(वरिष्ठ साहित्यकारश्री अरुण कुमार दुबे जी,उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “आजकल लोग गुनहगार के है साथ खड़े…“)
आजकल लोग गुनहगार के है साथ खड़े… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆
(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 79 – पानीपत… भाग – 9 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆
हॉलीवुड के सुप्रसिद्ध निर्देशक जेम्स केमरून की हिट फिल्म थी टाइटैनिक. उसका एक दृश्य बहुत हृदयस्पर्शी था. जब जहाज डूब रहा होता है तब डूबते टाइटैनिक जहाज के कप्तान बजाय भागने के, जाकर अपने नियंत्रण कक्ष में बैठ जाते हैं. ये संदेश था कि कैप्टन अंत तक अपने जहाज के साथ होता है. जिम्मेदारियां, लोगों के कर्मक्षेत्र का हिस्सा होती हैं जिन्हें निभाना खुद की पसंद नहीं बल्कि अनिवार्य होता है. युद्ध चाहे कारगिल का हो या महाभारत का, युद्ध में वापस जाने का विकल्प योद्धाओं के पास होता नहीं है. जब परम वीर चक्र विजेता विक्रम बत्रा कारगिल युद्ध में अभूतपूर्व शहादत की ओर बढ़ते हैं तो ये किसी मैडल के लिये नहीं होता. किन्हीं कारणों से पराजित को दिया गया अभयदान, आत्मविश्वास तोड़ने वाला दान ही होता है जिसके साथ शर्मिंदगी जीवनपर्यंत झेलनी पड़ती है. हर व्यक्ति को यह अधिकार होता है कि वह अपनी क्षमताओं का आकलन करते हुये ही बड़े उत्तरदायित्वों को स्वीकारने की प्रतिस्पर्धा का प्रत्याशी बने. अवसरवादिता से किसी व्यक्ति को कोई भी संस्था उपकृत नहीं करती. अभिमन्यु अपने अधूरे ज्ञान के बावजूद द्रोणाचार्य द्वारा रचित चक्रव्यूह में चले गये क्योंकि उनका मनोबल, युद्ध से पीछे हटने की इजाज़त नहीं दे रहा था.
मनचाहे स्थानों और मनचाहे असाइनमेंट मिलने का वचन किसी पदोन्नति में नहीं मिलता. पर अगर ये लगे कि गल्ती तो हो ही गई है और जो असाइनमेंट वहन करना पड़ रहा है उसे पूरा करना खुद के बस की बात नहीं है तो विकल्प क्या है? जुगाड़ करके वहाँ से पतली गली पकड़ के निकल जाना या फिर अक्षमता स्वीकारने का साहस दिखाकर स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का रास्ता पकड़ना. एक व्यवहारिक गली और भी है कि इंतजार करना कि जिनका टाइटैनिक है वो खुद विकल्प ढूंढ ही लेंगे. अगर टाइटैनिक किसी की व्यक्तिगत संपत्ति है तो वो तो कप्तान बदलने में देर नहीं करेगा पर संस्थागत निर्णय, हमेशा देर से अवगत होने और फिर विलंब से निर्णय होने की परंपरागत प्रक्रिया में बंधे होते हैं. उनके पास भी योग्य पात्र का चयन और उपलब्धता की समस्या बनी रहती है इसलिए स्थानापन्न याने ऑफीशियेटिंग का विकल्प ज्यादा प्रयुक्त होता है.
पदोन्नति का महत्वपूर्ण घटक अंक आधारित मूल्यांकन है जो अधिकतर शतप्रतिशत या 95 से 99 अंक पाये व्यक्ति को ही सफलता का पात्र बनाता है. क्या इस प्रकरण में इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि शतप्रतिशत अंक पाना, मूल्यांकन रहित ऐसी औपचारिकता बन गई है जो सिर्फ संबंधों और सबजेक्टिव ओपीनियन के आधार पर अमल में लाई जाती है??? व्यवहारिक और वैयक्तिक आंतरिक शक्तियों और दुर्बलताओं का कोई आकलन नहीं होता. शायद संभव भी न हो जब तक कि ऐसा मौका न आये. हर जगह सब कुछ या कुछ भी धक नहीं पाता, कभी कभी कुछ प्रकरणों में ये साफ साफ दिख जाता है.
