हिन्दी साहित्य – कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… होली… ☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ 

(साहित्यकार श्रीमति योगिता चौरसिया जी की रचनाएँ प्रतिष्ठित समाचार पत्रों/पत्र पत्रिकाओं में विभिन्न विधाओं में सतत प्रकाशित। कई साझा संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित। दोहा संग्रह दोहा कलश प्रकाशित, विविध छंद कलश प्रकाशनाधीन ।राष्ट्रीय/अंतरराष्ट्रीय मंच / संस्थाओं से 200 से अधिक सम्मानों से सम्मानित। साहित्य के साथ ही समाजसेवा में भी सेवारत। हम समय समय पर आपकी रचनाएँ अपने प्रबुद्ध पाठकों से साझा करते रहेंगे।)  

☆ कविता ☆ प्रेमा के प्रेमिल सृजन… होली☆ श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’ ☆

(अमृतध्वनि छंद)

होली के त्यौहार में, खेले रंग अबीर ।

मीत मिले हिय ढूँढ़ता, नैना सहते पीर ।।

नैना सहते , पीर तड़पते, आना सजना ।

रोते नैना, खोते चैना, अब जग तजना ।।

खिल अमराई, बनी जुदाई ,हिय को खोली ।

कोयल बोले, मन जो डोले, खेले होली ।।1!!

कहते रंगों को उड़ा, जीवन का मधुमास ।

रंग बिरंगे मुँह दिखे, फागुन गाते खास ।।

फागुन गाते, सब हर्षाते, चलती टोली ।

खेले होली, जो हमजोली, भर-भर झोली ।।

है मनभावन, सदा सुहावन, अहता रहते।

प्यारा भारत, श्रेष्ठ सुहावत, महता कहते ।।2!!

नृप हिरण्यकश्यप हुआ, दुष्ट बड़ा ही भूप ।

जनम लिया प्रहलाद ने, सुंदर सज्जित रूप ।।

सुंदर सज्जित, रूप सुवासित ,जीवन जीता ।

हरि का दर्शन, हिय कर अर्पन, अंतस रीता ।।

पितु जो रोधी, बनते शोधी, वत्स त्याग दृप ।

अंतस क्रोधित ,अंहम लोभित, ऐसे थे नृप ।।3!!

 

© श्रीमति योगिता चौरसिया ‘प्रेमा’

मंडला, मध्यप्रदेश

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-10 – उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-10 – उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

मित्रो, जालंधर, एक ऐसा शहर, जहाँ मेरा साहित्यिक जीवन शुरू हुआ। यही वह शहर है, जहाँ मैंने साहित्य में अच्छे- बुरे, खट्टे- मीठे अनुभव प्राप्त किये! यही वह शहर है, जहाँ मैंने साहित्य व साहित्यकारों के चेहरों को बड़े गौर से देखना और समझना शुरू किया।

इन चेहरों में डाॅ चंद्रशेखर भी एक हैं, जो लायलपुर खालसा काॅलेज, जालंधर में हिंदी विभाग के अध्यक्ष थे और‌ उन्होंने पंजाब में हिंदी के लिए बहुत ज्यादा योगदान दिया – एक मिशनरी की तरह! वे मेरी मुंह बोली बहन‌ डाॅ देवेच्छा के पति थे और मेरा जालंधर में एक ठिकाना इनका घर‌ भी था, जो बस स्टैंड के दायीं‌ ओर रणजीत नगर में था। वे गुरु नानक देव विश्वविद्यालय से बीए के उन छात्रों को चुनते जिनके बहुत अच्छे अंक आये हों! संयोग से एक वर्ष ऐसा आया जब विश्वविद्यालय में बीए अंतिम वर्ष में मैं 76‌ अंक लेकर सर्वप्रथम था, तो वे जब नवांशहर आये देवेच्छा जी के पास तो मुझे बुला कर खालसा काॅलेज में हिंदी एम ए में दाखिला लेने के लिए कहा ! इस पर मेरी बहन ने कहा कि कमलेश नहीं जा सकता जालंधर! इसकी परिस्थितियां ऐसी नहीं! इसके पिता नहीं रहे और‌ घर में बड़ा बेटा होने के कारण शहर छोड़कर नहीं जा सकता और यह मेरे पास बी एड करेगा , बाद में कोई भी डिग्री ले ले! इस तरह मैंने बीएड की लेकिन मेरा आना जाना बना रहा। ‌रणजीत नगर के आवास की सीढ़ियां तय करते मैंने मोहन सपना, सेवा सिंह, कैलाश नाथ भारद्वाज, कुलदीप अग्निहोत्री और हिमाचल के गौतम व्यथित को न केवल देखा बल्कि जाना और समझा! डाॅ चंद्रशेखर अपने छात्रों को बहुत प्यार करते थे और‌ कैलाश नाथ भारद्वाज के संपादन में ‘ रक्ताभ’ पत्रिका भी फगवाड़ा से शुरू करवाई । वे आकाशवाणी, जालंधर के निर्देशक विश्ववर्धन प्रकाश दीक्षित ‘बटुक’ के साथ अच्छे से घुले मिले थे और‌ मुझ जैसे न जाने कितने नये लेखकों को आकाशवाणी के स्टुडियो तक पहुँचाया ! वे तब आकाशवाणी के लिए खूब ‘ध्वनि नाटक’ लिखते थे, जिनमें मुझे ‘ कटा नाखून’ की याद है!  उन्हें ध्वनि नाटकों पर राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिले‌! इसी तरह डाॅ चंद्रशेखर हिंदी को लेकर बहुत भावुक होकर कहते थे कि

