(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता – शायद हल हो युद्ध ही…)
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 57 ☆ देश-परदेश – गधा ☆ श्री राकेश कुमार ☆
ये शब्द सुनते ही पाठशाला “मॉडल हाई स्कूल” जबलपुर के आदरणीय शिक्षक उपाध्याय जी के साथ पच्चास वर्ष पूर्व हुई एक चर्चा की स्मृति मानस पटल पर आ गई।
मॉडल हाई स्कूल, हमेशा हायर सेकंडरी की राज्य स्तरीय योग्यता सूची में सबसे अधिक स्थान प्राप्त करता था। इस विषय पर मैंने नवमी कक्षा का छात्र होते हुए शिक्षक से कहा, जब कक्षा छः के प्रवेश के समय भी उच्चतम अंक प्राप्त छात्रों को ही प्रवेश दिया जाता है। वो तो “घोड़े” होते है, कम अंक (गधे) प्राप्त छात्रों को मैट्रिक की मेरिट में लेकर आएं तो पाठशाला की क्षमता मानी जा सकती हैं।
शिक्षक भी हाजिर जवाब थे, और तुरंत बोले छः वर्ष तक घोड़े को घोड़ा बना रहने देते है, ये क्या कम हैं ? उनकी बात में वजन था। हमने भी उनसे क्षमा मांग कर उनका सम्मान बनाए रखा।
“मेरा गधा गधों का लीडर ” स्वर्गीय शम्मी कपूर जी का एक पुरानी फिल्म का गीत दूर कहीं बज रहा था। तभी एक मित्र ने उपरोक्त फोटो भेजी जिसमें एक पाकिस्तानी युवा अपनी नई नवेली पत्नी को “गधा” भेंट कर रहा हैं। फोटू का शीर्षक “एक गधा, गधा भेंट करते हुए”।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण गीत –सच सच कहना…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 162 – गीत – सच सच कहना…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “लगती चिडियाँ खूब फुदकने…”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 161 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “लगती चिडियाँ खूब फुदकने…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# नवरात्रि #”)
(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय डॉ कुन्दन सिंह परिहार जी का साहित्य विशेषकर व्यंग्य एवं लघुकथाएं ई-अभिव्यक्ति के माध्यम से काफी पढ़ी एवं सराही जाती रही हैं। हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहते हैं। डॉ कुंदन सिंह परिहार जी की रचनाओं के पात्र हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं। उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है ममता की पराकाष्ठा प्रदर्शित करती एक सार्थक कहानी ‘जोग’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार # 215 ☆
☆ कहानी – जोग☆
रामरती बेहाल है। खाना-पीना, सोना सब हराम है। मजूरी के लिए जाती है तो धड़का लगा रहता है कि कहीं शिब्बू बाबाजी के साथ चला न जाए। दिन-रात मनाती है कि बाबाजी गाँव से टर जाएँ, लेकिन बाबाजी भला क्यों जाने वाले? उनका चमीटा आठ दस दिन से गाँव में ही गड़ा है। बस-अड्डे के पास पुरानी धर्मशाला में टिके हैं। सवेरे से गाँव के लोग सेवा के लिए पहुँचने लगते हैं। कोई दूध लेकर पहुँचता है तो कोई चाय लेकर। कोई सीधा-पिसान लिये चला आता है। किसी चीज़ की कमी नहीं। सवेरे नहा धोकर पूजा करने के बाद बाबाजी शीशा सामने रखकर घंटों शरीर पर चंदन तिलक छापते, चेहरे और शरीर को हर कोण से निहारते रहते हैं।
शाम को खासी भीड़ हो जाती है। इनमें स्त्रियों की संख्या ज़्यादा होती है। चरन छूकर आसिरबाद लेने के लिए चली आती हैं। कई स्त्रियाँ समस्याओं के समाधान के लिए आती हैं— बहू को संतान का योग है कि नहीं? बेटा परदेस से कब लौटेगा? बेटे के बाप का रोग कब ठीक होगा? समस्याओं का अन्त नहीं है। बाबाजी कहते हैं स्त्रियाँ बड़ी पुन्यात्मा, बड़ी धरम-करम वाली होती हैं। उन्हीं के पुन्न से धरती टिकी हुई है।
शाम को बाबाजी की चिलम खूब चलती है। सेवा करने वाले भी परसाद पा जाते हैं। इसीलिए बाबाजी की सेवा के लिए होड़ लगी रहती है। शाम को भजन-मंडलियाँ ढोलक-झाँझ लेकर बाबाजी के पास डट जाती हैं। देर रात तक भजन चलते हैं। बाबाजी मस्ती में झूमते रहते हैं। कभी मस्ती में खुद भी गाने लगते हैं। साथ साथ चिलम भी खिंचती रहती है।
शिब्बू भी दिन भर बाबाजी की सेवा में लगा रहता है। घर आता है तो बस रोटी खाने के लिए। रोटी खाने के बाद ऐसे भागता है जैसे गुड़ के लिए चींटे भागते हैं। कई बार दोपहर को आता ही नहीं। वहीं परसाद पाकर पड़ा रहता है। बाबाजी ने जाने क्या जादू कर दिया है। रात को बारह एक बजे घर लौटता है, चिलम के नशे में लस्त-पस्त। रामरती कुछ शिकायत करती है तो बाबाजी से सीखे हुए जुमले सुनाना शुरू कर देता है— ‘सिंसार के रिस्ते नाते झूठे हैं माता। यहाँ कोई किसी का नहीं। सब माया का परभाव है। गुरू से बढ़कर कोई नहीं। अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम। पुन्न की जड़ पत्ताल।’
रामरती का हृदय सुलगता है, कहती है, ‘मैं दिन भर मजूरी करके तेरे पेट में अन्न डालती हूँ। तुझे बैठे-बैठे खाते सरम नहीं लगती?’
