हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संवाद # 123 ☆ लघुकथा – गणेशचौथ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है  स्त्री विमर्श आधारित एक विचारणीय लघुकथा ‘गणेशचौथ’। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 123 ☆

☆ लघुकथा – गणेशचौथ ☆ डॉ. ऋचा शर्मा ☆

‘आज गणेश चौथ है आप भी व्रत होंगी?’  सासूजी खुद तो व्रत रखती ही थीं आस-पड़ोसवालों से भी पूछती रहतीं –‘ नहीं’ या ‘हाँ’ के उत्तर में  सामने से एक प्रश्न दग जाता – ‘और आपकी बहू?’ ‘उसके लड़का नहीं है ना? हमारे यहाँ लड़के की माँ ही गणेशचौथ का व्रत रखती है। ‘

ना चाहते हुए भी मेरे कानों में आवाज पड़ ही जाती थी। तभी मैंने सुना  आस्था दादी से उलझ रही है – ‘दादी। लड़के के लिए व्रत रखती हैं आप!  लड़की के लिए कौन-सा व्रत होता है?’

‘ऐं — लड़कियों के लिए कोई व्रत रखता है क्या?’- दादी बोलीं

‘पर क्यों नहीं रखता’ – रुआँसी होती आस्था ने पूछा।

‘अरे, हमें का पता। जाकर अपनी मम्मी से पूछो, बहुत पढ़ी-लिखी हैं वही बताएंगी।’

आस्था रोनी सूरत बनाकर मेरे सामने खड़ी थी। आस्था के गाल पर स्नेह भरी हल्की चपत मैं लगाकर बोली – ‘ये पूजा- पाठ  संतान के लिए होती है।’

‘संतान मतलब?’

‘हमारे बच्चे  और क्या।‘

आस्था के चेहरे पर भाव आँख – मिचौली खेल रहे थे। सासूजी पूजा करने बैठीं, तिल के लड्डूओं का भोग  बना था। उन्होंने अपने बेटे रजत को टीका करने के लिए आरती का थाल उठाया ही था कि रजत ने अपनी बेटियों को आगे कर दिया – ‘पहले इन्हें माँ’। तिल की सौंधी महक घर भर में पसर गयी थी।

© डॉ. ऋचा शर्मा

प्रोफेसर एवं अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर. – 414001

संपर्क – 122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ व्यंग्य से सीखें और सिखाएँ # 161 ☆ रहिमन फाटे दूध को मथे, न माखन होय… ☆ श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ ☆

श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जी द्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की  प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं।  आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं  में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “रहिमन फाटे दूध को मथे, न माखन होय…। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ  – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 161 ☆

रहिमन फाटे दूध को मथे, न माखन होय

जन्मोत्सव से लेकर नामकरण संस्कार तक अनेको आयोजन हुए। ये बात अलग है कि सारी डफलियों को जोड़कर एकरूपता देने की कोशिश की गयी किन्तु सभी ने अपने – अपने राग अलापने की आदत को नहीं छोड़ा। बेसुरे राग से हैरान होकर नाम को खंडित रूप में प्रस्तुत किया गया। जब पहला कदम लड़खड़ाता है तो बच्चे को उसके माता – पिता सम्हाल लेते हैं लेकिन यहाँ तो कौन क्या है ये समझना मुश्किल है।

सब एकजुटता तो चाहते हैं किन्तु स्वयं को बदले बिना। कहते हैं परिवर्तन प्रकृति का मूलाधार है, पर नासमझ व्यक्ति या जो जानबूझकर कर अंजान बन रहे हों उन्हें कोई कैसे जाग्रत करें। लंबी रेस का घोड़ा बनना कभी आसान नहीं होता है उसके लिए पर्याप्त अभ्यास की आवश्यकता होती है। कोई क्या करेगा जब घोड़े अस्तबल में रहकर ही रेस का हिस्सा बनने का दिवा स्वप्न देख रहे हों ?

