हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ सलिल प्रवाह # 161 ☆ दोहा सलिला – आम खास का खास है… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि।  संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को  “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं – दोहा सलिला – आम खास का खास है…)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह # 161 ☆

☆ दोहा सलिला – आम खास का खास है… ☆ आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ ☆

आम खास का खास है, खास आम का आम.

‘सलिल’ दाम दे आम ले, गुठली ले बेदाम..

आम न जो वह खास है, खास न जो वह आम.

आम खास है, खास है आम, नहीं बेनाम..

पन्हा अमावट आमरस, अमकलियाँ अमचूर.

चटखारे ले चाटिये, मजा मिले भरपूर..

दर्प न सहता है तनिक, बहुत विनत है आम.

अच्छे-अच्छों के करे. खट्टे दाँत- सलाम..

छककर खाएं अचार, या मधुर मुरब्बा आम .

पेड़ा बरफी कलौंजी, स्वाद अमोल-अदाम..

लंगड़ा, हापुस, दशहरी, कलमी चिनाबदाम.

सिंदूरी, नीलमपरी, चुसना आम ललाम..

चौसा बैगनपरी खा, चाहे हो जो दाम.

‘सलिल’ आम अनमोल है, सोच न- खर्च छदाम..

तोताचश्म न आम है, तोतापरी सुनाम.

चंचु सदृश दो नोक औ’, तोते जैसा चाम..

हुआ मलीहाबाद का, सारे जग में नाम.

अमराई में विचरिये, खाकर मीठे आम..

लाल बसंती हरा या, पीत रंग निष्काम.

बढ़ता फलता मौन हो, सहे ग्रीष्म की घाम..

आम्र रसाल अमिय फल, अमिया जिसके नाम.

चढ़े देवफल भोग में, हो न विधाता वाम..

‘सलिल’ आम के आम ले, गुठली के भी दाम.

उदर रोग की दवा है, कोठा रहे न जाम..

चाटी अमिया बहू ने, भला करो हे राम!.

सासू जी नत सर खड़ीं, गृह मंदिर सुर-धाम..

©  आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’

बेंगलुरु, २२.९.२०१५

संपर्क: विश्ववाणी हिंदी संस्थान, ४०१ विजय अपार्टमेंट, नेपियर टाउन, जबलपुर ४८२००१,

चलभाष: ९४२५१८३२४४  ईमेल: [email protected]

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆– ऐक मुकुंदा… – ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? – ऐक मुकुंदा… – ? ☆ सुश्री नीलांबरी शिर्के ☆

हाती पावा घेऊ नको रे

अधरावरती धरू नको रे

सचेत होऊन सूर उमटता

विसरतेच मग जग हे सारे !

खट्याळ तू रे किती मुरारी 

विनविते तरी घेशी बासरी

हात तुझा मी किती अडवावा

सांगू मुकुदा कोणत्या परी !

सासुरवाशीण मी रे कान्हा

किती सांगू तुज मी पुन:पुन्हा 

अवघड होते मन आवरणे

सूर पावरीचे पडता काना !

 हात जोडूनी तुला विनवते

 सूर अवेळी अळवू नको ते

 नंतर भेटू कदंबातळी 

 स्वतः बासरी हाती देते !!

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

मो 8149144177

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आतिश का तरकश #212 – 98 – “बदमाशी इल्ज़ाम मय पर रखा ना कीजै…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ☆

श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी  ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकशआज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “बदमाशी इल्ज़ाम मय पर रखा ना कीजै…”)

? ग़ज़ल # 98 – “बदमाशी इल्ज़ाम मय पर रखा ना कीजै…” ☆ श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’ ?

हर दिल में नुमाया शायर होता है,

कतरे कतरे में छुपा सागर होता है।

उथला शख़्स बेवज़ह ही चिल्लाता है,

जो गहरा है वो थोड़ा हटकर होता है।

घर के बाहर सुख तलाशना झूठा है,

अपना घर का सपना सुंदर होता है।

बदमाशी इल्ज़ाम मय पर रखा ना कीजै,

करता है वही  जो उसके अंदर होता है।

दिल देने में हिचक किस बात की आतिश,

मुहब्बत का सौदा सदा हँसकर होता है।

© श्री सुरेश पटवा ‘आतिश’

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कविता – अब वक़्त को बदलना होगा – भाग -4 ☆ सुश्री दीपा लाभ ☆