यह हिंदी सिर्फ हिंदी नहीं है

यह भारत माता के माथे की बिंदी है!

उन्होंने मुझे अपने छात्रों जैसा ही स्नेह दिया, बेशक हिंदी एम ए नहीं की बल्कि बी एड के बाद हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से पत्राचार से हिंदी एम ए कर सका! वे मुझे काॅलेज के हर कार्यक्रम में आमंत्रित करते! इस तरह मैं उनके छात्रों के करीब आता गया !  वे एक आदर्श प्राध्यापक थे, जो अपने प्रिय शिष्यों को सिर्फ हिंदी ही नहीं पढ़ाते थे बल्कि उनकी ज़िंदगी भी संवारते थे और रचनायें भी! ‌डाॅ चंद्रशेखर ने पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह की जीवनी भी लिखी और उनसे राष्ट्रपति भवन में पंजाब के लेखकों को सम्मानित भी करवाया!

आज डाॅ कैलाश नाथ भारद्वाज पंजाब हिंदी साहित्य अकादमी को चला रहे हैं और‌ डाॅ चंद्रशेखर की स्मृति में सम्मान प्रदान करते हैं, जो सम्मान मुझे भी एक वर्ष यह प्रदान किया गया ! डाॅ सेवा सिंह गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, अमृतसर के हिंदी विभाग में रहे और आजकल कपूरथला में रहते हैं। इसी प्रकार डाॅ कुलदीप अग्निहोत्री आजकल‌ हरियाणा साहित्य अकादमी के कार्यकारी उपाध्यक्ष हैं। वे अच्छे विचारक भी हैं।  वे पंजाब स्कूल एजुकेशन बोर्ड के उपाध्यक्ष ह नहीं बल्कि धर्मशाला (हिमाचल) के केन्द्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति भी रह चुके हैं।

यही नहीं डाॅ गौतम व्यथित हिमाचल से ‘बागेश्वरी’ पत्रिका निकाल रहे हैं जिसमें वे मुझसे भी बहुत प्यार से रचनाएँ आमंत्रित करते हैं। इसी प्रकार इनके प्रिय शिष्यों में से एक मोहन सपरा जो नकोदर के डी ए वी काॅलेज में हिंदी विभाग के वर्षों अध्यक्ष रहे और‌ नकोदर से ही, ‘फिर’ नाम से हिंदी पत्रिका निकालते रहे और पिछले कई वर्षों से वे जालंधर में बसे हुए हैं। ‘फिर’ का स़पादन बहुत अच्छा होने के बावजूद कभी मोहन सपरा इसे नियमित प्रकाशित नहीं कर पाये ! उन्होनें’ आस्था प्रकाशन भी शुरू किया पर प्रकाशित कृतियों को बेचने के पैंतरे नहीं जानते या अपनाते! जिससे वे प्रकाशन तो करते हैं लेकिन विक्रय नहीं कर पाते। उनकी प्रकाशन की समझ बहुत बढ़िया है। उन्होंने मेरी इंटरव्यूज की पुस्तक ‘ यादों की धरोहर’ के दो संस्करण प्रकाशित किये! उन्हें यह मलाल है कि शानदार लंबी कवितायें लिखने के बावजूद उनका लंबी कविता में कोई खास जिक्र नहीं!

