हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 166 ☆ सॉनेट – शरतचंद्र ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत है – सॉनेट – शरतचंद्र)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 166 ☆

☆ सॉनेट – शरतचंद्र ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

शरतचंद्रकी शुक्ल स्मृति से

मन नीलाभ गगन हो हँसता

रश्मिरथी दे अमृत, झट से

कंकर हो शंकर भुज कसता

*

सलज उमा, गणपति आहट पा

मग्न साधना में हो जाती

ऋद्धि-सिद्धि माँ की चौखट आ

शीश नवा, माँ के जस गाती

*

हो संजीव सलिल लहरें उठ

गौरी पग छू सकुँच ठिठकती

अंजुरी भर कर पान उमा झुक

शिव को भिगा रिझाकर हँसती

*

शुक्ल स्मृति पायस सब जग को

दे अमृत कण शरतचंद्र का

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

९-१०-२०२२, १५-४३

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #216 – 103 – “फ़िज़ा में लहराईं स्याह ज़ुल्फ़ें…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल फ़िज़ा में लहराईं स्याह ज़ुल्फ़ें…” ।)

? ग़ज़ल # 103 – “फ़िज़ा में लहराईं स्याह ज़ुल्फ़ें…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

हेमंत संग गुलाबी आया मौसम,

शिशिर संग सर्दी लाया मौसम।

दिन सिकुड़े और लम्बी हुई रातें,

सुबह रज़ाई में अलसाया मौसम।

स्वेटर जैकेट दस्ताने और मफ़लर,

मोटी रज़ाई देख रिसयाया मौसम।

सुलगे मुफ़लिस अलाव चौराहों पर,

बैठकों में हीटर ने गर्माया मौसम।

साजन भर रहे अब ठंडी आहें,

व्हाट्सएप से दुलराया मौसम।

सजनी पर चढ़ा आशिक़ी बुख़ार,

एन्फ़ील्ड पर चढ़ आया मौसम।

फ़िज़ा में लहराईं स्याह ज़ुल्फ़ें,

टैंक फ़ुल कर दक दकाया मौसम।

पेड़-पौधों पर छाई शबनमी धुँध,

देख विहंगम लहराया मौसम।

सरे शाम लगा अम्बार ठेकों पर,

स्कॉच व्हिस्की बहकाया मौसम।

सुख दुःख का है गरम ठंडा जोड़ा,

जगत का अज़ब सरमाया मौसम।

आना-जाना दस्तूर कायनात का,

‘आतिश’ को देख गुर्राया मौसम।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – अब वक़्त को बदलना होगा – भाग -9 ☆ सुश्री दीपा लाभ ☆

सुश्री दीपा लाभ 

(सुश्री दीपा लाभ जी, बर्लिन (जर्मनी) में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। हिंदी से खास लगाव है और भारतीय संस्कृति की अध्येता हैं। वे पिछले 14 वर्षों से शैक्षणिक कार्यों से जुड़ी हैं और लेखन में सक्रिय हैं।  आपकी कविताओं की एक श्रृंखला “अब वक़्त  को बदलना होगा” को हम श्रृंखलाबद्ध प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की अगली कड़ी।) 

☆ कविता ☆ अब वक़्त  को बदलना होगा – भाग – 9 सुश्री दीपा लाभ  ☆ 

[9]

अब वक़्त आ गया है बन्धु

आचरण से क्रान्ति लाने का

अब वक़्त आ गया है बन्धु

मन से हर क्लेश हटाने का

सम्बन्ध प्रगाढ़ बनाने का

मानव का मान बढ़ाने का

अब वक़्त आ गया है बन्धु

सीता का हरण बचाने का

रावण को आग लगाने का

हर मन में राम बसाने का

अब वक़्त आ गया है बन्धु

सोते भाग्य जगाने का

विकास का परचम लहराने का

चाणक्य नीति अपनाने का

आओ प्रण लें आज अभी

भारत हम नया बनाएँगे

नसीहतें देना आसान है, पर

हम अपना फ़र्ज़ निभाएँगे

भोली जनता के मन में अब

कर्तव्य का दीप जलाएँगे

प्रगति पथ पर चलने हेतु

अब पीढ़ी नई गढ़ना होगा

अब वक़्त को बदलना होगा

© सुश्री दीपा लाभ 

बर्लिन, जर्मनी 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 93 ☆ मुक्तक ☆ ।।थोड़ा थोड़ा बदलो एक दिन रोशन नाम हो जायेगा।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 93 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।थोड़ा थोड़ा बदलो एक दिन रोशन नाम हो जायेगा।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

