हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 230 – पुनर्पाठ- विश्वास से विष-वास तक ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 230 ☆ पुनर्पाठ- विश्वास से विष-वास तक ?

एक चुटकुला पढ़ने के लिए मिला। दुकान में चोरी के आरोप में मालिक के विश्वासपात्र एक पुराने कर्मी को धरा गया। जज ने आरोपी से कहा- तुम किस तरह के व्यक्ति हो? जिसने तुम पर इतना विश्वास किया, तुमने उसी के साथ विश्वासघात किया? चोर ने हँसकर उत्तर दिया-  कैसी बात करते हैं जज साहब? यदि वह विश्वास नहीं करता तो मैं विश्वासघात कैसे करता?

चुटकुले से परे विचार कीजिएगा। पिछले कुछ दशकों से समाज का चित्र इसी तरह बदला है और विश्वास का फल विश्वासघात होने लगा है।

अपवाद तो सर्वदा रहे हैं, तब भी वह समय भी था जब परस्पर विश्वास प्रमुख जीवनमूल्य था।  महाराष्ट्र के एक वयोवृद्ध शिक्षक ने एक किस्सा सुनाया। साठ के दशक में वे ग्रामीण भाग में अध्यापन करते थे। मूलरूप से कृषक थे पर आर्थिक स्थिति के चलते शिक्षक के रूप  नौकरी भी किया करते थे। उन दिनों गरीबी बहुत थी। अधिकांश लोगों की गुज़र- बसर ऐसे ही होती थी। विद्यालय में वेतन तो मिलता था पर बहुत अनियमित था।  कभी-कभी दो-चार माह तक वेतन न आता। इससे घर चलाना दूभर हो जाता।

एक बार लगभग छह माह वेतन नहीं आया। स्थिति बिगड़ती गई। कुल छह शिक्षक विद्यालय में पढ़ाते थे। उनमें से एक कर्नाटक के थे। उनके घर में पत्नी के पास यथेष्ट गहने थे। उन्होंने अपनी पत्नी के गहने एक राजस्थानी महाजन के पास गिरवी रखे। उससे जो ऋण मिला, वह छहों शिक्षकों ने आपस में बांट लिया।

कर्ज़ लेने के लिए यहाँ तक तो ठीक है पर उनका सुनाया इस कथा का उत्तरार्द्ध आज के समय में कल्पनातीत है। उन्होंने कहा कि सम्बंधित महाजन भी पास के ही गाँव में रहते थे। सब एक दूसरे से परिचित थे। महाजन ने कहा, ” गुरु जी,  अपना घर चलाने के लिए हुंडी रखकर ऋण देना मेरा व्यवसाय है। अत:  गहने मेरे पास जमा रखता हूँ। लेकिन यदि घर परिवार में किसी तरह का शादी-ब्याह आए, अन्य कोई प्रसंग हो जिसमें पहनने के लिए गहनों की आवश्यकता हो तो नि:संकोच ले जाइएगा। काम सध जाने के बाद  फिर जमा करा दीजिएगा।”  उन्होंने बताया कि हम छह शिक्षकों को तीन वर्ष लगे गहने छुड़वाने में। इस अवधि में सात-आठ बार ब्याह-शादी और अन्य आयोजनों के लिए उनके पास जाकर सम्बंधित शिक्षक गहने लाते और आयोजन होने के बाद फिर उनके पास रख आते। कैसा अनन्य, कैसा अद्भुत विश्वास!

सम्बंधित पात्रों के राज्यों का उल्लेख इसलिए किया कि वे अलग-अलग भाषा, अलग-अलग रीति-रिवाज़ वाले थे पर मनुष्य पर मनुष्य का विश्वास वह समान सूत्र था जो इन्हें एक करता था।

आज इस तरह के लोग और इस तरह का विश्वास कहीं दिखाई नहीं देता। जैसे-जैसे जीवन के केंद्र में पैसा प्रतिष्ठित होने लगा, विश्वास में विष का वास होने लगा। अमृतफल दे सकनेवाली मनुष्य योनि को विष-वास से पुन: विश्वास की ओर ले जाने का संभावित सूत्र, मनुष्यता को बचाये रखने के लिए समय की बड़ी मांग बन चुका है। इस मांग की पूर्ति हमारा परम कर्तव्य होना चाहिए।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण का 51 दिन का प्रदीर्घ पारायण पूरा करने हेतु आप सबका अभिनंदन। 🕉️

💥 साधको! कल महाशिवरात्रि है। कल शुक्रवार दि. 8 मार्च से आरंभ होनेवाली 15 दिवसीय यह साधना शुक्रवार 22 मार्च तक चलेगी। इस साधना में ॐ नमः शिवाय का मालाजप होगा। साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ भी करेंगे।💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 178 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain (IN) Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 178 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 178) ?

