हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #216 ☆ यह भी गुज़र जाएगा… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख यह भी गुज़र जाएगा। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 216 ☆

☆ यह भी गुज़र जाएगा

‘गुज़र जायेगा यह वक्त भी/ ज़रा सब्र तो रख/ जब खुशी ही नहीं ठहरी/ तो ग़म की औक़ात क्या?’ गुलज़ार की उक्त पंक्तियां समय की निरंतरता व प्रकृति की परिवर्तनशीलता पर प्रकाश डालती हैं। समय अबाध गति से निरंतर बहता रहता है; नदी की भांति प्रवाहमान् रहता है, जिसके माध्यम से मानव को हताश-निराश न होने का संदेश दिया गया है। सुख-दु:ख व खुशी-ग़म आते-जाते रहते हैं और यह सिलसिला अनवरत चलता रहता है। मुझे याद आ रही हैं स्वरचित पंक्तियां ‘दिन रात बदलते हैं/ हालात बदलते हैं/ मौसम के साथ-साथ/ फूल और पात बदलते हैं अर्थात् समयानुसार दिन-रात, हालात व मौसम के साथ फूल व पत्तियों का बदलना अवश्यंभावी है। प्रकृति के विभिन्न उपादान धरती, सूर्य, चंद्रमा, तारे आदि निरंतर परिक्रमा लगाते रहते हैं; गतिशील रहते हैं। सो! वे कभी भी विश्राम नहीं करते। मानव को नदी की प्रवाहमयता से निरंतर बहने व कर्म करने का संदेश ग्रहण करना चाहिए। परंतु यदि उसे यथासमय कर्म का फल नहीं मिलता, तो उसे निराश नहीं होना चाहिए;  सब्र रखना चाहिए। ‘श्रद्धा-सबूरी’ पर विश्वास रख कर निरंतर कर्मशील रहना चाहिए, क्योंकि जब खुशी ही नहीं ठहरी, तो ग़म वहां आशियां कैसे बना सकते हैं? उन्हें भी निश्चित समय पर लौटना होता है।

‘आप चाह कर भी अपने प्रति दूसरों की धारणा नहीं बदल सकते,’ यह कटु यथार्थ है। इसलिए ‘सुक़ून के साथ अपनी ज़िंदगी जीएं और खुश रहें’– यह जीवन के प्रति सकारात्मक सोच को प्रकट करता है। समय के साथ सत्य के उजागर होने पर लोगों के दृष्टिकोण में स्वत: परिवर्तन आ जाता है, क्योंकि सत्य सात परदों के पीछे छिपा होता है; इसलिए उसे प्रकाश में आने में समय लगता है। सो! सच्चे व्यक्ति को स्पष्टीकरण देने की कभी भी दरक़ार नहीं होती। यदि वह अपना पक्ष रखने में दलीलों का सहारा लेता है तथा अपनी स्थिति स्पष्ट करने में प्रयासरत रहता है, तो उस पर अंगुलियाँ उठनी स्वाभाविक हैं। यह सर्वथा सत्य है कि सत्य को हमेशा तीन चरणों से गुज़रना पड़ता है… ‘उपहास, विरोध व अंततः स्वीकृति।’ सत्य का कभी मज़ाक उड़ाया जाता है, तो कभी उसका विरोध होता है…परंतु अंतिम स्थिति है स्वीकृति, जिसके लिए आवश्यकता है– असामान्य परिस्थितियों, प्रतिपक्ष के आरोपों व व्यंग्य-बाणों को धैर्यपूर्वक सहन करने की क्षमता की। समय के साथ जब प्रकृति का क्रम बदलता है… दिन-रात, अमावस-पूनम व विभिन्न ऋतुएं, निश्चित समय पर दस्तक देती हैं, तो उनके अनुसार हमारी मन:स्थिति में परिवर्तन होना भी स्वाभाविक है। इसलिए हमें इस तथ्य में विश्वास रखना चाहिए कि यह परिस्थितियां व समय भी बदल जायेगा; सदा एक-सा रहने वाला नहीं। समय के साथ तो सल्तनतें भी बदल जाती हैं, इसलिए संसार में कुछ भी सदा रहने वाला नहीं। सो! जिसने संसार में जन्म लिया है, उसकी मृत्यु अवश्यंभावी है। इसके साथ-साथ आवश्यकता है मनन करने की… ‘ इंसान खाली हाथ आया है और उसे जाना भी खाली हाथ है, क्योंकि कफ़न में कभी जेब नहीं होती।’ इसी प्रकार गीता का भी यह सार्थक संदेश है कि मानव को किसी वस्तु के छिन जाने का ग़म नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसने जो भी पाया व कमाया है, वह यहीं से लिया है। सो! वह उसकी मिल्कियत कैसे हो सकती है? फिर उसे छोड़ने का दु:ख कैसा? सो! हमें सुख-दु:ख से उबरना है, ऊपर उठना है। हर स्थिति में संभावना ही जीवन का लक्ष्य है।  इसलिए सुख में आप फूलें नहीं, अत्यधिक प्रसन्न न रहें और दु:ख में परेशान न हों…क्योंकि इनका चोली-दामन का साथ है। एक के जाने के पश्चात् ही दूसरे का पदार्पण होना स्वाभाविक है। इसमें एक अन्य भाव भी निहित है कि जो अपना है, वह हर हाल में मिल कर रहेगा और जो अपना नहीं है, लाख कोशिश करने पर भी मिलेगा नहीं। वैसे भी सब कुछ सदैव रहने वाला नहीं; न ही साथ जाने वाला है। सो! मन में यह धारणा बना लेनी आवश्यक है कि ‘समय से पूर्व व भाग्य से अधिक कुछ मिलने वाला नहीं।’ कबीरदास जी का यह दोहा ‘माली सींचै सौ घड़ा, ऋतु आय फल होइ’…. समय की महत्ता व प्रकृति की निरंतरता पर प्रकाश डालता है।