शिब्बू आँखें झपका कर सन्त की मुद्रा में कहता है, ‘अरे माता, जिसने करी सरम, उसके फूटे करम। इस सिंसार में किसी के करने से कुछ नईं होता।’ रामरती गुस्से में कहती है, ‘करने से तेरा नर भरता है। नईं करती तो भूखा मर जाता, अकरमी।’
शिब्बू ज्ञानी की नाईं मुस्करा कर कहता है, ‘अरे माता, जिसने चोंच दी है वोई दाना देगा। काहे की फिकर। गुरूजी तो कुछ नहीं करते, फिर भी आनन्द में रहते हैं।’
रामरती परेशान है क्योंकि गाँव में खबर गर्म है कि शिब्बू जोग लेगा, बाबाजी का चेला बन कर उन्हीं के साथ चला जाएगा। रामरती ने उसे बड़ी मुश्किल से, बड़ी उम्मीदों से पाला है। बाप दस साल पहले दारू पी पी कर मर गया था। शिब्बू से बड़ी एक बेटी है जिसकी शादी के लिए करजा काढ़ना पड़ा। अब रामरती खेतों में मजूरी करके घर चलाती है। शिब्बू का कोई भरोसा नहीं। एक दिन काम करता तो चार दिन आराम। बना- बनाया भोजन मिल जाता है, इसलिए बेफिक्र रहता है।
शिब्बू का बाप गाँव के बड़े लोगों की संगत में पड़ गया था। उसे इस बात का बड़ा गर्व था कि उसका उठना-बैठना हैसियत वालों में था। दरअसल वह भाँड़गीरी में उस्ताद था। लोगों की नकल और प्रहसन में वह माहिर था। इसीलिए वह बड़े लोगों के मनोरंजन का साधन बना रहता था। उसे चाटने-पोंछने के लिए कुछ न कुछ मिलता रहता था जिसमें वह बड़ा खुश रहता था। घर आता तो तर्जनी और अँगूठे से गोला बनाकर रामरती से कहता, ‘आज अंगरेजी पीने को मिली। मजा आ गया।’
धीरे-धीरे उसे लत लग गयी थी। दारू के लिए घर का सामान बेच देता। रामरती आँसू बहाती, लेकिन घर में सुनने वाला कोई नहीं था। फिर वह बीमार रहने लगा। खाना पीना कुछ नहीं पचता था। गाँव के अस्पताल के डॉक्टर को दिखाया तो उसने बताया, ‘पी पी पर इसका जिगर खराब हो गया है। शहर जाकर दिखाओ। यहाँ ठीक नहीं होगा।’
रामरती कहाँ दिखाये और कैसे दिखाये? आदमी उसकी आँखों के सामने घुलता घुलता चला गया।
शिब्बू के लिए रामरती ने बहुत कोशिश की कि वह पढ़-लिख जाए। उसने उसे गाँव के स्कूल में भर्ती भी करा दिया था, लेकिन उससे आगे उसके हाथ में कुछ नहीं था। वह खुद पढ़ी-लिखी थी नहीं, न उसके पास इतनी फुरसत थी कि शिब्बू की चौकीदारी करे। शिब्बू घर से बस्ता लेकर निकल जाता और फिर स्कूल बन्द होने के समय तक कुछ निठल्ले लड़कों के साथ तालाब के किनारे ‘गिप्पी’ खेलता रहता या आम तोड़ता रहता। उसका मन पढ़ने में नहीं लगता था।
रामरती को कुछ पता नहीं था। वह दाल-रोटी के जुगाड़ में ही उलझी रहती थी। एक दिन संयोग से उसने रास्ते में स्कूल के मास्टर जी को रोककर शिब्बू की प्रगति के बारे में पूछ लिया। जवाब मिला, ‘शिब्बू का तो कई महीने पहले गैरहाजिरी के कारण स्कूल से नाम कट गया है। अब वह स्कूल का छात्र नहीं है।’
सुनकर रामरती का दिल टूट गया। लड़के के भविष्य के उसके सारे सपने ध्वस्त हो गये। घर आकर उसने एक साँटी लेकर शिब्बू की खूब मरम्मत की, लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ। उसे जितना पीटा, उतना ही माँ का हृदय भी आहत हुआ।
