हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 183 – “जंजीर पिता जी की…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  जंजीर पिता जी की...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 183 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “जंजीर पिता जी की...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

टँगी रही पश्चिमी भींट,

तस्वीर पिता जी की ।

बची हुई हुई थी वही यहाँ,

जागीर पिता जी की ॥

 

बेटा संध्या समय रोज

परनाम ‘  किया करता ।

अगरबत्तियाँ चौखट में

था खोंस दिया करता।

 

बहू देख मुँह बिदकाती थी

मरे ससुर जी को –

समझ नहीं पायी थी जो,

तासीर पिता जी की ॥

 

तनिक देर से हुआ युद्ध

लेकिन भर पूर हुआ ।

सास बहू के चिन्तन में

ज्यों चढ़ आया महुआ ।

 

उन दोनों के विकट युद्ध में

आखिर यही हुआ –

टूट फूट कर विखर गयी

तस्वीर पिता जी की ॥

 

बेटा, टुकड़ों को सहेज

कर सुबुक रहा ऐसे ।

दोबारा मर गये पिता जी

जीवित हो जैसे ।

 

बेटे की यह हालत देख

कहा करते हैं सब –

एक सूत्र में बाँधे थी,

जंजीर पिता जी की ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

22-03-2024

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆ “स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक ☆ प्रस्तुति – श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। ई -अभिव्यक्ति में प्रत्येक सोमवार आप आत्मसात कर सकेंगे नए साप्ताहिक स्तम्भ कहाँ गए वे लोग के अंतर्गत इतिहास में गुम हो गई विशिष्ट विभूतियों के बारे में अविस्मरणीय एवं ऐतिहासिक जानकारियाँ । इस कड़ी में आज प्रस्तुत है  स्व गणेश प्रसाद नायकके संदर्भ में अविस्मरणीय ऐतिहासिक जानकारियाँ।)

आप गत अंकों में प्रकाशित विभूतियों की जानकारियों के बारे में निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं –

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # १ ☆ कहाँ गए वे लोग – “पंडित भवानी प्रसाद तिवारी” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # २ ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ३ ☆ यादों में सुमित्र जी ☆ श्री यशोवर्धन पाठक ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ४ ☆ गुरुभक्त: कालीबाई ☆ सुश्री बसन्ती पवांर ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ५ ☆ व्यंग्यकार श्रीबाल पाण्डेय ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कहाँ गए वे लोग # ६ ☆ “जन संत : विद्यासागर” ☆ श्री अभिमन्यु जैन ☆

 

☆ कहाँ गए वे लोग # ७ ☆

“स्व गणेश प्रसाद नायक” – लेखक – श्री मनोहर नायक  ☆ संकलन – श्री जय प्रकाश पाण्डेय

माता – पिता को याद करती टिप्पणियों की आत्मीयता प्रसन्न भी करती है और विकल भी… उनमें स्मृतियों का सुखद संसार, माता- पिता के होने की सम्पन्नता  और उन्हें खो देने की टीस होती है… एक बीत गयी निश्छल दुनिया को याद करना होता है ।… पिता गणेश प्रसाद नायक को गये उनतालीस साल हो गये, वे इस समय 111 वर्ष के होते | 24 मार्च 1913 को वे जन्मे थे | माँ गायत्री नायक को गये भी  तेरह साल हो गये |

जबलपुर में 1930 में रानी दुर्गावती  की समाधि पर जाकर स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ने की शपथ के साथ उन्होंने खादी पहनने का संकल्प भी किया था। वे कभी अपने संकल्पों से डिगे नहीं। पारिवारिक दबाव के कारण  गंजबासौदा, भोपाल, जबलपुर में रेलवई की नौकरी की, पर फिर उसे छोड़छाड़ कर आंदोलन में कूद पड़े। घोर ग़रीबी के दिनों में खादी का संकल्प लिया था और तीन काम तय किये थे, पढ़ना, इसके लिए ट्यूशन करना, ताकि आधिकाधिक स्वावलम्बी हों और आज़ादी के लिए काम करना। यह 1930 की बात है, तब वे सत्रह के थे। दो साल बाद खादी दुगनी महँगी हो गयी। पिता ने गाँधीजी को लिखा कि मेरा जैसा छात्र इस गरीबी, महँगाई में खादी का संकल्प कैसे निभाये? उनका पोस्टकार्ड आया, ‘डियर गणेश प्रसाद, वेयर देअर इज़ ए विल, देयर इज़ ए वे। कट शार्ट यूअर एक्सपेंसेस, बापू |’ 

