हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #250 ☆ एक बुंदेली गीत –  होरी में… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी – एक बुंदेली गीत – होरी में… आप  श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

 ☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 250 ☆

☆ एक बुंदेली गीत –  होरी में… ☆ श्री संतोष नेमा ☆

बिरहा  गा  रहो  श्रृंगार  होरी  में

सबै  खों छा रहो खुमार होरी में

*

रही  ने अब  सुध-बुध कोऊ खों

रंगों को  चढ़ रहो बुखार होरी में

*

ताक   लगाए   बैठी   है  बिरहन

जियरा हो  रहो बेकरार  होरी में

*

लरका –  बच्चा सभई  बौरा  रये

कोउ पै रहो ने ऐतवार  होरी  में

*

टेसू  पलाश  के  रंग  ने  दिखते

अब  छा रहो धूल गुबार होरी में

*

भंग  चढ़ा  लई  सबने  जम  खें

पी ख़ें ढूंढ रहो  अचार  होरी  में

*

ऐसों रंग  चढ़  गओ  सभई  खो

संतोष बन रहो रंगदार  होरी  में

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

वरिष्ठ लेखक एवं साहित्यकार

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 70003619839300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य # 243 ☆ सुखी संसाराची छाया ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 243 – विजय साहित्य ?

☆ सुखी संसाराची छाया ☆

(अष्टाक्षरी रचना)

परंपरा संस्कृतीत,

नारीशक्ती आहे वसा.

कर्तृत्वाची पराकाष्ठा,

संयमाचा दैवी ठसा…! १

*

गाते भुपाळी अंगाई,

नारी दळते दळण.

घर स्वच्छता पहाटे,

जमा करी सरपण…!२

*

लागे जीवनाचा कस,

होई सासुरासी जाच.

कसे जगावे जीवन,

सांगे आठवांना वाच…!३

*

पिढ्या पिढ्या राबतसे,

घर संसारात नारी.

पती मानुनी ईश्वर,

घेई कर्तृत्व भरारी…!४

*

कष्ट,त्याग, समर्पण

नाते संबंधांचा सेतू.

नारीशक्ती कर्मफल,

घरे जोडण्याचा हेतू…!५

*

माती आणि आभाळाशी,

नारी राखते इमान.

संगोपन छत्रछाया,

नारीशक्ती अभिमान…!६

*

नारी कालची आजची,

जपे स्वाभिमानी कणा.

कष्ट साध्य जीवनाची,

नारी चैतन्य चेतना…! ७

*

बदलले जरी रूप,

नाही  बदलली नारी.

अधिकार कर्तव्याची,

करे विश्वासाने वारी…!८

*

नारी आजची साक्षर,

करी कुटुंब‌ विचार.

सुख ,शांती, समाधान,

करी ऐश्वर्य साकार…!९

*

नर आणि नारी यांचा,

नारीशक्ती आहे बंध.

जाणिवांचा नेणिवांशी,

दरवळे भावगंध…!१०

*

देई कुटुंबास स्थैर्य,

नारीशक्ती प्रतिबिंब.

रवि तेज जागृतीचे,

जणू एक रविबिंब..! ११

*

नारी संसार सारथी,

नारी निजधामी पाया.

तिची कार्यशक्ती आहे,

सुखी संसाराची छाया…!१२

(महिला दिनानिमित्ताने‌ केलेली रचना)

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

सहकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – प्रतिमेच्या पलिकडले ☆ “पापी पेट का सवाल…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर ☆

श्री नंदकुमार पंडित वडेर

? प्रतिमेच्या पलिकडले ?

