हिन्दी साहित्य – पुस्तक समीक्षा ☆ संजय दृष्टि – अपराजिता — कवयित्री – छाया दीपक दास सक्सेना ☆ समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।  हम आपको प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक  पहुँचा रहे हैं। सप्ताह के अन्य दिवसों पर आप उनके मनन चिंतन को  संजय दृष्टि के अंतर्गत पढ़ सकते हैं। आज से प्रत्येक शुक्रवार हम आपके लिए श्री संजय भारद्वाज जी द्वारा उनकी चुनिंदा पुस्तकों पर समीक्षा प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

? संजय दृष्टि –  समीक्षा का शुक्रवार # 24 ?

?अपराजिता — कवयित्री – छाया दीपक दास सक्सेना  ?  समीक्षक – श्री संजय भारद्वाज ?

पुस्तक का नाम- अपराजिता

विधा- कविता

कवयित्री- छाया दीपक दास सक्सेना

? अपराजिता होती है कविता  श्री संजय भारद्वाज ?

रोटी, कपड़ा और मकान, मनुष्य की मूलभूत भौतिक आवश्यकताएँ हैं। इसी प्रकार अभिव्यक्ति, मनुष्य की मूलभूत मानसिक आवश्यकता है। संवेदनाएँ भावात्मक विरेचन से ही प्रवहमान रहती हैं। विरेचन का अभाव, प्रवाह को सुखा डालता है। शुष्कता आदमी के भीतर पैठती है। कुंठा उपजती है, कुंठा अवसाद को जन्म देती है।

अवसाद से बचने और व्यक्तित्व के चौमुखी विकास के लिए ईश्वर ने मनुष्य को बहुविध कलाएँ प्रदान कीं। काव्य कला को इनमें विशिष्ट स्थान प्राप्त है। भाग्यवान हैं वे लोग जो लेखनी द्वारा उद्भुत शब्दों के माध्यम से व्यक्त हो  पाते हैं। श्रीमती छाया दीपक दास सक्सेना उन्हीं सौभाग्यशाली लोगों में से एक हैं।

विलियम वर्ड्सवर्थ ने कविता को परिभाषित करते हुए लिखा है, ‘पोएट्री इज स्पॉन्टेनियस ओवरफ्लो ऑफ पॉवरफुल फीलिंग्स।’ यहाँ ‘स्पॉन्टेनियस’ शब्द महत्वपूर्ण है। कविता तीव्रता से उद्भुत अवश्य होती है पर इसकी पृष्ठभूमि में वर्षों का अनुभव और विचार होते हैं। अखंड वैचारिक संचय ज्वालामुखी में बदलता है। एक दिन ज्वालामुखी फूटता है और कविता प्रवाहित होती है। कवयित्री छाया दास के प्रस्तुत कविता संग्रह ‘अपराजिता’ में यह प्रवाह स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।

कविता संवेदना की धरती पर उगती है। मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने वाली संवेदना के ह्रास  से हर संवेदनशील व्यक्ति दुखी होता है। छाया दास की रचना में संवेदना के स्वर कुछ यूँ व्यक्त होते हैं-

*हर और उमस है

क्षणों को आत्मीयता की गंध से

परे करते हुए…*

आत्मीयता की निरंतर बढ़ती उपेक्षा मनुष्य को अतीत से आसक्त करती है और वर्तमान तथा भविष्य से विरक्त।

*अवगुंठन की घास उग आई है

उन रिक्त स्थानों में

जहाँ कोई था कभी,

वर्तमान और भविष्य की

उपस्थिति को परे ठेलते हुए

वर्तमान, भूतकाल बन जाता है

और भविष्य, वर्तमान के शव को

बेताल की तरह ढोता है…!*

बेताल सामाजिक जीवन से निकलकर राजनीति और व्यवस्था में प्रवेश करता है। परस्परावलम्बिता के आधार पर खड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था के गड्डमड्ड होने से चिंतित कवयित्री का आक्रोश शब्दों में कुछ इस तरह व्यक्त होता है-

*काश हर विक्रमादित्य के कंधे पर

मनुष्यता आरूढ़ रहती…*

आधुनिक समय की सबसे बड़ी विसंगति है, मनुष्य की कथनी और करनी में अंतर। मनुष्य मुखौटे पहनकर जीता है। मुखौटों का वह इतना अभ्यस्त हो चला है कि अपना असली चेहरा भी लगभग भूल चुका। ऐसे में यदि किसी तरह उसे ‘सत्य के टुकड़े’ से असली चेहरा दिखा भी दिया जाए तो वह सत्य को ही परे ठेलने का प्रयास करता है। सुविधा के सच को अपनाकर शाश्वत सत्य को दफ़्न करना चाहता है। यथा-

*मिट्टी खोदी

एक गढ्ढे में गाड़ दिया

सच के टुकड़े को..,

जो प्रतीक्षा करे सतयुग की..!*

शाश्वत सत्य से दूर भागता मनुष्य विसंगतियों  का शिकार है।

*जीवन की विसंगतियों को

झेलते हुए मनुष्य

बन गया है ज़िंदा जीवाश्म।*

जीवाश्म की ठूँठ संवेदना का विस्तृत बयान देखिए-

*मनुष्य,

उस वृक्ष का

ठूँठ मात्र रह गया,

जिस पर चिड़ियाँ

भूल से बैठती तो हैं

पर घोंसला नहीं बनाती हैं..!*

भौतिकता के मद में बौराये आदमी के लालच का अंत नहीं है। भूख और क्षमता तो दो रोटी की है पर ठूँसना चाहता है कई टन अनाज। यह तृष्णा उसे जीवनरस से दूर करती है। कवयित्री  भरा पेट लिए सरपट भागते इस भूखे का वर्णन सरल कथ्य पर गहन तथ्य के माध्यम से करती हैं-

 *गंतव्य की तलाश तो

मानव की अनबुझी प्यास है,

जितना भी मिलता है

उतना ही और मिलने की आस है।*

समय परिवर्तनशील है, निरंतर आगे जाता है। परिवर्तन की विसंगति है कि  काल के प्रवाह में कुछ सुखद परंपराएँ भी दम तोड़ देती हैं। कवयित्री इनका नामकरण ‘कंसेप्ट’ करती हैं। खत्म होते कंसेप्ट की सूची में दादी की कहानियाँ, आंगन, रीति-रिवाज, चिट्ठियों का लिखना-बाँचना बहुत कुछ सम्मिलित है। जिस पीढ़ी ने इन परंपराओं को जिया, उसमें इनकी कसक होना स्वाभाविक है।