दूसरे विश्व युद्ध में गाँधीजी ने जनता से अपील की कि भारत को उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ युद्ध में घसीटा जा रहा है इसलिए वह युद्ध में धन-जन की कोई मदद न करे। इसके लिए उन्होंने व्यक्तिगत सत्याग्रह शुरू करते हुए सत्याग्रहियों का चुनाव अपने हाथ में लिया। सत्याग्रहियों की नैतिक व चारित्रिक मर्यादाएं निश्चित कीं। सत्याग्रह की विधि निर्धारित की। विनोबाजी को प्रथम सत्याग्रही बनाया। पिता का नाम नगर की पहली सूची में था पर गोविंद दास और द्बारिका प्रसाद मिश्र ने उनसे कहा कि सूची के मुताबिक सत्याग्रह होने पर बाद में तो सत्याग्रह कराने वाला कोई न होगा इसलिए तुम बाद में सत्याग्रह करना, तब तक सत्याग्रही तैयार करो और अपनी परीक्षा भी दे लो। नियम यह था कि सत्याग्रही पुलिस को सूचना देते थे। समय, स्थान बताते थे, पुलिस उन्हें सत्याग्रह करने के पहले ही गिरफ़्तार कर ले जाती थी। मार्च में पिताजी की परीक्षा हो गई। दूसरी लिस्ट तक पुलिस गिरफ़्तार करती रही, लेकिन फिर तीसरी लिस्ट के सत्याग्रहियों की गिरफ़्तारी बंद कर दी। पहले ही नहीं सत्याग्रह के बाद भी गिरफ़्तारी रुक गयी। पिता नई-नई विधि से तब भी गिरफ़्तारी कराते। पिता ने अपने सत्याग्रह का दिन तय कर लिया था पर इसके पहले मूलचंद यादव नाम के सत्याग्रही की गिरफ़्तारी आवश्यक थी। पिताजी ने  एक परचा बनाया कि सरकारी कर्मचारी युद्ध में सहयोग न करें। इसकी कई प्रतियां टाइप करायीं। सत्याग्रही की यूनीफार्म बनायी – सफ़ेद पेंट, सफ़ेद कमीज़, गाँधी टोपी और झोला। सत्याग्रही से कहा कि कचहरी की शांति भंग न करे, न कोई नारा लगाये। सिर्फ़ कहे कि गाँधीजी का संदेश देने आया हूँ। उसे सबसे पहले सिटी मजिस्ट्रेट की अदालत में पूरे सम्मान के साथ पत्र देना था। जब सत्याग्रही पत्र लेकर बाहर निकलने लगा तो मजिस्ट्रेट ने उसे रोककर पुलिस बुलाकर जेल भेज दिया, इसी की उम्मीद थी। इस सत्याग्रही की अनोखी विधि की अख़बारों में चर्चा हुई। लेकिन प्रदेश कांग्रेस कमेटी ने इस विधि को गाँधीजी के विचारों के विपरीत बताकर उस सत्याग्रही को अमान्य कर दिया। पिता ने गाँधीजी को पत्र लिखा कि सत्याग्रहियों की गिरफ़्तारी न होने से यह विधि अपनायी, जोकि किसी भी तरह आपके उसूलों का उल्लंघन नहीं है। उन्होंने गाँधीजी को मजिस्ट्रेट को दिये पत्र की कॉपी भी भेजी। इसके बाद पिता सत्याग्रह करने के पहले ही गिरफ़्तार हो गए। पहले वे जबलपुर जेल में रहे फिर नागपुर भेज दिये गए, जहां उन्हें सूचना मिली कि गाँधीजी ने प्रदेश कांग्रेस के फ़ैसले को रद्द करने का आदेश देते हुए सत्याग्रही को मान्य घोषित किया और कहा कि उस लड़के ने बहुत ही सूझबूझ से काम लिया। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गिरिजाशंकर अग्निहोत्री ने प्रेस को इस फ़ैसले की सूचना दी थी। नागपुर जेल से छूटकर  पिताजी सीधे सेवाग्राम गए। दिन भर गाँधीजी की कुटी के बाहर खड़े रहे। शाम को महादेव देसाई मिले उन्होंने घूमते समय गाँधीजी से भेंट करने को कहा, तभी गाँधीजी कुटी से निकले और पिता पर नज़र पड़ी तो पूछा, कहां से आये हो? नागपुर जेल से सुनकर बोले, तो भोजन कर लो। नागपुर जेल में कैदियों द्बारा काता तीन सेर सूत भेंट करने पर गाँधीजी बोले, ‘बहुत कम काता।’ 

वे मध्यप्रांत और बरार  ( पुराने मध्यप्रदेश, सीपी एंड बरार) स्टुडेंट कांग्रेस के अध्यक्ष रहे, त्रिपुरी कांग्रेस में सेवादल के प्रधान थे | 1939 मैं हरि विष्णु कामथ फ़ार्वर्ड ब्लॉक में ले गए, फिर समाजवादी आंदोलन से जुड़े… फिर जेपी के साथ सर्वोदय और सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन में शामिल हुए… वे मध्यप्रदेश संघर्ष समिति के संयोजक थे| पत्रकारिता भी ख़ूब की ।अमृत पत्रिका, अमृत बाजार पत्रिका, एपी ( एसोशिएटिड प्रेस के संवाददाता रहे। नवभारत में रहे। साप्ताहिक ‘प्रहरी’ के अंतरंग मंडल में रहे। 

पिता ने अनेक बार जेल यात्राएंँ कीं  जिसमें अंतिम आपात्काल के दौरान उन्नीस महीने की थी | कभी उन्होंने पेरोल नहीं लिया, 1944 में भी नहीं जब उनके पिता का निधन हो गया था ,तब भी | अंतिम दर्शन के लिये पेरोल पर आना गवारा न हुआ | वे  सिद्धांतवादी थे… अपने विचारों -कार्यक्रमों पर सख़्त और अडिग… राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के घोर शत्रु… समाजवादी दिनों में पार्टी के स्थानीय नेता विरोध में थे पर उन्होंने ठान लिया कि शहर में गोलवलकर की शोभायात्रा नहीं निकलेगी तो नहीं निकलने दी…  स्टेशन पर ही सारी शोभा ध्वस्त हो गयी |  प्रदेश संघर्ष समिति में भी जनसंघ की चलने नहीं दी, जबकि वह सबसे बड़ी पार्टी थी… उनकी छवि जुझारू  , बेदाग़ नेता की थी… इसलिए उन्हें हटाने की जनसंघी  नेताओं की कोशिशें नाकाम हुईं  … जेपी ने उन्हीं पर भरोसा जताया | 