☆ “पापी पेट का सवाल…” ☆ श्री नंदकुमार पंडित वडेर 

खाजगी क्षेत्रातील कर्मचारीची स्थिती जे चित्रात दिसतयं त्याहून वेगळी आहे का हो?.. केवळ भारवाहू… धडधाकट शरीर प्रकृती आणि  अधिकाधिक कामं करण्याची उर्जा, क्षमता या बळावर डोळ्यासमोर दिसणारे, भेडसावणारे  त्याचे अनेक प्रश्न, समस्यांवर जास्तीत जास्त पैसा मिळवून तो सोडविण्याचा प्रयत्न करणारे… आपला मान.. सन्मान, अभिमान, स्वत्व या वैयक्तिक पण आपण माणूस आहोत कुणाचे गुलाम नव्हेत या गोष्टीला सोयिस्कर रित्या विसरून जाणारे… आकर्षक पॅकेज, बढतीची सहजी वाढणारी कमान, रेटिंग नि इन्सेंटीव्ह या भुलभुलैय्यात आपल्या तेज दिमागी बुद्धीला ओलीस ठेवणारे… कायम वरिष्ठांची इंग्रजाळलेल्या परिभाषेत.. यस सर.. आय विल डू दॅट… इनफक्ट आय वुड लाईक टू से.. सारखी हांजी हांजी ची गुळ पोळी तोंडात चघळणारे… टारगेट च्या भुताच्या हाडांची मोळी मधे बेसुमार वाढत जाणारी मागण्यांच्या हाडाच्या वजनाने आपली पाठ, कंबर खचेल, मोडेल.. मन थकेल. किंवा  आपल्याला पुढं चालता येणारचं नाही अशी अवस्था केली तरी.. आपला आवाक्याकडे डोळेझाक करून.. ये बिल्कुल हो जायेगा सर.. असा अंधविश्वास देणारे… आणि तो प्रत्यक्षात सार्थ न ठरवता आला तर ताशीव घडीव कारणांची मालिका समोर मांडून वरिष्ठांचा रोष ओढवून घेऊन साॅरी सर म्हणून आपलं अपयश पदरात पाडून घेताना… कामाचा मोबदल्यात अवाजवी घट  अनसंग एम्पलाॅयी म्हणून शिक्कामोर्तब करून घेणारे… स्वताच्या तसेच आपल्या कुटुंबाची पोटाची भूक मारत मारत कंपनी नि वरिष्ठांचं कधीही न भागणारी  नि  समाधानानं  कधीही तृप्त न होणाऱ्या भुकेची काळजी करता करता आपली सारी जिंदगी दाव पर लगा देणारे… ते ते सगळे… यात आपण सारे कमी अधिक प्रमाणात येतो बरं का… दोष त्यांचा किंवा आपला नसतोच मुळी.. तर हे घडवून आणणारी सगळी व्यवस्था दुषित आहे… जे शिक्षण देते त्याला रोजगार मिळत नसतो आणि रोजगार उपलब्ध आहेत त्याप्रमाणे शिक्षित कर्मचारी मिळत नाही.. इंग्रजांनी केवळ कारकून घडविणारी शिक्षणपद्धती इथे आणली राबवली आणि आपण आजही तीच पुढे राबवत आहोत… स्वातंत्र्य मिळून पंचाहत्तरी उलटूनही अजून शिक्षणव्यवस्थेची केवळ शकले करण्यात धन्यता मानून तरूण पिढीच्या स्वप्नाचे तिन तेरा वाजवले आहेत.. परिपूर्ण बुद्धिचातुर्य चा संस्कारी विध्यार्थी घडविण्याऐवजी एक बुध्दीभारवाहू परीक्षार्थीं मात्र घडवत गेलो… गाजराचे कवळ तोंडा समोर धरून  पळायला लावून भारवाही गर्दभासारखे   राबवले जाताना दिसते… लाखातून एखादाच तो या कळपातून बाहेर पडतो… स्वताची कुवत ओळखतो आणि बाजारात आजमवण्याचा प्रयत्न करतो… पण असे किती जण अगदी अगदी नगण्य… आणि बाकी सगळे पापी पेट का सवाल है भाई… म्हणत झुंडमें रहते है और चलते है…