कवयित्री मूलत: शिक्षिका हैं। उनके रचनाकर्म में इसका प्रतिबिंब दिखाई देता है। वह चिंतित हैं, चर्चा करती हैं, राह भी सुझाती हैं। आधुनिक समाज में घटते लिंगानुपात पर चिंता उनकी कविता में उतरी है। अध्यात्म, बेटियों की महिमा, आदर्शवाद, प्रबोधन उनकी कुछ रचनाओं के केंद्र में है। पिता की स्मृति में रचित ‘तुम कहाँ गए?’, माँ की स्मृति में ‘परंतु आत्मा से सदा’ और पुत्र के विवाह के अवसर पर ‘सेहरा’ जैसी कविताएँ नितांत व्यक्तिगत होते हुए भी समष्टिगत भाव रखती हैं। पिता द्वारा दी गई गुड़िया अब तक संभाल कर रखना विश्वास दिलाता है कि संवेदना टिकी है, तभी मानवजाति बची है।

कवयित्री ने हिंदी के साथ उर्दू के शब्दों का भी बहुतायत से प्रयोग किया है। कुछ रचनाओं में उर्दू की प्रधानता भी है। कवयित्री की यह स्वाभाविकता कविता को ज़मीन से जोड़े रखती है। प्राकृतिक सत्य है कि हरा रहने के लिए ज़मीन से जुड़ा रहना अनिवार्य है।

सांप्रतिक विसंगति यह है कि हरा रहने का साधारण सूत्र भी कलयुग ने हर लिया है।

*मेरी स्मृति हर ली गई है

कलजुगी अराजकता में…*

इस अराजकता की भयावहता के आगे साक्षात श्रीकृष्ण भी विवश हैं। योगेश्वर की विवशता कवयित्री की लेखनी से प्रकट होती है-

नहीं बजा नहीं पाता हूँ

दुनिया के महाभारत में शंख…

……….

नहीं बढ़ा पाता हूँ

सैकड़ों द्रौपदियों के चीर,

कैसे पोछूँ अश्रुओं के रूप में

कलकल बहती नदियों का नीर…

……….

गरीबी रेखा के नीचे तीस प्रतिशत

सुदामा इंतज़ार करते हैं महलों का..

…………

वृद्धाश्रम में कैद हैं

कितने वासुदेव-देवकी..

……….

नहीं भगा पाता हूँ

प्रदूषण के कालिया नाग को…

……….

कहां खाने जाऊँ मधुर चिकना मक्खन,

औंधे पड़े हैं सब माटी के मटके…

कवयित्री छाया दास का यह दूसरा कविता संग्रह है। जीवन का अनुभव, देश-काल-परिस्थिति की समझ, समाज को बेहतर दे सकने की ललक, सब कुछ इन कविताओं में प्रकट हुआ है।

कविता का भावविश्व विराट होता है। कविता हर समस्या का समाधान हो, यह आवश्यक नहीं पर वह समस्या के समाधान की ओर इंगित अवश्य करती है। कविता की जिजीविषा अदम्य होती है। वह कभी हारती नहीं है।

कविता स्त्रीलिंग है। स्त्री माँ होती है। कविता माँ होती है। कवयित्री ने अपनी माँ की स्मृति में लिखा है-

*माँ बन गई चूड़ियाँ

माँ बन गई महावर,

माँ बन गई सिंदूर,

सूर्य की आँखों का नूर,

माँ बन गई राम

माँ बन गई सुंदरकांड..!*

स्मरण रहे, कविता माँ होती है। कविता अपराजिता होती है। कवयित्री छाया दास को अनेकानेक शुभकामनाएँ।

© संजय भारद्वाज  

नाटककार-निर्देशक

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय, एस.एन.डी.टी. महिला विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिंदी साहित्य – संस्मरण ☆ दस्तावेज़ # 5 – मेरी डायरी के पन्ने से… – संस्मरण – बिखरता कुनबा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।

– श्री जगत सिंह बिष्ट 

(ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से “दस्तावेज़” श्रृंखला कुछ पुरानी अमूल्य यादें सहेजने का प्रयास है। दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित। इस शृंखला में अगला दस्तावेज़ सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा प्रेषित  “मेरी डायरी के पन्ने से… – संस्मरण – बिखरता कुनबा। यह जानते हुए भी कि कुनबे क्यों बिखर रहे हैं, फिर भी हम कुनबों को जोड़ने के स्वप्न देखते हैं। यही सकारात्मकता है। )

☆  दस्तावेज़ # 5 – मेरी डायरी के पन्ने से… – संस्मरण – बिखरता कुनबा ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆ 

 गाँव छोड़े मुझे काफी समय बीत गया। बाबूजी ने खेतों के बीचोबीच एक बड़ा – सा घर बनाया था। घर में प्रवेश से पहले लिपा पुता आँगन, तुलसी मंच और एक कुआँ हमारा स्वागत करता।

फिर आती एक सीढ़ी, जिसे चढ़कर तीन तरफ से खुला बरामदा हुआ करता था। यहाँ कपड़े और लकड़ी की सहायता से बनी एक आराम कुर्सी रखी रहती जिस पर बाबूजी अक्सर बैठे हुक्का गुड़गुड़ाया करते थे। कौन आया कौन गया, हाथ पैर धोए या नहीं, पैरी पौना (प्रणाम) किया या नहीं इन सब बातों की ओर उनका पूरा ध्यान रहता था। हाँ, उनके हाथ में एक जापमाला भी हुआ करती थी और वह दिवा – रात्रि उँगलियों में उसे फेरा करते थे।

बाबूजी जब अस्सी के ऊपर थे तब भी कमाल था कि कोई बात भूलते हों! संस्कारों में, रीति-रिवाज के पालन में, लेन -देन में, बहुओं की देखभाल में कहीं कोई कमी न आने देते। घर का सारा अंकुश उनके हाथ में था। सबको अपना हिस्सा मिले, सब स्वस्थ रहें, बहुएँ समय -समय पर अपने पीहर जाएँ, ज़ेवर बनाएँ, वस्त्र खरीदे इन सब बातों की ओर बाबूजी का पूरा ध्यान रहता था। खेतीबाड़ी साझा होने के कारण घर में धन का अभाव न था।

