हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 91 ☆ मुक्तक ☆ ।। हर पल मिलकर जीने का नाम ही जिंदगी है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 91 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।। हर पल मिलकर जीने का नाम ही जिंदगी है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

हर पल नया साज  नई   आवाज है जिंदगी।

कभी खुशी कभी  गम    बेहिसाब है जिंदगी।।

अपने हाथोंअपनी किस्मत का देती है मौका।

हर रंग समेटे कुछ करने का जवाब है जिंदगी।।

[2]

जीतने हारने की  यह हर   हिसाब रखती है।

यह जिंदगी हर अरमान हर ख्वाब रखती है।।

हार के बाजी पलटने की   ताकत जिंदगी में।

जिंदगी बड़ी अनमोल हर ढंग नायाब रखती है।।

[3]

समस्या गर जीवन में तो समाधान भी बना है।

हर कठनाई पार पाने का  निदान भी बना है।।

देकर संघर्ष भी हमें यह संवारती है निखारती।

जीतने को ऊपर ऊंचा  आसमान भी बना है।।

[4]

तेरे मीठे बोल जीत सकते हैं दुनिया जहान को।

अपने कर्म विचार से पहुंच सकते आसमान को।।

अपने स्वाभिमान की  सदा ही रक्षा तुम करना।

मत करो और  नहीं  गले लगायो अपमान को।।

[5]

युद्ध तो जीते जाते हैं ताकत  बम हथियारों से।

पर दिल नहीं जीते जाते कभी भी तलवारों से।।

उतरना पड़ता दिल के अंदर अहसास बन कर।

यही बात  बस समा जाए सबके ही किरदारों में।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 155 ☆ ‘स्वयं प्रभा’ से – “गाँव तरसते शहर को, शहर चाहते गाँव” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “गाँव तरसते शहर को, शहर चाहते गाँव। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘स्वयं प्रभा’ से – “गाँव तरसते शहर को, शहर चाहते गाँव” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

सादी संस्कृति गाँव की एक सरल संसार

बिना दिखावे के जहाँ दिखता हर परिवार ।

 

लोगों में सच्चाई है आपस में है प्यार

परम्पराओं से पगा संबंध हर व्यवहार।

 

छोटी अटपट बात में हो चाहे तकरार

पर घर का हर व्यक्ति हर घर का रिश्तेदार ।

 

सबको है सबकी फिकर सब हैं एक समान

परख-पूँछ है, नेह है, भले न हो पहचान।

 

बड़े सबेरे जागते, सोते होते रात

शाम समय चौपाल में मिलते करते बात ।

 

हर एक के है झोपड़ी, आँगन, बाड़ी, खेत

 जिनमें कटती जिंदगी, पशु-हल – फसल समेत ।

 

शहर गाँव से भिन्न हैं. रीति-नीति विपरीत

यहाँ कोई अपना नहीं, नहीं किसी से प्रीति ।

 

शहरों में फुरसत किसे ? हरेक हर समय व्यस्त

घर के द्वारे बन्द नित, सब अपने में मस्त ।

 

लोगों की आजीविका सर्विस या व्यापार

पड़ोसियों की खबर हित पढ़ते हैं अखबार ।

 

बिन आँगन के घर बने, चढ़े एक पै एक

मंजिल छूते गगन को पातें खड़ी अनेक ।

 

भीड़-भाड़ भारी सदा बड़े बड़े बाजार

आने जाने के लिये, हों गाड़ी या कार ।

 

औपचारिक व्यवहार सब शब्दों का संसार

मन में धन की चाह है केवल धन से प्यार ।

 

गाँव तरसते शहर को, शहर चाहते गाँव

चमक दमक तो बहुत है, शांति न सुख की छाँव ॥

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 178 – नको गर्व वेड्या ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 178 – नको गर्व वेड्या ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

नको गर्व वेड्या

वृथा या धनाचा।

असू देत ओला

 तो कोना मनाचा।

 

खुळी द्वैत बुद्धी

तुला साद घाली।

अथांग मनाला

कुठे जाग आली।

 