सुश्री दीपा लाभ 

(सुश्री दीपा लाभ जी, बर्लिन (जर्मनी) में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। हिंदी से खास लगाव है और भारतीय संस्कृति की अध्येता हैं। वे पिछले 14 वर्षों से शैक्षणिक कार्यों से जुड़ी हैं और लेखन में सक्रिय हैं।  आपकी कविताओं की एक श्रृंखला “अब वक़्त  को बदलना होगा” को हम श्रृंखलाबद्ध प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की अगली कड़ी।) 

☆ कविता ☆ अब वक़्त  को बदलना होगा – भाग – 4 सुश्री दीपा लाभ  ☆ 

[4]

जो बात-बात पर अपने घर

प्रतिदिन महाभारत करते हैं

जो जड़, जमीन, जोरू के लिए

अपने अपनों से लड़ते हैं

क्या याद दिलाऊँ उनको आज

कौरवों का था क्या हश्र हुआ

उनके शव पर रोने वाला

ना बचा कोई वंशज हुआ

दुष्कर्मों का परिणाम कभी

अपने हक़ में कब आया है

यह सत्य आज समझना होगा

अब वक़्त को बदलना होगा

जहाँ गली-गली में आए दिन

अबला का चीर हरा जाता

जहाँ जनता मूक खड़ी होकर

देखे मृत्यु-तांडव  शीष झुका

यों शून्य हो चुकी चेतना को

अब तो जागृत होना होगा

शिथिल पड़ी मानवता को

संवेदनशील होना होगा

अब वक़्त को बदलना होगा

© सुश्री दीपा लाभ 

बर्लिन, जर्मनी 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ काव्य धारा # 152 ☆ ‘स्वयं प्रभा’ से – “राष्ट्रहित में सोचिये” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆

प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी  द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना  – “राष्ट्रहित में सोचिये। हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी  काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।) 

☆ ‘स्वयं प्रभा’ से – “राष्ट्रहित में सोचिये” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

राष्ट्रहित में सोचिये, कर्त्तव्य पथ पर आइये

 झूठ-लालच स्वार्थ तज, सच नीति-नय अपनाइये

 राष्ट्रहित में सोचिये, कर्तव्य पथ पर आइये।

 

कर रही है स्वार्थवश हो राजनीति अपार क्षति

 कैसे इस दुर्भावना से भला संभव कोई प्रगति ?

 

बढ़ती जाती आये दिन, नई-नई समस्यायें कई

 हरेक निर्णय से उभरती हैं जटिलतायें नई।

 

क्यों हुआ है मन यों मैला, क्यों नजर दुर्बुद्धि की ?

 जरूरत है आत्मचिन्तन की औं जीवन शुद्धि की।

 

नामसझ लोगों से दिखते अधिकतर व्यवहार हैं।

 जनता की मुश्किलें बढ़ गईं, बढ़ें भ्रष्टाचार हैं।

 

कठिन होती जा रही है जिन्दगी तकरार से। 

समस्या तो हल हुआ करती है मिलकर प्यार से।

 

सभी का दायित्व है कि हों सुरक्षित सही हल

 देश की उन्नति हो जिससे और सुखदायी हो कल ।

 

तेजगति से हमारे भारत का उचित विकास हो ।

भावनायें हों न कुण्ठित, सबकी पूरी आश हो।

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

ए २३३ , ओल्ड मीनाल रेजीडेंसी  भोपाल ४६२०२३

मो. 9425484452

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

 

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 88 ☆ मुक्तक ☆ ।।कर्म पूजा, कर्म ऊर्जा, कर्म ही सफलता का मन्त्र है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 88 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।कर्म पूजा, कर्म ऊर्जा, कर्म ही सफलता का मन्त्र है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

घना कोहरा आगे अंधेरा नज़र कुछ आता न हो।

हो अवसाद व  तनाव  और  कुछ भाता न हो।।

पर मत सोचना फिर भी कोई नकारात्मक विचार।

जो सकारात्मक ऊर्जा को जीवन में लाता न हो।।

[2]

आपकी सोच विचार ऊर्जा जीत आधार  बनती है।

आपकी उचित जीवन शैली  कारगार बनती है।।

कर्म ही  पूजा  कर्म ही  मन्त्र है सफलता का।

उत्साह से ही जाकर जिंदगी शानदार बनती है।।

[3]

संकल्प, दृढ़ दृष्टिकोण हों जीवन के प्रमुख अंग।

अनुशासन  हीनता हो तो लग जाती है जंग।।

सतत कोशिश और बार बार का करना अभ्यास।

निरंतर प्रयास हो और कभी ध्यान नहीं हो भंग।।

[4]

जीवन एक कर्मशाला जग ये ऐशो आराम नहीं है।

है यह संघर्ष तपोवन कोई घृणा का मैदान नहीं है।।

मत पलायन से बदनाम कर इस अनमोल जीवन को।

बिना पूरे किये फर्ज जीवन के उतरते एहसान नहीं है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 175 – जगण्याचे बळ ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 175 – जगण्याचे बळ  ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

