(ई-अभिव्यक्ति में श्रीमति उमा मिश्रा ‘प्रीति’ जी का स्वागत। पूर्व शिक्षिका – नेवी चिल्ड्रन स्कूल। वर्तमान में स्वतंत्र लेखन। विधा – गीत,कविता, लघु कथाएं, कहानी, संस्मरण, आलेख, संवाद, नाटक, निबंध आदि। भाषा ज्ञान – हिंदी,अंग्रेजी, संस्कृत। साहित्यिक सेवा हेतु। कई प्रादेशिक एवं राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक एवं सामाजिक संस्थाओं द्वारा अलंकृत / सम्मानित। ई-पत्रिका/ साझा संकलन/विभिन्न अखबारों /पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित। पुस्तक – (1)उमा की काव्यांजली (काव्य संग्रह) (2) उड़ान (लघुकथा संग्रह), आहुति (ई पत्रिका)। शहर समता अखबार प्रयागराज की महिला विचार मंच की मध्य प्रदेश अध्यक्ष। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – परिवर्तनशील सोच।)
बिल्ली को खिड़की पर देखकर मुझे बड़ी चिढ़ जाती और गुस्सा भी आता था।
बचपन में मेरे पड़ोस में रहने वाली दादी की बात याद आ जाती कि बिल्ली कहती थी कि मेरे मालिक की आंख फूट जाए जिससे मैं सारा दूध पी सकूं कुत्ता बहुत वफादार होता है वह मालिक की उम्र लंबी करने की दुआ मांगता है इसलिए कुत्ते को रोटी दिया करो बेटा।
इस दादी मां की बात मुझे हमेशा याद रहती और मुझे पता नहीं क्यों बहुत गुस्सा आता था क्योंकि वह चूहा भी खाती थी। मैं उस पर पानी डालती और हमेशा भागती रहती थी वह भी मुझे बहुत गुस्से से देखती थी। ऐसा लगता था उसकी बड़ी-बड़ी आंखें मुझे खा जाएंगी।
मैंने कभी बिल्लियों को एक रोटी भी नहीं दी मन में एक अजीब सी घृणा सी थी। मैंने कभी उसे एक रोटी नहीं दी मुझे ऐसा लगता था कि यह बिल्ली रोज मुझे चिढ़ाने आती है। आज मुझे पता नहीं क्यों इसे देखकर बहुत दया आ रही है और इसकी म्याऊं म्याऊं में एक अजीब सा दर्द है। इसकी आंखों में आंसू भी है। रोटी बनाते-बनाते उसे बड़े ध्यान से देख रही थी। वह और दिन की अपेक्षा बहुत दुबली भी नजर आ रही थी। उसका पेट भी पिचका था और इस तरह रोटी को लालची नजरों से देख रही थी। उसे देखकर मुझे बहुत दया आई और मैंने उसे एक रोटी दे दी जिसे उसने तुरंत लपक कर एक क्षण में खा लिया। फिर मैंने उसे दूसरी रोटी दी उसे लेकर वह चली गई। सच में वक्त के साथ इंसान और उसकी सोच बदलती है समय बहुत बलवान होता है। वक्त के साथ सोच को भी परिवर्तनशील करना चाहिए।
☆ पर्यटक की डायरी से – मनोवेधक मेघालय – भाग-१० ☆ डॉ. मीना श्रीवास्तव ☆
(षोडशी शिलॉन्ग)
प्रिय पाठकगण,
आपको हर बार की तरह आज भी विनम्र होकर कुमनो!(मेघालय की खास भाषामें नमस्कार, हॅलो!)
फी लॉन्ग कुमनो!(कैसे हैं आप?)
आपकी प्रतिक्रियाओं ने मुझे सचमुच बहुत कुछ दिया है! मित्रों, हमने जो थोड़ा बहुत मेघालय देखा, उसकी महिमा पिछले नौ भागों में मैंने बखान की है, परन्तु हमारी यह यात्रा ११ दिनों की थी, इसलिए हम फिर मेघालय यात्रा करेंगे यह तो निश्चित है ही! मेघालय की नयनाभिराम स्मृतियाँ संजोकर लिखा हुआ यह दसवाँ और आगे के भाग मैंने खास करके षोडश वर्षीय, नवयौवना के सामान यौवन से लहराते और महकते शिलॉन्ग यानि, इस मेघालय की राजधानी के लिए आरक्षित कर रखे थे| हमने मुंबई से आसामकी राजधानी गुवाहाटी का सफर हवाई जहाज से किया। उज्ज्वलने (मेरा जमाई) मेघालय के संपूर्ण प्रवास हेतु कॅब बुक की थी| हवाई अड्डेपर आसामका एक ड्राइवर अजय हमारे स्वागत के लिए हाज़िर था| उसके साथ हमने अगले ११ दिन अत्यंत आनंद से प्रवास किया| कभी घमासान बारिश का आक्रमण, कभी कोहरे का गहरा गलीचा, कभी तंग गलियारे, कभी घुमावदार मोड़, तो कभी हमारी देरी, इन सब को धैर्यपूर्वक सहते हुए अजय अविरत गाडी चला रहा था, यातायात के सभी नियमों का सख्ती से पालन करते हुए! वह बड़े ही प्रेमपूर्वक हमारे साथ संवाद कर रहा था और कहाँ क्या देखने लायक है, इस बारे में सूचना और मार्गदर्शन भी कर रहा था| किसी भी पर्यटन स्थल के निकट पहुँचते ही मुझे तो वह “नानी आप ये कर सकता है/ नहीं कर सकता” यह प्यार भरी चेतावनी देता था। हम समूचे सफर में मधुर गीत (बंगाली या आसामी) सुनते गए| उन्हींमें से एक गाना था भूपेन हजारिका का बहुत ही मीठा तथा श्रवणीय ऐसा “ओ गंगा”! हम सबको वह बहुत ही भाया! हमारे पसंदीदा इस गाने का वीडियो आखरी में जोड़ा है| हमने गुवाहाटी से शिलॉन्ग को जाते जाते भूपेन हजारिका के सुंदर स्मारक को देखा|