बाबूजी बहुत मेहनती थे। सत्तर साल की उम्र तक सुबह – शाम पहले तो खुद ही गोठ में जाते, गैया मैया की पूजा करते, उनके पैरों को छूकर प्रणाम करते उन्हें नहलाते, साफ करते फिर उनके पास उनके बछड़े को छोड़ते। वह भरपेट दूध पी लेते तो वे बाकी दूध दुहकर घर के भीतर ले लाते।

ताज़ा दूध उबल जाने पर अपनी आँखों के सामने बिठाकर अपने दोनों बेटों को और हम बच्चों को दूध पिलाते। घर में दो भैंसे भी थीं, उनकी भी खूब सेवा करते। दूध दुहकर लाते और उसी दूध से बेबे (दादीमाँ) दही जमाती, पनीर बनाती, मक्खन निकालती, घी बनाती। सुबह पराँठे के साथ ढेर सारा मक्खन मिलता, दोपहर को लस्सी, रात को पनीर। वाह ! बीजी ( माँ) और चाईजी ( चाचीजी) दोनों के हाथों में जादू था। क्या स्वादिष्ट भोजन पकाया करती थीं कि बस हम सब उँगलियाँ चाटते रहते थे।

घर के भीतर आठ बड़े कमरे थे और एक खुला हुआ आँगन। रसोई का कमरा भी बड़ा ही था और वहीं आसन बिछाकर हम सब भोजन किया करते थे। आँगन में बच्चों की तेल मालिश होती, मेरे चारों बड़े भाई मुद्गल उठा -उठाकर व्यायाम करते, उनकी भी मालिश होती और वे कुश्ती खेलने अखाड़ों पर जाते।

बेबे आँगन के एक कोने में कभी गेहूँ पीसती तो कभी चने की दाल। कभी मसालेदार बड़ियाँ बनाती तो कभी सब मिलकर पापड़। बेबे को दिन में कभी खाली बैठे हुए नहीं देखा। वह तो सिर्फ साँझ होने पर ही बाबूजी के साथ बैठकर फुरसत से हुक्का गुड़गुड़ाया करती और बतियाती।

बाबूजी सुबह- सुबह पाठ करते और बेबे नहा धोकर सब तरफ जल का छिड़काव करतीं। तुलसी के मंच पर सुबह शाम दीया जलाती। गायों को अपने हाथ से चारा खिलाती और अपनी दिनचर्या में जुट जातीं। बेबे हम हर पोता-पोती को अलग प्यार के नाम से पुकारती थीं। घर में किसी और को उस नाम से हमें पुकारने का अधिकार न था। मैं घर का सबसे छोटा और आखरी संतान था। वे मुझे दिलखुश पुकारा करती थीं। बेबे के जाने के बाद यह नाम सदा के लिए लुप्त हो गया। आज चर्चा करते हुए स्मरण हो आया।

ठंड के दिनों में गरम -गरम रोटियाँ, चूल्हे पर पकी अरहर की दाल, अरबी या जिमीकंद या पनीर मटर की स्वादिष्ट सब्ज़ियाँ सब चटखारे लेकर खाते। सब कुछ घर के खेतों की उपज हुआ करती थी। ताजा भोजन खाकर हम सब स्वस्थ ही थे। हाँ कभी किसी कारण पेट ऐंठ जाए तो बेबे बड़े प्यार से हमारी नाभी में हींग लगा देती और थोड़ी ही देर में दर्द गायब! कभी दाँत में दर्द हो तो लौंग का तेल दो बूँद दाँतों में डाल देतीं। दर्द गायब! सर्दी हो जाए तो नाक में घी डालतीं। सर्दी गुल! खाँसी हो जाए तो हल्दी वाला दूध रात को पिलाती। शहद में कालीमिर्च का चूर्ण और अदरक का रस मिलाकर पिलाती। खाँसी छूमंतर ! पर हम इतने सारे भाई बहन कभी किसी वैद्य के पास नहीं गए।

घर के हर लड़के के लिए यह अनिवार्य था कि दस वर्ष उम्र हो जाए तो बाबा और चाचाजी की मदद करने खेतों पर अवश्य जाएँ। गायों, भैंसो को नहलाना है, नाँद में चारा और चौबच्छे में पीने के लिए पानी भरकर देना है। बाबूजी अब देखरेख या यूँ कहें कि सुपरवाइजर की भूमिका निभाते थे।

लड़कियों के लिए भी काम निश्चित थे पर लड़कों की तुलना में कम। बहनें भी दो ही तो थीं। बेबे कहती थीं- राज करण दे अपणे प्यो दे कार, ब्याह तो बाद खप्पेगी न अपणे -अपणे ससुराला विच। (राज करने दे अपने पिता के घर शादी के बाद खटेगी अपनी ससुराल में) और सच भी थी यह बात क्योंकि हम अपनी बेबे, बीजी और चाइजी को दिन रात खटते ही तो देखते थे।

दोनों बहनें ब्याहकर लंदन चली गईं। बाबूजी के दोस्त के पोते थे जो हमारे दोस्त हुआ करते थे। घर में आना जाना था। रिश्ता अच्छा था तो तय हो गई शादी। फिर बहनें सात समुंदर पार निकल गईं।

दो साल में एक बार बहनें घर आतीं तो ढेर सारी विदेशी वस्तुएँ संग लातीं। अब घर में धीरे – धीरे विदेशी हवा, संगीत, पहनावा ने अपनी जगह बना ली। घर में भाइयों की आँखों पर काला चश्मा आ गया, मिक्सर, ज्यूसर, ग्राइंडर, टोस्टर आ गए। जहाँ गेहूँ पीसकर रोटियाँ बनती थीं वहाँ डबलरोटी जैम भी खाए जाने लगे। हर भोजन से पूर्व सलाद की तश्तरियाँ सजने लगीं। घर में कूलर लग गए। रसोई से आसन उठा दिए गए और मेज़ कुर्सियाँ आ गईं। ठंडे पानी के मटके उठा दिए गए और घर में फ्रिज आ गया। जिस घर में दिन में तीन- चार बार ताज़ा भोजन पकाया जाता था अब पढ़ी -लिखी भाभियाँ बासी भोजन खाने -खिलाने की आदी हो गईं।

सोचता हूँ शायद हम ही कमज़ोर पड़ गए थे सफेद चमड़ियों के सामने जो वे खुलकर राज्य करते रहे, हमें खोखला करते रहे। वरना आज हमारे पंजाब के हर घर का एक व्यक्ति विदेश में न होता।