©  श्री नंदकुमार इंदिरा पंडित वडेर

विश्रामबाग, सांगली

मोबाईल-99209 78470 ईमेल –[email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 148 ☆ बाँटने से बढ़ता है ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय बाल लघुकथा – बाँटने से बढ़ता है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 148 ☆

☆ बाल लघुकथा – बाँटने से बढ़ता है ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

ओंकार प्रतिदिन सूर्योदय के पहले ही उठ जाता और उगते हुए सूरज को प्रणाम करता था।उसके माता – पिता ने समझाया था कि ‘हमें प्रकृति के तत्वों – धरती, सूर्य, चंद्रमा, नदी, समुद्र, पेड़-पौधों सबकी रक्षा करनी चाहिए। हमें इनका आभार मानना चाहिए क्योंकि ये ही प्राणियों के जीवन को स्वस्थ तथा सानंद बनाते हैं। जब सर्दियों में धूप नहीं निकलती तब हमें कैसा लगता है? बारिश नहीं होती तो किसानों के खेत सूखने लगते हैं, तब हम सब कितना परेशान होते हैं।‘ 

ओंकार सातवीं कक्षा में पढ़ता था। उसने अपने मित्रों को भी ये बातें बताई, सब खुश हो गए। सबने तय कि कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे पर्यावरण को हानि पहुँचे।

ओंकार रोज सुबह होते ही घर की छत पर पहुँच जाता। सुबह की ताजी हवा उसे बहुत भाती।ऐसा लगता मानों ऑक्सीजन सीधे फेफड़ों में भर रही हो। सूरज निकलने तक वह पूरब दिशा की ओर मुँह करके, हाथ जोड़कर खड़ा रहता। आकाश में सूरज की लालिमा झलकने लगती। सूर्योदय का दृश्य बड़ा ही मनमोहक होता है। सफेद – नीला आकाश और उसमें सूर्य – किरणों की लालिमा ! रंगों का कैसा सुंदर मेल ,ऐसा लगता मानों किसी कलाकार ने सिंदूरी रंग आकाश में बिखेर दिया हो। पल भर में ही सूरज का प्रकाश पूरे आकाश में पसर जाता। तेज रोशनी से धरती जगमगा उठती है। चिड़िया चहचहाने लगतीं। पशु – पक्षी मनुष्य सभी उत्साहपूर्वक काम में लग जाते। वह अक्सर सोचता – ‘सूर्य भगवान के पास प्रकाश का भंडार है क्या ? संपूर्ण विश्व को प्रकाश देते हैं पर रोज सुबह वैसे ही चमचमाते आकाश में विराजमान | तेज इतना कि सूरज की ओर आंख उठाकर देखना भी कठिन |’

एक दिन ओंकार ने सूरज से पूछ ही लिया – “आपके पास इतना प्रकाश, इतना तेज कहाँ से आता है? चंद्रमा घटता – बढ़ता रहता है लेकिन आप तो रोज एक जैसे ही दिखते हो?”

सूर्यदेव मुस्कुराए – बड़े प्रेम से अपनी सुनहरी किरणों से ओंकार के सिर पर मानों हाथ फेरते हुए बोले –“बेटा! मेरा प्रकाश बाँटने से बढ़ता है। यह संपूर्ण विश्व के प्राणियों को जीवन देता है,उनमें चेतना जगाता है। जब मैं बादलों से ढंका रहता हूँ तब भी तुम सबके पास ही रहता हूँ। प्रकाश, तेज, ज्ञान, विद्या, इन्हें नाम चाहे कुछ भी दो,ये ऐसा धन है जो बाँटने से बढ़ता है। जितना ज़्यादा  दूसरों के काम आता है उतना बढ़ता जाता है।“

ओंकार प्रफुल्लित हो गया। सूर्य के प्रकाश के भंडार का राज उसे समझ में आ गया था। ओंकार ने यह बात गाँठ बाँध ली थी कि ‘हमें जीवन में खूब मेहनत से ज्ञान प्राप्त कर समाज की सेवा करनी चाहिए, जैसे सूरज करता है अनंत काल से पृथ्वी की |”

