हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार # 222 ☆ कहानी – शुभचिन्तक ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है एक विचारणीय कथा – शुभचिन्तक। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 222 ☆

☆ कहानी – शुभचिन्तक

कॉलोनी में चौधरी साहब का आतंक है। वे कॉलोनी की अघोषित नैतिक पुलिस हैं। कॉलोनी में कोई भी गड़बड़ करे, चौधरी साहब उसकी पेशी ले लेते हैं। कॉलोनी के छोटे से पार्क में सुबह-शाम अपने तीन चार हमउम्रों के साथ उनकी बैठक जमती है। उस वक्त कॉलोनी के लड़के-लड़कियाँ पार्क से दूरी बना कर चलते हैं।

चौधरी साहब को सबसे ज़्यादा चिढ़ कान पर मोबाइल चिपकाये घूमते लड़कों- लड़कियों से होती है। देखते हैं तो इशारों से बुला लेते हैं, फिर शुरू हो जाते हैं— ‘आप कोई बड़े बिज़नेसमैन हैं? किसी कंपनी के डायरेक्टर या मैनेजर हैं? यह आपको घंटों बात करने की ज़रूरत क्यों होती है? पैसे खर्च नहीं होते? स्टूडेंट के लिए इतनी ज़्यादा बात करना क्यों ज़रूरी है?’

लड़के-लड़कियाँ चौधरी साहब से तो कुछ नहीं कहते, लेकिन घर आकर माँ-बाप के सामने उखड़ जाते हैं— ‘हम बात करते हैं तो चौधरी अंकल को क्यों तकलीफ होती है? उनके ज़माने में मोबाइल नहीं होता था, हमारे ज़माने में है तो इस्तेमाल भी होगा। और फिर जब हमारे पेरेंट्स को एतराज़ नहीं है तो वे क्यों चार आदमी के सामने टोका-टाकी करते हैं?’

उनके माता-पिता समझाते हैं, ‘चौधरी साहब बुज़ुर्ग हैं। वे सब का भला चाहते हैं। उन्हें लगता है कि तुम लोग अपने पैसे और टाइम की फिजूलखर्ची करते हो, इसीलिए वे बोलते हैं। ही मीन्स वैल। उनकी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए।’

लेकिन लड़के-लड़कियाँ कसमसाते रहते हैं। अपनी स्वतंत्रता में यह दखलन्दाजी उन्हें बर्दाश्त नहीं होती। चौधरी साहब को देखते ही उनका माथा चढ़ता है, लेकिन उनकी उम्र का लिहाज है।

चौधरी साहब का खयाल है कि मोबाइल ने देश के लोगों को बरबाद कर दिया है। लड़के-लड़कियांँ दिन भर मोबाइल से ऐसे चिपके रहते हैं जैसे यही उनकी रोज़ी-रोटी हो। एक बार कान से चिपका सो चिपका, पता नहीं कब अलग होगा। किसी से रूबरू बात करना मुश्किल है। चौधरी साहब का सोच है कि जो कमाते नहीं उन्हें सोच समझकर खर्चा करना चाहिए।

चौधरी साहब के घर के सदस्य, ख़ासकर बच्चे, उनसे ख़ौफ़ खाते हैं। अपने मोबाइल छिपा कर रखते हैं और बात करते वक्त दरवाजा बन्द करना नहीं भूलते।

चौधरी साहब को शिकायत कॉलोनी में काम करने वाली बाइयों से भी है। अब बाइयों को भी मोबाइल का रोग लग गया है। ज़्यादातर बाइयों के हाथ में मोबाइल चमकता रहता है। चौधरी साहब को और भी तकलीफ तब होती है जब कॉलोनी में काम करने वाले मज़दूरों और मज़दूरिनों के हाथ में भी उन्हें मोबाइल दिखायी पड़ता है। उन्हें समझ में नहीं आता कि दिन भर मेहनत करके तीन चार सौ रुपये कमाने वाले लोग मोबाइल की विलासिता कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं।

चौधरी साहब के घर में विमला बाई काम करती है। स्वभाव से अच्छी है। काम के प्रति गंभीर है। चोरी- चकारी की आदत नहीं। आप घर उसके हवाले छोड़ कर आराम से घूमने-घामने जा सकते हैं। घरवाला पहले रिक्शा चलाता था, लेकिन कुछ दिन बाद शरीर जवाब देने लगा। अब सड़क के किनारे सब्ज़ी का ठेला लगाता है। दो लड़के और एक लड़की है। एक लड़का एक मोटर गैरेज में काम करता है, दूसरा साइकिल पर सब्ज़ी की टोकरी रखकर घूमता है।लड़की की शादी हो गयी है।