समय का पर्यायवाची आने वाला कल अथवा भविष्य ही नहीं, वर्तमान है। ‘काल करे सो आज कर. आज करे सो अब/ पल में प्रलय होयेगी, मूरख करेगा कब’ में भी यही भाव निर्दिष्ट है कि कल कभी आएगा नहीं। वर्तमान ही गुज़रे हुए कल अथवा अतीत में परिवर्तित हो जाता है। सो! आज अथवा वर्तमान ही सत्य है। इसलिए हमें अतीत के मोह को त्याग, वर्तमान की महत्ता को स्वीकार, आगामी कल को सुंदर, सार्थक व उपयोगी बनाना चाहिए। दूसरे शब्दों में ‘कल’ का अर्थ है– मशीन व शांति। आधुनिक युग में मानव मशीन बन कर रह गया है। सो! शांति उससे कोसों दूर हो गयी है। वैसे शांत मन में ही सृष्टि के विभिन्न रहस्य उजागर होते हैं, जिसके लिए मानव को ध्यान का आश्रय लेना पड़ता है।

ध्यान-समाधि की वह अवस्था है, जब हमारी चित्त-वृत्तियां एकाग्र होकर शांत हो जाती हैं। इस स्थिति में आत्मा-परमात्मा का तादात्म्य हो जाता है और उसका संबंध संसार व प्राणी-जगत् से कट जाता है; उसके हृदय में आलोक का झरना फूट निकलता है। इस मन:स्थिति में वह संबंध-सरोकारों से ऊपर उठ जाता है तथा वह शांतमना निर्लिप्त-निर्विकार भाव से सरोवर के शांत जल में अवगाहन करता हुआ अनहद-नाद में खो जाता है, जहां भाव-लहरियाँ हिलोरें नहीं लेतीं। सो! वह अलौकिक आनंद की स्थिति कहलाती है।

आइए! हम समय की सार्थकता पर विचार- विमर्श करें। वास्तव में हरि-कथा के अतिरिक्त, जो भी हम संवाद-वार्तालाप करते हैं; वह जग-व्यथा कहलाती है और निष्प्रयोजन होती है। सो! हमें अपना समय संसार की व्यर्थ की चर्चा में नष्ट नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुज़रा हुआ समय कभी लौटकर नहीं आता। इसलिए हमें उसका शोक भी नहीं मनाना चाहिए। वैसे भी यह कहावत प्रसिद्ध है कि ‘नया नौ दिन, पुराना सौ दिन’ अर्थात् ‘ओल्ड इज़ गोल्ड’… पुरातन की महिमा सदैव रहती है। यदि सोने के असंख्य टुकड़े करके कीचड़ में फेंक दिये जाएं, तो भी उनकी चमक बरक़रार रहती है; कभी कम नहीं होती है और उनका मूल्य भी वही रहता है। सो! हम में समय की धारा की दिशा को परिवर्तित करने का साहस होना चाहिए, जो सबके साथ रहने से, मिलकर कार्य को अंजाम देने से आता है। संघर्ष जीवन है…वह हमें आपदाओं का सामना करने की प्रेरणा देता है; समाज को आईना दिखाता है और गलत-ठीक व उचित-अनुचित का भेद करना भी सिखाता है। इसलिए समय के साथ स्वयं को बदल लेना ही श्रेयस्कर है। जो लोग प्राचीन परंपराओं को त्याग, नवीन मान्यताओं को अपना कर जीवन-पथ पर अग्रसर नहीं होते; पीछे रह जाते हैं… ज़माने के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल सकते तथा उन्हें व उनके विचारों को मान्यता भी प्राप्त नहीं हो सकती। इसलिए संतोष रूपी रत्न को धारण कर, जीवन से नकारात्मकता को निकाल फेंके, क्योंकि संतोष रूपी धन आ जाने के पश्चात् सांसारिक धन-दौलत धूलि के समान निस्तेज, निष्फल व निष्प्रयोजन भासती है; शक्तिहीन व निरर्थक लगती है और उसकी जीवन में कोई अहमियत नहीं रहती। इसलिए हमें जीवन में किसी के आने  और भौतिक वस्तुओं व सुख-सुविधाओं के मिल जाने पर खुश नहीं होना चाहिए और उसके अभाव में दु:खी होना भी बुद्धिमत्ता नहीं है, क्योंकि सुख-दु:ख का एक स्थान पर रहना असंभव है, नामुमक़िन है… यही जीवन का सार है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #217 ☆ कविता – अपना संविधान ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण कविता अपना संविधान )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 217 – साहित्य निकुंज ☆

