(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “ये असर है मेरे प्यार का…“)
ये असर है मेरे प्यार का… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
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प्यार मेरी ज़रूरत नहीं , आपकी भी जरूरत है ये
दिल लगाना नहीं खेल है, मेरे रब की इबादत है ये
*
ये बढ़ावा सितमगर को है, ज़ुल्म पर मौन बैठे रहो
ये शरीफ़ों को जायज़ नहीं, तेरी कैसे शराफत है ये
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ये असर है मेरे प्यार का, फल रही हर दुआ है मेरी
आइना तो ज़रा देखिये, क्या हसीं रुख पे रंगत है ये
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जिसकी मनमानियों से यहाँ, लोग अवसर की थे तांक में
हाथ मजबूत वो ही किये, यार कैसी बगावत है ये
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सिद्क़ दिल से दुआ तुम जो दो, सूखता पेड़ जाए सँवर
आदमी को अता उसने की, वो ही शफ़क़त की ताकत है ये
*
ग़म कहें किससे परदेश में, दूसरे दर्ज़े के आदमी
हम मशीनें हैं इंसान से, अय वतन करके हिज़रत है ये
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लत लगी जो खराबात की, दस तबाही करे सच कहा
टूटे नाते सभी घर मिटा, आज बस साथ ग़ुरबत है ये
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थूक लो सिर उठाकर मगर, दाग सूरज पे आता नहीं
पेश तुम क्यों सफाई करो, जानते लोग तुहमत है ये
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फेंक पश्चिम के चश्मे को जब, पांव माँ के दबाया हूँ मैं
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है एक विचारणीय आलेख “बैंक: दंतकथा : 3“।)
अविनाश अतीत में गोते लगाते रहते पर मोबाईल में आई नोटिफिकेशन टोन ने उन्हें अतीत से वर्तमान में ट्रांसपोर्ट कर दिया. आंचलिक कार्यालय की घड़ी रात्रि के 8 बजे के दरवाजे पर दस्तक दे रही थी. पर मोबाईल में वाट्सएप पर आया केके का मैसेज उन्हें लिफ्ट में ही रुककर पढ़ने से रोक नहीं पाया.
मैसेज :Dear AV, Mr. host of the month, what will be the menu of sunday lunch?
Reply from AV : It will be a secret surprise for both of us, only Mrs. Avantika Avinash & Mrs. Revti Kartikay know. But come on time dear Sir. Reply was followed by various whatsapp emojis which were equally reciprocated by KK.
अविनाश और कार्तिकेय की दोस्ती सही सलामत थी, मजबूत थी. ये दोस्ती ऑफिस प्रोटोकॉल के नियम अलग और पर्सनल लाईफ के अलग से, नियंत्रित थी. हर महीने एक संडे गेट टु गेदर निश्चित ही नहीं अनिवार्य था जिसकी शुरुआत फेमिली लंच से होती थी, फिर बिग स्क्रीन टीवी पर किसी क्लासिक मूवी का लुत्फ़ उठाया जाता और फाईनली अवंतिका की मसाला चाय या फिर रेवती की बनाई गई फिल्टर कॉफी के साथ ये चौकड़ी विराम पाती. जब कभी मूवी का मूड नहीं होता या देखने लायक मूवी नहीं होती तो कैरमबोर्ड पर मनोरंजक और चीटिंग से भरपूर मैच खेले जाते. ये चीटिंग कभी कभी खेले जाने वाले चेस़ याने शतरंज के बोर्ड पर भी खिलाड़ियों को चौकन्ना बनाये रखती. शतरंज के एक खिलाड़ी की जहाँ knight याने घोडों के अटेक में महारत थी, वहीं दूसरा खिलाड़ी बाजी को एंडगेम तक ले जाने में लगा रहता क्योंकि उसे पैदलों याने Pawns को वजीर बनाने की कला आती थी. घोड़े और पैदल शतरंज के मोहरों के नाम हैं और उनकी पहचान भी.
जहाँ अविनाश और अवंतिका प्रेमविवाह से बंधे युगल थे वहीं रेवती का चयन, कार्तिकेय के परंपराओं को कसकर पकड़े उनके पेरेंट्स की पसंद से हुआ था. मिसेज़ रेवती कार्तिकेय जी विश्वविद्यालय में दर्शनशास्त्र पढ़ाती थीं पर उससे भी बढ़कर सांभर बनाने की पाककला में पीएचडी थीं. उनका इस कहावत में पूरा विश्वास था कि दिल तक पहुंचने के रास्ते की शुरुआत, सुस्वादु भोजन के रूप में पेट से होती है.