चलिए, इस बात को छोड़कर उनके कवि पक्ष की बात करते हैं। उनकी पहली काव्य कृति थी ‘कीड़े’ और फिर हाल ही के वर्षों में प्रेम के रंग भी खूब चर्चित रही। अनेक काव्य संकलन और पंजाब शिरोमणि साहित्यकार होने के साथ साथ वे हरियाणा साहित्य अकादमी से भी सम्मानित हो चुके हैं! हरियाणा के वरिष्ठ आईएएस रमेंद्र जाखू को  साहित्यिक क्षेत्र में लाने में बड़ा सहयोग दिया!

आज लगता है कि डाॅ चंद्रशेखर स्कूल के सभी छात्रों को मैंने याद करने की छोटी सी कोशिश भर की है! हां, आज आंखें भीग गयीं डाॅ चंद्रशेखर को याद करते क्योंकि वे सन्‌1989 में 29 अगस्त को दिल्ली से अपनी कार‌ ड्राइव करते लौट रहे थे कि करनाल के निकट हरियाणा रोडवेज की बस से सीधी टक्कर में वे हमसे बिछड़ गये!

अब आज आगे लिख पाना बहुत मुश्किल लग रहा है और डाॅ चंद्रशेखर को याद करते इतना ही कहूँगा :

उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो

न जाने किस गली में

ज़िंदगी की शाम हो जाये!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #228 – 115 – “कहता जंग जीती है मैंने, अरे जीतकर हारा है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल कहता जंग जीती है मैंने, अरे जीतकर हारा है…” ।)

? ग़ज़ल # 114 – “कहता जंग जीती है मैंने, अरे जीतकर हारा है…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ये हमने  जो गुजारा है,

ये जीवन है या कारा है।

*

न आज़ाद  परिंदों जैसा,

देह  घरौंदा  हमारा  है।

*

क्यों अब तू हैरान रहता,

यही  पिंजर  गवारा है।

*

प्यार कभी  न ठुकराना,

न फिर मिलना दुबारा है।

*

यहीं   झगड़ेंगे  उलझेंगे,

न  कोई  दूसरा चारा है।

*

कहता जंग जीती है मैंने,

अरे  जीतकर  हारा  है।

*

है आतिश की क़िस्मत वही,

बुझना  सबको  न्यारा  है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 107 ☆ मुक्तक – ।। बीत गई सदियां होली जैसा कोई उपहार नहीं है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 107 ☆

☆ मुक्तक – ।। बीत गई सदियां होली जैसा कोई उपहार नहीं है ।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

हर रंग है मस्त   फाग   की फुहार है।

हर रंग से रंगीन   रंगों  की बौझार है।।

भंग की गोली  हुरियारों की है टोली।

लाल पीला नीला सा  हर क़िरदार है।।

[2]

भीग कर भी आदमी हो रहा निहाल है।

कपड़ों का सबके हो   रहा बुरा हाल है।।

गिर रही दीवार   गले   मिल रहें हैं लोग।

अब मनमुटाव का  बचा नहीं सवाल है।।

[3]

छोटे बड़ेआज सबका ही ऊंचा जलाल है।

होलिका नफरत दहन करने का ख्याल है।।

हर गम भुला दिया है होली   के धमाल में।

उड़ रहा हर ओर ही   गुलाल ही गुलाल है।

[4]

नशीली रंगभरी बयारी छा जाती है होली में।

हर आदमी पर खुमारी छा लाती है होली में।।

बेल बूटे हर फूल पत्ते पर झूमती है नई रंगत।

हर किसी पर मस्त सवारी छा पाती है होली है।।

[5]

सीने में किसी के मलाल सवाल बाकी नहीं है।

कोई भी धमाल    होली में रहता बाकी नहीं है।।

सारी फिजा बन जाती है एक खूबसूरत नजारा।

दिलों में नफरती मैला गुलाल रहता बाकी नहीं है।।

[6]