शिलॉन्ग भारत के मेघालय राज्य की राजधानी और सबसे बड़ा शहर है| इसके अलावा शिलॉन्ग पूर्व खासी हिल्स जिले का प्रशासकीय केंद्र है| १९६९ तक यह शहर संयुक्त आसाम प्रांत की राजधानी था| १९७२ साल में मेघालय स्वतंत्र राज्य के रूप में प्रस्थापित होने के बाद यहीं शहर मेघालय की राजधानी बना और आसाम की राजधानी गुवाहाटी के एक उपनगर दिसपूर में स्थानांतरित की गई| आज शिलॉन्ग मेघालय की आर्थिक, सांस्कृतिक तथा वाणिज्य राजधानी है| २०२४ में इस शहर की लोकसंख्या है अंदाजन ५०८०००, यहीं लोकसंख्या २०११ में अंदाजन १४३००० इतनी थी| यहाँ के लगभग ४७ प्रतिशत निवासी ख्रिश्चन धर्मीय तथा ४२ प्रतिशत निवासी हिंदू हैं| यहाँ की अधिकृत भाषा अंग्रेजी है और खासी, जैंतिया तथा गारो इन स्थानिक भाषाओँ को राजकीय दर्जा दिया गया है|
खासी और जैंतिया हिल्स यह भूभाग पारंपारिक काल से खासी जनजाति के आधिपत्य में था| यहाँ की राजधानी सोहरा (चेरापुंजी) हुआ करती थी| परंतु सिल्हेट से आसाम तक रास्ता निर्माण करने हेतु ईस्ट इंडिया कंपनी को यहाँ की जमीन की आवश्यकता महसूस हुई| इसके कारण युद्ध हुआ और ब्रिटिशों का पलड़ा भारी रहा| १८३३ साल में यह भूभाग ब्रिटिशों ने जीत लिया। परंतु चेरापुंजी यह स्थान सुविधाजनक न होने से ब्रिटिशों ने १८६० के दशक में शिलॉन्ग शहर की स्थापना की| १८७४ में ब्रिटिश सरकार ने नवनिर्वाचित आसाम प्रांत की स्थापना की तथा शिलॉन्ग आसाम की राजधानी का शहर बन गया| यहाँ के पहाड़ी प्रदेश व् सौम्य मौसम के कारण ब्रिटिशों को यह शहर पूर्व के स्कॉटलँड जैसा प्रकृतिसंपन्न और सुंदर लगता था| मात्र एक लोकप्रिय पर्यटनस्थल होने के बावजूद यहाँ मार्गिकाओं और रेल्वेमार्गों का विकास नहीं हो पाया, इसलिए शिलॉन्ग की प्रगति मंदगति से होती रही|
यहाँ आए ख्रिश्चन मिशनरियों ने इस भाग में ख्रिश्चन धर्म का प्रसार किया| साथ ही बच्चों की शिक्षा हेतु स्कूल शुरू किये| इस भाग को प्रकृति की अनमोल विरासत का वरदान है। ब्रिटीश उपनिवेशवाद की विरासत का संदेश देनेवाले घरों की रचना तथा कॅफे में बजाया जाने वाला संगीत यह इस शहर की अलग विशेषता है| यहाँ पर्यटन के दृष्टिकोण से हर जगह प्रकृति की सम्पन्नता दृष्टिगोचर होती है| यह प्रदेश सुन्दर तो है ही, साथ ही प्रदूषणमुक्त भी है| शिलॉन्ग पहाड़ी के उतरन पर बसा हुआ है| यहाँ के शिलॉन्ग व्यू पॉइंट से आप समूचा शहर देख सकते हैं| आसमान में फैला हुआ घना कोहरा और उसमें खोया हुआ शिलॉन्ग शहर अलग ही अनुभूती देकर जाता है| (हम यह पॉईंट देख नहीं पाए, क्यों कि उस वक्त वह बंद किया गया था)
शिलॉन्ग हवाईअड्डा शहर से ३० किलोमीटर उत्तर में स्थित है| यहाँ से दिल्ली, कोलकाता, साथ ही ईशान्य के दिमापूर, गुवाहाटी, सिलचर, इम्फाल, अगरतला इत्यादि प्रमुख शहरों के लिए सीधी विमान यात्रा उपलब्ध है| राष्ट्रीय महामार्ग क्रमांक ६ शिलॉन्ग को गुवाहाटी और अन्य महत्वपूर्ण शहरों के साथ जोड़ता है | दुर्भाग्य से आज भी शिलॉन्ग भारतीय रेल के नक़्शे पर नहीं है| परन्तु भविष्य में गुवाहाटी से मेघालय रेलमार्ग का निर्माण होगा यह आशा की जा रही है| आज की तारीख में गुवाहाटी रेल्वे स्टेशन शिलॉन्ग से १०५ किलोमीटर दूर है|
मित्रों, अब हम शिल्लोन्ग के(अर्थात हमने देखे हुए) सुन्दर स्थलों का सफर करेंगे!
