मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 224 ☆ तपस्या ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 224 ?

तपस्या ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

पहाट ओली धुक्यातील ही,  धुंद गारवा,सभोवती

वृक्षवल्लरी सुखात गाती, मधुमिलिंदही गुणगुणती

*

गाव कोणते, कुठली वस्ती, सारे काही, अनोळखी

तुझ्यासवे मी इथवर आले, आत्म्यामधली, ही तलखी

*

तहान माझी युगायुगांची, तू माझा रे स्वप्नसखा

या देहावर त्या देहाचा, जणू घातला, अंगरखा !

*

मैथुनातले सुख अनुभवती, मनुष्यप्राणी-पशुपक्षी

या आत्म्यावर, देहावर ही, गोंदवलेली, ही नक्षी!

*

तृप्त जाहले, तव स्पर्शाने, मिटली सारी मम तृष्णा

ओढ, वासना, आसक्तीही, असे तपस्या… रे कृष्णा !

© प्रभा सोनवणे

२ एप्रिल २०२४

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 47 – अहसास की बातें… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – अहसास की बातें…।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 47 – अहसास की बातें… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

करते हो, आज क्यों फिर उल्लास की बातें 

पूछीं न तुमने मुझसे संन्यास की बातें

*

पतझर के सिवा, हमने जीवन में कुछ न पाया 

करती रहीं छलावा, मधुमास की बातें

*

दो बोल अपनेपन के, सुनने को तरसे हैं हम 

सबसे मिली हैं सुनने, उपहास की बातें

*

रस-रंग की कथाएँ, कैसे उसे सुहायें 

जिसने सुनी हैं हर पल, संत्रास की बातें

*

आस्थाएँ हैं अपाहिज, श्रद्धा हुई है घायल 

लगतीं फरेब जैसी, विश्वास की बातें

*

हारा नहीं है जीवन, मेरा विपत्तियों से 

विपदा ने की हैं मुझसे, उल्लास की बातें

*

है खंडहर ही केवल, अब साक्षी समय का 

हर ईंट ने सुनी हैं, अहसास की बातें

https://www.bhagwatdubey.com

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 123 – रिश्तों में खट्टास का… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता “रिश्तों में खट्टास का…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 123 – रिश्तों में खट्टास का… ☆

रिश्तों में खट्टास का, बढ़ता जाता रोग ।

समय अगर बदला नहीं, तो रोएँगे लोग ।।

 *

लोभ मोह में लिप्त हैं, आज सभी इंसान ।

ऊपर बैठा देखता, समदर्शी भगवान ।।

 *

अगला पिछला सब यहीं, करना है भुगतान ।

पुनर्जन्म तक शेष ना, कभी रहेगा जान ।।

 *

जीवन का यह सत्य है, ग्रंथों का है सार ।

जो बोया तुमने सदा, वही काटना यार ।।

 *

संस्कृति कहती है सदा, यह मोती की माल ।

गुथी हुयी उस डोर सेटूटे ना हर हाल ।।

 *

रिश्तों में बंधकर रहें, हँसी खुशी के साथ ।

बरगद सी छाया मिले, सिर पर होवे हाथ ।।

 *

रिश्ते नाते हैं सदा, खुशियों के भंडार ।

सदियों से हैं रच रहे, उत्सव के संसार  ।।7

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मेरी डायरी के पन्ने से # 5 – बचपन की सुखद स्मृतियाँ – ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से …  द ग्रेट नानी )

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – बचपन की सुखद स्मृतियाँ ?