विमला बाई के साथ भी वही रोग है। झाड़ू लगाते लगाते कहीं से रिंग आ जाती है और वह झाड़ू बीच रास्ते में छोड़ कर दीवार से टिक कर बैठ जाती है। चौधरी साहब देखकर माथा  ठोकते हैं। ज़्यादा देर बात करने की गुंजाइश दिखी तो वह कान से मोबाइल चिपकाये बाहर निकल जाती है और चौधरी साहब का ब्लड-प्रेशर बढ़ने लगता है। ज़्यादा कुछ बोलने के लिए बहू बरजती है। कॉलोनी में अच्छी बाई को पा लेना किस्मत की बात है। दूसरी बात यह है कि नयी बाई को लगाने की बात उठते ही पुरानी लड़ने पर आमादा हो जाती है।

विमला बाई का अपने गाँव से रिश्ता अभी छूटा और टूटा नहीं। तीन बहनें हैं जो आस-पास के गाँवों में ब्याही हैं। दो भाई गाँव में ही हैं। चाचाओं, बुआओं, मौसियों से रिश्ते जीवित हैं। मन ऊबता है तो कहीं भी फोन लगा कर बैठ जाती है। फिर सुध नहीं रहती। कहाँ-कहाँ की खोज खबर लेती रहती है। कान से सुनी बातें दृश्यों में परिवर्तित होकर आँखों के सामने तैरती जाती हैं। मोबाइल छोड़ने का मन नहीं होता। जब बात बन्द होती है तब मन में कसक होती है कि बहुत पैसा खर्च हो गया। लेकिन यह मलाल अल्पजीवी ही होता है। काम से फुरसत मिलते ही मन फिर कहीं उड़ने को अकुलाने लगता है।

विमला बाई काम भले ही दो तीन घरों में करती हो, लेकिन उसकी पैठ कॉलोनी के कई घरों में है। कई घरों में वह कभी न कभी काम कर चुकी है। लेकिन उसे पता है कि घरों की मालकिनों  से उसके संबंध एक सीमा तक ही हैं। उसके बाद उनके रास्ते अलग-अलग हैं। मालकिनें जिस आत्मीयता से एक दूसरे से बात और व्यवहार करती हैं वैसी उसके लिए नहीं है। कई बार वह काम करते-करते चौधरी साहब की बहू के सामने अपने दुखड़े लेकर बैठ जाती है, लेकिन पाँच दस मिनट बाद ही वह महसूस करती है कि उसकी दुनिया में उनकी दिलचस्पी नहीं है। उनके सुख- दुख उसके सुखों-दुखों से भिन्न हैं।

घर में उसकी बातें सुनने वाला कोई नहीं होता। पति रात को थका हुआ आता है और खाना खा कर सो जाता है। लड़के कभी जल्दी तो कभी आधी रात को आते हैं। उन्हें भी माँ से बात करने की फुरसत नहीं होती। बस कॉलोनी की बाइयाँ ही हैं जो इत्मीनान से उसकी बात सुनती हैं। उनके साथ खूब मन के पन्ने खुलते हैं। एक दूसरे को अपनी व्यथा सुना कर हल्की हो जाती हैं। चौधरी साहब के घर पहुँचते-पहुँचते विमला बाई किसी दूसरी बाई के साथ सामने पुलिया पर बैठक जमा लेती है और खिड़की से झाँकते  चौधरी साहब कुढ़ कर बहू से कहते हैं, ‘लो देख लो, जम गयी बैठक। हो गया तुम्हारा काम।’

दिवाली-होली को विमला बाई को गाँव जाना ही है। गयी तो फिर हफ्ते भर तक वापस आने का नाम नहीं लेती। ऐसा ही गाँव से जुड़ी सभी बाइयों के साथ होता है। बाइयों के ग़ायब होते ही उनकी मालकिनों का मूड बिगड़ जाता है। सब को अपना जोड़ों का दर्द, स्पोंडिलाइटिस और डायबिटीज़ याद आने लगता है। जब तक बाइयाँ पुनः प्रकट नहीं होतीं, घर में खासा तनाव रहता है। बाइयों की खीझ घर के बच्चों पर उतरती है।

विमला बाई के गाँव के घर में अभी माँ है। सयानी होने के बावजूद हाथ-पाँव दुरुस्त हैं। अभी भी संपन्न लोगों के घरों में टानकटउआ करके थोड़ा बहुत कमा लेती है। फालतू बैठे उसे चैन नहीं पड़ता।

विमला गाँव जाती है तो निहाल हो जाती है। रिश्तेदारों और बचपन की सहेलियों से मिलकर शहर की फजीहत और तनाव भूल जाती है। दुनिया भर की बातें होती हैं। सहेलियों से मिलकर बचपन फिर लौट आता है। एक हफ्ता कब गुज़र जाता है पता नहीं चलता। लौटते मन खिन्न होता है। सामने दिखती है वही थोड़े से पैसों के लिए बड़े लोगों की सेवा और घर की नीरस दिनचर्या। लेकिन ज़िन्दगी का शिकंजा ऐसा है कि निकल भागने का कोई रास्ता नहीं है।

विमला बाई गाँव से लौटती है तो कॉलोनी के कई घरों से राहत की ठंडी साँस निकलती है। मनहूस लगते दृश्य फिर सुहाने हो जाते हैं। फूलों में खुशबू लौट आती है। प्राणिमात्र के लिए फिर प्रेम का अनुभव होने लगता है।