पवित्र पावन पर्व होली जैसा कोई त्यौहार नहीं है।

दिल को दिल से जोड़ने वाला कोई व्यवहार नहीं है।।

होली स्नेह प्रेम मिलन का है नायाब अनोखा उत्सव।

बीत गई सदियां होली    जैसा कोई  उपहार नहीं है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 169 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “बड़ा कौन है?…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “बड़ा कौन है?..। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – कविता – “बड़ा कौन है?” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

बड़ा नहीं बनता है कोई पद से या अधिकार से

बड़ा कहा जाता है मानव मन के सोच-विचार से।

 *

जिनके मन में दयाभाव औ करुणा का आगार है

उनका आदर करता आया सदा सकल संसार है।

 *

महावीर, गौतम औ’ गाँधी तीनों बड़े उदार थे

इससे माने जाते सबसे बड़े संत संसार के ।

 *

मिला बड़प्पन कभी न राजा, सिंहासन या ताज को

दिया बड़प्पन दुनिया ने मन की मीठी आवाज को।

 *

कभी झलकता नहीं बड़प्पन कोई आकार प्रकार से

पर सौंदर्य निखरता दिखता मन के ममता-प्यार से।

 *

छोटा हो भी बड़ा वही है जिसकी प्रेमल रहा

जिसके मन परिवार पड़ौसी औ’ जग की परवाह।

 *

छोटा-बड़ा हुआ करता है मानव निज व्यवहार से

नहीं कभी भी धन संग्रह से, पद से या अधिकार से।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – पुस्तकांवर बोलू काही ☆ मांडवावरची वेल – लेखिका – डॉ. ज्योती गोडबोले ☆ परिचय – सौ. प्रभा हर्षे ☆

सौ. प्रभा हर्षे

☆ पुस्तकांवर बोलू काही ☆ 

☆ मांडवावरची वेल – लेखिका – डॉ. ज्योती गोडबोले ☆ परिचय – सौ. प्रभा हर्षे ☆ 

पुस्तक : मांडवावरची वेल

लेखिका : डॉ. ज्योती गोडबोले

प्रकाशक : अमित प्रकाशन, पुणे.

पृष्ठसंख्या : १९०

किंमत :    रू ३७०

डॉ. ज्योती गोडबोले

कविता, कथा कादंबरी आदी वाडंःमय प्रकार आपण नेहमी वाचत असतो. आणि  त्यात लघुकथा आवडीने वाचल्या जातात. लघुकथेचा विषय  छोटासा पण लक्ष वेधून घेणारा असल्याने मनात रेंगाळत रहातो.  डॉ.ज्योती गोडबोले यांचा ‘मांडवावरची वेल’ हा असाच एक लघुकथा संग्रह आहेत. 

डॉ. ज्योती या व्यवसायाने डॉक्टर असल्याने लोकांशी संपर्क तर रोजचाच. त्यातही वैविध्य फार ! वय, जात आणि स्त्री पुरुष फरक ज्याचा परिणाम माणसाच्या वागणुकीत दिसत असतो.  त्याचे वेगळेपण टिपणे आणि ते कथारुपाने वाचकांपर्यंत पोचवणे यात डॉ ज्योती अगदी यशस्वी झाल्या आहेत. 

डॉक्टरांकडे येणारा पेशंट हा त्याची व्याधी तर घेऊन येतोच पण खूपदा मनाची दुखणी खुपणी ही त्यांना सागतो, त्यांच्याकडून काही दिलासा मिळतोय का याची वाट बघतो. ‘ देव तारी त्याला ‘ या कथेतील रोजंदारीवर काम करणाऱ्या बाईचे जेमतेम १ किलो वजनाचे बाळ कसं वाचलं आणि पोलिस इन्स्पेक्टर झालं  ही कथा,  किंवा ‘ वठलेला मोहर ‘ ही अरूणाची कथा, या कथा वाचकांनाही आपल्यासमोर घडताहेत असे  वाटावे इतके जिवंत चित्रण लेखिकेने केले आहे.

