हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 66 – देश-परदेश – सेना दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 66 ☆ देश-परदेश – सेना दिवस ☆ श्री राकेश कुमार ☆

आज पंद्रह जनवरी को प्रतिवर्षनुसार देश में सेना दिवस मनाया जाता हैं। आज के ही दिन 1949 को फील्ड मार्शल के एम करियप्पा ने जनरल फ्रांसिस बुचर से भारतीय सेना की कमान संभाली थी।  

हमारे निकट परिवार के सदस्यों में से कोई भी सुरक्षा बलों की सेवा में तो नहीं है, परंतु बैंक सेवा के आरंभिक दशक में प्रतिदिन हमारे सैनिक भाइयों की सेवा का मौका अवश्य मिला। सेना की सभी यूनिट्स के खाते जबलपुर मुख्य शाखा में ही थे।

सैनिकों का भोलापन, कृतज्ञता की भावना उनके व्यवहार में झलकती है, इस सब को बहुत करीब से देखने और अनुभव करने का अवसर कुछ वर्षों तक रहा।

बैंक के बाहर भी जब कभी सेना का कोई सदस्य अचानक मिल जाता था, तो उतना ही आदर और सम्मान देता था, जितना वो बैंक में देता था। अनेक बार हम उनको सिविल ड्रेस में पहचान नहीं पाते थे, लेकिन वो आगे बढ़ कर हमेशा “जय हिंद” से अभिवादन करते थे। बैंक के साथियों के विवाह में आर्मी कैंटीन से ही वीआईपी सूटकेस और बिजली के पंखे क्रय कर साथियों को सामूहिक भेंट स्वरूप दी जाती थी।

कुछ दिन पूर्व फील्ड मार्शल मानेक शॉ की बायोपिक्स (फिल्म) देखी तो सेना के बारे में नई जानकारियां भी मिली।

ग्रामीण शाखा अंधेरी देवरी (ब्यावर) राजस्थान में पदस्थापना के समय शाखा में बैंक गार्ड श्री पुखराज के बारे में जानकारी प्राप्त हुई कि सेना में उन्होंने मानेक शॉ के निजी वाहन चालक के रूप में तीन वर्ष की सेवाएं देने के पश्चात प्रधान मंत्री स्वर्गीय इंदिरा गांधी के लिए एंबेसडर कार कुछ वर्ष तक चलाई थी।

पुखराज जी से मानेक शॉ के बहुत सारे किस्से और जानकारियों का आनंद भी लिया। पुखराज जी के शब्दों में मानेक शॉ बहुत ही सरल और मिलनसार व्यक्ति थे। जब सैनिक मेस में भोजन कर रहे होते थे, और यदि वो भी भोजन के समय वहां आ जाते, तो किसी भी सैनिक को खड़े होकर सम्मान या भोजन के मध्य में जय हिंद कहने की भी मनाही थी। उनका सिद्धांत था, कि भोजन ग्रहण के समय सब बराबर होते हैं।

आज सेना दिवस पर देश के सभी सुरक्षा बलों को आदर सहित नमन और अभिवादन।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान)

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 177 – उतारा – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय लघुकथा उतारा”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 177 ☆

☆ लघुकथा – 🌹 उतारा 🌹 

अपने घर में सदैव मकर संक्रांति पर्व पर तिल गुड़ की मिठास, लिए पूरनचंद और कुसुम सदा दान धर्म करते तिल लड्डू खिचड़ी बाँटते, कभी कपड़ों का दान, कभी जरूरत का सामान, घर के सामने पंक्ति बनाये लोग खड़े रहते थे।

कहते हैं समय बड़ा बलवान और शरीर नश्वर होता है। बुढ़ापा शरीर, बेटे बहू का घर परिवार बड़ा होना, खुशी से आँखें चमकती तो रहती थी, परंतु कहीं ना कहीं, बहू जो दूसरे घर की थी… अपने सास ससुर को ज्यादा महत्व नहीं देती। उसे लगता वह सिर्फ अपने पति और दो बच्चों के साथ ही रहती तो ज्यादा अच्छा होता।