विमला बाई के लौटने पर एक-दो दिन तक चौधरी साहब का मुँह फूला रहता है। अमूमन विमला बाई से गप लगाने वाले चौधरी साहब एक-दो दिन तक उससे बात नहीं करते। उनकी नज़र में गाँव का यह मोह फालतू है। उनकी समझ में नहीं आता कि गाँव में ऐसा क्या है जो विमला बाई जैसी स्त्रियों को बाँधे रखता है। जो शहर में है वह गाँव में कहाँ? विमला बाई को जाना ही है तो एक-दो दिन में सब से मिल-मिला कर वापस आ जाए। हफ्ते भर तक वहाँ क्या करना है? चौधरी साहब को रिश्ते के शादी-ब्याह में किसी गाँव जाना पड़ता है तो एक दिन में ही बोर हो जाते हैं। पूरा वक्त उबासियाँ लेते और ऊँघते बीतता है। गाँव की ज़िन्दगी की धीमी रफ्तार से एडजस्ट करना मुश्किल होता है।

एक-दो दिन की नाराज़ी के बाद चौधरी साहब कुर्सी खींचकर उपदेशक की मुद्रा में विमला बाई के सामने बैठ जाते हैं। कहते हैं, ‘विमला बाई, सँभल जाओ। न तुम मोबाइल पर टाइम और पैसा बर्बाद करना बन्द करती हो, न बार-बार गाँव जाना। मेरा सारा समझाना फालतू जाता है। इतने सारे नाते रिश्ते पालने से क्या मिलता है? पैसा बचाओ और जिन्दगी बेहतर बनाने की कोशिश करो। ये नाते रिश्ते किसी काम नहीं आते, पैसा ही काम आता है।’

विमला बाई उनकी बात सुनकर कुछ देर सिर झुका कर ज़मीन कुरेदती है, फिर चौधरी साहब की आँखों में झाँक कर जवाब देती है, ‘बाबूजी, आप ठीक कहते हैं, लेकिन मैं पागल नहीं हूँ। आपकी बात पर खूब सोचती हूँ। मैं यह सोचती हूँ कि पैसा आराम दे सकता है, परेशानियाँ कम कर सकता है, लेकिन खुशी नहीं दे सकता। खुशी तो रिश्तों-नातों से ही मिलती है। बगल में आदमी न हो तो लोग पैसा लूट कर चले जाते हैं। यहाँ कितने ही लखपती करोड़पती लोग हैं जो अकेले पड़े सड़ रहे हैं। उनके बेटे बाप की संपत्ति के लिए एक दूसरे की जान ले रहे हैं। आखिर में रिश्ते ही काम आते हैं, पैसा बेकार हो जाता है। रिश्ते में जो खुशी है वह पैसे में कहाँ?’
चौधरी साहब निरुत्तर होकर उसका मुँह देखते रह गये।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 221 – आलेख – भोर भई ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆  संजय उवाच # 221 ☆ आलेख – भोर भई ?

मैं फुटपाथ पर चल रहा हूँ। बाईं ओर फुटपाथ के साथ-साथ महाविद्यालय की दीवार चल रही है तो दाहिनी ओर सड़क सरपट दौड़ रही है।  महाविद्यालय की सीमा में लम्बे-बड़े वृक्ष हैं। कुछ वृक्षों का एक हिस्सा दीवार फांदकर फुटपाथ के ऊपर भी आ रहा है। परहित का विचार करनेवाले यों भी सीमाओं में बंधकर कब अपना काम करते हैं!

अपने विचारों में खोया चला जा रहा हूँ। अकस्मात देखता हूँ कि आँख से लगभग दस फीट आगे, सिर पर छाया करते किसी वृक्ष का एक पत्ता झर रहा है। सड़क पर धूप है जबकि फुटपाथ पर छाया। झरता हुआ पत्ता किसी दक्ष नृत्यांगना के पदलालित्य-सा थिरकता हुआ  नीचे आ रहा है। आश्चर्य! वह अकेला नहीं है। उसकी छाया भी उसके साथ निरंतर नृत्य करती उतर रही है। एक लय, एक  ताल, एक यति के साथ दो की गति। जीवन में पहली बार प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों सामने हैं। गंतव्य तो निश्चित है पर पल-पल बदलता मार्ग अनिश्चितता उत्पन्न रहा है। संत कबीर ने लिखा है, ‘जैसे पात गिरे तरुवर के, मिलना बहुत दुहेला। न जानूँ किधर गिरेगा,लग्या पवन का रेला।’ 

इहलोक के रेले में आत्मा और देह का संबंध भी प्रत्यक्ष और परोक्ष जैसा ही है। विज्ञान कहता है, जो दिख रहा है, वही घट रहा है। ज्ञान कहता है, दृष्टि सम्यक हो तो जो घटता है, वही दिखता है। देखता हूँ कि पत्ते से पहले उसकी छाया ओझल हो गई है। पत्ता अब धूल में पड़ा, धूल हो रहा है।