खैर दौड़- भाग करते रहिए, जो सामने दिखेगा वही बिकेगा, घूरे के भी भाग्य बदलते हैं सो कभी आपका भी नंबर लग सकता है। किसी बहाने सही पर एकजुटता का विचार तो आया। एक- एक करके ग्यारह बन सकते हैं बस सच्चे मन से कोशिश करते रहिए। जनता सबका मूल्यांकन करती है सो कथनी- करनी के भेद से बचना चाहिए।

©  श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’

माँ नर्मदे नगर, म.न. -12, फेज- 1, बिलहरी, जबलपुर ( म. प्र.) 482020

मो. 7024285788, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक साहित्य # 223 ☆ आलेख – किताबों के सफों में  भोपाल… ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ”  में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल  (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेखकिताबों के सफों में  भोपाल)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 223 ☆

? आलेख – किताबों के सफों में  भोपाल?

दुनियां की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना का साक्षी रहा है अपना भोपाल. भोपाल देश के साथ १५ अगस्त १९४७ को आजाद नहीं हुआ था. स्त्री शक्ति की कितनी ही बातें आज होती हैं किन्तु अपना भोपाल वह है जहां बरसों पहले बेगमों का शासन रहा है वे बेगमें जो युद्ध कला जैसे घुड़सवारी और हथियार चलाने में भी दक्ष थीं. भोपाल में लगभग 170 सालों तक बेगम शासकों का शासन रहा है. बेगम शासकों ने भोपाल बटालियन की स्थापना की थी. यह सेना पहली गैर यूरोपीय सेना थी जो युद्ध लड़ने के लिए फ्रांस गई थी. अपने भोपाल की इस बटालियन को प्रथम विश्वयुद्ध में विक्टोरिया क्रॉस और स्वतंत्रता के बाद के काल में निशान-ए-हैदर का सम्मान दिया गया था. ये सारे रोचक तथ्य आज की पीढ़ी को पुस्तों से ही मिल सकते हैं. पर किताबों के सफों पर भोपाल की चर्चा उतनी नहीं मिलती जितनी होनी चाहिये. अंग्रेजी में लिखी गई किताब है ‘निजाम-ए-भोपाल मिलेट्रीज ऑफ भोपाल स्टेट, ए हिस्टॉरिकल पर्सपेक्टिव” इसके लेखक हैं लेफ्टिनेंट जनरल मिलन नायडू.  भोपाल के सैन्य इतिहास पर लिखी गई उनकी यह किताब भोपाल वासियों के लिए एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक दस्तावेज है.

अंग्रेजी की ही एक और पुस्तक है “फाइव पास्ट मिडनाइट इन भोपाल: द एपिक स्टोरी ऑफ द वर्ल्ड्स डेडलीएस्ट इंडस्ट्रियल डिजास्टर” विदेशी लेखकों  डोमिनिक लैपिएरे और जेवियर मोरो की 1984 की भोपाल आपदा पर आधारित यह किताब १९८४ की भयावह गैस त्रासदी को शब्द चित्रों में बदलने का मार्मिक काम करती है. अमेरिकी फर्म यूनियन कार्बाइड के रासायनिक कीटनाशक, सेविन के आविष्कार का वर्णन पुस्तक में मिलता है , जिसमें मिथाइल आइसोसाइनेट और α-नेफ्थॉल का उपयोग किया गया था. यही मिथाइल आइसोसाइनेट गैस भोपाल की त्रासदी बनी थी जिसमें असमय हजारों लोगों की भयावह मृत्यु हुई थी. इस किताब से आज की पीढ़ी को ज्ञात हो सकता है कि कैसे तत्कालीन रेलवे स्टेशन मास्टर ने त्वरित बुद्धिमत्ता का परिचय देते हुये एक ट्रेन को भोपाल स्टेशन पर रुकने से रोक कर हजारों यात्रियो की जान बचाई थी.