Captain Pravin Raghuvanshi NM—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. An alumnus of IIM Ahmedabad was involved in various Artificial and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’. He is also the English Editor for the web magazine www.e-abhivyakti.com.  

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc.

Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his Naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Awards and C-in-C Commendation. He has won many national and international awards.

He is also an IIM Ahmedabad alumnus.

His latest quest involves writing various books and translation work including over 100 Bollywood songs for various international forums as a mission for the enjoyment of the global viewers. Published various books and over 3000 poems, stories, blogs and other literary work at national and international level. Felicitated by numerous literary bodies..!

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 178 ?

☆☆☆☆☆

ज़रा सी कैद से ही

घुटन होने  लगी…

तुम तो पंछी पालने

के  बड़े  शौक़ीन थे…

☆☆

Just a little bit of confinement 

Made you feel so suffocated,

But keeping the birds caged

You were so very fond of…!

☆☆☆☆

 लगता था जिन्दगी को

बदलने में वक्त लगेगा

पर क्या पता था बदला 

वक्त जिन्दगी बदल देगा…!

☆☆

Used to feel it would take 

Time  to  change  the life

Never knew that changed 

Time would change the life…!

☆☆☆☆

हालात तो कह रहे हैं

मुलाकात नहीं मुमकिन,

पर उम्मीद कह रही है

थोड़ा  इंतजार  कर..🌺

☆☆

Circumstances are saying 

It’s not possible to meet 

But the expectation  says

Just  wait  for a  while..! 🌺

☆☆☆☆

अब तो तन्हाई भी

मुझसे, है कहने लगी,

मुझसे ही कर लो मोहब्बत,

मैं  तो  बेवफा नहीं…🌺

☆☆

Now,  even loneliness

has also started saying  

Please fall in love with me, 

At least, I am not unfaithful…

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 177 ☆ सॉनेट – ज्ञान ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है गीत – समा गया तुम में)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 177 ☆

☆ सॉनेट – ज्ञान ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

सुमति-कुमति हर हृदय बसी हैं।

सुमति ज्ञान की राह दिखाती।

कुमति सत्य-पथ से भटकाती।।

अपरा-परा न दूर रही हैं।।

परा मूल है, छाया अपरा।

पुरुष-प्रकृति सम हैं यह मानो।

अपरा नश्वर है सच मानो।।

अविनाशी अक्षरा है परा।।

उपज परा से मिले परा में।

जीव न जाने जा अपरा में।

मिले परात्पर आप परा में।।

अपरा राह साध्य यह जानो।

परा लक्ष्य अक्षर पहचानो।

भूलो भेद, ऐक्य अनुमानो।।

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

८-२-२०२२

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – मी प्रवासिनी ☆ “चला बालीला…” – भाग – ७ ☆ सौ राधिका भांडारकर ☆

सौ राधिका भांडारकर

☆ “चला बालीला…” – भाग – ७ ☆ सौ राधिका भांडारकर 

आज सकाळीच सतीश ने टी टेबलवर एक मस्त एक्सायटिंग घोषणा केली. “आजचा कार्यक्रम आहे बाली हाय क्रुझ. आपण सनसेट डिनर क्रुझ बुक केली आहे.”

वाॅव! बाली आणि समुद्र सफारी शिवाय परतायचे हे केवळ अशक्य!

बाली बेनोवा बंदर (जिथून  आमची क्रुझ सुरू होणार होती) आमच्या वास्तव्यापासून एक-दीड तासाच्या अंतरावर होते. आम्हाला बाली हाय क्रुझतर्फे  पिक अप आणि ड्रॉप होता.  दुपारी साडेतीन वाजता आम्ही निर्गमन करणार होतो त्यामुळे सकाळी आम्ही बरोबर आणलेले थेपले, दशम्या, बेसन वड्या, चिवडा, घारगे असे विविध पदार्थ खाऊन लाईट (?) लंच घेतले. बऱ्याच दिवसांनी पत्ते खेळलो, डॉब्लर्स नावाचा एक लहान मुलांचा पण अतिशय गमतीदार असा मानसिक तत्परता वाढविणारा  खेळही खेळलो. OLDAGE IS DOUBLE CHILDHOOD चाच जणू काही  अनुभव घेतला म्हणा ना!