अगले 365 दिन यदि इहलोक में निवास बना रहा एवं देह और आत्मा के परस्पर संबंध पर मंथन हो सका तो ग्रेगोरियन कैलेंडर का कल से आरम्भ होनेवाला यह वर्ष शायद कुछ उपयोगी सिद्ध हो सके।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

💥 🕉️ मार्गशीर्ष साधना सम्पन्न हुई। अगली साधना की सूचना हम शीघ्र करेंगे। 🕉️ 💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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English Literature – Poetry ☆ Anonymous litterateur of Social Media # 169 ☆ Captain Pravin Raghuvanshi, NM ☆

Captain Pravin Raghuvanshi, NM

? Anonymous Litterateur of Social Media # 169 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 169) ?

Captain Pravin Raghuvanshi —an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.

Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi.  He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper.  The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.

हिंदी साहित्य – आलेख ☆ अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन ☆ कैप्टन प्रवीण रघुवंशी, एन एम्

In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.

Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus. His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.

हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।

फेसबुक पेज लिंक  >>कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी का “कविता पाठ” 

? English translation of Urdu poetry couplets of Anonymous litterateur of Social Media # 169 ?

☆☆☆☆☆

☆ Resolute Action… ☆ 

बहुत कोशिश की मैंने

उसको समझाने की,

फिर एक रोज़ मैंने खुद

को ही समझा लिया…!

☆☆

I tried desperately to

make him understand,

Then one fine day I

simply convinced myself…!

☆☆☆☆☆

☆ Optimism… ☆ 

यूं ही नहीं रहते हैं,

अंधेरे साथ-साथ मेरे,

जानते हैं, इक रोज़ करुंगा

सारा जहाँ रौशन मैं …!

☆☆

Darknesses don’t stay with

me  for  no  reasons,

They  know,  one  day I will

illumine the entire world..!

☆☆☆☆☆

☆ Revengeful Change… ☆ 

ये   तुमने  ख़ुद 

को  जो  बदला  है…

वो  एक  बदलाव  है

या फिर एक “बदला”..?

☆☆

The change that  

you’ve undergone…

Is  it  a  change

or  the  revenge …?

☆☆☆☆☆

☆ Breezy Invite…

हवा को दावतनामा भेज पाएं

ये तो हरगिज़ मुमकिन नहीं

पर खिड़कियों को खुला रखना

तो हमारे अख्तियार में है..!

☆☆

Sending invitation to the wind

may  not  be  possible, but…

Keeping the windows open is

certainly within our purview..!

☆☆☆☆☆

© Captain Pravin Raghuvanshi, NM

Pune

≈ Editor – Shri Hemant Bawankar/Editor (English) – Captain Pravin Raghuvanshi, NM ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 168 ☆ मुक्तिका – रूप की धूप ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है – मुक्तिका – रूप की धूप )

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 168 ☆

☆ मुक्तिका – रूप की धूप  ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

रूप की धूप बिखर जाए तो अच्छा होगा

रूप का रूप निखर आए तो अच्छा होगा

*

दिल में छाया है अँधेरा सा सिमट जाएगा

धूप का भूप प्रखर आए तो अच्छा होगा

*

मन हिरनिया की तरह खूब कुलाचें भरना

पीर की पीर निथर आए तो अच्छा होगा

*

आँख में झाँक मिले नैन से नैना जबसे

झुक उठे लड़ के मिले नैन तो अच्छा होगा

*

भरो अँजुरी में ‘सलिल’ रूप जो उसका देखो

बिको बिन मोल हो अनमोल तो अच्छा होगा

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

२८.११.२०१५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #218 – 105 – “वो नज़र दोनों चुराते ही रहे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “वो  नज़र  दोनों  चुराते  ही  रहे…” ।)

? ग़ज़ल # 105 – “वो  नज़र  दोनों  चुराते  ही  रहे…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

ज़िंदगी में अक्सर एक भरम रहा,

आदमी  ताज़िंदगी  बरहम  रहा।

हाथ पर  हाथ धरे  वो बैठी रही,

यार मेरा  खून  थोड़ा गरम रहा।

वो  नज़र  दोनों  चुराते  ही  रहे,

मुहब्बत का मगर बीच भरम रहा।

आँख रोती रात दिन फुरकत ए ग़म,

दिल मगर दोनों ही तरफ़ नरम रहा।

सूरत  वस्ल की  नज़र में  है नहीं,

आतिश उसे मिले बिना दरहम रहा।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 95 ☆ मुक्तक ☆ ॥ बस तारीख महीना साल नहीं, हाल बदलना है ॥ ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 95 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।बस तारीख महीना साल नहीं, हाल बदलना है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

बस कैलेंडर ही  नहीं   साल बदलना है।

जीने का कुछअंदाज ख्याल बदलना है।।

नई पीढ़ी सौंपकर जानी विरासत अच्छी।

दुनिया का यह बदहाल हाल बदलना है।।

[2]