तो इस मंथली लंच टुगेदर के होस्ट कभी अविनाश होते तो कभी कार्तिकेय. महीने में एक बार आने वाले ये सुकून और आनंददायक पल, कुछ कठोर नियमों से बंधे थे जहाँ बैंक और राजनीति पर चर्चा पूर्णतया वर्जित थी. स्वाभाविक था कि ये नियम रेवती जी ने बनाये थे क्योंकि उनके लिये तीन तीन बैंकर्स को झेलना बर्दाश्त के बाहर था.
कार्तिकेय जानते थे कि कैरियर के लंबे सफर के बाद पुराने दोस्त से मुलाकात हुई है और पता नहीं कब तक एक सेंटर पर रहना संभव हो पाता है, तो इन खूबसूरत लम्हों को दोनों भरपूर इंज्वाय करना चाहते थे. वैसे इस बार लंच का मेन्यु, अविनाश की बनाई फ्राइड दाल, अवंतिका की बनाई गई मसालेदार गोभी मटर थी और देखी जा रही मूवी थी ऋषिकेश मुखर्जी निर्देशित और राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन अभिनीत “नमकहराम”. और जो गीत बार बार रिपीट किया जा रहा था वो था
दिये जलते हैं, फूल खिलते हैं
बड़ी मुश्किल से मगर, दुनियां में दोस्त मिलते हैं
दौलत और जवानी इक दिन खो जाती है
सच कहता हूँ सारी दुनिया दुश्मन हो जाती है
उम्र भर दोस्त मगर साथ चलते हैं, दिये जलते हैं
ये फिल्म देख रहे दोनों परिवारों का पसंदीदा गीत था और हो सकता है कि शायद कुछ पाठकों का भी हो.
तो खामोश मित्रों और मान्यवरों, ये दंतकथा अब इन परिवारों की समझदारी और दोस्ती को नमन कर यहीं विराम पाती है. हो सकता है फिर कुछ प्रेरणा पाकर आगे चले, पर अभी तो शुभकामनाएं और धन्यवाद !!!
(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – मिलावटी दुनिया।)
बहू शारदा ने अमित से कहा – “तुम्हारी मां के पास तो काम धाम रहता नहीं है रात में भी चिल्लाती रहती हैं और सुबह सुबह 5:00 बजे से घंटी बजा के हम सब को उठा देती हैं।
9:00 यदि बैंक में ना पहुंचे तो मैनेजर से डांट खानी पड़ती है।
बहू शारदा ऑफिस जाते जाते चिल्लाकर कहती है-
कान खोल कर सुन लीजिए?
जैसे ही एग्जाम खत्म हो जाएगा मैं विक्की को हॉस्टल में डाल दूंगी इनको वृंदावन के आश्रम में भेज देना या कहीं और इनकी व्यवस्था के विषय में सोचो?
तभी कमला जी कहती है नाश्ता तो कर लो चाय बन गई है।
वह गुस्से से अपने पति की ओर देखती है और कहती हैं आप ही मां बेटे नाश्ता करो!
उसके जाने के बाद कमला जी अपने बेटे से कहती है कि आखिर प्यार में कहां कमी रह गई?
घर की इज्जत का सवाल है उसे तो शर्म लिहाज नहीं है ?
तभी अमित के मोबाइल में फोन की घंटी बजती है अमित बाजार से कुछ मिठाइयां समोसे ले आओ शाम को मेरे ऑफिस के सहकर्मी घर में आ रहे हैं मां से कहना की कुछ अच्छा सा खाना बना लें।
अमित घर पर ही ऑनलाइन काम करता है वह अपनी मां से कहते हैं मां तुम चिंता मत करो मैं बाहर से कुछ लेकर आता हूं, तभी कमला अपने पति की तस्वीर देखकर कहती हैं, मुझे अपने ही घर में साथ घर में नहीं रख सकती?
चलो भाई ठीक ही है वहां चैन से भगवान का भजन करूंगी।
मेरे भजन पूजन में खर्चा होता है और बहू को यही कष्ट है कि मैं दान करती हूं।
अब इनका मतलब निकल गया है, बच्चा बड़ा हो गया है।
आखिर भाई वह नौकरी जो करती है, वह घमंड में चूर है लेकिन भाई अवस्था तो सबकी आनी है।
पुश्तो में भी ऐसा कभी नहीं हुआ लेकिन आजकल के बच्चे सारे नए काम ही कर रहे हैं घोर कलयुग है मिलावटी सामान खाते-खाते रिश्ते भी जाने कब मिलावटी हो गए।
सुश्री. अरुणा मुल्हेरकर यांचा ‘ सरीवर सरी ‘ हा तिसरा काव्यसंग्रह नुकताच प्रकाशित झाला. या काव्यसंग्रहात त्यांच्या एकूण ५१ कविता आहेत आणि या सर्व कवितांमधून त्यांनी वेगवेगळे विषय हाताळले आहेत. यात प्रेम, निसर्ग, सामाजिक समस्या, अन्याय, भक्ती, नारी सन्मान, देशभक्ती,आध्यात्म अशा विविध विषयांवर त्यांनी अगदी उत्स्फूर्तपणे काव्यरचना केलेल्या आहेत.