☆ कविता – 🇮🇳 अपना संविधान 🇮🇳 ☆ डॉ भावना शुक्ल ☆

 

 

संविधान जबसे बना,है गणतंत्र महान।

हमको अपने देश का, रखना होगा मान।।

संविधान देता हमें, जीने का अधिकार।

बदला हुआ राजतंत्र, हमें यही स्वीकार।।

संविधान की भावना, जिसके मन में आज।

वही कर रहा है अभी,सभी दिलों पर राज।।

कहे तिरंगा शान से, बसे देश के प्रान।

कहता गाथा देश की,दिए बहुत बलिदान।।

देश भक्ति के भाव का, करते  है गुणगान।

मिलजुल कर करते सभी, देश का सम्मान।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #198 ☆ मोरे मन में रम गए राम… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज भगवान श्री राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के अवसर पर प्रस्तुत है मोरे  मन  में  रम  गए   रामआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 198 ☆

☆ मोरे मन में रम गए राम.. ☆ श्री संतोष नेमा ☆

दर्श बिनु मोहि कहाँ विश्राम

मोरे  मन  में  रम   गए   राम

*

आज अवध में  राम बिराजे

ढोल-मृदंग    मंजीरा   बाजे

अवध  में  नाचें  चारों   धाम

मोरे  मन  में  रम  गए   राम

*

सरयू सलिला पुलकित भारी

प्राण प्रतिष्ठित अवध  बिहारी

जिनकी छवि सुंदर  अभिराम

मोरे  मन  में  रम   गए   राम

*

धर्म-ध्वजा  घर-घर  फहराएं

दीप   आरती  थाल   सजाएं 

प्रफुल्लित नगर नगर हर ग्राम

मोरे  मन  में  रम   गए   राम

*

सरयू   तीर   लगा   है   मेला

राम  भक्ति  की  सुंदर   वेला

सबको मिलता सुखद मुकाम

मोरे  मन  में  रम   गए   राम

*

सबके सफल करें प्रभु  काम

“सतोष” राम  शरण  सुखधाम

मोरे  मन  में  रम   गए   राम

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 206 ☆ एकच नाम…प्रभू श्रीराम… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 206 – विजय साहित्य ?

एकच नाम…प्रभू श्रीराम ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

गात्री रूजले, एकच नाम..

प्रभू श्रीराम, प्रभू श्रीराम…

*

आली स्वगृही, स्वप्न पाऊली

सुंदर मुर्ती रघुरायाची,

दिव्या दिव्यांची, सजे आवली

करा तयारी, सणवाराची..

आले मंदिरी, प्रभू श्रीराम..||१||

*

चरा चराला, पडे मोहिनी

राम रुपाची, दिव्य बासरी

वेदमंत्र नी, प्राण प्रतिष्ठा

नेत्री भरली, मुर्ती हासरी

घेई अयोध्या, पावन नाम..||२||

*

वेध लागले, चित्त दंगले

पुजा अर्चनी , एकच ध्यास

राम बोल हे, मनी रंगले

साध्य जाहला, दिव्य प्रवास

झाले काळीज,मंगल धाम.||३||

*

घरा घराला, आले बाळसे

गोकुळ झाले, तना मनाचे

लेणे कोरीव, शिल्प छानसे

आतष बाजी, रंग सणाचे

भाव फुलांचे,एकच दाम..||४||

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ जेव्हा शेतात नागीण सळसळली… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ जेव्हा शेतात नागीण सळसळली… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

डांबरी रस्त्याची सडक  जेव्हा गावत नवी नवी आली.. वाटलं काळी नागीणच सळसळ करत चालली…जसा बळीराजाच्या गळ्यात बांधलेला काळा गोफाचा गंडा…तसा गावाच्या गळसरीला चकचकीत काळ्या नागिणीचा कंडा..दोन्ही कडेच्या उभ्या पिकांनी थरथर भीतीने आपली अंग आकसून घेतली.. आणि जी पिकं, तृणपाती नागीणीला मधेच आडवी आली त्यांना आपला फणा उभारून क्षणात आडवे करून गेली… उरलेली लव्हाळी जरळी माना मोडून शरणागती पत्करून भुईसपाट झाली…आडमार्गाचा गाव आला हमरस्ताशी हातमिळवणी करायला… कधीतरी दिवसभरातून एकदा येणारी एस. टी.च्या लागल्या ना चकरा वाढायला… फटफट ती पोलीस पाटलाची नि तलाठ्याची मिजाशीत पळायची तेव्हा.. आता  घराघरातली डौलाने दुडदूडू धावत असते हिरोहोंडावरची नवयौवना…बाजारहाट आठवड्याचा तालुका भरायचा तोच आता ऑनलाईन ऑर्डर करा   माल येईल तुमच्या घरा असं सांगू लागला… शाळा कालेज शिक्षणाची वणवण संपली…घराघरात पदव्यांची प्रमाणपत्रांची तसबिरी लटकली…निशाणी डावा अंगठा निळ्या शाईत साक्षर झाला.. गावाचा विकासाचा सूर्य आता अस्ताला जाण्याचा विसरला…जग आले जवळ किती मुठीत सामावले प्रत्येक हाती… विज्ञानाने साधली प्रगती. .. गावा गावाने आता कात टाकली…आधुनिक वैचारिकतेचे उदंड वारे चोहोबाजूंनी वाहू लागले… सामर्थ्य आहे चळवळीचे जो जो करील तयाचे…एकदा येणारी संधी आता दारातच ठाण मांडून बसली…यशाच्या पहिल्याच पायरीने अपयशाच्या पायरीला पायतळीच गाडली… यशा सारखे यशच त्याला नाही क्षिती कुणाची… माध्यान्हीचा सूर्य तळपता तळपता पश्चिम दिशेला झुकू लागला…