 समाज और राजनीति को समर्पित रहा , उनका जीवन संघर्षों से भरा रहा। निहित हितों को जीवन-मूल्यों  पर कभी  हावी नहीं होने दिया | जबलपुर में समाजवादियों का वर्चस्व रहा, बाद में नेताओं में राजनीति खुलकर खेली.. . बिना किसी छल-छंद में पड़े वे राजनीति से हट गए, लेकिन जनता में घुले -मिले रहे, हमेशा उसके हक़ में आवाज़ उठाते रहे और 1974 में जनसंघर्ष  में कूद पड़े | … वे अच्छे संगठनकर्ता और ओजस्वी वक्ता थे और  सहज , आत्मीय, ख़ुशमिज़ाज व्यक्ति  |राजनीतिक मतभेदों के बावजूद पुराने मित्रों से पारिवारिकता बनी रही | शहर -प्रदेश में उनकी प्रतिष्ठा थी | परसाईजी ने एक बार मुझसे कहा कि आज इस बात की कल्पना  करना कठिन है कि नायकजी और तिवारीजी ( भवानी प्रसाद) समाज में किस संजीदगी और ईमानदारी से काम करते थे | ग़लत बात उन्हें नापसंद थी, और वे भड़क जाते थे | संघर्ष समिति की भोपाल में पहली बैठक में विजयराजे सिंधिया ने टोकाटाकी की तो नायकजी ने कहा कि आप दिमाग़ से यह बात निकाल दीजिये कि यह किसी रजवाड़े की संघर्ष समिति है | परसाईजी कहते थे नायकजी के होंठों पर हंसी और नाक पर ग़ुस्सा रहता था | वे नागपुर जेल में भी रहे| वहाँ मिलने वाले खाने का विरोध किया, राजनीतिक बंदियों के लिये  अलग रसोई की मांग की, अनशन किया… अंत में सभी मांगे मानी गयी |  नागपुर जेल के साथियों को उपाधियाँ दी गयी थीं नायकजी को दी गयी उपाधि की चार पंक्तियाँ थीं :

झुकी कमर पर ज़ोर दिये

डिक्टेटरशिप का बोझ लिये

सुबह सुबह चरखा कातें

मुँह में मीठे बोल लिए ।

लेखक – श्री मनोहर नायक 

प्रस्तुति –  श्री जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 171 ☆ # “रंगों सा छल ही जायेगा” # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण कविता रंगों सा छल ही जायेगा) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 171 ☆

☆ # कविता – “रंगों सा छल ही जायेगा” # ☆ 

यह रंगों का मौसम

रंगों सा छल ही जायेगा

सहेज लें इस वक्त को बंदे

वर्ना यह पल निकल ही जायेगा

*

चाहे फौलाद सा तन हो

पाषाण सा कठोर मन हो

संघर्षों का भारी घन हो

वक्त के निर्मम थपेड़ों से

दहल ही जायेगा

यह रंगों का मौसम

रंगों सा छल ही जायेगा

*

शब्दों में तेरे दम हो

सिने में तेरे ग़म हो

आंखें तेरी नम हो

तो राह का पत्थर भी

पिघल ही जायेगा

यह रंगों का मौसम

रंगों सा छल ही जायेगा

*

चाहे दिनकर का नक्षत्रों पर राज हो

सृष्टि का सरताज हो

जीवन का आगाज हो

दिनकर दिन में प्रखर हो

पर संध्या को ढल ही जायेगा

यह रंगों का मौसम

रंगों सा छल ही जायेगा

*

किसलिए यह अहंकार हो

द्वेष और तकरार हो

नफ़रत का बाजार हो

यह संकीर्णता का दौर

सब कुछ निगल ही जायेगा

यह रंगों का मौसम

रंगों सा छल ही जायेगा

सहेज लें इस वक्त को बंदे

वर्ना यह पल निकल ही जायेगा /

*

© श्याम खापर्डे 

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – होली पर… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता ‘होली पर…’।)

☆ लघुकथा – होली पर… ☆

गालों पे गुलाब है, गुलाब पे गुलाल है,

कैसे बतलाऊं, कि दिल का क्या हाल है,

मन की उमंग है कि,तन की तरंग है,

लाल लाल टेसुओं में,रंग का कमाल है,

काली काली अखियों में चाहत का रंग है,

कि चाहत के रंग से ये मन भी बेहाल है,

कैसे समझाऊं दिल,दिल पे तो वश नहीं,

सब रंग प्यारे लगें, प्यार का कमाल है.

होली के ये सारे रंग,बिन तेरे बदरंग हैं,

तेरी ही कशिश है,तेरे प्यार का गुलाल है,

राज की ये बात,कैसे, उसको बताऊं मैं,

मेरा ही तो मन है,ये, मेरा ही ख्याल है.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ हे शब्द अंतरीचे # 166 ☆ अभंग… मनं शुद्ध व्हावे ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

महंत कवी राज शास्त्री

?  हे शब्द अंतरीचे # 166 ? 

अभंग…मनं शुद्ध व्हावे ☆ महंत कवी राज शास्त्री ☆

मनी नसे भाव, म्हणे देवा पाव

फुकटचा भाव, काय कामी.!!

