हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 109 ☆ मुक्तक – ।। मत होना मायूस कभी जीवन में कि सौगात बहुत है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 109 ☆

☆ मुक्तक – ।। मत होना मायूस कभी जीवन में कि सौगात बहुत है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

खुशी होकर जियो जिंदगी में जज्बात बहुत है।

मिलेगा बहुत कुछ  इसमें     सौगात बहुत है।।

पर वाणी में रखना      तुम मिठास    बहुत ही।

बात की चोट से यहाँ    पर आघात    बहुत  है।।

[2]

न गुम रहना अतीत में यादों की बारात बहुत है।

मत होना मायूस खुशियों की  अफरात बहुत है।।

बना कर रखना  तुम  अपने रिश्ते       नातों को।

अपनों के खोने पाने की भी   मुलाकात बहुत है।।

[3]

समय से चलना मिलके वक्त की रफ्तार बहुत है।

रखते मस्तिष्क को ठंडा उन्हें सत्कार बहुत है।।

क्रोध अहम    को त्यागना ही उत्तम है यहाँ पर।

व्यर्थ बातों की भी     जीवन में शुमार बहुत है।।

[4]

पैदा करनी शांति कि घृणा का रक्तपात   बहुत है।

करना नहीं विश्वास धोखे की खुराफात बहुत है।।

बढ़ाना है आदमी से ही आदमी का प्यार यहाँ पर।

जिंदगी में बिन वजहआंसुओं की बरसात बहुत है।।

[5]

मत तोड़ना विश्वास यहाँ घात   प्रतिघात बहुत है।

कोशिश करे आदमी तो   अच्छा हालात बहुत  है।।

जीत रखना जीवन में बहुत   ही संभाल कर तुम।

गर कभी मन हार गए तो फिर   मात बहुत है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 171 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “जीवन-सफलता…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “जीवन-सफलता...। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “जीवन-सफलता” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

यह दुनिया प्रभु की रचना है यहाँ न कोई अभाव है

हर एक को मिल पाता वह सब जो भी जिसका भाव है।

 *

सोच समझ ही सही चाहिये, सही स्नेह की भावना

साथ जी रहे जो धरती पर उनके प्रति शुभ कामना ।

 *

राहें यहाँ अनेक, पंथ कई सबके अलग विचार हैं

सबको हितकर राहें चुनने, जीने के अधिकार हैं।

 *

पर इससे भी बड़ा सोच यह है कि सब खुशहाल हों

हम जो करें करे ऐसा सब प्राणी जिससे निहाल हों।

 *

हर आने वाला दिन, गये दिन से ज्यादा सुखदायी हो

पास-पड़ोस हमारा सुधरे जीवन में अच्छाई हो।

 *

यही चाहिये सही सोच रख, हम प्रतिदिन शुभ कर्म करें

सबके हित की रखे भावना, कभी न कोई अधर्म करें।

 *

मन में सदा दया हो सबके सुख-दुख का अनुमान हो

करे सदा वे काम कि जिससे किसी का न नुकसान हो।

 *

सेवा, परोकार, सद्गुण ही प्रिय लगते भगवान को

इनसे ही सुख-शांति सदा ही मिलती हर इन्सान को।

 *

सफल उसी का जीवन जिसने कुछ ऐसा कर पाया है

जिसने सामाजिक सेवा कर जन मन को हर्षाया है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #226 ☆ कामयाबी और सब्र… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख कामयाबी और सब्र। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 226 ☆

☆ कामयाबी और सब्र… ☆

‘कामयाबी हमेशा वक्त मांगती है और वक्त हमेशा सब्र / और यूँ ही चलता रहता है ज़िंदगी का सफ़र।’ सिलसिले ज़िंदगी के चलते रहते हैं और मौसम व दिन-रात यथासमय दस्तक देते रहते हैं। यह समाँ भी रुकने वाला नहीं है। ऐ मानव! तू हादसों से मत डर और अपनी मंज़िल की ओर निरंतर बढ़ता चल। प्रकृति पल-पल रंग बदलती है; समय नदी की भांति निरंतर बहता रहता है। ज़िंदगी में तूफ़ान आते-जाते रहते हैं। परंतु तू बीच डगर मत ठहर और न ही बीच राह से लौट। स

मरण रहे, ‘ज़िंदगी इम्तिहान लेती है/ यह दिलोजान लेती है।’  इसलिए मानव को सफलता पाने के लिए निरंतर कर्मशील रहना चाहिए। सफलता ख़ैरात नहीं; उसे पाने के लिए मानव को स्वयं को निरंतर श्रम की भट्ठी में झोंकना पड़ता है, क्योंकि परिश्रम का कोई विकल्प नहीं होता। जो व्यक्ति केवल अपनी मंज़िल पर लक्ष्य साध कर जीता है, उसकी राहों में कोई आपदा व बाधा उपस्थित नहीं हो सकती।

सफलता कोई सौगा़त नहीं, जो दो दिन में आपकी झोली में आकर गिर जाए। उसे पाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है, झुकना पड़ता है और  सुख-सुविधाओं का त्याग करना पड़ता है। जो व्यक्ति इन रेतीली, कंटीली, पथरीली राहों पर चलना स्वीकार लेता है तथा असफलता को अनुभव के रूप में अपना लेता है; वह एडीसन की भांति सफलता के झंडे गाड़ देता है। बल्ब का आविष्कार करते हुए उसे अनेक बार असफलता का सामना करना पड़ा। दोस्तों ने उसे उस राह को त्यागने का मशविरा दिया, परंतु उसने आत्मविश्वास-

