(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी – एक बुंदेली गीत – होरी में…। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)
खाजगी क्षेत्रातील कर्मचारीची स्थिती जे चित्रात दिसतयं त्याहून वेगळी आहे का हो?.. केवळ भारवाहू… धडधाकट शरीर प्रकृती आणि अधिकाधिक कामं करण्याची उर्जा, क्षमता या बळावर डोळ्यासमोर दिसणारे, भेडसावणारे त्याचे अनेक प्रश्न, समस्यांवर जास्तीत जास्त पैसा मिळवून तो सोडविण्याचा प्रयत्न करणारे… आपला मान.. सन्मान, अभिमान, स्वत्व या वैयक्तिक पण आपण माणूस आहोत कुणाचे गुलाम नव्हेत या गोष्टीला सोयिस्कर रित्या विसरून जाणारे… आकर्षक पॅकेज, बढतीची सहजी वाढणारी कमान, रेटिंग नि इन्सेंटीव्ह या भुलभुलैय्यात आपल्या तेज दिमागी बुद्धीला ओलीस ठेवणारे… कायम वरिष्ठांची इंग्रजाळलेल्या परिभाषेत.. यस सर.. आय विल डू दॅट… इनफक्ट आय वुड लाईक टू से.. सारखी हांजी हांजी ची गुळ पोळी तोंडात चघळणारे… टारगेट च्या भुताच्या हाडांची मोळी मधे बेसुमार वाढत जाणारी मागण्यांच्या हाडाच्या वजनाने आपली पाठ, कंबर खचेल, मोडेल.. मन थकेल. किंवा आपल्याला पुढं चालता येणारचं नाही अशी अवस्था केली तरी.. आपला आवाक्याकडे डोळेझाक करून.. ये बिल्कुल हो जायेगा सर.. असा अंधविश्वास देणारे… आणि तो प्रत्यक्षात सार्थ न ठरवता आला तर ताशीव घडीव कारणांची मालिका समोर मांडून वरिष्ठांचा रोष ओढवून घेऊन साॅरी सर म्हणून आपलं अपयश पदरात पाडून घेताना… कामाचा मोबदल्यात अवाजवी घट अनसंग एम्पलाॅयी म्हणून शिक्कामोर्तब करून घेणारे… स्वताच्या तसेच आपल्या कुटुंबाची पोटाची भूक मारत मारत कंपनी नि वरिष्ठांचं कधीही न भागणारी नि समाधानानं कधीही तृप्त न होणाऱ्या भुकेची काळजी करता करता आपली सारी जिंदगी दाव पर लगा देणारे… ते ते सगळे… यात आपण सारे कमी अधिक प्रमाणात येतो बरं का… दोष त्यांचा किंवा आपला नसतोच मुळी.. तर हे घडवून आणणारी सगळी व्यवस्था दुषित आहे… जे शिक्षण देते त्याला रोजगार मिळत नसतो आणि रोजगार उपलब्ध आहेत त्याप्रमाणे शिक्षित कर्मचारी मिळत नाही.. इंग्रजांनी केवळ कारकून घडविणारी शिक्षणपद्धती इथे आणली राबवली आणि आपण आजही तीच पुढे राबवत आहोत… स्वातंत्र्य मिळून पंचाहत्तरी उलटूनही अजून शिक्षणव्यवस्थेची केवळ शकले करण्यात धन्यता मानून तरूण पिढीच्या स्वप्नाचे तिन तेरा वाजवले आहेत.. परिपूर्ण बुद्धिचातुर्य चा संस्कारी विध्यार्थी घडविण्याऐवजी एक बुध्दीभारवाहू परीक्षार्थीं मात्र घडवत गेलो… गाजराचे कवळ तोंडा समोर धरून पळायला लावून भारवाही गर्दभासारखे राबवले जाताना दिसते… लाखातून एखादाच तो या कळपातून बाहेर पडतो… स्वताची कुवत ओळखतो आणि बाजारात आजमवण्याचा प्रयत्न करतो… पण असे किती जण अगदी अगदी नगण्य… आणि बाकी सगळे पापी पेट का सवाल है भाई… म्हणत झुंडमें रहते है और चलते है…
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है स्त्री विमर्श पर आधारित एक विचारणीय बाल लघुकथा – ‘बाँटने से बढ़ता है‘। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 148 ☆
☆ बाल लघुकथा – बाँटने से बढ़ता है☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆
