Anonymous Litterateur of Social Media # 161 (सोशल मीडिया के गुमनाम साहित्यकार # 161)
Captain Pravin Raghuvanshi—an ex Naval Officer, possesses a multifaceted personality. He served as a Senior Advisor in prestigious Supercomputer organisation C-DAC, Pune. He was involved in various Artificial Intelligence and High-Performance Computing projects of national and international repute. He has got a long experience in the field of ‘Natural Language Processing’, especially, in the domain of Machine Translation. He has taken the mantle of translating the timeless beauties of Indian literature upon himself so that it reaches across the globe. He has also undertaken translation work for Shri Narendra Modi, the Hon’ble Prime Minister of India, which was highly appreciated by him. He is also a member of ‘Bombay Film Writer Association’.
Captain Raghuvanshi is also a littérateur par excellence. He is a prolific writer, poet and ‘Shayar’ himself and participates in literature fests and ‘Mushayaras’. He keeps participating in various language & literature fests, symposiums and workshops etc. Recently, he played an active role in the ‘International Hindi Conference’ at New Delhi. He presided over the “Session Focused on Language and Translation” and also presented a research paper. The conference was organized by Delhi University in collaboration with New York University and Columbia University.
In his naval career, he was qualified to command all types of warships. He is also an aviator and a Sea Diver; and recipient of various awards including ‘Nao Sena Medal’ by the President of India, Prime Minister Award and C-in-C Commendation.
Captain Pravin Raghuvanshi is also an IIM Ahmedabad alumnus.His latest quest involves social media, which is filled with rich anonymous literature of nameless writers, shared on different platforms, like, WhatsApp / Facebook / Twitter / Your quotes / Instagram etc. in Hindi and Urdu, he has taken the mantle of translating them as a mission for the enjoyment of the global readers. Enjoy some of the Urdu poetry couplets as translated by him.
हम ई-अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए आदरणीय कैप्टेन प्रवीण रघुवंशी जी के “कविता पाठ” का लिंक साझा कर रहे हैं। कृपया आत्मसात करें।
(आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ जी संस्कारधानी जबलपुर के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं। आपको आपकी बुआ श्री महीयसी महादेवी वर्मा जी से साहित्यिक विधा विरासत में प्राप्त हुई है । आपके द्वारा रचित साहित्य में प्रमुख हैं पुस्तकें- कलम के देव, लोकतंत्र का मकबरा, मीत मेरे, भूकंप के साथ जीना सीखें, समय्जयी साहित्यकार भगवत प्रसाद मिश्रा ‘नियाज़’, काल है संक्रांति का, सड़क पर आदि। संपादन -८ पुस्तकें ६ पत्रिकाएँ अनेक संकलन। आप प्रत्येक सप्ताह रविवार को “साप्ताहिक स्तम्भ – सलिल प्रवाह” के अंतर्गत आपकी रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं – बाल गीत – सूरज।)
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं ।प्रस्तुत है आपका साप्ताहिक स्तम्भ आतिश का तरकश।आज प्रस्तुत है आपकी भावप्रवण ग़ज़ल “वो इश्क़ है…”।)