पूर्वक यह दलील दी कि उसे अब इन प्रयोगों में पुनः अपना समय नष्ट नहीं करना पड़ेगा। सो! वह मैदान-ए-जंग में डटा रहा और बल्ब का आविष्कार कर उसने नाम कमाया।

कामयाबी प्राप्त करने के लिए जहाँ वक्त की आवश्यकता होती है, वहीं वक्त को सब्र की अपेक्षा रहती है। जिस व्यक्ति में संतोष का भाव है, उतावलापन नहीं है; जो हर बात पर तुरंत प्रतिक्रिया नहीं देता और धैर्यपूर्वक अपने कार्य को अंजाम देता है; गीता के निष्काम कर्म को धारण करता है; अतीत में नहीं झाँकता– सदैव उज्ज्वल भविष्य की ओर अग्रसर रहता है।

अतीत कभी लौटता नहीं और भविष्य कभी आता नहीं। इसलिए वर्तमान में जीना श्रेयस्कर है, क्योंकि भविष्य भी सदैव वर्तमान के रूप में दस्तक देता है। ‘आगे भी जाने ना तू/ पीछे भी जाने ना तू/ जो भी बस यही एक पल है/ तू पूरी कर ले आरज़ू।’ इंसान को हर लम्हे की कद्र करनी चाहिए। गुज़रा वक्त लौटता नहीं और अगली साँस लेने के लिए हमें पहली साँस का त्याग करना पड़ता है– यह प्रकृति का नियम है, जो त्याग के महत्व को दर्शाता है। ‘जो बोओगे, सो काटोगे और कर भला, हो भला’ भी हमें यह सीख देते हैं कि मानव को सदैव सत्कर्म करने चाहिए, क्योंकि ये मुक्ति की राह दर्शाते हैं।

सब्र वह अनमोल हथियार है, जो मानव को फ़र्श से अर्श पर पहुंचाने की सामर्थ्य रखता है। आत्मविश्वास व आत्मसंतोष सफलता के सोपान हैं; जो उसे जीवन में कभी मात नहीं खाने देते। बचपन से मैंने आत्मविश्वास व आत्मसंतोष को धरोहर के रूप में संजोकर रखा और जो मिला उसे प्रभु की  सौग़ात समझा। यह शाश्वत् सत्य है कि समय से पहले और भाग्य से अधिक व्यक्ति को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सो! अधिक की कामना व कल की चिन्ता करना व्यर्थ है। सृष्टि का चक्र नियमित रूप से निरंतर चलता रहता है और समय से पूर्व कोई कार्य सम्पन्न नहीं होता। यह सोच हमें आत्माववलोकन व दूसरों में दोष देखने की घातक प्रवृत्ति से बचने का का संदेश देती है। कबीरदास के ‘बुरा जो देखन मैं चला, मोसे बुरा ना कोय’ के माध्यम से मानव को अंतर्मन में झाँकने की सीख दी गयी हैं। मानव ग़लतियों का पुतला है। बुद्धिमान लोग दूसरों के अनुभव सीखते हैं और मूर्ख लोग अक्सर अपने अनुभव से भी नहीं सीखते। वेमात्र दूसरों की आलोचना कर सुक़ून पपाते हैं।

सब्र और  सुक़ून का गहन संबंध है और चोली दामन का साथ है। यह दोनों अन्योन्याश्रित हैं और एक के बिना दूसरा अस्तित्वहीन है। जहाँ सब्र है, अधिक की इच्छा नहीं; वहाँ सुक़ून है। सुकून वह मानसिक स्थिति है, जहाँ आनंद ही आनंद है। सब ग़िले-शिकवे समाप्त हो जाते हैं; राग-द्वेष का शमन हो जाता है और इंसान पंच विकारों से ऊपर उठ जाता है। वहाँ अनहद नाद के स्वर सुनाई पड़ते हैं। यह अलौकिक आनंद की स्थिति है, जहाँ मानव संबंध-सरोकारों से ऊपर उठ जाता है, क्योंकि उसके हृदय में दैवीय वृत्तियों का वास हो जाता है।

इंसान कितना भी अमीर हो जाए, वह तकलीफ़ बेच नहीं सकता और सुक़ून खरीद नहीं सकता। इसलिए संसार में सबसे खुश वे लोग रहते हैं, जो यह जान चुके हैं कि दूसरों से किसी भी तरह की उम्मीद रखना व्यर्थ है, बेमानी है। यह मानव को अंधकूप में ले जाकर पटक देती है। यह निराशा की कारक है। सो! मानव को अपनी ग़लती मानने में संकोच नहीं होना चाहिए, क्योंकि सामने वाला सदैव ग़लत नहीं होता। जो लोग स्वयं को सदैव ठीक स्वीकारते हैं; उन्नति के मार्ग पर अग्रसर नहीं हो सकते, क्योंकि वे अहंवादी हो जाते हैं और अहं मानव का सबसे बड़ा शत्रु है। सो! मानव में यदि अहं का भाव घर कर जाता है कि ‘अहंकार किस बात का करूँ मैं/ जो आज तक हुआ है/ सब उसकी मर्ज़ी से हुआ है।’