हा पैसा नि सत्ता

असे धूप छाया।

तू धुंदीत यांच्या

नको तोलू माया।

 

लाखो सिकंदर

इथे आले गेले।

सत्तेमुळे कोणा

अमरत्व आले।

 

नको देऊ थारा

मनाच्या तरंगा।

विवेकी मनाला

धरी अंतरंगा।

 

बोली मनाची ही

मनाला कळावी।

निस्वार्थ हळवी

सरम जुळावी।

 

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #208 ☆ स्वार्थ-नि:स्वार्थ ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख स्वार्थ-नि:स्वार्थ। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 208 ☆

☆ स्वार्थ-नि:स्वार्थ ☆

‘बिना स्वार्थ आप किसी का भला करके देखिए; आपकी तमाम उलझनें ऊपर वाला सुलझा देगा।’ इस संसार में जो भी आप करते हैं; लौटकर आपके पास आता है। इसलिए सदैव अच्छे कर्म करने की सलाह दी जाती है। परन्तु आजकल हर इंसान स्वार्थी हो गया है। वह अपने व अपने परिवार से इतर सोचता ही नहीं तथा परिवार पति-पत्नी व बच्चों तक ही सीमित नहीं रहे; पति-पत्नी तक सिमट कर रह गये हैं। उनके अहम् परस्पर टकराते हैं, जिसका परिणाम अलगाव व तलाक़ की बढ़ती संख्या को देखकर लगाया जा सकता है। वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने व प्रतिशोध लेने हेतु कटघरे में खड़ा करने का भरसक प्रयास करते हैं। विवाह नामक संस्था चरमरा रही है और युवा पीढ़ी ‘तू नहीं, और सही’ में विश्वास करने लगी हैं, जिसका मूल कारण है अत्यधिक व्यस्तता। वैसे तो लड़के आजकल विवाह के नाम से भी कतराने लगे हैं, क्योंकि लड़कियों की बढ़ती लालसा व आकांक्षाओं के कारण वे दहेज के घिनौने इल्ज़ाम लगा पूरे परिवार को जेल की सीखचों के पीछे पहुंचाने में तनिक भी संकोच नहीं करतीं। कई बार तो वे अपने माता-पिता की पैसे की बढ़ती हवस के कारण वह सब करने को विवश होती हैं।

स्वार्थ रक्तबीज की भांति समाज में सुरसा के मुख की भांति बढ़ता चला जा रहा है और समाज की जड़ों को खोखला कर रहा है। इसका मूल कारण है हमारी बढ़ती हुई आकांक्षाएं, जिन की पूर्ति हेतु मानव उचित-अनुचित के भेद को नकार देता है। सिसरो के मतानुसार ‘इच्छा की प्यास कभी नहीं बझती, ना पूर्ण रूप से संतुष्ट होती है और उसका पेट भी आज तक कोई नहीं भर पाया।’ हमारी इच्छाएं ही समस्याओं के रूप में मुंह बाये खड़ी रहती हैं। एक के पश्चात् दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है तथा समस्याओं का यह सिलसिला जीवन के समानांतर सतत् रूप से चलता रहता है और मानव आजीवन इनके अंत होने की प्रतीक्षा करता रहता है; उनसे लड़ता रहता है। परंतु जब वह समस्या का सामना करने पर स्वयं को पराजित व असमर्थ अनुभव करता है, तो नैराश्य भाव का जन्म होता है। ऐसी स्थिति में विवेक को जाग्रत करने की आवश्यकता होती है तथा समस्याओं को जीवन का अपरिहार्य अंग मानकर चलना ही वास्तव में जीवन है।

