हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ “श्री हंस” साहित्य # 88 ☆ मुक्तक ☆ ।।कर्म पूजा, कर्म ऊर्जा, कर्म ही सफलता का मन्त्र है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆

श्री एस के कपूर “श्री हंस”

☆ “श्री हंस” साहित्य # 88 ☆

☆ मुक्तक ☆ ।।कर्म पूजा, कर्म ऊर्जा, कर्म ही सफलता का मन्त्र है।। ☆ श्री एस के कपूर “श्री हंस” ☆ 

[1]

घना कोहरा आगे अंधेरा नज़र कुछ आता न हो।

हो अवसाद व  तनाव  और  कुछ भाता न हो।।

पर मत सोचना फिर भी कोई नकारात्मक विचार।

जो सकारात्मक ऊर्जा को जीवन में लाता न हो।।

[2]

आपकी सोच विचार ऊर्जा जीत आधार  बनती है।

आपकी उचित जीवन शैली  कारगार बनती है।।

कर्म ही  पूजा  कर्म ही  मन्त्र है सफलता का।

उत्साह से ही जाकर जिंदगी शानदार बनती है।।

[3]

संकल्प, दृढ़ दृष्टिकोण हों जीवन के प्रमुख अंग।

अनुशासन  हीनता हो तो लग जाती है जंग।।

सतत कोशिश और बार बार का करना अभ्यास।

निरंतर प्रयास हो और कभी ध्यान नहीं हो भंग।।

[4]

जीवन एक कर्मशाला जग ये ऐशो आराम नहीं है।

है यह संघर्ष तपोवन कोई घृणा का मैदान नहीं है।।

मत पलायन से बदनाम कर इस अनमोल जीवन को।

बिना पूरे किये फर्ज जीवन के उतरते एहसान नहीं है।।

© एस के कपूर “श्री हंस”

बरेली

ईमेल – Skkapoor5067@ gmail.com

मोब  – 9897071046, 8218685464

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 175 – जगण्याचे बळ ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे 

? कवितेचा उत्सव ?

☆ रंजना जी यांचे साहित्य # 175 – जगण्याचे बळ  ☆ श्रीमती रंजना मधुकरराव लसणे ☆

जगण्याचे बळ

माऊलीची माया।

तप्त जीवनात

पिता छत्र छाया।

 

साजनाची साथ

सहजीवनात।

जगण्याचे बळ

विश्वासाचा हात।

 

पाडस धरीते

विश्वासाने बोट।

त्याच्या स्वप्नापुढे

सारं जग छोटं।

 

लाखो संकटांचा

दाटता अंधार।

आशेचा किरण

मनाला आधार।

 

जीवनी संघर्ष 

लागे नित्य झळ।

प्रेम,आशा, स्फूर्ती

जगण्याचे बळ।

©  रंजना मधुकर लसणे

आखाडा बाळापूर, जिल्हा हिंगोली

9960128105

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य #205 ☆ मैं भी सही : तू भी सही ☆ डॉ. मुक्ता ☆

डॉ. मुक्ता

डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं  माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं।  साप्ताहिक स्तम्भ  “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से  हम  आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का  मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख मैं भी सही : तू भी सही। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की  लेखनी को  इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।) 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य  # 204 ☆

☆ मैं भी सही : तू भी सही 

बहुत सारी उलझनों का जवाब यही है कि ‘मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। ‘ऐ ज़िंदगी! चल नई शुरुआत करते हैं…कल जो उम्मीद दूसरों से थी, आज ख़ुद से करते हैं’ में छिपा है सफल ज़िंदगी जीने का राज़; जीने का अंदाज़ और यही है– संबंधों को प्रगाढ़ व सौहार्दपूर्ण बनाए रखने का सर्वोत्तम व सर्वश्रेष्ठ उपादान अर्थात् जब आप स्वीकार लेते हैं कि मैं अपनी जगह सही हूं और दूसरा भी अपनी जगह ग़लत नहीं है, वह भी सही है… तो सारे विवाद तुरंत संवाद में बदल जाते हैं। सभी समस्याओं का समाधान स्वयमेव निकल जाता है। परंतु मैं आपका ध्यान इस ओर केंद्रित करना चाहती हूं कि समस्या का मूल तो ‘मैं’ अथवा ‘अहं’ में है। जब ‘मानव की मैं’ ही नहीं रहेगी, तो समस्या का उद्गम-स्थल ही नष्ट हो जाएगा… फिर समाधान की दरक़ार ही कहां रहेगी?