ज़रूरत से ज़्यादा सोचना भी इंसान की खुशियाँ छीन लेता है और समय बीत जाने के बाद यदि उसकी कद्र की जाए, तो वह कद्र नहीं, अफ़सोस कहलाता है। कबीरदास जी ने भी ‘अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत’ के माध्यम से मानव को सचेत रहने का संदेश दिया है। कोई भी आदत इतनी बड़ी नहीं होती, जिसे आप छोड़ नहीं सकते। बस अंदर से एक मज़बूत फैसले की ज़रूरत होती है। इसलिए मन पर नियंत्रण रखें, क्योंकि दुनिया की कोई ताकत आपको झुका नहीं सकती। ‘मन के हारे हार है, मन के जीते जीत’–जी हाँ! इंसान स्वयं अपने मन का स्वामी है। जब तक मानव अपनी सुरसा की भांति बढ़ती आकांक्षाओं पर अंकुश नहीं लगा पाता; वह अधर में लटका रहता है तथा कभी भी अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। इसलिए इंसान को अपनी नज़रें आकाश की ओर तथा कदम धरती पर टिके रहने चाहिए। यही जीवन की पूंजी है; इसे संजोकर रखें ताकि जीवन में सब्र व सुक़ून क़ायम रह सके और हम दूसरों के जीवन को आलोकित व ऊर्जस्वित कर सकें।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

23 फरवरी 2024**

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार # 1 – ग़ज़ल – सहर कभी न आई है… ☆ सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ ☆

सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम ग़ज़ल – सहर कभी न आई है…। 

? रचना संसार # 1 – ग़ज़ल – सहर कभी न आई है… ☆ सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ ? ?

 रुकी-रुकी सी ज़िंदगी है हौसला धुआँ धुआँ

मुसीबतों में है बशर कि उठ रहा  धुआँ धुआँ

*

बरस रहे न अब्र भी ये इब्तिला की है घड़ी

घटा हुई है देख लो बे- साख़्ता धुआँ धुआँ

*

ज़मीर रोज़ बेचते न डर भी कुछ ख़ुदा का है

दरीचे बंद भी वफ़ा के और सबा धुआँ धुआँ

*

रची न भी थी हाथ में लगी ख़िज़ाँ की है नज़र

हिना का रंग भी बिखर के हो गया धुआँ धुआँ

 *

सहर कभी न आई है ग़मों की देख शाम की

तमाम उम्र बीती है कि बस मिला धुआँ धुआँ

 *

सिमट गए ख़ुशी के पल झुकी हुई है ये नज़र

जलाल से की हुस्न के जिगर हुआ धुआँ धुआँ

 *

बची न ख़्वाहिशें कोई कि रूठा भी ख़ुदा मेरा

न चाहतें न उल्फ़तें है हर दुआ धुआँ धुआँ

© सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #226 ☆ भावना के दोहे –  मधुमास ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे –  मधुमास )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 226 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे –  मधुमास ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

चंचरीक की गूंज से, खिलती कली हजार।

अब तो तुम समझो मुझे, तुम मेरा संसार।।

  *

पतझर झरता शाख से, वस्त्र बदलना यार।

नई कली के रूप का हमें  है इंतजार।।

*

मन उपवन में खिल रहे, देखो पुष्प हजार। 

  धरा प्रफुल्लित देखकर, झरते हरसिंगार।।

*

 गुलशन के गुल देखकर छाई  ग़ज़ब बहार।

आया फागुन झूम के, रंगों   की    बौछार ।।

*

यश वैभव का गेह में, रहे हमेशा वास।

खुशियों का छाया रहे, जीवन में मधुमास।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #208 ☆ आलेख – पेपर लीक.? नकल ठीक..? ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख पेपर लीक.? नकल ठीक..?आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 208 ☆

☆ आलेख – पेपर लीक.? नकल ठीक..? ☆ श्री संतोष नेमा ☆

भारत में पेपर लीक होना और नकल करना आम होता जा रहा है आये दिन चाहे शालेय परीक्षाएं हों या प्रतियोगी परीक्षाएं हर तरफ से, नकल, एवं पेपर लीक की खबरें सुनाई एवं दिखाई दे रही हैँ.! ऐसा लगता है मानो प्रशासन को इन विद्यार्थियों एवं परीक्षार्थियों की कितनी चिंता है तभी तो नकल करने की सारी सुविधाएं उपलब्ध नजर आती है.! कैसे जिम्मेदार अधिकारी परीक्षा के पूर्व पेपर लीक कर देते हैं.? अब इससे बड़ा समर्थन/ सहयोग क्या हो सकता है.? वैसे भी तमाम मेधावी छात्र आरक्षण के दंस से पीड़ित हैँ.!

