(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ “जय प्रकाश के नवगीत ” के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “नई पीढ़ियाँ…” ।)
जय प्रकाश के नवगीत # 25 ☆ नई पीढ़ियाँ… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆
(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “प्यार जब रूह नहीं सूरत से…“)
प्यार जब रूह नहीं सूरत से… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज से प्रस्तुत है आलेखों की एक नवीन शृंखला “प्रमोशन…“ की प्रथम कड़ी। )
☆ आलेख # 84 – प्रमोशन… भाग –2 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
हमारे बैंक के सामने जो बैंक था उसके लिये “प्रतिद्वंद्वी” शब्द का प्रयोग जरूर किया है पर हकीकत यही थी कि कोई दुर्भावना नहीं थी और उनके और हमारे बीच भाईचारा था, एक सी इंडस्ट्री में काम करने के कारण. जब हम लोग आते थे उसी समय वो लोग भी अपने बैंक आते थे. उनके कस्टमर उनके थे और हमारे कस्टमर हमारे. हां कुछ व्यापारी वर्ग ऐसा जरूर था जिसे दोनों बैंकों से मोहब्बत थी. यही मोहब्बत वहाँ नजर आती जब दोनों बैंक का स्टाफ चाय या पान की दुकान पर तरोताज़ा होने के लिये आता था.
वो गलाकाट मार्केटिंग के बदनुमा दौर से पहले वाला मोहब्बत और भाईचारे का दौर था. चालें और हुनर पूरी शिद्दत से आजमाये जाते थे पर सिर्फ शतरंज, कैरम के बोर्ड पर या टेबलटेनिस की टेबल पर. इन मैचों में सपोर्टबाजी भी होती थी और ह्यूमरस कमेंट्स भी पर सट्टेबाजी नहीं थी. चियरलीडर तो होते थे पर इसमें महिलाओं की एंट्री वर्जित थी. फ्रिज, स्कूटर, टीवी तब लोन लेकर ही खरीदे जाते थे पर पार्टियों के लिये खुद ही व्यवस्था करनी पड़ती थी. ये पार्टियां किस तरह की हों ये देने वालों की जेब और लेने वालों की जिद और कूबत पर निर्भर होता था.
हालांकि बैंकों ने उस वक्त मांबाप के समान कठोर नियंत्रक बनने में जरा सी भी कमी नहीं की थी. अपने स्टाफ को कभी इतना नहीं दिया कि वो शाहखर्ची करे और बिगड़ जाये. यद्यपि पीने वाले उस वक्त भी हुआ करते थे जो घर फूंक कर तमाशा देखा करते थे. सौ का नोट तो बड़ी बात थी जो हिम्मत देता था, पांच सौ के नोट का जन्म हुआ नहीं था और पुराने हजारी लाल याने एक हजार का किंगसाईज नोट “अनलिमिटेड ओवरटाइम” के काल में सैलरी और ओवरटाइम के भुगतान के समय खुद के मार्जिन मनी को मिलाकर पाया जा सकता था. ये कल्पना नहीं सच है और एक शाखा में हुआ भी था.
जो नगरसेठ हुआ करते थे वो कभी कभी खुशियों के लड्डुओं से स्टाफ का मुंह मीठा कराते रहते थे और ये शुभअवसर दीपावली, होली, नयासाल पर आता था या फिर उनके परिवार में नये सदस्य के आगमन पर. इस शुभागमन के लिये कभी सेठ जी जिम्मेदार होते तो कभी उनके पुत्र. मिठास की मधुरता, रिश्तों की मधुरता को सुदृढ़ करती थी जिसे शाखा के सारे लोग इंज्वॉय करते थे.
सहजता, सरलता, सादगी, ईमानदारी, मितव्ययिता, मितभाषी पर मिलनसार और शालीन होना बैंककर्मी की पहचान बन गई थी जिसे पाने की ललक, किरायेदार के रूप में मकान मालिक को और दामाद के रूप में अधिकांश कन्याओं के पिताओं को हुआ करती थी. बैंककर्मी की जेब भले ही हल्की हो पर समाज में सम्मान और विश्वसनीयता भारी हुआ करती थी.