हळूहळू हळूहळू यशाची धुंदी मनामनावर गारूड करत गेली… अधिक प्रगतीचा सूर्य दुसऱ्या देशात दिसू लागला… आणि आपल्या कतृत्वाचा हिथला वावच संपला…  विमानं डोई  भरभरून उडून गेली परदेशात… ओस पडत गेले गाव आणि डोळ्यातले  दु:खाश्रु माईना  घरा घरात.. विकासाची रोपं पिवळी पडत सुकत गेली कोळपून भुईवर पडली…कधीतरी येतो आंब्याचा मोहर घेऊन वसंताचा ऋतु…अन सारा गाव लोटतो त्याला समजून घालण्यास अरं बाबा ईथं  थांबशील तरी तू… विकास झालाय पोरका तुमच्या शिवाय त्याला कोण विचारणारं तरी आहे का…आता सुखाला चटावलेली मन माघारी फिरणारी असतात का… आणि गावातलं जुनं हाडं गावाची नाळ कापून घ्यायला तयार नसते… अखेरची कुडी या मातीत मिसळून जावी हिच एक इच्छा मनात तिची असते… मागचं सारं सारं एकेक आठवतयं.. पाऊलवाटा, माळरान, मारूतीचं देऊळ, शेताचा बांध, पांदणं…नि आपुलकीची घट्ट माती… जोवर हे सगळं अबाधित होतं  तेव्हा तेव्हा   अन आता डांबरी रस्त्याची सडक  जेव्हा गावत नवी नवी आली तर तर… एखादा चुकार अश्रूचा टिपूस ओघळून जातो…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ४ — ज्ञानकर्मसंन्यासयोग— (श्लोक ११ ते २०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय ४ — ज्ञानकर्मसंन्यासयोग— (श्लोक ११ ते २०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

ये मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्‌ । 

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥ ४-११ ॥ 

*

भजताती मला पार्था मीही त्यांना भजतो

मनुजप्राणि सर्वथा मम मार्ग अनुसरतो ॥११॥

*

काङ्क्षन्तः कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवताः । 

क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा ॥ ४-१२ ॥ 

*

मनुष्यलोके कर्मफलाकांक्षी देवतांचे पूजन करती 

पूजन करता देवतांचे होते सत्वर कर्मफल प्राप्ती ॥१२॥

*

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । 

तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्‌ ॥ ४-१३ ॥ 

*

गुण तथा कर्म जाणुनी चातुर्वर्ण्य निर्मिले मी

कर्ता असुनी त्या कर्मांचा आहे अकर्ताच मी ॥१३॥

*

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा । 

इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते ॥ ४-१४ ॥ 

*

मला मोह ना कर्मफलाचा त्यात न मी गुंततो

तत्व माझे जाणणारा कर्माशी ना बद्ध होतो ॥१४॥

*

एवं ज्ञात्वा कृतं कर्म पूर्वैरपि मुमुक्षुभिः । 

कुरु कर्मैव तस्मात्त्वं पूर्वैः पूर्वतरं कृतम्‌ ॥ ४-१५ ॥ 

*

जाणुनिया हे तत्व कर्मे केली मुमुक्षुंनी

तूही पार्था कर्मसिद्ध हो त्यांना अनुसरुनी ॥१५॥

*

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।

तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌ ॥ ४-१६ ॥ 

*

कर्माकर्म विवेक करण्या संभ्रमित प्रज्ञावान

उकल करोनी कर्मतत्व कथितो मी अर्जुन 

जाणुन घेई हे ज्ञान देतो जे मी तुजला

कर्मबंधनातून तयाने होशिल तू मोकळा ॥१६॥

*

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः । 

अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥ ४-१७ ॥ 

*

कर्मगती अति गहन ती आकलन होण्यासी

जाणुन घ्यावे  कर्मासी अकर्मासी विकर्मासी ॥१७॥

*

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः । 

स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्‌ ॥ ४-१८ ॥ 

*

कर्मात पाहतो अकर्म अकर्मातही कर्म 

बुद्धिमान योगी जाणावा करितो सर्व कर्म ॥१८॥

*

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसङ्कल्पवर्जिताः । 

ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहुः पण्डितं बुधाः ॥ ४-१९ ॥ 

*

सकल शास्त्रोक्त कर्मे ज्याची 

कामना विरहित असंकल्पाची

भस्म जाहली जी ज्ञानाग्नीत 

तो ज्ञानी असतो तो पंडित  ॥१९॥

*

त्यक्त्वा कर्मफलासङ्गं नित्यतृप्तो निराश्रयः । 

कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः ॥ ४-२० ॥ 

*

कर्म कर्मफलाचा असंग सदातृप्त आश्रयरहित

जीवनी करितो कर्म तथापि तो तर कर्मरहित ॥२०॥

– क्रमशः भाग ४ 

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 180 ☆ शोभा सिंधु न अंत रही री… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना शोभा सिंधु न अंत रही री…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 180 ☆ शोभा सिंधु न अंत रही री… ☆