पानीपत सदृश्य शाखा के मुखिया का, सारे दरवाजे खटखटाने के बाद भी मनमाफिक अनुकंपा नहीं मिलने से, मन बदलते जा रहा था. हर सुबह “ये शाखा मेरे बस की नहीं है” के साथ शुरु होती और अपनी इस भावना को वो अपने निकटस्थ अधिकारियों से शेयर भी करते रहे. उनके पास ऐसी टीम थी जो उनका मनोबल मजबूत करने के साथ साथ संचालन में भी अतिरिक्त ऊर्जा के साथ काम करती रही. इस जटिल शाखा में काम और कस्टमर्स का दबाव, किसी को भी आराम करने की सुविधा का लाभ उठाने की अनुमति नहीं देता था. यहाँ पर कुछ बहुत ही एक्सट्रा आर्डिनरी स्टाफ थे जिनकी कार्यक्षमता और काम सीखने की ललक प्रशंसनीय थी. लोन्स एंड एडवांसेस पोर्टफोलियो बेहद प्रतिभाशाली प्राबेशनरी अधिकारियों, ट्रेनी ऑफीसर्स और मेहनती अधिकारियों से सुसज्जित था. आज प्रायः सभी सहायक महाप्रबंधक/उपमहाप्रबंधक जैसे वरिष्ठ पदों पर कार्यरत हैं. शाखा से उसी अवधि के लगभग एक वर्ष बाद ही, सात युवा अवार्ड स्टाफ, सहायक प्रबंधक के रूप में पदोन्नत हुये. शाखा स्तर पर कभी ऐसा मनमुटाव या मतभेद नहीं था जो प्रबंधन को तनावग्रस्त करे. ऐसे कर्मशील लोग होने के बावजूद, उनकी ये खूबियाँ मुखिया की उदासीनता और तनाव को दूर नहीं कर पा रही थी. उन्होंने अपनी मंजिल “स्वेच्छिक सेवानिवृत्ति” की तय कर ली थी और वो इसी दिशा में शनैः शनैः बढ़ रहे थे.
संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी के साप्ताहिक स्तम्भ “मनोज साहित्य” में आज प्रस्तुत है “सजल – अपनी सुसंस्कृति को हमने…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।
मनोज साहित्य # 93 – सजल – अपनी सुसंस्कृति को हमने… ☆
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 225 ☆
आलेख – क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त 🇮🇳
क्रान्तिकारी बटुकेश्वर दत्त – जिन्होने भगत सिंह के संग संसद में बम फेंका ..
बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवम्बर 1910 को बंगाली कायस्थ परिवार में ग्राम-औरी, जिला – नानी बेदवान (बंगाल) में हुआ था। इनका बचपन अपने जन्म स्थान के अतिरिक्त बंगाल प्रांत के वर्धमान जिला अंतर्गत खण्डा और मौसु में बीता। इनकी स्नातक स्तरीय शिक्षा पी.पी.एन. कॉलेज कानपुर में सम्पन्न हुई। 1924 में कानपुर में इनकी भगत सिंह से भेंट हुई। इसके बाद इन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के लिए कानपुर में कार्य करना प्रारंभ किया। इसी क्रम में बम बनाना भी सीखा।
बटुकेश्वर दत्त भारत के स्वतंत्रता संग्राम के महान क्रान्तिकारी थे। बटुकेश्वर दत्त को देश ने सबसे पहले 8 अप्रैल 1929 को जाना, जब वे भगत सिंह के साथ केंद्रीय विधान सभा में बम विस्फोट के बाद गिरफ्तार किए गए। उन्होनें आगरा में स्वतंत्रता आंदोलन को संगठित करने में उल्लेखनीय कार्य किया था।
8 अप्रैल 1929 को दिल्ली स्थित केंद्रीय विधानसभा (वर्तमान में संसद भवन) में भगत सिंह के साथ बम विस्फोट कर ब्रिटिश राज्य की तानाशाही का विरोध किया। बम विस्फोट बिना किसी को नुकसान पहुंचाए सिर्फ पर्चों के माध्यम से अपनी बात को प्रचारित करने के लिए किया गया था। उस दिन भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों को दबाने के लिए ब्रिटिश सरकार की ओर से पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट बिल लाया गया था, जो इन लोगों के विरोध के कारण एक वोट से पारित नहीं हो पाया।