नकल कराने के दृश्य देख कर तो आप भी दांतो तले अंगुली दबा लेंगे.? ना जाने नकल करने वालों से कहीं ज्यादा नकल कराने वालों को इतना पराक्रम और युक्ति कहां से आ जाती है.? जो दो-तीन मंजिला मंजिला भवनों की, दीवारों पर आसानी से खड़े होकर खिड़की के माध्यम से लाभार्थी को नकल पहुंचा देते हैं.! हम तो उनके इस पराक्रम को प्रणाम करते हैं.! नीचे सुरक्षा अधिकारी पुलिस और दीवारों पर नकल कराने वाले.! मजाल है कोई अपनी जगह से हिले.! वाह री व्यबस्था.! अब इन मीडिया वालों को कौन समझाए.? इनके पेट में बहुत जल्दी दर्द होने लगता है.! अब जब दर्द हो ही गया है तो कुछ तो इलाज करना ही पड़ेगा ना .! मीडिया जब भी ऐसे प्रकरण सामने लाता है तब तब प्रशासन ऐसा मेहसूस, कराता है कि मानो ऐसे प्रकरण पहली बार उनकी जानकारी में आए हों.! ऐसा नहीं है कि इन प्रकरणों की जानकारी नेताओं को नहीं होती.! वह तो जागते हुए भी सो जाते हैं.! और जब उन्हें जगाने का काम किया जाता है तब तक तमाम प्रतियोगी छात्रों का भविष्य खतरे की भेंट चढ़ जाता है.! हर राज्यों में भरतियों के पेपर लीक होना आम सा हो गया है.! जिससे युवाओं के सपने चकनाचूर हो जाते हैं, परीक्षाएं निरस्त हो जाती है, उम्मीदें टूट जाती हैँ, पर जिम्मेदारों को इससे क्या लेना देना  वह तो बस अपने सपने पूरे करने में लगे रहते हैं.? लगे भी क्यों ना रहें सबको अपने सपने पूरा करने का अधिकार जो है..!

अभी जबलपुर विश्वविद्यालय का हाल ही देख लो जो नियत तिथि को परीक्षा कराना ही भूल गया.? अब परीक्षार्थी दूर दराज से परीक्षा देने पहुँचे तो वहां के हाल देखकर भोचक्के रह गए.?

एक सवाल जहन में यह भी उठता है कि आखिर छात्र या प्रतिभागी नकल पर ही आश्रित क्यों हो रहे हैं.? क्या यह किताबी बोझ है  .? या कहीं ना कहीं हमारी परीक्षा प्रणाली का दोष है..!, जो कुछ भी हो सरकार से कुछ भी छिपा तो नहीं है  .?, क्या हमारी शिक्षा  सिर्फ नौकरी तक ही सीमित रह गई है.! हर छात्र का अंतिम उद्देश्य आज तो यही नजर आता है कि एन केन प्रकारेण उसे नौकरी हासिल हो जाए.! वह इसे ही अपनी कामयाबी मानकर चलता है.! जबकि मूलतः शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ नौकरी तक ही सीमित नहीं है.! इस एकांगी शिक्षा पर आखिर कौन विचार करेगा.?

आज आलम यह है कि तमाम राज्य सरकारों द्वारा प्रायोजित प्रतियोगी परीक्षाओं में पेपर लीक होना या खुलेआम नकल करने की प्रवृत्ति में वृद्धि होना जैसे आम सा हो गया है जिसकी परिणति पेपर का निरस्तीकरण है.! जिसका खामियाना प्रतियोगी छात्रों को भुगतना पड़ता है जिनमे उत्तर प्रदेश, बिहार झारखंड, तेलंगाना, राजस्थान जैसे राज्यों में अक्सर ऐसे प्रकरण सुनाई देते हैं.! जब ऐसे प्रकरण सामने आते हैं तब सरकारों द्वारा यह कहना कि हम कठोर नियम बनाएंगे.! मतलब जब आग लगेगी तब हम कुआं खोदेंगे.? नियम तो नकल विरोधी या पेपर लीक होने के, पूर्व से ही हैँ, सिर्फ जरूरत है उन पर शक्ति से अमल करने की और उसके लिए जरूरत है इच्छा शक्ति की जो सरकारों में कम ही नजर आती है.! एक बड़े नेता ने कहा कि, पेपर लीक एवं नकल जैसे प्रकरण छात्रों के लिए अभिशाप है हम भरती प्रक्रिया में पारदर्शिता लाएंगे एवं व्यवस्था में सुधार करेंगे.! स्वागत योग्य एवं अच्छी बात है.! पर पिछले अनेक वर्षों से देश में उनकी ही सरकारें थीं जिन राज्यों में ऐसे प्रकरण सामने आए उनमें भी उनकी ही सरकारें रहीं पर जो कुछ भी घटित हुआ वह हमारे सामने है.!  यहां सवाल यह नहीं की किसकी सरकारें थीं सवाल यह है कि जो भी सरकारें रहीं या हैँ  वह इस दिशा में  क्या ठोस कर पा रही है.?

नकल पर लगाम न लगा सकने के कारण अब परीक्षा प्रणाली में सुधार कर, किताब के साथ परीक्षा देने की (विथ दी ऐड ऑफ बुक) तैयारी में सरकारें लगी हुई है.! मतलब साफ है कि नकल रोकना भी अब मुश्किल होता जा रहा है.!

छात्रों को पाठ्यक्रम के साथ समुचित नैतिक शिक्षा देना भी आज के दौर में अत्यंत आवश्यक हो गया है.! ताकि नकल जैसी प्रवृत्तियों पर रोक लग सके.! गौरतलब है कि परीक्षा पेपर प्रिंटिंग  एवं परिवहन का काम निजी एजेंसियों के हाथ में होने से भी पेपर लीक जैसी घटनायें सामने आती हैँ.! देर से ही सही केंद्र सरकार पेपर लीक पर लगाम लगाने के लिए एक नया विधेयक अनुचित साधनों की रोकथाम) 2024 है. को लाने की तैयारी में है.!  अन्धेरा है बड़ा घनेरा.! जब जागो तभी सबेरा.!! वरना हालातों को देख कर तो यही लगता है ” पेपर लीक.! नकल ठीक..!!