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 234 ☆ उम्मीद के द्वारे, नेह निहारे…… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना उम्मीद के द्वारे, नेह निहारे। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – आलेख  # 234 ☆ 

☆ उम्मीद के द्वारे, नेह निहारे

साथ में जब आपका, विश्वास मिलने लग गया।

आसरा उम्मीद वाला, भाव हिय में जग गया। ।

नेह का बंधन अनोखा, जुड़ गए जिससे सभी।

प्रीत की चलना डगर पर, भावनाएँ शुभ तभी। ।

कर्म का फल अवश्य सम्भावी है, ये बात गीता में कही गयी है। और इसी से प्रेरित हो लोग निरन्तर कर्म में जुटे रहते हैं, बिना फल की आशा किए। कोई उम्मीद न रखना   तो सही है किन्तु इसका परिणाम क्या होगा ये चिन्तन न करना कहाँ की समझदारी होगी।

अक्सर लोग ये कहते हुए पल्ला झाड़ लेते हैं कि मैंने तो सब कुछ सही किया था, पर  लोगों का सहयोग नहीं मिला  जिससे सुखद परिणाम  नहीं आ सके। क्या इस बात का मूल्यांकन नहीं होना चाहिए कि लोग क्यों  कुछ  दिनों में ही दूर हो जाते हैं …? क्या सभी स्वार्थी हैं या जिस इच्छा से वे जुड़े  वो  पूरी नहीं हो  सकती इसलिए मार्ग बदलना  एकमात्र उपाय बचता है।

कारण चाहे कुछ भी हो पर इतना तो निश्चित है कि सही योजना द्वारा ही लक्ष्य मिला है केवल परिश्रम किसी परिणाम को सुखद  नहीं बना सकता उसके लिए सही राह,श्रेष्ठ विचार व नेहिल भावना की महती आवश्यकता होती है।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 42 – बात कम, घोटाला ज़्यादा! ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ ☆

डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना बात कम, घोटाला ज़्यादा!)  

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 42 – बात कम, घोटाला ज़्यादा! ☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

गांव का चौपाल हमेशा चर्चा का अखाड़ा बना रहता है। चौधरी रामलाल अपनी खटिया पर टाँग पर टाँग रखकर विराजमान थे, और बाकी लोग ज़मीन पर थे—क्योंकि उनकी कुर्सियाँ विकास कार्यों की भेट चढ़ चुकी थीं।

“भइया, ये सड़क कब बनेगी?” रमुआ ने भोलेपन से पूछा।

रामलाल ने मूंछों पर ताव दिया, ज़मीन पर थूककर निशाना लगाया और बोले, “सड़क? अरे बेटा, जरूर बनेगी! पर पहले सरकार ये तय करेगी कि इसका उद्घाटन मंत्री जी करेंगे या उनका भांजा!”

गांववालों ने ठहाका लगाया, क्योंकि अब वे भी व्यंग्य समझने लगे थे।

पहलवान काका, जो अब पहलवानी छोड़कर सरकारी फाइलें उठाने-धरने में एक्सपर्ट हो चुके थे, बोले, “रामलाल, सुना है कि हमारे गांव का नाम विकास योजना में आ गया है!”

रामलाल मुस्कुराए, “बिल्कुल! नाम तो 10 साल पहले भी आया था, तब भी विकास हुआ था… मगर सिर्फ कागजों पर! सरकार बहुत दूर की सोचती है, सड़क बनाने की क्या ज़रूरत? सीधे गड्ढे बना दो! जब सड़क गिरेगी तो मुआवजा जल्दी मिलेगा!”

इतना सुनते ही गंगू काका ने अपनी चिलम सुलगाई और बोले, “हमारे नेताजी भी बड़े कलाकार हैं। पहले जनता को मुसीबत में डालते हैं, फिर उसे हल करने का वादा करके वोट मांगते हैं। मतलब बीमारी भी वही देते हैं और इलाज भी वही बेचते हैं!”