इस घटना के बाद बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया। 12 जून 1929 को इन दोनों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। सजा सुनाने के बाद इन लोगों को लाहौर फोर्ट जेल में डाल दिया गया। यहां पर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर लाहौर षड़यंत्र केस चलाया गया। उल्लेखनीय है कि साइमन कमीशन के विरोध-प्रदर्शन करते हुए लाहौर में लाला लाजपत राय को अंग्रेजों के इशारे पर अंग्रेजी राज के सिपाहियों द्वारा इतना पीटा गया कि उनकी मृत्यु हो गई। इस मृत्यु का बदला अंग्रेजी राज के जिम्मेदार पुलिस अधिकारी को मारकर चुकाने का निर्णय क्रांतिकारियों द्वारा लिया गया था। इस कार्रवाई के परिणामस्वरूप लाहौर षड़यंत्र केस चला, जिसमें भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा दी गई थी। बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास काटने के लिए काला पानी जेल भेज दिया गया। जेल में ही उन्होंने 1933 और 1937 में ऐतिहासिक भूख हड़ताल की। सेल्यूलर जेल से 1937 में बांकीपुर केन्द्रीय कारागार, पटना में लाए गए और 1938 में रिहा कर दिए गए। काला पानी से गंभीर बीमारी लेकर लौटे दत्त फिर गिरफ्तार कर लिए गए और चार वर्षों के बाद 1945 में रिहा किए गए।
आजादी के बाद नवम्बर, 1947 में अंजली दत्त से शादी करने के बाद वे पटना में रहने लगे। बटुकेश्वर दत्त को अपना सदस्य बनाने का गौरव बिहार विधान परिषद ने 1963 में प्राप्त किया। श्री दत्त की मृत्यु 20 जुलाई 1965 को नई दिल्ली स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में हुई। मृत्यु के बाद इनका दाह संस्कार इनके अन्य क्रांतिकारी साथियों- भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव की समाधि स्थल पंजाब के हुसैनी वाला में किया गया। इनकी एक पुत्री भारती बागची हैं।
बटुकेश्वर दत्त के विधान परिषद में सहयोगी रहे इन्द्र कुमार कहते हैं कि ‘स्व. दत्त राजनैतिक महत्वाकांक्षा से दूर शांतचित एवं देश की खुशहाली के लिए हमेशा चिन्तित रहने वाले क्रांतिकारी थे।’
(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” आज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)
☆ आलेख # 47 ☆ देश-परदेश – समोसा ☆ श्री राकेश कुमार ☆
बचपन में हमारे शहर में “मौसा के समोसे” बहुत प्रसिद्ध होते थे। साठ के दशक के मध्य में दस पैसे का समोसा क्रय करने के लिए मित्र से भागीदारी में इसका बटवारां थोड़ा कठिन होता था। इसकी बनावट तिकोनी होने के कारण हलवाई से ही इसके दो टुकड़े कर मित्र से भागीदारी पूरी हो जाती थी।
उपरोक्त चित्र एक “बाहुबली समोसे” का है। इसका वज़न मात्र आठ किलो हैं। इसका निर्माण मेरठ शहर में हुआ हैं। इसे विश्व का सबसे वजनी समोसा होने का गौरव प्राप्त हुआ हैं।
कुछ हट के करने की दौड़ में जयपुर में एक विक्रेता ने अपना नाम ही “ठग्गू के समोसे” रख लिया हैं। पुरानी कहावत है, जैसा नाम वैसा ही काम! झूट/ठग्गी का जीवन भी छोटा होता हैं, जब उन्होंने अपने नाम को ही अपना काम बना लिया, तो भगवान ( ग्राहक) ने भी उनका साथ नहीं दिया।
“स्वीगी” जो देश के सबसे बड़े खाद्य दूत की श्रेणी में आते है, ने भी समोसे को सबसे अधिक बिकने वाला खाद्य घोषित किया हैं। उनको मिलने वाले ऑर्डर में हर पांचवा ऑर्डर समोसे का ही रहता हैं।
देश के पूर्वी भाग में इसकी बनावट से मिलते जुलते फल सिंगाढ़ा के नाम से जाना जाता हैं। पश्चिमी भाग में इसको “पंजाबी समोसा” कह कर ग्रहण किया जाता हैं। वैसे वडा पाव में वड़े के स्थान पर भी यदा कदा समोसे को स्थान दे दिया जाता हैं। देश के उत्तर और मध्य भाग में तो समोसा ही राजा हैं।
मांसाहारी भोजन के शौकीन भी समोसे में आलू के स्थान पर कीमा के समोसे का आनंद लेते हैं। वैसे, समोसा हर मोसम में खाया जाता हैं, परंतु शीत ऋतु में इनका पाचन सरल होता हैं।