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 7000361983, 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 216 ☆ संत  एकनाथ… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 216 – विजय साहित्य ?

संत एकनाथ ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

(अष्टाक्षरी रचना)

भानुदासी कुळामध्ये

एकनाथ जन्मा आले.

वयवर्षे फक्त बारा

जनार्दने गुरू केले.

*

दत्त दर्शनाचा योग

देवगिरी सर्व साक्षी

तीर्थाटन करूनीया

आले पैठणच्या क्षेत्री.

*

नाथ आणि गिरिजेचा

सुरू जाहला संसार

गोदा,गंगा, आणि हरी

समाधानी परीवार.

*

बोलीभाषेतून केले

भारूडाचे प्रयोजन.

लोकोद्धारासाठी केला

अपमान  ही सहन.

*

ईश्वराचे नाम घेण्या

नको होता भेदभाव

एकनाथी रूजविले

शांती, भक्ती, हरिनाम.

*

नाना ग्रंथ निर्मियले

लाभे हरी सहवास.

विठू, केशव, श्रीखंड्या

नाथाघरी झाला दास.

*

दत्तगुरू द्वारपाल

नाथवाडी प्रवचन

देव आले नाथाघरी

नाथ देई सेवामन.

*

नाथ कीर्तनी रंगल्या

गवळणी लोकमाता.

समाधीस्त एकनाथ

कृष्ण कमलात गाथा.

*

केले लोक प्रबोधन

प्रपंचाचे निरूपण.

सेवाभावी एकनाथ

भक्ती, शक्ती समर्पण.

*

वद्य षष्ठी फाल्गुनाची

नाथ षष्ठी पैठणची

सुख,शांती,धनसौख्य

नाथ कृपा सौभाग्याची.

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – जीवनरंग ☆ “दोन लघुकथा — मोबाईलडा / समेट” ☆ श्री मंगेश मधुकर ☆

श्री मंगेश मधुकर

🔆 जीवनरंग 🔆

☆ “दोन लघुकथा — मोबाईलडा / समेट” ☆ श्री मंगेश मधुकर 

(१)मोबाईलडा

बरीच रात्र झाली तरी रूममधला लाइट चालू होता.

“बंटी ए बंटी,रात्रीचा दीड वाजलाय.झोप आता”ममा ओरडली.

“तू अजून जागीच”

“मी हेच विचारतेय”

“हा,पाच मिनिटं”

“दार उघड.काय करतोयेस”

“काही नाही.थोडा वेळ थांब”

“तो मोबाईल बाजूला ठेव”

“तुला कसं कळलं”

“तू आजकाल दुसरं काही करतोस का?”

“ममा,गुड नाइट,”

“फोन माझ्याकडं दे”

“ठेवला.”लाइट बंद झाल्यावरच ममा आपल्या रुममध्ये गेली.

——

सकाळी दहा वाजून गेले तेव्हा झोपलेल्या बंटीला ममानं उठवलं.

“कशाला उठवलसं”

“किती वाजले ते पाहिलं का”

“रात्री झोप म्हणून मागे लागतेस आता झोपलो होतो तर उठवलं.काय काम होतं.”

“काही नाही”

“मग झोपू द्यायचं ना.”

“लवकर झोपायला काय होतं”

“ममा,सकाळ सक्काळी सुरू करू नकोस.”

“म्हणजे,तू कसंही वागायचं अन आम्ही बोलायचं सुद्धा नाही का”

“मला यावर वाद घालायचा नाहीये”

“नीट वागलास तर कोण कशाला बोलेल” 

“तुझं चालू दे.फ्रेश होऊन येतो”

“फोन घेऊन जाऊ नको”

“का?”

“जिथं तिथं फोन सोबत पाहिजेच का?जरावेळ लांब राहिला तर काही बिघडत नाही.टॉयलेटमध्ये फोन कशाला.घाणेरडी सवय.”

“मी फोन घेऊन जाणार.काय करायचं ते कर”बंटीनं ऐकलं नाही.ममा बोलत राहिली.

—-

“ममा,भूक लागलीये’” फोन पाहत ब्रश करत बंटी म्हणाला

“हsssम ”मोबाईलवरची नजर न हटवता ममानं उत्तर दिलं.

“नुसतं ‘हू’ काय करतेस.खायला दे.”

“देते”

“कधी?,मला आत्ता पाहिजे”

“देते म्हटले ना.जरा मोबाईल पाहू दे”

“माझ्यापेक्षा मोबाईल जास्त महत्वाचा आहे का?”

“येस”

“काय खाऊ”. 

“मोबाईलच खा”

“उगीच डोक्यात जाऊ नकोस”बंटी खेकसला. 

“ए,नीट बोलायचं”

“तू पण”

“मी नीटच बोलतेय”

“मोबाईल खा असलं बोलणं बरोबर ये.”

“का,मोबाईलनं पोट भरत नाही”

“ममा”बंटी चिडला. 

“स्वतः बनवून खा.मी काहीही करणार नाही”

“मग मी ऑर्डर करतो”

“नाही.आत्ता जर ऑर्डर केलं तर यापुढे घरात स्वयंपाक बनवणार नाही.”

“तुझा नक्की प्रॉब्लेम काय आहे.”