*

सर्वच ठिकाणी, स्वार्थ फक्त शोधी

आणिक उपाधी, शोध घेई.!!

*

वरवडे सर्व, क्रिया आणि कल्प

मनात विकल्प, भरलेला.!!

*

उपास तापास, व्रत नि वैकल्य

कैसे ते साफल्य, होईल हो.!!

*

कविराज म्हणे, मनं शुद्ध व्हावे

बाकीचे सोडावे, कृष्णावरी.!!

© कवी म.मुकुंदराज शास्त्री उपाख्य कवी राज शास्त्री

श्री पंचकृष्ण आश्रम चिंचभुवन, वर्धा रोड नागपूर – 440005

मोबाईल ~9405403117, ~8390345500

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ.गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 235 ☆ व्यंग्य – समाज-सेवा पखवाड़ा ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी – ‘गृहप्रवेश’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 235 ☆

☆ व्यंग्य –  समाज-सेवा पखवाड़ा

जब ट्रक उछलता-कूदता गाँव में घुसा तब उसमें खड़े कुर्ता-धोती और टोपी धारी ताली बजा बजा कर रामधुन गा रहे थे। गाँव के बच्चे गाने की धुन सुनकर तमाशा देखने के लिए बाहर निकल आये और विचित्र मुद्राओं में ताली पीटने वालों को कौतूहल से देखने लगे। इतने में सरपंच दुलीचन्द के घर के सामने ड्राइवर ने ब्रेक लगाया, और ताली बजाने वाले भरभरा कर एक दूसरे के ऊपर गिर पड़े।

उनमें से एक किचकिचाकर बोला, ‘हमने त्यागी जी से कहा था कि रामधुन मुँह से गा लेंगे, ताली मत बजवाओ, लेकिन उन्हें तो पूरा ढोंग किये बिना चैन नहीं पड़ता।’

ड्राइवर के बगल वाली खिड़की खोलकर त्यागी जी कूद कर बाहर आ गये। अब तक आवाज़ सुनकर दुलीचन्द भी बाहर आ गये थे। त्यागी जी ने दुलीचन्द को देखकर दोनों हाथ जोड़कर सिर से ऊपर तक उठा लिये, बोले, ‘नमस्ते दुलीचन्द जी।’

त्यागी जी और उनकी टोली को देखकर दुलीचन्द का मुँह उतर गया। अभिवादन का उत्तर देने के बाद उन्होंने पूछा, ‘कैसे पधारे?’

त्यागी जी ने हर्ष से उत्तर दिया, ‘आपके गाँव में समाजसेवा पखवाड़ा मनाना है।’

दुलीचन्द चिन्तित मुद्रा में बोले,  ‘हमारे गाँव की सेवा तो आप कई बार कर चुके। अब किसी दूसरे गाँव की सेवा कर लेते।’

त्यागी जी बोले, ‘आपका गाँव हमारा जाना पहचाना है। आपसे हमारा हृदय मिल गया।अब दूसरे गाँव में कहाँ जाएँ?’

दुलीचन्द ने पूछा, ‘पहले से खबर नहीं दी?’

त्यागी जी ने बत्तीसी दिखायी, बोले, ‘खबर कहाँ से देते? सरकार की ग्रांट इस बार बड़ी देर से मिली। हम तो समझे कि इस साल समाज सेवा नहीं कर पाएँगे।’

दुलीचन्द ने लंबी साँस छोड़ी, बोले, ‘ठीक है, तो फिर हमारी सेवा कर लो।’

त्यागी जी ने पूछा, ‘रुकने का प्रबंध?’

दुलीचन्द ने जवाब दिया, ‘अपने पास तो स्कूल ही है। वहीं इन्तजाम कर देते हैं।’

दुलीचन्द ने स्कूल का एक बड़ा कमरा समाजसेवकों को दे दिया। सब बिस्तर बिछा बिछा कर फैल गये।

त्यागी जी ने देखा राष्ट्रबंधु जी खिड़की से चिपके बाहर देख रहे थे। त्यागी जी ने आवाज़ देकर उन्हें बुलाया। राष्ट्रबंधु अपने पान से लाल दाँत चमकाते हुए आये। त्यागी जी ने बिस्तर के कोने की तरफ इशारा किया, कहा, ‘बैठो।’ राष्ट्रबंधु  बैठ गये।

त्यागी जी हल्के स्वर में बोले, ‘देखो, तुमको तुम्हारी जिद पर ले तो आये हैं, लेकिन यहाँ अपने पर काबू रखकर रहना। तुम्हारी जो लड़कियों के पीछे पगलाने की आदत है उसे यहाँ दिखाओगे तो तुम्हारी तबियत ठीक हो जाएगी और आगे से फिर हम तुम्हें समाज सेवा के लिए नहीं ले जाएँगे।’

राष्ट्रबंधु ने त्यागी जी के चरन पकड़ लिये। बोले, ‘कैसी बातें कर रहे हो दद्दा! हम समझते नहीं क्या? एक शिकायत भी सुन लो तो कान पकड़ के दो ठो लगाना हमारे। हम इतने पागल नहीं हैं।’

त्यागी जी आश्वस्त हो गये। थोड़ी देर में दुलीचन्द आ गये। बैठकर बातें होने लगीं।

त्यागी जी बोले, ‘दुलीचन्द जी, हमारा प्रोग्राम बनवा दो तो कल से काम शुरू करें।’

दुलीचन्द ने पूछा, ‘क्या समाज सेवा करनी है?’