उमियम सरोवर (Umiyam Lake)
शिलॉन्गकी ओर जाने वाले हमारे रास्ते पर एक अति लावण्यमय, जैसे किसी चित्रप्रतिमा को बड़े प्रयास और प्रेम से चित्रित किया हो, ऐसा उमियम सरोवर दिखाई दिया| मानवनिर्मित होकर भी उसका प्राकृतिक नैसर्गिक सरोवर समान भासमान होने वाला सौंदर्य बिलकुल अनायास ही सिनेमास्कोपिक और फोटोजेनिक था! कहीं भी कैमरा फिक्स कीजिये और क्लिक करिये, उस चित्र की मोहिनी मन मोहने लगेगी ही! दीवाना बनाने वाले इस सरोवर को घेरा है, वृक्षलताओं की हरितिमा और विशाल पूर्व खासी पर्वत श्रृंखलाओंने! शिलॉन्ग के मध्यबिंदु से यह स्थल १६ किलोमीटर दूर है| उमियम नदीको पाट कर बनाया हुआ यह विशाल और विलक्षण मानवनिर्मित आरस्पानी (आईने की तरह दमकता) सरोवर देखते ही हम उस पर लुब्ध हो बैठे! स्थानीय लोग इसे “बडापानी” कहते हैं| अगर आप सैरसपाटे के लिए गाँव से बाहर जाना चाहते हैं, तो यह जगह उसके लिए एकदम सही है! इसीलिये यहाँ पर्यटकों का कभी खत्म न होने वाला जमघट लगा रहता है, खास कर छुट्टियों के दिनों में! यहाँ का सूर्यास्त नयनाभिराम नारंगी, गुलाबी और लाल रंगों की आभा बिखेरते हुए रंगावली अंकित करने के पश्चात ही ही रात्रि के आगोश में विराम लेता है! बारिश के बाद के विहंगम इंद्रधनुषी रंग देखना है तो यहीं रुकिए, क्योंकि, ये सारे रंग इस सरोवर में अपना राजसी रुप निहारते रहते हैं!
हम यहाँ पहुंचे तो देखा कि हरित पन्नों की माला में जैसे नीलम गूंथा हो, वैसे ही सदाहरित वनश्री में यह सरोवर चमक रहा था| आकाश के बदलते रंग इस जलाशय के जल के रंगों को भी बदल रहे थे। कभी धवल, कभी नीलकांती, तो कभी मेघवर्णम शुभांगम! मैं तो इस परिसर में जैसे खो गई| मित्रों, आप भी यहाँ ऐसे ही खो जाएंगे! यहाँ का नौकानयन यानि इस जल की नीलिमा को निकट से देखने का स्वर्णिम अवसर ही समझिये, अर्थात यह अपरिहार्य ही है! नौकानयन करते हुए हमारी नौका (मोटरबोट) छोटे से शंकू के आकार के पन्नों जैसे प्रतीत होने वाले द्वीपों को घेरा डालते हुए विहार कर रही थी| हमारा भाग्य अच्छा था, क्योंकि, हमें ले जाने वाली नौका का ईंधन बीच में ही ख़त्म हो गया और उसके आने तक हम आसपास के सौंदर्य का आनंद लेते रहे, जैसे कोई बोनस मिला हो! वह आये ही नहीं यह आशा कर रहे थे, कि वह आ ही गया! इस सरोवर में वॉटर स्पोर्ट्स की सुविधा भी उपलब्ध है (kayaking, boating, water cycling, scooting, canoeing इत्यादि)| अर्थात इसके लिए आसमान और सरोवर का शांत और सौम्य रहना आवश्यक है! आप को अगर ऐसा कुछ भी नहीं करना है, तो मजे से चहलकदमी करें और बस इस खूबसूरत क्षेत्र को देखने का आनंद लें! अगर हो सके तो इस झील के पास किसी होटल में ठहरें और प्रकृति की सुंदरता का जी भर कर आनंद अनुभव करें|
मित्रों, अगले भाग में शिलाँग में और उसके आसपास चहल कदमी करेंगे! तब तक थोड़ा इन्तजार करना होगा!
आज की मुलाकात बस इतनी!
तो अभी के लिए खुबलेई! (khublei)यानि खास खासी भाषा में धन्यवाद!)
टिप्पणी
*लेख में दी जानकारी लेखिका के अनुभव और इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारी पर आधारित है| यहाँ की तसवीरें व्यक्तिगत हैं!
*गाने और विडिओ की लिंक साथ में जोड़ रही हूँ| (लिंक अगर न खुले तो, गाना/ विडिओ के शब्द यू ट्यूब पर डालने पर वे देखे जा सकते हैं|)
“ओ गंगा तुमी” अल्बम-“गंगोत्सव”
गायक और संगीतकार: भूपेन हजारिका
(इसी गाने का हिन्दी संस्करण भी यू ट्यूब पर उपलब्ध है|)
The Sounds of Meghalaya – #GOLDEN by MEBA OFILIA | Meghalaya Tourism Official
☆ अखेरचा हा तुला दंडवत…! ☆ श्री विश्वास देशपांडे ☆
उगवतीचे रंग
अखेरचा हा तुला दंडवत…!