समस्याएं जीवन की दशा व दिशा को तय करती हैं और वे तो जीवन भर बनी रहती है। सो! उनके बावजूद जीवन का आनंद लेना सीखना कारग़र है। वास्तव में कुछ समस्याएं समय के अनुसार स्वयं समाप्त हो जाती हैं; कुछ को मानव अपने प्रयास से हल कर लेता है और कुछ समस्याएं कोशिश करने के बाद भी हल नहीं हो पातीं। ऐसी समस्याओं को समय पर छोड़ देना ही बेहतर है। उचित समय पर वे स्वत: समाप्त हो जाती हैं। इसलिए उनके बारे में सोचो मत और जीवन का आनंद लो। चैन की नींद सो जाओ; यथासमय उनका समाधान अवश्य निकल आएगा। इस संदर्भ में मैं आपका ध्यान इस ओर दिलाना चाहती हूं कि जब तक हृदय में स्वार्थ भाव विद्यमान रहेगा; आप निश्चिंत जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते और कामना रूपी भंवर से कभी बाहर नहीं आ सकते। स्वार्थ व आत्मकेंद्रिता दोनों पर्यायवाची हैं। जो व्यक्ति केवल अपने सुखों के बारे में सोचता है, कभी दूसरे का हित नहीं कर सकता और उस व्यूह से मुक्त नहीं हो पाता। परंतु जो सुख देने में है, वह पाने में नहीं। इसलिए कहा जाता है कि जब आपका एक हाथ दान देने को उठे, तो दूसरे हाथ को उसकी खबर नहीं होनी चाहिए। ‘नेकी कर और कुएं में डाल’ यह सार्थक संदेश है, जिसका अनुसरण प्रत्येक व्यक्ति को करना चाहिए। यह प्रकृति का नियम है कि आप जितने बीज धरती में रोपते हैं; वे कई गुना होकर फसल के रूप में आपके पास आते हैं। इस प्रकार नि:स्वार्थ भाव से किए गये कर्म असंख्य दुआओं के रूप में आपकी झोली में आ जाते हैं। सो! परमात्मा स्वयं सभी समस्याओं व उलझनों को सुलझा देता है। इसलिए हमें समीक्षा नहीं, प्रतीक्षा करनी चाहिए, क्योंकि वह हमारे हित के बारे में हम से बेहतर जानता है तथा वही करता है; जो हमारे लिए बेहतर होता है।

‘अच्छे विचारों को यदि आचरण में न लाया जाए, तो वे सपनों से अधिक कुछ नहीं हैं’ एमर्सन की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है। स्वीकारोक्ति अथवा प्रायश्चित सर्वोत्तम गुण है। हमें अपने दुष्कर्मों को  मात्र स्वीकारना ही नहीं चाहिए; प्रायश्चित करते हुए जीवन में दोबारा ना करने का मन बनाना चाहिए। वाल्मीकि जी के मतानुसार संत दूसरों को दु:ख से बचाने के लिए कष्ट सहते हैं और दुष्ट लोग दूसरों को दु:ख में डालने के लिए।’ सो! जिस व्यक्ति का आचरण अच्छा होता है, उसका तन व मन दोनों सुंदर होते हैं और वे संसार में अपने नाम की अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

दूसरी ओर दुष्ट लोग दूसरों को कष्ट में डालकर सुक़ून पाते हैं। परंतु हमें उनके सम्मुख झुकना अथवा पराजय स्वीकार नहीं करनी चाहिए, क्योंकि वीर पुरुष युद्ध के मैदान को पीठ दिखा कर नहीं भागते, बल्कि सीने पर गोली खाकर अपनी वीरता का प्रमाण देते हैं। सो! मानव को हर विषम परिस्थिति का सामना साहस-पूर्वक करना चाहिए। ‘चलना ही ज़िंदगी है और निष्काम कर्म का फल सदैव मीठा होता है। ‘सहज पके, सो मीठा होय’ और ‘ऋतु आय फल होय’ पंक्तियां उक्त भाव की पोषक हैं। वैसे ‘हमारी वर्तमान प्रवृत्तियां हमारे पिछले विचार- पूर्वक किए गए कर्मों का परिणाम होती हैं।’ स्वामी विवेकानंद जन्म-जन्मांतर के सिद्धांत में विश्वास रखते थे। सो! झूठ आत्मा के खेत में जंगली घास की तरह है। अगर उसे वक्त रहते उखाड़ न फेंका जाए, तो वह सारे खेत में फैल जाएगी और अच्छे बीज उगने की जगह भी ना रहेगी। इसलिए कहा जाता है कि बुराई को प्रारंभ में ही दबा दें। यदि आपने तनिक भी ढील छोड़ी, तो वह खरपतवार की भांति बढ़ती रहेगी और आपको उस मुक़ाम पर लाकर खड़ा कर देगी; जहां से लौटने का कोई मार्ग शेष नहीं दिखाई पड़ेगा।

