(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆.आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे। आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – पछुआ साँकल खटकाती है…।)
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है एक भावप्रवण रचना “अंतरिक्ष में लिख दिया…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं।
आज प्रस्तुत है श्री सत्यकेतु सांकृतजी द्वारा संपादित त्रैमासिक पत्रिका “समीक्षा वार्ता” पर चर्चा।
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 148 ☆
☆ “समीक्षा वार्ता” – संपादक – श्री सत्यकेतु सांकृत ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆
अव्यवसायिक साहित्य पत्रिका “समीक्षा वार्ता”१९६७ से २०१० तक स्व गोपाल राय के संपादन में लगातार छपती रही। लघु अनियतकालीन अव्यवसायिक साहित्यिक पत्रिकाओ का साहित्यिक अवदान महत्वपूर्ण रहा है। वर्तमान परिदृश्य में वास्तव में ऐसी पत्रिकाओं का प्रकाशन एक जुनून ही होता है। जिसमें आर्थिक प्रबंधन, पत्रिका का स्तरीय कलेवर जुटाना, संपादन, प्रूफ रीडिंग, प्रकाशन से लेकर डिस्पैच तक सब कुछ महज दो चार हाथों ही होता है। एक अंक की बारात बिदा होते ही अगले अंक की तैयारी शुरू हो जाती है। कम ही लोग खरीद कर पढ़ते हैं। डाक व्यय अतिरिक्त लगता है, स्वनाम धन्य रचनाकार तक मिलने की सूचना या प्रतिक्रिया भी नहीं देते। मैं यह सब कर चुका हूं अतः अंतर्कथा और समर्पित प्रकाशक के दर्द से वाकिफ हूं। २०२२ में समीक्षा वार्ता को पुनः मूर्त स्वरूप दिया है वर्तमान संपादक सत्यकेतु जी और रागिनी सांकृत जी ने। नये हाथों में समीक्षा वार्ता के इस नये अभियान को स्व गोपाल राय के सुदीर्घ प्रकाशन से प्रतिबद्ध दिशा, विषय वस्तु और साख मिली हुई है। लैटर कम्पोजिंग प्रेस से १९६७ में प्रारंभ हुई तत्कालीन पत्रिका को यह सीधे ही उडान के दूसरे चरण में ले जाता प्लस पाइंट है।
संपादकीय में दार्शनिक अंदाज में सत्यकेतु जी ने बिलकुल सही लिखा है ” भारतीय जीवन का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है जो मानस में मौजूद नहीं है। राम सर्वत्र हैं। अभिवादन में राम, दुख में हे राम, घृणा में राम राम, और मृत्यु में राम नाम सत्य है। प्रसंगवश मैं इसमें एक आंखों देखी घटना जोड़ना चाहता हूं। हुआ यह था कि एक सार्वजनिक परिवहन में एक ग्रामीण युवा लडकी मुझसे अगली सीट पर बैठी थी, उसके बाजू में बैठे लडके ने उसके साथ कुछ अभद्र हरकत करने का यत्न किया तो उस ग्रामीणा ने जोर से केवल “राम राम” कहा, सबका ध्यान उसकी ओर आकृष्ट हो गया तथा लडका स्वतः दूरी बनाकर शांत बैठ गया। मैने सोचा यही घटना किसी उसकी जगह किसी अन्य शहरी लडकी के साथ घटती या वह राम नाम का सहारा लेने की जगह कोई अन्य प्रतिरोध करती तो बात का बतंगड़ बनते देर न लगती। मतलब राम का नाम सदा सुखदायी।