बेबे चली गईं, मैं बीस वर्ष का था उस समय। बाबूजी टूट से गए। साल दो साल भर में नब्बे की उम्र में बाबूजी चल बसे। वह जो विशाल छप्पर हम सबके सिर पर था वह हठात ही उठ गया। वह दो तेज़ आँखें जो हमारी हरकतों पर नज़र रखती थीं अब बंद थीं। वह अंकुश जो हमारे ऊपर सदैव लगा रहता था, सब उठ गया।

घर के बड़े भाई सब पढ़े लिखे थे। कोई लंदन तो कोई कैलीफोर्निया तो कोई कनाडा जाना चाहता था। अब तो सभी तीस -बत्तीस की उम्र पार कर चुके थे। शादीशुदा थे और बड़े शहरों की पढ़ी लिखी लड़कियाँ भाभी के रूप में आई थीं तो संस्कारों की जड़ें भी हिलने लगीं थीं।

बीस वर्ष की उम्र तक यही नहीं पता था कि अपने सहोदर भाई -बहन कौन थे क्योंकि बीजी और चाईजी ने सबका एक समान रूप से लाड- दुलार किया। हम सबके लिए वे बीजी और चाईजी थीं। बाबा और चाचाजी ने सबको एक जैसा ही स्नेह दिया। हम सभी उन्हें बाबा और चाचाजी ही पुकारते थे। कभी कोई भेद नहीं था। हमने अपने भाइयों को कभी चचेरा न समझा था, सभी सगे थे। पर चचेरा, फ़र्स्ट कज़न जैसे शब्द अब परिवार में सुनाई देने लगे। कभी- कभी भाभियाँ कहतीं यह मेरा कज़न देवर है। शूल सा चुभता था वह शब्द कानों में पर हम चुप रहते थे। जिस रिश्ते के विषय से हम बीस वर्ष की उम्र तक अनजान थे उस रिश्ते की पहचान भाभियों को साल दो साल में ही हो गई। वाह री दुनिया!

पहले घर के हिस्से हुए, फिर खेत का बँटवारा। अपने -अपने हिस्से बेचकर चार भाई बाहर निकल गए।

बहनें तो पहले ही ब्याही गई थीं।

अगर कोई न बिखरा था तो वह थीं बीजी और चाइजी। उन्होंने बहुओं से साफ कह दिया था – सोलह साल दी उम्रा विच इस कार विच अस्सी दुआ जण आई सन, हूण मरण तक जुदा न होणा। बेशक अपनी रोटी अलग कर ले नुआँ। (सोलह साल की उम्र में हम दोनों इस घर में आई थीं अब मरने तक जुदा न होंगी हम। बेशक बहुएँ अपनी रोटी अलग पका लें)

हमारा मकान बहुत बड़ा और पक्का तो बाबूजी के रहते ही बन गया था। सब कहते थे खानदानी परिवार है। गाँव में सब हमारे परिवार का खूब मान करते थे। बिजली, घर के भीतर टूटी (नल), ट्रैक्टर आदि सबसे पहले हमारे घर में ही लाए गए थे। पर सत्तर -अस्सी साल पुराना कुनबा विदेश की हवा लगकर पूरी तरह से बिखर गया।

आज मैं अकेला इस विशाल मकान में कभी – कभी आया जाया करता हूँ। अपनी बीजी, चाइजी और चाचाजी से मिलने आता हूँ। वे यहाँ से अन्यत्र जाना नहीं चाहते थे। खेती करना मेरे बस की बात नहीं सो किराए पर चढ़ा दी। जो रोज़गार आता है तीन प्राणियों के लिए पर्याप्त है। मैं यहीं भटिंडा में सरकारी नौकरी करता हूँ। बाबा का कुछ साल पहले ही निधन हुआ। अविवाहित हूँ इसलिए स्वदेश में ही हूँ वरना शायद मैं भी निकल गया होता।

आज अकेले बैठे -बैठे कई पुरानी बातें याद आ रही हैं।

बाबूजी कहते थे, *दोस्तानुं कार विच न लाया करो पुत्तर, पैणा वड्डी हो रही सन। (अपने दोस्तों को लेकर घर में न आया करो बेटा, बहनें बड़ी हो रही हैं।)

हमारी बहनों ने हमारे दोस्तों से ही तो शादी की थी और घर पाश्चात्य रंग में रंग गया था। बाबूजी की दूरदृष्टि को प्रणाम करता हूँ।

बेबे कहती थीं – हॉली गाल्ल कर पुत्तर दीवारों दे भी कान होंदे। (धीरे बातें करो बेटे दीवारों के भी कान होते हैं)

बस यह दीवारों के जो कान होने की बात बुजुर्ग करते थे वह खाँटी बात थी। घर के दूसरे हिस्से में क्या हो रहा था इसकी खबर पड़ोसियों को भी थी। वरना इस विशाल कुनबे के सदस्य इस तरह बिखर कर बाहर न निकल जाते।

© सुश्री ऋता सिंह

27/4/1998

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ रचना संसार #33 – गीत – सिसक रहीं बागों की कलियाँ… ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ☆

सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(संस्कारधानी जबलपुर की सुप्रसिद्ध साहित्यकार सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ ‘जी सेवा निवृत्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश, डिविजनल विजिलेंस कमेटी जबलपुर की पूर्व चेअर पर्सन हैं। आपकी प्रकाशित पुस्तकों में पंचतंत्र में नारी, पंख पसारे पंछी, निहिरा (गीत संग्रह) एहसास के मोती, ख़याल -ए-मीना (ग़ज़ल संग्रह), मीना के सवैया (सवैया संग्रह) नैनिका (कुण्डलिया संग्रह) हैं। आप कई साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत एवं सम्मानित हैं। आप प्रत्येक शुक्रवार सुश्री मीना भट्ट सिद्धार्थ जी की अप्रतिम रचनाओं को उनके साप्ताहिक स्तम्भ – रचना संसार के अंतर्गत आत्मसात कर सकेंगे। आज इस कड़ी में प्रस्तुत है आपकी एक अप्रतिम गीतगीत – सिसक रहीं बागों की कलियाँ

? रचना संसार # 33 – गीत – सिसक रहीं बागों की कलियाँ…  ☆ सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’ ? ?