ओंकार प्रतिदिन सूर्योदय के पहले ही उठ जाता और उगते हुए सूरज को प्रणाम करता था।उसके माता – पिता ने समझाया था कि ‘हमें प्रकृति के तत्वों – धरती, सूर्य, चंद्रमा, नदी, समुद्र, पेड़-पौधों सबकी रक्षा करनी चाहिए। हमें इनका आभार मानना चाहिए क्योंकि ये ही प्राणियों के जीवन को स्वस्थ तथा सानंद बनाते हैं। जब सर्दियों में धूप नहीं निकलती तब हमें कैसा लगता है? बारिश नहीं होती तो किसानों के खेत सूखने लगते हैं, तब हम सब कितना परेशान होते हैं।‘
ओंकार सातवीं कक्षा में पढ़ता था। उसने अपने मित्रों को भी ये बातें बताई, सब खुश हो गए। सबने तय कि कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे पर्यावरण को हानि पहुँचे।
ओंकार रोज सुबह होते ही घर की छत पर पहुँच जाता। सुबह की ताजी हवा उसे बहुत भाती।ऐसा लगता मानों ऑक्सीजन सीधे फेफड़ों में भर रही हो। सूरज निकलने तक वह पूरब दिशा की ओर मुँह करके, हाथ जोड़कर खड़ा रहता। आकाश में सूरज की लालिमा झलकने लगती। सूर्योदय का दृश्य बड़ा ही मनमोहक होता है। सफेद – नीला आकाश और उसमें सूर्य – किरणों की लालिमा ! रंगों का कैसा सुंदर मेल ,ऐसा लगता मानों किसी कलाकार ने सिंदूरी रंग आकाश में बिखेर दिया हो। पल भर में ही सूरज का प्रकाश पूरे आकाश में पसर जाता। तेज रोशनी से धरती जगमगा उठती है। चिड़िया चहचहाने लगतीं। पशु – पक्षी मनुष्य सभी उत्साहपूर्वक काम में लग जाते। वह अक्सर सोचता – ‘सूर्य भगवान के पास प्रकाश का भंडार है क्या ? संपूर्ण विश्व को प्रकाश देते हैं पर रोज सुबह वैसे ही चमचमाते आकाश में विराजमान | तेज इतना कि सूरज की ओर आंख उठाकर देखना भी कठिन |’
एक दिन ओंकार ने सूरज से पूछ ही लिया – “आपके पास इतना प्रकाश, इतना तेज कहाँ से आता है? चंद्रमा घटता – बढ़ता रहता है लेकिन आप तो रोज एक जैसे ही दिखते हो?”
सूर्यदेव मुस्कुराए – बड़े प्रेम से अपनी सुनहरी किरणों से ओंकार के सिर पर मानों हाथ फेरते हुए बोले –“बेटा! मेरा प्रकाश बाँटने से बढ़ता है। यह संपूर्ण विश्व के प्राणियों को जीवन देता है,उनमें चेतना जगाता है। जब मैं बादलों से ढंका रहता हूँ तब भी तुम सबके पास ही रहता हूँ। प्रकाश, तेज, ज्ञान, विद्या, इन्हें नाम चाहे कुछ भी दो,ये ऐसा धन है जो बाँटने से बढ़ता है। जितना ज़्यादा दूसरों के काम आता है उतना बढ़ता जाता है।“
ओंकार प्रफुल्लित हो गया। सूर्य के प्रकाश के भंडार का राज उसे समझ में आ गया था। ओंकार ने यह बात गाँठ बाँध ली थी कि ‘हमें जीवन में खूब मेहनत से ज्ञान प्राप्त कर समाज की सेवा करनी चाहिए, जैसे सूरज करता है अनंत काल से पृथ्वी की |”
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “उम्मीद के द्वारे, नेह निहारे… ”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – आलेख # 234 ☆
☆ उम्मीद के द्वारे, नेह निहारे… ☆
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साथ में जब आपका, विश्वास मिलने लग गया।
आसरा उम्मीद वाला, भाव हिय में जग गया। ।
नेह का बंधन अनोखा, जुड़ गए जिससे सभी।
प्रीत की चलना डगर पर, भावनाएँ शुभ तभी। ।