वर्तमान कब भूत में बदल जाता है, पता  नहीं चलता पर अभी भी बहुत से लोग पुराना राग अलाप रहे हैं, आज के तकनीकी युग में जब हर पल स्टेटस व डी पी बदली जा रही है तब व्यवहार कैसे न बदले पर कुछ भी हो नेकी व सच्चाई नहीं छोड़नी चाहिए  हम सबको अपने कर्तव्यों के प्रति जागरुक रहना चाहिए।

तेजी से बदलती दुनिया में कुछ भी तय नहीं रह सकता ….

कल के ही अखबार आज नहीं चलते ये बात  सुविचार की दृष्टि से, प्रतियोगी परीक्षार्थी  की दृष्टि से तो सही है परन्तु व्यवहार यदि पल- पल बदले तो उचित नहीं कहा जा सकता है।

खैर जिसको जो राह सही लगती है, वो उसी पर चल पड़ता है। कुछ ठोकर खा कर संभल जाते हैं; कुछ दोषारोपण करके अलग राह पर चल पड़ते हैं। वक्त रेत के ढेर की तरह फिसलता जा रहा है,  कर्मयोगी तो इसे अपने वश में कर लेते हैं परन्तु जो कुछ नहीं करते वे दूसरों के ऊपर आरोप- प्रत्यारोप करने में समय व्यतीत करते रह जाते हैं। इस दुनिया में सबसे मूल्यवान समय है, उसका सदुपयोग आपको रंक से राजा व दुरुपयोग राजा से रंक बनाने की क्षमता रखता है।

आप जिस भी क्षेत्र में कार्य करते हों  वहाँ पर ईमानदारी से अपने दायित्वों का निर्वाहन करें यदि वो भी न बनें तो कम से कम आलोचक न बनें क्योंकि निंदक नियरे राखिए आज भी प्रासंगिक है पर वो  सार्थक तभी होगा जब निंदक ज्ञानी हो, उसमें निःस्वार्थ का भाव हो, सच्ची निंदा ही पथप्रदर्शन का कार्य कर सकती है  और निंदक मार्गदर्शक का।

जब आप किसी के लिए उपयोगी हों तो विरोधी होने पर  भी  लोग आपका  सम्मान करेंगे, मीठे वचनों की शक्ति से तो सभी परिचित हैं। कहावत भी है बातन हाथी पाइए बातन हाथी पाँव  अर्थात आप अपनी अच्छी वाणी के बल पर उपहार में हाथी, धन संपदा, वैभव सब प्राप्त कर सकते हैं जबकि कड़वे वचनों से सजा स्वरूप हाथी के पाँव के नीचे भी  पहुँच सकते हैं।

लोगों का लगाव हमेशा ही अच्छे गुणों से होता है ये ही आपकी सच्ची पूँजी है जो आपके बाद भी लोगों के साथ बनी रहती है। नेकी कभी व्यर्थ नहीं जाती इसका फल मिलता ही है कई गुना वापस होकर तो क्यों न इस पूँजी का संचयन करे अपने व अपनों के लिए।

एक तरफ जहाँ किसी के भी कार्यों का मूल्यांकन बहुत सहज होता वहीं स्वमूल्यांकन अत्यन्त कठिन क्योंकि दूसरों से कार्य करवाने में तो हम सभी माहिर होते हैं, जबकि खुद से कार्य नहीं करवा पाते जो भी लक्ष्य निर्धारित करते हैं उसमें आने वाली बाधाओं से  डर कर  रास्ता बदल देते हैं।

जो कुछ करना चाहता है, उसकी राहें स्वयं बनने लगतीं हैं। हर व्यक्ति अपने अनुसार चलना और चलाना चाहता है पर मजे की बात सामंजस्य नहीं चाहता। ये सब तो चलता रहेगा। अब समय है मर्यादा पुरुषोत्तम के पदचिन्हों पर चलने का। रामलला के विग्रह को देखकर ये पंक्ति जीवंत हो उठती है…

लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा

निज आयुध भुज चारी…

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 256 ☆ आलेख – अयोध्या… त्रेता से भविष्य तक… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपका एक ज्ञानवर्धक आलेख – अयोध्या… त्रेता से भविष्य तक…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 256 ☆

? आलेख – अयोध्या… त्रेता से भविष्य तक… ?