धीरे-धीरे दूरियाँ बढ़ने लगी और एक कमरे में सिमट कर रह गए पुरनचंद और कुसुम। ठंड अपनी चरम सीमा पर, मकर संक्रांति का पर्व और चारों तरफ हर्ष उल्लास का वातावरण। कई दिनों से पूरनचंद बहू को अपने ओढ़ने के लिए कंबल मांग रहा था।

शायद पुराने कंबलों से ठंड नहीं जा रही थी। बढ़ती ठंड में पुराने कंबल काम नहीं आ रहे थे। आज पति को साथ लेकर बहू बाजार गई। उसने कहा… आपका स्वास्थ्य और कारोबार दिनों दिन खराब होते जा रहा है। मुझे किसी ने बताया है.. कि शरीर से उतारा करके किसी गरीब या जरुरतमंद को कंबल या गर्म कपड़े दान कर देना।

बेटा भी खुश था.. चलो इसके मन में दान धर्म जैसी कोई भावना आई तो सही। घर आने पर पत्नी ने अपने पति के शरीर, सिर से उतारा करके कंबल पर काली तीली रख के एक किनारे रख दिया।

पतिदेव काम में फिर से चले गए। शाम को आते ही देखा। पिताजी और माँ नए कंबल को ओढ़े बैठे मुस्कुरा रहे थे। इसके पहले वह कुछ बोलता।

पत्नी हाथ पकड़ कर कमरे में ले गई और बोली… अब उतारा तो करना ही था और किसी जरूरतमंद को देना था।

इस समय तुम्हारे माँ- पिताजी को कंबल की जरूरत थी। मुझे इससे अच्छा और कुछ नहीं सूझा। अब जो भी हो हमारी बला से। हमने तो उतारा दे दिया।

कानों में माँ की लोरी की आवाज आ रही थी। मकर संक्रांति, आई मकर संक्रांति आई।

“तिल गुड़ मिठास लिये साल

जुग जुग जिए मेरा लाल”

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #220 ☆ तन काटेरी… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 220 ?

तन काटेरी… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

तन काटेरी आत गोडवा

जीवन अपुले असेच घडवा

नको दुरावा नकोच भांडण

नकोच प्रेमाचे या शोषण

तीळगुळासम हृदये जुळवा

तन काटेरी आत गोडवा

हलवा करतो अमृत सिंचन

मुखात असुद्या असेच वर्तन

क्रोध अंतरी किल्मिष दडवा

तन काटेरी आत गोडवा

रंग बिरंगी पंतग आपण

आकाशाचे करुया मापन

अभेद उंची अशी वाढवा

तन काटेरी आत गोडवा

दोर तुटला तरीही झुलतो

वाऱ्यासोबत मस्ती करतो

बालचमुंनी झेलुन घ्यावा

तन काटेरी आत गोडवा

© श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ तूच गं ती… (विषय एकच… काव्ये दोन) ☆ श्री आशिष बिवलकर आणि श्री सुहास सोहोनी ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ?  तूच गं ती… (विषय एकच… काव्ये दोन) ☆ श्री आशिष बिवलकर आणि श्री सुहास सोहोनी ☆

श्री आशिष बिवलकर   

? – तूच गं ती… – ? ☆ श्री आशिष बिवलकर ☆

( १ )