हर समस्या का   कुछ   निदान  पाना है।

जन जन जीवन को   आसान बनाना है।।

बदलनी है समाज की सूरत और सीरत।

हर दिल से हर दिल का तार   जुड़ाना है।।

[3]

शत्रु के नापाक इरादों पर   भी काबू पाना है।

उन्हें ध्वस्त करना खुद को मजबूत बनाना है।।

दुनिया को देना है विश्व गुरु भारत का पैगाम।

शांति का संदेश सम्पूर्ण  संसार में फैलाना है।।

[4]

वसुधैव कुटुंबकम् सा यह   संसार बनाना है।

मानवता का सबको     ही प्रण दिलाना है।।

नर नारायण सेवा का भाव जगाना मानव में।

इस धरा को ही स्वर्ग से भी सुंदर बनाना है।।

[5]

जीवन शैली खान पान का   रखना है ध्यान।

आचरण वाणी को भी करना है मधु समान।।

प्रगतिऔर प्रकृति मध्य रखनाअपनत्व भाव।

विविधता में एकता को  बनना है अभियान।।

[6]

माला में हर गिर गया मोती  अब पिरोना है।

अब हर टूटा छूटा   रिश्ता   पाना खोना है।।

आंख मेंआंसू नहींआए किसीका दर्दों गम में।

हर कंटीली राह पर फूलों को   बिछोना है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 158 ☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – गजल – “नाम रिश्तों के जो देते थे खुशी हर एक को…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “नाम रिश्तों के जो देते थे खुशी हर एक को…। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘चारुचन्द्रिका’ से – गजल – “नाम रिश्तों के जो देते थे खुशी हर एक को…” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

 

मन के हर सुख चैन का अब खो गया आधार है

दुख का कारण बन गया खुद अपना ही परिवार है।

धुल गया है जहर कुछ वातावरण में इस तरह

जो जहाँ है अजाने ही हो चला बीमार है।

पहले घर-घर में जो दिखता प्रेम का व्यवहार था

आज दिखता झुलसा-झुलसा हर जगह वह प्यार है।

नाम रिश्तों के जो देते थे खुशी हर एक को

अब नहीं आता नजर वह स्नेह का संसार है।

बिखरती मुस्कान थी चेहरे पै जिनके नाम सुन

अब वो सुख सपना गया हो उजड़ा-सा घरबार है।

उनको जिनको कहते थे सब अपने घर की आबरू

वृद्धों को अब घर में रहने का मिटा अधिकार है?

बढ़ गई है धन की हर मन में अनौखी लालसा जिससे

धन केन्द्रित ही सारा हो रहा व्यवहार है।

जमाने की नकल करना आदमी यदि छोड़कर

समझदारी से चले तो ‘विदग्ध’ वह होशियार है।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #212 ☆ सुविधा-प्राप्त सम्मान…कितने सार्थक… ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सुविधा-प्राप्त सम्मान…कितने सार्थक…। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 212 ☆

☆ सुविधा-प्राप्त सम्मान…कितने सार्थक

‘भीख में प्राप्त मान-सम्मान प्रगति के पथ में अवरोधक होते हैं, जो आपकी प्रतिभा को कुंद कर देते हैं’ यह कथन कोटिशः सत्य है। सन् 2011-12 में डॉ• नांदल द्वारा रचित एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी… ‘अभिनन्दन करवा लो’ बहुत सुंदर व्यंग्य-रचना थी, जिसमें आधुनिक साहित्यकारों की मनोवृत्ति व सोच का लेखा-जोखा बड़े सुंदर ढंग से रेखांकित किया गया था। आदिकाल व रीतिकाल … आश्रयदाताओं का गुणगान…एक पुरातन परंपरा, जिसका भरपूर प्रचलन आज तक हो रहा है; जिसे देख कर हृदय ठगा-सा रह गया, परंतु वह आज भी समसामयिक है। साहित्य जगत् में अक्सर लोग इस दौड़ अथवा प्रतिस्पर्द्धा में बढ़-चढ़कर भाग ही नहीं लेते; सर्वश्रेष्ठ स्थान पाने को भी आतुर रहते हैं। चंद कविता या कहानियाँ लिखीं या उनमें थोड़ा हेर-फेर कर अपने नाम से प्रकाशित करवा लीं…बस हो गए मूर्धन्य कवि व साहित्यकार…साहित्य जगत् के देदीप्यमान नक्षत्र, जिसकी रश्मियों का प्रकाश सीमित समय के लिए चहुंओर भासता है। अमावस के घने अंधकार में तो जुगनू भी राहत दिलाने में अहम् भूमिका निभाते हैं, भले ही वे पलभर में अस्त हो जाते हैं, परंतु उनका महत्व समय व स्थान के अनुकूल अत्यंत सार्थक होता है। उनका जीवन तो क्षणिक होता है और वे पानी के बुलबुले की मानिंद उसी जल में विलीन हो जाते हैं, क्योंकि यदि कुंभ के बाहर व भीतर जल होता है…कुंभ के टूटने के पश्चात् वह उसी में समा जाता है, एकाकार हो जाता है। परंतु वे साहित्यकार, जिन पर साहित्य के आक़ाओं का वरद्-हस्त होता है, अक्सर मंचों पर छाए रहते हैं। उनका महिमाण्डन बड़े-बड़े साहित्यकारों द्वारा ही नहीं किया जाता, मीडिया वाले भी उनके साक्षात्कार को अपनी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित कर स्वयं को धन्य समझते हैं और उन्हें साक्षात् दर्शकों से रू-ब-रू करवा कर अपने भाग्य को सराहते व फूले नहीं समाते हैं और यह सिलसिला अनवरत चल निकलता है… भले ही उनकी लड़खड़ाती सांसें लंबे समय तक इनका साथ नहीं देतीं।