शिब्बू अब गाँव में टुकड़खोरी में लग गया था। गाँव में लोग उसे छोटा-मोटा काम करने के लिए बुला लेते और बदले में उसे थोड़ा-बहुत पैसा या कुछ खाने को दे देते। गाँव की स्त्रियाँ रामरती को सलाह देतीं, ‘लड़के का ब्याह कर दो। बहू आ जाएगी तो सुधर जाएगा। जिम्मेदार हो जाएगा।’
रामरती भुन कर जवाब देती, ‘नहीं सुधरेगा तो दो दो का पेट कौन भरेगा? फिर कुछ दिन बाद तीसरा भी आ जाएगा। मैं मजूरी- धतूरी करूँगी या बहू की चौकीदारी करूँगी? तब तुम कोई मदद करोगी क्या?’
सुझाव देने वाली भकुर कर आगे बढ़ जाती।
अब बाबाजी के आने से रामरती की जान और साँसत में पड़ गयी है। अगर सचमुच शिब्बू उनके साथ चला गया तो क्या होगा? उसके मन में कहीं न कहीं उम्मीद है कि वह सुधर जाएगा। बाबाजी ले गये तो उसकी उम्मीद बुझ जाएगी। फिर किसके लिए जीना और किसके लिए छाती मारना? सारे समय भगवान से मिन्नत करती रहती कि शिब्बू की मत ठीक बनी रहे।
एक दिन शिब्बू ने वही कह दिया जिसका उसे डर था। बोला, ‘बाई, मैंने बाबाजी से मंतर ले लिया है। उनका चेला बन गया हूँ। उन्हीं के साथ देस देस घूमूँगा। बड़ा आनन्द आएगा। गोबरधन भी जाएगा। वह भी चेला बन गया है।’
रामरती की जान सूख गयी। आँख से आँसू टपकने लगे। सारा आत्माभिमान गल गया। चिरौरी के स्वर में बोली, ‘बेटा, तू चला जाएगा तो मैं किसके सहारे जिऊँगी? अपनी महतारी को बुढ़ापे में बेसहारा छोड़ जाएगा? तू कहीं मत जा बेटा। मैं तुझे बैठे-बैठे खिलाऊँगी।’
शिब्बू ने सीखे हुए वाक्यों में जवाब दिया, ‘माता, कई जीवों के बच्चे दो चार दिन में ही माँ-बाप को छोड़ देते हैं। उनकी माता दुखी नहीं होती? सिंसार से मोह ममता नहीं रखना चाहिए।’
उधर गाँव में बाबाजी के साथ साथ शिब्बू की भी जयजयकार हो रही थी। लोग उसे देखकर हाथ जोड़ते। स्त्रियाँ उसके सामने पड़ जातीं तो बैठ कर आँचल का छोर धरती से छुआ कर माथे पर लगातीं। शिब्बू के पाँव ज़मीन पर नहीं थे। गर्व से उसकी आँखें मुँदी रहती थीं। लोग रामरती से कहते, ‘बड़ी भागवाली हो रामरती। लड़का खूब पुन्न कमाएगा। सब पिछले जनम के सतकरमों का फल है।’
रामरती के ससुर जीवित हैं। दूसरे बेटे के साथ रहते हैं। पढ़े-लिखे न होने के बावजूद सयाने, समझदार हैं। रामरती अपना दुखड़ा लेकर उनके पास गयी। वे बोले, ‘बेटा, क्या करें? कुएँ में भाँग पड़ी है। सब जैजैकार करने में लगे हैं। तुम्हारी बिथा समझने वाला कौन है? मैंने शिब्बू को समझाया था, लेकिन वह पगला है। समझता नहीं। जैजैकार में फूला फिरता है।’
अब रामरती को लगता था बाबाजी कभी भी चेलों को लेकर खिसक जाएँगे। उसे न नींद आती थी, न मजूरी में मन लगता था। सारे वक्त आँखें शिब्बू को ही तलाशती रहती थीं।
गाँव में पुलिस चौकी थी। दरोगा जी सारे वक्त दुखी बैठे रहते थे क्योंकि गाँव के ज़्यादातर लोग भुक्खड़ थे। आमदनी की संभावना न के बराबर थी। दरोगा जी की नज़र में यह गाँव मनहूस था। एक दोपहर रामरती उनके पास जा पहुँची। बोली, ‘दरोगा जी, धरमसाला में जो बाबाजी आये हैं वे मेरे बेटे को चेला बना कर ले जा रहे हैं। मैं बेसहारा हो जाऊँगी। आप उन्हें रोको,नहीं तो मैं किसी कुएँ में डूब मरूँगी।’