भोलू ने गब्बर सिंह स्टाइल में सवाल दागा, “तो काका, इस बार चुनाव में कौन जीतेगा?”

रामलाल ने कंधे उचकाए, “जिसका घोटाला सबसे नया होगा, वही जीतेगा! पुराने घोटाले तो पुरानी फिल्मों की तरह आउटडेटेड हो जाते हैं। अब बताओ, कोई पुरानी फिल्म बार-बार देखने जाता है क्या?”

अब तक गांववालों का खून खौलने लगा था। हरिया, जो सबसे गरीब था लेकिन सबसे होशियार भी, उठकर बोला, “तो हम क्या करें? कब तक ऐसे ही मूर्ख बनते रहेंगे?”

रामलाल ने ठहाका लगाया, “बेटा, जनता से बड़ा मूर्ख कोई नहीं होता। उसे हर बार ठगा जाता है, और वो फिर भी सोचती है कि अगली बार ईमानदार नेता आएगा! ये वैसा ही है जैसे कोई उम्मीद करे कि अगली बार समुंदर का पानी मीठा होगा!”

गांव के सबसे अनुभवी आदमी, बूढ़े फगुआ काका ने लंबी सांस खींची और बोले, “देखो भइया, हमारे देश में नेता और जूते में फर्क सिर्फ इतना है कि जूते जब पुराने हो जाते हैं, तो लोग उन्हें बदल देते हैं। नेता जब पुराने हो जाते हैं, तो वही हमें बदल देते हैं!”

इतना सुनते ही वहां मौजूद हर आदमी कुछ देर के लिए चुप हो गया। जैसे सत्य उनके सिर पर किसी भारी पत्थर की तरह आ गिरा हो। मगर फिर धीरे-धीरे हर कोई अपनी ज़िंदगी में व्यस्त हो गया, ठीक वैसे ही जैसे हर चुनाव के बाद जनता व्यस्त हो जाती है, अगली ठगी के लिए खुद को तैयार करने में!

क्योंकि आखिर में, “बात कम, घोटाला ज़्यादा!”

© डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’

संपर्क : चरवाणीः +91 73 8657 8657, ई-मेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 339 ☆ आलेख – “महिलाओ में है नव निर्माण की ताकत…” ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 339 ☆

?  आलेख – महिलाओ में है नव निर्माण की ताकत…  ? श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

एक अदृश्य शक्ति, जिसे आध्यात्मिक दृष्टि से हम परमात्मा कहते हैं, इस सृष्टि का निर्माण कर्ता, नियंत्रक व संचालक है. स्थूल वैज्ञानिक दृष्टि से इसी अद्भुत शक्ति को प्रकृति के रूप में स्वीकार किया जाता है. स्वयं इसी ईश्वरीय शक्ति या प्रकृति ने अपने अतिरिक्त यदि किसी को नैसर्गिक रूप से जीवन देने तथा पालन पोषण करने की शक्ति दी है तो वह महिला ही है.

समाज के विकास में महिलाओ की महति भूमिका निर्विवाद एवं महत्वपूर्ण है.

समाज, राष्ट्र की इकाई होता है और समाज की इकाई परिवार, तथा हर परिवार की आधारभूत अनिवार्य इकाई महिला ही होती है. परिवार में पत्नी के रूप में, महिला पुरुष की प्रेरणा होती है. वह माँ के रूप में बच्चों की जीवन दायिनी, ममता की प्रतिमूर्ति बनकर उनकी परिपोषिका तथा पहली शिक्षिका की भूमिका का निर्वाह करती है. इस तरह परिवार के सदस्यों के चरित्र निर्माण व बच्चों को सुसंस्कार देने में घर की महिलाओ का प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष योगदान स्वप्रमाणित है.