जगण्याचे बळ

माऊलीची माया।

तप्त जीवनात

पिता छत्र छाया।

 

साजनाची साथ

सहजीवनात।

जगण्याचे बळ

विश्वासाचा हात।

 

पाडस धरीते

विश्वासाने बोट।

त्याच्या स्वप्नापुढे

सारं जग छोटं।

 

लाखो संकटांचा

दाटता अंधार।

आशेचा किरण

मनाला आधार।

 

जीवनी संघर्ष 

लागे नित्य झळ।

प्रेम,आशा, स्फूर्ती

जगण्याचे बळ।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #205 ☆ मैं भी सही : तू भी सही ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं भी सही : तू भी सही। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 204 ☆

☆ मैं भी सही : तू भी सही 

बहुत सारी उलझनों का जवाब यही है कि ‘मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। ‘ऐ ज़िंदगी! चल नई शुरुआत करते हैं…कल जो उम्मीद दूसरों से थी, आज ख़ुद से करते हैं’ में छिपा है सफल ज़िंदगी जीने का राज़; जीने का अंदाज़ और यही है– संबंधों को प्रगाढ़ व सौहार्दपूर्ण बनाए रखने का सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ उपादान अर्थात् जब आप स्वीकार लेते हैं कि मैं अपनी जगह सही हूं और दूसरा भी अपनी जगह ग़लत नहीं है, वह भी सही है… तो सारे विवाद तुरंत संवाद में बदल जाते हैं। सभी समस्याओं का समाधान स्वयमेव निकल जाता है। परंतु मैं आपका ध्यान इस ओर केंद्रित करना चाहती हूं कि समस्या का मूल तो ‘मैं’ अथवा ‘अहं’ में है। जब ‘मानव की मैं’ ही नहीं रहेगी, तो समस्या का उद्गम-स्थल ही नष्ट हो जाएगा… फिर समाधान की दरक़ार ही कहां रहेगी?

मानव का सबसे बड़ा शत्रु है अहं, जो उसे ग़लत तर्क पर टिके रहने को विवश करता है। इसका कारण होता है ‘आई एम ऑलवेज़ राइट का भ्रम।’ दूसरे शब्दों में ‘बॉस इज़ ऑल्वेज़ राइट’ अर्थात् मैं सदैव ठीक कहता हूं, ठीक सोचता हूं, ठीक करता हूं। मैं श्रेष्ठ हूं, घर का मालिक हूं, समाज में मेरा रूतबा है, सब मुझे दुआ-सलाम करते हैं। सो! ‘प्राण जाएं, पर वचन न जाई’ अर्थात् मेरे वचन पत्थर की लकीर हैं। मेरे वचनों की अनुपालना करना तुम्हारा प्राथमिक कर्तव्य व दायित्व है। सो! वहां यह नियम कैसे लागू हो सकता है कि मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। काश! हम जीवन में इस धारणा को अपना पाते, तो हम दूसरों के जीने की वजह बन जाते और हमारे कारण किसी को कष्ट नहीं पहुंचता। महात्मा बुद्ध का यह संदेश कि ‘दूसरों से वैसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं’ सार्थक सिद्ध हो जाता और सभी समस्याएं समूल नष्ट हो जाती।

आइए! हम इस के दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें… ‘ऐ ज़िंदगी!चल नई शुरुआत करते हैं। कल जो उम्मीद औरों से थी, आज ख़ुद से करते हैं।’ इस में जीवन जीने की कला का दिग्दर्शन होता है। जीवन में चिंता व परेशानी से तनाव की स्थिति तब जन्म लेती है; जब हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं। उम्मीद ही दु:खों की जनक है, संतोष की हन्ता है तथा शांति का विनाश करती है। इस स्थिति में हमारे मन में दूसरों के प्रति शिकायतों का अंबार लगा रहता है और हम हर समय उनकी निंदा करने में मशग़ूल रहते हैं, क्योंकि वे हमारी अपेक्षाओं व मापदण्डों पर खरे नहीं उतरते। जहां तक तनाव का संबंध है, उसके लिए उत्तरदायी अथवा अपराधी हम स्वयं होते हैं और अपनी सोच बदल कर ही हम उस रोग से निज़ात पा सकते हैं। कितनी सामान्य-सी बात है कि आप दूसरों के स्थान पर ख़ुद को उस कार्य में लगा दीजिए अर्थात् अंजाम प्रदान करने तक निरंतर परिश्रम करते रहिए … सफलता एक दिन आपके कदम अवश्य चूमेगी और आप आकाश की बुलंदियों को छू पाएंगे।