रविवार दि ६फेब्रुवारी २०२२ चा दिवस उजाडला आणि सकाळी सकाळी अघटित अशी बातमी कानावर पडली. गानसम्राज्ञी लतादीदी गेल्या. अवघा देश शोकसागरात बुडाला. जे स्वर ऐकत सकाळ व्हायची त्या स्वरांची संध्याकाळ झाला होती. गानसूर्य अस्ताला गेला. जणू दिवसातले, नव्हे जगण्यातलेच चैतन्य कोणीतरी काढून घेतले होते. संपूर्ण दिवसच उदासवाणा झाला होता. दिनकर मावळला आणि लतादीदी पंचत्वात विलीन झाल्या. सूर निमाले.
कविवर्य भा रा तांबेंचं एक गीत लतादीदींनी गाऊन अजरामर केलं आहे. ‘ मावळत्या दिनकरा, अर्घ्य तुज जोडून दोन्ही करा…’ दीदींच्या रूपाने हा गानसूर्य मावळला होता. याच गाण्यात सुंदर ओळी आहेत
जो तो वंदन करी उगवत्या
जो तो पाठ फिरवी मावळत्या
रीत जगाची ही रे सवित्या
स्वार्थपरायणपरा.
उगवत्या सूर्याला वंदन करणे आणि मावळत्या सूर्याकडे पाठ फिरवणे ही जगाची रीतच आहे. पण हा गानसूर्य अस्ताला गेल्यावर जगाने आपली ही रीत बदलली. या मावळत्या दिनकराला डोळे भरून बघण्यासाठी माणसांनी दाटी केली. घराघरात टीव्हीसमोर बसून या मावळत्या दिनकराचे अनेकांनी दर्शन घेतले. मुंबईत लोकांची दाटी आणि घराघरातील लोकांच्या डोळ्यात अश्रूंची दाटी. प्रत्येकाला जणू आपल्याच घरातील कोणीतरी गेल्यासारखे वाटले. गानसम्राज्ञी, गानसरस्वती, गानकोकिळा यासारखी कितीही विशेषणे तुम्ही लावा, ‘ लता ‘ याच नावाने प्रत्येकाच्या हृदयात घर केले होते. ही ‘ लता ‘ प्रत्येकाच्या मनात अशी रुजली होती की ‘ तिचा वेलू गेला गगनावरी…’ स्वर्गापर्यंत हा वेलू जाऊन पोहोचला. बहुधा स्वर्गलोकीच्या देवांनी, गंधर्वांनी तिला सांगितलं असावं की आता बस झालं पृथीवर लोकांना रिझवणं. खूप प्रतीक्षा करायला लावलीस आम्हाला. आता आम्हालाही तू हवी आहेस.
त्या सुरांची जादूच अशी अनोखी होती. सोन्याच्या तारेसारखा लवचिक, मुलायम आवाज ! खरं तर या आवाजाला उपमाच नाही. दीदी दिसायला तुमच्या आमच्यासारख्याच. पण जेव्हा त्या गायला लागत तेव्हा त्या गळ्यातून गंधार बाहेर पडे. सरस्वतीची वीणा झंकारत असे, श्रीकृष्णाची बासरी स्वरांचे रूप घेऊन प्रकट होई. सकाळी भूपाळी, भजन, भक्तिगीतं म्हणून हा आवाज उठवायचा, संकटात आधार होऊन धीर द्यायचा, ‘ ऐ मेरे वतन के लोगो…’ म्हणत राष्ट्रभक्ती जागवायचा. ‘ सागरा प्राण तळमळला… ‘ या शब्दांनी अंगावर रोमांच उभे करायचा. ‘ मोगरा फुलला ‘, ‘ आनंदवनभुवनी ‘ यासारख्या गीतांनी एका वेगळ्याच आनंदरसाची बरसात करायचा. श्रीरामचंद्र कृपालू, बाजे रे मुरलीया बाजे सारखी गाणी वेगळ्या विश्वात घेऊन जायची. रात्रीच्या वेळी हा आवाज अंगाई गाऊन निजवायचा. दुसऱ्या शब्दात सांगायचे तर ‘ जेथे जातो तेथे तू माझा सांगाती…’ असलेला हा आवाज होता. ( उगवतीचे रंग )
एक मुलगी नऊ दहा वर्षांची असल्यापासून श्रोत्यांसमोर गायला सुरुवात करते. पितृछत्र हरपल्यावर हीच चौदा पंधरा वर्षांची कोवळी पोर मोठी होऊन आपल्या घराची, भावंडांची काळजी घेते. दैवी सूर तर तिच्या गळ्यात असतोच. पण आपल्या मेहनतीने ती त्या सुरांना सौंदर्य प्राप्त करून देते. मिळेल तिथून शिकत जाते. शाळेत फारसे न गेलेली ही मुलगी पुढे स्वतःच्या बळावर शिकत जाते. पुस्तके वाचते तशीच माणसे वाचते. त्या सगळ्यातून जीवनाचे धडे घेते. स्वतःची तत्वे, नैतिक अधिष्ठान या गोष्टींशी कधीही तडजोड करत नाही. मिळेल त्या संगीतकाराकडून शिकत जाते. पण आयुष्यात आलेल्या या सगळ्या संकटांनी ती करपून जात नाही. तिचं आयुष्य म्हणजे जणू आनंदयात्री ! संगीत, प्रवास, क्रिकेट, खाणं आणि खाऊ घालणं, नर्म विनोद, नकला या सगळ्या सगळ्या गोष्टींचा आनंद तिने लुटला. लोकांनाही भरभरून दिला. तिच्या सुरांचं झाड अखेरपर्यंत बहरतच राहिलं. साडेसात दशकं हे झाड गात होतं, बहरत होतं आणि ‘ आता विसाव्याचे क्षण…’ उपभोगत होतं !