कोल्ह्याला द्राक्ष लागतात आंबट,

तो ही पून्हा एकदा बघेल चाखून |

मादक सौंदर्य तुझं लावण्यवती ,

कोणीही न्याहाळेल श्वास रोखून |

कामुक नजरेतून तूझ्या सुटती,

मदनाचे मनमोहक बाण |

घायाळ  करतेस पामरांना,

एका अदेत होतात गतप्राण |

विश्वमित्राची तपश्चर्या भंग करणारी,

मेनका तूच ग तीच असणार |

कलयुगात  पुन्हा अवतरलीस,

सांग आता ग कोणाला तू डसणार |

द्राक्षांचे घड मिरवतेस अंगावर,

उगाच कशाला वाढवतेस त्यांची गोडी |

एक एक द्राक्ष झाला मदिरेचा प्याला,

नकोस ग काढू खाणाऱ्यांची खोडी |

चालण्यात ऐट तुझ्या,

साज तुझा रुबाबदार |

ऐन गुलाबी थंडीत,

वातावरण केलेस ऊबदार |

महाग केलीस तू द्राक्ष,

गोष्ट खरी सोळा आणे |

अजून नको ठेऊ अंगावर,

होतील ग त्यांचे बेदाणे |

© श्री आशिष  बिवलकर

बदलापूर

मो 9518942105

श्री सुहास सोहोनी

? – तूच गं ती… – ? ☆ श्री सुहास सोहोनी ☆

( २ ) 

आधीच तुझ्या नजरेत केवढी

ठासून दारू भरलेली

त्यात आणखी द्राक्षांनीच तू

आपादमस्तक भारलेली ll

तूच सांग बाई आता

किती नशा झेपवायची

आधीच केवढी तप्त भट्टी

आणखी किती तापवायची ??

वाईन करण्यापूर्वी द्राक्षे

अशीच “पक्व”त असतील काय ?

दूध तापण्यापूर्वीच त्यावर

अशीच “डक्व”त असतील साय ??

जे काही करीत असतील

करोत,आपलं काय जातं

समोर आहे खाण तोवर

भरून घेऊ आपलं खातं ll

कवी : AK (काव्यानंद) मराठे

कुर्धे, पावस, रत्नागिरी

मो. 9405751698

प्रस्तुती : श्री सुहास सोहोनी 

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 172 – गीत – जैसे नहीं मिली हो…. ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका एक अप्रतिम गीत – जैसे नहीं मिली हो।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 172 – गीत  –  जैसे नहीं मिली हो…  ✍

कहने को कुछ खास नहीं है

यही पुराने रस्ते

आते जाते देखा देखी

दो दो बार नमस्ते

खुशबू न्यौता देती रहती

लगती भली भली हो।

 

कभी अगर कुछ कहा सुना तो

वह भी केवल इतना

देखो सीखी नई बुनाई

कोर्स हुआ है इतना

पढ़ना चाहो मुझको पढ़ लो

पढ़ने कहाँ चली हो।

 

अक्सर होंठ फड़कते देखे

देखी आँख भटकती

सम्मन पाकर अँगड़ाई का

सारी नसें चटकती

गंध उम्र ने सौंपी लेकिन

अब तक नहीं खिली हो।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 170 – “रोपे थे जो कठिन समय में…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत  रोपे थे जो कठिन समय में...)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 170 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “रोपे थे जो कठिन समय में...” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

सोच रहा फुटपाथ यहाँ पर

लैम्प पोस्ट नीचे ।

लोग चल रहे कैसे

अपनी ऑंखों को मीचे ॥

 

उजड़ी जहाँ वनस्पतियाँ हैं

उभय किनारों की ।

पगडंडियाँ कर रही निंदा

शुष्क विचारों की ।

 

विद्वानों ने सुखा दिये हैं

ज्ञान समन्वय के-

रोपे थे जो कठिन समय में

अभिनव बागीचे ॥

 

लोग जहाँ सन्दर्भ हीन

दिख रहे कहानी में ।

वहाँ खोजती सत्व

नायिका यथा जवानी में ।

 

वहीं इसी चौराहे पर

क्यों हुये इकट्ठे हैं –

आपस में मुट्ठियाँ तानते

हुये होंठ भींचे ॥

 

कैसे भूले लोग अद्यतन

जाती सुविधायें ।

जो सामाजिक संरचना की

होतीं समिधायें ।

 

जिनके पारगमन की चिन्ता

सड़कें करती हैं –

अपने हिरदय पर लक्षमण की

रेखा को खींचे ॥

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

02-11-2023

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – व्यंग्य ☆ शेष कुशल # 36 ☆ व्यंग्य – “इंग्लिश बनाम इंग्लिश” ☆ श्री शांतिलाल जैन ☆