इतक्या वेगवेगळ्या विषयांवर कथा त्यांनी लिहिल्या आहेत कि त्यांच्याबरोबर आपणही जग फिरुन येतो.
परदेशात स्थायीक झालेली भारतीय मुलगी व तिचा अमेरिकेन नवरा यांची ‘ मायबाप ‘ ही  कथा आपल्याला एका वेगळ्या संस्कृतीत वाढलेल्या व्यक्तीला आपले संस्कार कसे लोभसवाणे वाटतात हे सांगते, तर ‘ रॉबर्ट आमचा शेजारी ‘ ह्या कथेत त्या एका  जिद्दी निग्रो डॉक्टरची मनापासून तारीफ करतात .  अशाच प्रकारची ‘ गराजसेल ‘ किंवा ‘ डाउनसायझिंग ‘ ह्या कथाही परदेशातील परिस्थितीचे वेगळे विषय मांडतात.

या दोन्हीपेक्षा वेगळे आहे ते त्यांचे समृद्ध भावविश्व ! माणसाच्या मनाचे कंगोरे कोपरे त्यांना सहज दिसतात आणि आपल्या प्रवाही भाषेत ते त्या मांडतातही … इतक्या सुबकपणे की अशा कथांना अगदी सहजपणे दाद दिली जाते. 

‘ झोपाळ्यावर ‘ ही कथा अशीच सुंदर आहे. झोपाळ्याच्या सुरेल व सुरेख आठवणी  त्यांनी सांगितल्या आहेत . तशीच एक छान गोष्ट म्हणजे ‘ ओंकारची शेळी ! ‘ खेड्यात रहाणारा ओंकार शेळीसाठी हट्ट करतो, आईच्या सगळ्या अटी पाळून अगदी प्रेमाने शेळीची काळजी घेतो. ती शेळीच त्याच्या शिक्षणाचा आधार बनते. 

अजून एक प्रेरणादायी कथा मांडवावरची वेल ही शीर्षक कथा…. एक नाजुक साजूक वेल, पण जर तिला मांडवाचा घट्ट आधार मिळाला तर ती कशी बहरते, फुलते-फळते हे समजण्यासाठी पुस्तकच वाचायला पाहिजे. 

या कथा संग्रहात एकूण पस्तीस कथा आहेत. सर्व कथांची मांडणी नेटकी असून कथेची गोडी वाढवणारे आहे.

अशा रितीने, अगदी हलक्या फुलक्या पण वाचता वाचता सहज शिक्षण देणाऱ्या या संग्रहातल्या कथा वाचताना वाचकाच्या मनात एक विचार शलाका नक्कीच जागृत करणाऱ्या आहेत.  हा कथासंग्रह  सादर करून डॉ. ज्योती  यांनी आपले अनुभव उत्तम प्रकारे शेअर केले आहेत. त्यांचे हे अनुभव तुम्हीही वाचावेत अशी माझी प्रामाणिक इच्छा आहे.

परिचय : सुश्री प्रभा हर्षे 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #224 ☆ ख़ामोशियों का सबब… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक विचारणीय आलेख ख़ामोशियों का सबब। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 224 ☆

ख़ामोशियों का सबब… ☆

‘कुछ वक्त ख़ामोश होकर भी देख लिया हमने /  फिर मालूम हुआ कि लोग सच में भूल जाते हैं’ गुलज़ार का यह कथन शाश्वत् सत्य है और आजकल ज़माने का भी यही चलन है। ख़ामोशियाँ बोलती हैं, जब तक आप गतिशील रहते हैं। जब आप चिंतन-मनन में लीन हो जाते हैं, समाधिस्थ अर्थात् ख़ामोश हो जाते हैं, तो लोग आपसे बात तक करने की ज़ेहमत भी नहीं उठाते। वे आपको विस्मृत कर देते हैं, जैसे आपका उनसे कभी संबंध ही ना रहा हो। वैसे भी आजकल के संबंध रिवाल्विंग चेयर की भांति होते हैं। आपने तनिक नज़रें घुमाई कि सारा परिदृश्य ही परिवर्तित हो जाता है। अक्सर कहा जाता है ‘आउट ऑफ साइट, आउट ऑफ माइंड।’ जी हाँ! आप दृष्टि से ओझल क्या हुए, मनोमस्तिष्क से भी सदैव के लिए ओझल हो जाते हैं।