थोड़ा थोड़ा रोज बदलो  काम हो जायेगा।

देखना एक  दिन रोशन नाम हो जायेगा।।

कर्म से गुजर कर लिखो दिलकी कलम से।

एक दिन देखते देखते वो पैगाम हो जायेगा।।

[2]

जो दोगे सम्मान तो अधिक  होकर  आएगा।

सबको साथ ले चलो इंतजाम हो जायेगा।।

सहयोग सद्भावना होते हैं मूलमंत्र जीवन के।

साथ करो काम अभियान सफल हो पायेगा।।

[3]

अनुभव से सीखो   आगे आराम हो जायेगा।

मांगों सबकी दुआ     नेक नाम तू पायेगा।।

हटा   कर घृणा भरो   भाव  प्रेम का केवल।

नफरत डोर कटते ही प्यार  ईनाम लायेगा।।

[4]

पहले दूसरे को नहीं खुद को बदलना जरूरी है।

जब सब मिलके बदलेंगे तब बात होगी पूरी है।।

एक दस सौ बदलें तो राष्ट्र भी    बदल जायेगा।

प्रेम निर्मलधारा में बह जायेगी सब मगरूरी है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेलीईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com, मोब  – 9897071046, 8218685464

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 156 ☆ “राम लला का मंदिर मन हो” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “राम लला का मंदिर मन हो। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ “राम लला का मंदिर मन हो” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

 

एक साथ मिलकर बोलो सब,  जय जय सियाराम

उद्घोष करो जयकारे का ,  जय जय सियाराम

 

अंतर्मन से , जिसने भी , जब जहाँ पुकारा

आजानुभुज ने दिया सहारा, जय जय सियाराम

 

खुद को धोखा देते नाहक, लाख जतन से पाप छिपाते

कमलनयन से छिपा न कुछ भी , जय जय सियाराम

 

केवट वाला भोलापन हो, सरयू के प्रवाह सा जीवन

कौशलेंद्र कृपालु हैं भगवन , जय जय सियाराम

 

काटें वे जीवन के बंधन , करें समर्पण राघव को मन

बस शबरी सा प्रेम करें हम , जय जय सियाराम

 

बने अयोध्या यह शरीर, राम लला का मंदिर मन हो

भक्ति करें किंचित हनुमत सी , तो ये मानव योनि सफल हो

जय राम जय राम , जय जय सियाराम

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 180 – विद्याधन ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 180 – विद्याधन ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

जगी तरण्या साधन

असे एक विद्याधन।

कण कण जमवू या

अहंकार विसरून ।

सारे सोडून विकार

करू गुरूचा आदर।

सान थोर चराचर।

रूपं गुरूचे हजार ।

चिकाटीने धावे गाडी

आळसाची फोडू कोंडी।

सादा जिभेवर गोडी।

बरी नसे मनी आडी।

घरू ज्ञानीयांचा संग

सारे होऊन निःसंग।

दंग चिंतन मननी

भरू जीवनात रंग ।

ग्रंथ भांडार आपार

लुटू ज्ञानाचे कोठार।

चर्चा संवाद घडता

येई विचारांना धार।

वृद्धी होईल वाटता

अशी ज्ञानाची शिदोरी।

नका लपवू हो विद्या

वृत्ती असे ही अघोरी।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #210 ☆ सार्थक चिंतन : सार्थक कार्य-व्यवहार ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख सार्थक चिंतन : सार्थक कार्य-व्यवहार। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 210 ☆

☆ सार्थक चिंतन : सार्थक कार्य-व्यवहार ☆

‘आपका हर विचार, हर कथन व हर कार्य आपके  हस्ताक्षर होते हैं और जब तक आप अपनी सोच नहीं बदलते, अपने अनुभवों की गिरफ़्त में रहते हैं।’ यह वाक्य कोटिश: सत्य है, जिसमें ज़िंदगी का सार निहित है। मानव अपनी सोच व विचारों के लिए स्वयं उत्तरदायी है, क्योंकि वे ही कार्यों के रूप में प्रतिफलित होते हैं और आपके हस्ताक्षर बनते हैं। हम ही उन परिणामों के लिए उत्तरदायी भी होते हैं। गीता के कर्मफल का सिद्धांत, इसका अकाट्य प्रमाण है… ‘जैसा कर्म करेगा, वैसा ही फल देगा भगवान…वैसा ही भोगेगा इंसान।’ सो! मानव को सदैव सत्कर्म करने चाहियें और वह शुभ कर्म तभी कर पाएगा, जब उसकी सोच सकारात्मक होगी… सोच तभी सकारात्मक होगी, जब वह नकारात्मकता के व्यूह से मुक्त होगा। ब्रह्मांड में दैवीय व राक्षसी शक्तियां अपने-अपने कार्य में लीन हैं अथवा संघर्षरत हैं… एक-दूसरे पर विजय प्राप्त कर लेना चाहती हैं। यह मानव की प्रकृति व सोच पर निर्भर करता है कि वह शुभ-अशुभ में से किस ओर प्रवृत्त होता है। हम आधे भरे हुए गिलास को देख कर, उसके खाली होने पर चिंतित व निराश हो सकते हैं और सकारात्मक सोच के लोग उसे आधा भरा जान कर संतोष प्राप्त कर सकते हैं; अपने भाग्य की सराहना कर सकते हैं और प्रभु के शुक्रगुज़ार हो सकते हैं। सुखी व दु:खी होना तो हमारे जीवन के प्रति दृष्टिकोण और नज़रिये पर निर्भर करता है।