मानव का सबसे बड़ा शत्रु है अहं, जो उसे ग़लत तर्क पर टिके रहने को विवश करता है। इसका कारण होता है ‘आई एम ऑलवेज़ राइट का भ्रम।’ दूसरे शब्दों में ‘बॉस इज़ ऑल्वेज़ राइट’ अर्थात् मैं सदैव ठीक कहता हूं, ठीक सोचता हूं, ठीक करता हूं। मैं श्रेष्ठ हूं, घर का मालिक हूं, समाज में मेरा रूतबा है, सब मुझे दुआ-सलाम करते हैं। सो! ‘प्राण जाएं, पर वचन न जाई’ अर्थात् मेरे वचन पत्थर की लकीर हैं। मेरे वचनों की अनुपालना करना तुम्हारा प्राथमिक कर्तव्य व दायित्व है। सो! वहां यह नियम कैसे लागू हो सकता है कि मैं अपनी जगह सही हूं और वह अपनी जगह सही है। काश! हम जीवन में इस धारणा को अपना पाते, तो हम दूसरों के जीने की वजह बन जाते और हमारे कारण किसी को कष्ट नहीं पहुंचता। महात्मा बुद्ध का यह संदेश कि ‘दूसरों से वैसा व्यवहार करें, जिसकी अपेक्षा आप दूसरों से करते हैं’ सार्थक सिद्ध हो जाता और सभी समस्याएं समूल नष्ट हो जाती।

आइए! हम इस के दूसरे पक्ष पर दृष्टिपात करें… ‘ऐ ज़िंदगी!चल नई शुरुआत करते हैं। कल जो उम्मीद औरों से थी, आज ख़ुद से करते हैं।’ इस में जीवन जीने की कला का दिग्दर्शन होता है। जीवन में चिंता व परेशानी से तनाव की स्थिति तब जन्म लेती है; जब हम दूसरों से अपेक्षा करते हैं। उम्मीद ही दु:खों की जनक है, संतोष की हन्ता है तथा शांति का विनाश करती है। इस स्थिति में हमारे मन में दूसरों के प्रति शिकायतों का अंबार लगा रहता है और हम हर समय उनकी निंदा करने में मशग़ूल रहते हैं, क्योंकि वे हमारी अपेक्षाओं व मापदण्डों पर खरे नहीं उतरते। जहां तक तनाव का संबंध है, उसके लिए उत्तरदायी अथवा अपराधी हम स्वयं होते हैं और अपनी सोच बदल कर ही हम उस रोग से निज़ात पा सकते हैं। कितनी सामान्य-सी बात है कि आप दूसरों के स्थान पर ख़ुद को उस कार्य में लगा दीजिए अर्थात् अंजाम प्रदान करने तक निरंतर परिश्रम करते रहिए … सफलता एक दिन आपके कदम अवश्य चूमेगी और आप आकाश की बुलंदियों को छू पाएंगे।

अर्थशास्त्र का नियम है, अपनी इच्छाओं को कम से कम रखिए…उन पर नियंत्रण लगाइए, क्योंकि सीमित साधनों द्वारा असीमित इच्छाओं की पूर्ति असंभव है। बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी अमुक संदेश देते हैं कि यदि आप शांत भाव से तनाव-रहित जीवन जीना चाहते हैं, तो सुरसा के मुख की भांति जीवन में पांव पसारती बलवती इच्छाओं- आकांक्षाओं पर अंकुश लगाना बेहतर है। इस

 सिक्के के दो पहलू हैं…प्रथम है इच्छाओं पर अंकुश लगाना और द्वितीय है दूसरों से अपेक्षा न करना। यदि हम इच्छाओं व आकांक्षाओं पर नियंत्रण स्थापित कर लेते हैं, तो द्वितीय का शमन स्वत: हो जायेगा, क्योंकि इच्छाएं ही अपेक्षाओं की जनक हैं। दूसरे शब्दों में ‘न होगा बांस, न बजेगी बांसुरी।’