आप एक पुस्तक का संपादन कर भी अमर हो सकते हैं, भले वह आपके पूर्वजों द्वारा रचित हो या आप द्वारा संपादित… कृति आपके नाम से शाश्वत् हो जाती है और आप निरंतर सुर्खियों में बने रहते हैं। इतना ही नहीं, आजकल तो समाज के हर वर्ग का लेखक इस संक्रमण-रोग से पीड़ित है; जो बहुत शीघ्रता से फैलता ही नहीं; अपनी जड़ें भी गहराई तक स्थापित कर लेता है और उससे निज़ात पाने के निमित्त इंसान को लम्बे समय तक संघर्ष करना पड़ता है। इस प्रकार तथाकथित संस्थाओं में नाम व पद पाने के लिए, धन-संपदा लुटाने व पैसा बहाने में किसी को संकोच नहीं होता, क्योंकि ऐसे पदासीन लोगों व संस्थापकों के पीछे तो लोग मधुमक्खियों की भांति दौड़ते नज़र आते हैं तथा इसके उपरांत वे विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मानित भी किए जाते हैं।

‘आदान-प्रदान अर्थात् एक हाथ से दो और बदले में दूसरे हाथ से लो’ की प्रणाली निरंतर चली आ रही है। हम अपनी संस्कृति के उपासक हैं। पहले यह प्रथा हमारी विवशता थी; मजबूरी थी, क्योंकि इंसान को अपनी मूलभूत

आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए लेन-देन प्रणाली को अपनाना पड़ता था। इंसान रोटी, कपड़ा व मकान जुटाने का उपक्रम, लाख कोशिश करने के पश्चात् भी अकेला नहीं कर सकता था, जो आज भी संभव नहीं है। परंतु आधुनिक युग में संचार-व्यवस्था तो बहुत कारग़र है और पूरा विश्व ग्लोबल विश्व बन कर रह गया है। भौगोलिक दूरियां कम होने के कारण दिनों का सफ़र चंद घंटों में पूरा हो जाता है। सब वस्तुएं हर मौसम में हर स्थान पर उपलब्ध हो जाती हैं। परंतु हमने तो उस व्यवस्था को धरोहर सम संजोकर रखा है, जिसका उपयोग-उपभोग हम बड़ी शानोशौक़त व धड़ल्ले से आज तक कर रहे हैं।

परंतु इक्कीसवीं सदी में आत्मकेंद्रितता का भाव एकाकीपन व अजनबीपन के रूप में चहुंओर तेज़ी से पांव पसार रहा है, जो संवादहीनता के रूप में परिलक्षित है…जिसके परिणाम- स्वरूप हम अहंवादी होते जा रहे हैं। हमें अपने व अपने परिजनों के सिवाय कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता, ठीक उसी प्रकार जैसे सावन के अंधे को केवल हरा ही हरा दिखाई पड़ता है। वह केवल अपनों में ही रेवड़ियां बांटता है,क्योंकि वह केवल उनसे ही परिचित होता है। उसकी सोच का दायरा बहुत सीमित होता है तथा उसकी दुनिया केवल तथाकथित अपनों तक ही सीमित होती है। इसका प्रचलन हमारे साहित्य व विद्वत-समाज में बखूबी हो रहा है; जिसे देखकर मानव सोचने पर विवश हो जाता है कि साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर व धन-सम्पदा लुटाकर उपाधियां व प्रशस्ति-पत्र प्राप्त करने वाले कृपा-पात्र, केवल बड़े-बड़े मंचों पर आसीन ही नहीं होते; उनकी प्रशंसा व सम्मान में कसीदे भी गढ़े जाते हैं; जिसे सुनकर वे सीधे सातवें आसमान पर पहुंच जाते हैं और इस जहान के बाशिंदों से उनका संबंध- सरोकार शेष नहीं रह जाता।

