हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 92 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 92 – मनोज के दोहे… ☆

१ अंकुर

अंकुर निकसे प्रेम का, प्रियतम का आधार।

नेह-बाग में जब उगे, लगे सुखद संसार ।।

☆ 

२ मंजूषा

प्रेम-मंजूषा ले चली, सजनी-पिय के द्वार।

बाबुल का घर छोड़कर, बसा नवल संसार ।।

☆ 

३ भंगिमा

भाव-भंगिमा से दिखें, मानव-मन उद्गार।

नवरस रंगों से सजा, अन्तर्मन  शृंगार।।

☆ 

४ पड़ाव

संयम दृढ़ता धैर्यता, मंजिल तीन पड़ाव ।

मानव उड़े आकाश में, सागर लगे तलाव।।

☆ 

५ मुलाकात

मुलाकात के क्षण सुखद, मन में रखें सहेज।

स्मृतियाँ पावन बनें, बिछे सुखों की सेज।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 21 – यात्रा वृत्तांत – मॉरिशस की मेरी सुखद स्मृतियाँ ☆ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा वृत्तांत – काज़ीरंगा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 21 ☆ 
? मेरी डायरी के पन्ने से…  – यात्रा वृत्तांत – मॉरिशस की मेरी सुखद स्मृतियाँ ?

June 2023 में पाँच अरबपतियों को लेकर टाइटैनिक दिखाने की यात्रा के लिए निकली पनडुब्बी का मलबा मिला है। एक अति उत्कृष्ट, अति उत्तम अत्याधुनिक पनडुब्बी जिसमें 96घंटे तक की ऑक्सीजन की व्यवस्था थी, फिर भी किसी कारणवश समुद्र की सतह पर यह पनडुब्बी लौटकर न आई। टाइटैनिक से चार सौ मीटर की दूरी पर पनडुब्बी में विस्फोट हुआ और भीतर बैठे लोगों के चिथड़े उड़ गए।

इस अत्यंत दुखद घटना को सुनकर, उसकी तस्वीरें देखकर, दर्दनाक घटना का विस्तार पढ़कर मैं भीतर तक सिहर उठी।

मुझे अपनी एक अद्भुत यात्रा आज अचानक स्मरण हो आई। यद्यपि मेरी यात्रा सुखद तथा अविस्मरणीय रही। बस दोनों में समानता पनडुब्बी द्वारा समुद्र के तल में जाने की ही है।

2002 दिसंबर

यह महीना मॉरिशस में बारिश का मौसम होता है। हमारे विवाह की यह पच्चीसवीं वर्षगाँठ थी और हम दोनों ने ही इसे मॉरिशस में मनाने का निर्णय बहुत पहले से ही ले रखा था।

मॉरिशस एक सुंदर छोटा देश है। समुद्र से घिरा हुआ यह देश अपनी प्राकृतिक सौंदर्य के लिए अत्यंत प्रसिद्ध है। यह सुंदर द्वीपों का देश हिंद महासागर में बसा है। । सभी द्वीपों पर जनवास नहीं है। कई लोग इस राज्य को भारत से दूर छोटा भारत भी कहते हैं क्योंकि यहाँ बड़ी संख्या में भारतीय रहते हैं।

मॉरिशस में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। अंग्रेज़ी और फ्रेंच यहाँ की मुख्य भाषाएँ तो हैं ही साथ ही यहाँ बड़ी संख्या में रहनेवाले भारतीय भोजपुरी भी बोलते हैं जो बोली मात्र है।

सन 1800 के दशक में भारत पर ही नहीं पृथ्वी के कई देशों पर अंग्रेज़ों का आधिपत्य रहा है। हर जगह से ही काम करने के लिए मज़दूर ले जाए जाते थे। क्या अफ्रीका और क्या भारत।

उन दिनों भारत में अकाल पड़ने के कारण अन्न का भयंकर अभाव था। लोग भूख के कारण मरने लगे थे। ऐसे समय पाँच वर्ष के एग्रीमेंट के साथ मजदूरों को जहाज़ द्वारा मॉरिशस ले जाया जाता था।

ये मजदूर अनपढ़ थे। एग्रीमेंट को वे गिरमिट कहा करते थे। आगे चलकर अफ़्रीका और अन्य सभी स्थानों पर भारत से ले जाए गए मजदूर गिरमिटिया मजदूर कहलाए। यह बात और है कि अंग्रेज़ों ने उन पर अत्याचार किए, वादे के मुताबिक वेतन नहीं देते थे। पर मजदूरों के पास लौटकर आने का कोई मार्ग न था।

मॉरिशस गन्ने के उत्पादन के क्षेत्र में बहुत आगे था। बड़ी मात्रा में यहाँ शक्कर की मिलों में शक्कर बनाई जाती थी। खेतों में गन्ने उगाने, कटाई करने, मिल तक गन्ने ले जाने और शक्कर उत्पादन करने तक भारी संख्या में मजदूरों की आवश्यकता होती थी। यही कारण था कि बिहार से बड़ी संख्या में मजदूर वहाँ पहुँचाए गए। आज़ादी के बाद सारे मज़दूर वहीं बस गए।

आज यहाँ रहनेवाले भारतीय न केवल यहाँ के स्थायी निवासी हैं बल्कि उच्च शिक्षित भी हैं और अधिकांश होटल, जहाज, भ्रमण तथा अन्य व्यापार के क्षेत्र में भारतीय ही अग्रगण्य हैं।