प्रकृति बहुत विशाल है और पल-पल रंग बदलती है।  हम गुलाब के मनोहारी सौंदर्य व उसकी खुशबू का आनंद ले सकते हैं, परंतु उसे कांटो से घिरा हुआ देखकर, नियति पर कटाक्ष भी कर सकते हैं। ओस पर पड़ी जल की बूंदों को, मोतियों के रूप में निहार कर, हम उस नियंता की कारीगरी की सराहना कर सकते हैं, दूसरी ओर संसार को दु:खालय समझ, ओस की बूंदों को प्रकृति के अश्रु-प्रवाह के रूप में अंकित कर सकते हैं। यह जीवन है… जहां सुख व दु:ख दोनों मेहमान हैं, बारी-बारी आते हैं और लौट जाते हैं, क्योंकि लंबे समय तक यहां कोई नहीं ठहर पाया। सो! मानव को सुख-दु:ख के आने पर खुशी व जाने का शोक नहीं मनाना चाहिए। प्रकृति का नियम अटल है और उसकी व्यवस्था निरंतर चलती रहती है। दिन-रात, अमावस-पूनम, पतझड़-वसंत सबका समय निश्चित है, निर्धारित है…जो आया है,  अवश्य जाएगा। ‘जब सुख नहीं रहा, तो दु:ख की औक़ात क्या’ जो वह सदैव बना रहेगा। हमें यह सोचकर अपने मन में मलिनता नहीं आने देनी चाहिए, क्योंकि यही सोच हमारी ज़िंदगी का आईना होती है और आईना कभी झूठ नहीं बोलता। शायद! इसीलिये चेहरे को मन का दर्पण कहा गया है, जो मन के भावों को उजागर कर देता है, उसकी हक़ीक़त बयान कर देता है तथा उसके अंतर्मन में वे भाव उसी रूप में परिलक्षित होने लगते हैं। यदि आप लाख परदों के पीछे छिप कर कोई ग़ुनाह करते हैं, तो वह भी परमात्मा के संज्ञान में होता है अर्थात् वह  सब जानता है। यह कोटिश: सत्य है कि उससे कोई भी बात छुपी नहीं रह सकती।

शायद! इसीलिए मानव को भाग्य-निर्माता की संज्ञा दी गई है, क्योंकि वह अपनी तक़दीर को किसी भी दिशा की ओर अग्रसर कर सकता है और वह उसके अथक परिश्रम व दृढ़-संकल्प पर निर्भर करता है। अब्दुल कलाम जी के शब्द इस भाव को पुष्ट करते हैं कि ‘जो कठिन परिश्रम करते हैं, उन्हें मनचाहा फल शीघ्रता से प्राप्त हो जाता है और जो भाग्य के सहारे, हाथ पर हाथ धर कर बैठे रहते हैं, उन्हें तो जो भाग्य में लिखा हुआ है अर्थात् शेष बचा हुआ ही प्राप्त होता है।’ सो! मानव को उस समय तक निरंतर कर्म-रत  रहना चाहिए, जब तक उसे इच्छित लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता। इसके साथ ही मानव को खुली आंख से सपने देखने चाहियें और जब तक आप उन्हें साकार करने में सफल नहीं हो जाते, पीछे मुड़कर नहीं देखना चाहिए। सो! वे सपने एक दिन अवश्य फलित होंगे, क्योंकि साहसी लोगों की ज़िंदगी में कभी हार नहीं होती, वे सदैव विजयी होते हैं।