कर्म का फल अवश्य सम्भावी है, ये बात गीता में कही गयी है। और इसी से प्रेरित हो लोग निरन्तर कर्म में जुटे रहते हैं, बिना फल की आशा किए। कोई उम्मीद न रखना तो सही है किन्तु इसका परिणाम क्या होगा ये चिन्तन न करना कहाँ की समझदारी होगी।
अक्सर लोग ये कहते हुए पल्ला झाड़ लेते हैं कि मैंने तो सब कुछ सही किया था, पर लोगों का सहयोग नहीं मिला जिससे सुखद परिणाम नहीं आ सके। क्या इस बात का मूल्यांकन नहीं होना चाहिए कि लोग क्यों कुछ दिनों में ही दूर हो जाते हैं …? क्या सभी स्वार्थी हैं या जिस इच्छा से वे जुड़े वो पूरी नहीं हो सकती इसलिए मार्ग बदलना एकमात्र उपाय बचता है।
कारण चाहे कुछ भी हो पर इतना तो निश्चित है कि सही योजना द्वारा ही लक्ष्य मिला है केवल परिश्रम किसी परिणाम को सुखद नहीं बना सकता उसके लिए सही राह,श्रेष्ठ विचार व नेहिल भावना की महती आवश्यकता होती है।
(डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ एक प्रसिद्ध व्यंग्यकार, बाल साहित्य लेखक, और कवि हैं। उन्होंने तेलंगाना सरकार के लिए प्राथमिक स्कूल, कॉलेज, और विश्वविद्यालय स्तर पर कुल 55 पुस्तकों को लिखने, संपादन करने, और समन्वय करने में महत्वपूर्ण कार्य किया है। उनके ऑनलाइन संपादन में आचार्य रामचंद्र शुक्ला के कामों के ऑनलाइन संस्करणों का संपादन शामिल है। व्यंग्यकार डॉ. सुरेश कुमार मिश्र ने शिक्षक की मौत पर साहित्य आजतक चैनल पर आठ लाख से अधिक पढ़े, देखे और सुने गई प्रसिद्ध व्यंग्यकार के रूप में अपनी पहचान स्थापित की है। तेलंगाना हिंदी अकादमी, तेलंगाना सरकार द्वारा श्रेष्ठ नवयुवा रचनाकार सम्मान, 2021 (तेलंगाना, भारत, के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के करकमलों से), व्यंग्य यात्रा रवींद्रनाथ त्यागी सोपान सम्मान (आदरणीय सूर्यबाला जी, प्रेम जनमेजय जी, प्रताप सहगल जी, कमल किशोर गोयनका जी के करकमलों से), साहित्य सृजन सम्मान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के करकमलों से और अन्य कई महत्वपूर्ण प्रतिष्ठात्मक सम्मान प्राप्त हुए हैं। आप प्रत्येक गुरुवार डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – चुभते तीर में उनकी अप्रतिम व्यंग्य रचनाओं को आत्मसात कर सकेंगे। इस कड़ी में आज प्रस्तुत है आपकी विचारणीय व्यंग्य रचना बात कम, घोटाला ज़्यादा!।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ चुभते तीर # 42 – बात कम, घोटाला ज़्यादा!☆ डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’☆
(तेलंगाना साहित्य अकादमी से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)
गांव का चौपाल हमेशा चर्चा का अखाड़ा बना रहता है। चौधरी रामलाल अपनी खटिया पर टाँग पर टाँग रखकर विराजमान थे, और बाकी लोग ज़मीन पर थे—क्योंकि उनकी कुर्सियाँ विकास कार्यों की भेट चढ़ चुकी थीं।
“भइया, ये सड़क कब बनेगी?” रमुआ ने भोलेपन से पूछा।
रामलाल ने मूंछों पर ताव दिया, ज़मीन पर थूककर निशाना लगाया और बोले, “सड़क? अरे बेटा, जरूर बनेगी! पर पहले सरकार ये तय करेगी कि इसका उद्घाटन मंत्री जी करेंगे या उनका भांजा!”