श्री शांतिलाल जैन

(आदरणीय अग्रज एवं वरिष्ठ व्यंग्यकार श्री शांतिलाल जैन जी विगत दो  दशक से भी अधिक समय से व्यंग्य विधा के सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपकी पुस्तक  ‘न जाना इस देश’ को साहित्य अकादमी के राजेंद्र अनुरागी पुरस्कार से नवाजा गया है। इसके अतिरिक्त आप कई ख्यातिनाम पुरस्कारों से अलंकृत किए गए हैं। इनमें हरिकृष्ण तेलंग स्मृति सम्मान एवं डॉ ज्ञान चतुर्वेदी पुरस्कार प्रमुख हैं। श्री शांतिलाल जैन जी  के  स्थायी स्तम्भ – शेष कुशल  में आज प्रस्तुत है उनका एक विचारणीय व्यंग्य  इंग्लिश बनाम इंग्लिश।) 

☆ शेष कुशल # 36 ☆

☆ व्यंग्य – “इंग्लिश बनाम इंग्लिश” – शांतिलाल जैन 

मेरा एक मशविरा है श्रीमान कि अब से किसी बाथरूम को बाथरूम कहने की गलती मत करिएगा, गंवार समझे जाने लगेंगे. बाथरूम अब वॉशरूम हो गया है. मौका सलूजा साब के फ्लैट में गृहप्रवेश का था. मास्टर बेडरूम से जुड़े गुसलखाने को मैंने शानदार बाथरूम कह दिया. उनके चेहरे पर ऐसा भाव आया मानों कि वे एक गंवार आदमी से मुख़ातिब हों. अपार्टमेंट को फ़्लैट कहा जाना भी उन्हें नागवार गुजरा. उन्होंने कहा था एलेवंथ फ्लोर पर इलेवेटर से आ जाईएगा. हम बहुत देर तक इलेवेटर ढूंढते रहे, फिर पता लगा कि सामने लगी लिफ्ट को ही इलेवेटर कहते हैं. ये इंग्लिश बनाम इंग्लिश का समय है श्रीमान. आपको अंग्रेजी आती हो इतना काफी नहीं है, आपको नए जमाने की अंग्रेजी आनी चाहिए. जब मिसेज सलूजा ने ब्लेंडर का जिक्र किया तो मुझे पत्नी को अंग्रेजी से अंग्रेजी में अनुवाद करके बताना पड़ा कि ये मिक्सी की बात कर रहीं हैं. सलूजा साब के किड्स प्राइमरी स्कूल के स्टूडेंट नहीं हैं, जूनियर स्कूल के हैं. जिन्दगी भर पेन्सिल से लिखा आप जिस रबर से मिटाते रहे वो उनके लिए इरेजर है. वे खाते बिस्किट हैं, कहते कुकीज हैं. समझे ब्रदर, आई मीन ब्रो. तो जब आप मिलें सलूजा साब से इंट्रोडक्शन मत दे दीजिएगा – इंट्रो इज इनफ.

नए जमाने की अंग्रेजी का आलम ये कि इन दिनों बायो-डाटा तो लोग चपरासी की पोस्ट के लिए नहीं देते, रिज्यूम देना पड़ता है. फुटपाथ अब पैदल चलनेवालों के लिए नहीं होते, पेवमेंट पर से वाक् करके जाना पड़ता है. इंग्लिश अब इंग्लिश से मात खाने लगी है तभी तो गिनती लाख-करोड़-अरब में नहीं होती, मिलियन-बिलियन-ट्रिलियन में होती है. आतंकवादी अब ‘किल’ नहीं किए जाते, न्यूट्रलाईज किए जाते हैं.

ये जेन-झेड का समय है. गंवार हंड्रेड परसेंट सही होते हैं और जेन-झेड सेंट-परसेंट. अपन हंड्रेड परसेंट सही हैं श्रीमान.