“तुझं वागणं”

“आता मी काय केलं”

“घरात लक्ष असतं का?आमच्यापेक्षा मोबाईल जास्त महत्वाचा झालाय.धड बोलत नाही की वागत नाहीस. कायम अस्वस्थ.एकटाच हसतो,स्वतःशीच बडबडतोस.घरात असूनही नसल्यासारखा.जेवताना,आंघोळ करताना, झोपताना जळूसारखा हाताला फोन चिकटलेला.”

“माझ्यामुळे तुम्हांला काही त्रास नाही ना.मी डिस्टर्ब करीत नाही मग तुम्ही मला करू नका.एवढं सिंपल.”

“हे घर आहे.रेल्वे प्लॅटफॉर्म नाही.कोणाशी बोलणं नाही की विचारपूस नाही फक्त आपल्याच विश्वात.”

“मी माझ्या सर्कलमध्ये कनेक्ट आहे”

“हो पण फक्त व्हर्च्युली.परवा मावशी घरी आली तर काय बोलावं हे तुला समजत नव्हतं.एकदम ब्लॅंक झाला.दिवसभर बाहेर अन घरी आलास की मोबाईलच्या ताब्यात असतोस”

“तुमच्या जनरेशनला मोबाईल विषयी प्रचंड राग का?”

“आम्हीसुद्धा फोन वापरतो पण तुझ्याइतकं पागल झालो नाही.”

“मोबाईल ईज ब्रिदिंग.मोबाईल इज लाईफ!!”

“कॉलेजला गेलास म्हणजे शिंग फुटली नाहीत.दहा वर्षाचा असताना पहिल्यांदा मोबाईल हातात घेतलास आणि आता त्याच्याशिवाय दुसरं जगच नाही.चोवीस तास सोशल मीडिया आहेच फक्त स्वतःवर कंट्रोल पाहिजे.” खिडीकीतून सहज लक्ष गेलं तर रस्त्यावरून एकजण झोकांड्या खात चाललेला.त्याला पाहून ममा म्हणाली “तो बघ.एवढ्या सकाळी सुद्धा पिऊन टाईट,त्याच्यासाठी दारू ईज ब्रिदिंग,दारू इज लाईफ.मग तब्येतीची वाट लागली तर दारू सोडायची नाही.जसा तो तसाच तू .. 

“म्हणजे ”

*”तो बेवडा,दारुडा अन तू…”

“मी काय?”

“मोबाईलडा” बंटीनं लगेच  फोन लांब ठेवला तेव्हा ममा हसली “ पोहे केलेत.खाऊन घे आणि जे बोलले त्यावर विचार कर”

“माताजी,आत्तापासून फोन आचारसंहिता ..” अंगठा उंचावत बंटी म्हणाला.

लेखक : मंगेश मधुकर 

===============================

(२) “समेट

आजचा ऑफिसमधला दिवस शांततेत चाललेला.काही विशेष काम नव्हतं.तितक्यात ते दोघं आले. 

“नमस्कार मॅडम”तो म्हणाला पण ती काहीच बोलली नाही उलट जरा वैतागलेली वाटली. खुर्चीकडे हात करत मी म्हणाले “नमस्कार,बसा.कसे आहात”

“चाललंय.”त्यानं त्रोटक उत्तर दिलं.चेहऱ्यावरची निराशा जाणवत होती.ती मात्र तुसडेपणानं म्हणाली “कधी एकदा सुटका होईल असं झालंय”

“वेळ गेलेली नाही.अजूनही विचार करा.”मी 

“जितक्या लवकर वेगळं होता येईल ते बरंय.”ती 

“घाई करू नका”

“उलट फार उशीर झालाय.याच्यासोबत चार वर्ष कशी काढली ते माझं मला माहिती!”ती ताडताड बोलत होती.तो मात्र शांत होता.त्याची धडपड नातं टिकविण्यासाठी तर तिला घटस्फोटासाठी घाई झालेली .

“हे नातं संपवून मोकळं व्हायचयं”ती

“मोकळं झाल्यानंतर काय?”पुढचा काहीच विचार केला नसल्यानं माझ्या प्रश्नावर ती गडबडली. 

“तुमचं लव मॅरेज ना”

“तिथंच फसले”शेजारी पाहत ती म्हणाली.त्यानं काहीच प्रतिक्रिया दिली नाही.

“तू एकटीच फसलीस?”माझा प्रश्न तिला कळला नाही.

“म्हणजे”ती 

“आधी प्रेम नंतर लग्न.दोघांनी एकमेकांना फसवलं”

“त्यानं फसवलं मी नाही”ती 

“हाऊ कॅन बी यू सो शुअर,त्याचंही म्हणणं तुझ्यासारखचं असेल तर ..”

“तो पुरुष आहे.सगळा दोष बाईला देणारच”

“विषय भलतीकडे नेऊ नकोस.टाळी एका हातानं वाजत नाही.त्याचं अजूनही प्रेम आहे.मागचं विसरून पुन्हा सुरवात करण्याची मनापासून इच्छा आहे.”

“नुसतं म्हणायला काय जातं.बोलणं आणि वागणं वेगवेगळं असणाऱ्या माणसावर विश्वास कसा ठेवू.असे लोक फक्त स्वतःची सोय पाहतात.एक नंबरचे सेल्फीश असतात.हा पण तसाच आहे.”

“हीच गोष्ट तुला पण लागू पडतेय.आत्ता तू पण फक्त स्वतःचाच विचार करतेस.” माझं बोलणं तिला आवडलं नाही.एकदम रडायला लागली तेव्हा त्याला बाहेर जायला सांगितलं.पुढचे काही क्षण शांततेत गेले.