प्यार व सम्मान दो ऐसे तोहफ़े हैं, अगर देने लग जाओ तो बेज़ुबान भी झुक जाते हैं। सो! लफ़्ज़ों को सदैव चख कर व शब्द संभाल कर बोलिए। ‘शब्द के हाथ ना पांव/ एक शब्द करे औषधि/  एक शब्द करे घाव।’ कबीर जी की यह उक्ति अत्यंत सार्थक है। शब्द यदि सार्थक हैं, तो प्राणवायु की तरह आपके हृदय को ऊर्जस्वित कर सकते हैं। यदि आप अपशब्दों का प्रयोग करते हैं, तो दूसरों के हृदय को आहत करते हैं। इसलिए सदैव मधुर वाणी बोलिए। यह आप्त मन में आशा का संचरण करती है। निगाहें भी व्यक्ति को घायल करने का सामर्थ्य रखती हैं। दूसरी ओर जब कोई अनदेखा कर देता है, तो बहुत चोट लगती है। अक्सर रिश्ते इसलिए नहीं सुलझ पाते, क्योंकि लोग ग़ैरों की बातों में आकर अपनों से उलझ जाते हैं और जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो बहुत तकलीफ़ होती है। परंतु जब कोई अपना पास रहकर भी दूरियां बना लेता है, तो उससे भी अधिक तकलीफ़ होती है। इसलिए जो जैसा है; उसी रूप में स्वीकारें; संबंध लंबे समय तक बने रहेंगे। अपने दिल में जो है; उसे कहने का साहस और दूसरे के दिल में जो है; उसे समझने की कला यदि आप में है, तो रिश्ते टूटेंगे नहीं। हां इसके लिए आवश्यकता है कि आप वॉकिंग डिस्टेंस भले रखें, टॉकिंग डिस्टेंस कभी मत रखें, क्योंकि ‘ज़िंदगी के सफ़र में गुज़र जाते हैं जो मुक़ाम/ वे फिर नहीं आते।’ इसलिए किसी से अपेक्षा मत करें, बल्कि यह भाव मन में रहे कि हमने किसी के लिए किया क्या है? ‘सो! जीवन में देना सीखें; केवल तेरा ही तेरा का जाप करें– जीवन में आपको कभी कोई अभाव नहीं खलेगा।’

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #208 ☆ भावना के दोहे … ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 208 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे …  डॉ भावना शुक्ल ☆

डोली को अगवा किया, गायब हुए कहार।

माली के षड़यंत्र से, बंदी हुई बहार ॥

चंदन करता चाकरी, दुर्गन्धी दरबार |

कुन्दन को अब मिल रही, गली-गली दुत्कार ॥

सागर से कब बुझ सकी, कभी किसी की प्यास

जीते हैं चातकव्रती, स्वाति बिन्दु की आस ।।

राजनीति का शोरगुल, छलछंदी व्यवहार।

श्वेत  कबूतर उड़ गये, अपने पंख पसार ॥

भीतर बाहर अँधेरा, घेरा काँटेदार।

आज़ादी अभिव्यक्ति की, सिर पर है तलवार ॥

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #191 ☆ एक पूर्णिका – याद ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है एक पूर्णिका – याद। आप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 191 ☆