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – विपदा हुई सगी…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 21 – विपदा हुई सगी… ☆ आचार्य भगवत दुबे
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे… शिक्षा”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है सुश्री मंजू वशिष्ठ जीकी पुस्तक – “हेलो पेरेंट्स (लालन पालन)” पर चर्चा।
☆ माता पिता को छोटी बड़ी सही सलाह… विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆
बढ़ते एकल परिवार, माता पिता दोनो की नौकरी, बच्चों की परवरिश के प्रति शिक्षित पैरेंट्स में अति सतर्कता आदि वे कारण हैं जिनके चलते शायद प्रसिद्ध रेकी ग्रेँड मास्टर मंजू वशिष्ठ को इस किताब को लिखने की प्रेरणा हुई। विदेशों में तो स्कूलों में बच्चे पिस्तौल चलाने जैसे अपराध करते दिखते हैं। इंटरनेट और टी वी पर हिंसा तथा बच्चों की इस सब तक निर्बाध पहुंच ने तथा सायबर मोबाईल गेम्स ने बच्चों की परवरिश के प्रति सजगता जरूरी कर दी है। पब्जी जैसे गेम्स से बच्चे हत्या, आत्महत्या तक करते पाये जा रहे हैं। वर्तमान स्कूली शिक्षा में बेहिसाब प्रतियोगी दौड़ ने बच्चों को मानसिक दबाव में ला दिया है। इस सारे परिवेश ने प्रस्तुत पुस्तक को बहुत प्रासंगिक कर दिया है। पुस्तक में ढ़ेरों ऐसी छोटी छोटी बातें सरल भाषा में चैप्टर्स के रूप में लिखी गई हैं जिनका हमें ज्ञान तो है पर ध्यान नहीं। उदाहरण के रूप में बच्चों को समय दें माता पिता, गलती पर पनिशमेंट जरूरी पर बच्चे को पता होना चाहिये क्यों ?, स्क्रीन टाइम का निर्धारण, मोबाईल का झुनझुना बच्चों को देना बंद करें, बच्चे क्यों बोलते हें झूठ, जैसा खाओ अन्न वैसा रहेगा मन, गलती मानने में हिचक न हो, धन्यवाद कहने में कंजूसी न करें, आचरण से सिखायें, बच्चों की गलतियों पर पर्दा न डालें, किशोरावस्था की विशेष बातें आदि आदि चैप्टर्स में लेखिका ने बहुत सामान्य किन्तु उपयोगी परामर्श दिया है। किताब रीडर्स फ्रेंडली प्रिंत में सचित्र है। संस्कृत सूक्तियां, कवितायें , प्रचलित कहानियां और उदाहरणो के माध्यम से सामान्य जनो के लिये अपनी बात
बताने में रचनाकार सफल रही है। नये एकाकी माता पिता शिशु की छोटी सी बीमारी से भी घबरा जाते हैं, उनके लिये बच्चों के सामान्य रोग और उन्हें जानने के तरीके पर पूरा एक बिन्दुवार चैप्टर ही है। पैरेंट्स के झगड़ों का बच्चो पर प्रभाव होता है इससे बचाव आवश्यक है। जहाँ एकल परिवार में बच्चों की परवरिश की कठिनाईयां हैं वहीं संयुक्त परिवार में भी कई बार मनमाफिक पेरेंटिंग नहीं हो पाती उस पर भी एक चैप्टर में सविस्तार चर्चा है। कुल मिलाकर अच्ची पेरेंटिंग एक अनिवार्य निवेश होती है। यह समझना सबके लिये आवश्यक है। मेरी दृष्टि में यदि प्रत्येक दम्पति समाज को सुसंस्कृत बच्चे ही दे दें तो समाज से अपराध, महिला उत्पीड़न, स्वयमेव कम हो जाये। इस दिशा में यह पुस्तक पाठको का मार्ग दर्शन करने में सफल है। नव दम्पति को उपहार स्वरूप दिये जाने योग्य किताब है।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 52 ☆ देश-परदेश – फुटबॉल ☆ श्री राकेश कुमार ☆
आज रात्रि एक पारिवारिक विवाह में सम्मिलित होना है, इसलिए सुबह सुबह बुआ जी को जियो के मुफ्त वाले फोन से जानकारी ली की आदरणीय फूफा जी कितने बजे जायेंगे, हम भी उनके साथ चलेंगे ताकि खातिरदारी बढ़िया हो जायेगी, वरना फूफा जी तो फूल जाते हैं।
बुआ लपक कर बोली तुम्हारे फूफा तो “फीफा” के दीवाने हो गए हैं, वो शादी में ना जायेंगे। हमने भी उनसे विनोद में कहा अब इस उम्र में फुटबॉल का शौक जब सिर के बॉल ही नहीं बचे, ये खेल तो बॉल काल में खेलना चाहिए। जब भी कोई बड़ा आयोजन/ व्यक्ति प्रसिद्ध होता है, दुनिया का हर व्यक्ति उससे स्वयं को जोड़ने का प्रयास करता हैं। अब पाकिस्तान जैसा देश भी ये कहते नहीं थक रहा है, कि फीफा की जिन बॉल से जो लोग खेल रहे हैं, वो तो उसके देश के सियालकोट शहर में बनी हुई बॉल हैं। पूरी दुनिया उनकी बालों से ही खेल रही हैं।
हमारा बॉलीवुड कहां पीछे रहने वाला है, वो कह रहे हैं, ये तो हमारी फिल्म का गीत ” बाला, ओ बाला” ( बॉल ला, बॉल ला) की थीम हैं। विवाह की तैयारी में हम भी केश कार्तनालय पहुंच कर नाई से बोले, अरे भाई भूरे बाल छोड़ कर सभी सफेद बाल कत्तर दो, विवाह में शामिल होना है। नाई भी कान में यंत्र लगा कर ” फीफा” की कमेंट्री सुन रहा था। भौंचक्का होकर बोला आप फीफा देखने के लिए कतार जा रहे है, क्या?पूरी दुनिया में नशा छाया हुआ फुटबॉल का, गज़ब की दीवानगी हैं। भले ही दैनिक जीवन में चार कदम भी बाइक से जाते है, लेकिन टीवी या रेडियो के माध्यम से अपने आप को फुलबॉल खेल प्रेमी सिद्ध करने में लगे रहते हैं।
विवाह स्थल को भी फुटबॉल स्टेडियम का रूप दिया हुआ था। नवविवाहित मैदान के मध्य में विराजमान थे। मैदान के दोनो अंतिम छोर पर गोल पोस्ट थी, जहां मिठाई की काउंटर थी। सजावट में भी फुटबॉल जैसे फानूस इत्यादि का उपयोग कर माहौल को समयानुसार बनाया हुआ था।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण गीत – बहुत बहुत कहना है तुमसे…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 156 – गीत – बहुत बहुत कहना है तुमसे…