हिंदू धर्म को भी मॉरीशस में भारतीयों द्वारा ले जाया गया था। आज, मॉरीशस में हिंदू धर्म सबसे अधिक पालन किया जाने वाला धर्म है।

यहाँ कई मंदिर बने हुए हैं। श्रीराम -सीता माई और लक्ष्मण का भव्य मंदिर है। राधा कृष्ण, साईबाबा का भी मंदिर है। कुछ वर्ष पूर्व बालाजी का भी मंदिर बनाया गया है।

यहाँ एक झरने के बीच एक विशाल शिव लिंग है। यहीं पर बड़ी -सी माता की मूर्ति भी है। आज सभी जगहों पर आस पास अनेक छोटे -बड़े मंदिर बनाए गए हैं। शिव लिंग पर जल चढ़ाने के लिए ऊँची सीढ़ी बनी हुई है।

मेरा यह अनुभव साल 2002 का है। आज इक्कीस वर्ष के पश्चात यह राज्य निश्चित ही बहुत बदल चुका होगा।

हम पोर्ट लुई अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड् डे पर उतरे, उन दिनों यह एक छोटा-सा ही हवाई अड् डा था। मृदुभाषी तथा सहायता के लिए तत्पर लोग मिले। हमें इस द्वीप समूह के राज्य में अच्छा स्वागत मिला।

गाड़ी से हम अपने पूर्व नियोजित होटल की ओर निकले। गाड़ी होटल की ओर से ही हमें लेने आई थी जिस कारण हमें किसी प्रकार की चिंता न थी।

सड़क के दोनों ओर गन्ने के खेत थे। बीच -बीच में लोगों के घर दिखाई देते। हिंदुओं के घर के परिसर में छोटा – सा मंदिर दिखाई देता और उस पर लगा नारंगी रंग का गोटेदार झंडा। अद्भुत आनंददायी अनुभव रहा।

हम जिस दिन मॉरिशस पहुँचे उस दिन शाम ढल गई थी इसलिए थोड़ा फ्रेश होकर होटल के सामने ही समुद्र तट था हम वहाँ सैर करने निकल गए। सर्द हवा, चलते -फिरते लोग साफ – सुथरा तट मन को भा रहा था।

दूसरे दिन सुबह हम एक क्रेटर देखने गए। यह विशाल क्रेटर एक पहाड़ी इलाके पर स्थित है। इस पहाड़ी पर खड़े होकर नीचे स्थित समुद्र, दूर खड़े पहाड़ की चोटियाँ आकर्षक दिख रहे थे।

वह विशाल क्रेटर हराभरा है। कई विशाल वृक्ष इसके भीतर उगे हुए दिखाई दिए। यह क्रेटर गहरा भी है। बारिश के मौसम में कभी – कभी इसके तल में काफी पानी जम जाता है। यहाँ के दृश्य अति रमणीय और आँखों को ठंडक पहुँचानेवाले दृश्य थे। इसे हम ऊपर से ही देख सकते थे इसमें उतरने की कोई सुविधा नहीं थी। लौटते समय हम कुछ मंदिरों के दर्शन कर लौटे। शिव मंदिर में सीढ़ी चढ़कर शिवलिंग पर जल डालने का भी सौभागय मिला।

तीसरे दिन हम कैटामरान में बैठकर विविध द्वीप देखने गए। यह कैटामरान तीव्र गति से चलनेवाली छोटा जहाज़नुमा मोटर से चलनेवाली नाव ही होती है जिसमें दोनों छोर पर जालियाँ लगी रहती हैं। इन जालियों पर लोग लेटकर यात्रा करते हैं। पीठ पर समुद्र का खारा जल लगकर पीठ की अच्छी मालिश होती है ….. बाद में पीठ में भयंकर पीड़ा होती है। हमारी नाव में छह जवान लोगों ने इसका आनंद लिया और वे उस पीड़ा को सहने को भी तैयार थे यह एक चैलेंज था।

हम दो – तीन द्वीपों पर गए। एक द्वीप पर ताज़ी मछलियाँ पकड़ी गईं और नाव पर पकाकर सैलानियों को खिलाई गईं। हम निरामिष भोजियों को सलाद से काम चलाना पड़ा।

इससे आगे एक और द्वीप पर गए जहाँ पानी में उतरकर तैरने और स्नॉकलिंग के लिए कुछ देर तट पर रुके रहे। वहाँ रेत से मैंने ढेर सारे मृत कॉरल एकत्रित किए, शंख भी चुने। वहाँ की रेत बहुत शुभ्र और महीन है। पानी अत्यंत स्वच्छ और गहरा नीला दिखता है।

चौथे दिन हम पहले एक अति वयस्क कछुआ देखने गए जिसकी उम्र तीन सौ वर्ष के करीब बताई गई थी। उस स्थान के पास सेवन लेयर्स ऑफ़ सैंड नामक जगह देखने गए। यहाँ ज़मीन पर सात रंगों की महीन रेत की परतें दिखीं। छोटी सी नलिका में ये रेत भरकर सॉविनियर के रूप में बेचते भी हैं। मॉरिशस में भी रुपया चलता है पर वह उनकी करेंसी है जो भारत की तुलना में बेहतर है। एक सौ मॉरिशस रुपये एक सौ अट्ठ्यासी भारतीय रुपये के बराबर है। (जनवरी 2023 रिपोर्ट)