त्यागी जी हँसे, बोले, ‘आप तो ऐसे पूछ रहे हैं जैसे हम पहली बार आये हों। सब पुराने कार्यक्रम हैं। दिन को नालियाँ वालियाँ खोद देंगे या सड़क बना देंगे, किसी मन्दिर का जीर्णोद्धार कर देंगे, शाम को प्रौढ़ शिक्षा का कार्यक्रम हो जाएगा।’

दुलीचन्द बोले, ‘प्रौढ़ शिक्षा तो मुश्किल है। लोग दिन भर खेतों में रहते हैं, शाम को पढ़ने कौन आएगा?’

त्यागी जी दुलीचन्द का हाथ पकड़ कर बोले, ‘ऐसी बात मत करो दुलीचन्द जी। आप चाहो तो सब हो सकता है। चार छः लोग भी जुटा दोगे तो अपना काम बन जाएगा।’

दूसरे दिन सवेरे चार बजे से स्कूल से रामधुन की आवाज़ आने लगी। समाजसेवक सवेरे से रामधुन गा रहे थे। त्यागी जी ने सबको उठाकर बरामदे में बैठा लिया था। वे सब  उबासियाँ लेते ‘रघुपति राघव राजा राम’ गा रहे थे। कुछ अब भी नींद में भरे, दीवार से टिके, आँखें बन्द किये रामधुन के शब्दों पर मुँह चला रहे थे। राष्ट्रबंधु अभी तक बिस्तर में ही थे। वे वहीं से लेटे-लेटे रामधुन गाने लगे। त्यागी जी ने दरवाजे में झाँककर कहा, ‘तुम क्या कर रहे हो?’

‘रामधुन गा रहा हूँ दद्दा!’

‘तुम उठकर बाहर आते हो कि हम आकर एक हाथ लगाएँ?’

राष्ट्रबंधु सिर खुजाते हुए उठे, बोले, ‘आ रहे हैं मेरे बाप।’

सवेरे  आठ बजे समाजसेवक फावड़े ले लेकर गाँव की नालियाँ खोदने निकल पड़े। राष्ट्रबंधु जिस घर के सामने फावड़ा चला रहे थे वहाँ एक युवक बैठा था। वह गुस्से में बोला, ‘भैया, आप हमारे घर को माफ करो। आप आधी दूर तक नाली खोद कर चले जाओगे, फिर हमारे दरवाजे पर पानी ठिला रह जाएगा तो हमें परेशानी हो जाएगी।’

राष्ट्रबंधु बोले, ‘तो हम समाज सेवा न करें क्या?’

युवक बोला, ‘खूब करो। लेकिन समाज सेवा करने को हमारा ही घर बचा है क्या? गाँव में इतने घर हैं, कहीं और करो।’

राष्ट्रबंधु नाराज हो गये, बोले, ‘एक तो सेवा कर रहे हैं, ऊपर से ऐंठ दिखा रहे हो। समाज सेवा पखवाड़ा ना होता तो अभी बताता तुम्हें।’

बातचीत सुनकर दूसरे समाजसेवक वहाँ आ गये। उन्होंने राष्ट्रबंधु को समझाया। राष्ट्रबंधु गुस्से में थे, बोले, ‘बड़ी ऐंठ दिखाता है। मुझे गुस्सा चढ़ेगा तो तीन दिन तक इसी के दरवाजे पर समाज सेवा करता रहूँगा। देखें क्या कर लेता है।’

थोड़ी दूर पर सत्संगी जी अपने घुटनों पर फावड़ा टिकाये त्यागी जी को अपनी हथेलियाँ दिखा रहे थे। ‘देख लो बड़े भैया, घट्टे पड़ गये।’

त्यागी जी बोले, ‘फिकर मत करो। घर पहुँचोगे तो फिर मुलायम हो जाएँगे। अभी से रोओगे तो पंद्रह दिन में तो तुम पसर जाओगे।’

सत्संगी जी दाँत निकाल कर कुर्ते की बाँह से माथे का पसीना पोंछने लगे।

दोपहर तक सब लस्त हो गये। त्यागी जी ने भोजन की छुट्टी दी तो सब कमरे में जाकर चित्त पड़ गये। सत्संगी जी बोले, ‘प्रान निकल गये। हाथ उठाया नहीं जाता, खाना कौन खाएगा?’

राष्ट्रबंधु लंबी साँस छोड़कर बोले, ‘त्यागी जी भी तो खोपड़ी पर चढ़े रहते हैं, जैसे ट्रेन निकली जा रही हो। आदमी थोड़ा सुस्ता सुस्ता के काम करे तो इत्ता नहीं अखरे।’

जैसे तैसे काँखते कराहते भोजन हुआ, फिर सब अपने-अपने हाथ के घट्टे देखते सो गये।

शाम को जनसंपर्क और गाँव के लोगों से वार्तालाप हुआ। उसके बाद प्रौढ़ शिक्षा की तैयारी हुई। दुलीचन्द बोले, ‘प्रौढ़ शिक्षा के लिए किसे लायें? सब तो काम में लगे हैं। वही दो चार बूढ़े टेढ़े मिलेंगे।’

त्यागी जी बोले, ‘बस चार छः  बूढ़े टेढ़े दे दो।’ फिर कुछ याद करके बोले, ‘अरे वे पिछली बार वाली दोनों बुढ़ियाँ तो होंगीं?’