या काव्यसंग्रहाचे वैशिष्ट्य असे आहे की यातील बहुतेक कविता या वृत्तबद्ध आहेत.मात्रावृत्त आणि अक्षरगण वृत्तांच्या चौकटीतील आहेत. शिवाय यात अभंग, सुमित, गझल,बालगीत आणि इतर काही नाविन्यपूर्ण काव्यप्रकारांचाही समावेश आहे. अशा विस्तारित काव्य क्षेत्रातला अरुणाताईंचा संचार मनाला थक्क करणारा आणि कौतुकास्पद आहे.
अरुणाताई त्यांच्या मनोगतात म्हणतात की त्यांनी कोविडकाळात लेखन क्षेत्रात प्रवेश केला.म्हणजे अगदी अलीकडच्याच काळात. मात्र त्यांचा सरीवर सरी हा काव्यसंग्रह वाचताना त्या नवोदित साहित्यिक आहेत यावर विश्वासच बसत नाही कारण इतकं त्यांचं काव्य परिपक्व आहे.
प्रतिभा, बहुश्रुतता आणि अभ्यास या तीन काव्य कारणांना काव्यशास्त्रात महत्त्व आहे आणि या तीनही संकल्पनांचा प्रभाव त्यांच्या कवितांमध्ये स्पष्टपणे दिसून येतो.
या संग्रहातील त्यांची पहिलीच कविता देहात चांदणे फुलले वाचताना एक अत्यंत हळुवार, तरल भाव वाचकाच्या मनावर उतरतो. या शृंगार रसातल्या काव्यात त्या म्हणतात,
तो स्पर्श रेशमी होता
तनुलता कशी थरथरते
झेलूनी मदनाचे बाण
देहात चांदणे फुलते
खरं म्हणजे ही संपूर्ण कविता रसग्रहणात्मक आहे. प्रियकराच्या स्पर्शाने देहात चांदणे फुलते ही कल्पनाच किती रम्य आहे! सहज आणि कोमल शब्दांचा साज, रसगंधयुक्त, नादयुक्त आणि लयबद्ध आहे.
बंधनात मी या काव्यातल्या( वृत्त हरी भगिनी)
बंधनात राहूनिया मी
जीवन माझे अनुभविले
वादळ वारे तुफान आले
जीवन सुंदर जाणीयले
या ओळी जीवनावरचा सकारात्मक विचार अगदी सहजपणे मांडतात. शिवाय त्यांच्या सिद्धहस्त लेखणीतून झरणारे शब्द एक वेगळेच सौंदर्य घेऊनच कागदावर उतरतात याची वाचकाला प्रचिती येते.
आनंदकंद वृत्तातील आयुष्य हेच आहे ही गझल कसं जगावं याविषयी भाष्य करते. यातलाच हा एक शेर..
कमळात भृंग घेतो
अडकून जो स्वतःला
रस पान तोच करतो
पाहून तू राहावे
यातलल्या प्रत्येक शेरातील खयालत आणि मिसरा इतका सुंदर आहे की अगदी उत्स्फूर्तपणे या रचनेला दाद दिली जाते.
सत्य ही कविता ही खूप लक्षवेधी आहे.
जीवन जगताना काही सत्यं नाकारता येत नाहीत. वृद्धत्व हे असेच एक सत्य. या कवितेत कवियत्रीचा आरशाशी झालेला संवाद खरोखरच मनाला भिडतो. आरसा जसं बाह्यरुप दाखवतो तसंच मनातलं अंतरंग जाणून घेण्यासही प्रवृत्त करतो. आणि नेमका हाच विचार अरुणाताईंनी यात मांडलेला आहे.
उघड मनाच्या कवाडाला
स्वीकारून तू सत्याला
जगत रहा क्षण आनंदाचे
खुलविल तुझ्या रूपाला
आनंदाने जगणे म्हणजेच वृद्धत्वावर मात करणे आणि पर्यायाने बाह्य रूपाला खुलवणे. वा! किती सुरेख संदेश! शब्द थोडे पण आशय मोठा.
अरुणाताई प्रेमगीतात जितक्या रमतात तितक्याच ईश्वर भक्तीतही तल्लीन होतात.
एका अभंगात त्या म्हणतात,
कृष्ण आहे मागे।
कृष्ण आहे पुढे।
कृष्ण चहुकडे। भगवंत।।
हा अभंग वाचताना मला सहजच शांता शेळके यांच्या गीताची आठवण झाली.
मागे उभा मंगेश पुढे उभा मंगेश
माझ्याकडे देव माझा
पाहतो आहे. अरुणाताईंच्या या अभंगातही हाच भक्तीचा भाव आणि गोडवा जाणवतो.