“सॉरी,एकदम भरून आलं”रुमालानं डोळे पुसत ती म्हणाली. 

“मनात खूप गोंधळ आहे ना”

“हंssssम!!.स्वतंत्र व्हायचंय हे शंभर टक्के कन्फर्म”

“वेगळं होण्याविषयी अजूनही द्विधा मनस्थिती आहे.”

“बरोबर की चूक हेच ठरवता येत नाहीये.अनेकांशी बोलले तर गोंधळ अजून वाढला.”

“अजूनही त्याच्यावर प्रेम करतेस.”मान फिरवून ती दुसरीकडं पाहू लागली. 

“इतक्या वर्षाच्या अनुभवावरून सांगते.तुमच्यातला प्रेमाचा बंध अजूनही शाबूत आहे.नातं रिस्टार्ट करा.पुन्हा एकदा सगळ्याचा नव्यानं विचार कर.मगच निर्णय घ्या.”

“तुम्ही पुन्हा जोडण्यासाठी फारच आग्रही वाटताय.”

“करेक्ट!!माझं कामच ते आहे.तोडण्यापेक्षा जोडणं केव्हाही चांगलंचं.”

“पण प्रत्येकवेळी नाही”ती 

“मान्य!!प्रयत्न करायला हरकत नाही.तुम्ही भावनेच्या भरात निर्णय घेत आहात.असं मला वाटतय.”

“असं काही नाही.आमच्यात खूप भांडणं होतात.दोन टोकाचे स्वभाव आहेत.”ती

“नॉर्मल आहे.हा सगळ्या जोडप्यांचा प्रॉब्लेम आहे.”दोघांबरोबर बऱ्याच मिटिंग झाल्या परंतु आज ती मन मोकळं करत होती.त्याचं वागणं,सवयी याविषयी बोलत होती. 

“मग पसंत कसं केलंस.त्याच्या खास आवडणाऱ्या गोष्टी कोणत्या?”माझ्या अनपेक्षित प्रश्नानं ती गडबडली. 

“ईश्य!!खूप आहेत”ती चक्क लाजली.

“बघ,स्टील यू हॅव स्पेशल फिलिंग्ज् फॉर हिम”

तिनं उत्तर दिलं नाही.  

“वेगवेगळ्या स्वभावाची माणसं एकत्र आल्यावर मतभिन्नता असणारच.प्रेम म्हणजे सगळं कसं छान छान तर लग्न म्हणजे परखड वास्तव.प्रेमात एकमेकांच्या आनंदासाठी धडपडणाऱ्यांना लग्नानंतर कराव्या लागणाऱ्या तडजोडीची तयारी नसते तिथूनच प्रॉब्लेम सुरू होतो.लग्नाआधी भारी वाटणाऱ्या सवयी नंतर त्रासदायक वाटतात आणि मग सुरू होतो ‘तू तू,मै मै’ चा खेळ.”

“आमचं असंच झालंय.”

“नवरा-बायकोच्या नात्यात वाद,भाडणं जरूर असावीत पण ती ताटातल्या लोणच्यासारखी,भाजीत मीठ असावं परंतु मिठात भाजी टाकली तर चव बिघडणारच.”

“किती छान बोलता.म्हणूनच ममानं तुमच्याकडंच का पाठवलं हे समजलं”छान हसत ती म्हणाली.

“आता कुठं तरी जाणवतेय की दोघांकडून चुका झाल्यात.वी नीड टू लर्न अडजेस्ट.मी तयार आहे पण तो तयार होईल का ?

“आमचं आधीच बोलणं झालंय.तो तयार आहे”मी बोलत असतानाच तो आला. नजरानजर झाल्यावर दोघं हसले.मला फार आनंद झाला कारण प्रयत्नांना यश आलं. अजून एक नातं तुटण्यापासून वाचलं.पुन्हा पुन्हा “थॅंकयू” म्हणत हातात हात घालून दोघं केबिनच्या बाहेर पडले आणि लगेचच सहकारी केक घेऊन आले.आज माझा कामाचा शेवटचा दिवस.फॅमिली कौंन्सलर म्हणून पंचवीस वर्ष काम केल्यानंतर रिटायर होणार होते.सगळे भरभरून बोलले तेव्हा वातावरण भावुक झालं.इतकी वर्ष बोलायचं काम केलं पण आजही भाषण करायचं म्हटलं की दडपण येतं.उत्सवमूर्ती असल्यानं बोलायला उभी राहिले.“सर्वांचे खूप खूप धन्यवाद!! थोडक्यात सांगते की आपण रोज दोन आयुष्य जगतो.एक खाजगी अन दुसरं ही नोकरी जिथं वैयक्तिक भावनांना बाजूला ठेवून समोरच्याला समजावून सांगायचं हे अतिशय अवघड आहे.इथं येणारे  वैतागलेले,चिडलेले असतात.बऱ्याचदा  आपल्यावर राग निघतो तरी शांत राहावं लागतं परंतु तेच लोक जेव्हा इथून हसत हसत बाहेर जातात.तो आनंद,समाधान हे फार मोलाचं असतं.माझी इथल्या करियरच्या पहिल्याच केसमध्ये यशस्वी समेट झाला तसाच शेवटची केसमध्ये सुद्धा यशस्वी समेट झाला. हा फार चांगला योगायोग आहे.याचं मोठं समाधान आहे.मी स्वतंत्रपणे हाताळलेल्या पहिल्याच केस मध्ये घटस्फोट टाळण्यात यश आले.तेव्हाचा आनंद अजून विसरलेले नाही.”