गांववालों ने ठहाका लगाया, क्योंकि अब वे भी व्यंग्य समझने लगे थे।
पहलवान काका, जो अब पहलवानी छोड़कर सरकारी फाइलें उठाने-धरने में एक्सपर्ट हो चुके थे, बोले, “रामलाल, सुना है कि हमारे गांव का नाम विकास योजना में आ गया है!”
रामलाल मुस्कुराए, “बिल्कुल! नाम तो 10 साल पहले भी आया था, तब भी विकास हुआ था… मगर सिर्फ कागजों पर! सरकार बहुत दूर की सोचती है, सड़क बनाने की क्या ज़रूरत? सीधे गड्ढे बना दो! जब सड़क गिरेगी तो मुआवजा जल्दी मिलेगा!”
इतना सुनते ही गंगू काका ने अपनी चिलम सुलगाई और बोले, “हमारे नेताजी भी बड़े कलाकार हैं। पहले जनता को मुसीबत में डालते हैं, फिर उसे हल करने का वादा करके वोट मांगते हैं। मतलब बीमारी भी वही देते हैं और इलाज भी वही बेचते हैं!”
भोलू ने गब्बर सिंह स्टाइल में सवाल दागा, “तो काका, इस बार चुनाव में कौन जीतेगा?”
रामलाल ने कंधे उचकाए, “जिसका घोटाला सबसे नया होगा, वही जीतेगा! पुराने घोटाले तो पुरानी फिल्मों की तरह आउटडेटेड हो जाते हैं। अब बताओ, कोई पुरानी फिल्म बार-बार देखने जाता है क्या?”
अब तक गांववालों का खून खौलने लगा था। हरिया, जो सबसे गरीब था लेकिन सबसे होशियार भी, उठकर बोला, “तो हम क्या करें? कब तक ऐसे ही मूर्ख बनते रहेंगे?”
रामलाल ने ठहाका लगाया, “बेटा, जनता से बड़ा मूर्ख कोई नहीं होता। उसे हर बार ठगा जाता है, और वो फिर भी सोचती है कि अगली बार ईमानदार नेता आएगा! ये वैसा ही है जैसे कोई उम्मीद करे कि अगली बार समुंदर का पानी मीठा होगा!”
गांव के सबसे अनुभवी आदमी, बूढ़े फगुआ काका ने लंबी सांस खींची और बोले, “देखो भइया, हमारे देश में नेता और जूते में फर्क सिर्फ इतना है कि जूते जब पुराने हो जाते हैं, तो लोग उन्हें बदल देते हैं। नेता जब पुराने हो जाते हैं, तो वही हमें बदल देते हैं!”
इतना सुनते ही वहां मौजूद हर आदमी कुछ देर के लिए चुप हो गया। जैसे सत्य उनके सिर पर किसी भारी पत्थर की तरह आ गिरा हो। मगर फिर धीरे-धीरे हर कोई अपनी ज़िंदगी में व्यस्त हो गया, ठीक वैसे ही जैसे हर चुनाव के बाद जनता व्यस्त हो जाती है, अगली ठगी के लिए खुद को तैयार करने में!
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – “महिलाओ में है नव निर्माण की ताकत…” ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 339 ☆
आलेख – महिलाओ में है नव निर्माण की ताकत… श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
एक अदृश्य शक्ति, जिसे आध्यात्मिक दृष्टि से हम परमात्मा कहते हैं, इस सृष्टि का निर्माण कर्ता, नियंत्रक व संचालक है. स्थूल वैज्ञानिक दृष्टि से इसी अद्भुत शक्ति को प्रकृति के रूप में स्वीकार किया जाता है. स्वयं इसी ईश्वरीय शक्ति या प्रकृति ने अपने अतिरिक्त यदि किसी को नैसर्गिक रूप से जीवन देने तथा पालन पोषण करने की शक्ति दी है तो वह महिला ही है.
समाज के विकास में महिलाओ की महति भूमिका निर्विवाद एवं महत्वपूर्ण है.