(सुश्री दीपा लाभ जी, बर्लिन (जर्मनी) में एक स्वतंत्र पत्रकार हैं। हिंदी से खास लगाव है और भारतीय संस्कृति की अध्येता हैं। वे पिछले 14 वर्षों से शैक्षणिक कार्यों से जुड़ी हैं और लेखन में सक्रिय हैं। आपकी कविताओं की एक श्रृंखला “अब वक़्त को बदलना होगा” को हम श्रृंखलाबद्ध प्रकाशित करने का प्रयास कर रहे हैं। आज प्रस्तुत है इस श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ कविता ☆ अब वक़्त को बदलना होगा – भाग -3 ☆ सुश्री दीपा लाभ ☆
(आज प्रस्तुत है गुरुवर प्रोफ. श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव जी द्वारा रचित एक भावप्रवण रचना – “क्योंकि परम्परागत सब प्यार खो गया है” । हमारे प्रबुद्ध पाठकगण प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ जी काव्य रचनाओं को प्रत्येक शनिवार आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ ‘स्वयं प्रभा’ से – “तरुणों का दायित्व” ☆ प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ☆
डा. मुक्ता जी हरियाणा साहित्य अकादमी की पूर्व निदेशक एवं माननीय राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित/पुरस्कृत हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य” के माध्यम से हम आपको प्रत्येक शुक्रवार डॉ मुक्ता जी की उत्कृष्ट रचनाओं से रूबरू कराने का प्रयास करते हैं। आज प्रस्तुत है डॉ मुक्ता जी का मानवीय जीवन पर आधारित एक अत्यंत विचारणीय आलेख औरत की नियति। यह डॉ मुक्ता जी के जीवन के प्रति गंभीर चिंतन का दस्तावेज है। डॉ मुक्ता जी की लेखनी को इस गंभीर चिंतन से परिपूर्ण आलेख के लिए सादर नमन। कृपया इसे गंभीरता से आत्मसात करें।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – डॉ. मुक्ता का संवेदनात्मक साहित्य # 204 ☆
☆ औरत की नियति☆
‘दिन की रोशनी ख्वाबों को बनाने में गुज़र गई/ रात की नींद बच्चों को सुलाने में गुज़र गई/ जिस घर में मेरे नाम की तख्ती भी नहीं/ मेरी सारी उम्र उस घर को सजाने में गुज़र गई।’ जी हां! यह पंक्तियां हैं अतुल ओबरॉय की,जिसने महिलाओं के दर्द को आत्मसात् किया; उनके दु:ख को समझा ही नहीं,अनुभव किया और उनके कोमल हृदय से यह पंक्तियां प्रस्फुटित हो गयीं; जो हर औरत के जीवन का सत्य व कटु यथार्थ हैं। वैसे तो यदि हम ‘औरत’ शब्द को परिभाषित करें तो उसका शाब्दिक अर्थ जो मैंने समझा है– ‘औरत’ औ+रत अर्थात् जो औरों की सेवा में रत रहे; जो अपने अरमानों का खून कर दूसरों के लिए जिए और उनके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर प्रसन्नता का अनुभव करे।
यदि हम ‘नारी’ शब्द को परिभाषित करें, तो उसका अर्थ भी यही है– ना+अरि, जिसका कोई शत्रु न हो; जो केवल समझौता करने में विश्वास रखती हो; जिसमें अहं का भाव न हो और वह दूसरों के प्रति समर्पित हो। वैसे तो समाज में यही भावना बलवती होती है कि संसार में उसी व्यक्ति का मान-सम्मान होता है,जिसने जीवन में सर्वाधिक समझौते किए हों और औरत इसका अपवाद है। जीवन संघर्ष का पर्याय है। परंतु उसे तो जन्म लेने से पूर्व ही संघर्ष करना पड़ता है,क्योंकि लोग भ्रूण-हत्या कराते हुए डरते नहीं–भले ही हमारे शास्त्रों में यह कहा गया है कि ऐसे व्यक्ति को कुम्भीपाक नरक प्राप्त होता है। दुर्भाग्यवश यदि वह जन्म लेने में सफल हो जाती है; घर में उसे पग-पग पर असमानता-विषमता का सामना करना पड़ता है और उसे बचपन में ही समझा दिया जाता है कि वह घर उसका नहीं है और वह वहां चंद दिनों की मेहमान है। तत्पश्चात् उसे स्वेच्छा से उस घर को छोड़कर जाना है और विवाहोपरांत पति का घर ही उसका घर होगा। बचपन से ऐसे शब्द-दंश झेलते हुए वह उस चक्रव्यूह से मुक्त नहीं हो पाती। पति के घर में भी उसे कहाँ मिलता है स्नेह व सम्मान,जिसकी अपेक्षा वह करती है। तदोपरांत यदि वह संतान को जन्म देने में समर्थ होती है तो ठीक है अन्यथा वह बाँझ कहलाती है और परिवारजन उसे घर से बाहर का रास्ता दिखाने में तनिक भी संकोच नहीं करते। उसका जीवन साथी मौन रह कर कठपुतली की भांति उस अप्रत्याशित हादसे को देखता रहता है, क्योंकि उसकी मंशा से ही उसे अंजाम दिया जाता है। इतना ही नहीं,वह मन ही मन नववधु के स्वप्न संजोने लगता है।