हेलकावे ही काहीशी जात्यावरची ओवी वाटावी अशी कविता.
दळताना कांडताना
सय येते माहेराची
झोके घेत मन माझे
दारातल्या अंगणाची
एक हळवं माहेराची ओढ असलेलं स्त्री मन या काव्यातून जाणवतं.
कालगती हे एक सुंदर निसर्ग काव्य आहे. विविध ऋतूंचे सुरेख वर्णन यात आहे आणि कालचक्र महात्म्य यात कथीत केलेले आहे.
वसंत येतो वसंत जातो
ग्रीष्माची मग होते चढती
ऋतु मागुनी ऋतू हे सरती
यास म्हणावे कालगती..
अरुणाताईंजवळ एक वैचारिक, सामाजिक मन आहे याची जाणीव त्यांच्या का? या कवितेत होते.
वेलीवरच्या कळ्या कोवळ्या
का हो आपण खुडता
जन्मा आधी गर्भामध्ये
कसे त्यांना कुस्करता
संपूर्ण कवितेत स्त्रीभृणहत्येवर अत्यंत कळकळीने आक्षेप घेतानाच त्यांनी नारी जन्माचा सन्मान केला आहे.
तो आणि ती या कवितेत पोवाडा आणि लावणी याची केलेली तुलना अतिशय मनोरंजक आहे.
लोक वाङ्मय, लोकसंगीत महाराष्ट्राची शान असे म्हणत त्यांनी मराठी साहित्यातल्या लोक भाषेला मानाचा मुजरा केला आहे.
सरीवर सरी या शीर्षक कवितेत त्यांनी लेखणी विषयी कृतज्ञता व्यक्त केली आहे.
मन असते सैरावैरा
त्यासी लेखणी आवरी
शब्दफुलोरा फुलतो
वर्षती सरींवर सरी
सरीवर सरी हे शीर्षक वाचल्यावर सहज वाटते की ही पाऊस कविता असेल पण अरुणाताईंनी खुबीदारपणे या शब्दरचनेला कलाटणी देऊन शब्द फुलंच्या सरी लेखणीतून कशा वर्षाव करतात ते अगदी मार्मिकपणे सांगितले आहे.
खरं म्हणजे या काव्यसंग्रहातल्या सर्वच कविता अतिशय रसास्वाद देणाऱ्या आहेत. या कवितांतून कवियत्री अरुणाताईंचे शब्द वैभव, शब्दप्रचुरता, आणि शब्दयोजना किती प्रभावी आहे ते जाणवते. काव्यरचनेतला कुठलाही शब्द ओढून ताणून आणल्याचे जाणवत नाही. शब्दालंकार आणि अर्थालंकाराची योजकता अत्यंत सहज आहे. त्यामुळे वाचक काव्य भावाशी आणि काव्यार्थाशी अत्यंत सहजपणे जोडला जातो.
अरुणाताईंचा वृत्तबद्ध काव्याभास आश्चर्यजनक आहे. अगदी प्रथितयश, सुप्रसिद्ध, नावाजलेल्या अनेक कवींच्या काव्यपंक्तीत समाविष्ट होण्या इतक्या त्यांच्या वृत्तबद्ध कविता दर्जेदार आहेत. माझ्या या लिखिताचा इतर वाचकांनाही अनुभव येईलच.
त्यांच्या काव्याची वैशिष्ट्ये म्हणजे सुंदर, पारदर्शी, निर्मळ विचार, रसमयता, नाद मधुरता आणि लयबद्धता. त्या स्वतः संगीत विशारद असल्यामुळे सूर, ताल आणि लय यांच्याशी त्यांचं असलेलं नातं त्यांच्या कवितांतून प्रामुख्याने जाणवतं. आणि या सर्वांच्या केंद्रस्थानी आहे ते त्यांचं संवेदनशील मन, हृदयातला ओलावा, घटनांकडे पाहण्याचा त्यांचा स्वतःचा असा स्वतंत्र दृष्टिकोन आणि या सगळ्यांचा एकत्रित परिणाम म्हणजेच त्यांच्या सुंदर कविता. साहित्य आणि संगीत हातात हात घालून आले की कसा रोमांचकारी चमत्कार घडतो त्याचं उत्तम उदाहरण म्हणजे अरुणाताईंच्या भारदस्त कविता.
सरीवर सरी या काव्यसंग्रहाला सुप्रसिद्ध ज्येष्ठ कवी अजित महाडकर यांची प्रस्तावना लाभली आहे हा एक दुग्ध शर्करायुक्त योगच म्हणावा.