बरोबर साडेतीन वाजता आमची सहा जणांची रंगीन टीम मस्त नटून थटून बेनोवा बंदरकडे जायला तयार झाली. आमची पिकअप कार आलेलीच होती. नेहमीप्रमाणेच गणवेशातला रुबाबदार हसतमुख पण नम्र ड्रायव्हर स्वागतास तयार होताच.

रस्त्यावरून जाताना प्रमोदच्या आणि ड्रायव्हरच्या नेहमीप्रमाणेच मस्त गप्पा चालू होत्या. भाषेचा अडसर कसाबसा पार करत गप्पा रंगल्या होत्या. तो सांगत होत, “इंडोनेशियामध्ये ८७% मुस्लिम आहेत पण बाली हे एकमेव असे बेट आहे की इथे ९०% हिंदू धर्मीय आहेत. हिंदू देवदेवतांची पूजा करणारे आहेत आणि हिंदू धर्माचा अभिमान बाळगणारे आहेत. घरोघरी हिंदू रिती परंपरा येथे पाळल्या जातात.”

अशा रितीने गप्पागोष्टी करत, फळाफुलांनी नटलेली वनश्री पहात, चौका-चौकातली शिल्पे आणि वास्तुकलेचे भव्य दर्शन घेत आम्ही बेनोवा बंदर वर पोहोचलो.  तिथले वातावरणच पर्यटन पूरक होते. सागर किनाऱ्यावर अनेक लहान-मोठी जहाजे नांगर टाकून उभी होती. आमच्यासारखेच अनेक उत्सुक  पर्यटक देशोदेशाहून  तिथे आलेले होते.अर्थात सारेच अत्यंत उत्साही आणि आनंदी मूडमध्ये  होते. आमची सनसेट डिनर क्रुझ संध्याकाळी  साडेपाचला सुटणार होती. जवळजवळ साडेतीन तासाची समुद्रसफर होती आणि डिनरसह संगीत, नृत्य असा भरगच्च कार्यक्रम बोटीवर असणार होता. तत्पूर्वी आम्हाला तिथे एक मधुर, शीतल स्वागत पेय देण्यात आलं. काउंटर वर आम्ही आमची तिकिटे घेतली प्रत्येकी ११ लाख इंडोनेशियन रुपये! जवळजवळ प्रत्येकी साडेसहा हजार भारतीय रुपये.  सर्व कारभार अतिशय शिस्तपूर्ण आणि नीटनेटका होता. सगळ्यांना सांभाळून बोटीपर्यंत नेले जात होते.  रुबाबदार वातावरण, सुसज्ज रेस्टॉरंट,सागराचं आणि आकाशाचं खुलं  दर्शन देणारा मस्त सुरक्षित डेक आणि सोबतीला हलकेच बालीनीज पारंपारिक वाद्य संगीत. एका वेगळ्याच वातावरणात गेल्याचा अनुभव आम्हाला मिळत होता.

ठीक साडेपाच वाजता बोटीने किनारा सोडला आणि त्या हिंदी महासागरातली ती अविस्मरणीय सफर सुरू झाली. निळे व्योम आणि आप या निसर्गतत्त्वांचा किती अनाकलनीय परिणाम मनावर होतो हे प्रत्यक्ष अनुभवत होतो. काही वर्षांपूर्वी आसाम मध्ये ब्रह्मपुत्रा नदीच्या दर्शनाने जी समाधीस्थ अवस्था काही क्षणापुरती का होईना पण जाणवली होती अगदी तशीच या सागर दर्शनाने पुनश्च जाणवत होती.” सागरा प्राण तळमळला.. सागरा…” अगदी नेमके हेच वाटत होते. खरं सांगू ?निसर्ग इतका अथांग, अफाट असतो की आपलं अस्तित्व त्याच्यासमोर फक्त कणभराचंच असल्यासारखं वाटतं! निसर्गासमोर सारं “मी पण” अहंकार, गर्व स्वतःविषयीच्या कल्पना, (गैर) सारं सारं काही क्षणात गळून पडतं.  मनाच्या खोल गाभाऱ्यात “कोहम” नाद घुमत राहतो.

आता माथ्यावरील निळ्या आकाशातले रंग बदलू लागले होते. बोट समुद्राच्या मध्यभागी आलेली होती. किनाऱ्यावरची घरे आणि हळूहळू पेटत चाललेले दूरचे दिवे हे सुद्धा खूप आकर्षक भासत होते.पश्चिम दिशेला ढळणार्‍या सूर्याने आकाशात केशरी, जांभळे रंग, उधळले होते मावळणाऱ्या सूर्यकिरणांतून पाण्यावर हलकेच तरंगणारे ते सोनेरी रंग पाहतांना कुसुमाग्रजांच्या कवितांच्या ओळी आठवल्या.