मनुष्य को ईश्वर की एक बहुत बड़ी देन है और वह है स्मरण शक्ति। यह बैंक में जमा की गई धन राशि के समान है! इसे जब चाहो खर्च करने का मौका देती है। इन्सान के बचपन की स्मृतियाँ भी कुछ ऐसी ही होती हैं। बाल्यकाल की  घटनाओं को जब बड़े होने पर याद करते हैं तब कुछ और ही रसास्वाद का आनंद मिलता है। एक बार फिर बचपन में लौट जाने की तीव्र इच्छा होती है।

वैसे तो मेरे बचपन की कई सुखद स्मृतियाँ हैं जिन्हें याद कर मैं कभी कविता तो कभी लघु कथाएँ लिखती हूँ और फिर बचपन के सागर में डूबती –  तैरती हूँ। पर आज मैं आप सबके साथ अपना एक अनुभव साझा करती हूँ।

अपने बचपन में मैं टॉम बॉय थी। भाई के दोस्त ही मेरे भी दोस्त हुआ करते थे। उन दिनों हम चतु:शृंगी के पास अंबिका सोसायटी में रहते थे। कॉलोनी बंगलों की कॉलोनी थी। कई हमउम्र लड़कियाँ भी थीं जिनके साथ सागर गोटे, पिट्ठुक, भातुकुली आदि का भी मैं आनंद लेती थी पर लड़कों के साथ खेलना शायद और चैलेंजिंग था।

नियमित रूप से चतुरश्रृंगी पहाड़ के ऊपर चढ़ा भी करते थे। होड़ लगाते थे कि कौन सबसे पहले ऊपर चढ़े।

उन दिनों मोहल्ले के लड़के गुल्ली डंडा, कंचे, गुलैल, पतंग, लट्टू आदि से अधिक खेलते थे।

दुख की बात है कि आज ये खेल गँवारों के खेल समझे जाते हैं।

उन दिनों मेरी उम्र नौ वर्ष रही होगी। लड़कों में अपनी जगह बनाने के लिए मैं अपने दादा के हाफ़ पैंट पहनती थी। घर पर किसी ने टोका नहीं, शायद टॉम बॉय सी थी और छोटी थी यह सोचकर कुछ न बोले होंगे। हमारे वस्त्र हमारे व्यक्तित्व की पहचान होते हैं। मुझे भी पैंट पहनकर खेलने में आसानी होती थी। लड़कों के साथ भिड़ जाने में और आवश्यकतानुसार उनकी कुटाई करने में भी आसानी होती थी।

शुरू – शुरू में  तो मैं दादा के पीछे – पीछे रही पर धीरे – धीरे सबके साथ घुल-मिल गई फिर खेलने और जूझने की बुद् धि व क्षमता दोनों बढ़ गई। पैंट की जेबों में ढेर सारे कंचे होते, कुछ खेलते समय जीते हुए और कुछ दादा की नज़रें बचाकर उनकी पैंट की जेबों से चुराए हुए! उस वक्त कभी चोरी का अहसास न हुआ न गिल्ट फीलिंग्स ही। जहाँ मौक़ा मिला ज़मीं पर उँगली से गहरे छेद बनाकर  पारंगतता हासिल करने के लिए एकलव्य की तरह अकेले में ही कंचे खेलने का अभ्यास करती  रहती ताकि खूब कंचे बटोर सकूँ। घुटने इतने गंदे, बेढब और छिले से होते मानो खेत में काम करनेवाले किसी मज़दूर के घुटने हों। माँ डाँटती तो हौज के पानी से पैर धो लेती और साफ घर को धूल मिट् टी से भर देती।

मैं बचपन में शरारतों से पटी हुई थी।

कंचे, गिल्ली – डंडा खेलना आ गया तो अब गुलैल चलाने की बारी आई। दादा के मित्र मेरे मित्र थे इनमें कुछ हमउम्र भी थे। अंबिका सोसाइटी में सबके घर में खूब बाग बगीचे थे। आम, जामुन, आँवले, अमरूद आदि के पेड़ लगे थे। सभी वृक्ष खूब फल देते। एक दिन दोपहर के समय दो मित्र आए, कहा चलो आँवले तोड़ते हैं। मैं भी साथ हो ली। अपने घर के पिछवाड़े एक घर में खूब आँवले लगे थे। हम चुपके से वहाँ पहुँचे। उन दोनों ने कहा देखें तेरा निशाना कैसा है। मैं भी तैयार थी। पास के ही दूसरे एक वृक्ष पर चढ़कर गुलैल साधकर आँवले तोड़ने लगी। दो चार टपके भी, हिम्मत बढ़ गई। उन दिनों मैं नौ सीखिए थी, अभी अचूक निशाने मारने में माहिर न थी। बस निशाना चूका और बंगले की खिड़की के शीशे झनाझनाकर कुछ घर के फ़र्श पर और कुछ बगीचे में गिरे।