विपत्ति के समय मानव को अपना सहारा खुद बनना चाहिए और इधर-उधर नहीं झांकना चाहिए…न ही किसी की ओर क़ातर निगाहों से देखना चाहिए अर्थात् किसी से अपेक्षा व उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। ‘अपने हाथ जगन्नाथ’ अर्थात् हमें अपनी अंतर्निहित शक्तियों पर विश्वास करते हुए अपनी समस्त ऊर्जा समस्या के समाधान व लक्ष्य-पूर्ति के निमित्त लगा देनी चाहिए। हमारा आत्मविश्वास, साहस, दृढ़-संकल्प व कठिन परिश्रम हमें विषम परिस्थितियों मेंं भी किसी के सम्मुख नतमस्तक नहीं होने देता, परंतु इसके लिए सदैव धैर्य की दरक़ार रहती है।

‘सहज पके सो मीठा होय’ अर्थात् समय आने पर ही वृक्ष फूल व फल देते हैं और समय से पहले व भाग्य से अधिक मानव को कुछ भी प्राप्त नहीं होता। सो! सफलता प्राप्त करने के लिए लगन व परिश्रम के साथ-साथ धैर्य भी अपेक्षित है। इस संदर्भ में मैं यह कहना चाहूंगी कि मानव को आधे रास्ते से कभी लौट कर नहीं आना चाहिए, क्योंकि उससे कम समय में वह अपने निर्धारित लक्ष्य तक पहुंच सकता है। अधिकांश विज्ञानवेता इस सिद्धांत को अपने जीवन में धारण कर बड़े-बड़े आविष्कार करने में सफल हुए हैं और महान् वैज्ञानिक एडिसन व अल्बर्ट आइंस्टीन आदि के उदाहरण आपके समक्ष हैं। ‘करत-करत अभ्यास के, जड़मति होत सुजान’ अर्थात् निरंतर अभ्यास व प्रयास करने से यदि मूर्ख व्यक्ति भी बुद्धिमान हो सकता है, तो एक बुद्धिजीवी – आत्मविश्वास व निरंतर परिश्रम करने से सफलता क्यों नहीं प्राप्त कर सकता …यह विचारणीय है।

जिस दिन हम अपनी दिव्य शक्तियों से अवगत हो जाएंगे… हम जी-जान से स्वयं को उस कार्य में झोंक देंगे और निरंतर संघर्षरत रहेंगे, उस स्थिति में बड़ी से बड़ी आपदा भी हमारे पथ की बाधा नहीं बन पायेगी। वास्तव में चिंता, परेशानी, आशंका, संभावना आदि हमारे अंतर्मन में सहसा प्रकट होने वाले वे भाव हैं; जो लंबे समय तक हमारे आशियां में डेरा डालकर बैठ जाते हैं और जल्दी से विदा होने का नाम भी नहीं लेते। परंतु हमें उन आपदाओं को स्थायी स्वीकार कर, उनसे भयभीत होकर पराजय नहीं स्वीकारनी चाहिए, बल्कि यह सोचना चाहिए कि ‘जो आया है, अवश्य जायेगा। सुख-दु:ख दोनों मेहमान हैं। थोड़ा समय जीवन में प्रवेश करने के पश्चात् मुसाफिर की भांति संसार-रूपी सराय में विश्राम करेंगे, चंद दिन रहेंगे और चल देंगे।’ सृष्टि का क्रम भी इसी नियम पर आधारित है, जो निरंतर चलता रहता है। इसका प्रमाण है…रात्रि के पश्चात् दिन, अमावस के पश्चात् पूनम व विभिन्न ऋतुओं का यथासमय आगमन, परिवर्तन व प्रकृति के साथ छेड़छाड़ करने पर उसके विकराल व भीषण रूप का दिग्दर्शन, हमें उस सृष्टि-नियंता की कुशल व्यवस्था से अवगत कराता है तथा सोचने पर विवश करता है कि सृष्टि-नियंता की महिमा अपरंपार है। समय किसी की प्रतीक्षा नहीं करता व परिस्थितियां निरंतर परिवर्तनशील रहती हैं। इसलिए मानव को कभी भी निराशा का दामन नहीं थामना चाहिए। हमारा दृष्टिकोण सदैव सकारात्मक होना चाहिए, क्योंकि जीवन में नकारात्मकता हमें तन्हाई के आलम में अकेला छोड़ कर चल देती है और हम लाख चाहने पर भी तनाव व अवसाद के व्यूह से बाहर नहीं निकल सकते।