भारतीय मनीषा में मान्यता है कि देवों के देव महादेव अनादि हैं। उन्हीं भगवान् सदाशिव को वेद, पुराण और उपनिषद् ईश्वर तथा सर्वलोकमहेश्वर कहते हैं। भगवान् शिव के मन में सृष्टि रचने की इच्छा हुई। उन्होंने सोचा कि मैं एक से अनेक हो जाऊँ। यह विचार आते ही सबसे पहले शिव ने अपनी परा शक्ति अम्बिका को प्रकट किया तथा उनसे कहा कि हमें सृष्टि के लिये किसी दूसरे पुरुष का सृजन करना चाहिये, जिसे सृष्टि संचालन का भार सौंपा जा सके। ऐसा निश्चय करके शक्ति अम्बिका और परमेश्वर शिव ने अपने वाम अंग के दसवें भाग पर अमृत स्पर्श कर एक दिव्य पुरुष का प्रादुर्भाव किया।

पीताम्बर से शोभित चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म सुशोभित उस दिव्य शक्ति पुरुष ने भगवान् शिव को प्रणाम किया। भगवान् शिव ने उनसे कहा- ‘ हे वत्स ! व्यापक होने के कारण तुम्हारा नाम विष्णु होगा। सृष्टि का पालन करना तुम्हारा कार्य होगा। भगवान् शिव की इच्छानुसार श्री विष्णु कठोर तप में निमग्न हो गये। उस तपस्या के श्रम से उनके अंगो से जल धाराएँ निकलने लगीं, जिससे सूना आकाश भर गया। अंततः उन्होंने उसी जल में शयन किया। जल अर्थात् ‘नार’ में शयन करने के कारण ही श्री विष्णु का एक नाम ‘नारायण’ हुआ। तदनन्तर नारायण की नाभि से एक उत्तम कमल प्रकट हुआ। भगवान् शिव ने अपने दाहिने अंग से चतुर्मुख ब्रह्मा को प्रकट करके उस कमल पर उन्हें स्थापित कर दिया। महेश्वर की माया से मोहित ब्रह्मा जी कमल नाल में भ्रमण करते रहे, पर उन्हें अपने उत्पत्तिकर्ता का पता नहीं लग रहा था। आकाशवाणी द्वारा तप का आदेश मिलने पर ब्रह्माजी ने बारह वर्षों तक कठोर तपस्या की। आदि शिव ने प्रकट हो भगवान विष्णु और भगवान ब्रह्मा जी से कहा -‘ हे सुर श्रेष्ठ ! आप पर जगत् की सृष्टि का भार रहेगा तथा हे प्रभु विष्णु ! आप इस चराचर जगत् के पालन व्यवस्था हेतु सारे विधान करें। इस प्रकार भगवान विष्णु सृष्टि के पालनहार की भूमिका के निर्वाह में कर्ताधर्ता हैं। भागवत के अनुसार भगवान विष्णु को जग की व्यवस्था बनाये रखने के लिये दशावतार की पौराणिक मान्यता है। भगवान विष्णु अपने सातवें अवतार में त्रेता युग में स्वयं मर्यादा पुरोषत्तम श्री राम के रूप में इस धरती पर मनुष्य रूप में आये। इसके उपरांत द्वापर में श्री कृष्ण के और फिर बुद्ध के रूप में भगवान का अवतरण हो चुका है। ग्रंथों के अनुसार कलयुग में भगवान विष्णु अपने दसवें अवतार में कल्कि रूप में अवतार लेंगे। कल्कि अवतार कलियुग व सतयुग का पुनः संधिकाल होगा। कल्कि देवदत्त नामक घोड़े पर सवार होकर संसार से पापियों का विनाश करेंगे और धर्म की पुन:स्थापना करेंगे। सृष्टि का यह अनंत क्रम निरंतर क्रमबद्ध चलते रहने की अवधारणा भारतीय मनीषा में की गई है।

मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम अवतारी परमेश्वर थे पर उन्होंने सामान्य बच्चे की तरह माता के गर्भ से जन्म लिया। श्रीराम का जन्म चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को माना जाता है।

महर्षि वाल्मीकि कृत रामायण के बाल काण्ड में श्री राम के जन्म का उल्लेख इस तरह किया गया है। जन्म सर्ग 18 वें श्लोक 18-8-10 में महर्षि वाल्मीक जी ने उल्लेख किया है कि श्री राम जी का जन्म चैत्र शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को अभिजीत महूर्त में हुआ। आधुनिक वैज्ञानिक युग में कंप्यूटर द्वारा गणना करने पर यह तिथि 21 फरवरी, 5115 ईस्वी पूर्व निकलती है।

गोस्वामी तुलसीदास की रामचरित मानस के बाल काण्ड के 190 वें दोहे के बाद पहली चौपाई में तुलसीदास ने भी इसी तिथि और ग्रह नक्षत्रों का वर्णन किया है। वाल्मीकि रामायण की पुष्टि दिल्ली स्थित संस्था इंस्टीट्यूट ऑफ साइंटिफिक रिसर्च ऑन वेदा ने भी की है। वेदा ने खगौलीय स्थितियों की गणना के आधार पर ये थ्योरी बनाई है। महर्षि वाल्मीकि के अनुसार जिस समय राम का जन्म हुआ उस समय पांच ग्रह अपनी उच्चतम स्थिति में थे। यूनीक एग्जीबिशन ऑन कल्चरल कॉन्टिन्यूटी फ्रॉम ऋग्वेद टू रोबॉटिक्स नाम की एग्जीबिशन में प्रस्तुत रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार भगवान राम का जन्म 10 जनवरी, 5114 ईसा पूर्व सुबह बारह बजकर पांच मिनट पर हुआ (12:05 ए.एम.) पर हुआ था। यह तिथि इतनी अर्वाचीन है कि उसकी गणना में छोटी सी भी मानवीय त्रुटि बड़ा परिवर्तन कर सकती है अतः इस सबके ज्ञान मार्गी तर्क से परे भगवान राम के जन्म के रसमय भक्ति मार्गी आनन्द का अवगाहन ही सर्वथा उपयुक्त है।