इस अंक में विद्वान समीक्षको द्वारा की गई सोलह पुस्तकों की गंभीर विशद सामयिक समीक्षायें सम्मलित हैं। पत्रिका के कंटेंट से अपने पाठको को परिचित करवाना ठीक समझता हूं। ‘जयशंकर प्रसाद महानता के आयाम’ पर लालचंद राम का आलेख है। सवालों के रू-ब-रू शीर्षक से सूर्यनाथ ने, भाषा केंद्रित आलोचना। . बली सिंह, दुनिया के व्याकरण के वरअक्स एक रचनात्मक पहल ‘लोकतंत्र और धूमिल ‘ रमेश तिवारी के आलेख पठनीय है। नंगे पाँव जो धूप में चले, शाहीन ने लिखा है। धर्म और अधर्म की ‘राजनीति’ पर भावना ने, ‘आम्रपाली गावा’ के बहाने इतिहास की समीक्षा गोविन्द शर्मा का लेख है। सूर्यप्रकाश जी ने मध्यवर्गीय जीवन की विसंगतियाँ, जीवन का सुंदर विज्ञान है: इला की कविता किरण श्रीवास्तव का आलेख लिया गया है। लघु पत्रिकाओं के बहाने हिंदी साहित्य की पड़ताल, आसिफ खान ने सविस्तार लिखा है। आउशवित्ज : एक प्रेम कथा लिखा है जय कौशल ने।
ऑपरेशन वस्तर प्रेम और जंग (एक रोमांचक उपन्यास) शीर्षक से रश्मि रानी ने लिखा है। चुप्पियों में आलाप : देह की रागात्मकता और वर्जनाओं से छटपटाहट का व्याकुल उद्गार, जितेन्द्र विसारिया। गहरी संवेदनाओं का दस्तावेज लिखा है प्रियंका भाकुनी ने। कालिंजर : भाषा और शिल्प का उत्सव लेख लक्ष्मी विश्नोई का है। कीड़ा जो पहाड़ पर जड़ित है शीर्षक है मो. वसीम के लेख हैं। ललित गर्ग ने पड़ताल की है तितली है खामोश दोहा संकलन की आलेख पुरातन और आधुनिक समय का समन्वय में।
समीक्षा वार्ता 5764/5, न्यू चन्द्रावल जवाहर नगर, दिल्ली-110007 दूरभाष : 7217610640 से प्रकाशित होती है। लेखक या प्रकाशन ‘समीक्षा वार्ता’ के संपादकीय कार्यालय पर पुस्तक की दो प्रतियाँ भेज सकते हैं। बेहतर होता कि प्रत्येक लेख के साथ एक बाक्स में किताब के विवरण मूल्य प्राप्ति स्थल, किताब की और लेकक तथा समीक्षक के फोटो आदि भी छापे जाते। पत्रिका इंटरनेट पर उपलब्ध करवाई जानी चाहिये जिससे स्थाई संदर्भ साबित हो। पर निर्विवाद रूप से इस स्तुत्य साहित्यिक प्रयास के लिये सत्यकेतु सांस्कृत का अभिनंदन बनता है।
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 49 ☆ देश-परदेश – जाम ☆ श्री राकेश कुमार ☆
कल एक मित्र से आवश्यक कार्य था, इसलिए उसे सुबह फोन किया और पूछा क्या कर रहे हो, उसने बताया ब्रेड के साथ जाम ले रहा हूं। सुनकर मेरा माथा ठनका सुबह-सुबह ही जाम।
दोपहर को पुनः उसको फोन किया तो बोला धूप में जाम के मज़े ले रहा हूं। मैने फोन काट दिया। शाम को उसको फिर से फोन किया तो बोला बाद में बात करना, अभी जाम में हूं। परेशान होकर रात्रि फिर से नो बजे फोन किया तो वो बोला, भाई अभी तो जाम चल रहा है, कल बात करेंगे।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण गीत – अभिनय का शाप…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 153 – गीत – अभिनय का शाप…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “जुदा हुए सब …”)
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता – “जीवन का सच”।)
(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी समसामयिक घटना पर आधारित एक भावप्रवण कविता “# आजादी की पावन बेला में… #”)