आवडतो मजला अफाट सागर

अथांग पाणी निळे

निळ्या जांभळ्या जळात केशर

सायंकाळी मिळे..

हवेतला  तो गुलाबी गारवा! स्तब्ध होत होतं सारं.. मन, डोळे जणूं अमृत प्राशन केल्यासारखे तृप्त होत होते. हलके हलके काळोखात बुडत चाललेला दिवस जणू काही उद्याचा नवा प्रकाश घेऊन येण्याचं आश्वासन देऊनच परतत होता. थोड्यावेळापूर्वीचा प्रकाशातला तो रोमँटिक निसर्ग कसा नि:शब्दपणे गूढ होत चालला होता.

ठीक साडेसात वाजता क्रुझ वर डिनर सुरू झाले. सोबत मस्त संगीत. आमच्याबरोबरचे युवक— युवतींचे मेळावे  अगदी धुंद, उत्तेजित झाले होते. आणि त्यांच्या समवेत त्यांना पाहताना नकळत आम्ही आमच्या गतकाळात जात होतो. कुठेतरी आजच्या आणि कालच्या काळाशी तुलनाही करत होतो. पण त्या क्षणी मात्र त्यांचं हे तारुण्य, जगणं, जीवन साजरं करणं पाहून निश्चितच हरखूनही गेलो होतो. त्यांचा प्रवास आमचा प्रवास निराळा होता. त्यांचं बाली पर्यटन आणि आमचं बाली पर्यटन यात खूप फरक होता. फरक ऊर्जेचा होता, मस्ती, भोगणं इतकच नव्हे तर खाण्यापिण्यातलाही होता. भरभरून जगणं आणि खूप काही जगून झाल्यानंतरच जगणं यातला फरक होता. समान फक्त एकच होतं. अनुभव. आनंदाचा, रिफ्रेश होण्याचा, रिक्रिएशनचा.

भरभरून खायला होतं. गरमागरम, आकर्षक आणि चविष्ट पदार्थांची रेलचेल होती.शौकीनांसाठी जलपानही होते. एकंदरच इंडोनेशियन जेवणाचा थाट औरच होता. उत्सुकतेपोटी आम्ही निरनिराळे पदार्थ चाखून पाहिले. काही आवडले, काही बेचव  वाटले. पण एकंदर अन्नसेवनाचा यज्ञ कर्म मजेत पार पडला.

त्यानंतर खास क्रुझ वरील सर्व पाहुण्यांसाठी  मनोरंजनाचा कार्यक्रम होता. अर्थातच संगीत आणि नृत्य. मुळातच बालीयन हे कलासक्तच आहेत. संगीत, नृत्य, नाट्य, अभिनय हे त्यांच्या धमन्यातूनच वाहत असावं.

बालीनीज नृत्य पाहण्याची आम्हालाही फार उत्सुकता होती.

बालीनीज  नृत्य हे लोक परंपरेचं प्रतीक आहे. शास्त्रोक्त पद्धतीची ती एक अतिशय मनोरम अशी नृत्यकला आहे. बालीनीज नृत्याच्या माध्यमातून नाट्यमयरीत्या हिंदू परंपरा, तसेच रामायण— महाभारतातील कथांची अतिशय मनोहारी मांडणी केली जाते. अनेक वाईट गोष्टींचे, विकारी वृत्तींचे (एव्हिल स्पिरिट्स) दमन हा विषय या नृत्याच्या माध्यमातून अतिशय प्रभावीपणे सादर केला जातो. या संपूर्ण नृत्यात हस्त,पाद, मान, बोटे, डोळे यांच्या कलापूर्ण हालचालीतून प्रेक्षकांसमोर पौराणिक कथा उलगडत जाते.  चांगल्या गोष्टींचा वाईट गोष्टींवर, सत्याचा असत्यावर,  देववृत्तीचा असुर वृत्ती वर विजय कसा होतो याचं अत्यंत आकर्षक देहबोली आणि मुद्राभिनयातून केलेलं प्रकटीकरण पाहताना प्रेक्षक थक्क होतात.