☆ एक पूर्णिका – याद ☆ श्री संतोष नेमा ☆

याद आपकी आती रही रात भर

दिल मेरा गुदगुदाती रही रात भर

सपनों में  तेरे इस कदर खो  गए

चाँदनी  मुस्कराती  रही  रात भर

इश्क  में  तेरे बदनाम हम हो गए

दूरियां  हमें  डरातीं  रहीं  रात भर

यकीं वादों  पर हम खूब करने लगे

आँख मेरी डबडबाती रही रात भर

हवा भी अब  प्रेम  गीत  गाने लगी

छूकर  हमें  लुभाती  रही  रात भर

खुद की बेबसी पर चुप हम हो गये

दुनिया  हमें  हँसाती  रही  रात भर

उनके कदमों की आहट जब भी सुनी

नींद “संतोष” न आती रही रात भर

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ – हे ! कृष्ण-कन्हैया – ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे ☆

प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे

☆ – हे ! कृष्ण-कन्हैया  ☆ प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे 

द्वापर के है! कृष्ण-कन्हैया, कलियुग में आ जाओ।

पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।।

अर्जुन आज हुआ एकाकी, नहीं सखा है कोई।

राधा तो अब भटक रही है, प्रीति आज है खोई।।

गायों की रक्षा करने को, नेह- सुधा बरसाओ।

पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।।

इतराते अनगिन दुर्योधन, पांडव पीड़ाओं में।

आओ अब संतों की ख़ातिर, फिर से लीलाओं में।।

भटके मनुजों को अब तो तुम, गीतापाठ सुनाओ।

पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।।

माखन, दूध-दही का टोटा, कंसों की मस्ती है।

सच्चों को केवल दुख हासिल, झूठों की बस्ती है।।

गोवर्धन को आज उठाकर, वन-रक्षण कर जाओ।

पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।।

अभिमन्यु जाने कितने हैं, घिरे चक्रव्यूहों में।

भटक रहा है अब तो मानव, जीवन की राहों में।।

कपट मिटाने हे ! नटनागर, तुम पांचजन्य बजाओ।

पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।।

आशाएँ सब ध्वस्त हो रहीं, मातम के हैं मेले।

कहने को भीड़ हक़ीक़त में, सब आज अकेले।।

तन-मन दोनों लगें महकने, बंशी मधुर बजाओ।

पाप बढ़ रहा, धर्म मिट रहा, अपना चक्र चलाओ।।

© प्रो.(डॉ.)शरद नारायण खरे

प्राचार्य, शासकीय महिला स्नातक महाविद्यालय, मंडला, मप्र -481661

(मो.9425484382)

ईमेल – [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य #198 ☆ विचारढंग… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 198 – विजय साहित्य ?

☆ विचारढंग… ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

आपलं अनुभव विश्व संपन्न करणारा

आपल्या जीवनाचा कोरा कागद

चारही कोपऱ्यातून‌ अनुभव‌संपन्न होत जातो.

जन्मापासून या कागदांवर

अगदी..आपली पावलं उमटली

तेव्हा पासून हा कागद…

अंगवळणी पडलाय..

पहिली काहि वर्षे…

याने टिपकागदासारखं

टिपून घेतलं आपल्याला..;

आपलं उनाड बालपण…!

तरूणपणात मात्र ..

का कोण जाणे…?

गुलाबी होत गेला …

सुवासिक फुले जपत गेला

दोन शब्द प्रेमाचे खुलवत गेला

हा अबोल कागद…!

प्रौढपणी मात्र…

उन्हाळे पावसाळे झेलताना

गुलाबी, रूपेरी, सोनसळी

अनेक रंगात रंगत गेला…

आणि आज या कागदानं. ….

हट्टच धरलाय..म्हणतोय…

“अनुभवांची अक्षरे

चाळ जरा..

बघ मागे वळून..

आणि वाच मला…

तुझ्या कक्षा रुदावल्यात…

तू आता माणूस

वाचायला शिकलांस

माणूस जोडायला शिकलांस

लिहून जा असं काही

सुख दुःख काही‌बाही..