संत कबीर म्हणतात
कबीरा जब हम पैदा हुए जग हंसे हं रोये
ऐसी करनी कर चलो, हम हंसे जग रोये ।।
दीदी अशीच करणी करून गेल्या. अवघं जग हळहळलं. राष्ट्रध्वज अर्ध्यावर आले. एका भारतरत्नाला अखेरचं वंदन करण्यासाठी पंतप्रधान आणि अवघे मान्यवर अंत्यदर्शनाला आले. ‘ जीवन कृतार्थ होणं ‘ ते अजून वेगळं काय असतं ! जगावं तर असं जगावं आणि मरावं तर असं मरावं !
आता दीदी देहानं आपल्यात नाहीत. पण त्यांचे सूर चिरंतन आहेत. ते सदैव आपली साथ करत राहतील. ‘ नाम गम जायेगा, चेहरा ये बदल जायेगा, मेरी आवाज ही पहचान हैं , गर याद रहे. ‘ तेव्हा दीदी ‘ अखेरचा हा तुला दंडवत…! ‘
आपल्याला दर वेळी प्रमाणे आजही लवून कुमनो! (मेघालयच्या खास खासी भाषेत नमस्कार, हॅलो!)
फी लॉन्ग कुमनो! (कसे आहात आपण?)
आपल्या प्रतिसादाने मला खरंच खूप काही दिलंय! मित्रांनो, आम्ही जे थोडके मेघालय बघितले त्याची महती मागील सात भागात गायली, मात्र आमचा प्रवास ११ दिवसांचा होता, त्यामुळे आम्ही परत मेघालय बघणार हे निश्चित आहेच! हा मेघालायच्या नयनरम्य आठवणी जपत लिहिलेला आठवा आणि पुढील भाग मी खास करून षोडश वर्षीय, नवयौवनेसम तारुण्याने सळसळत्या अशा शिलॉन्ग या मेघालयच्या राजधानी करता राखून ठेवले होते. आम्ही मुंबई ते आसामची राजधानी गुवाहाटी येथील प्रवास विमानाने केला. उज्ज्वलने (माझा जावई) मेघालयच्या संपूर्ण प्रवासासाठी कॅब बुक केली होती. विमानतळावर आसामचा एका ड्रायव्हर अजय आमच्या स्वागताला हजर होता. त्याच्या सोबत आम्ही नंतरचे १० दिवस अतिशय आनंदाने प्रवास केला. कधी धो धो पावसाचे आक्रमण, कधी धुक्याची रजई, कधी अरुंद गल्ल्या, कधी वेडीवाकडी घाटाची वळणे, तर कधी आमची दिरंगाई, हे सर्व अत्यंत धीराने सहन करत अजय अविरत गाडी चालवत होता, वाहतुकीचे सर्व नियम कडकपणे पाळीत! आमच्याशी प्रेमाने संवाद साधत कुठे काय बघण्यासाखे आहे, या बाबत तो सूचना आणि मार्गदर्शन देखील करीत होता. मला तर तो कुठलेही प्रेक्षणीय स्थळ आले की “नानी आप ये कर सकता है/ नहीं कर सकता” अशी प्रेमळ ताकीदच द्यायचा. संपूर्ण प्रवासात आम्ही नादमधुर अशी गाणी (बंगाली आणि आसामी) ऐकत गेलो. त्यातीलच एक गाणे होते भूपेन हजारिका यांचे अत्यंत गोड आणि श्रवणीय असे “ओ गंगा”! आम्हा सर्वांना आवडलेल्या या गाण्याची ध्वनिफीत शेवटी दिलेली आहे. आम्ही गुवाहाटी ते शिलॉन्गला जाता जाता भूपेन हजारिका यांचे सुंदर स्मारक बघितले.
शिलॉन्ग ही भारताच्या मेघालय राज्याची राजधानी आणि तेथील सर्वात मोठे शहर आहे. याशिवाय शिलॉन्ग पूर्व खासी हिल्स जिल्ह्याचे प्रशासकीय केंद्र आहे. १९६९ पर्यंत हे शहर संयुक्त आसाम प्रांताची राजधानी होते. १९७२ साली मेघालय हे स्वतंत्र राज्य म्हणून प्रस्थापित झाल्यावर हेच शहर मेघालयच्या राजधानीचे शहर बनले व आसामची राजधानी गुवाहाटीमधील एक उपनगर दिसपूर येथे हलवण्यात आली. आज शिलॉन्ग मेघालयची आर्थिक, सांस्कृतिक व वाणिज्य राजधानी आहे. २०२४ मध्ये या शहराची लोकसंख्या आहे सुमारे ५०८०००. हीच लोकसंख्या २०११ साली सुमारे १४३००० इतकी होती. येथील सुमारे ४७ टक्के रहिवासी ख्रिश्चन धर्मीय तर ४२ टक्के लोक हिंदू आहेत. इंग्लिश ही येथील अधिकृत भाषा असून खासी, जैंतिया व गारो ह्या स्थानिक भाषांना राजकीय दर्जा देण्यात आला आहे. खासी व जैंतिया हिल्स हा भूभाग पारंपारिक काळापासून चेरापुंजी येथे राजधानी असलेल्या खासी जमातीच्या अखत्यारीखाली होता, परंतु सिल्हेट ते आसाम दरम्यान रस्ता बांधण्यासाठी ईस्ट इंडिया कंपनीला येथील जमिनीची आवश्यकता भासू लागली. ह्यावरून झालेल्या युद्धात ब्रिटिशांची सरशी झाली व १८३३ साली हा भूभाग ब्रिटिशांनी जिंकला. परंतु चेरापुंजी हे ठिकाण सोयीचे नसल्यामुळे ब्रिटिशांनी १८६० च्या दशकात शिलॉन्ग शहराची स्थापना केली. १८७४ मध्ये ब्रिटिश राजवटीने नवनिर्वाचित आसाम प्रांताची स्थापना केली व शिलॉन्ग आसामची राजधानीचे शहर बनले.