अर्थशास्त्र का नियम है, अपनी इच्छाओं को कम से कम रखिए…उन पर नियंत्रण लगाइए, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी अमुक संदेश देते हैं कि यदि आप शांत भाव से तनाव-रहित जीवन जीना चाहते हैं, तो सुरसा के मुख की भांति जीवन में पांव पसारती बलवती इच्छाओं- आकांक्षाओं पर अंकुश लगाना बेहतर है। इस

 सिक्के के दो पहलू हैं…प्रथम है इच्छाओं पर अंकुश लगाना और द्वितीय है दूसरों से अपेक्षा न करना। यदि हम इच्छाओं व आकांक्षाओं पर नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं, तो द्वितीय का शमन स्वत: हो जायेगा, क्योंकि इच्छाएं ही अपेक्षाओं की जनक हैं। दूसरे शब्दों में ‘न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी।’

विपत्ति के समय मानव को अपना सहारा खुद बनना चाहिए और इधर-उधर नहीं झांकना चाहिए…न ही किसी की ओर क़ातर निगाहों से देखना चाहिए अर्थात् किसी से अपेक्षा व उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। ‘अपने हाथ जगन्नाथ’ अर्थात् हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर विश्वास करते हुए अपनी समस्त ऊर्जा समस्या के समाधान व लक्ष्य-पूर्ति के निमित्त लगा देनी चाहिए। हमारा आत्मविश्वास, साहस, दृढ़-संकल्प व कठिन परिश्रम हमें विषम परिस्थितियों मेंं भी किसी के सम्मुख नतमस्तक नहीं होने देता, परंतु इसके लिए सदैव धैर्य की दरक़ार रहती है।

‘सहज पके सो मीठा होय’ अर्थात् समय आने पर ही वृक्ष फूल व फल देते हैं और समय से पहले व भाग्य से अधिक मानव को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सो! सफलता प्राप्त करने के लिए लगन व परिश्रम के साथ-साथ धैर्य भी अपेक्षित है। इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि मानव को आधे रास्ते से कभी लौट कर नहीं आना चाहिए, क्योंकि उससे कम समय में वह अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुंच सकता है। अधिकांश विज्ञानवेता इस सिद्धांत को अपने जीवन में धारण कर बड़े-बड़े आविष्कार करने में सफल हुए हैं और महान् वैज्ञानिक एडिसन व अल्बर्ट आइंस्टीन आदि के उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ अर्थात् निरंतर अभ्यास व प्रयास करने से यदि मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है, तो एक बुद्धिजीवी – आत्मविश्वास व निरंतर परिश्रम करने से सफलता क्यों नहीं प्राप्त कर सकता …यह विचारणीय है।

जिस दिन हम अपनी दिव्य शक्तियों से अवगत हो जाएंगे… हम जी-जान से स्वयं को उस कार्य में झोंक देंगे और निरंतर संघर्षरत रहेंगे, उस स्थिति में बड़ी से बड़ी आपदा भी हमारे पथ की बाधा नहीं बन पायेगी। वास्तव में चिंता, परेशानी, आशंका, संभावना आदि हमारे अंतर्मन में सहसा प्रकट होने वाले वे भाव हैं; जो लंबे समय तक हमारे आशियां में डेरा डालकर बैठ जाते हैं और जल्दी से विदा होने का नाम भी नहीं लेते। परंतु हमें उन आपदाओं को स्थायी स्वीकार कर, उनसे भयभीत होकर पराजय नहीं स्वीकारनी चाहिए, बल्कि यह सोचना चाहिए कि ‘जो आया है, अवश्य जायेगा। सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं। थोड़ा समय जीवन में प्रवेश करने के पश्चात् मुसाफिर की भांति संसार-रूपी सराय में विश्राम करेंगे, चंद दिन रहेंगे और चल देंगे।’ सृष्टि का क्रम भी इसी नियम पर आधारित है, जो निरंतर चलता रहता है। इसका प्रमाण है…रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के पश्चात् पूनम व विभिन्न ऋतुओं का यथासमय आगमन, परिवर्तन व प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने पर उसके विकराल व भीषण रूप का दिग्दर्शन, हमें उस सृष्टि-नियंता की कुशल व्यवस्था से अवगत कराता है तथा सोचने पर विवश करता है कि सृष्टि-नियंता की महिमा अपरंपार है। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता व परिस्थितियां निरंतर परिवर्तनशील रहती हैं। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। हमारा दृष्टिकोण सदैव सकारात्मक होना चाहिए, क्योंकि जीवन में नकारात्मकता हमें तन्हाई के आलम में अकेला छोड़ कर चल देती है और हम लाख चाहने पर भी तनाव व अवसाद के व्यूह से बाहर नहीं निकल सकते।