जाता जाता एक,अगदी न राहवून नमूद करावेसे वाटते की वडिलांचा वारसा कन्या कशा रीतीने चालवू शकते. सुप्रसिद्ध साहित्यिक कै. ज.ना. ढगे यांचा साहित्यिक वारसा त्यांची ही कन्या समर्थपणे चालवत आहे हे अभिमानाचे नाही का?
अरुणाताई तुमचे खूप अभिनंदन आणि तुमच्या पुढील साहित्य प्रवासासाठी खूप खूप शुभेच्छा!
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – कोई तो रास्ता होगा…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 44 – कोई तो रास्ता होगा… ☆ आचार्य भगवत दुबे
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण रचना “छल प्रपंच की आड़ ले…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार।आज प्रस्तुत है आपकी डायरी के पन्ने से … – गुड समरीतान।)
मेरी डायरी के पन्ने से… – गुड समरीतान
(दो सत्य घटनाओं पर आधारित यह संस्मरण है। दोनों घटनाओं को पढ़ने पर ही संपूर्ण कथा स्पष्ट हो सकेगी।)
भाग एक
समीर मुखर्जी अपने शहर के एक प्रसिद्ध कंपनी में उच्च पदस्थ व्यक्ति थे। धन -दौलत, सामाजिक प्रतिष्ठा, बड़ा सा बंगला और सुखी परिवार ये सब कुछ जीवन में अर्जित था। तीन बेटियाँ थीं जिन्हें प्रोफेशनल एज्यूकेशन दिलाकर समयानुसार विवाह भी करवा चुके थे और वे तीनों विदेश में रहती थीं।
अब हाल ही में समीर रिटायर हुए। अति प्रसन्न थे कि अब पति-पत्नी फ्री हो गए और खूब घूमेंगे। कोलकाता से निकले एक लंबा अंतराल बीत चुका था, कई ऐसे रिश्तेदार थे जो बंगाल के छोटे – छोटेे गाँवों में रहते थे जिनसे मिले कई वर्ष बीत गए थे। वे फिर उन भूले-बिसरे और शिथिल पड़े तारों को जोड़ना चाहते थे।
समीर और सुमिता कोलकाता जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि उससे पहले कंप्लीट मेडिकल चेक अप करवा लेना चाहते थे। यह रेग्यूलर चेक अप था और प्रति वर्ष करवाते रहे तो खास चिंता की बात नहीं थी। पर भगवान की योजना कुछ और ही थी। सुमिता के स्कैन में आंत में कोई ग्रोथ दिखाई दिया और प्रारंभ हुआ अनेक विभिन्न प्रकार के टेस्ट। बायप्सी हुई और पता चला कि उन्हें कैंसर था जो काफी फैल भी चुका था। दोनों पर मानो पहाड़ टूट पड़ा। अब शुरू हुआ एक नया युद्ध। अस्पतालों के चक्कर, सर्जरी, और फिर कीमो। जिस घर में सुख शांति और समृद्धि का वास था वहाँ श्मशान की – सी चुप्पी छा गई। सुख और खुशियाँ न जाने किस खिड़की से बाहर निकल गए और दुख- दर्द ने घर भर में पैर पसार लिए।
समीर के बचपन के एक मित्र थे गौतम चौधरी, वे अपने शहर के मेडिकल कॉलेज के रिटायर्ड डीन थे। अब रिटायर होने पर कोलकाता के पास एक छोटे से गाँव में अपनी विधवा बड़ी बहन को साथ लेकर रहते थे। स्वयं विधुर तथा नि: संतान थे समाज सेवा में मन लगाते थे। गाँव वालों को फ्री ट्रीटमेंट देते, सरकारी अस्पतालों से संपर्क करवाते, भर्ती करवाते और व्यस्त रहते।
उन्हें जब से सुमिता की बिगड़ती हालत की जानकारी मिली वे अक्सर समीर के घर आने लगे और न केवल अपनी बातों से सुमिता को हँसाते रहते, उसे प्रसन्न रखने का प्रयास करते रहे बल्कि समीर के लिए बहुत बड़े इमोशनल सपोर्ट भी थे।
तीन – चार माह के भीतर ही सब कुछ खत्म हो गया। कहाँ मुखर्जी दंपति फ्री होकर घूमने – फिरने की योजना बना रहे थे और कहाँ भीषण कष्ट सहती जीवन संगिनी का साथ ही छूट गया। समीर टूट से गए। ईश्वर में जो आस्था थी वह टूट गई। जिस दिन पत्नी की अस्थियाँ बहाने गए थे उस दिन अपना जनेऊ भी न जाने क्या सोचकर नदी में बहा आए।