इसी स्थान से थोड़ी दूरी पर हमने बड़े -बड़े धारणातीत तितलियों के झुंड देखे। ये नेटवाले एक बगीचे में दिखाई दिए। इस स्थान का नाम है ला विनाइल नैशनल पार्क यहाँ बहुत बड़ी संख्या में नाइल नदी के मगरमच्छ भी पाले जाते हैं। कुछ वर्ष पूर्व तक मगरमच्छ के चमड़े से वस्तुएँ बनाने के व्यापार चलता था। अब यह गैर कानूनी है।

इसी शहर में नाव बनाने के कारखाने भी हैं। साथ ही घर में सजाकर रखने के लिए भी छोटी-छोटी आकर्षक नावें हाथ से बनाई जाती हैं। सैलानी सोवेनियर के रूप में उन्हें खरीदते हैं। यह कुटीर उद्योग नहीं बल्कि बड़ा व्यापार क्षेत्र है। सैलानी सोवेनियर के रूप में नाव, जहाज़ आदि छोटी -छोटी सजाने की वस्तुएँ खरीदते हैं।

पाँचवे दिन हम एक और द्वीप में गए जहाँ अफ्रीका के निवासियों ने अपने ड्रम और नृत्य द्वारा हम सबका मनोरंजन किया। इस द्वीप पर ताज़ा भोजन पकाकर स्थानीय विशाल वृक्षों के नीचे मेज़ लगाकर बड़े स्नेह से सबको भोजन परोस कर खिलाया गया। मॉरिशस में आमिष भोजन ही अधिक खाते हैं। बड़ी- बड़ी झींगा मछली जिसे लॉबस्टर्स कहते हैं, खूब पकाकर खाते हैं। हम निरामिष भोजियों को

पोटेटो जैकेट विथ सलाद खिलाया गया। यह अंग्रेज़ों का प्रिय भोजन होता है। बड़े से उबले आलू के भीतर बेक्ड बीन्स और चीज़ डालकर इसे आग पर भूना जाता है। होटलों में इसे आज माईक्रोऑवेन में पकाते हैं। संप्रति लंडन में भी हमें इस व्यंजन का आनंद लेने का अवसर मिला।

छठवें दिन हम सुबह -सुबह ही एक जहाज़ में बैठकर समुद्र के थोड़े गहन हिस्से तक गए। हमें सी बेल्ट वॉकिंग का आनंद लेना था।

हमारे सिर पर संपूर्ण काँच से बनी पारदर्शी हेलमेट जैसी ऑक्सीजन मास्क पहनाई गई। फिर हम जहाज़ की एक छोर से सीढ़ी द्वारा समुद्र के तल पर उतरे। यह सीढ़ी जहाज़ के साथ ही समुद्र तल तक होती है। यह गहराई तीन से चार मीटर की होती है। हमारे हाथ में ब्रेड दिया गया और मछलियाँ उसे खाने के लिए हमारे चारों तरफ चक्कर काटने लगीं।

मछलियों के झुंड को अपने चारों ओर तैरते देख मैं भयभीत हो उठी और गाइड से मुझे ऊपर ले जाने के लिए इशारा किया। बलबीर काफी देर तक समुद्र तल में चलते रहे और मछलियों को ब्रेड भी खिलाते रहे। मौसम वर्षा का था, आसमान में मेघ छाया हुआ था जिस कारण पानी के नीचे प्रकाश भी कम था। मेरे घबराने का वह भी एक कारण था। खैर यह हम दोनों के लिए ही एक अलग अनुभव था।

उस दिन हमारे विवाह वर्षगाँठ की पच्चीसवीं सालगिरह का भी दिन था तो हमने पनडुब्बी में बैठकर समुद्र के नीचे घूमने जाने का भी कार्यक्रम बनाया था। दोपहर को एक लोकल रेस्तराँ में मन पसंद भोजन किया और दोपहर के तीन बजे पनडुब्बी सैर के लिए ब्लू सफारी सबमरीन कंपनी के दफ्तर पहुँचे।

हमसे कुछ फॉर्म्स पर हस्ताक्षर लिए गए कि किसी भी प्रकार की दुर्घटना के लिए कंपनी ज़िम्मेदार नहीं है। यह उस राज्य और कंपनी का नियम हैं। सबमैरीन के विषय में साधारण जानकारी देकर हमें पनडुब्बी में बिठाया गया। कैप्टेन एक फ्रांसिसी व्यक्ति था। उसने बताया कि हम दो घंटों के लिए सैर करने जा रहे थे। पनडुब्बी पैंतीस मीटर की गहराई तक जाएगी। थोड़ी घबराहट के साथ हम दोनों अपनी सीटों पर बैठ गए।

पाठकों को बताएँ कि इसमें केवल छह लोगों के बैठने की जगह होती है। भीतर पर्याप्त ऑक्सीजन की मात्रा होती है जो चार दिनों तक पानी के नीचे रहने में सहायक होती है। हम कुल चार लोग थे और कप्तान साथ में थे।