सृष्टि-संवर्द्धन में योगदान देने के पश्चात् उसे जननी व माता का दर्जा प्राप्त होता है और वह अपनी संतान की अच्छी परवरिश हित स्वयं को मिटा डालती है। उसके दिन-रात कैसे गुज़र जाते हैं; वह सोच भी नहीं पाती। वास्तव में दिन की रोशनी तो ख़्वाबों को सजाने व रातों की नींद बच्चों को सुलाने में गुज़र जाती है। उसे आत्मावलोकन करने तक का समय ही नहीं मिलता। परंतु वह खुली आंखों से स्वप्न देखती है कि बच्चे बड़े होकर उसका सहारा बनेंगे। सो! उसका सारा जीवन इसी उधेड़बुन में गुज़र जाता है। दिन भर वह घर-गृहस्थी के कार्यों में व्यस्त रहती है और परिवारजनों के इतर कुछ भी सोच ही नहीं पाती। उसकी ज़िंदगी ता-उम्र घर की चारदीवारी तक सिमट कर रह जाती है। परंतु जिस घर को अपना समझ वह सजाने-संवारने में लिप्त होकर अपने सुखों को तिलांजलि दे देती है; उस घर में उसे लेशमात्र भी अहमियत नहीं मिलती तो उसका हृदय चीत्कार कर उठता है और वह सोचने पर विवश हो जाती है कि ‘जिस घर में उसकी उसके नाम की तख्ती भी नहीं; उसकी सारी उम्र उस घर को सजाने-संवारने में गुज़र गयी।’
वास्तव में यही नियति है औरत की– ‘उसका कोई घर नहीं होता और वह सदैव परायी समझी जाती है। उन विषम परिस्थितियों में वह विधाता से प्रार्थना करती है कि ऐ मालिक! किसी को दो घर देकर उसका मज़ाक मत उड़ाना। पिता का घर उसका होता नहीं और पति के घर में वह अजनबी समझी जाती है। सो! न तो पति उसका हो पाता है; न ही पुत्र।’ अंतकाल में कफ़न भी उसके मायके से आता है और मृत्यु-भोज भी उनके द्वारा–यह देखकर हृदय चीत्कार कर उठता है कि क्या पति व पुत्र उसके लिए दो गज़ कफ़न जुटाने में अक्षम हैं? जिस घर के लिए उसने अपने अरमानों का खून कर दिया; अपने सुखों को तिलांजलि दे दी; उसे सजाया-संवारा– उस घर में उसे आजीवन अजनबी अर्थात् बाहर से आयी हुई समझा जाता है।
मुझे स्मरण हो रही हैं मैथिलीशरण गुप्त की वे पंक्तियां ‘अबला जीवन हाय! तुम्हारी यही कहानी/ आँचल में है दूध और आँखों में पानी।’ इक्कीसवीं सदी में भी नब्बे प्रतिशत महिलाओं के जीवन का यही कटु यथार्थ है। वे मुखौटा लगा समाज में खुश रहने का स्वाँग करती हैं। अवमानना, तिरस्कार व प्रताड़ना उसके गले के हार बन जाते हैं और उसे आजीवन उस अपराध की सज़ा भुगतनी पड़ती है; जो उसने किया ही नहीं होता। इतना ही नहीं,उसे तो जिरह करने का अवसर भी प्रदान नहीं किया जाता,जो हर अपराधी को कोर्ट-कचहरी में प्राप्त होता है– अपना पक्ष रखने का अधिकार।
धैर्य एक ऐसा पौधा होता है,जो होता तो कड़वा है,परंतु फल मीठे देता है। बचपन से उसे हर पल यह सीख जाती है कि उसे सहना है, कहना नहीं और न ही किसी बात पर प्रतिक्रिया देनी है,क्योंकि मौन सर्वोत्तम साधना है और सहनशीलता मानव का अनमोल गुण। परंतु जब निर्दोष होने पर भी उस पर इल्ज़ाम लगा कटघरे में खड़ा किया जाता है, वह अपने दिल पर धैर्य रूपी पत्थर रख चिन्तन करती है कि मौन रहना ही श्रेयस्कर है,क्योंकि उसके परिणाम भी मनोहारी होते है। शायद! इसलिए ही लड़कियों को