या भागाला निसर्गाचा बहुमोल वारसा लाभलेला आहे. येथील डोंगराळ भाग व सौम्य हवामानामुळे ब्रिटीशांना हे शहर पूर्वेकडील स्कॉटलँडसारखे निसर्गसंपन्न आणि सुंदर वाटायचे. मात्र एक लोकप्रिय पर्यटनस्थळ असून देखील येथे रस्ते व रेल्वेमार्गांचा विकास होऊ शकला नाही, म्हणून शिलॉन्गची प्रगती संथ गतीने होत राहिली. १८ व्या शतकामध्ये येथे आलेल्या ख्रिश्चन मिशनऱ्यांनी या भागात ख्रिश्चन धर्माचा प्रसार केला व मुलांच्या शिक्षणासाठी शाळा सुरू केल्या. ब्रिटीश वसाहतवादाचा वारसा सांगणारी घरांची रचना, हॉटेल व कॅफे मध्ये वाजवले जाणारे संगीत ही या शहराची वेगळी वैशिष्टये आहेत. पर्यटनाच्या दृष्टीने ठायी ठायी निसर्गाची लयलूट असलेला अत्यंत संपन्न असा हा प्रदूषणमुक्त प्रदेश आहे. शिलॉन्ग हे डोंगर उतारावर वसलेले आहे. येथील शिलॉन्ग व्यू पॉइंट वरून आपण संपूर्ण शिलॉन्ग शहर पाहू शकतो. आकाशात पसरलेले प्रचंड धुके आणि त्या धुक्यात हरवलेले शिलॉन्ग हे शहर वेगळीच अनुभूती देऊन जाते. (आम्ही हा पॉईंट बघू शकलो नाही कारण तेव्हां तो बंद करण्यात आला होता)
शिलॉन्ग विमानतळ शहराच्या ३० किलोमीटर उत्तरेस स्थित आहे. येथून दिल्ली, कोलकाता तसेच ईशान्येकडील दिमापूर, गुवाहाटी, सिलचर, इम्फाल, आगरताळा इत्यादी प्रमुख शहरांसाठी थेट विमानसेवा उपलब्ध आहे. राष्ट्रीय महामार्ग क्रमांक ६ शिलॉन्गला गुवाहाटी तसेच इतर महत्वाच्या शहरांसोबत जोडतो. दुर्दैवाने आजही शिलॉन्ग भारतीय रेल्वेच्या नकाशावर नाही. मात्र भविष्यात गुवाहाटी ते मेघालय रेल्वेमार्ग बांधला जाईल अशी आशा आहे. आजच्या घडीला गुवाहाटी रेल्वे स्टेशन शिलॉन्ग पासून १०५ किलोमीटर दूर आहे.
मित्रांनो, आता आपण शिल्लोन्ग येथील (अर्थातच आम्ही बघितलेली) प्रेक्षणीय स्थळे बघू या!
उमियम सरोवर (Umiam lake)
आम्ही शिलॉन्गच्या वाटेवर असतांना एक अतीव लावण्यमय, जणू काही चित्रप्रतिमेप्रमाणे निगुतीने घडवलेले असे उमियम सरोवर बघितले. मानवनिर्मित असूनही त्याचे नैसर्गिक सरोवरासारखेच भासमान होणारे सौंदर्य अगदी विनासायास सिनेमास्कोपिक अन फोटोजेनिक असे! कुठंही कॅमेरा फिक्स करा अन क्लिक करा, त्या चित्राची मोहिनी मन मोहणारच! या वेड लावणाऱ्या सरोवराला वेढलंय हिरव्यागार वनश्री अन विशाल पूर्व खासी पर्वतशृंखलांनी! शिलॉन्गच्या मध्यबिंदू पासून हे स्थळ १६ किलोमीटर अंतरावर आहे. उमियम नदीला बांध घालून हे विशाल आणि विलक्षण मानवनिर्मित आरस्पानी सरोवर बघताच आम्ही त्यावर लुब्ध झालो. स्थानिक लोक याला “बडापानी” म्हणतात. सहलीसाठी गावाबाहेर जायचंय ना, मग त्यासाठी हे ठिकाण एकदम सही! म्हणूनच इथे पर्यटकांची धो धो गर्दी असते, खास करून सुट्टीच्या दिवशी! इथला सूर्यास्त नयनाभिराम नारिंगी, गुलाबी अन लाल रंगांची उधळण करीत रंगावली रेखितच रात्रीच्या कुशीत विराम पावतो! पावसानंतरचे विहंगम इंद्रधनुषी रंग बघावे ते इथेच, कारण हे सर्व रंग या सरोवरात स्वतःचे राजस रुपडे न्याहाळत असतात!