हम धीरे -धीरे पानी में उतरने लगे। चारों तरफ अथाह समुद्र का जल और समुद्री प्राणियों के बीच हम ! अद्भुत रोमांच की अनुभूति का क्षण था वह। आज भी उसे याद कर रोंगटे खड़े होते हैं। कई प्रकार की रंग- बिरंगी मछलियाँ हमारी खिड़कियों से दिख रही थीं। जल स्वच्छ!जब कोई बड़ी मछली रेत से निकलकर बाहर तैरती तो ढेर सारी रेत उछालकर अपनी सुरक्षा हेतु एक धुँधलापन पैदा कर देती।

धीरे -धीरे हम समुद्री तल पर उतरने लगे। हमें एक ऐसे जहाज़ के पास ले जाया गया जो कोई चालीस वर्ष पूर्व डूब गया था और अब उस पर जीवाश्म दिखाई दे रहे थे। कुछ दूरी पर एक खोह जैसी जगह पर बड़ी – सी ईल अपना मुँह बाहर किए बैठी थी। कैप्टेन ने बताया कि उसे मोरे ईल कहते हैं। वे बड़ी संख्या में हिंदमहासागर में पाए जाते हैं। उसके मुँह के छोटे छोटे दाँत स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। अचानक एक ऑक्टोपस अपने अष्टपद संभालता हुआ झट से पास से निकल गया। हमें तस्वीर लेने का भी मौक़ा नहीं मिला। हमारी पनडुब्बी अभी नीचे ही थी कि हमें कुछ स्टिंग रे दिखे, अच्छे बड़े आकार के थे सभी।

और भी कई प्रकार की बड़ी मछलियाँ दिखाई दीं। क्या ही अद्भुत नज़ारा था। समुद्री तल में रंगीन कॉरल्स बहुत आकर्षक दिखाई दे रहे थे। नीचे कुछ बड़े आकार के केंकड़े भी दिखे।

समुद्र में कई अद्भुत वनस्पतियाँ भी थीं।

कप्तान ने बताया कि उन वनस्पतियों को ईलग्रास कहते हैं। वे पीले से रंग के होते हैं। इन वनस्पतियों पर कई जीव निर्भर भी करते हैं। कप्तान ने बताया कि चूँकि हिंद महासागर, महासागरों में तृतीय स्थान रखता है साथ ही यह पृथ्वी के तापमान और मौसम को प्रभावित भी करता है तथा कुछ हद तक उस पर अंकुश भी रखता है।

अब धीरे -धीरे हम ऊपर की ओर आने लगे। कई विभिन्न मछलियों की प्रजातियाँ पनडुब्बी को ऊपर आते देख तुरंत ही गति से दूर चली जातीं जिन्हें देखने में आनंद आ रहा था। हम जब अपनी यात्रा पूरी करके बाहर निकले तो हमें सर्टीफ़िकेट भी दिए गए। हम दोनों के लिए यह सब चिरस्मरणीय यात्रा रही।

हम होटल लौटकर आए। तो रिसेप्शन में बताया गया कि होटल के मालिक द्वारा हमारे खास दिन के लिए एक छोटा आयोजन रखा गया था। हम रात्रि भोजन करने के लिए जब होटल के रेस्तराँ में पहुँचे तो वहाँ लाइव बैंड बजाकर हमारा स्वागत किया गया। उपस्थित अतिथियों ने खड़े होकर तालियाँ बजाकर हमें शुभकामनाएँ दीं। फिर वहाँ का भारतीय मैनेजर एक बड़े से ट्रे में एक सुंदर सुसज्जित केक ले आया। केक कटिंग के समय फिर लाइव बैंड बजा और सभी अतिथि हमारी मेज़ के पास आ गए। सबने मिलकर हमारी पच्चीसवीं एनीवर्सरी का आनंद मनाया।

हम दोनों अत्यंत साधारण जीवन जीने वाले लोग हैं, इस तरह के आवभगत के हम आदि नहीं थे न हैं। देश से दूर परदेसियों के बीच अपनापन मिला तो आनंद भी बहुत आया।

अगले दिन रात को हम भारत लौटने वाले थे। देर रात हमारी मुम्बई के लिए फ्लाइट थी। होटल का मैनेजर भारतीय था। वह मुम्बई का ही मूल निवासी भी था। उसने अपने घर पर हमें डिनर के लिए आमंत्रित किया। उसकी पत्नी ने काँच की तश्तरी में पेंट करके हमें उपहार भी दिए।

इस प्रकार के अपनत्व और स्नेह सिक्त अनुभव को हृदय में समेटकर आठ दिनों की यात्रा समाप्त कर हम स्वदेश लौट आए। आज इतने वर्ष हो गए पर सारी स्मॅतियाँ किसी चलचित्र की तरह मानस पटल पर बसी हैं। सच आज भी वहाँ के भारतीय हमसे अधिक अपनी संस्कृति से बँधे और जुड़े हुए हैं।

© सुश्री ऋता सिंह

10/12/2022, 10.30 pm

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 148 – “लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” – लेखक – श्री अरविंद तिवारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री अरविंद तिवारी जी द्वारा रचित व्यंग्य संग्रह लोकतंत्र से टपकता हुआ लोकपर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 148 ☆

“लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” – लेखक – श्री अरविंद तिवारी ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक

अरविंद तिवारी

इंडिया नेटबुक्स, नोयडा

मूल्य २२५ रु

पृष्ठ १२८

संस्करण २०२३

☆ “अरविंद जी भी परसाई की ही टीम के ध्वज वाहक हैं” – विवेक रंजन श्रीवास्तव ☆

अरविंद तिवारी तनिष्क के स्वर्ण आभूषणो के शो रूम में आयोजित समारोह में अपनी हास्य-व्यंग्य रचनाओं से श्रोताओं को प्रभावित कर चुके हैं। दरअसल उनकी रचनायें व्यंग्य की कसौटी पर किताबों के शोरूम में सोने सी खरी उतरती हैं। वे बहुविध लेखक हैं व्यंग्य के सिवाय उन्होंने कविता और उपन्यास भी लिखे हैं। मैं उन्हें निरंतर पढ़ता रहा हूं, उनकी कुछ किताबों पर पहले भी लिख चुका हूं। उन्हें पढ़ना भाता है क्योंकि वे उबाऊ और गरिष्ठ लेखन से परहेज करते हैं। शिक्षा विभाग के परिवेश में रहने से वे जानते हैं कि अपनी बात रोचक तरह से कैसे संप्रेषित की जानी चाहिये। परसाई ने लिखा है ” महज दरवाजा खटखटाने से जो मिलता है वह अक्सर अन्याय होता है, दरवाजा तोड़े बिना न्याय नहीं मिलता “, अरविंद तिवारी की व्यंग्य रचनायें दरवाजा तोड़ कथ्य उजागर करने वाली हैं।

लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक किताब के शीर्षक व्यंग्य से ही उधृत कर रहा हूं ” हमारे देश में लोकतंत्र है, (यदि नहीं है तो संविधान के अनुसार होना चाहिये )। …. लोक साहित्य का हिस्सा रहा है, यह संवेदना से भरपूर है। सियासत इस लोक से वह हिस्सा निकालकर तंत्र में जोड़ लेती है जिसमें संवेदना नहीं है। … तंत्र पूरी तरह वैज्ञानिक नियमों से चलता है। …बहरहाल जब तब लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है, जब कहीं चुनाव आता है तो सबसे पहले लोकतंत्र को खतरा पैदा होता है। इसी खतरे के बरबक्स नेता दल बदलते हैं। … नेता जी के चुनाव जीतते ही लोकतंत्र से खतरा टल जाता है। …”  लोकतंत्र पर हर व्यंग्यकार ने भरपूर लिखा है, लगातार लिख ही रहे हैं। राजनैतिक व्यंग्यों की श्रंखला में में लोकतंत्र ही केंद्रित विषय वस्तु होतेा है। इसका कारण यह है कि लोकतंत्र जहां एक अनिवार्य आदर्श शासन व्यवस्था है, वहीं वह विसंगतियों से लबरेज है। मनुष्य का चारित्र दोहरा है, वह आदर्श की बातें तो करता है, पर उसे आदर्श के बंधन पसंद नहीं है। परसाई ने लोकतंत्र की नौटंकी, ठिठुरता हुआ गणतंत्र, लोकतंत्र पर हावी भीड़ तंत्र, आदि आदि कालजयी रचनायें लिखी हैं। अरविंद तिवारी की रचना “लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” भी बिल्कुल उसी श्रेणि का उत्कृष्ट व्यंग्य है, यह ऐसा विषय है जिस पर जाने कितना लिखा जा सकता था किन्तु इस व्यंग्य में सीमित शब्दों में मारक चोट करने में अरविंद जी सफल रहे हैं।

किताब की भूमिका प्रेम जनमेजय जी ने लिखी है। उन्होंने “व्यंग्य के समकाल में ” शीर्षक से संग्रह के चुनिंदा व्यंग्य लेखों की सविस्तार चर्चा की है। वे व्यंग्य तो निराकार है के बहाने बिल्कुल सही लिखते हैं कि ” इन दिनों जुट जाने से व्यंग्य लिख जाता है। परसाई और शरद जोशी के जमाने में जुट जाने की सुविधा नहीं थी। जिसने ठाना वह इन दिनों व्यंग्यकार बन जाता है उसका सामना भले ही विसंगतियों से न हुआ हो। विट, वक्रोक्ति, आइरनी, ह्युमर की जरूरत नहीं होती। ”  पर इस संग्रह के व्यंग्य लेखों में विट, वक्रोक्ति, आइरनी, ह्युमर सब मिलता है। समुचित मात्रा में पाठक तक कथ्य संप्रेषित करने के लिये जहां जो, जितना चाहिये, उतना विषय वस्तु के अनुरूप, मिलता है। अरविंद जी विधा पारंगत हैं।