प्रतिक्रिया न देने की सीख दी जाती है और वे मासूम अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से आजीवन कोसों दूर रहती हैं। बचपन में वे पिता व भाई के सुरक्षा-दायरे तथा विवाहोपरांत पति व पुत्र के अंकुश में रहती हैं और अपनी व्यथा-कथा को अपने हृदय में दफ़न किए इस बेदर्द जहान से रुख़्सत हो जाती हैं। नारी से सदैव यह उम्मीद की जाती है कि वह निष्काम कर्म करे और किसी से अपेक्षा न करें।
परंतु अब ज़माना बदल रहा है। शिक्षित महिलाएं सशक्त व समर्थ हो रही हैं; परंतु उनकी संख्या नगण्य है। हां! उनके दायित्व अवश्य दुगुन्ने हो गए हैं। नौकरी के साथ उन्हें पारिवारिक दायित्वों का भी वहन पूर्ववत् करना पड़ रहा है और घर में भी उनके साथ वैसा ही अमानवीय व्यवहार किया जाता है। फलत: उन्हें मानसिक प्रताड़ना सहन करनी पड़ती है।
परंतु संविधान ने महिलाओं के पक्ष में कुछ ऐसे कानून बनाए गए हैं, जिनके द्वारा वर पक्ष का उत्पीड़न हो रहा है। विवाहिता की दहेज व घरेलू-हिंसा की शिकायत पर उसके पति व परिवारजनों को जेल की सीखचों के पीछे डाल दिया जाता है; जहाँ उन्हें अकारण ज़लालत व मानसिक प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। इसलिए लड़के आजकल विवाह संस्था को भी नकारने लगे हैं और आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प कर लेते हैं। इसे हवा देने में ‘लिव इन व मी टू’ का भी भरपूर योगदान है। लोग महिलाओं की कारस्तानियों से आजकल त्रस्त हैं और अकेले रहना उनकी प्राथमिकता व नियति बन गई है। सो! वे अपना व अपने परिजनों का भविष्य दाँव पर लगाने का खतरा मोल नहीं लेना चाहते।
‘अपने लिए जिए तो क्या जिए/ तू जी ऐ दिल! ज़माने के लिए।’ यह पंक्तियां औरत को हरपल ऊर्जस्वित करती हैं और साधना,सेवा व समर्पण भाव को अपने जीवन में संबल बना जीने को प्रेरित करती हैं।’ यही है औरत की नियति,जो वैदिक काल से आज तक न बदली है, न बदलेगी। सहसा मुझे स्मरण हो रही हैं वे पंक्तियां ‘चुपचाप सहते रहो तो आप अच्छे हो; अगर बोल पड़ो,तो आप से बुरा कोई नहीं।’ यही है औरत के जीवन के भीतर का कटु सत्य कि जब तक वह मौन रहकर ज़ुल्म सहती रहती है; तब तक सब उसे अच्छा कहते हैं और जिस दिन वह अपने अधिकारों की मांग करती है या अपने आक्रोश को व्यक्त करती है, तो सब उस पर कटाक्ष करते हैं; उसे बुरा-भला कहते हैं। परंतु ध्यातव्य है कि रिश्तों की अलग-अलग सीमाएं होती हैं,लेकिन जब बात आत्म-सम्मान की हो; वहाँ रिश्ता समाप्त कर देना ही उचित है,क्योंकि आत्मसम्मान से समझौता करना मानव के लिए अत्यंत कष्टकारी होता है। परंतु नारी को आजीवन संघर्ष ही नहीं; समझौता करना पड़ता है–यही उसकी नियति है।
(डॉ भावना शुक्ल जी (सह संपादक ‘प्राची‘) को जो कुछ साहित्यिक विरासत में मिला है उसे उन्होने मात्र सँजोया ही नहीं अपितु , उस विरासत को गति प्रदान किया है। हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि माँ सरस्वती का वरद हस्त उन पर ऐसा ही बना रहे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना तुम हो तो…।)
(आदरणीय श्री संतोष नेमा जी कवितायें, व्यंग्य, गजल, दोहे, मुक्तक आदि विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं. धार्मिक एवं सामाजिक संस्कार आपको विरासत में मिले हैं. आपके पिताजी स्वर्गीय देवी चरण नेमा जी ने कई भजन और आरतियाँ लिखीं थीं, जिनका प्रकाशन भी हुआ है. आप डाक विभाग से सेवानिवृत्त हैं. आपकी रचनाएँ राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित होती रहती हैं। आप कई सम्मानों / पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत हैं.“साप्ताहिक स्तम्भ – इंद्रधनुष” की अगली कड़ी में आज प्रस्तुत है आपके दो मुक्तक…। आप श्री संतोष नेमा जी की रचनाएँ प्रत्येक शुक्रवार आत्मसात कर सकते हैं।)