दोनों साथी मुझे वहीं छोड़ फरार हो गए और मैं अभी भी पेड़ से छलांग लगा कर उतर ही रही थी कि उस घर के दादजी जिन्हें हम सब आजोबा कहते थे, घर से बाहर आ गए। पहले तो कान पकड़कर मरोड़ा, फिर उच्च पदस्थ पिता की बेटी होकर आँवले चुराने पर भर्त्सना मिली फिर लड़की होकर लड़कों के साथ न खेलने की नसीहत मिली। मैं अपना सा मुँह लेकर घर लौट आई। दोनों मित्रों की कुटाई की तीव्र इच्छा लिए।

शाम को बाबा दफ़्तर से  घर लौटे तो चेहरा तमतमाया हुआ था। मैं समझ गई आजोबा ने शिकायत की थी। बाबा खूब नाराज़ हुए। मार पड़ी सो  अलग। गाल पर तड़ा तड़ थप्पड़ पड़े़ और पैर की पिंडलियाँ बेंत खाकर ऐसे काले हुए मानो कोयले की खान में काम करनेवाले किसी मज़दूर के पैर हों। पर जो सज़ा मिली वह भयंकर थी। बाबा ने हुक्म दिया कि मैं आजोबा के घर के बाहर पड़े काँच के टुकड़े चुनकर सब साफ़ करूँ वह भी रात होने से पहले।

स्वभाव से मैं बहुत ज़िद् दी थी। बाबा के हुक्म का पालन किया और उसके बाद भीष्म  प्रतिज्ञा भी ली कि आजोबा के बगीचे के सारे आंवले नोच दूँगी। कुछ दिनों तक घर से बाहर न निकली पर दिमाग़ में योजना चलती रही।

फिर प्रारंभ हुआ अभ्यास!! घर में जितने हैंडल टूटी प्यालियाँ थीं उन्हें हौज पर रखकर गुलैल मारकर उन्हें फोड़ने का अभ्यास शुरू कर दिया। माँ ने कुछ एल्यूमीनियम के बर्तन रख छोड़े थे, बर्तनवाले को देने के लिए। मैंने गुलैल मारकर उनका हुलिया बदल डाला। उनके पैंदे कैसे थे पहचान से बाहर हो गए!! थोड़े ही समय में आँवला तो क्या आम, अमरूद इमली  तोड़ना भी सीख गई वह भी सबकी नज़रें बचाकर।

शायद इस निशानेबाजी की आदत ने मेरे भीतर साहस का संचार किया और फर्ग्यूसन कॉलेज में पढ़ाई के साथ NCC  में मैं भर्ती हो गई। इसी आदत ने मुझे रायफल शूटिंग का मौका दिया और 1976 में महाराष्ट्र के बेस्ट केडेट का गौरव मिला!!!

आज पलटकर जब सोचती हूँ तो फिर एक बार बचपन में लौट जाने को जी चाहता है। आज न आँवले के पेड़ हैं न गुलैल अगर कुछ बचा है तो वह है सुखद स्मृतियों का विशाल जाल जिसमें एक मकड़ी की तरह हम इस उम्र में फँसे हुए हैं। अब तो यही कहने को दिल करता है कि कोई लौटा  दे मेरे बीते हुए दिन…

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 271 ☆ कविता – लंदन से 7 – उस तरह का धन ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय कविता लंदन से 7 – उस तरह का धन। 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 271 ☆

? कविता – उस तरह का धन ?