कुछ दिन बाद घर के छोटे से मंदिर में जितनी देवी-देवताओं की मूर्तियाँ और पूजा की सामग्री थी सब एक कार्टन में डालकर किसी मंदिर में छोड़ आए। गौतम लगातार चुपचाप समीर का साथ देते रहे। वे उसके मन की हालत को समझ रहे थे। शायद स्वयं इसी दौर से गुज़र चुके थे, भुग्तभोगी थे, इसलिए समीर के दर्द की गहराई को नापने की क्षमता भी रखते थे।
सुमिता ने अपनी आँखें दान की थी, समीर ने दो महीने के भीतर उसकी सभी वस्तुएँ बेटियों और ज़रूरत मंदों में बाँट दी बस उसका चश्मा अपने पास रख लिया। गौतम समीर की मानसिकता को भली-भांति समझ रहे थे। उसे घर से दूर ले जाना जरूरी था इसलिए अपने साथ कोलकाता ले गए।
शुरू- शुरू में समीर चुप रहते थे, हँसना मानो छोड़ ही दिया था। पर गौतम एक सच्चे दोस्त की तरह निरंतर उसका साथ दे रहे थे। कभी गंगा के तट पर घुमाने ले जाते कभी नाव में सैर कराते, कभी गंगा तट पर बैठ खगदल को अपने वृक्षों पर लौटते हुए निहारते कभी बँधी नावों से टकराती लहरों का गीत सुनते तो कभी रेत पर बैठकर केकड़ों के क्रिया कलाप देखते। कभी गाँवों में रहते रिश्तेदारों से मिलवा लाते तो कभी ताश या शतरंज खेलने के बहाने उसका मनोरंजन करते। समीर के भीतर भीषण खलबली – सी मची हुई थी, जिसे केवल गौतम समझ पा रहे थे। एक बचपन का मित्र ही शायद ऐसा कर सकता है।
भाग दो
देखते ही देखते छह महीने बीत गए। समीर अब फिर से हँसने लगे, बोलने लगे लोगों से मिलकर खुशी ज़ाहिर करने लगे। जिस तरह भारी वर्षा के बाद जब बादल छँट जाते हैं तब दसों दिशाएँ चमकने लगती हैं, एक ताज़ापन- सा प्रसरित हो उठता है। बस कुछ इसी तरह समीर भी मानो काली घटाओं को पीछे धकेलकर बाहर निकल आए थे।
घर से दूर काफी लंबे समय तक रह लिए थे। यद्यपि सुमिता के बिना घर खाली था पर उसकी यादें उसे पुकार रही थी। अब वे घर लौटना चाहते थे। वे जानते थे सुमिता के बिना घर में रहना कठिन होगा पर कब तक सच्चाई से भागते भला!
गौतम के साथ एक दिन आखिर एयरपोर्ट आ ही गए। एयरपोर्ट के बाहर ही भारी भीड़ दिखाई दी तो दोनों मित्र उस भीड़ में शामिल हुए यह देखने के लिए कि शायद कोई दुर्घटना घटी हो तो सहायता दे सकें।
देखा एक अधेड़ उम्र की महिला रो रही थी और सिक्यूरिटी व पुलिस वाले उससे सवालात कर रहे थे। पास जाकर देखा तो वह महिला समीर के बहुत दूर के रिश्ते की बहन मीनू दीदी थीं। जिनसे वह कुछ माह पहले ही मिलकर आए थे। समीर से आँखें मिलते ही मीनू दीदी “भाई मुझे बचाओ ” कहकर रोने लगीं। उसे शांत किया, पानी पिलाया, भीड़ हटाई गई। एयर पोर्ट के विसिटर लाऊँज में ले जाया गया उसे। थोड़ा स्वस्थ होने पर मीनू दीदी ने जो कुछ कहा वह सुनकर उपस्थित लोग हतप्रभ हो गए।