इन्हीं दिनों कन्हैया लाल भट्ट जी का ‘राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार और सम्मान—एक व्यवसाय’ और मनीष तिवारी जी की उक्त भाव व कटु सत्य को उजागर करती सार्थक कविता ‘ओ सम्मान वालो’ पढ़ने को मिलीं। दोनों रचनाओं में पुरस्कारों-सम्मानों की लालसा व दौड़ में अक्सर ऐसा ही देखने को मिल रहा है। वास्तव में जो सम्मान के हक़दार हैं, वे उन सम्मानों से वंचित रह जाते हैं। परंतु फिर भी वे शांत व निष्काम भाव से साहित्य-सृजनरत रहते हैं और आजीवन सम्मान के पात्र नहीं बन पाते।

आश्चर्य होता है, यह देखकर कि राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार नवाज़ने वाली संस्थाएं शॉल, श्रीफल व सम्मान-पत्र जुटाए विज्ञापन देती हैं तथा ऐसे लोगों की तलाश में रहती हैं…’पैसा दो; कार्यक्रम की व्यवस्था में सहयोग करो और राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर के सम्मान प्राप्त करो।’ इतना ही नहीं, उनके यहां मानद उपाधियों का भी अंबार लगा रहता है। ‘पैसा फेंको…और बदले में मनचाही उपाधि प्राप्त करो।’ पीएच• व डी•लिट्• की मानद उपाधियों से नवाज़े गये लोग यू•जी•सी• द्वारा प्रदत डिग्री के समकक्ष लिखने अर्थात् नाम से पहले ‘डॉक्टर’ लिखने से तनिक भी गुरेज़ नहीं करते, जबकि यह कानूनी अपराध है… बल्कि वे तो फख़्र महसूस करते हैं, क्योंकि वे तो बिना परिश्रम के, थोड़ी-सी धन-राशि जुटाकर वह सब पा लेते हैं; जिसे प्राप्त करने के लिए लोग वर्षों तक साधना करते हैं। उन दिनों उन्हें दिन-रात समान भासते हैं। परंतु आजकल तो कानून का भय, डर व ख़ौफ़ है ही कहां? यह आमजन के जीवन की त्रासदी है, जिसे आप हर मोड़ पर अनुभव कर सकते हैं।

वास्तव में उन साहित्यकारों की नियति देखकर असीम दु:ख होता है, जो एक तपस्वी की भांति शांत भाव से निरंतर चिंतन-मनन व लेखन करते रहते हैं और तिलस्मी दुनिया के कर्णाधारों को उन कर्मयोगियों की साधना की खबर तक भी नहीं होती। इस दुनिया में सबका अपना-अपना नसीब है, अपना-अपना भाग्य है, अपनी-अपनी तक़दीर है। परंतु यह तो पूर्वजन्म के कर्मों का लेखा-जोखा है…जिसे जितनी साँठगाँठ करने का सलीका व अनुभव होगा, वह उतने अधिक सम्मान पाने में समर्थ होगा। ‘शक्तिशाली विजयी भव’ अर्थात् जो जितना अधिक जोखिम उठाने का साहस जुटा पाएगा; उतना ही ख्याति-प्राप्त साहित्यकार बन जाएगा। तो आइए! अवसर का लाभ उठाने की प्रतियोगिता में प्रतिभागी बन जाइए और शामिल हो जाइए इस दौड़ में…जहां अध्ययन, परिश्रम व साधना अस्तित्वहीन हैं, उनकी तनिक भी दरक़ार नहीं। हां! इस तथ्य से तो आप सब अवगत होंगे कि ‘जितना गुड़ डालोगे, उतना मीठा होगा’ अर्थात् जितना धन जुटाओगे; उतना बड़ा सम्मान पाकर नाम कमाओगे।

यह भी अकाट्य सत्य है कि ‘यह सुविधा-प्राप्त सम्मान व पुरस्कार आत्मोन्नति के पथ में बाधक होते हैं और आपकी सोचने-विचारने की शक्ति को कुंद कर देते हैं। जब इंसान बिना प्रयास के आकाश की ऊंचाइयों को छूने में समर्थ हो जाता है, तो वह अपनी जड़ों से कट जाता है।’ वह इस तथ्य से भी बेखबर हो जाता है कि उसे लौट कर इसी धरा पर आना है; समाज के लोगों के मध्य अर्थात् उनके साथ ही रहना हैं। अत्यधिक प्रशंसा सदैव पतन का कारण बनती है और अकारण प्रशंसा करने वाले लोगों से मानव को सदैव सावधान रहना चाहिए, क्योंकि वे मित्र नहीं, शत्रु होते हैं; जो आपके हितैषी कदापि नहीं हो सकते। जैसे नमक की अधिकता रक्तचाप को बढ़ा देती है और व्यर्थ की चिंता अनगिनत रोगों की जनक है; जिससे निज़ात पाना संभव नही। आप चाहकर भी इस दुष्चक्र अथवा मिथ्या अहं-रूपी व्यूह से बाहर निकल ही नहीं सकते, क्योंकि उस स्थिति में आप स्वयं को सर्वश्रेष्ठ अनुभव करने लगते हैं। यह एक ऐसा लाइलाज रोग है;  जिससे मुक्ति पाना, नशे की गिरफ़्त से स्वतंत्र होने के समान कठिन ही नहीं; ना-मुमक़िन है, क्योंकि जितना व्यक्ति इसके चंगुल से बाहर आने का प्रयास करता है, उतना अधिक उस दलदल में धंसता चला जाता है। ‘यह मथुरा काजर की कोठरि,जे आवहिं ते कारे’ अर्थात् वहाँ से आने वाले सब, उसे काले ही नज़र आते हैं…पांचों इंद्रियों के दास, इच्छाओं के ग़ुलाम, अहंनिष्ठ, निपट स्वार्थी… सो! ऐसे माहौल में वह अपने सोचने-समझने की शक्ति खो बैठता है।