-x-x-x-

© शांतिलाल जैन 

बी-8/12, महानंदा नगर, उज्जैन (म.प्र.) – 456010

9425019837 (M)

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 220 ☆ कविता – “कोहरे में” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता“कोहरे में”)

☆ कविता – कोहरे में☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय

कोहरे की 

चादर ओढ़कर 

अभी अभी

पहुंचा हूँ गाँव।

गाँव में

सब चलता है

मौसम खराब 

होने से

किसी पर कोई

असर नहीं होता।

धूप कभी

दिखती छुपती

नहाने चली जाती

धनिया गोबर से

भरा तसला लिए

कोहरे में कहां

गुम हो जाती।

सरसों के फूल

धुले धुले से

लगते दूर से  

कोहरे की चादर

फेंककर 

अलसाई सी

जग गई है धरती।

मेहमान बनकर

आता है कोहरा

कोहरे में किसान

सब्जी लेकर

निकल पड़ता है

बाजार की ओर

क्योंकि मेहमान 

बनकर आता है 

कोहरा

गांव की ओर।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 162 ☆ # विधुर का जीवन # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# विधुर का जीवन #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 160 ☆

☆ # विधुर का जीवन #

सुबह सुबह पार्क की बेंच पर

वह बैठा रहता है

मुझे देख मुस्कुरा कर

गुड़ मार्निंग कहता है

उसकी चेहरे की झुर्रियों में

गजब की उष्मा है

आंखों पर मोटे ग्लास का

चश्मा है

अधपके काले सफेद बाल हैं 

लंगड़ाते हुए उसकी चाल है

सबसे गर्म जोशी से

हाथ मिलाता है

अपने दर्द को भूलकर

खूब खिलखिलाता है

मैंने एक दिन पूछा-

भाई! क्या हाल है ?

इस उम्र में यह ऊर्जा  

वाकई कमाल है

वह बोला-

क्या कहें

किससे कहें

अपने दुःख हैं 

बेहतर है खुद ही सहें 

साहब –

बीमार पत्नी

कुछ साल पहले चल बसी

छिन गई तबसे हमारी हंसी

बहू बेटों के साथ रहते हैं

क्या कहें

क्या क्या सहते हैं

तीन बहू बेटों ने

मेरे दिन-रात

ऐसे बांटा है

नाश्ता, लंच, डिनर

फिर लंबा सन्नाटा है

साहब –

अगर पहले पति मर जायें

तो परिवार के साथ

पत्नी रम जाती है

परंतु पहले अगर पत्नी मर जाये

तो आदमी की जिंदगी

थम जाती है

लगता है कि 

उधारी की

जिंदगी जी रहा हूँ 

हंसते हंसते

अकेलेपन का

जहर पी रहा हूँ 

साहब –

पत्नी बिना बुढ़ापा

कांटों भरी शैय्या है

विधुर का जीवन तो

 बिन मांझी की नैया है  /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कथा कहानी ☆ मेरी सच्ची कहानी – अनुशासन… ☆ श्री राजेन्द्र तिवारी ☆

श्री राजेन्द्र तिवारी

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी जबलपुर से श्री राजेंद्र तिवारी जी का स्वागत। इंडियन एयरफोर्स में अपनी सेवाएं देने के पश्चात मध्य प्रदेश पुलिस में विभिन्न स्थानों पर थाना प्रभारी के पद पर रहते हुए समाज कल्याण तथा देशभक्ति जनसेवा के कार्य को चरितार्थ किया। कादम्बरी साहित्य सम्मान सहित कई विशेष सम्मान एवं विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित, आकाशवाणी और दूरदर्शन द्वारा वार्ताएं प्रसारित। हॉकी में स्पेन के विरुद्ध भारत का प्रतिनिधित्व तथा कई सम्मानित टूर्नामेंट में भाग लिया। सांस्कृतिक और साहित्यिक क्षेत्र में भी लगातार सक्रिय रहा। हम आपकी रचनाएँ समय समय पर अपने पाठकों के साथ साझा करते रहेंगे। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा अनुशासन…’।)