दोन शब्द अनुभवी

पुढच्या पिढीला द्यायला हवे

मनमोकळे करताना…

नव्या उमेदीने जगायला हवे

होय..कागदाचं म्हणणं

तंतोतंत पटलंय

जीवनाचं कोडं

नकळत उलगडलंय..

या जीवनप्रवासात

खूप काही‌ मिळवलंय

बरंच काही गमावलंय

आता जे आहे..

ते जपायला हवं..

पहायला हवं जग नवं

माणूस म्हणून जगताना…

करू जगाला आपलेसं

आपला जीवनरंग , शब्दसुता

आणि अंतरातूनआलेला

अनुभूतीचा ताजातवाना

आदर्शवत आणि अनुकरणीय चिरपरिचित विचारढंग…!”

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता – अध्याय दुसरा – (श्लोक ५१ ते ६०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय अध्याय दुसरा – (श्लोक ५१ ते ६०) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

कर्मजं बुद्धियुक्ता हि फलं त्यक्त्वा मनीषिणः । 

जन्मबन्धविनिर्मुक्ताः पदं गच्छन्त्यनामयम्‌ ॥ ५१ ॥ 

प्रज्ञावान करिती त्याग फल जे कर्मप्राप्त

जन्ममरण मुक्ती सहजी परमपद होते प्राप्त ॥५१॥

यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति । 

तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥ ५२ ॥ 

मोहपङ्का तरून जाता तव बुद्धी सुखरुप

इह-परलोकीच्या भोगप्रती वैराग्य तुला प्राप्त   ॥५२॥

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला । 

समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥ ५३ ॥ 

विचल तव बुद्धी अचल होता परमात्म्या ठायी

एकरूप तू शाश्वत होशिल परमात्म्या ठायी ॥५३॥

अर्जुन उवाच 

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव । 

स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम्‌ ॥ ५४॥

कथित अर्जुन 

परमात्मा प्राप्त स्थितप्रज्ञ केशवा कोणा म्हणावे

तो कसा बोलतो, बैसतो, चालतो हे मज सांगावे ॥५४॥

श्रीभगवानुवाच 

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌ । 

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥ ५५ ॥ 

कथित श्री भगवान

पूर्णत्याग करुनी मनीच्या सर्व कामनांचा

आत्म्यात रत राहणे भाव स्थितप्रज्ञाचा ॥५५॥

दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः । 

वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥ ५६ ॥ 

सुखातही निस्पृह दुःखात  ना उद्विग्न

असा स्थितप्रज्ञ जो वासनाभयक्रोधहीन   ॥५६॥

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभाम्‌ । 

नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५७ ॥ 

सोर्वदा स्नेहरहित शुभप्राप्ती नाही प्रसन्न 

अशुभाने ना दुःखी असे तो स्थितप्रज्ञ ॥५७॥

यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः । 

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ ५८ ॥ 

ज्ञानाने प्रज्ञेसी मोहहीन स्थिर करून 

कच्छावयवांसम घेई जो आकसून 

अपुल्या इंद्रियेच्छा सर्वस्वी आवरून

तयासी हे पार्था स्थितप्रज्ञ ऐसे जाण ॥५८॥

विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः । 

रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ ५९ ॥ 

दमन करिता गात्रांचे विषया ये निवृत्ती

आसक्तीस परि विषयांप्रत ना ये निवृत्ती

अनुभूतीने परमेशाच्या स्थितप्रज्ञा निवृत्ती 

भोगासह त्यांना रुचीतही प्राप्त हो निवृत्ती ॥५९॥

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः । 

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥ ६० ॥ 

शमन न होता आसक्तीचे त्रस्त गात्र स्वभावे

मना शांतता मुळी न लाभते कितीही यत्न करावे

बळे इंद्रिये भुलविती मानस बुद्धिमान मनुजाचे

कौंतेया जाणुनी घेई महत्व आसक्तीच्या दमनाचे ॥६०॥

– क्रमशः भाग दूसरा

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ कालचा पाऊस… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ कालचा पाऊस… ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