(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया। वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं आपका भावप्रवण गीत – समय सर्प सा…।)
साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 151 – गीत – समय सर्प सा…
(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार, मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘जहाँ दरक कर गिरा समय भी’ ( 2014) कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है। आज प्रस्तुत है आपका एक अभिनव गीत “बस वहीं पर थमा ठहरा…”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 151 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “बस वहीं पर थमा ठहरा…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆
(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपका एक विचारणीय आलेख – “पीड़ा का नाम परसाई”।)
☆ आलेख ☆ “पीड़ा का नाम परसाई”☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय☆
इस वर्ष हिंदी के महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई का जन्म शती वर्ष है। आप जानते हैं कि हिंदी साहित्य में हरिशंकर परसाई जैसा दूसरा व्यक्ति नहीं हुआ। परसाई के तीखे व्यंग्य बाणों ने सत्ता के अन्तर्विरोधों की पोल खोल दी और अपने युग की राजनीतिक सामाजिक विडंबनाओं को तीखे ढंग से पेश किया। हिन्दी साहित्य में परसाई ही एकमात्र ऐसे लेखक हैं जो प्रेमचंद के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लेखक माने जाते हैं। आजादी के बाद आज तक वे व्यंग्य के सिरमौर बने हुए हैं, 1947 से 1995 के बीच परसाई जी की कलम ने घटनाओं के भीतर छिपे संबंधों को उजागर किया है, एक वैज्ञानिक की तरह उसके कार्यकारण संबंधों का विश्लेषण किया है और एक कुशल चिकित्सक की तरह उस
नासूर का आपरेशन भी किया। वे साहित्यकार के सामाजिक दायित्व के प्रति हमेशा सजग रहेे और अपनी रचनाओं से जन जन के बीच लोकशिक्षण का काम किया।
तुलसीदास ने रामचरित मानस में लिखा है – “परहित सरस धरम नहीं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई”
परसाई जी जीवन के अंतिम समय तक पीड़ा ही झेलते रहे, यह व्यक्तिगत पीड़ा भी थी, पारिवारिक पीड़ा भी थी, समाज और राष्ट्र की पीड़ा भी थी, इसी पीड़ा ने व्यंग्यकार को जीवन दिया। उनका व्यंग्य कोई हंसने हंसाने, हंसी – ठिठोली वाला व्यंग्य नहीं, वह आम जनमानस में गहरे पैठ कर मर्मांतक चोट करता है, वह उत्पीड़ित समाज में नई चेतना का संचार करता है, उन्हें कुरीतियों, अज्ञान के खिलाफ जेहाद छेड़ने बाध्य करता है, वह सरकारी अमले को दिशानिर्देश देता प्रतीत होता है, यह साहस हर कोई नहीं जुटा सकता। समाज से, सरकार से, मान्य परंपराओं के विरोध करने में जो चुनौती का सामना करना होता है उससे सभी कतराते हैं, पर यह पीड़ा परसाई जी ने उठाई थी । व्यंग्य को लोकोपकारी स्वरूप प्रदान करने में उनके भागीरथी प्रयत्न की लम्बी गाथा है।अब उनके व्यंग्य की परिधि आम आदमी से घूमते घूमते राष्ट्रीय सीमा लांघ अंतरराष्ट्रीय क्षितिज पर स्थापित हो चुकी है। दिनों दिन बढ़ती उनकी लोकप्रियता, चकित करने वाली उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता, उनके चाहने वालों की बढ़ती संख्या से अहसास होता है कि कबीर इस धरती पर दूसरा जन्म लेकर हरिशंकर परसाई बनकर आए थे।
जो परसाई की “पारसाई” को जानता है, वही परसाई जी को असल में जानता है, उनके लिखे ‘गर्दिश के दिन’ पढ कर हर आंख नम हो जाती है, हर व्यक्ति के अंदर करूणा की गंगा बह जाती है। ‘गर्दिश के दिन’ पढ़कर एक युवा लेखक ने परसाई के नाम पत्र लिखा, जो उस समय गंगा पत्रिका में छपा था…..