संस्कृत के अमर ग्रंथ महाकवि कालिदास ने रघुवंश की कथा को १९ सर्गों में बाँटा है जिनमें अयोध्या के सूर्यवंश के राजा दिलीप, रघु, अज, दशरथ, राम, लव, कुश, अतिथि तथा बाद के 29 रघुवंशी राजाओं की कथा कही गई है। रामायण के अनुसार अयोध्या के सूर्यवंशी राजा दशरथ को चौथेपन तक संतान प्राप्ति नहीं हुई, “एक बार दशरथ मन माही, भई गलानि मोरे सुत नाही”। ईश्वरीय शक्तियों के मानवीकरण का इससे सहज उदाहरण और क्या हो सकता है ? राजा दशरथ और माता कौशल्या पुत्र कामना से अयोध्या के राजभवन में यज्ञ करते हैं। फिर राजा दशरथ को माता कौसल्या, सुमित्रा और कैकेयी रानियों से राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न पुत्रों का जन्म होता है। अयोध्या में खुशहाली छा जाती है।

भगवान राम सारी बाल लीलायें करते हैं ” ठुमक चलत रामचंद्र, बाजत पैंजनियां ” …। गुरु गृह गये पढ़न रघुराई, अल्प काल विद्या सब पाई ! … फिर दुष्टों के संहार के जिस मूल प्रयोजन से भगवान ने अवतार लिया था, उसके लिये भगवान श्री राम अनुकूल स्थितियां रचते जाते हैं पर मानवीय स्वरूप और क्षमताओ में स्वयं को बांधकर ही मर्यादा पुरुषोत्तम बनकर दुष्ट राक्षसों का अंत कर समाज में आदर्श पुत्र, आदर्श भाई, आदर्श पुरुष, आदर्श राजा के चरित्रों की स्थापना करते हैं। राम कथा से भारत ही नहीं दुनियां भर सुपरिचित है। विभिन्न देशों, अनेको भाषाओ में राम लीलाओ में निरंतर रामकथा कही, सुनी जाती है और जन मानस आनंद के भाव सागर में डूबता उतराता, राम सिया हनुमान की भक्ति से अपनी कठिनाईयों से मुक्ति के मार्ग बनाता जीवन दृष्टि पा रहा है।

स्वाभाविक है कि अयोध्या में भगवान श्रीराम के जन्म स्थल पर एक भव्य मंदिर सदियों से विद्यमान था। जब मुगल आक्रांताओ ने भारत में आधिपत्य के लिये आक्रमण किये तब सांसकृतिक हमले के लिये १५२८ में राम जन्म भूमि के मंदिर को तोड़कर वहां पर मस्जिद बनाई गई। हिन्दुओ को अस्तित्व के लिये बड़े संघर्ष का सामना करना पड़ा। ऐसे दुष्कर समय में साहित्य ही सहारा बना और भक्ति कालीन कवियों ने हिंदुत्व को पीढ़ीयों में जीवंत बनाये रखा। महाकवि गोस्वामी तुलसीदास कृत अवधी भाषा में लिखि गई राम चरित मानस हिन्दुओ की प्राण वायु बनी। गिरमिटिया मजदूर के रुप में विदेशों में ले जाये गये हिन्दूओ के साथ उनके मन भाव में मानस और राम कथा अनेक देशों तक जा पहुंची और रामकथा का वैश्विक विस्तार होता चला गया।

१८५३ में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच इस राम जन्म भूमि को लेकर संघर्ष हुआ। १८५९ में अंग्रेजों ने विवाद को ध्यान में रखते हुए पूजा व नमाज के लिए मुसलमानों को अन्दर का हिस्सा और हिन्दुओं को बाहर का हिस्सा उपयोग में लाने को कहा। देश की अंग्रेजों से आजादी के बाद १९४९ में अन्दर के हिस्से में भगवान राम की मूर्ति रखी गई। तनाव को बढ़ता देख सरकार ने इसके गेट में ताला लगा दिया। सन् १९८६ में जिला न्यायाधीश ने विवादित स्थल को हिंदुओं की पूजा के लिए खोलने का आदेश दिया। मुस्लिम समुदाय ने इसके विरोध में बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी गठित की।

सन् १९८९ में विश्व हिन्दू परिषद ने विवादित स्थल से सटी जमीन पर राम मंदिर की मुहिम शुरू की। ६ दिसम्बर १९९२ को अयोध्या में कथित अतिक्रमित बाबरी मस्जिद ढ़हा दी गई। आस्था के सतत सैलाब से कालांतर में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार वर्तमान स्वरूप विकसित हो सका और अब वह शुभ समय आ पहुंचा है जब पांच सौ वर्षो के बाद राम लला पुनः भव्य स्वरूप में जन्म स्थल पर सुशोभित हो रहे हैं।