“मी पण नाही” केबिनच्या दारात उभी असलेली विमल म्हणाली.

“विमल,तुम्ही आणि इथं” मी विचारताच विमल येऊन घट्ट बिलगल्या. 

“आज तुम्ही रिटायर होताय म्हणून खास आलेय. मॅडममुळे संसार वाचलेली मीच ती पहिली व्यक्ती. त्यांच्याचमुळे माझं आयुष्य दोनदा सावरलं”

“दोनदा”मी आश्चर्यानं विचारलं.

“मॅडम,तुम्ही माझा संसार तर वाचवलातचं आणि माझ्या लेकीचा सुद्धा..”विमलनं दाराच्या दिशेनं बोट केलं तिथं मघाचेच तो आणि ती हातात फुलांचा गुच्छ घेऊन उभे.त्यांना पाहून आपसूक डोळे वहायला लागले.

© श्री मंगेश मधुकर

मो. 98228 50034

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय सहावा — आत्मसंयमयोग — (श्लोक ४१ ते ४७) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय सहावा — आत्मसंयमयोग — (श्लोक ४१ ते ४७) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वतीः समाः ।

शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते ॥ ४१ ॥

*

पुण्यवान जाहला असेल जरी योगभ्रष्ट

स्वर्गप्राप्तीपश्चात तया श्रीमान वंश इष्ट ॥४१॥

*

अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्‌ ।

एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम्‌ ॥ ४२ ॥

*

प्रज्ञावान कुळात अथवा येई तो जन्माला

ऐसा जन्म या संसारे दुर्लभ प्राप्त व्हायाला ॥४२॥

*

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌ ।

यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥ ४३ ॥

*

पुर्वसुकृते तयास मिळतो योगसंस्कार पूर्वदेहाचा

तयामुळे यत्न करी अधिक तो परमात्मप्राप्तीचा ॥४३॥

*

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।

जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ ४४ ॥

*

पूर्वाभ्यासे अवश त्यासी भगवंताचे आकर्षण 

योगजिज्ञासू जाई सकाम कर्मफला उल्लंघुन ॥४४॥

*

प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।

अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो याति परां गतिम्‌ ॥ ४५ ॥

*

सायासाने करी अभ्यास योगी बहुजन्मसिद्ध 

संस्कारसामर्थ्ये पापमुक्त त्वरित परमगती प्राप्त ॥४५॥

*

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।

कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥४६॥

*

तपस्वी तथा शास्त्रज्ञाहुनी श्रेष्ठ असे योगी

सकाम कर्मे कर्त्याहुनिया खचित श्रेष्ठ योगी

समस्त जीवितांमध्ये योगाचरणे सर्वश्रेष्ठ योगी

कौन्तेया हे वीर अर्जुना एतदेव तू होई योगी ॥४६॥

*

योगिनामपि सर्वेषां मद्‍गतेनान्तरात्मना ।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥४७॥

*

योग्याने ज्या भजिले मजला श्रद्धावान अंतरात्म्याने

परमऱश्रेष्ठ योगी म्हणुनी त्या स्वीकारिले मी  आत्मियतेने  ॥४७॥

*

ॐ तत्सदिति श्रीमद्‌भगवद्‌गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे आत्मसंयमयोगो नाम षष्ठोऽध्यायः ॥ ६ ॥

*

ॐ श्रीमद्भगवद्गीताउपनिषद तथा ब्रह्मविद्या योगशास्त्र विषयक श्रीकृष्णार्जुन संवादरूपी आत्मसंयमयोग  नामे निशिकान्त भावानुवादित षष्ठोऽध्याय संपूर्ण ॥६॥

– क्रमशः …

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #41 ☆ कविता – “कौन जाने मै कौन हूं…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 41 ☆

☆ कविता ☆ “कौन जाने मै कौन हूं…☆ श्री आशिष मुळे ☆

इतना जानू के मै हूं

ना जानू के कौन हूं

 *

ना आस्तिक हूं

ना नास्तिक हूं

ख़ुदको जान ना पाऊ

ख़ुदा को कैसे जाननेवाला हू

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना हिंदू हूं

ना मुस्लिम हूं

नहीं किसिके पास जवाब

फिर मै कैसे जवाबन हू

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना नाम हूं

ना खानदान हूं

अपने तो अपने नहीं लगते

परायों को क्या दिखाने वाला हूं

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना सोच हूं

ना खयाल हूं

नहीं खयालात खुदके काबू

सोच से थोड़ी चलने वाला हूं

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना जानवर हूं

ना फरिश्ता हूं

कैसे किसी को मिटाऊ

कैसे ख़ुदको बचाने वाला हूं

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना वंश हूं

ना निर्वंश हूं

जो लेके आया था

वहीं देके जानेवाला हूं

कौन जाने मै कौन हूं

 *

ना आदम हूं

ना हव्वा हूं

यूंही समय की डाली पे

क्या नाचता हुआ एक बंदर हूं

कौन जाने मै कौन हूं

 *

कौन जाने मै कौन हूं

कौन बताए मै क्या हूं

चाहें जो बन सकता हूं

चाहें वो दिखा सकता हूं

चलो फिर इंसान ही बन जाता हूं

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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