संग्रह में राजनीति केंद्रित व्यंग्य नेता जी की तीर्थ यात्रा, चुनावी दुश्वारियां और हम, सियासत भी फर्जी विधवा है, लोकतंत्र और गणतंत्र की पिटाई, बाढ़ का हवा हवाई सर्वे, खादी का कारोबार, भैया जी को टिकिट चाहिये, गणतंत्र दिवस और कबूतर, आदि के सिवाय स्वयं लेखको की मानसिकता तथा साहित्य जगत की विसंगतियों पर लिखे गये व्यंग्य लेखों की बहुतायत है। उदाहरण स्वरूप संग्रह का पहला ही लेख गुमशुदा पाठक की तलाश है। वे लिखते हैं “इन दिनों साहित्य की दीवारों पर पाठकों की गुमशुदगी के इश्तिहार चस्पा हैं ” ….  “जब तक पाठक से पता नहीं चलता तब तक यह पता लगाना मुश्किल है कि किताब कैसी है। ” मुझे इन व्यंग्य लेखों को पढ़कर आशा है कि अब जब साहित्य प्रकाशन जगत में प्रिंट आन डिमांड की सुविधा वाली प्रिंटिग मशीने छाई हुई हैं और १० किताबों के संस्करण छप रहे हैं, पाठको के बीच “लोकतंत्र से टपकता हुआ लोक” लोकप्रिय साबित होगी। हिन्दी के पिटबुल डाग, सर इसे पढ़ने की इच्छा है, अब रायल्टी की कमी नहीं, साहित्य का ड्रोन युग, छपने के लिये सेटिंग, आपदा में टिप्पणी लिखने के अवसर, आ गई आ गई, उपन्यास मोटा बनाने के नुस्खे, वगैरह लेखकीय परिवेश के व्यंग्य हैं। संग्रह में समसामयिक घटनाओ पर लिखे गये कुछ व्यंग्य सामाजिक विषयों पर भी हैं। मसलन उनके कुत्ते से प्रेम, रुपये को धकियाता डालर, एट होम में शर्मसार शर्म, आदि मजेदार व्यंग्य हैं। ” डी एम साहब को पता नहीं होता कि उनके घर की किचन का खर्च कौन चलाता है ” … ऐसे सूक्ष्म आबजर्वेशन और उन्हेंसही मोके पर उजागर करने की शैली तिवारी जी की लेखकीय विशेषता तथा बृहद अनुभव का परिणाम है। संग्रह के प्रायः व्यंग्य नपी तुली शब्द सीमा में हैं, संभवतः मूल रूप से किसी कालम के लिये लिखे गये रहे होंगे जिन्हें अब किताब की शक्ल में संजोने का अच्छा कार्य इण्डिया नेटबुक्स ने कर डाला है। आफ्रीका से लाये गये चीतों पर अहा चीतामय देश हमारा संग्रह का अंतिम लेख है। अरविंद जी लिखते हैं ” उस दिन बहस करते हुये एक दूसरे से कुत्तों की तरह भिड़ गये ” … ” शेर से जब चीता टकराता है तो वह घायल हुये बिना नहीं रहता “।

परसाई की चिंता थी समाज की सत्ता की साहित्य की विसंगतियां। ये ही विसंगतियां इस संग्रह में भी मुखरित हैं। इस तरह व्यंग्य की रिले रेस में अरविंद जी भी परसाई की ही टीम के ध्वज वाहक हैं। उन्होने लिखा है “अपने को बुद्धिजीवी कहने वाले लोग गलत जगह वोट डालेंगे तो चुनावों में शुचिता कैसे आयेगी ? किताब पढ़िये, समझिये कुछ करिये जिससे अगली पीढ़ी के व्यंग्य के विषयों में समीक्षकों को बदलाव मिल सकें।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 166 – प्रेम प्याली – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सर्वधर्म समभाव का संदेश देती एक सार्थक लघुकथा प्रेम प्याली”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 166 ☆

☆ लघुकथा – प्रेम प्याली

बहुत ही प्यारा सा नाम “प्याली” । परंतु केवल नाम ही काफी नहीं होता, वह कौन है, कहां से आई, माता पिता कौन है? किस बिरादरी की है उसे कौन से भगवान की पूजा करनी चाहिए? सारे सवालों को लेकर आज वह फिर पेड़ के नीचे बैठी अपने आप को अकेला महसूस कर रही थी।

कैसे जानूँ? किससे पूछूं? यही सोच रही थी, कि सामने से पुतला दहन करने के लिए बीस पच्चीस नौजवान युवक तेज रफ्तार से सड़क से निकल कर जा रहे थे।

प्याली का घर यूँ कह लीजिए सड़क के किनारे एक पन्नी लगी टूटा फूटा कच्चा मिट्टी का ईट दिखाई देता दीवारों से घिरा एक कमरा। जिसमें प्याली में अपना बचपन देखा पालन-पोषण करने के हिसाब से उसने सिर्फ अपनी जिसे सभी वहाँ पर दादी कहते थे। उसी के साथ रहती थी।

आज प्याली बड़ी हो चुकी थी दादी से हर बार सवाल करती… “दादी अब तो बता दो मैं कौन हूं? मेरा बचपन, मेरी पहचान और मेरा धर्म क्या है?”

वह पास में ही सिलाई का काम सीखती थी। स्कूल का तो सिर्फ नाम सुना था पढ़ने लिखने की बात तो कोसों दूर थी।

अचानक जोर से हल्ला-गुल्ला गुल्ला मचने लगा। चौक पर पुलिस की गाड़ी सायरन बजाती आने लगी पुतला दहन करने वाले तितर-बितर हो यहाँ वहाँ छुपने लगे।