‘कौन कहता है, आकाश में छेद हो नहीं सकता/ एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो।’ इस संसार में असंभव कुछ है ही नहीं, क्योंकि असंभव शब्द मूर्खों के शब्दकोश में होता है। परंतु अपनी मंज़िल को प्राप्त करने हेतु मानव की दृष्टि सदा आकाश की ओर तथा कदम धरती पर टिके रहने चाहिएं, क्योंकि जब तक हमारी जड़ें ज़मीन से जुड़ी रहेंगी, मन में दैवीय गुण स्नेह, सौहार्द, करुणा, त्याग, सहानुभूति, सहनशीलता आदि विद्यमान रहेंगे और हम मर्यादा का उल्लंघन नहीं करेंगे…मानव-मूल्यों के प्रति सदैव समर्पित रहेंगे। सो! समाज में आपका मान-सम्मान बना रहेगा। इस स्थिति में सब आपको नमन करेंगे और आपका अनुसरण करेंगे। मानव के आचार- विचार, उसकी शौहरत, कार्य-व्यवहार व व्यक्तित्व के गुण… व्यक्ति के पहुंचने से पहले उस स्थान पर पहुंच जाते हैं…यह शाश्वत सत्य है।

आइए! इस विषय पर चिंतन-मनन करें कि ‘जब तक आप अपनी सोच नहीं बदलते, अनुभवों की गिरफ़्त में रहते हैं।’ वास्तव में जब तक हमारे अंतर्मन में नकारात्मक भाव विद्यमान रहते हैं; हम उनके शिकंजे से मुक्ति नहीं प्राप्त कर सकते। सो! उस स्थिति में हमारी दशा जहाज़ के उस पक्षी की भांति होती है, जिसे दूर-दराज़ तक केवल जल ही जल दिखाई देता है और असहाय दशा में वह बार-बार उसी जहाज़ पर लौट आता है। इसी प्रकार नकारात्मक विचार हमारे मन के भीतर चक्कर लगाते रहते हैं और उससे अलग हम कुछ भी अनुभव नहीं कर पाते… अपनी संकीर्ण मनोवृत्ति व संकुचित दृष्टि से इतर कुछ भी देख नहीं पाते। मानव अपनी सोच के अनुसार स्वयं को, कोल्हू के बैल की भांति उसके आसपास चक्कर लगाता हुआ अर्थात् उस व्यूह के आसपास घूमता हुआ पाता है। हां! वह अनुभव तो करता है, परंतु उससे बाहर नहीं झांकता और वह स्थिति मानव की नियति बन जाती है। जब तक हम दूरदर्शिता नहीं रखेंगे, हमारा दृष्टिकोण विशाल नहीं हो पाएगा और हम उसी स्थिति में अर्थात् कूप-मंडूक बने रहेंगे। यदि हम जीवन में कुछ करना चाहते हैं, तो हमें अपना लक्ष्य निर्धारित करना होगा। उसके लिए हमें दूसरों से उम्मीद नहीं रखनी होगी, बल्कि स्वयं पर भरोसा कर, लक्ष्य-प्राप्ति का हर संभव प्रयास करना होगा।

यह है आत्मविश्वास का दूसरा रूप…यदि हमारा निश्चय दृढ़ है, इरादा अटल है और हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर विश्वास है, तो दुनिया की कोई ताकत हमारे पथ की बाधा नहीं बन सकती… अवरोध उत्पन्न नहीं कर सकती। सो! आत्मविश्वास के साथ आवश्यकता है…दृढ़ निश्चय व अथक परिश्रम की, क्योंकि किस्मत व हौसलों की जंग में, विजय सदैव हौसलों की होती है और उस स्थिति में भाग्य भी उनके सम्मुख घुटने टेक देता है। यदि आप में साहस है, तो आप यथाशक्ति निर्देश देकर स्वयं को भी नियंत्रित कर सकते हैं और अपने भाग्य को जैसा चाहें, निर्मित कर सकते हैं । व्यवहार हमारे मस्तिष्क का आईना होता है। आईना सत्य का प्रतीक है, जिसमें सत्य-असत्य, शुभ-अशुभ, अच्छा-बुरा, सब उसके यथार्थ  रूप में झलकता है तथा वह स्वयं से मुलाक़ात अथवा साक्षात्कार कराता है।