☆ लघुकथा – अनुशासन… ☆

फौज के सख्त अनुशासन ने उन्हें कठोर बना दिया था. वो मेजर थे.  एक अभियान में भाग लेते समय बारूदी विस्फोट में, उनके हाथ का पंजा उड़ गया था.  बहुत दिन अस्पताल में भरती रहे. दिव्यांग होने पर फौज से सेवा निवृत होने के बाद, इस शहर में स्कूल के प्राचार्य बने थे. कठोर, अनुशासन से और उनके सख्त स्वभाव से उनकी शहर में अलग पहचान बन गई थी. 10.30 बजे स्कूल में प्रार्थना शुरू होती थी. समय पर सभी शिक्षक और विद्यार्थी पहुंचने लगे थे, क्योंकि मेन गेट उस समय बंद कर दिया जाता था. किसी को भी इस के बाद प्रवेश नहीं. शिक्षक जो नहीं आ पाते थे, उनकी छुट्टी काउंट हो जाती थी.

राम नरेश स्कूल का प्यून था, जो गेट बंद कर देता था, पीयूष शहर के विधायक का पुत्र था, उद्दंड था, पैसों का बहुत घमंड करता था,  ड्रग्स भी लेता था, शिक्षकों की इज्जत भी नहीं करता था, कोई भी उसके पिता के भय से, उससे कुछ नहीं कहता था, सब डरते थे. अक्सर देर से ही आया करता था.  रामनरेश भी उससे डर कर गेट खोल दिया करता था. पर आज तो खुद प्राचार्य गेट के पास थे. पीयूष गेट के बाहर था,  वह गेट खोलने के लिए चिल्ला रहा था, प्राचार्य सुकेश ने उससे कहा,  जाओ,  आज तुम्हारी छुट्टी कल अपने पिताजी को लेकर आना, तब प्रवेश मिलेगा, पीयूष भड़क गया. प्राचार्य को धमकी देने लगा, तुम्हें सस्पेंड कर दूंगा, ट्रांसफर करा दूंगा, मुझे जानते नहीं हो, प्राचार्य ने गेट खुलवाया और खुद बाहर निकल कर उसे पकड़ कर स्कूल में अंदर ले आए, और अपने कमरे में ले जाकर अच्छी तरह से पिटाई कर दी, और कहा, खड़े रहो यहां, आप शिक्षक का सम्मान भूल गए हो, मुझे याद दिलाना पड़ेगा, किसी ने पीयूष के पिताजी को खबर कर दी, वो गुस्से में स्कूल आ गए और प्राचार्य के कमरे में आ गए.

प्राचार्य जी कैसे हिम्मत हो गई आपकी मेरे बेटे पर हाथ उठाने की, आप जानते नहीं, यह मेरा बेटा है, विधायक रामशरण का बेटा.

प्राचार्य सुकेश ने कहा,  मैं बच्चों को पढ़ाते या सुधारते समय उनके पिता की हैसियत नहीं देखता, प्रलय और निर्माण शिक्षक की गोद में पलते हैं. मेरे लिए सभी बच्चे पुत्रवत हैं, यह उद्दंड हो रहा था, इसलिए इसका उपचार किया है, और दवा तो थोड़ी कड़वी होती ही है.

विधायक, ने सारी बात समझी, और कहा,  सर हमारे लाड़ प्यार ने इसे बिगाड़ दिया हैं, अब आप हैं तो आपके संरक्षण में ये सुधर जाएगा, मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है, बस कृपा बनाए रखियेगा, कभी निवास पर पधारिए सर और विधायक जी उठ कर चले गए.

पीयूष को भी अपनी गलती समझ आ गई,  उसने प्राचार्य जी के चरण छुए, और अपनी गलती की माफी मांगी.और भविष्य में गलती की पुनरावृत्ति न करने का कहा.

© श्री राजेन्द्र तिवारी  

संपर्क – 70, रामेश्वरम कॉलोनी, विजय नगर, जबलपुर

मो  9425391435

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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