अंतत: मैं यही कहना चाहूंगी कि आप अपने अहं का त्याग कर दूसरों की सोच व अहमियत को महत्व दें तथा उसे स्वीकार करें… संघर्ष की वजह ही समाप्त हो जाएगी तथा दूसरों से अपेक्षा करने के भाव का त्याग करने से तनाव व अवसाद की स्थिति आपके जीवन में दखल नहीं दे पाएगी। इसलिए मानव को अपने बच्चों को भी इस तथ्य से अवगत करा देना चाहिए कि उन्हें अपना सहारा ख़ुद बनना है। वैसे तो सामाजिक प्राणी होने के नाते मानव अकेला सब कार्यों को संपन्न नहीं कर सकता। उसे सुख-दु:ख के साथी की आवश्यकता होती है। दूसरी ओर यह भी द्रष्टव्य है कि ‘जिस पर आप सबसे अधिक विश्वास करते हैं; एक दिन वह ही आप द्वारा स्थापित इमारत की मज़बूत चूलें हिलाने का काम करता है।’ इसलिए हमें स्वयं पर विश्वास कर जीवन की डगर पर अकेले ही अग्रसर हो जाना चाहिए, क्योंकि भगवान भी उनकी सहायता करता है, जो अपनी सहायता स्वयं करते हैं। आइए! दूसरों के अस्तित्व को स्वीकार अपने अहं का विसर्जन करें और दूसरों से अपेक्षा न रख, अपना सहारा खुद बनें। आत्मविश्वास रूपी धरोहर को थामे निरंतर संघर्षशील रहें। रास्ते में थक कर न बैठें, न ही लौटने का मन बनाएं, क्योंकि नकारात्मक सोच व विचारधारा लक्ष्य-प्राप्ति के मार्ग में अवरोधक सिद्ध होती है और आप अपने मनोवांछित मुक़ाम पर नहीं पहुंच पाते। परिवर्तन सृष्टि का नियम है…क्यों न हम भी शुरुआत करें–नवीन राह की ओर कदम बढ़ाने की, क्योंकि यही ज़िंदगी का मर्म है, सत्य है, यथार्थ है और सत्य हमेशा शिव व सुंदर होता है। इस राह का अनुसरण करने पर हमें यह बात समझ में आ जाएगी कि ‘मैं भी सही और तू भी सही है’ और यही है– ज़िंदगी जीने का सही सलीका व सही अंदाज़… जिसके उपरांत जीवन से संशय, संदेह, शंका, तनाव, अलगाव, अवसाद आदि का शमन हो जाएगा और चहुं ओर अलौकिक आनंद की वर्षा होने लगेगी।

© डा. मुक्ता

माननीय राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत, पूर्व निदेशक, हरियाणा साहित्य अकादमी

संपर्क – #239,सेक्टर-45, गुरुग्राम-122003 ईमेल: drmukta51@gmail.com, मो• न•…8588801878

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ साहित्य निकुंज #205 ☆ भावना के दोहे … माँ अंबिका ☆ डॉ. भावना शुक्ल ☆

डॉ भावना शुक्ल

(डॉ भावना शुक्ल जी  (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान  किया है। हम ईश्वर से  प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं  भावना के दोहे … माँ अंबिका)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  # 205 – साहित्य निकुंज ☆

☆ भावना के दोहे … माँ अंबिका   डॉ भावना शुक्ल ☆

मुरादें हम मांग रहे, माँ ने सुनी पुकार।

माथा माँ  के चरण में, माँ करती बस प्यार।”