दुलीचन्द बोले, ‘रामप्यारी और रामकली? हाँ, वे तो हैं।’

त्यागी जी उत्साह से बोले, ‘उनको जरूर बुलवा लेना। बेचारी बड़ी श्रद्धा से पढ़ती हैं।’

थोड़ी देर में आठ बूढ़े मर्द- औरतें आ गये। त्यागी जी ने खुद पढ़ाया, पूछा, ‘रामप्यारी, पहले का पढ़ाया कुछ याद है?’

रामप्यारी बोली, ‘सब बिसर गया महाराज। घर में पढ़ती तो बाल बच्चे हँसते रहते।’

‘चलो कोई बात नहीं, हम फिर पढ़ा देते हैं। पढ़ोगी न?’

‘काए न पढ़ेंगे महाराज। हमें कामइ का है। जैसे घर में बैठे हैं ऐसइ घंटा भर हियाँ बैठे रहेंगे।’

त्यागी जी पढ़ाते रहे और बूढ़े बुढ़िया श्रद्धा भाव से सिर हिलाते रहे।

त्यागी जी ने सब साथियों को वहीं बैठा लिया था। थोड़ी देर में उन्होंने देखा रामसेवक जी वहाँ से खिसकने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने पूछा, ‘कहाँ चले?’

रामसेवक जी बोले, ‘थोड़ा टहल आएँ।’

त्यागी जी बोले, ‘कहीं टहलने वहलने नहीं जाना। यहीं बैठो।’

रामसेवक जी मुँह फुला कर बैठ गये।

दूसरे दिन सवेरे सवेरे राष्ट्रबंधु को स्कूल के सामने वही युवक दिख गया जिसके दरवाजे पर उन्होंने समाज सेवा की थी। वे त्यागी जी से बोले, ‘इसकी तबियत जरूर ठीक करनी है। इसे देखकर हमारा खून खौल जाता है।’

त्यागी जी डपट कर बोले,  ‘तुम यहाँ गड़बड़ करोगे तो हम अभी तुम्हें यहाँ से भगा देंगे।’

राष्ट्रबंधु दाँत भींच कर रह गये।

इसी तरह कूल्हते- काँखते  पंद्रह दिन बीत गये। राष्ट्रबंधु कमरे की दीवार पर रोज एक लकीर खींच देते थे और सोते वक्त सत्संगी जी से पूछते थे, ‘हांँ तो दादा, अब कितने दिन बाकी रह गये? ये पंद्रह दिन तो ससुरे पहाड़ हो गये।’

पंद्रहवें दिन त्यागी जी ने जोरदार उत्सव किया। क्षेत्र के विधायक आमंत्रित किए गये। शहर से फोटोग्राफर और समाचार- पत्रों के संवाददाता आये। हाथों में फावड़े लिये पूरी टोली के फोटो खिंचे, भाषण हुए। विधायक महोदय ने त्यागी जी और उनके साथियों के सेवाभाव की भूरि भूरि प्रशंसा की।

समारोह समाप्त होने के बाद ट्रक आ गया। सब सामान लद जाने के बाद समाजसेवक उस पर चढ़ गये। त्यागी जी ने दुलीचन्द को धन्यवाद दिया। गाँववालों की इकट्ठी भीड़ में अपने दुश्मन युवक को देखकर राष्ट्रबंधु ट्रक पर से बोले, ‘बेटा, अभी तो समाजसेवा पखवाड़ा है, इसलिए हम कुछ नहीं बोले। कभी हमारे शहर आना तो हम बताएँगे।’ रामसेवक जी ने उनका मुँह दाब लिया।

ट्रक चल पड़ा और समाजसेवक तालियाँ बजा बजाकर रामधुन गाने लगे। गाँव से बाहर आकर सत्संगी जी बोले, ‘अब बहुत हो गया। बन्द करो रामधुन। कहीं ड्राइवर ने ब्रेक मार दिया तो सबके दाँत टूट जाएँगे।’

और फिर सब आराम से ट्रक के फर्श पर पसरकर बैठ गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा-कहानी ☆ लघुकथा – “भूख के आगोश में ” ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल ☆

डॉ कुंवर प्रेमिल

(संस्कारधानी जबलपुर के वरिष्ठतम साहित्यकार डॉ कुंवर प्रेमिल जी को  विगत 50 वर्षों से लघुकथा, कहानी, व्यंग्य में सतत लेखन का अनुभव हैं। क्षितिज लघुकथा रत्न सम्मान 2023 से सम्मानित। अब तक 450 से अधिक लघुकथाएं रचित एवं बारह पुस्तकें प्रकाशित। 2009 से प्रतिनिधि लघुकथाएं  (वार्षिक)  का  सम्पादन  एवं ककुभ पत्रिका का प्रकाशन और सम्पादन। आपने लघु कथा को लेकर कई  प्रयोग किये हैं।  आपकी लघुकथा ‘पूर्वाभ्यास’ को उत्तर महाराष्ट्र विश्वविद्यालय, जलगांव के द्वितीय वर्ष स्नातक पाठ्यक्रम सत्र 2019-20 में शामिल किया गया है। वरिष्ठतम  साहित्यकारों  की पीढ़ी ने  उम्र के इस पड़ाव पर आने तक जीवन की कई  सामाजिक समस्याओं से स्वयं की पीढ़ी  एवं आने वाली पीढ़ियों को बचाकर वर्तमान तक का लम्बा सफर तय किया है, जो कदाचित उनकी रचनाओं में झलकता है। हम लोग इस पीढ़ी का आशीर्वाद पाकर कृतज्ञ हैं। आज प्रस्तुत हैआपकी  एक विचारणीय, संवेदनशील एवं हृदयस्पर्शी लघुकथा –भूख के आगोश में “.)