सिसक रहीं बागों की कलियाँ,

नागफनी के डेरे हैं।

श्वाँस हुई जहरीली अब तो,

अपने आँख तरेरे हैं।।

 **

मौन वृक्ष हिय आरी चलतीं,

दिवस हुए हैं अंधियारे।

कुंठाओं का सागर छलता,

संशय के बादल न्यारे।।

पुष्प गुलाबों के मुरझाए,

सभी भाग्य के फेरे हैं।

 *

सिसक रही बागों की कलियाँ,

नागफनी के डेरे हैं।।

 **

हैं पनिहारिन के घट रीते,

नीड पंछियों के  टूटे।

बिन मौसम होती बरसातें,

अपना घर खुद नर लूटे।।

शोकाकुल धरती माता है,

उर में दुख बहुतेरे हैं।

 *

सिसक रही बागों की कलियाँ,

नागफनी के डेरे हैं।।

 **

प्यासा नभ प्यासी नदिया है,

लाती उमस हवाऐं हैं।

स्वारथ ने मानव के देखो

रच ली स्वयं व्यथाऐं हैं।।

तन मन देखो व्याकुल होता,

पाये घाव घनेरे  हैं।

सिसक रही बागोंं की कलियाँ,

नागफनी के डेरे हैं।।

© सुश्री मीना भट्ट ‘सिद्धार्थ’

(सेवा निवृत्त जिला न्यायाधीश)

संपर्क –1308 कृष्णा हाइट्स, ग्वारीघाट रोड़, जबलपुर (म:प्र:) पिन – 482008 मो नं – 9424669722, वाट्सएप – 7974160268

ई मेल नं- [email protected], [email protected]

संपादक – हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #260 ☆ भावना के दोहे ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं भावना के दोहे )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 260 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे  ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

थाम लिया है आपने, चलते रहना संग।

थामें रहना राह में,  हूँ मैं आधा अंग।।

*

साथी तुमको मानना,  स्वामी मेरे आज।

दासी के इस रूप में, करती सारे काज।।

*

मिलते थे हम आपसे, वही पुरानी याद।

पूरी की है आपने, सपनों की फरियाद।।

*

तू मोहन का रूप है,  मैं राधिके सुजान।

मिलती है प्रभु आपसे , राधा को पहचान।।

*

जीवन जीने की कला, तुझ से सीखी मीत।

तेरा ही गुण गा रहे, लिखते तुझपर गीत।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #242 ☆ एक बुंदेली पूर्णिका – जा दुनिया ने सगी कोऊ की… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी – एक बुंदेली पूर्णिका – जा दुनिया ने सगी कोऊ की आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 242 ☆

☆ एक बुंदेली पूर्णिका – जा दुनिया ने सगी कोऊ की☆ श्री संतोष नेमा ☆

सबको  बोझा   मूडे   धरत  हो

भैया  काहे खों  सिर  धुनत  हो

*

बखत  पड़े कोऊ काम न  आबे

सुध  ओरन  की  खूब  धरत हो

*

इनकी   उनकी   छोड़ो   भईया

दंद – फंद   में   काय  परत   हो

*

कैसे  रख  हो  प्रसन्न  सभै  खोँ

चिंता  सब  की  काय  करत हो

*

अपनी  सोचो  अपनी  देख  लो

जबरन  सच्चाई   सें   डरत   हो

*

भईया  कब  लौ सुन हो  सबकी

सब  के  लाने   काय   मरत   हो

*

जा  दुनिया  ने  सगी  कोऊ  की

“संतोष”  पीछू  काय  भगत  हो

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 238 ☆ स्नेहामृत… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 238 – विजय साहित्य ?

☆ स्नेहामृत ☆

चहाटळ वृत्तीलाही

संजीवक असे चहा

एकांतात रमताना

चहा पिऊनीया पहा…. 1

*

चहा पिताना डोकवा

आठवांच्या आरश्यात

चहा गवती पाल्याचा

मजेशीर भुरक्यात… !

*

रंग असो कोणताही

वाफाळता हवा चहा

गोडी लागे सवयीने

वेळेवरी हवा पहा… !

*

आवडीचे पेयपान

मरगळ घालवीते

संवादाचा कानमंत्र

जीभेवरी घोळवीते… !

*

चहा नावाचे व्यसन

करी श्रम परीहार

अर्धा कप चहातून

स्नेहामृत उपचार…. !

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “ भुरूभुरू पाऊस, गरमागरम काॅफी आणि तो…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “ भुरूभुरू पाऊस, गरमागरम काॅफी आणि तो…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

तसंही तुझ्या बोलण्याला धरबंध काही असतो का…

घटकेत एक बोलतोस तर घटकेत दुसरचं सांगतोस..

वर सांगतोस मी काय म्हणतोय ते समजतंय का तुला…

मी एकशे ऐंशी कोनात फक्त मान वळवते.. आणि तुला विचारते याचा अर्थ समजलाच असेल की तुला… तुला माझा राग येतो… नि म्हणतो हि काय चेष्टा आहे.. साधं हो कि नाही हे सांगताही येऊ नये तुला.. माणसानं समजावं तरी काय?..

कळलं की नाही कळलं…

अगदी हेच हेच होतं माझं तू जेव्हा घटकेत कधी हे तर पुढच्या घटकेत कधी ते… कसं समजून घ्यावं रे माणसानं… जेव्हा दोन अगदी विरुद्ध टोकाच्या गोष्टी एकाच वाक्यात येतात तेव्हा… मग इतकाच समज होतो माझा तुझाच काहीतरी गोंधळ उडालाय आणि त्यात तू पुरता अडकलायस… तुझं तुला तरी नीट कळलं आहे कि नाही कुणास ठाऊक…. आडातच नाही तर….