आम्ही जेव्हा इथे पोचलो तेव्हा बघितले की, हिरव्याकंच पाचूंच्या माळेत नीलम गुंफला जावा तसे हिरव्यागार वनश्रीत हे सरोवर चमकत होते. आकाशाचे बदलते रंग या जलाशयाच्या जलाचे रंग देखील बदलत होते. कधी धवल, कधी नीलकांती, तर कधी मेघवर्णम शुभांगम! हरखून गेले मी या परिसरात. मित्रांनो, तुम्ही सुद्धा असेच हरवून जाल इथे! इथले नौकानयन म्हणजे या जलाच्या निळाईचे सौंदर्य जवळून पाहण्याची सुवर्णसंधी, अर्थातच हे अपरिहार्य! नौकानयन करतांना आमची नौका(मोटरबोट) इवलाल्या शंकूच्या आकाराच्या पाचूंच्या बेटांना वेढा घालीत विहार करीत होती. आमचे नशीब जोरावर होते, कारण आम्हाला नेणाऱ्या नौकेचे इंधन मधेच संपले आणि ते येईपर्यंत बोनस मिळावा तसे आम्ही भोवतालचे सृष्टी सौंदर्य न्याहाळीत बसलो. ते येऊ नये असे वाटत असतांनाच आले! या सरोवरात वॉटर स्पोर्ट्सची सुविधा देखील आहे (kayaking, boating, water cycling, scooting, canoeing इत्यादी). अर्थात यासाठी आभाळ व सरोवर शांत अन सौम्य असणे आवश्यक! आपल्याला यापैकी काहीच करायचे नसेल तर मजेत फेरफटका मारत या रम्य परिसराचं नुसतंच आनंददायी निरीक्षण करीत राहा! आपणास शक्य असल्यास या सरोवराजवळील हॉटेलमध्येच मुक्काम करा, अन निसर्ग शोभेचा मनसोक्त अनुभव घ्या.
पुढील भागात शिलॉन्गमध्ये आणि त्याच्या आसपास फेरफटका मारू या!
तोवर जरा दम धरा मंडळी! आत्तापुरते आवरते!
खुबलेई! (khublei) म्हणजेच खास खासी भाषेत धन्यवाद!)
टीप – *लेखात दिलेली माहिती लेखिकेचे अनुभव आणि इंटरनेट वर उपलब्ध माहिती यांच्यावर आधारित आहे. इथले फोटो व्यक्तिगत आहेत
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – तुम न होते तो, हम किधर जाते…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 39 – तुम न होते तो, हम किधर जाते… ☆ आचार्य भगवत दुबे
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री रामनारायण सोनी जी द्वारा रचित काव्य संग्रह – “विद्युल्लता” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 155 ☆
☆ “विद्युल्लता… ” (काव्य संग्रह)– श्री रामनारायण सोनी ☆ चर्चा – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
कृति चर्चा
पुस्तक चर्चा
कृति विद्युल्लता (काव्य संग्रह )
कवि रामनारायण सोनी
चर्चा विवेक रंजन श्रीवास्तव
☆ पुस्तक चर्चा – श्रीमदभगवदगीता हिन्दी पद्यानुवाद… विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
कविता न्यूनतम शब्दों में अधिकतम की अभिव्यक्ति का सर्वश्रेष्ठ संसाधन होती है। कविता मन को एक साथ ही हुलास, उजास और सुकून देती है। नौकरी और साहित्य के मेरे समान धर्मी श्री रामनारायण सोनी के कविता संग्रह विद्युल्लता को पढ़ने का सुअवसर मिला। संग्रह में भक्ति काव्य की निर्मल रसधार का अविरल प्रवाह करती समय समय पर रची गई सत्तर कवितायें संग्रहित हैं। सभी रचनायें भाव प्रवण हैं। काव्य सौष्ठव परिपक्व है। सोनी जी के पास भाव अभिव्यक्ति के लिये पर्याप्त शब्द सामर्थ्य है। वे विधा में पारंगत भी हैं। उनकी अनेक पुस्तकें पहले ही प्रकाशित हो चुकी हैं, जिन्हें हिन्दी जगत ने सराहा है। सेवानिवृति के उपरांत अनुभव तथा उम्र की वरिष्ठता के साथ रामनारायण जी के आध्यात्मिक लेखन में निरंतर गति दिखती है। कवितायें बताती हैं कि कवि का व्यापक अध्ययन है, उन्हें छपास या अभिव्यक्ति का उतावलापन कतई नहीं है। वे गंभीर रचनाकर्मी हैं।
सारी कवितायें पढ़ने के बाद मेरा अभिमत है कि शिल्प और भाव, साहित्यिक सौंदर्य-बोध, प्रयोगों मे किंचित नवीनता, अनुभूतियों के चित्रण, संवेदनशीलता और बिम्ब के प्रयोगों से सोनी जी ने विद्युल्लता को कविता के अनेक संग्रहों में विशिष्ट बनाया है। आत्म संतोष और मानसिक शांति के लिये लिखी गई ये रचनायें आम पाठको के लिये भी आनंद दायी हैं। जीवन की व्याख्या को लेकर कई रचनायें अनुभव जन्य हैं। उदाहरण के लिये “नेपथ्य के उस पार” से उधृत है … खोल दो नेपथ्य के सब आवरण फिर देखते हैं, इन मुखौटों के परे तुम कौन हो फिर देखते हैँ। जैसी सशक्त पंक्तियां पाठक का मन मुग्ध कर देती हैं। ये मेरे तेरे सबके साथ घटित अभिव्यक्ति है।