एक बहुत ही खूबसूरत सा नौजवान युवक शायद चोट ज्यादा लगी थी। वह दौड़ कर जान बचाने प्याली की टूटी-फूटी झोपड़ी में घुस गया। थोड़ी देर बाद भीड़ शांत हो चुकी थी। पुलिस तहकीकात करती नौजवान युवकों को पकड़ – पकड़ कर ले जाने लगी। आँखों ने जाने क्या इशारा किया प्याली समझ नहीं सकी पर एक इंसानियत ममता, दया, बस वह बाहर खड़ी पुलिस वाले से बोली… “यहाँ कोई नहीं है। मैं तो दादी के साथ रहती हूं।” दादी जो अब तक देख रही थी। बाहर अपनी लकड़ी टेकते हुए निकली और बोली… “यह तो प्रेम प्याली की झोपड़ी है। साहब यहाँ जात-पात ऊंच नीच नहीं होता।”

 पुलिस वाले चले गए नौजवान जो छुपा बैठा था दर्द से कराह रहा था।

प्याली ने उसके सामने गरम-गरम चाय का कप और एक ब्रेड का टुकड़ा रख दिया। प्याली देख रही थी उसने कही… “छोड़ क्यों नहीं देते यह सारा लफड़ा, जिंदगी बहुत अनमोल है, खुश होकर जियो।”

नौजवान युवक धीरे से बोला… “यह शरीर और यह जान दोनों तुम्हारा हुआ। क्या? तुम प्रेम प्याली बनना चाहोगी?” दादी ने चश्मा आँखों पर ऊपर चढ़ाते हुए देख कर हंसने लगी.. “क्यों नहीं! “दादी ने बताया” मैं दूसरे धर्म की थी समाज की नहीं थी। इसके पैदा होते ही इसकी माँ ने सदा – सदा के लिए  मुझे छोड़ बेटे को लेकर चली गई थी। अब यह सिर्फ तुम्हारा प्रेम है।  ऊंच-नीच का भेद नहीं सिर्फ तुम दोनों बाकी सब ऊपर वाले की मर्जी पर छोड़ दो।” बरसों बाद उसका अपना बेटा नहीं पर पोता घर लौट आया था। प्याली, दादी के गले झूल गई। प्रेम उठकर दादी के पैरों गिर पड़ा।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 46 – देश-परदेश – व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 46 ☆ देश-परदेश – व्यवस्था ☆ श्री राकेश कुमार ☆

उपरोक्त चित्र लाल कोठी क्षेत्र, जयपुर में स्थित “जन्म/ मृत्यु” पंजीयन कार्यालय का है। आगंतुकों के लिए बैठने की उपलब्ध बेंच को लेवल करने के लिए एक किनारे पर पत्थर लगाया हुआ हैं। दूसरा सिरा बहुत नीचे है। कुर्सी की बेंत भी नहीं है, ताकि गर्मी में पीठ से पसीना नहीं आए।

ये तो एक उदहारण है, डेढ़ वर्ष पूर्व भी ये ही दृश्य था। कौन इसका जिम्मेवार हैं? इस प्रकार के मनभावन दृश्य प्राय सभी सरकारी विभाग में मिल जाते हैं। इसका दूसरा पहलू ये भी है कि यदि किसी जगह टूटा/ गंदा फर्नीचर पड़ा है, तो आप बिना गूगल की मदद से ये जान सकते है, कि ये ही सरकारी कार्यालय हैं। अनुपयोगी सामान से तो सामान का ना होना ही उचित होता हैं। सरकारी कर्मचारी खराब सामान को हटाने में डरते हैं, कि कहीं कुछ गलत ना हो जाए, वैसे गलत (रिश्वात इत्यादि) कार्य अधिकतर कर्मचारियों के प्रतिदिन का प्रमुख कार्य होता हैं।

करीब दो दशक पूर्व तक बैंकों में भी ग्राहकों के लिए पुराना/ टूटा हुआ फर्नीचर कुछ शाखाओं में मिल जाता था। वर्तमान में स्थिति बहुत बेहतर हैं। हालांकि मुख्य यंत्र सिस्टम, नेट प्रणाली, कंप्यूटर, प्रिंटर इत्यादि समय समय पर विश्राम में चले जाते हैं।

पुलिस थानों की स्थिति तो और भी भयावह हैं।  जब्त किए गए वाहन, न्यायालय के निर्णय/ आदेश की दशकों तक प्रतीक्षा करते हुए जंग( rust) से जंग लड़ते हुए, अपना अस्तित्व समाप्त कर लेते हैं।

कर उपदेश कुशल बहुतेरे” मेरे स्वयं के घर में भी ढेर सारी अनुपयोगी वस्तुओं उपलब्ध हैं।

 © श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #200 ☆ ‘वंदन मित्रा…’ ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 200 ?

☆ वंदन मित्रा… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

तू नारायण तुझी स्मृतीतर चंदन मित्रा

गंगेहुनही तुझे भावते गुंजन मित्रा

 

वेडी बाभळ पायाखाली होती कायम

अन् पोटाला धावपळीने लंघन मित्रा

 

हात पसरले कधीच नाही दान घ्यायला

निर्धाराला तुझ्या करावे वंदन मित्रा

 

हसरा मुखडा घेउन फिरला तू जीवनभर

अन् मित्रांचे केले कायम रंजन मित्रा

 

दुःख वाटते सहवासाला मुकलो आम्ही

तू  तर होता मित्रांमधला कुंदन मित्रा

 

तू गेला पण कारण त्याचे कळले नाही

त्या घटनेचे कायम करतो चिंतन मित्रा

 

तुझी पालखी ज्या वाटेने गेली आहे

त्या मातीचे घेतो आहे चुंबन मित्रा

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ मित्रत्वाचा सल्ला… (चित्र एकच… काव्ये तीन) ☆ श्री आशिष बिवलकर, श्री प्रमोद वामन वर्तक आणि सुश्री निलांबरी शिर्के ☆

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

 ?  मित्रत्वाचा सल्ला… (चित्र एकच… काव्ये तीन) ☆ श्री आशिष बिवलकर, श्री प्रमोद वामन वर्तक आणि सुश्री निलांबरी शिर्के ☆

श्री आशिष बिवलकर

[1] मित्रत्वाचा सल्ला

एकमेकांशी स्पर्धा करणारेही 

एकमेकांच्या सोबतच जगतात !