अंत में मैं यह कहना चाहूंगी कि ‘मानव को अपनी तुलना कभी भी दूसरों से नहीं करनी चाहिए, क्योंकि परमात्मा ने पृथ्वी पर आप जैसा दूसरा इंसान बनाया ही नहीं।’ इसलिए खुद पर विश्वास कर, दूसरों से उम्मीद मत रखिए, क्योंकि आप स्वयं ही अपने भाग्य-विधाता हैं, भाग्य-निर्माता हैं। आपकी सोच आपके मस्तिष्क की उपज होती है, जो आपके कार्य -व्यवहार में झलकती है और आपके विचार, कथन व कार्य आपके हस्ताक्षर होते हैं, जिसके उत्तरदायी आप स्वयं होते हैं। इसलिए सदैव सकारात्मक सोच को जीवन में धारण कर, अपने जीवन को श्रेष्ठ व अनुकरणीय बनाइए, क्योंकि मानव जीवन के समान समय भी अत्यंत अनमोल व दुर्लभ है। आप सारे जहान की दौलत की एवज़ में, समय की एक घड़ी भी नहीं खरीद सकते। सो! हर पल का सदुपयोग कीजिए, अपने मालिक स्वयं बनिये, अपने निर्णय लेने का अधिकार, दूसरों को मत सौंपिये और स्वतंत्रता व आनंद से अपना जीवन बसर कीजिए।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #210 ☆ भावना के दोहे … ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 210 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे …  डॉ भावना शुक्ल ☆

नयन- नयन को ढूँढते, करें रतजगा आज।

आयेंगे प्रियतम मगर, बजेंगे मन में  साज।।

प्रियतम की आहट हुई, मन में उठी उमंग।

आ जाओ अब प्रिये तुम, साथ जिएंगे संग।।

 बनकर प्रहरी आज वो, खड़ा हुआ है द्वार।

प्रिय से कैसे हो मिलन, कैसे हो उद्धार।।

मन को निर्मल रखो तुम, करो नहीं मलीन।

अंतर्मन की प्रेरणा, नहीं बनो तुम दीन।।

परछाई आई अभी, मिलने को चुपचाप।

नहीं सुनाई दी हमें, उसकी तो पदचाप।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #193 ☆ संतोष के दोहे – श्रम वीर ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे  – श्रम वीरआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 193 ☆

☆ संतोष के दोहे  – श्रम वीर ☆ श्री संतोष नेमा ☆

साहस, जज्बा, होसला, जीत गये श्रम वीर

सरकारों की मदद से, सीना गिरि का चीर

देव भूमि के देव सब, मिल कर हुए सहाय

करके रक्षा सभी की, स्वयं गये हर्षाय

दुनिया भी अब चकित है, श्रम का देख बचाव

देख सभी की प्रार्थना, और देख सदभाव

मिल कर सब ने बचा ली, मजदूरों की जान

बचाव दल की भूमिका, अद्भुत बड़ी महान

संकट की हर घड़ी में, सब मिल  रहिये साथ

मिलता है “संतोष” तब, ऊँचा होता माथ

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 200 ☆ कैवल्याचे निजधाम ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 200 – विजय साहित्य ?

कैवल्याचे निजधाम ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

संजीवन समाधीचा

अनुपम्य हा‌ सोहळा

माउलींच्या भेटीसाठी

सजलासे भक्त मळा. १

 

बाबा हैबत पायरी

आद्य पूजनाचा‌ मान

महा नैवेद्य प्रसाद

पुण्य‌ संचिताची खाण. २

 

पंच उपचार पूजा

पुष्पवृष्टी रथोत्सव

चल पादुकांची पूजा

संजीवक महोत्सव. ३

 

पवमान अभिषेक

महापूजा दुधारती

दिंडी, काकडा भजन

घंटानाद धुपारती. ४

 

नित्य पालखी छबिना

होई माऊलींचा भास

प्रवचन कीर्तनाला

साथ भारुडाची खास. ५

 

विठू‌ येई भेटायला

भक्तराज ज्ञानियासी

गहिवरे इंद्रायणी

शब्द नाही वर्णायासी. ६

 

छाया अजान वृक्षाची

संजीवन‌ समाधीला

साक्ष सुवर्ण पिंपळ

बीज प्रसार घडीला. ७

 

ज्ञानवृक्ष देववृक्ष

येई भक्तांचिया काजा

करी सेवा संवर्धन

ज्ञानियांचा ज्ञानराजा .८

 

कार्तिकाची एकादशी 

होई आळंदीची वारी

संजीवन समाधीचा

महोत्सव मनोहारी.९

 

संजीवन सोहळ्यात

टाळ लागती टाळाला

संकीर्तंनी भजनात

नाद भिडे आभाळाला. १०

 

आळंदीत कार्तिकात

सप्त‌ शतकांची चाल

आला विठ्ठल भेटीला

त्रयोदशी पुण्यकाल. ११

 

माउलींचा साक्षात्कार

काया‌ वाचा जपनाम

माउलींचा जयघोष

कैवल्याचे निजधाम.१२

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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