दरोगा जी ने उसके चेहरे को टटोला कि कितना सच बोल रही है, फिर बोले, ‘बाई, मैं क्या कर सकता हूँ? तुम्हारा बेटा बालिग है तो वह अपनी मर्जी से कहीं भी जा सकता है।’
रामरती बोली, ‘वह बालग नहीं है।’
दरोगा जी टालने के लिए बोले, ‘कुछ प्रमाण-सबूत लाओ तो देखेंगे।’
रामरती ने जवाब दिया, ‘ठीक है। मैं इस्कूल से लिखवा कर लाऊँगी।’
रामरती के जाने के बाद दरोगा जी के दिमाग में कीड़ा रेंगा। थोड़ी देर में मोटरसाइकिल लेकर धर्मशाला पहुँच गये। बाबाजी आराम कर रहे थे। दरोगा जी को देख कर उठ कर बैठ गये। दरोगा जी नमस्कार करके बोले, ‘कैसे हैं महाराज?’
बाबा जी दोनों हाथ उठाकर बोले, ‘आनन्द है। खूब आनन्द है। बड़ा प्रेमी गाँव है।’
दरोगा जी ने इधर-उधर नज़र घुमायी, फिर बोले, ‘गाँव से कुछ चेले बनाये क्या?’
बाबा जी का मुँह उतर गया, बोले, ‘अरे नहीं। हम इतनी आसानी से चेला-वेला नहीं बनाते। मन मिले का मेला, चित्त मिले का चेला।बाबा सबसे भला अकेला।’
दरोगा जी बोले, ‘किसी नाबालिग लड़के को चेला मत बनाइएगा। माँ-बाप रिपोर्ट कर देंगे तो आप मुश्किल में पड़ जाओगे।’
बाबाजी घबरा कर बोले, ‘अरे नहीं महाराज! अपने राम इस चक्कर से दूर रहते हैंं।’
दरोगा जी मोटरसाइकिल पर सवार होकर चलते बने, लेकिन बाबाजी के कान खड़े हो गये। चेलों से पूछताछ की तो पता चला रामरती दरोगा जी के पास गयी थी। शाम को बाबाजी शिब्बू से बोले, ‘बच्चा, अभी तुमको हमारे साथ नहीं जाना है। हमने जो मंतर दिया है उसे साधना है, नहीं तो तुम्हारी साधना कच्ची रह जाएगी। साल भर बाद हम फिर आएँगे, तब तुम्हें अपने साथ ले जाएँगे।’
उसी रात बाबाजी गाँव को सोता और रोता छोड़ कर सारा सीधा-पिसान लेकर अंतर्ध्यान हो गये। रामरती को पता चला तो उसने राहत की साँस ली।
सवेरे शिब्बू ने अपना सारा गुस्सा माँ पर उतारा। दाँत पीसकर बोला, ‘तुम्हीं ने सब गड़बड़ किया। न तुम दरोगा के पास जातीं, न गुरूजी गाँव छोड़कर जाते। लेकिन इससे क्या होता है? क्या गाँव में और बाबा नहीं आएँगे? मैं किसी के भी साथ भाग जाऊँगा।’
रामरती शान्त स्वर में बोली, ‘अभी तो मुसीबत टर गयी, भैया। जब फिर आएगी तो देखेंगे।’
(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के लेखक श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही गंभीर लेखन। शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको पाठकों का आशातीत प्रतिसाद मिला है।”
हम प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों के माध्यम से हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)
☆ संजय उवाच # 214☆ दिव्यता
घटना दस-बारह वर्ष पूर्व की है। भाषा, संस्कृति और सेवा के लिए कार्यरत हमारी संस्था हिंदी आंदोलन परिवार, समाज के अलग-अलग वर्ग के लिए विशेष आयोजन करती रहती है। इसी संदर्भ में हम नेत्रहीन बालिकाओं की एक निवासी पाठशाला में पहुँचे। यहाँ पहली से दसवीं तक की कक्षाएँ लगती हैं। लगभग 150 की क्षमता वाली इस पाठशाला की सभी बालिकाओं के लिए हम उपहारस्वरूप स्कार्फ खरीदकर ले गए थे। पाठशाला के मैदान