या बालीनीज नृत्या मागे अनेक वर्षांचा इतिहासही आहे. पंधराव्या शतकापासून बालीनीजची सांस्कृतिक परंपरा काहीशी बदलू लागली आणि हिंदू धर्मीय एक प्रकारच्या या नृत्य कलेतून एकत्र यायला लागले, अधिक जोडले जाऊ लागले.

तसे या शास्त्रोक्त पारंपारिक नृत्याचे अनेक प्रकार आहेत बारोंग, फ्रॉग, जॉग, जेगॉग,लेंगोंग काकॅक वगैरे. आणि प्रत्येक नृत्य प्रकारची वैशिष्ट्ये निराळी आहेत. विषय निराळे आहेत, पोशाख वेगळे आहेत. आमच्यासमोर बोटीवर जे नृत्य सादर होत होते ते बारोंग प्रकारातले होते.यात राधाकृष्णाची प्रेमलीला होती.

पुरुष आणि स्त्रियांचा नृत्य करताना परिधान केलेला पोशाख ही आकर्षक होता. या पोशाखाचे दोन भाग असतात. वरचा व खालचा कमरेपासून पायापर्यंतचा. वरच्या भागाला सॅश म्हणतात व खालच्या भागाला केन म्हणतात. संपूर्ण पोशाखाला साबुक असे म्हणतात. आणि प्रामुख्याने कपड्याचा रंग सोनेरी असतो. डोक्यावर टोपेग नावाचा लाकडी कला कुसरीचा मोठा गोल मुकुट असतो. बाकी गळ्यात, हातात केसात, फुलांच्या,खड्यांच्या  माळा घातलेल्या असतातच. नाचताना त्यांच्या हातात कधी पंखे, कधी फुलांच्या कुंड्याही असतात. एकंदर हा डान्स अतिशय नयनरम्य असतो. हे नृत्य बघत असताना मला केरळमधील कथकली, मोहिनीअट्टम किंवा ओडिसी नृत्याची प्रामुख्याने आठवण झाली.  देशोदेशीच्या कला कुठेतरी समानतेच्या धाग्याने जोडलेल्या असतात हे नक्कीच.

तर मित्रांनो!अशा रितीने  चौफेर आनंदाचा अनुभव घेत आम्ही रात्री अकरा वाजता घरी परत आलो.आमच्या बाली सफरीचा हा समारोपाचा टप्पा होता.  दुसऱ्या दिवशी दुपारी एक वाजता आमची परतीची फ्लाईट होती.डेनसपार ते सिंगापूर ते मुंबई.

बाली बेटावरचा अविस्मरणीय आनंदाचा अनुभव घेऊन आता भारतात परतायचे होते. या आठ दिवसात इंडोनेशियातील बाली या निसर्गरम्य बेटाशी आमचं एक आनंददायी आणि भावनिक नातच जुळून आलं होतं.  इथला निसर्ग, हिंदी महासागराचे विहंगम नजारे, इथली संस्कृती,  परंपरा, कला आणि माणसं यांच्याशी एक रेशीम धागा नकळत जुळला गेला होता.

बाली हे जसं देवांचं बेट तसं बाली हे स्वप्नांचंही बेट आहे.  इथे प्रत्येकासाठी काहीतरी आहे. शांतता आणि विश्रांतीच्या शोधात आलेल्या पर्यटकांसाठी समुद्राच्या लाटा पाहणे, सूर्योदय, सूर्यास्त पाहणे, पोहण्याचा मनसोक्त आनंद लुटणे हे सारं काही आहे. तरुणांसाठी इथे आनंददायी नाईट लाईफ आहे, आकर्षक मार्केट्स आहेत! हिरवीगार जंगले आहेत, कायाकिंग,सर्फरायडींग ,स्कुबा डायव्ह पॅरासेलिंग सारख्या साहसी सागरी क्रीडा आहेत. भौतिकता आणि आध्यात्मिकता यांची झालेली एक विलक्षण सरमिसळही इथे पाहायला मिळते.

आयुष्याच्या शेवटच्या टप्प्यावरची आमची ही बाली सहल आमच्यासाठी नक्कीच आनंदाची ओंजळ ठरली. वयाची आठवण ठेवूनही आम्ही या बेटावरचा प्रत्येक क्षण बेभानपणे जगलो मात्र. आणि जगणं हे किती आनंददायी आहे हा मंत्र घेऊन आणि आता पुढची सहल कुठे असे ठरवतच  भारतात परतलो. आमच्या विमानाने बालीची भूमी सोडली आणि उंच आकाशात झेप घेतली. पुन्हा एकदा वरून दिसणाऱ्या अथांग महासागराचे आणि गगनचुंबी गरुड विष्णूच्या शिल्पाचे निरोपाचे दर्शन घेतले आणि भारताच्या दिशेने .,”चला आता आपल्या घरी, आपल्या देशी” या भावनिक ओढीने आणि इतक्या दिवसांच्या मित्र—मैत्रीणीच्या,सहवासाच्या  विरहाची हुरहुर बाळगत परतीच्या प्रवासासाठीही आनंदाने  तयार झालो.