विधाता के साकार प्रतिनिधि के रूप में महिला सृष्टि की संचालिका है, सामाजिक दायित्वों की निर्वाहिका है, समाज का गौरव है। महिलाओं ने अपने इस गौरव को त्याग से सजाया और तप से निखारा है, समर्पण से उभारा और श्रद्धा से संवारा है. विश्व इतिहास साक्षी है कि महिलाओं ने सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विभिन्न क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास किया है, एवं निरंतर योगदान कर रहीं हैं. बहुमुखी गुणों से अलंकृत नारी समाज के महाप्रासाद की अविचल निर्माता है. नारी चरित्र, शील, दया और करूणा के साथ शक्ति और चातुर्य का समग्र सवरूप है.

कन्या भ्रूण हत्या, स्तनपान को बढ़ावा देना, दहेज की समस्या, अश्लील विज्ञापनों में नारी अंग प्रदर्शन, स्त्री शिक्षा को बढ़ावा, घर परिवार समाज में महिलाओ को पुरुषों की बराबरी का दर्जा दिया जाने का संघर्ष, सरकार में स्त्रियों की अनिवार्य भागीदारी सुनिश्चित करना आदि वर्तमान समय की नारी विमर्श से सीधी जुड़ी वे ज्वलंत सामाजिक समस्यायें हैं, जो यक्ष प्रश्न बनकर हमारे सामने खड़ी हैं. इनके सकारात्मक उत्तर में आज की पीढ़ी की महिलाओ की विशिष्ट भूमिका ही उस नव समाज का निर्माण कर सकती है, जहां पुरुष व नारी दो बराबरी के तथा परस्पर पूरक की भूमिका में हों.

पौराणिक संदर्भो को देखें तो दुर्गा, शक्ति का रूप हैं. उनमें संहार की क्षमता है तो सृजन की असीमित संभावना भी निहित है. जब देवता, महिषासुर से संग्राम में हार गये और उनका ऐश्वर्य, श्री और स्वर्ग सब छिन गया तब वे दीन-हीन दशा में भगवान के पास पहुँचे। भगवान के सुझाव पर सबने अपनी सभी शक्तियॉं एक साथ समग्रता में समाहित करने से शक्ति स्वरूपा दुर्गा उत्पन्न हुई. पुराणों में दुर्गा के वर्णन के अनुसार, उनके अनेक सिर हैं, अनेक हाथ हैं. प्रत्येक हाथ में वे अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुये हैं. सिंह, जो साहस का प्रतीक है, उनका वाहन है. ऐसी शक्ति की देवी ने महिषासुर का वध किया. वे महिषासुर मर्दनी कहलायीं. यह कथा संगठन की एकता का महत्व प्रतिपादित करती है. शक्ति, संगठन की एकता में ही है. संगठन के सदस्यों के सहस्त्रों सिर और असंख्य हाथ हैं. साथ चलेंगे तो हमेशा जीत का सेहरा बंधेगा. देवताओं को जीत तभी मिली जब उन्होने अपनी शक्ति एकजुट की. दुर्गा, शक्तिमयी हैं, लेकिन क्या आज की महिला शक्तिमयी है ? क्या उसका सशक्तिकरण हो चुका है? शायद समाज के सर्वांगिणी विकास में सशक्त महिला और भी बेहतर भूमिका का निर्वहन कर सकती हैं. वर्तमान सरकारें इस दिशा में कानूनी प्रावधान बनाने हेतु प्रयत्नशील हैं, यह शुभ लक्षण है. प्रतिवर्ष ८ मार्च को समूचा विश्व महिला दिवस मनाता है, यह समाज के विकास में महिलाओं की भूमिका के प्रति समाज की कृतज्ञता का ज्ञापन ही है.