आइए! आत्मावलोकन करें; परिश्रम व साहस को जीवन में धारण कर निरंतर अध्ययन व गंभीर चिंतन की प्रवृत्ति में लीन रहें; अपने अहं को विगलित कर साहित्य-सृजन करना प्रारंभ करें। मुझे स्मरण हो रहा है वह प्रसंग–जब रवीद्रनाथ ठाकुर से अंतिम दिनों में किसी ने उन से यह प्रश्न किया कि 2000 गीतों की रचना करने के पश्चात् वे कैसा अनुभव करते हैं? टैगोर जी सोच में पड़ गये… ‘जो गीत वे लिखना चाहते थे, अब तक नहीं लिख पाए हैं।’ नोबल पुरस्कार विजेता के मुख से ऐसा अप्रत्याशित उत्तर सुन वह दंग रह गया।

रहीम जी ने ‘जे आवहिं संतोष धन, सब धन धूरि समान’ संतोष को सबसे बड़ा धन स्वीकारा है, परंतु साहित्य-सृजन के संदर्भ में संभावनाओं को ज़हन में रखना आवश्यक है…यही सफलता का सोपान है। ज्ञान असीम है, अनंत है, सागर की भांति अथाह है। जितना आप गहरे जल में गोता लगाएंगे; उतने अनमोल मोती व सीपियां आपके हाथ लगेंगी। सो! बड़े सपने देखिए, परंतु खुली आंखों से देखिए और तब तक आराम से मत बैठिए… जब तक आप मंज़िल पर नहीं पहुंच जाते। जीवन की अंतिम सांस तक निष्काम भाव से साहित्य सृजनरत रहिए; सुविधा-प्राप्त पुरस्कारों की प्रतियोगिता में प्रतिभागी मत बनिए…पीछे मुड़कर मत देखिए… बीच राह से लौटने के भाव को भी मन से निकाल दूर फेंकिए; रास्ते व गुणों के पारखी आपको स्वयं ही ढूंढ निकालेंगे। यही ज़िंदगी का मूलमंत्र है… सार है… मक़सद है।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #212 ☆ भावना के दोहे … ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 212 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे …  डॉ भावना शुक्ल ☆

हवाएं धीमी बह रही, बजे मधुर संगीत।

नई कहानी वो कहे, है जीवन की रीत।।

कलियां कैसे मिल रही, जैसे मिलती बाह।

 कली खिली है ह्रदय में, है आपस में चाह।।

पत्ते – पत्ते झर रहे, झरता है संगीत।

सुख -दुख के वो गा रहे, गाए प्यार का गीत।।

हौले- हौले चल रही, पकड़े ठंडक हाथ।

मौसम करवट बदलता, ठंडी हवा के साथ।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #194 ☆ संतोष के दोहे – शीत ऋतु ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे  – शीत ऋतुआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 194 ☆

☆ संतोष के दोहे  – शीत ऋतु ☆ श्री संतोष नेमा ☆

सर्द हवाएं कह रहीं, बच कर रहिये आप

उचित समय जब भी मिले, धूप लीजिये ताप

वृद्ध सदा बच कर रहें, खून जमे तत्काल

बी पी, हृदयाघात में, करे ठंड बेहाल

काँटों सी चुभने लगी, खूब कपाती ठंड

लगती है जैसे नियति, बाँट रही हो दंड

दांतों का चुम्बन बढ़ा, लाली लिए कपोल

आँखों में है धुंध सी, वदन रहा अब डोल

पिय से कहती रात जब, सदा रहो तुम पास

तड़का लगता देह का, तब बुझती है प्यास

ठंडी से ठंडक मिले, बढ़े मिलन की आस

ज्ञानी कहते ठंड में, रहो पिया के पास

जिनको गर्मी में रहा, रवि से बहुत मलाल

वही ठंड में कर रहे, उसका बहुत खयाल

उठकर देखो सुबह से, लेते सूरज- ताप

लेकर प्याली चाय की, पेपर बांचें आप

श्रमिक कभी ना सोचता, क्या गर्मी क्या ठंड

रोजी-रोटी के लिए, सहे नियति के दंड

पूस माह की ठंड में, रहें न पिय से दूर

प्रेम बरसता उस घड़ी, खुशी मिले भरपूर

कहता है संतोष अब, तापो खूब अलाव

पर रक्खो सबके लिए, दिल में सदा लगाव

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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