समाज, राष्ट्र की इकाई होता है और समाज की इकाई परिवार, तथा हर परिवार की आधारभूत अनिवार्य इकाई महिला ही होती है. परिवार में पत्नी के रूप में, महिला पुरुष की प्रेरणा होती है. वह माँ के रूप में बच्चों की जीवन दायिनी, ममता की प्रतिमूर्ति बनकर उनकी परिपोषिका तथा पहली शिक्षिका की भूमिका का निर्वाह करती है. इस तरह परिवार के सदस्यों के चरित्र निर्माण व बच्चों को सुसंस्कार देने में घर की महिलाओ का प्रत्यक्ष, अप्रत्यक्ष योगदान स्वप्रमाणित है.
विधाता के साकार प्रतिनिधि के रूप में महिला सृष्टि की संचालिका है, सामाजिक दायित्वों की निर्वाहिका है, समाज का गौरव है। महिलाओं ने अपने इस गौरव को त्याग से सजाया और तप से निखारा है, समर्पण से उभारा और श्रद्धा से संवारा है. विश्व इतिहास साक्षी है कि महिलाओं ने सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक विभिन्न क्षेत्रों में सर्वांगीण विकास किया है, एवं निरंतर योगदान कर रहीं हैं. बहुमुखी गुणों से अलंकृत नारी समाज के महाप्रासाद की अविचल निर्माता है. नारी चरित्र, शील, दया और करूणा के साथ शक्ति और चातुर्य का समग्र सवरूप है.
कन्या भ्रूण हत्या, स्तनपान को बढ़ावा देना, दहेज की समस्या, अश्लील विज्ञापनों में नारी अंग प्रदर्शन, स्त्री शिक्षा को बढ़ावा, घर परिवार समाज में महिलाओ को पुरुषों की बराबरी का दर्जा दिया जाने का संघर्ष, सरकार में स्त्रियों की अनिवार्य भागीदारी सुनिश्चित करना आदि वर्तमान समय की नारी विमर्श से सीधी जुड़ी वे ज्वलंत सामाजिक समस्यायें हैं, जो यक्ष प्रश्न बनकर हमारे सामने खड़ी हैं. इनके सकारात्मक उत्तर में आज की पीढ़ी की महिलाओ की विशिष्ट भूमिका ही उस नव समाज का निर्माण कर सकती है, जहां पुरुष व नारी दो बराबरी के तथा परस्पर पूरक की भूमिका में हों.
पौराणिक संदर्भो को देखें तो दुर्गा, शक्ति का रूप हैं. उनमें संहार की क्षमता है तो सृजन की असीमित संभावना भी निहित है. जब देवता, महिषासुर से संग्राम में हार गये और उनका ऐश्वर्य, श्री और स्वर्ग सब छिन गया तब वे दीन-हीन दशा में भगवान के पास पहुँचे। भगवान के सुझाव पर सबने अपनी सभी शक्तियॉं एक साथ समग्रता में समाहित करने से शक्ति स्वरूपा दुर्गा उत्पन्न हुई. पुराणों में दुर्गा के वर्णन के अनुसार, उनके अनेक सिर हैं, अनेक हाथ हैं. प्रत्येक हाथ में वे अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुये हैं. सिंह, जो साहस का प्रतीक है, उनका वाहन है. ऐसी शक्ति की देवी ने महिषासुर का वध किया. वे महिषासुर मर्दनी कहलायीं. यह कथा संगठन की एकता का महत्व प्रतिपादित करती है. शक्ति, संगठन की एकता में ही है. संगठन के सदस्यों के सहस्त्रों सिर और असंख्य हाथ हैं. साथ चलेंगे तो हमेशा जीत का सेहरा बंधेगा. देवताओं को जीत तभी मिली जब उन्होने अपनी शक्ति एकजुट की. दुर्गा, शक्तिमयी हैं, लेकिन क्या आज की महिला शक्तिमयी है ? क्या उसका सशक्तिकरण हो चुका है? शायद समाज के सर्वांगिणी विकास में सशक्त महिला और भी बेहतर भूमिका का निर्वहन कर सकती हैं. वर्तमान सरकारें इस दिशा में कानूनी प्रावधान बनाने हेतु प्रयत्नशील हैं, यह शुभ लक्षण है. प्रतिवर्ष ८ मार्च को समूचा विश्व महिला दिवस मनाता है, यह समाज के विकास में महिलाओं की भूमिका के प्रति समाज की कृतज्ञता का ज्ञापन ही है.