💐 जीवेत शरद: शतम् 💐

💐आज 31 मार्च को डॉ कुँवर प्रेमिल जी का 77वां जन्मदिवस है 💐

आप सौ साल जिएं। आपका प्रत्येक दिन मंगलमय हो। सुख-समृद्धि से परिपूर्ण हो।  आपके जीवन में सुख-समृद्धि का आगमन हो। आप यशस्वी बनें। आप समृद्ध बने। आप सदैव स्वस्थ रहें। ई – अभिव्यक्ति परिवार की ओर से आपको आपके जन्मदिन पर शुद्ध अंतकरण से शुभकामनाएं। 🙏

☆ लघुकथा – भूख के आगोश में ☆ डॉ कुंवर प्रेमिल

(विश्व हिंदी साहित्य मॉरीशस की विश्व साहित्य पत्रिका 2023 में प्रकाशित इस लघुकथाके प्रकाशन के साथ ही आपकी 500 लघुकथाएं पूर्ण हुईं। अभिनंदन)

भूखी बेटी को स्तनपान कराती माँ स्वयं भूखी थी। बच्ची बुरी तरह रो रही थी और माँ के स्तन में दूध की अंतिम बूंद खोज रही थी।

माँ अपनी बेटी के भूख से आकुल-व्याकुल चेहरे पर तृप्ति देखने के लिए अपने दूध की अंतिम बूंदें भी कुर्बान कर देना चाहती थी।

‘गा–गूं-गा’ बच्ची, माँ से दूध की कुछेक बूंदों की मनुहार कर रही थी। उसके चेहरे का वात्सल्य क्रमशः गायब होता जा रहा था।

‘खजाना खाली है पुत्तर’ कहकर न जाने कब की भूखी माँ बेहोश हो गई। भूख के आगोश में माँ-बेटी दोनों ही बेहोश पाई गईं।

बेटी के मुंह में अपनी जीवनदायिनी का स्तन लगा हुआ था और माँ की आँखों से विवशता के आँसू बाहर निकल पड़ने को आतुर दिखाई दे रहे थे।

❤️

© डॉ कुँवर प्रेमिल

संपादक प्रतिनिधि लघुकथाएं

संपर्क – एम आई जी -8, विजय नगर, जबलपुर – 482 002 मध्यप्रदेश मोबाइल 9301822782

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 234 – ताकि सनद रहे ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 234 ☆ ताकि सनद रहे ?

अक्टूबर 2023 की बात है। झारखंड के देवघर में स्थित ज्योतिर्लिंग के दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हुआ। देवघर ऐसा तीर्थस्थान है जहाँ ज्योतिर्लिंग और शक्तिपीठ साथ-साथ हैं। देवघर से राँची की ओर लौटते समय परिजनों के साथ डुमरी में चाय पीने के लिए रुके। सड़क के दूसरी ओर कुछ छोटी-छोटी दुकानें थीं। सड़क पार कर मैं चाय की दुकान पर पहुँचा। बिस्किट, खाने-पीने का कुछ सामान, वेफर्स आदि दुकान में बिक्री के लिए थे। दुकान के सामने ही बड़ी-सी तंदूरनुमा अंगीठी थी, जिस पर दुकान का मालिक चाय बना रहा था। कुल मिलाकर ‘टू इन वन’ व्यवस्था थी। कुछ ग्राहक चाय तैयार होने की प्रतीक्षा में खड़े थे। कम चीनी की चाय का आर्डर देकर मैं भी प्रतीक्षासूची में सम्मिलित हो गया। तभी दुकान से सामान खरीदने के लिए एक ग्राहक आ गया। दुकानदार चाय छोड़कर दुकान में घुसा और ग्राहक को सामान देने लगा। इधर चाय उफनने पर आ गई। प्रतीक्षारत एक ग्राहक ने तपाक से चाय अंगीठी से उतार कर दूसरी ओर रख दी। दुकानदार आया और फिर चाय उबालने लगा।

बहुत सामान्य घटना थी किंतु यदि बड़े शहरों के परिप्रेक्ष्य में देखें, जहाँ होटल के दरवाज़े भी दरबान खोलते हों, वहाँ ग्राहक द्वारा उफनती चाय को चूल्हे से उतार कर रख देना, असामान्य ही कहा जाएगा।

स्मरण आता है कि प्रसिद्ध साहित्यकार गोविंद मिश्र जी ने किसी कार्यक्रम में एक क़िस्सा सुनाया था। वे एक बार सब्ज़ी खरीदने गए थे। खरीदारी के बाद संभवत: सौ का नोट सब्ज़ीवाले को दिया। इधर सब्ज़ीवाला सौ के नोट का छुट्टा लेने दूसरे सब्ज़ीवाले के पास गया, उधर एक ग्राहक ने आकर सब्ज़ी के दाम मिश्र जी से पूछे। मिश्र जी ने वही सब्ज़ी खरीदी थी। सो दाम बताए और ग्राहक ने जितनी सब्ज़ी मांगी, तराजू उठाकर तौल दी। मिश्र जी को जानने वाले कुछ लोगों ने इस घटना को देखा और उनकी यह सहजता  चर्चा का विषय भी बनी।