काल रात्री गाढ झोपेत असताना अचानक पाऊस बरसून गेला… कळलंच नाही मला… दारं खिडक्या घराची घट्ट बंद होती ना.. कुणास ठाऊक किती वेळ तरी कोसळून गेला असावा.. सकाळी जाग आली तेव्हा खिडकीची तावदाने न्हाऊन निघालेली दिसत होती… थंडीचेही दिवस असल्याने हवेतल्या गारठ्याने खिडक्यांच्या काचेवरील पावसाचे थेंब थेंब थरथर कापत  खाली ओघळून जात होते.. समोरचं आंब्याच्या झाडाने नुकतेच सचैल स्नान केल्यावर पानांपानांतुन  मंत्रोच्चाराची   सळसळ करताना प्रसन्न दिसला… मधुनच वाऱ्याची हलकी झुळूक त्याला लगटून गेलीं. जाता जाता होईल तेव्हढी पानं कोरडी करून गेली.. खिडकी उघाडण्याचं धैर्य मला होईना.. पाऊस पडून गेला असला तरी घरात शिरकाव करायचा होता गुलाबी थंडीला… एक हलकासा हात काचेवरून मी फिरवला.. हाताच्या उबदारपणा मुळे काचेवर जमा झालेल्या बाष्पानं सगळं अंग आकसून घेत काच  मला म्हणाली, “काल रात्री तुला जागं करायचा खूप प्रयत्न केला.. अगदी पावसानं गारांचा तडतड ताशा वाजवून पाहिला.. सरीवर सरी सप सप  चापट्या देत मला सांगत होत्या, अगं उठीव त्याला बघ म्हणावं ऐन दिवाळीच्या मोसमात पाऊस कसा कंदील, फटाके भिजवायला आलायं तो.. पण तू खरचं गाढ झोपेत होतास.. मग पाऊस हिरमुसला होऊन गेला.. हळूहळू थांबत गेला.. जाताना मला म्हणाला त्याला सांग रागावलोय त्याच्या वर.. आतापर्यंत बऱ्याच रात्री उशिराने घरी येत होतास, तेव्हा म माझं कारण घरात  आई, बाबा नि आजोंबाना सांगुन सुटका करून घेत होतास.. तुला तर कधीच मी भिजवलं सुध्दा नाही.. कारण तुझी माझी भेट कधीच झालेली नाही… पण आज अचानक येऊन तुला भेटायचं होतं.. तुला बघायचं होतं.. म्हणून रात्री उशिरानं आलो.. तू बेडरूममध्ये झोपलेला असताना तूला जागं करावं आणि एकदा डोळे भरून पाहावं… पण तू गाढ झोपेतून हलला सुद्धा नाही.. आता माझी कटृटी आहे कायमची असं सांग त्याला.. “. खिडकीची काच हे सारं मला सांगताना खूप हळवी झाली.. भरलेले डोळयांतली आसवं स्यंदन करत गेली…

… मी ही तिला सांगितले कि, ‘रात्री माझ्या स्वप्नात पाऊस आला होता मला भेटायला, आम्ही खूप दंगामस्ती केली.. त्यानं मला खूप खूप भिजवलं.. आम्हा दोघांना भेटून खूप आनंद झाला… बराचवेळ बोलत राहिलो, हसत राहिलो… मला म्हणाला आता त्यावेळी माझं खोटं कारणं सुटका करून घेत होतास ना.. म्हणून आज अचानक आलो तुला भेटायला नि मनसोक्त भिजवायला… ‘आणि तो  नेमकं हेच बोलून गेला.. ‘मला खूप नवल वाटलं पावसाचं.. रात्रभर झोपेत त्यालाच स्वप्नात तर पाहात होतो… आणि आता तर प्रत्यक्षात हिथं येऊन गेल्याच्या ठेवून गेलाय त्याच्या साक्षित्त्वाच्या खुणा… ज्या तू जपून ठेवल्यास मला दाखवायला… काचं आता स्वच्छ झाली होती नि मंद मंद हसत होती…

©  नंदकुमार पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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