आताचीच गोष्ट घे… बाहेर पावसाच्या हलक्या हलक्या सरी पडत आहे… आणि आपण दोघे कोपऱ्यावरच्या कॅफेच्या व्हरांड्यात गरम गरम काॅफीचा मग हाती धरून… टी. एलिएडसच्या कवितेवर बोलत बसलोय… नव्हे नव्हे मी बोलतेय आणि तू ऐकतोस आहेस… निदान तसं तुझे कान माझ्याकडे आहेत म्हणून मला तसं वाटतं… आणि तुझे डोळे मात्र बाहेर पडणाऱ्या पावसावर खिळलेत… माझ्या नजरेतून ते काही सुटलेलं नसतं… पण यावरची गंमत म्हणजे तुझं मनं… ते तर काॅफी, कॅफे, मी आणि तो पाऊस या सगळ्याची क्षणभरच दखल घेतं नि पसार झालेलं असतं… अगदी तुझ्याही नकळत आणि मला ते जाणवतं तुझ्या बोलण्यावरून… तू बोलत जातोस…

… खरंच आता या पावसात मनसोक्त भिजावं अगदी मनमुराद.. वयं विसरून तु आणि मी.. किती मजा येईल… आता पावसाची एक सर आपल्या टेबलकडे वळते आणि तू बोलतोस अशात एक कोवळं उन पडावं.. श्रावणमासा सारखं… उन पावसाचा खेळ इंद्रधनुष्यात बघायला मिळावा… पाऊस थबकतो आणि काळ्या ढगाच्या रघाआडून सूर्य आळसावून डोकं बाहेर काढत आपले डोळे किलंकिले करत किरणांची उघडझाप करू लागतो… पावसाच्या सरीत मी अल्लड नवतरुणी सारखी लाजेने चूर चूर होऊन इंद्रधनू सारखी गोरी मोरी तुला दिसते तेव्हा.. तू पुढे बोलतोस अशा वेळी एक वाऱ्याची थंडगार झुळूक यावी आणि तिने या पावसाच्या सरी वर सरी पडत राहणाऱ्या या नव तरुणीच्या अंग कांती वर हलकासा शिरशिरीचा काटा फुलून यावा… तो तिच्या अंगोपांगाला लपटलेला पदर देखिल वाऱ्याच्या झुळकेवर थरथरत पसरून जावा… अगदी ते तसेच चित्र उभं राहतं तुझ्या नजरेसमोर आणि तू बोलतोस… यावेळी मग हातात असावा काॅफीचा मग… सोबत असावी कवितावेडी मैत्रीण.. टी. एलिएडसची कविता वाचत… इतकं रोमॅन्टिक वातावरणात असेल तर… तारूण्यचा बहर कधीच संपू नये असं का बरं वाटणार नाही… कारण तेच तर रसिक असतं मन… अक्षर, अमर्यादित असल्यासारखे…. बाकी सगळ्यांना मर्यादा असतात.. पाऊस, वारा, ऊन, तन.. सगळं सगळं कधी तरी थांबतच असतं….

तू असाच वाहत वाहत जात असतोस.. आणि मी तुला म्हणते

तसंही तुझ्या बोलण्याला धरबंध काही असतो का…

घटकेत एक बोलतोस तर घटकेत दुसरचं सांगतोस..

वर सांगतोस मी काय म्हणतोय ते समजतंय का तुला…

आणि मी वेडी कवीता तुझ्या बोलण्याच्या मतितार्थाला शब्दांच्या जंजाळात अडकवू पाहते… काही बोलले शब्द हाती सापडतात तर काही तसेच बरेचसे सटकतात… मी फक्त तेव्हा

मी एकशे ऐंशी कोनात फक्त मान वळवते.. आणि.. आणि….

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – मनमंजुषेतून ☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-१२ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित ☆

सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

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☆ ‘माझी शिदोरी…’ भाग-१२ ☆ सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

बाळसेदार पुणे..

रोज सकाळी सुस्नात होऊन, तुळशीपुढे दिवा लावून, सुबकशी रांगोळी काढून, हातात हळदी कुंकवाची कुयरी सावरत सुवासिनी, श्री जोगेश्वरी दर्शन घेऊन मगच स्वयंपाकाला पदर बांधायच्या. वारांप्रमाणे वेळ काढून एखादी उत्साही गृहिणी समोरच्या बोळातून बेलबागेकडे प्रस्थान ठेवायची. आमच्या हातात आईच्या पदराचे टोक असायचं. आई भगवान विष्णूच दर्शन घ्यायला सभा मंडपात शिरली की आईच्या पदराचं टोक सोडून आमचा मोर्चा मोराकडे वळायचा. खिडकीवजा जागेत दोन मोर पिसारा फुलवित दिमाखात फिरायचे. आम्ही मोरपिसांचे मोहक रंग आणि पिसाऱ्यावरची पिसं मोजत असतांना मोर आपला पिसांचा पसारा आवरता घ्यायचा. आणि मग मनांत खट्टू होऊन आम्ही मागे वळायचो.

तर काय ! आनंदाने आणि सुगंधाने वेडच लागायचं. पानोपान फुलांनी डंवरलेल्या झाडांनी, बकुळीचा सडा शिंपलेला असायचा. अगदी ‘अनंत हस्ते कमलावराने देता किती घेशिल दो कराने, ‘अशी स्थिती व्हायची आमची. इवल्याश्या मोहक फुलांचा गजरा मग लांब सडक वेणीवर रुळायचा. अलगद पावलं टाकली तरी नाजूक फुलं पायाखाली चिरडली जायची. नाजूक फुलांना आपण दुखावलं तर नाही ना?असं बालमनात यायचं. बिच्चारी फुलं ! रडता रडता हसून म्हणायची, “अगं चुकून तू आमच्यावर पाय दिलास, तरी मी तुझ्या पायांना सुगंधचं देईन हो !

देवळाच्या पायरीवर बसलेल्या आईला आम्ही विचारलं, ” आई इथे मोर आहेत म्हणून या देवळाला मोरबाग का नाही गं म्हणत? बेलबाग काय नाव दिलंय. ? आई बेलबागेचं गुपित सांगायची, ” हे भगवान श्री विष्णूंचं मंदिर आहे. इथे पूर्वी बेलाचं बन होतं. फडणवीसांचं आहे हे मंदिर. इथे शंकराची पिंड असून खंडोबाचे नवरात्र पेशवे काळातही साजरं व्हायचं. तुळशीबागेत पूर्वी खूप तुळशी म्हणून ती तुळशीबाग. हल्लीचं एरंडवणा पार्क आहे ना ! तिथे खूप म्हणजे खूपच एरंडाची झाड होती अगदी सूर्यकिरणांनाही जमिनीवर प्रवेश नव्हता. एरंडबन म्हणून त्याचं नाव.. अपभ्रंश होऊन पडलं एरंडवणा पार्क. रस्त्याने येतानाही नावांची गंमत सांगून आई आम्हाला हसवायची. प्रवचन कीर्तन असेल तर ते ऐकायला ति. नानांबरोबर

(माझे वडील आम्ही पंत सचिव पिछाडीने रामेश्वर चौकातून, बाहुलीच्या हौदा कडून, भाऊ महाराज बोळ ओलांडून, गणपती चौकातून नू. म. वि. हायस्कूलवरून श्री जोगेश्वरीकडे यायचो. ऐकून दमलात ना पण चालताना आम्ही काही दमत नव्हतो बरं का ! 