इथेच बाली सहलीची सफल संपूर्ण कहाणी समाप्त!

— समाप्त — 

© सौ. राधिका भांडारकर

ई ८०५ रोहन तरंग, वाकड पुणे ४११०५७

मो. ९४२१५२३६६९

[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆– “सूर्य घेऊनी शिंगांमध्ये…” – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? – “सूर्य घेऊनी शिंगांमध्ये– ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सूर्य घेऊनी शिंगांमध्ये

नदीकाठावर उभी गाय

भुकेलेल्या वासराला

पान्हा सोडीतसे माय

*

 बंधनरूपी गळ्यात अडणा 

 स्त्रीत्व म्हणूनी का या खुणा?

 ताबा मिळणे सोपे जावया

 अडण्याचा हा असे बहाणा !

*

 कुठेही जावो चरावयाशी

 सांजवेळी परतते  घराशी

 दुध दुभत्याची रेलचेलही

 गोधन असता नित हाताशी

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

मो 8149144177

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग-8 – जहाँ कदम बढ़े पत्रकारिता की ओर‌… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

श्री कमलेश भारतीय 

(जन्म – 17 जनवरी, 1952 ( होशियारपुर, पंजाब)  शिक्षा-  एम ए हिंदी, बी एड, प्रभाकर (स्वर्ण पदक)। प्रकाशन – अब तक ग्यारह पुस्तकें प्रकाशित । कथा संग्रह – 6 और लघुकथा संग्रह- 4 । ‘यादों की धरोहर’ हिंदी के विशिष्ट रचनाकारों के इंटरव्यूज का संकलन। कथा संग्रह – ‘एक संवाददाता की डायरी’ को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से मिला पुरस्कार । हरियाणा साहित्य अकादमी से श्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार। पंजाब भाषा विभाग से  कथा संग्रह- महक से ऊपर को वर्ष की सर्वोत्तम कथा कृति का पुरस्कार । हरियाणा ग्रंथ अकादमी के तीन वर्ष तक उपाध्यक्ष । दैनिक ट्रिब्यून से प्रिंसिपल रिपोर्टर के रूप में सेवानिवृत। सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व पत्रकारिता)

☆ संस्मरण – मेरी यादों में जालंधर – भाग- 8 – जहाँ कदम बढ़े पत्रकारिता की ओर‌… ☆ श्री कमलेश भारतीय ☆

(प्रत्येक शनिवार प्रस्तुत है – साप्ताहिक स्तम्भ – “मेरी यादों में जालंधर”)

मित्रो! आप सोच रहे होंगे कि आखिर यह जालंधर में ऐसा क्या है जो बार बार वही जाता हूँ! जालंधर में मैने कलम पकड़नी सीखी और शायद पत्रकारिता का क, ख, ग, भी यहीं से सीखा और पहले सीखा प्रेसनोट लिखना! कैसे भला? ‘विचारधारा’ के जितने आयोजन होते, बाद में मेरी जिम्मेदारी हो गयी कि गोष्ठी की पूरी रिपोर्ट लिखकर अखबारों के कार्यालय में पहुंचाऊं, क्योंकि मेरी हिंदी की लिखावट थोड़ी अच्छी थी और उन दिनों फोटोस्टेट करवा कर प्रेसनोट बांटा जाता था! मुझे स्कूटर चलाना कभी नहीं आया तो कोई स्कूटर वाला सहयोगी अपने स्कूटर के पीछे बिठाकर हर अखबार के दफ्तर ले जाता और इस तरह प्रेसनोट लिखने का शऊर सीखा। हालांकि दूसरे दिन समाचार प्रकाशित होने पर उस खबर का पोस्टमार्टम किया जाता कि ऐसा क्यों लिखा, ऐसे क्यों नही लिखा? मतलब मुद्दे की बात कहाँ है? जो समाचार कोई संदेश लोगों के बीच  मुद्दा ही स्पष्ट न कर पाये, वह  समाचार कैसा? तो इस तरह अनजाने ही पत्रकारिता की ओर कदम बढ़ते गये!