ममता है माँ की, साधना, श्रद्धा का रूप है

लक्ष्मी, कभी सरस्वती, दुर्गा अनूप है

नव सृजन की संवृद्धि की एक शक्ति है नारी

परमात्मा और प्रकृति की अभिव्यक्ति है नारी

नारी है धरा, चाँदनी, अभिसार, प्यार भी

पर वस्तु नही, एक पूर्ण व्यक्ति है नारी

आवश्यकता यही है कि नारी को समाज के अनिवार्य घटक के रूप में बराबरी और सम्मान के साथ स्वीकार किया जावे. समाज के विकास में महिलाओ का योगदान स्वतः ही निर्धारित होता आया है, रणभूमि पर विश्व की पहली महिला योद्धा रानी दुर्गावती हो, रानी लक्ष्मी बाई का पहले स्वतंत्रता संग्राम में योगदान हो, इंदिरा गांधी का राजनैतिक नेतृत्व हो या विकास का अन्य कोई भी क्षेत्र अनेकानेक उदाहरण हमारे सामने हैं. आगे भी समाज के विकास की इस भूमिका का निर्वाह महिलायें स्वयं ही करने में सक्षम रहेंगी.

कल्पना” हो या “सुनीता” गगन में, “सोनिया” या “सुष्मिता”

रच रही वे पाठ, खुद जो, पढ़ रही हैं ये किशोरी लड़कियां

बस समाज को नारी सशक्तिकरण की दिशा में प्रयत्नशील रहने, और महिलाओ के सतत योगदान को कृतज्ञता व सम्मान के साथ अंगीकार करने की जरूरत है.

© श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

म प्र साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ व्यंग्यकार

संपर्क – ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798, ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 241 ☆ बाल गीत – झूम रहीं टेसू की डालें… ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆ —

डॉ राकेश ‘चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक लगभग तेरह दर्जन से अधिक मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग चार दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान  के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान  सहित  बारह दर्जन से अधिक राजकीय प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर राजकीय साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।

आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य प्रत्येक गुरुवार को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 241 ☆ 

☆ बाल गीत – झूम रहीं टेसू की डालें…  ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

झूम रही टेसू की डालें

बहे समीर सुगंधित  है।

झूम रहीं मिल नृत्य कर रहीं

मन मेरा आनन्दित है।।

 *

जंगल की शोभा है न्यारी

मन को सहज लुभाती है

छिपी – छिपी पत्तों में कोयल

मधुरिम गीत सुनाती है

 *

अद्भुत आभा देख लग रहा

सृष्टि ईश की वंदित है।

झूम रहीं टेसू की डालें

बहे समीर सुंगंधित है।।

 *

उड़ें तितलियाँ मधु रस पीएं

कभी बैठतीं इठलाएँ

सबके ही उर को ये भाएँ

अनगिन आतुर कलिकाएं

 *

मधुपों की बासन्ती ऋतु में

मृदु- गुंजार तरंगित है।

झूम रहीं टेसू की डालें

बहे समीर सुगंधित है।।

 *

लाया है मधुमास छटाएँ

झूम उठी है अमराई

अनगिन पंछी मधुर तान में

बजा रहे हैं शहनाई

 *

डाल पात सब सोनचिरैया

जंगल ये अभिनंदित है।

झूम रहीं टेसू की डालें

बहे समीर सुगंधित है।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ संत गजानन महाराज..! ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ संत गजानन महाराज..! 

☆ 

भारतीय हिंदू गुरू,

शेगावीचे गजानन.

बुलढाणा जिल्ह्यातील

असे जागृत सदन.

*

वर्ण तेजस्वी तांबूस,

सहा फूट उंच योगी.

तुरळक दाढी केस,

दिगंबर संत जोगी.

*

दिगंबर अवस्थेत ,

केले व्यतीत जीवन.

जीव शिव मिलनात,

समर्पित तन मन.

*

सर्व सामान्यांचे खाणे,

हाच त्यांचाही आहार.

नाही पक्वानाचा शौक,

अन्न जीवनाचे सार .

*

कधी हिरव्या मिरच्या,

कधी झुणका भाकर .

अंबाडीची भाजी कधी,

कधी पिठाची साखर.

*

अंगणात ओसरीत,

भक्तालागी सहवास .

कधी भाकर तुकडा,

कधी कोरडा प्रवास.

*

जन जीवन सामान्य,

चहा चिलीम आवड.