ममता है माँ की, साधना, श्रद्धा का रूप है
लक्ष्मी, कभी सरस्वती, दुर्गा अनूप है
नव सृजन की संवृद्धि की एक शक्ति है नारी
परमात्मा और प्रकृति की अभिव्यक्ति है नारी
नारी है धरा, चाँदनी, अभिसार, प्यार भी
पर वस्तु नही, एक पूर्ण व्यक्ति है नारी
आवश्यकता यही है कि नारी को समाज के अनिवार्य घटक के रूप में बराबरी और सम्मान के साथ स्वीकार किया जावे. समाज के विकास में महिलाओ का योगदान स्वतः ही निर्धारित होता आया है, रणभूमि पर विश्व की पहली महिला योद्धा रानी दुर्गावती हो, रानी लक्ष्मी बाई का पहले स्वतंत्रता संग्राम में योगदान हो, इंदिरा गांधी का राजनैतिक नेतृत्व हो या विकास का अन्य कोई भी क्षेत्र अनेकानेक उदाहरण हमारे सामने हैं. आगे भी समाज के विकास की इस भूमिका का निर्वाह महिलायें स्वयं ही करने में सक्षम रहेंगी.
“कल्पना” हो या “सुनीता” गगन में, “सोनिया” या “सुष्मिता”
रच रही वे पाठ, खुद जो, पढ़ रही हैं ये किशोरी लड़कियां
बस समाज को नारी सशक्तिकरण की दिशा में प्रयत्नशील रहने, और महिलाओ के सतत योगदान को कृतज्ञता व सम्मान के साथ अंगीकार करने की जरूरत है.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक लगभग तेरह दर्जन से अधिक मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग चार दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्यकर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित बारह दर्जन से अधिक राजकीय प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर राजकीय साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत।
(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी द्वारा गीत-नवगीत, बाल कविता, दोहे, हाइकु, लघुकथा आदि विधाओं में सतत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ – एक लोकभाषा निमाड़ी काव्य संग्रह 3 हिंदी गीत संग्रह, 2 बाल कविता संग्रह, 1 लघुकथा संग्रह, 1 कारगिल शहीद राजेन्द्र यादव पर खंडकाव्य, तथा 1 दोहा संग्रह सहित 9 साहित्यिक पुस्तकें प्रकाशित। प्रकाशनार्थ पांडुलिपि – गीत व हाइकु संग्रह। विभिन्न साझा संग्रहों सहित पत्र पत्रिकाओं में रचना तथा आकाशवाणी / दूरदर्शन भोपाल से हिंदी एवं लोकभाषा निमाड़ी में प्रकाशन-प्रसारण, संवेदना (पथिकृत मानव सेवा संघ की पत्रिका का संपादन), साहित्य संपादक- रंग संस्कृति त्रैमासिक, भोपाल, 3 वर्ष पूर्व तक साहित्य संपादक- रुचिर संस्कार मासिक, जबलपुर, विशेष— सन 2017 से महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9th की “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में एक लघुकथा ” रात का चौकीदार” सम्मिलित। सम्मान : विद्या वाचस्पति सम्मान, कादम्बिनी सम्मान, कादम्बरी सम्मान, निमाड़ी लोक साहित्य सम्मान एवं लघुकथा यश अर्चन, दोहा रत्न अलंकरण, प्रज्ञा रत्न सम्मान, पद्य कृति पवैया सम्मान, साहित्य भूषण सहित अर्ध शताधिक सम्मान। संप्रति : भारत हैवी इलेक्ट्रिकल्स प्रतिष्ठान भोपाल के नगर प्रशासन विभाग से जनवरी 2010 में सेवा निवृत्ति। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता “नश्वरता में है नवीनता…” ।)
☆ तन्मय साहित्य #270 ☆
☆ नश्वरता में है नवीनता… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