जय गौरी मां अंबिका, तेरी जय जयकार।

द्वार तेरे आए हम, कर दो मां उपकार।।

मैया सुन लो आज तुम, हर लो सबकी पीर।

आए तेरी शरण में, बांधा हमने धीर।।

आस लगाई आपसे, सुन लो तुम पुकार।

भक्त कर रहे वंदना, भर दो तुम भंडार।।

हम तो माता कर रहे, तेरा ही गुणगान।

तेरी कृपा मिले सदा, दे दो तुम वरदान।।

© डॉ भावना शुक्ल

सहसंपादक… प्राची

प्रतीक लॉरेल, J-1504, नोएडा सेक्टर – 120,  नोएडा (यू.पी )- 201307

मोब. 9278720311 ईमेल : [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ इंद्रधनुष #189 ☆ संतोष के दोहे – नारी… ☆ श्री संतोष नेमा “संतोष” ☆

श्री संतोष नेमा “संतोष”

(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी  कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप  कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं. “साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है संतोष के दोहे – नारीआप श्री संतोष नेमा जी  की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)

☆ साहित्यिक स्तम्भ – इंद्रधनुष # 189 ☆

☆ संतोष के दोहे – नारी☆ श्री संतोष नेमा ☆

नारी से दुनिया बनी, नारी जग का मूल

हर घर की वो लक्ष्मी, दें आदर अनुकूल

चले सभी को साथ ले, सहज सरल स्वभाव

रखती कभी न बे-बजह, कोई भी दुर्भाव

सीता, दुर्गा, कालका, नारी रूप अनूप

राधा, मीरा, द्रोपदी, अलग-अलग बहु रूप

नारी बिन संभव नहीं, उन्नत सकल समाज

समझें मत अबला कभी, करती सारे काज

सारे रिश्तों की धुरी, उसका हृदय विशाल

माँ-बेटी भाभी बहन, बन पत्नी ससुराल

प्रेम, त्याग, ममता, दया, करुणा करे अपार

धीरज, -धरम न छोड़ती, उसकी जय-जय कार

रिश्तों की ताकत वही, रखती दिल में प्यार

जीवन में “संतोष” रख, आँचल चाँद-सितार

© संतोष  कुमार नेमा “संतोष”

सर्वाधिकार सुरक्षित

आलोकनगर, जबलपुर (म. प्र.) मो 9300101799

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ विजय साहित्य #195 ☆ आरती – जय जय जय अंबे माता ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते ☆

कविराज विजय यशवंत सातपुते

? कवितेचा उत्सव # 195 – विजय साहित्य ?

☆ आरती – जय जय जय अंबे माता ☆ कविराज विजय यशवंत सातपुते  ☆

(आरती – स्वरचित)

आरती सप्रेम जय जय जय अंबे माता

कृपा रहावी आम्हां वरती, दे आशिष आता .||धृ||

सदा पाठिशी रहा उभी मुकांबिका होऊनी

शिवशक्तीचे प्रतिक तू सिंहारूढ स्वामींनी

कोल्लर गावी महिमा गाई भक्त वर्ग मोठा .

कृपा रहावी आम्हां वरती, दे आशिष आता .||1||

ब्राम्ही रूप हे तुझेच माते चतुर्मुखी ज्ञानी

सप्तमातृका प्रातः गायत्री हंसारूढ मानी

सृजनदेवता ब्रम्हारूपी रक्तवर्णी कांता

कृपा रहावी आम्हां वरती, दे आशिष आता .||2||

माहेश्वरी रूप शिवाचे , व्याघ्रचर्म धारीणी

जटामुकूट शिरी शोभतो तू सायं गायत्री

त्रिशूल डमरू त्रिनेत्र धारी तू वृषारूढा.

कृपा रहावी आम्हां वरती, दे आशिष आता .||3||

स्कंदशक्ती तू कौमारी तू नागराज धारीणी

मोर कोंबडा हाती भाला तू जगदोद्धारीणी.

अंधकासूरा शासन करण्या आली मातृका

कृपा रहावी आम्हां वरती, दे आशिष आता .||4||

विष्णू स्वरूपी वैष्णवी तू ,शंख, चक्र, धारीणी

माध्यान्ह गायत्री माता तू शोभे गरूडासनी.