भक्तोद्धारासाठी घेई,

जन सेवेची कावड.

*

सोडा गर्व अहंकार,

नको खोट्याचा आधार.

विघातक कर्मकांडी,

केला कठोर प्रहार.

*

शिस्त स्वच्छता शांतता ,

सेवाभावी सेवेकरी .

विधीवत पुजार्चना,

चिंता क्लेश दूर करी.

*

कथा सार उपासना,

गणी गण गणातला.

परब्रम्ह आले घरा ,

मंत्रजप मनातला.

*

गूढवादी संत थोर,

जणू अवलिया बाबा.

कधी गणपत बुवा,

घेती भाविकांचा ताबा.

*

हातामध्ये पिळूनीया,

रस उसाचा काढला.

कोरड्याश्या विहिरीत,

साठा पाण्याचा आणला.

*

कुष्ठरोगी केला बरा,

भक्ता दिले जीवदान.

गजानन योगियाचे ,

लिलामृत महिमान.

*

शिवजयंतीची सभा,

लोकमान्य गाठभेट.

गजानन भाकीताची,

मिळे अनुभूती थेट.

*

कोण कोठीचा कळेना ,

सांगे ब्रम्हाचा ठिकाणा .

परब्रम्ह मूर्त योगी,

असे शेगावीचा राणा.

*

शुद्ध ब्रम्ह हे निर्गुण ,

जग त्यातून निर्माण .

ब्रम्ह रस माधुर्याचा ,

योगीराज हा प्रमाण.

*

कर्म,भक्ती, ज्ञानयोग ,

योगशास्त्र जाणकार.

लक्षावधी अनुयायी,

घेती नित्य साक्षात्कार.

*

श्रेष्ठतेचा संतत्वाचा,

मठ संस्थानाचा खास.

समाधीस्त गजानन,

भक्ता लाभे सहवास.

*

कुशावर्ती नित्य भेट ,

केली पंढरीची वारी.

ब्रम्ह गिरी प्रदक्षिणा,

असे चैतन्य भरारी.

*

पंढरीच्या वारीमध्ये,

संत पालखी मानाची.

गावोगावी प्रासादिक,

कृपा छाया देवत्वाची.

*

लिला चरीत्र कथन ,

गजानन विजयात.

दासगणू शब्दांकीत,

ग्रंथ पारायण ख्यात.

*

आधुनिक संत श्रेष्ठ,

घ्यावी त्याची अनुभूती.

शेगावीचा योगीराणा,

संतवारी श्रृती स्मृती.

–गण गण गणात बोते–

© श्री सुजित कदम

मो.7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #270 – कविता – नश्वरता में है नवीनता… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष—  सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता नश्वरता में है नवीनता” ।)

☆ तन्मय साहित्य  #270 ☆

☆ नश्वरता में है नवीनता… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

कल के फूल आज मुरझाये

नये फूल शाखों पर आये

नश्वरता में है नवीनता

जन्म-मृत्यु के सूत्र सिखाये।

 

एक जगह रुक जाए नदिया

क्या उसका जल शुद्ध रहेगा

है सौंदर्य स्वच्छता तब ही

जब सरिता जल सतत बहेगा,

इस अनित्य में नित्य बोध का

बहती नदिया पाठ पढ़ाये

नये फूल शाखों पर आये….

 

नये धान्य तब ही उपजेंगे

बीज स्वत्व खुद का खोयेंगे

पंचतत्व में हो विलीन फिर

नये अंकुरण, जब बोयेंगे

सृजन-ध्वंस के प्रकृतिस्थ क्रम

जीवन के नव-रूप दिखाये

नये फूल शाखों पर आये….

 

नष्ट नहीं होता कुछ जग में

रूपांतरण नया  होता है

यह नियति का नियम अनूठा

मिले नहीं अग्रिम न्योता है,

स्वीकारें विधि के विधान को

हम अपने कर्तव्य निभाएँ

नये फूल शाखों पर आये….

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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