अयोध्या का भविष्य अत्यंत उज्जवल है, विश्व में भारतीय संस्कृति की स्वीकार्यता बढ़ रही है। भारत महाशक्ति के रूप में स्वीकार किया जाने लगा है। “दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज नहीं काहुहि व्यापा ” की अवधारणा राम राज्य की आधारभूत संकल्पना है और अयोध्या इसकी प्रेरणा के स्वरूप में विकसित की जा रही है। वर्तमान समय आर्थिक समृद्धि का समय है, जैसे सरोवर को पता ही नहीं चलता और उससे वाष्पीकृत होकर जल बादलों के रूप में संचित हो जाता है प्रकृति वर्षा करके पुनः सबको बराबरी से अभिसिंचित कर देती है, राम राज्य में कर प्रणाली इसी तरह की थी कि टैक्स देने वाले को देने का कष्ट नहीं होता था। वर्तमान सरकार से ऐसी ही कर प्रणाली की अपेक्षा जनमानस कर रहा है, अयोध्या का राम जन्म भूमि मंदिर ऐसे शासन की याद दिलाने की प्रेरणा बने।

अयोध्या जिसे पहले साकेत नगर के रूप में भी जाना जाता था सरयू नदी के तट पर बसी एक धार्मिक एवं ऐतिहासिक नगरी है|यह उत्तर प्रदेश राज्य में है तथा अयोध्या नगर निगम के अंतर्गत इस जनपद का नगरीय क्षेत्र समाहित है| यह प्रभु श्री राम की पावन जन्मस्थली के रूप में हिन्दू धर्मावलम्बियों के आस्था का केंद्र है|अयोध्या प्राचीन समय में कोसल राज्य की राजधानी एवं प्रसिद्ध महाकाव्य रामायण की पृष्ठभूमि का केंद्र थी। प्रभु श्री राम की जन्मस्थली होने के कारण अयोध्या को मोक्षदायिनी एवं हिन्दुओं की प्रमुख तीर्थस्थली के रूप में माना जाता है | राम जन्म स्थल पर नये मंदिर के निर्माण के बाद अब अयोध्या वैश्विक पर्यटन मानचित्र पर अंकित हो चली है और यहां जो विश्वस्तरीय जन सुविधा विकसित हो रही है उससे यह हिन्दुओ की आस्था का सुविकसित केंद्र बनकर सदा सदा हमें नई उर्जा प्रदान करती रहेगी।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #31 ☆ कविता – “नक़्श-ए-इश्क़…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 31 ☆

☆ कविता ☆ “नक़्श-ए-इश्क़…☆ श्री आशिष मुळे ☆

उसे जबान की क्या जरूरत

कहे जो शख़्स प्यार बुरा है

नहीं समझा वो सदियों से

होना जानवर से इंसान क्या है

 

जिस किताब को नहीं इश्क के मायने

उसे पढ़कर क्या पाना

बस जिंदगी की सीख भूलना

और मौत में जनम खोजना

 

कहे जो दोस्त, मत कर मोहब्बत

उसे सुनकर क्या फायदा

बस दिलोदिमाग को गिरवी रखना

और सांप को ख़ैर-ख़्वाह समझना

 

बड़ी से बड़ी दौलत

नहीं ख़रीद सकती इसे

नक़्ल इसकी मगर

बिकती बड़ी सस्ते में

 

नक़्ल तो नक़्ल सही

मगर खरीद वो जज़्बात से

नक़्ल के पीछे भी है एक शक्ल

देखो गर जुनून-ए-इश्क़ से

 

जो ना समझे नक़्श-ए-इश्क़

वो जन्नत की तलाश करते है

दर्द-ए-इश्क़ दे सुकून जिसको

जन्नत उसे तलाश करती है….

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 191 ☆ प्रेरणा गीत – भारत के आदर्श राम हैं ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक कुल 148 मौलिक  कृतियाँ प्रकाशित। प्रमुख  मौलिक कृतियाँ 132 (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित। कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। 

 आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 191 ☆

☆ प्रेरणा गीत – भारत के आदर्श राम हैं ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

भारत के आदर्श राम हैं

जग में ध्वज फहराएँगे।

सत्य सनातन विजय पर्व पर

मिलकर हर्ष मनाएँगे।।

 *

जन्मस्थली मुक्त हो गई

बलिदानों की थाती से।

संस्कार , संस्कृति बच पाए

संघर्षी परिपाटी से ।।

 *

राम हमारे पुरषोत्तम हैं

इनको घर – घर लाएँगे।

भारत के आदर्श राम हैं

जग में ध्वज फहराएँगे।।

 *

स्वाभिमान , अस्तित्व बच गए

भारत माँ का वंदन है।

भक्त समर्पित इसमें उनके

मस्तक रोली चंदन है।।

 *

समता , ऐक्य राष्ट्र की कुंजी

सब ही हम अपनाएँगे।

भारत के आदर्श राम हैं

जग में ध्वज फहराएँगे।।

 *

मथुरा, काशी आराध्य  हैं

उनको आदर्श  बनाना है।

पीओके में ध्वज फहराकर

राष्ट्रीय धर्म बचाना है।।

 *

शिव , कान्हा संकल्प सुनेंगे

घर – घर दीप जलाएँगे।।

भारत के आदर्श राम हैं

जग में ध्वज फहराएँगे।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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