माणूस असो वा प्राणी 

आपल्या सोईप्रमाणेच वागतात ! 

कवी : आशिष बिवलकर. बदलापूर. 

          ९५१८९४२१०५ 

 

श्री प्रमोद वामन वर्तक  

[2] – मित्रत्वाचा सल्ला

पाऊस धो धो पडतोय 

गाठ पडली बिळात,

विसरला नाहीस ना रे

हरवले तुला खेळात ?

शर्यतीत गाजर खाऊन

झोपलास झाडाखाली,

असं कसं विसरलास

शर्यत लागल्ये आपली ?

सल्ला देतो तुला मित्रा

गर्वाच घर खाली असतं,

हवा डोक्यात गेली की

बक्षीस हमखास हुकतं !

इसापनीतीत प्रसिद्ध 

ससूल्या आपली जोडी,

हट्ट करून शर्यतीसाठी

काढू नको परत खोडी !

काढू नको परत खोडी !

© प्रमोद वामन वर्तक

दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

☆☆☆☆☆☆

सुश्री नीलांबरी शिर्के

[3] मित्रत्वाचा सल्ला

पावसाने धुमाकुळ घातला

शर्यत नकोच भाऊ

कासवदादा चल आपण दोधे

एकमेकां  सोबत देऊ –

शर्यत आपली विसर आज

सुरक्षित  आधी होऊ

संकट आले जरी काही तर

आधार एकमेक होऊ – 

पाणी जादा इथवर तर

पाठीवरती घेशिल ना !

हळूहळू चालत चालत 

सुरक्षित  जागी नेशील ना ! –

खेळता प्रतिस्पर्धी आपण

संकटी आधार होऊ

यापुढे जगूया असे की

मित्र नव्हे, खरे भाऊ — 

© सुश्री नीलांबरी शिर्के

मो 8149144177

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈[3]

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 150 – गीत – इसका अर्थ गुलाम नहीं… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – इसका अर्थ गुलाम नहीं।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 150 – गीत – इसका अर्थ गुलाम नहीं…  ✍

अर्पित है तन मन सब लेकिन

इसका अर्थ गुलाम नहीं।

 

मन लादे था गौन

मन भर का था मौन

तुझे मिला था कौन?

जिसने मौन किया है मुखरित, भेजा उसे सलाम नहीं।

 

तुझे मिला मन मीत

रचे गंध के गीत

जानी बूझी प्रीत

विदा किया अँधियारा जिसने, क्या वह ललित ललाम नहीं।

 

किसको देता दोष

 ही  के अवगुन कोष

हो जा रे ख़ामोश

जिसने तेरी जड़ता तोड़ी, उस पर कहा कलाम नहीं।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 150 – “मन में फिर भी शेष रहे…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  मन में फिर भी शेष रहे.)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 150 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “मन में फिर भी शेष रहे” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

उम्मीदों की काट दी गई

ज्यों कि पतंग यहाँ

मन में फिर भी शेष रहे

जीवन के रंग यहाँ

 

बेटे का मुँह ताक ताक कर

थकीं विवश आंखें

चेहरे पर पड़ गई झुर्रियां

ज्यों सूखी दाखें

 

सूरत का अनुपात बिगड़ता

देख हुई चिंतित

खुद का चेहरा घूर घूर कर

रहती दंग यहाँ

 

एक अकेली साड़ी में जब

चार बरस बीते

जीत नहीं पायी संतति-सुख

जिसने जग जीते

 

जितने अर्थ छिपे होते

माँ के सम्बोधन में

सारे अर्थ हो गये हैं

जैसे बदरंग यहाँ

 

माँ, जिसने सर्दी व घाम सहा

भूखे रह कर

वही मर रही अब भी भूखी

जैसे रह रह कर

 

रोज लड़ा करती है

भूखे तन हालातों से

घर से खुद से जर्जर हो

जो भीषण जंग यहाँ

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

21-07-2023 

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 200 ☆ “फांस” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “फांस)

☆ लघुकथा ☆ “फांस” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

शील, मर्यादा लिए त्रिशा की सगाई हुई। फिर  खूब धूमधाम से स्वराज साथ शादी हुई।

त्रिशा विवाह के दूसरे दिन सुबह 7 बजे सोकर अपने कमरे से बाहर निकली, त्यों ही ड्राइंगरूम में बैठी सास की कड़क आवाज सुनाई दी…

“अब ये देर से सोकर उठने का तरीका नहीं चलेगा।” 

लाड़ प्यार में पली प्रतिभाशाली त्रिशा को जैसे सांप सूंघ गया। उसे लगा पेड़ों की जड़ों में चोट लगने से शाखाएं इसीलिए सूख जातीं हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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