अंतत: मैं यही कहना चाहूंगी कि आप अपने अहं का त्याग कर दूसरों की सोच व अहमियत को महत्व दें तथा उसे स्वीकार करें… संघर्ष की वजह ही समाप्त हो जाएगी तथा दूसरों से अपेक्षा करने के भाव का त्याग करने से तनाव व अवसाद की स्थिति आपके जीवन में दखल नहीं दे पाएगी। इसलिए मानव को अपने बच्चों को भी इस तथ्य से अवगत करा देना चाहिए कि उन्हें अपना सहारा ख़ुद बनना है। वैसे तो सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला सब कार्यों को संपन्न नहीं कर सकता। उसे सुख-दु:ख के साथी की आवश्यकता होती है। दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि ‘जिस पर आप सबसे अधिक विश्वास करते हैं; एक दिन वह ही आप द्वारा स्थापित इमारत की मज़बूत चूलें हिलाने का काम करता है।’ इसलिए हमें स्वयं पर विश्वास कर जीवन की डगर पर अकेले ही अग्रसर हो जाना चाहिए, क्योंकि भगवान भी उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। आइए! दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार अपने अहं का विसर्जन करें और दूसरों से अपेक्षा न रख, अपना सहारा खुद बनें। आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे निरंतर संघर्षशील रहें। रास्ते में थक कर न बैठें, न ही लौटने का मन बनाएं, क्योंकि नकारात्मक सोच व विचारधारा लक्ष्य-प्राप्ति के मार्ग में अवरोधक सिद्ध होती है और आप अपने मनोवांछित मुक़ाम पर नहीं पहुंच पाते। परिवर्तन सृष्टि का नियम है…क्यों न हम भी शुरुआत करें–नवीन राह की ओर कदम बढ़ाने की, क्योंकि यही ज़िंदगी का मर्म है, सत्य है, यथार्थ है और सत्य हमेशा शिव व सुंदर होता है। इस राह का अनुसरण करने पर हमें यह बात समझ में आ जाएगी कि ‘मैं भी सही और तू भी सही है’ और यही है– ज़िंदगी जीने का सही सलीका व सही अंदाज़… जिसके उपरांत जीवन से संशय, संदेह, शंका, तनाव, अलगाव, अवसाद आदि का शमन हो जाएगा और चहुं ओर अलौकिक आनंद की वर्षा होने लगेगी।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #205 ☆ भावना के दोहे … माँ अंबिका ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे … माँ अंबिका)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 205 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … माँ अंबिका   डॉ भावना शुक्ल ☆

मुरादें हम मांग रहे, माँ ने सुनी पुकार।

माथा माँ  के चरण में, माँ करती बस प्यार।”

जय गौरी मां अंबिका, तेरी जय जयकार।

द्वार तेरे आए हम, कर दो मां उपकार।।

मैया सुन लो आज तुम, हर लो सबकी पीर।

आए तेरी शरण में, बांधा हमने धीर।।

आस लगाई आपसे, सुन लो तुम पुकार।

भक्त कर रहे वंदना, भर दो तुम भंडार।।

हम तो माता कर रहे, तेरा ही गुणगान।

तेरी कृपा मिले सदा, दे दो तुम वरदान।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #189 ☆ संतोष के दोहे – नारी… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे – नारीआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 189 ☆

☆ संतोष के दोहे – नारी☆ श्री संतोष नेमा ☆

नारी से दुनिया बनी, नारी जग का मूल

हर घर की वो लक्ष्मी, दें आदर अनुकूल

चले सभी को साथ ले, सहज सरल स्वभाव

रखती कभी न बे-बजह, कोई भी दुर्भाव

सीता, दुर्गा, कालका, नारी रूप अनूप

राधा, मीरा, द्रोपदी, अलग-अलग बहु रूप

नारी बिन संभव नहीं, उन्नत सकल समाज

समझें मत अबला कभी, करती सारे काज

सारे रिश्तों की धुरी, उसका हृदय विशाल

माँ-बेटी भाभी बहन, बन पत्नी ससुराल

प्रेम, त्याग, ममता, दया, करुणा करे अपार

धीरज, -धरम न छोड़ती, उसकी जय-जय कार

रिश्तों की ताकत वही, रखती दिल में प्यार

जीवन में “संतोष” रख, आँचल चाँद-सितार

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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