गुरुवारी प्रसादासाठी हमखास, घोडक्यांची सातारी कंदी पेढ्याची पुडी घेतली जायची. तिथल्याच ‘काका कुवा’ मेन्शन ह्या विचित्र नावांनी आम्ही बुचकळ्यात पडायचो. वाटेत गणपती चौकाकडून घरी येताना शितळादेवीचा छोटासा पार लागायचा. कधीकधी बाळाला देवीपुढे ठेवून एखादी बाळंतीण बारावीची पूजा करताना दिसायची. तेला तुपानी मॉलिश केलेल्या न्हाऊनमाखून सतेज झालेल्या बाळंतपणाला माहेरी आलेल्या माझ्या बहिणी, बाळांना, माझ्या भाच्यांना देवीच्या ओटीत घालून बाराविची पूजा करायच्या, तेव्हां त्या अगदी तुकतुकीत छान दिसायच्या. नवलाईची गोष्ट म्हणजे घरी मऊशार गुबगुबीत गादीवर दुपट्यात गुंडाळलेली, पाळण्यात घातल्यावर किंचाळून किंचाळून रडणारी आमची भाचरं सितळा देवीच्या पायाशी, नुसत्या पातळ दुपट्यावर इतकी शांत कशी काय झोपतात? नवलच होतं बाई! कदाचित सितळा आईचा आशीर्वादाचा हात त्यांच्या अंगावरून फिरत असावा. गोवर कांजीण्यांची साथ आली की नंतर उतारा म्हणून दहिभाताच्या सितळा देवी पुढे मुदी वर मुदी पडायचा. तिथली व्यवस्था बघणाऱ्या आजी अगदी गोल गरगरीत होत्या. इतक्या की त्यांना उठता बसता मुश्किल व्हायचं, एकीनी आगाऊपणा करून त्यांना विचारलं होतं “आजी हा सगळा दहीभात तुम्ही खाता का? आयांनी हाताला काढलेला चिमटा आणि वटारलेले डोळे पाहून आम्ही तिथून पळ काढायचो ‘आगाऊ ते बालपण ‘ दुसरं काय ! 

पाराच्या शेजारी वि. वि. बोकील हे प्रसिद्ध लेखक राह्यचे. त्यांच्याकडे बघतांना आमच्या डोळ्यात कमालीचा आदर आणि कुतूहल असायचं. त्यांच्या मुलीला चंचलाला आम्ही पुन्हा पुन्हा नवलाईने विचारत होतो “, ए तुझे बाबा ग्रेट आहेत गं, एवढं सगळं कधी लिहितात ? दिवसा की रात्री? शाई पेननी, की बोरुनी? ( बांबू पासून टोकदार केलेल लाकडी पेनच म्हणावं लागेल त्याला) एवढं सगळं कसं बाई सुचतं तुझ्या बाबांना? साधा पेपर लिहिताना मानपाठ एक होते आमची. शेवटी शेवटी तर कोंबडीचे पाय बदकाला आणि बदकाचे पाय कोंबडीला असे अक्षर वाचताना सर चरफडत गोल गोल भोपळा देतात. ” कारण पेपर लिहिताना अक्षरांचा कशाचा कशाला मेळच नसायचा, त्यामुळे सतत लिहिणारे वि. वि. बोकील आम्हाला जगातले एकमेव महान लेखक वाटायचे.

आमची भाचे कंपनी मोठी होत होती. विश्रामबागवाड्याजवळच्या सेवासदनच्या भिंतीवर( हल्लीच चितळे बंधू दुकान, )सध्या इथली मिठाई, करंजी, समोसे, वडा खाऊन गिऱ्हाईक गोलमटोल होतात, पण तेव्हां त्या भिंतीवर किती तरी दिवस डोंगरे बालामृतची गुटगुटीत बाळाची जाहिरात झळकली होती. ती जाहिरात बघून प्रत्येक आईला वाटायचं माझं बाळ अगदी अस्स अस्सच व्हायला हवं ग बाई, ‘.. मग काय मोहिमेवर निघाल्यासारखी डोंगरे बालामृतची बघता बघता भरपूर खरेदी व्हायची. सगळी बाळं गोंडस, गोपाळकृष्ण दिसायची. आणि मग काय ! सगळं पुणचं बाळसेदार व्हायचं.

बरं का मंडळी म्हणूनच त्यावेळची पिढी अजूनही भक्कम आहे. आणि हो हेच आहे त्या पिढीच्या आरोग्याचे गमक. जोडीला गाईच्या दुधातून पाजलेली जायफळ मायफळ मुरडशिंग हळकुंड इत्यादी नैसर्गिक संपत्तीची अगदी मोजून वेढे दिलेली बाळगुटी असायचीच. मग ते गोजिरवाणं गोंडस पुणं आणखीनच बाळसेदार दिसायचं.

– क्रमशः भाग १२.

© सौ राधिका -माजगावकर- पंडित

पुणे – 51  

मो. 8451027554

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 224 ☆ सुखद संदेश… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना सुखद संदेश। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 224 ☆ सुखद संदेश…

विनम्रता का भाव जीत का आधार बनता है। विकट समस्या भी एक समय के बाद स्वयं हल हो जाती है। जहाँ एक ओर लोग इसे सहजता से स्वीकार करते हैं तो वहीं दूसरी ओर लोग रो पीट कर, थक हार कर इसे ईश्वर की नियति मानकर अपनाते हैं। भाव कोई भी हो वक्त हर मरहम की दवा बन सबको जीने का पाठ पढ़ाता है। जिस वातावरण में हम रहते हैं वहाँ का असर पड़ना स्वाभाविक है, बुद्धिमानी तो इसमें है कि हमें अपनी संगति का सतत ध्यान रखना चाहिए, किसी कीमत पर इससे समझौता न हो। आध्यात्मिक शक्ति हमको जीवन मूल्यों के साथ अपने उद्देश्यों से भी परिचित कराती है इसलिए इसके साथ रहिए…अर्चना, वंदना, भक्ति की शक्ति को अपनी ताकत बना ब्रह्मांड से जुड़ें।