मेरे पास उस तरह का धन

शून्य है

पर मेरे

बड़ी मेहनत से कमाए ,इस तरह के धन को

तो मेरे पास रहने दो सरकार

कितना प्रगट, परोक्ष, टैक्स लगाओगी सरकार

टैक्स लोगों को मजबूर करता है

इस तरह के धन को उस तरह के धन में बदलने के लिए

अग्रिम टैक्स ले लेती हो

कभी अग्रिम वेतन भी दे सकती हो?

अपना ही इस तरह का धन

बेटी को विदेश भेजना हो तो

ढेर सा अग्रिम टैक्स कट जाता है

बिना किसी देयता के

तभी तो हवाला बंद नहीं होता

और

इस तरह का धन उस तरह के धन में

बदलता रहता है।

* * * *

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

इन दिनों, क्रिसेंट, रिक्समेनवर्थ, लंदन

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 186 – तपिश – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा तपिश”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 186 ☆

☆ लघुकथा 🌻 तपिश 🌻

एक सुंदर सी कालोनी। आज होली का दिन बहुत ही सुंदर सा वातावरण चारों तरफ होली के गाने और बच्चों की टोली।

साफ-सुथरे धूलें प्रेस के चमकते कपड़े पहन अनिल नहा धोकर तैयार हुआ। स्वभाव से गंभीर ओहदे के ताने- बाने में जकड़ा अपने आप को हमेशा अकेला महसूस करता था।

अनिल इस संसार को सिर्फ माया बाजार समझता था। यूँ तो कहने को भरा पूरा परिवार, सदस्यों की कमी नहीं थी। परन्तु फिर भी उसका परिवार अकेला। अंर्तमुखी व्यवहार जो सदा, उसे सबसे अलग किये देता था। दुख- सुख हो वह सिर्फ एक फॉर्मेलिटी पूरी करता दिखता।

अनजाने ही वह कब सभी चीजों से विरक्त हो गया, पता ही नहीं चला। नीरस सी जिंदगी हो चली थी। घर में दोनों बिटिया और धर्मपत्नी हमेशा से ही पापा को अकेले या कोई आ गया तो एक अजनबी की तरह व्यवहार करते देखा करते थे। बिटिया भी उसी माहौल को स्वीकार कर चुकी थी। क्योंकि मम्मी ने साफ-साफ कह दिया था… “जब ससुराल चली जाओगी तब सब शौक पूरा कर लेना। अभी आपके पापा के पास उनकी मर्जी के साथ रहना सीखो।”

” मैंने सारी जिंदगी निकाली है। मैं नहीं चाहती घर में किसी प्रकार का क्लेश बढ़े।” बच्चों में खुशी का तो कोई ठौर नहीं था परंतु मायूसी ने घर कर लिया था।

पढ़ने में दोनों तेज और समझदार थी। भाग्य से समझौता कर चुकी थी।

” क्या? हम इस वर्ष भी होली में बाहर नहीं निकालेंगे दीदी? “….. छोटी वाली ने सवाल किया।

कमरे में बुदबुदाहट की आवाज सुनकर अनिल खिड़की के पास खड़े हो गए। बड़ी बहन समझा रही थी…… “देख छोटी चल आईने के सामने हम दोनों एक दूसरे को गुलाल लगा लेते है दिखेंगे चार और फोटो गैलरी से फोटो बनाकर हैप्पी होली शेयर कर लेंगे।”

“मुझे नहीं करना…. हमेशा ऐसा ही होता है।” यह कहकर वह पलंग पर सिर ढांप कर सोने का नाटक करने लगी।

पापा ने दरवाजा खटखटाया।

दोनों बाहर आए। मम्मी दौड़कर सहमी सी खड़ी ताक रही थी। पापा एक कुर्सी पर बैठ गए और बोले…..” छोटी तेरे पास जो गुलाल है। जरा मेरे बालों में, गालों में, माथे में, कपड़ों पर फैला दे, मैं बाहर होली खेलने जा रहा हूँ । कोई यह ना कहे कि मेरे में रंग नहीं लगा है।”