अब आपका परिचय अपने एक और दोस्त व कथाकार सुरेंद्र मनन से करवाता हूँ जो जालंधर के होने के बावजूद , मेरे सम्पर्क में चंडीगढ़ में आये! वे चंडीगढ़ में नौकरी कर रहे थे और रमेश बतरा के साथ चंडीगढ़ में हमारी दोस्ती का सफर शुरू हुआ! जालंधर भी कुछ मुलाक़ातें हुईं लेकिन ज्यादा मुलाकातें चंडीगढ़ में हुईं। इनका पहला कथा संग्रह उठो लछमीनारायण आया! इसके बाद कैद में किताब, फिर ये चंडीगढ़ से भी उड़ान भर दिल्ली जा पहुंचे, वहां इनकी रूचि दस्तावेजी फिल्में बनाने में बढ़ती गयी और अनेक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी जीते! पर फिर कहानी की ओर लौटे तब बर्षो बाद कथा संग्रह आया-अहमद अल हिल्लोल कहां हो? इतने बर्षों बाद मुझे याद रखा और वह कथा संग्रह हिसार के पते पर भेजा!

कैद में किताब और शिलाओं पर लिखे शब्द हिल्लोल भी आया! मैं इस दोस्त से जब फोन पर बात शुरू करता हूं तब हर बार कहता हूँ, हां भई सुरेंद्र मनन, नाम तो है मनन, भावें मेरी गल्ल मन्नन या न मन्नन ! फिर हम हंसते हुए नयी ताज़ी पूछते हैं, अपनी अपनी अपनी खैर खबर देते हैं! बेशक हमारी रूबरू मुलाक़ात पिछले कई सालों से नहीं हुई लेकिन दोस्ती बरकरार है! यह दोस्ती ज़िदाबाद! अब मिलने की इच्छा भी बलवती होती जा रही है!

जालंधर में मेरी एक लम्बे समय से महिला गीता डोगरा भी दोस्तों की सूची में शामिल हैं, जो सिमर सदोष और हिंदी मिलाप के माध्यम से परिचय के दायरे में आईं और‌ वैसे तो अमृतसर की थीं लेकिन विवाह जालंधर में हुआ तो समारोहों में मिलना जुलना होता रहा! ये वहां पहले पंजाब केसरी से जुड़ी रहीं  फिर दैनिक जागरण से! आजकल त्रिवेणी साहित्य मंच चला रही हैं और अनेक पुस्तकों‌ की रचना कर चुकी हैं, त्रिवेणी को कभी पालमपुर तो कभी मोगा तक ले जाती हैं। नाटक भी लिखा जो लूणा के दर्द पर केंद्रित है और पंजाब की श्रेष्ठ कहानियाँ का संपादन भी किया, जिसमें मेरी कहानी मंगवाकर सम्मानपूर्वक प्रकाशित की! बीच में साहित्यिक पत्रिका भी निकाली, उसमें भी मेरी रचनायें आती रहीं वैसे गीता डोगरा सबसे ज्यादा अमृता प्रीतम से प्रभावित हैं! इसीलिए इनकी पत्रिका भी  अमृता प्रीतम की पत्रिका नागमणि के आकार की है और‌ नाम भी है पारसमणि ! लघुकथा लेखन भी किया और बहुत ही भावुक कविताओं के संकलन भी इनके नाम हैं ‌आजकल थोडा़ अस्वस्थ रहती हैं, फिर भी साहित्य लेखन जारी है। संयोग देखिए की आज गीता का जन्मदिन है और अचानक इस ओर‌ मेरा ध्यान गया!इनकी स्वस्थता की दुआ करते आज जालंधर की यादों को यहीं पर विराम दे रहा हूँ। फिर मिलेंगे जालंधर की यादों के साथ!

क्रमशः…. 

© श्री कमलेश भारतीय

पूर्व उपाध्यक्ष हरियाणा ग्रंथ अकादमी

1034-बी, अर्बन एस्टेट-।।, हिसार-125005 (हरियाणा) मो. 94160-47075

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #226 – 113 – “माँ – अपने दामन ख़ुद काँटे रख…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “माँ – अपने दामन ख़ुद काँटे रख…” ।)

? ग़ज़ल # 113 – “माँ – अपने दामन ख़ुद काँटे रख…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