जनाब परसाई जी,
मैं नया जवान हूं। कुछ साल पहले मैंने लिखना शुरू किया था। मेरी महत्वाकांक्षा थी कि मैं हरिशंकर परसाई बनूंगा पर आपका लिखा “गर्दिश के दिन” पढ़कर और आपके द्वारा भोगे गये घोर कष्टों का वर्णन पढ़कर मैंने यह विचार त्याग दिया है। मैं हरिशंकर परसाई अब नहीं बनूंगा। हरिशंकर परसाई बनना आपको ही मुबारक हो। मैं हमदर्दी भेजता हूं।
परसाई दुनिया के ऐसे अकेले लेखक हैं जिनके जीते जी उनकी “रचनावली” प्रकाशित हुई थी, उनकी रचनाओं में धारदार हथियार करूणा के रस में डूबा रहता था, उनकी रचनाओं में ऐसा धारदार सच होता है, एक बार उनकी रचना पढकर कुछ लोगों ने उनको इतना पीटा और उनकी दोनों टांग तोड दी, पर वे टूटी टांग लिए जीवन भर लिखते रहे। आजादी के बाद सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले लोकप्रिय लेखक श्री हरिशंकर परसाई ने अपनी रचनाओं के मार्फत सामाजिक सुधार में अपनी बड़ी भूमिका निभाई है, उनकी रचनाओं को पढ़कर भ्रष्टाचारियों ने भ्रष्टाचार छोड़ा, गिरगिट की तरह रंग बदलने वाली मनोवृत्ति वालों ने अपना स्वाभाव बदला, पुलिस वाले सुधरे, सामाजिक राजनैतिक व्यवस्था और व्यवहार में कुछ हद तक सुधार हुआ और होता जा रहा है, लाखों लोग उनकी रचनाओं से प्रेरणा लेकर समाज सुधार में लगे हैं। वास्तव में ऐसे समाज सुधारक लोकप्रिय,लोक शिक्षक लेखक भारत रत्न के हकदार होते हैं। परसाई अपने आसपास बिखरे साधारण से विषय को अपनी कलम से असाधारण बना देते थे, उनकी रचनाएं पाठक को अंत तक पकड़े रहतीं हैं। हाईस्कूल के पंडित जी तो सबको मुहावरे और सुभाषित पढ़ाते हैं पर उनकी गहराई में जाकर परसाई जी हंसाते हुए आम आदमी की प्रवृत्तियों को उजागर करते हैं। ऐसी सहज सरल भाषा में जो आमतौर पर सब तरफ हर कान में सुनाई देती है। राजनीति परसाई जी को मुख्य विषय रहा है, राजनैतिक बदलाव की इतनी सारी स्थिति के बाद भी उनकी रचनाएं आज भी सबसे ताजा लगतीं हैं, उनकी घटना प्रधान रचनाएं कहीं से भी बासी नहीं लगती। वाह परसाई,गजब परसाई, हां परसाई …. तेरी गजब पारसाई।
परसाई जी की पहली रचना 1947 में ‘प्रहरी’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी, और परसाई जी ने अपने सम्पादन में पहली पत्रिका वसुधा 1956 में निकाली थी। कालेज के दिनों से हम परसाई जी के सम्पर्क में रहे और उनका विराट रूप देखा, उनकी रचनाएँ पढ़ी, “गर्दिश के दिन” में भोगे दर्द को महसूस किया।