एक माह पूर्व उनका बेटा अमेरिका से आया था। वह जादवपुर इंजीनियरिंग कॉलेज से निकला मेधावी छात्र था। नौकरी भी अच्छी मिली थी फिर विदेश जाने का मौका मिला। कुछ वर्ष वहीं अमेरिका में काम करता रहा। शादी हुई, बच्चा हुआ हर साल एक बार परिवार को लेकर आता रहा। इस बार वह अकेला आया और माँ को साथ लेकर जाने की ज़िद करने लगा। पास – पड़ोस के लोगों ने भी मीनू दीदी के भाग्य की सराहना की कि बेटा माँ का ध्यान रखने के लिए साथ रखना चाहता है। बेटे ने कई विभिन्न कागज़ातों पर माँ के अँगूठे लगवाए। पुश्तैनी हवेली थी जिसकी गिरती हालत थी पर ज़मीन की कीमत चढ़ी हुई थी। संपत्ति अच्छे दाम पर बेचकर सारा रुपया पैसा बैंक में जमा किया गया। माँ -बेटे का जॉइंट अकाउंट था। वह निरक्षर थी, जैसा बेटा कहता गया वह करती रही। एक सूटकेस में अपने थोड़े कपड़े और गहने लेकर वे उस दिन सुबह एयरपोर्ट आए। बेटे ने माँ को एयरपोर्ट के बाहर एक काग़ज़ हाथ में लेकर बिठाया और अभी आता हूँ कहकर अपना सामान लेकर जो गया तो अब तक नहीं लौटा।
पिछले पाँच घंटों से मीनू दीदी अपने सूटकेस के साथ बैठी रही। इतनी देर से वहीं होने के कारण सिक्यूरिटी ने सवाल -जवाब करना शुरू किया। उनके हाथ में जो कागज़ थमाकर उनका बेटा गया था वह था मेट्रोरेल का टिकट!! जब उनसे पासपोर्ट के बारे में पूछा गया तो वे बोलीं कि उनके पास कुछ भी नहीं हैं और पासपोर्ट क्या चीज़ होती है वे नहीं जानतीं। एक यात्री ने अपना पासपोर्ट दिखाया तो उन्होंने कहा कि उनके बेटे के हाथ में उन्होंने वैसी पुस्तक देखी थी। अमेरिका जानेवाली एवं उड़ान भर चुकी एयरलाइंस से मालूमात किए जाने पर ज्ञात हुआ कि मीनू दीदी का बेटा माँ को छोड़कर निकल चुका था।
समीर और गौतम मीनू दीदी को गौतम के घर ले आए। बैंकों में जाकर पता किया तो पाया कि लाखों रुपये जो हवेली बेच कर मिले थे उसमें से पच्चीस हजार छोड़कर बाकी रकम मीनू दीदी के बेटे ने अपने अलग बैंक अकाउंट में ट्रांसफर कर लिया था। वेलप्लैन्ड प्लॉट !!!! उफ़ भयंकर योजना!!!!
मीनू दीदी को उनके गाँव वापस तो नहीं भेज सकते थे, निंदा होती सो अलग गाँववाले जीना कठिन कर देते तिस पर अब रहने का कोई ठौर था नहीं।
कुछ दिन बाद समीर मीनू दीदी को लेकर अपनघरशहर, अपने घर लौट आए। दोनों दुखी थे एक को धोखा दिए जाने का दर्द था और दूसरे के जीवन संगिनी के विरह का दुख। पर दोनों ने एक दूसरे को संभाल लिया। सहारा दिया विश्वास और भरोसा दिया।
अब मीनू दीदी ने घर संभाल लिया। समीर की बेटियाँ आती जाती रहतीं, उनके बच्चे आते और मीनू पीशी ( बुआ ) के स्नेह का आनंद उठाते।
इस घटना ने समीर मुखर्जी को एक नई दिशा दी। मीनू दीदी के बेटे जैसे हज़ारों होंगे जो माँ – बाप को ठगते हैं, घर से निकाल देते हैं, बेसहारा कर देते हैं। उनकी निरक्षरता का संतान लाभ भी उठाती हैं। इसलिए समीर ने अपने ही बंगले के एक हिस्से में ‘ क्रेश फॉर दी ओल्ड ‘ की व्यवस्था की। जिन लोगों को कभी बाहर जाने की ज़रूरत पड़ती पर बूढ़े माता-पिता को साथ लेजाना संभव न होता वे देख – रेख के लिए तथा कुछ समय के लिए अपने माता-पिता को समीर के क्रेश फॉर दी ओल्ड में छोड़ जाते। यह व्यवस्था पूरे वकालती कागज़ातों पर हस्ताक्षर लेकर पूरे किए जाते ताकि छोड़कर भागने का मार्ग न मिले !
मीनू दीदी को घर परिवार मिला, इज्ज़त मिली, अपने मिले। वे अपने कर्त्तव्यों को खूब अच्छे से निभाने लगीं और समीर मुखर्जी आज एक अच्छे समाज सेवक बन गए। उनका घर भर गया, अकेलापन दूर हुआ।
आज उनके इस क्रेश फॉर दी ओल्ड में दो बूढ़े पिता, एक दंपति और दो बूढ़ी माताएँ रहती हैं। मनुष्य कुछ करना चाहता है पर ईश्वर उससे कुछ और ही करवाते हैं।
आज हमारे समाज के द गुड समरीतान हैं समीर मुखर्जी!!!