मनमोहिनी पद्मधारीणी तू समृद्धी दाता.

कृपा रहावी आम्हां वरती, दे आशिष आता .||5||

नारसिंही भद्रकाली तू,पानपात्र धारीणी

गंडभेरूडा , शरभेश्वर शिवशक्ती राज्ञी

लिंबमाळेचा साज लेवूनी शोभे अग्नीशिखा.

कृपा रहावी आम्हां वरती, दे आशिष आता .||6||

आदिमाया,आदिशक्ती,विराट रूप धारीणी

रण चंडिका शैलजा महिषासूर मर्दिनी

महारात्री त्या दिव्य मोहिनी ,शोभे जगदंबा .

कृपा रहावी आम्हां वरती, दे आशिष आता .||7||

सप्तमातृका रूपात नटली देवी कल्याणी

भगवती तू, माय रेणुका शोभे नारायणी

स्तुती सुमनांनी आरती कविराजे सांगता

कृपा रहावी आम्हां वरती, दे आशिष आता .||8||

© कविराज विजय यशवंत सातपुते

स्वरचित आरती. निर्मिती विजया दशमी

18/10/2018.

हकारनगर नंबर दोन, दशभुजा गणपती रोड, पुणे.  411 009.

मोबाईल  8530234892/ 9371319798.

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – इंद्रधनुष्य ☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता – अध्याय पहिला – ( श्लोक ४१ ते ४७) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

डाॅ. निशिकांत श्रोत्री 

? इंद्रधनुष्य ?

☆ श्रीमद्‌भगवद्‌गीता — अध्याय पहिला — भाग पहिला – ( श्लोक ४१ ते ४७) – मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆

संस्कृत श्लोक… 

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।

स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ৷৷४१৷৷

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।

पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः৷৷४२৷৷

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।

उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः৷৷४३৷৷

उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।

नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ৷৷४४৷৷

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्‌ ।

यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ৷৷४५৷৷

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।

धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत्‌ ৷৷४६৷৷

संजय उवाच

एवमुक्त्वार्जुनः सङ्‍ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्‌ ।

विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ৷৷४७৷৷

मराठी भावानुवाद ::::  

कुलावरी वर्चस्व  अधर्म प्रदूषित कुलस्त्रिया 

वर्णसंकरा प्रसूत करती वाममार्गी त्या स्त्रिया ॥४१॥

वर्णसंकरे पिंडदान तर्पणादी खंड होत 

पितरादींची अधोगती नाश कुलाचा होत ॥४२॥

कुलघातक हा वर्णसंकर अतिघोर दोष

जातिधर्म कुलधर्मही जात पूर्ण लयास ॥४३॥

लुप्त जाहले कुलधर्म  नाही त्यासी  काही थारा

जनार्दना रे ऐकुन आहे नरकवास त्या खरा ॥४४॥

राज्यसुखाच्या मोहाने युद्धसिद्ध जाहलो

हाय घोर या पापाच्या मार्गाला  भुललो ॥४५॥

शस्त्र न धरी मी हाती काही करीन ना प्रतिकार 

मृत्यूला स्वीकारिन मी झेलुनिया कौरव वार ॥४६॥

कथित संजय 

छिन्नमने कथुनी ऐसे त्यजुनी तीरकमान

शकटावरती शोकमग्न तो  बसला अर्जुन ॥४७॥

– क्रमशः भाग पहिला 

अनुवादक : © डॉ. निशिकान्त श्रोत्री

एम.डी., डी.जी.ओ.

मो ९८९०११७७५४

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 129 ☆ उंगली उठी तो ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है तेज भागती जिंदगी परआधारित एक विचारणीय लघुकथा उंगली उठी तो। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 129 ☆

☆ लघुकथा – उंगली उठी तो ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘चेतन! उधर देखो – ये क्या कर रहे हैं सब ? एक- सी मुद्रा में खड़े हैं, एक दूसरे की ओर उंगली दिखाते हुए।‘

‘कुछ कहना चाह रहे हैं क्या ?’ -सुयश बोला

‘हाँ, कुछ तो बोल रहे हैं, चेहरे पर गुस्सा दिख रहा है। पर सब एक ही तरह से खड़े हैं ?’