वस्तुत: सहजता हमारा मूलभूत है। विसंगति यह कि अब सहजता को कृत्रिमता में बदलने की होड़ है।  कहा जाता है कि आभिजात्य तो तुरंत आ जाता है पर गरिमा आने में समय लगता है। मनुष्य की गरिमा, मनुष्यता में है। आभिजात्य कितना ही सर चढ़कर बोले, स्मरण रखना कि मूलभूत में परिवर्तन नहीं होता, ‘बेसिक्स नेवर चेंज।’

सारा जीवन एयर कंडीशन में गुज़ारनेवाले का अंतिम संस्कार ‘एयरकंडीशंड’ नहीं हो सकता। दाह तो अग्नि में ही होगा। अग्नि मूलभूत है। छोटी से छोटी दूरी फ्लाइट से तय कर लो पर पैदल चलना सदा ‘बेसिक’ रहेगा। चेक-इन करते समय या हवाई अड्डे से बाहर आते हुए पदयात्रा तो करनी ही पड़ेगी।

सहजता अंतर्निहित है। अंतर्निहित को बदलने का प्रयास करोगे तो मनुष्य कैसे रह पाओगे? यह जो अहंकार ओढ़ते हो;  पद-प्रतिष्ठा, कथित नाम का, सब का सब धरा रह जाता है। मृत्यु सब लील जाती है। अपनी लघुत्तम कथा ‘नो एडमिशन’ याद हो आई है। कथा कुछ इस प्रकार है-

“…. ‘नो एडमिशन विदाउट परमिशन’, अनुमति के बिना प्रवेश मना है, उसके केबिन के आगे बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था। निरक्षर है या धृष्ट, यह तो जाँच का विषय है पर पता नहीं मौत ने कैसे भीतर प्रवेश पा लिया। अपने केबिन में कुर्सी पर मृत पाया गया वह….।”

प्रकृति की दृष्टि में राजा या रंक किसी का अवशेष, विशेष नहीं होता। अपनी कविता ‘माप’ साझा करता हूँ-

काया का खेल सिमट गया है

अब होकर राख मुट्ठी भर..,

यह वही आदमी है,

जो खुद को माप की परिधि से

बड़ा समझना रहा जीवन भर …!

इसलिए कहता हूँ कि अभिजात्य से मुक्ति पाओ, अहंकार से मुक्ति पाओ। काया के साथ राख का समीकरण जीवन रहते समझ जाओ।

इस राख को याद रखोगे तो परिधि में रहना भी आ जाएगा। आगे चलकर यह राख भी नदी के पानी में समाकर विलुप्त हो जाती है। सनद रहे कि शाश्वत सत्य का स्मरण, मनुष्यता और मनुष्य की सहजता का विस्मरण नहीं होने देगा। इति।

© संजय भारद्वाज 

(प्रातः 4:51बजे, 30.03.2024)

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ महाशिवरात्रि साधना पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। अगली साधना की जानकारी से शीघ्र ही आपको अवगत कराया जाएगा। 🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 181 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 181 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 181) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 181 ?

☆☆☆☆☆

इस सफ़र में

नींद ऐसी खो गई

हम न सोए

रात थक कर सो गई …

☆☆

In this sojourn of life…

Lost sleep like this

Never could I sleep

Tired night only slept off…

☆☆☆☆☆

हर रोज़ ख़ुद पे ही बहुत…

हैरान बहुत होता हूँ मैं

कोई तो है मुझ में  जो…

बिल्कुल ही जुदा है मुझ से…!

☆☆

Everyday  I  keep  getting

too  surprised  on  myself…

There’s someone in me who’s

completely different from me…

☆☆☆☆☆

सारी उम्र गुजर गयी……

खुशियाँ बटोरते बटोरते

बाद में पता चला कि

खुश तो वो लोग थे

जो खुशियाँ बाट रहे थे…

☆☆

Whole life passed away in

Picking up  the  happiness…

Only to find happy were those

Who kept sharing happiness..!

☆☆☆☆☆

कौन कहता है कि

दिल सिर्फ सीने में होता है…

तुमको लिखूँ तो

मेरी उँगलियाँ भी धड़कती हैं…

☆☆

Who says that

Heart is in chest only

My fingers also throb

When I write to you…!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 180 ☆ नवगीत: गीत पुराने छायावादी ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है नवगीत: गीत पुराने छायावादी )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 180 ☆

☆ नवगीत: गीत पुराने छायावादी ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

गीत पुराने छायावादी

मरे नहीं

अब भी जीवित हैं.

तब अमूर्त

अब मूर्त हुई हैं

संकल्पना अल्पनाओं की

कोमल-रेशम सी रचना की

छुअन अनसजी वनिताओं सी

गेहूँ, आटा, रोटी है परिवर्तन यात्रा

लेकिन सच भी

संभावनाऐं शेष जीवन की

चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.

बिम्ब-प्रतीक

वसन बदले हैं

अलंकार भी बदल गए हैं.

लय, रस, भाव अभी भी जीवित

रचनाएँ हैं कविताओं सी

लज्जा, हया, शर्म की मात्रा

घटी भले ही

संभावनाऐं प्रणय-मिलन की

चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.

कहे कुंडली

गृह नौ के नौ

किन्तु दशाएँ वही नहीं हैं

इस पर उसकी दृष्टि जब पडी

मुदित मग्न कामना अनछुई

कौन कहे है कितनी पात्रा

याकि अपात्रा?

मर्यादाएँ शेष जीवन की

चाहे थोड़ी पर जीवित हैं.

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२८.११.२०१५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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