घर में इक माँ ही होती है,

जन्नत कदम तले होती है।

*

अपने दामन ख़ुद काँटे रख,

गुल तेरे जीवन में बोती है।

*

मुश्किल आन पड़े जो तुझपे,

पल्लू अश्क़ों  से  धोती  है।

*

भीगे ऑंख अश्क़ से तेरी,

वो आँसू ख़ून के रोती है।

*

आतिश को सूखा रखने वो,

ख़ुद  गीले  में ही सोती है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 105 ☆ ।। मुक्तक।। – ।।माँ,बहन,बेटी,पत्नी नारी तेरे रूपअनेक।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 105 ☆

☆ ।। मुक्तक।। – ।।माँ,बहन,बेटी,पत्नी नारी तेरे रूपअनेक।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

[1]

माँ से ही सवेरा और माँ से ही होती    रात है।

माँ की ममता और प्यार अनमोल   सौगात है।।

माँ पास में तो खुशी है दुनिया जहान  की।

माँ स्पर्श सुखद मानो प्रथम किरण प्रभात है।।

[2]

बेटियाँ  हरदम माँ बाप पर प्यार लुटाती हैं।

बेटियाँ एक नहीं दो वंशों का उद्धार कराती हैं।।

नारी जगतजननी है वो सृष्टि की रचनाकार।

प्रभु का बन प्रतिरूप बेटी जग में आती है।।

[3]

हर रिश्ते के मूलआधार में बेटी होती है।

अपनों की खुशी लिएअपना सुख खोती है।।

दो घरों में बराबर प्यार बाँटती है हर बेटी।

त्याग मूरत बेटी हर दुख में पहले रोती है।।

[4]

नसीब वालों के आंगन में सुंदर बेटी दिखती है।

भाग्यवालों कोही जन्म में पुत्री मिलती है।।

ईश्वर का अवतारऔर उपहार होती हैं बेटियाँ।

किस्मत वालोंआंगन में यह कली खिलती है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 167 ☆ हे सदा शिव शंभु शंकर, दुखहरण मंगल करण ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक अप्रतिम रचना  – “हे सदा शिव शंभु शंकर, दुखहरण मंगल करण..। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘हे सदा शिव शंभु शंकर, दुखहरण मंगल करण ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 हे सदा शिव शंभु शंकर, दुखहरण मंगल करण

सुख, विभव, आनंद-दायक, शांतिप्रद प्रभु तवचरण।।

कामना तव कृपा की ले नाथ हम आये शरण

आशुतोष अपारदानी कीजिये सुख दुख हरण।।1।।

 *

हृदय की सब जानते हो भक्त के, भगवान तुम

तुम्हीं संरक्षक जगत के प्राणियों के प्राण तुम।।

विधि न मालूम अर्चना की भावना के हैं सुमन

नेह आलोकित हृदय है, धवल हिम सा शुद्ध मन।।2।।

 *

तमावृत हर पथ जगत का मोह के अंधियार से

बढ़ रहे हैं कष्ट नित नव स्वार्थ के विस्तार से।।

है भयावह रात काली, कहीं न दिखती है किरण

तव कृपा की कामना ले हैं बिछे पथ में नयन।।3।।

 *

दीजिये वर ‘’कल’’ बने सत्यं शिवं शुभ सुंदरम

मन में करूणा का उदय हो, क्लेश, प्रभु हो जायें कम।।

अश्रु- जल कर सके उठती द्वेष- लपटों का शमन

विनत तव चरणों में शंकर हमारा शत शत नमन।।4।।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #222 ☆ गुफ़्तगू करना सीख ले… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

(डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत अप्रतिम कविता  गुफ़्तगू करना सीख ले । यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 222 ☆

गुफ़्तगू करना सीख ले… ☆

चंद लम्हें अपनों की ख़ुशी के लिए

उनके अंग-संग गुज़ारना सीख ले

बदल जाएगा ज़माने का चलन

तू ख़ुद पर भरोसा करना सीख ले

आजकल दस्तूर-ए-दुनिया से

वाक़िफ़ होना है बहुत लाज़िम

कौन अपना, पराया कौन

तनिक यह पहचानना सीख ले

ज़िंदगी का क्या भरोसा

कब तक साथ निभाएगी

तू अपनों की ख़ुशी के लिए

उनका साथ निभाना सीख ले

मौसम का क्या भरोसा

कब कश्ती का रुख बदल जाए

अपने कब बेवफ़ा हो जाएं

इस तथ्य को स्वीकारना सीख ले

यह दुनिया बड़ी ज़ालिम है

मुखौटा लगा सबको छलती

भरोसा करना मत किसी पर

तू ख़ुद से गुफ़्तगू करना सीख ले

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

19 जनवरी 2024

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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