटे नहीं होते, फूल की तरह कोमल होता है यह हृदय, क्योंकि यहां प्रेम का वास है। कहते हैं, आत्मा और परमात्मा दोनों का गुप्त रूप से वास यहीं है।

यह अगर थोड़ा भी छलका, तो प्रेम प्रकट हो जाता है।।

कहां हम और कहां राम भक्त हनुमान, फिर भी हमारे प्रिय भाई मुकेश गलत नहीं कह गए ;

जिनके हृदय श्री राम बसे,

उन, और का नाम लियो न लियो।

हमारे हृदय में कौन विराजमान है, क्या यह जानना इतना आसान है। बोलचाल की भाषा में, यही तो वह दिल है, जो कभी बेचारा, कभी पागल, तो कभी दीवाना है। यही वह जिया है, जो कभी कभी पिया के लिए बेकरार रहता है। कभी सुख चैन, तो कभी बैचेन, यही इस दिल की दास्तान, दिन रैन।।

कहने को छोटा सा दिल, लेकिन कहीं यह विशाल हृदय तो कहीं संग दिल, कोई दिल वाला, तो कोई दिल का मरीज। कितने हृदय रोग विशेषज्ञ तो कितने हृदय सम्राट।

सबके अपने अपने ठाठ।

आज विज्ञान भले ही इस हृदय की एंजियोग्राफी, एंजियोप्लास्ट और बायपास कर ले, कितनी भी चीर फाड़ कर ले, हृदय का प्रत्यारोपण भी कर ले, लेकिन इसकी भावना को छूना किसी चिकित्सक के बस का नहीं।।

सभी का हृदय एक समान धड़कता है, फिर भी सारे इंसान एक जैसे क्यों नहीं होते। यह चित्त क्या बला है, इंसान भला और बुरा क्यों होता है, यह तो सब ज्ञानी ध्यानी जानते हैं, लेकिन क्या किसी बुरे इंसान का हृदय परिवर्तन इतना आसान है।

सुना है, नर सत्संग से, क्या से क्या जो जाए ! अगर ऐसा होता तो शायद महा ज्ञानी शिव भक्त रावण, विभीषण की तरह, प्रभु श्रीराम की शरण में चल जाता। वाल्मीकि पहले डाकू थे, और अंगुलिमाल की तो पूछिए ही मत। कहीं निर्मल मन की बात होती है तो कहीं कुत्ते की पूंछ की।।

काश कोई ऐसी जादू की छड़ी होती कि इधर फिराई और उधर हृदय परिवर्तन, जैसा आजकल राजनीति में देखने में आता है। कल कमलनाथ और आज शिवराज। यथा महाराजा, तथा प्रजा।

सबका साथ, सबका विकास के साथ साथ, कितना अच्छा हो, सबका हृदय परिवर्तन भी हो जाए तो ना ही रहेगा बांस, और ना ही बजेगी अलग अलग सुरों में बांसुरी। बस सिर्फ एक, चैन की बांसुरी ! लेकिन यह क्या, राधिके तूने बंसुरी चुराई ..!!??

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© श्री प्रदीप शर्मा

संपर्क – १०१, साहिल रिजेंसी, रोबोट स्क्वायर, MR 9, इंदौर

मो 8319180002

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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