‘कोई मोर्चा निकल रहा है क्या ?’ – सुयश बोला

‘पता नहीं।’

चेतन! वे सब तो हँस रहे हैं लेकिन मुद्रा वैसी ही है एक दूसरे की ओर उंगली दिखाते हुए।

चेतन ने चारों ओर नजर दौड़ाई, इधर दौड़ा – उधर भागा, पर सब तरफ वही दृश्य, वैसी ही मुद्राएं । स्कूल, कॉलेज, सरकारी दफ्तर, राजनीति का कार्यालय या —–। टेलीविजन के कार्यक्रमों में भी तो नेता, मंत्री सब एक- दूसरे की ओर उंगली दिखाते हैं। उसे बचपन का खेल याद आया स्टेच्यू वाला। ये सब स्टेच्यू हो गए हैं क्या ?

पर खेल में तो जो जिस मुद्रा में रहता था उसी में स्टेच्यू हो जाता था, हाँ अच्छे से याद है उसे। बचपन में बहुत खेला है यह खेल। लेकिन यहाँ तो सब एक – सी ही मुद्रा में दिख रहे हैं।

 किसी की उंगली अपनी तरफ उठती क्यों नहीं दिख रही ?

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 237 ☆ कविता – नारी तू नारायणी… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कविता नारी तू नारायणी)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 237 ☆

? कविता नारी तू नारायणी ?

क्या महिला आरक्षण बदल सकता है, वह समाज

जहां

हर उस गुनाह में

आरोपी स्त्री को ही माना जाता है

जहां भी ऐसी कोई संभावना होती है।

बस स्त्री होने के चलते

प्रताड़ित होती है नारी

दोष पुरुष का हो तो भी

सारा आरोप स्त्री पर मढ दिया जाता है

विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण ,

स्त्रियों की पोषाक ,

स्त्रियों के बोलचाल , व्यवहार ,

भाव भंगिमा को जिम्मेदार बनाकर

पुरुष को क्लीन चिट देने में समाज मिनट भर नहीं लगाता

बदलना नहीं है

केवल सांसदों की संख्या में स्त्री प्रतिनिधित्व

बदलना है वह सोच

वह समाज

जिसमे

स्त्री को अपना सही पक्ष समझाने के लिए भी

जोर जोर से बोलना पड़े

महज इसलिए

क्योंकि वह एक स्त्री कह रही है।

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #154 – लघुकथा – “सरकारी बल्ब” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा  “सरकारी बल्ब)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 154 ☆

 ☆ लघुकथा – “सरकारी बल्ब” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

कमल को अपनी पुत्री का नाम कूपन से कटवाना था। वह नगर पालिका में बैठा था। तभी रोहित ने आकर कहा, “साहब! मेरा घर गांव से एक तरफ है। स्ट्रीट लाइट पर बल्ब लगवा दीजिए।” 

यह सुनकर कमल बोला, “साहब! मेरा घर भी वहां पर है। आप बल्ब मत लगाइएगा।”

यह सुनकर सीएमओ साहब ने रोहित के साथ-साथ कहा, “क्यों भाई! क्या बात हैं?”

“साहब, वह वापस फूट जाएगा,” कमल ने कहा तो रोहित बोला, “अजीब आदमी हो। अपने घर की गली में बल्ब लगवाने का मना कर रहे हो।”

सीएमओ साहब ने कमल को देखकर आंखें ऊंचका कर इशारे में पूछा-क्या बात है भाई?

“साहब! इनका पुत्र स्ट्रीट लाइट बल्ब को पत्थर से निशाना लगाकर फोड़ देता है। फिर मेरे जैसा व्यक्ति उनके पुत्र को बल्ब फोड़ने से रोकता है तो ये साहब कहते हैं- आपके बाप का क्या जाता है? सरकारी बल्ब है। फोड़ने दीजिए।”

यह सुनकर रोहित ने गर्दन नीचे कर दी और सीएमओ साहब बारी-बारी से दोनों को देखे जा रहे थे।

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

23-09-2023

संपर्क – पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected] मोबाइल – 9424079675

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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