सुना था ख़ामोशियाँ बोलती है। जी हाँ! जब आप ध्यानस्थ होते हैं, तो मौन हो जाते हैं और बहुत से विचित्र दृश्य आपको दिखाई देने पड़ते हैं और बहुत से रहस्य आपके सम्मुख उजागर होने लगते हैं। उस स्थिति में अनहद नाद के स्वर सुनाई पड़ने लगते हैं तथा आप अपनी सुधबुध खो बैठते हैं। दूसरी ओर यदि आप चंद दिनों तक ख़ामोश अर्थात् मौन हो जाते हैं, तो लोग आपको भुला देते हैं। यह अवसरवादिता का युग है। जब तक आप दूसरों के लिए उपयोगी है, आपका अस्तित्व है, वजूद है और लोग आपको अहमियत प्रदान करते हैं। जब उनका स्वार्थ सिद्ध हो हो जाता है, मनोरथ पूरा हो जाता है, वे आपको दूध से मक्खी की भांति निकाल फेंक देते हैं। वैसे भी एक अंतराल के पश्चात् सब फ्यूज़्ड बल्ब हो जाते हैं, छोटे-बड़े का भेद समाप्त हो जाता है और सब चलते-फिरते पुतले नज़र आने लगते हैं अर्थात् अस्तित्वहीन हो जाते हैं। ना उनका घर में कोई महत्व रहता है, ना ही घर से बाहर, मानो वे पंखविहीन पक्षी की भांति हो जाते हैं, जिन्हें सोचने-समझने व निर्णय लेने का अधिकार नहीं होता।

बच्चे अपने परिवार में मग्न हो जाते हैं और आप घर में अनुपयोगी सामान की भांति एक कोने में पड़े रहते हैं। आपको किसी भी मामले में हस्तक्षेप करने व सुझाव देने का अधिकार नहीं रहता। यदि आप कुछ कहना भी चाहते हैं, तो ख़ामोश रहने का संदेश नहीं; आदेश दिया जाता है और आप मौन रहने को विवश हो जाते हैं।  ख़ामोशियों से बातें करना आपकी दिनचर्या में शामिल हो जाता है। आपको आग़ाह कर दिया जाता है कि आप अपने ढंग व इच्छा से अपनी ज़िंदगी जी चुके हैं, अब हमें अपनी ज़िंदगी चैन-औ-सुक़ून से बसर करने दो। यदि आप में संयम है, तो ठीक है, नहीं है, तो आपको घर से बाहर अर्थात् वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा दिया जाता है। वहाँ आपको हर पल प्रतीक्षा रहती हैं उन अपनों की, आत्मजों की, परिजनों की और वे उनकी एक झलक पाने को लालायित रहते हैं और एक दिन सदा के लिए ख़ामोश हो जाते हैं और इस मिथ्या जहान से रुख़्सत हो जाते हैं।

अतीत बदल नहीं सकता और चिंता भविष्य को संवार नहीं सकती। इसलिए भविष्य का आनंद लेना ही श्रेयस्कर है। उसमें जीवन का सच्चा सुख निहित है। परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इसलिए ‘जो पीछे छूट गया है, उसका शोक मनाने की जगह जो आपके पास है, आपका अपना है; उसका आनंद उठाना सीखें’, क्योंकि ‘ढल जाती है हर चीज़ अपने वक्त पर / बस व्यवहार और लगाव ही है / जो कभी बूढ़ा नहीं होता। किसी को समझने के लिए भाषा की आवश्यकता नहीं होती, कभी-कभी उसका व्यवहार बहुत कुछ कह देता है। मनुष्य जैसे ही अपने व्यवहार में उदारता व प्रेम का समावेश करता है, उसके आसपास का जगत् सुंदर हो जाता है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

23 फरवरी 2024**

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #224 ☆ – बसंत… – ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  आपकी कविता बसंत)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 224 – साहित्य निकुंज ☆

☆ बसंत… ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

बसंत आता है

मन को लुभाता है

चहुँ ओर

फ़ैल रही है हरियाली

झूम रही है डाली डाली

धरती ने हरीतिमा का किया शृंगार

मन में उठी उमंग की फुहार

प्रेम प्यार की कोपलें फूटी

खिलने लगे फूल और कलियाँ

छा गई सब ओर खुशियाँ

फ़ैली है बसंत की महक

गूंज रही पक्षियों की चहक

जीवन में खिलने लगे नये रंग

लगा लिया कलियों ने अंग

देखो आ गया बसंत

आ गया बसंत।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #207 ☆ आलेख – विश्व जल दिवस विशेष – बिन पानी.! मुश्किल जिंदगानी..! ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख बिन पानी.! मुश्किल जिंदगानी..! आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 207 ☆