में पाँचवीं और छठी कक्षा की छात्राओं के लिए स्कार्फ का वितरण हो रहा था। मेरी धर्मपत्नी ने थैले से स्कार्फ निकालकर एक छात्रा के हाथ में दिया। आश्चर्य! उस बिटिया ने स्कार्फ लेकर उसे सूंघा, फिर बोली, “यह रंग मुझे अच्छा नहीं लगता। इसे बदलकर गुलाबी रंग का स्कार्फ दीजिए ना!” हमारे रोंगटे खड़े हो गए। नेत्रों से जलधारा बह निकली। जन्मांध बच्ची को स्कार्फ के रंग का बोध कैसे हुआ? बड़ा प्रश्न है कि इस बच्ची के लिए रंग की परिभाषा क्या होती होगी? रंग को लेकर उसके मन में कैसी भावनाएँ उठती होंगी?
इस संदर्भ में अपनी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ स्मरण हो आईं,
आँखें, जिन्होंने देखे नहीं कभी उजाले,
कैसे बुनती होंगी आकृतियाँ-
भवन, झोपड़ी, सड़क, फुटपाथ,
कार, दुपहिया, चूल्हा, आग,
बादल, बारिश, पेड़, घास,
धरती, आकाश
दैहिक या प्राकृतिक सौंदर्य की,
‘रंग’ शब्द से कौनसे चित्र बनते होंगे
मन के दृष्टिपटल पर,
भूकंप से कैसा विनाश चितरता होगा,
बाढ़ की परिभाषा क्या होगी,
इंजेक्शन लगने से पूर्व
भय से आँखें मूँदने का विकल्प क्या होगा,
आवाज़ को घटना में बदलने का
पैमाना क्या होगा,
चूल्हे की आँच और चिता की आग में
अंतर कैसे खोजा जाता होगा,
दृश्य या अदृश्य का
सिद्धांत कैसे समझा जाता होगा..?
बिना आँख के दृश्य और अदृश्य के इस बोध को अध्यात्म छठी इंद्रिय की प्रबलता कहता है। किसी एक इंद्रिय के निर्बल या निष्क्रिय होने की स्थिति में आंतरिक ऊर्जा का सक्रिय होना ही छठी इंद्रिय की प्रबलता का द्योतक है। भारत के प्रधानमंत्री ने इस प्रबलता के अधिष्ठाता का सटीक नामकरण ‘दिव्यांग’ किया है।
स्कार्फ के रंग को पहचाना, अपनी पसंद के रंग का स्कार्फ मांगना, उस बिटिया के भीतर की दिव्यता थी।
विशेष बात है कि यह दिव्यता हम सब में भी विद्यमान है। ध्यान, प्राणायाम, स्वाध्याय, चिंतन, सत्संग, विद्वानों से चर्चा के माध्यम से इसे जाग्रत किया जा सकता है। बहुत कुछ है जिसे देखा जा सकता है, समझा जा सकता है।
अर्जुन ने परमात्मा के विराट का दर्शन किया था। आत्मा अंश है परमात्मा का। इसका अर्थ है कि विराट का एक संस्करण हम सब में भी विद्यमान है, अंतर्निहित है। इस अंतर्निहित को, योगेश्वर कुछ यूँ समझाते हैं,
अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार ☆सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय ☆संपादक– हम लोग ☆पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆ ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स ☆
🕉️ 💥 देवीमंत्र की कम से कम एक माला हर साधक करे। अपेक्षित है कि नवरात्रि साधना में साधक हर प्रकार के व्यसन से दूर रहे, शाकाहार एवं ब्रह्मचर्य का पालन करे। सदा की भाँति आत्म-परिष्कार तथा ध्यानसाधना तो चलेंगी ही। मंगल भव। 💥 🕉️
अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈
Anonymous Litterateur of Social Media # 162 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 162)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।