संग्रह से ही दो पंक्तियां हैं … ” वाणी को तुम दो विराम इन नयनों की भाषा पढ़नी है, आज व्यथा को टांग अलगनी गाथा कोई गढ़नी है। ” मोहक चित्र बनाते ये शब्द आत्मीयता का बोध करवाने में सक्षम हैं। रचनायें कवि की दार्शनिक सोच की परिचायक हैं।
रामनारायण जी पहली ही कविता में लिखते हैं ” तुम वरेण्य हो, हे वंदनीय तुम असीम सुखदाता हो …. सौ पृष्ठीय किताब की अंतिम रचना में ॠग्वेद की ॠचा से प्रेरित शाश्वत संदेश मुखर हुआ है। सोनी जी की भाषा में ” ए जीवन के तेजमयी रथ अपनी गति से चलता चल, जलधारा प्राणों की लेकर ब्रह्मपुत्र सा बहता चल “।
यह जीवन प्रवाह उद्देश्य पूर्ण, सार्थक और दिशा बोधमय बना रहे। इन्हीं स्वस्ति कामनाओ के साथ मेरी समस्त शुभाकांक्षा रचना और रचनाकार के संग हैं। मैं चाहूंगा कि पाठक समय निकाल कर इन कविताओ का एकांत में पठन, मनन, चिंतन करें रचनायें बिल्कुल जटिल नहीं हैं वे अध्येता का दिशा दर्शन करते हुये आनंदित करती हैं।
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा “भक्ति की पराकाष्ठा”।)
☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 180 ☆
🙏 लघु कथा – भक्ति की पराकाष्ठा 🙏
शहर में बसे घनी बस्ती के बीच बहुत बड़े सामुदायिक भवन में कोरोना काल के बाद से ही सुना है निरंतर भागवत कथा का आयोजन होते चला आ रहा है।
प्रति वर्ष की अपेक्षा धीरे-धीरे भक्तों की संख्या में बढ़ोतरी होते जा रही थी। भागवताचार्य भी प्रसन्न थे। उनकी भागवत कथा में प्रतिवर्ष भक्तों की संख्या बढ़ते जा रही है।
बड़े ही जोश और भाव – भक्ति से वह कथा का वाचन कर रहे थे। बीच-बीच में श्री राधे- राधे की जयकार और मनमोहन गीत- संगीत वाद्य यंत्रों के साथ सब का मन मोह रही थी।
बैठने की समुचित व्यवस्था जो वरिष्ठ जमीन पर बैठ नहीं पा रहे थे उनके लिए पंक्ति बध्द कुर्सियां व्यवस्थित थी।
दैनिक समाचार पेपर वाले भी रोज कवरेज करके प्रकाशित कर रहे थे कि आज जनमानस का सैलाब उमड़ पड़ा।
उत्सुकता वश आज समय अनुसार भागवत कथा में शामिल होने का सौभाग्य मिला। सामने पहुंचते ही गाड़ी रखते समय जल्दी-जल्दी चलते हुए बुजुर्ग माताजी को एक सज्जन पुरुष प्रवेश द्वार पर छोड़कर जाने लगा। वह कुछ परेशान सा दिख रहा था। सामने से उसका परिचित आकर बोले… उनके हाथ को भी पकड़े एक वरिष्ठ साथ में चल रहे थे।
आज लेट हो गए हो बोल उठा.. हां यार सोच सोच कर परेशान हूं कि अब कल से भागवत कथा समाप्ति की ओर बढ़ रही है। क्या करें??
इसी बहाने इनको यहां चार-पांच घंटे बिठाकर चला जाता हूं। घर में आराम रहता है। दूसरा दोस्त बोल.. उठा परेशान मत हो भाई मैंने पता लगा लिया है चार किलोमीटर दूर उस मैदान पर यहां के बाद भागवत कथा होनी है।
ऐसा करते हैं एक ऑटो रिक्शा लगा देंगे और मैं और आप चार की जगह छः घंटा सबको बिठा दिया करेंगे।
अंदर जाते ही आचार्य जी अपनी कथा में श्री कृष्ण भगवान के मथुरा से चले जाने पर कैसा विलाप हो रहा है। इसका वर्णन कर रहे थे। भाव विभोर हो स्वयं आंसुओं से भरे नैनों को बार-बार पोंछ रहे थे।
पंडाल के बीच में से निकलते देखा गया। सभी महिलाओं के पास मोबाइल दिख रहा था ।
पीछे से किसी ने कहा.. यहां भी आओ तो रोना धोना ही मचा देते हैं।
भारी मन से मैं पुष्प हार लिए श्री भागवत कथा में विराजे भगवान कृष्ण के चरणों में पुष्प अर्पित कर चुपचाप बैठी ही थी कि तभी वहां आकर एक कार्यकर्ता आचार्य जी को कुछ कह.. गया। कथा में मोड़ आ गया।
आचार्य जी कहने लगे.. कल समाप्ति भंडारा के दूसरे दिन से ही छोटी बजरिया मैदान में भागवत कथा होनी है। जो माताएं, काका, दादा नहीं जा सकते उनके लिए ऑटो रिक्शा की व्यवस्था की गई है। सामुदायिक भवन तालियों से भर उठा।
चारों तरफ नजरे घूम रही थी। अब तालियों की आवाज कहां से आ रही थी। भागवत कथा में भक्तों की उपस्थिति तो समझ आ चुकी थी।
पर भक्ति की पराकाष्ठा विचाराधीन हो चुकी थी।
जय हो श्री राधे – राधे भागवत कथा में भक्तों की जय जयकार कानों को चुभने लगी थी।