☆ आलेख – विश्व जल दिवस विशेष – बिन पानी.! मुश्किल जिंदगानी..! ☆ श्री संतोष नेमा ☆

विख्यात कवि रहिमन जी ने कहा है कि –

रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।

पानी गए न ऊबरै, मोती, मानुष, चून॥

अर्थात पानी के बगैर सब कुछ बेकार सा है आजकल हम देख रहे हैं कि आदमी के अंदर का पानी तो खत्म हो ही रहा है.! पर ये बाहरी पानी भी ऑक्सीजन पर नजर आ रहा है.! प्रकृति ने यूं तो अपनी ओर से सभी को एक समान  प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध कराए हैं.! पर व्यावहारिक जीवन में हम देखते हैं कि इन संसाधनों का सबसे ज्यादा उपयोग धनवान लोग ही कर पा रहे हैं.! गरीब तो आज भी अपनी मूलभूत समस्याओं से जूझ रहा है.? कहने को तो पृथ्वी के तीन चौथाई हिस्से में पानी है पर अफसोस यह पीने लायक नहीं है.! पेय जल मात्र तीन प्रतिशत ही है.! उसमें भी कुछ अंश ग्लेशियर एवं बर्फ के रूप में है.! इन परिस्थितियों के बावजूद भी कुछ लोग पानी पर अपना एकाधिकार समझते हैं.! और बेतरकीब ढंग से पानी का बेजा इस्तेमाल जैसे उनकी फितरत बन गई है.! गाड़ियों  की धुलाई,बाग़ बगीचों  की सिचाई, स्वीमिंग पुल की भराई, गैर जरूरी कार्यों में खर्च, जैसे रईसों की जरूरत बन गई है.! अब वो अपना देखें कि जरूरतमंदों, गरीबों के लिए सोचें.? आज यही सवाल सबसे बड़ा है.! आदमी इतना स्वार्थी एवं आत्मकेंद्रित हो गया है कि उसे अपने अलावा किसी की समस्याएं नजर आती ही नहीं.! आए दिन हम देखते हैं कि चाहे नगर हों, महानगर हों, गाँव हों,कस्बे हों हर जगह पेयजल की समस्याएं बिकराल रूप धारण किये हुए हैँ.! विगत वर्ष दक्षिण अफ्रीका की राजधानी केपटाउन को जल विहीन शहर घोषित किया गया.! यह आधुनिक युग की सबसे बड़ी त्रासदी एवं दुर्भाग्य है.? हम दूर क्यों जाएं अपने देश में भी तमाम ऐसे शहर एवं इलाके हैं जहां जहां पर पानी की समस्या सुरसा की तरह बढ़ रही है.! राजस्थान,महाराष्ट्र,आंध्रप्रदेश, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्यप्रदेश झारखण्ड, आदि प्रदेशों में भूमिगत जल स्तर बहुत नीचे आता जा रहा है.! भूमिगत जल का दोहन बड़ी तेजी के साथ लगातार जारी है.! जल स्रोतों की भी अपनी एक सीमाएं हैं जो कहीं ना कहीं हम भूल रहे हैं.! वैसे तो राज्य सरकारें एवं भारत सरकार भी घर घर जल पंहुचाने तमाम योजनाओं पर काम कर रही हैँ. ! हर घर जल योजना जल जीवन मिशन का एक भाग है, जिसे भारत में जल शक्ति मंत्रालय द्वारा लॉन्च किया गया है., पर यह सारी योजनाएं जल के स्रोतों पर ही तो आधारित हैं इसका भी हमें ध्यान रखना होगा.! जल के महत्व को दर्शाते हुए न जाने कितने कथन प्रचलित हैं  जिनमें जल ही जीवन है,जल है तो कल है,जल बचाओ जीवन बचाओ,पानी की रक्षा देश की सुरक्षा, पानी बचाओ पृथ्वी बचाओ, जल ही जीवन का आधार है, आओ हम जल रक्षक बनें आदि अनेकों प्रेरक कथन हम सबके लिए अनुकरणीय एवं प्रेरक तो हैँ. पर हम कितने गंभीर हैँ ये हमें सोचना होगा! सरकारों द्वारा भी जल शक्ति अभियान, जल संरक्षण योजनाएं, अटल भू जल योजना,जैसी अनेकों योजनाएं भी जल संरक्षण के लिए तेजी से काम कर रही हैँ.! जल सिर्फ मानव जीवन को ही प्रभावित नहीं करता बरन तमाम व्यवसाय,उद्योग धंधे, निवेश आदि भी इससे पूरी तरह प्रभावित होते हैं.! अभी हाल ही में आईटी हब बेंगलुरू में बढ़ती पानी की समस्या को देखते हुए तमाम बड़ी कंपनियां वहां से पलायन की मानसिकता से दूसरी जगह तलासने में लग गईं हैँ.? ये दूसरा  पहलू हमारे विकास की रफ़्तार को पीछे ढकेल सकता है.?