“क्योंकि हमेशा बाहर निकलता था तो मेरे व्यक्तिगत व्यवहार के कारण कोई भी मुझे गुलाल या रंग नहीं लगाते।”

” मैं रंग गुलाल से लिपा – पूता रहूंगा। तो सभी पड़ोसी भी पास आकर रंग लगाएंगे और बोलेंगे वाह कमाल हो गया।”

दोनों आँखे निकाल पापा को देख रही थी। मम्मी की आँखे तो गंगा जमुना बहा रही थी।

दीदी ने भरी गुलाल की पुड़िया तुरंत निकाल पापा को सर से पांव तक लगा दिया। पापा भी अपने पॉकेट से रंगीन गुलाल उड़ाते हुए बच्चों को गले लगा लिए।

बाहर दलान में निकलते पड़ोसी देखते ही रह गए। सभी पास आ गए। आज जी भरकर अनिल ने रंग गुलाल खेला। मस्ती में झूमने लगे।

उनकी गुलाबी संतुष्टी यह बता रही थी कि बरसों की तपिश, आज होली के रंग में धुलती नजर आ रही थीं। और गुलाबी रंग चढ़ता ही जा रहा था।

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 77 – देश-परदेश – विश्व रंग मंच दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 77 ☆ देश-परदेश – विश्व रंग मंच दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

रंग मंच भी समयानुसार अपने रूप बदल बदल कर हमारे जीवन के यथार्थ परोसता रहता हैं।

सदियों पूर्व कलाकार पैदल पैदल घूम घूम कर अपनी कला की सुगंध को बिखेरते थे। पहिए के अविष्कार से ये लोग भी बैलगाड़ी, ऊंट गाड़ी आदि साधनों को उपयोग कर अपनी पहुंच दूर दराज तक करने लगे थे।

समय तेज गति के साधन का हुआ, तो ये लोग भी एक छोटी बस/ ट्रक इत्यादि से काफिला का रूप लेकर प्रगति करते रहें। करीब दो सदी पूर्व सिनेमा के द्वारा मनोरंजन उपलब्ध करना आरंभ किया जिसने  तो मंच कलाकार को बहुत हद तक कमज़ोर कर दिया हैं।

टीवी नामक छोटे पर्दे ने रही कसर निकाल कर रंग मंच की कमर ही तोड़ दी हैं। “दुनिया मुट्ठी” में को सच साबित करने वाला मोबाईल यंत्र ने तो रंग मंच को वेंटिलेटर पर पहुंचा दिया हैं।

रंग मंच के कलाकार भी एक अलग मिट्टी के बने हुए होते हैं। अपनी अंतिम सांस तक लड़ते हुए रंग मंच को जीवित रखे हुए हैं। अपने अस्तित्व की लड़ाई को जारी रखते हुए इन सभी कलाकारों को नमन।

टीवी पर दिखाए जाने वाले सीरियल हो या जंगली जानवरों से भी बदतर तरीके से लड़ते हुए विभिन्न राजनैतिक दल के प्रतिनिधि हो मात्र झूट और फरेब फैलाते हैं।

इसी प्रकार का कार्य हमारा व्हाट्स ऐप भी कर रहा है। ज्ञान की इतनी ओवर डोज दे देता है, कि अपच हो जाती हैं। जिस प्रकार जरूरत से अधिक भोजन शरीर को लाभ के स्थान पर हानि अधिक पहुंचता है, उसी प्रकार से व्हाट्स ऐप का ज्ञान और मनोरंजन हमें मानसिक रूप से क्षति पहुंचा रहा है।

हमारा ये लेख भी तो कहीं आपको मानसिक रूप से अशांति तो नहीं दे रहा है ?