*

करें हम आराधना

नित्य सरस साधना

भेदभाव दूर होवे

प्रार्थना तो कीजिए।

*

वंदना करेंगे सभी

काज पूरे होंगे तभी

मिलजुल कर रहें

शुभाशीष लीजिए। ।

*

कोई न विश्वास दूजा

धर्म कर्म सत्य पूजा

आनन्द में डूबकर

भक्ति रस पीजिए।

*

धार के उम्मीद सारे

प्रेमभाव जो निहारे

ज्ञान भरी ज्योति जले

ये संदेश दीजिए। ।

*

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 32 – बिल्ली का गाना ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना बिल्ली का गाना)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 32 – बिल्ली का गाना ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

यह कहानी है एक ऐसे गांव की, जहां की हर चीज़ अनोखी थी। गांव का नाम था “गायबपुर”, जहां लोग अजीबोगरीब शौक रखते थे। इस गांव में एक बिल्ली थी, जिसका नाम था “म्याऊं-सर”। म्याऊं-सर का एक खास शौक था – वह हर सुबह बांग्ला गाने गाने का शौक रखती थी। अब सवाल यह था कि एक बिल्ली गाने गा सकती है? लेकिन गायबपुर के लोग तो अपने मजेदार शौक के लिए जाने जाते थे, इसलिए उन्होंने इसे गंभीरता से ले लिया।

गांव के लोग म्याऊं-सर के गाने को सुनने के लिए हर सुबह एकत्र होते। पहले तो गांव के लोग समझ नहीं पाए कि यह क्या हो रहा है, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें इसकी आदत हो गई। म्याऊं-सर जब गाना शुरू करती, तो गांव में हलचल मच जाती। अब यह तो तय था कि गाना किसी इंसान का नहीं था, लेकिन लोग इसे सुनने के लिए बेताब रहते थे।

गांव के कुछ लोग इस स्थिति पर चिंता कर रहे थे। “क्या यह बिल्ली सच में गाना गा रही है?” एक बुजुर्ग ने कहा। “क्या हमें इसे गायक का दर्जा देना चाहिए?” दूसरे ने कहा। सब लोग एक-दूसरे की तरफ देखते रहे। अंततः गांव के प्रधान ने यह तय किया कि म्याऊं-सर को एक पुरस्कार देना चाहिए। उन्होंने घोषणा की कि म्याऊं-सर को “सर्वश्रेष्ठ गायिका” का खिताब दिया जाएगा।

गांव के लोग इस फैसले से खुश थे, लेकिन कुछ लोग इसके खिलाफ थे। उन्होंने कहा, “यह सब बेतुकी बात है! एक बिल्ली को कैसे गायिका माना जा सकता है?” लेकिन प्रधान ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया। उन्होंने म्याऊं-सर के लिए एक विशेष समारोह आयोजित किया, जिसमें गांव के सभी लोग शामिल हुए।

समारोह में म्याऊं-सर को एक स्वर्ण पदक और एक बड़ी सी मछली का तोहफा दिया गया। म्याऊं-सर ने गाने का काम जारी रखा और गांव के लोग उसकी प्रशंसा करने लगे। लेकिन इसके साथ ही, गांव में कुछ नई समस्याएं भी आ गईं। अब गांव के लोग रोज म्याऊं-सर के गाने के लिए पैसे देने लगे थे। कुछ लोग तो म्याऊं-सर के गाने को सुनने के लिए अपनी जमीन तक बेचने लगे।

गायबपुर में यह स्थिति धीरे-धीरे बढ़ती गई। अब तो गांव के बच्चे भी म्याऊं-सर के गाने के दीवाने हो गए थे। वे उसके गाने को सुनने के लिए स्कूल नहीं जाते थे। लेकिन फिर एक दिन, म्याऊं-सर अचानक गायब हो गई। गांव में हड़कंप मच गया। सब लोग म्याऊं-सर की तलाश में निकल पड़े। कुछ लोगों ने कहा, “शायद म्याऊं-सर किसी बड़े संगीत कार्यक्रम में भाग लेने गई होगी!” जबकि दूसरों ने कहा, “शायद वह अब गाना नहीं गाना चाहती।”

गांव के लोगों ने बहुत कोशिश की, लेकिन म्याऊं-सर का कोई सुराग नहीं मिला। लोगों ने कई दिन तक उसके लिए पूजा-पाठ किया, लेकिन वह वापस नहीं आई। अंत में, गांव के लोग इस बात को मानने लगे कि शायद म्याऊं-सर गाने का शौक छोड़ चुकी है। उन्होंने अपने-अपने काम में लगना शुरू किया।

कुछ महीने बाद, एक नया शख्स गांव में आया। उसका नाम था “गायकीपुर”, और वह खुद एक गायक था। उसने गांव वालों को बताया कि वह म्याऊं-सर की गायकी के बारे में सुन चुका है और उसे जानने के लिए आया है। गांव वालों ने उसे म्याऊं-सर की कहानी सुनाई और बताया कि कैसे उसने उन्हें अपनी गायकी से प्रभावित किया।

गायकीपुर ने कहा, “यह तो बहुत अच्छी बात है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि असली गायकी क्या होती है?” गांव वालों ने चौंकते हुए कहा, “क्या मतलब?” गायकीपुर ने उन्हें समझाया, “गायकी तो इंसानों का काम है। बिल्ली का गाना तो एक मजाक है।”

गांव के लोगों ने इस पर गंभीरता से विचार किया। उन्होंने महसूस किया कि वे एक बिल्ली की वजह से अपने जीवन की अहमियत को भूल गए थे। म्याऊं-सर की गायकी एक मजाक बनकर रह गई थी, जबकि असली गायकी और संगीत की महत्वता को उन्होंने नजरअंदाज कर दिया था।

इस घटना के बाद, गांव के लोग म्याऊं-सर को भूल गए और अपने असली सपनों की ओर बढ़ने लगे। गायबपुर ने फिर से अपने असली रंगों में लौटने की कोशिश की। और इस बार, कोई भी बिल्ली के गाने की बात नहीं करता। म्याऊं-सर अब केवल एक याद बन गई थी, एक हास्यास्पद लेकिन महत्वपूर्ण कहानी, जो इस बात की याद दिलाती थी कि कभी-कभी हम बेतुके शौक और हास्यास्पद चीज़ों में अपने असली लक्ष्यों को भूल जाते हैं।

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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