जल की प्रत्येक बूँद हमारे लिए कीमती है. इसे बचाने का हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए.! यूँ तो पुरी दुनिया में 22 मार्च को जल संरक्षण के लिए विश्व जल दिवस मनाया जाता है. जिसकी शुरुआत  दरअसल 22 दिसंबर, 1992 को संयुक्त राष्ट्र असेंबली में प्रस्ताव लाया गया था, जिसमें ये घोषणा की गई कि 22 मार्च को विश्व जल दिवस के रूप में मनाया जाएगा. इसके बाद 1993 से दुनियाभर में 22 मार्च को विश्व जल दिवस के रूप में मनाया जाने लगा. कैपटाउन जैसे शहर में तो प्रति व्यक्ति जल उपयोग करने की सीमाएं भी तय कर दी गई है जो जल की भयावह स्थिति को बयां करती हैँ.! कुछेक विश्लेषक तो यहाँ तक कहते हैं कि  तीसरा विश्व युद्ध भी जल को लेकर हो सकता है.!! परिस्थितियां  आपके सामने हैँ .! शासन अपने स्तर पर विभिन्न योजनाओं के माध्यम से काम कर रहा है पर इन सब के बावजूद यदि किसी की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है तो वह हैँ हम और आप.! जब तक हम उपभोक्ता अंदर से स्वयं जागरूक ना होंगे तब तक जल संरक्षण के सार्थक परिणाम मिलना मुश्किल है.! हम जल के संरक्षण का असली महत्व समझकर उसे अपने जीवन में शामिल करें और उसके प्रति कृतज्ञ रहें। जल संरक्षण के प्रति हमें सचेत करने के लिए ही तमाम सामाजिक,एवं शासकीय संस्थाएं तेजी से काम कर रही हैँ. ! ना जाने कितने कवि और शायर इस विषय को लेकर अपनी कलम के माध्यम से उद्वेलित हैं.! अब यह आपके ऊपर निर्भर करता है कि आप कब जागेंगे.? वक्त रहते जागना ही हम सबके हित में है अन्यथा कैप्टाउन जैसी स्थिति हमारे यहाँ निर्मित होने में देर न लगेगी.! अब तो आँखों का पानी भी सूख रहा है.? अभी समय आ गया है अपने अंदर के एवं बाहर के पानी को बचाने का.!

“पानी खूब बचाइये,पानी है अनमोल

बिन पानी जीवन नहीं,समझें इसका मोल”

आइये हम सब यह प्रण करें कि हम व्यर्थ पानी न बहाएंगे,इसका समुचित उपयोग और बचत कर जल संवर्धन में सहायक बनेंगे.! ताकि हमारा भविष्य उज्जवल हो.अन्यथा हमें यही कहना पड़ेगा कि “बिन पानी..! मुश्किल ज़िंदगानी.”

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 214 ☆ शिकवण ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 214 – विजय साहित्य ?

☆ शिकवण ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

कविता

म्हणजे काय

हे देखील

मला माझ्या

कवितेनंच

शिकवलं

जेव्हा

माझ्या वर

हसणाऱ्या

माणसाला

माझ्याच कवितेनं

रडवलं….!

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

Please share your Post !

Shares