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #231 ☆ आॕनलाईन… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 231 ?

☆ आॕनलाईन ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

आॕनलाईन खरेदीचा रोग मला जडला

बँक खात्यामधला होता पैसा खर्ची पडला

*

नव्हती फार हालचाल देह थोडा वाढला

दम लागतो मला आता जर जिना चढला

*

वेळेवरती येई पिज्जा पोटामध्ये ढकला

मनातून धन्यवाद देऊन टाका कुकला

*

स्वयंपाकाचा घरात प्रसंग नाही घडला

भाजीचा मी देठ कधीही नाही होता खुडला

*

एकदा केला प्रयत्न प्रसंग बाका घडला

होता पहिल्या घासाला नवरा माझा रडला

*

बाहेरच्याच खाण्यावर जीव माझा जडला

त्याचसोबत औषधानं जीव थोडा पिडला

*

सुई पासून सारं काही येत होतं घरला

घरामध्ये बॉक्सचाच होता कचरा भरला

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ ती… ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

श्री आशिष  बिवलकर

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

?– ती – ? ☆श्री आशिष  बिवलकर ☆

डौलदार ऐटीत चाल ,

दिसतेय तुझी ग लेकी |

रॅम्पवॉकवर चालणारी मॉडेल 

तुझ्यापुढे पडेल फिकी |

*

कळशीभर पाण्यासाठी दाही दिशा,

चिमुकले चाले तुझी वणवण |

छोटीशी कळशी हातात घेउन,

तुझ्याच सारख्या कित्येक जण |

*

नुसती आश्वासने देऊन,

तोंडाला पानं पुसली जातात |

पिढ्यानं पिढ्या हेच चाले,

समस्या जिथल्या तिथेच राहतात |

*

कळशी पाण्याने भरेल की नाही,

कुठे नाही त्याची कसली शाश्वती |

डोळे अश्रूंनी नक्कीच भरतील,

मिळवलेल्या स्वातंत्र्याची फलश्रुती |

*

गावोगावी कोवळ्या कळ्या,

पाण्यासाठी मैलोन्मैल भटकतात |

योजनांच्या झारीतील शुक्राचार्य,

मलिदा खाऊन खुर्चीला चिकटतात |

*

कोरडा दुष्काळ आवडे सर्वांना,

लाटती मयताच्या टाळूवरचे लोणी |

हंडाभर पाण्यासाठी पायपीट,

वाली न उरला व्यवस्थेत कोणी |

*

प्रजासत्ताकाचे अमृत वर्षं,

अमृत सोडा पाणी ही राहिले दूर |

जाहिरातबाजीचे उधळतात घोडे,

धुराळा उडवीत दौडती खूर |

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 182 – सुमित्र के दोहे… जीवन ☆ स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

स्व. डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र”

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपके अप्रतिम दोहे – जीवन के संदर्भ में दोहे।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 182 – सुमित्र के दोहे… जीवन ✍

जीवन के वनवास को, हमने काटा खूब।

अंगारों की सेज पर, रही दमकती दूब।।

*

एक तुम्हारा रूप है, एक तुम्हारा नाम ।

धूप चांदनी से अंटी, आंखों की गोदाम।।

*

केसर ,शहद, गुलाब ने, धारण किया शरीर ।

लेकिन मुझको तुम दिखीं, पहिन चांदनी चीर।।

*

 गंध कहां से आ रही, कहां वही रसधार ।

शायद गुन गुन हो रही, केश संवार संवार।।

*

सन्यासी – सा मन बना, घना नहीं है मोह।

 ले जाएगा क्या भला, लूटे अगर गिरोह ।।

*

कुंतल काले देखकर, मन ने किया विचार ।

दमकेगा सूरज अभी, जरा छंटे अंधियार।।

*

इधर-उधर भटका किए, चलती रही तलाश।

एक दिन उसको पा लिया, थीं सपनों की लाश।।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र” 

साभार : डॉ भावना शुक्ल 

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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