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय संस्मरण– लंदन से 1।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 265 ☆
संस्मरण– लंदन से 1
ब्रिटेन की पार्लियामेंट के सामने ही महात्मा गांधी मिले।
मंद ठंडी बयार में लहराते कामनवेल्थ देशों के झंडे, अन्य अनेक महापुरुषों के बुतों के साथ अपने अंदाज में सत्य की लाठी के साथ डटे हुए।
लंदन में अपनी मांग, आवाज, आंदोलन, इसी पार्क में उठाई जाती हैं। (भारत के जंतर मंतर की तरह)
यद्यपि इंग्लैंड में बब्बर शेर या टाइगर नहीं होते, पर फिर भी इसे इंग्लैंड के राष्ट्रीय पशु के रूप में मान्यता दी गई है।
यहां की महत्वपूर्ण इमारतों के स्वागत द्वार पर शेरों की मूर्तियां लगी हुई हैं।
शेरों को लंबे समय से ताकत के प्रतीक के रूप में जाना जाता है, क्योंकि वह जंगल का सर्वथा शक्तिशाली प्राणी होता है।
इंग्लैंड के इतिहास में 12 वीं सदी से यहां के शासको प्लांटैजेनेट परिवार के समय से सिंह की छबि और मूर्तियों को सत्ता के प्रतीक के रूप में प्रतिपादित किया गया, और यह परंपरा आज तक कायम है।
दरअसल इंग्लैंड की संस्कृति में धरोहर, परंपरा और इतिहास को बहुत महत्व दिया जाता है।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है सामाजिक विमर्श पर आधारित एक विचारणीय लघुकथा “कोरी साड़ी ”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 183 ☆
☆ लघुकथा 🌹 कोरी साड़ी 🌹
शहर, गाँव, महानगर सभी जगह चर्चा थी, तो बस सिर्फ महिला दिवस की। छोटी बड़ी कई संस्था, कई ग्रुप और हर विभाग में कार्यशील महिलाओं के लिए जैसे सभी ने बना रखा था महिला दिवस।
हो भी क्यों न महिला नारी – –
म – से ममता
ह – से हृदय
ल – से लगती
ना – से नारी
री- से रिश्ते
ममता हृदय से लगती सभी नाते रिश्ते वह कहलाती नारी या महिला मातृशक्ति।
ठीक ही है बिना नारी के सृष्टि की कल्पना करना भी एक बेकार की चीज होगी। शहर में घर-घर बाईयों का काम करके अपना जीवन, घर परिवार चलाना आम बात है। जीवन का सब भार संभाले रहती है, चाहे उसका पति कितना भी नशे का आदी क्यों न हो, निकम्मा क्यों न हो या कुछ भी पैसा कमा कर नहीं दे रहा हो।
परंतु महिलाएं इसी में खुश रहकर बच्चों का पालन पोषण करती है और शायद संसार में सबसे सुखी दिखाई देती है।
बंगले में काम करते – करते अचानक माया को आवाज सुनाई दिया – माया मुझे एक जरूरी फंक्शन में जाना है जल्दी-जल्दी काम निपटा लो।
वहाँ क्या होगा मेम साहब? माया ने पूछा। मेमसाहब पलट कर बोली पूरे साल में एक दिन हम महिलाओं को सम्मानित किया जाता है। गिफ्ट और शील्ड, सम्मान पत्र मिलते हैं।
अच्छा जी… कह कर माया अपने काम में लग गई। परंतु तुरंत ही पलट कर माया को देखते हुए मेमसाहब.. हंसने लगी वाह क्या बात है? आज तो तुम बिल्कुल नई कोरी साड़ी पहन कर आई हो।
माया ने हाथ की झाड़ू एक ओर सरकाकर कोरी साड़ी पर हाथ फेरते बोली.. मुझे भी मेरे मरद ने आज यह कोरी साड़ी दिया। सच कहूँ मेमसाहब मुझे तो पता ही नहीं।
यहाँ आने पर पता चला कि मेरा मरद मुझे कितना प्यार करता है। एकदम दुकान से चकाचक कोरी साड़ी लाकर दिया है। सच मेरी तो बहुत इज्जत करता है।
माया के चेहरे के रंग को देखकर उसके मेमसाहब के चेहरे का रंग उड़ गया। वह जाकर आईने के पास खड़ी हो गई। उसके बदन पर जो साड़ी थी। आज उसे वह कई जगह से दागदार दिखाई दे रही थी।
क्योंकि आज सुबह ही उसके पति ने चाय की भरी प्याली उसके शरीर पर फेंकते हुए कहा था… ले आना जाकर अपना महिला सशक्तिकरण का सम्मान। चाहे घर कैसा भी हो।
पीछे से माया की आवाज आ रही थी…सुना मेमसाहब वह मेरा मरद मेरे लिए सम्मान पत्र नहीं लाया, परंतु आज सिनेमा की दो टिकट लाया है।
हम आज सिनेमा देखने जाएंगे। अच्छा मैं जल्दी-जल्दी काम निपटा लेती हूँ। बाकी का काम कल कर लेगी। मेरी कोरी साड़ी मेरे मोहल्ले वाले भी देखेंगे। मैं तो चुपचाप पहन कर आ गई थी। अब जाकर बताऊंगी कि आज महिला दिवस है।
मेमसाहब सोच में पड़ गई.. कैसा और कौन सा सम्मान मिलना चाहिए।