हिन्दी में लिखी गई ओम प्रकाश खुराना की महत्वपूर्ण किताब है “भोपाल हमारी विरासत”. भोपाल से सम्बंधित लगभग सभी विषयों पर संक्षिप्त जानकारी, शोधकर्ताओं व् राजनीतिज्ञों के लिए पठनीय सामग्री इस किताब में मिलती है.  पर्यटकों के लिए यह जानकारी से भरपूर पुस्तक है. इसमें भी  गैस त्रासदी का सजीव वर्णन किया गया है.  नगर का विकास, भोपाल की बोली, यहां की गंगा जमुनी तहजीब, खान पान और त्योहारों का ब्यौरा भी किताब में मिलता है.डॉo नुसरत बानो रूही की मूलतः उर्दू में लिखी गई किताब है “जंगे आज़ादी में भोपाल”. इसका हिन्दी तर्जुमा किया है शाहनवाज़ खान ने. किताब स्वराज संस्थान भोपाल से छपी है. 1930 से लेकर 1949 तक की समयावधि में जंगे आज़ादी में भोपाल के हिस्से के बारे में दुर्लभ और प्रामाणिक जानकारी प्रख्यात स्वतंत्रता सेनानी खान शाकिर अली खान ने दी है जिसे डा नुसरत बानो ने लिपिबद्ध किया है. ” भोपाल सहर.. बस सुबह तक”  सुधीर आज़ाद की फिक्शन बुक है. जिसमें उन्होने

एक हादसे की ज़मीन पर मार्मिक प्रेम कहानी बुनी है. भोपाल गैस त्रासदी लेखक की संवेदनाओं में कहीं गहरी उतरती हुई अनुभूत होती है और लेखक ने हर मुमकिन तरीक़े से इस पर काम किया है.

बिना शरद जोशी की पुस्तक “राग भोपाली” की  बात किये किताबों के पन्नो पर उकेरे गये भोपाल की तस्वीर अधूरी रह जायेगी. विशिष्ट व्यंग्यकार शरद जोशी ने बड़ा समय भोपाल में गुजारा है. लिहाजा भोपाल के विषय में समय समय पर लिखे गए उनके कई व्यंग्य लेख इस पुस्तक में समेटे गये हैं. भोपाल की पहाड़ियों पर लहराती गजल के दुष्यंत कुमार के शेर हैं ” सामान कुछ नहीं है फटे-हाल है मगर, झोले में उस के पास कोई संविधान है. फिस्ले जो उस जगह तो लुढ़कते चले गए, हम को पता नहीं था कि इतनी ढलान है “. बहरहाल भोपाल के बृहद अतीत पर और बहुत कुछ लिखा गया होगा, पर जो लिखा गया है उससे बहुत ज्यादा लिखा जाना चाहिये. क्योंकि भावी पीढ़ीयों के लिये किताबें ही होती हैं जिसे हम छोड़ जाते हैं.

© विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

ए 233, ओल्ड मिनाल रेजीडेंसी भोपाल 462023

मोब 7000375798

ईमेल [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात #9 ☆ कविता – “हां, हैं हम शायर…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

श्री आशिष मुळे

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ दिन-रात # 9 ☆

 ☆ कविता ☆ “हां, हैं हम शायर…” ☆ श्री आशिष मुळे ☆

हमारी मुहब्बत है शायरी

कागज को प्यार में भिगोते हैं शायर

कागज के पीछे तो छिपते हैं कायर ।

 

शायरी है वो प्यार हमारा

चाहे नाराज क्यों ना हो जमाना

है ऐसी मुहब्बत जिसे छिपाते नहीं हैं

खयाल छपवाने में  झिझकते नहीं हैं ।

 

एक मशाल है शायरी

या है एक दिया शायरी

किसी का दर्द है शायरी

किसी का एहसास है शायरी ।

 

इसे सिर्फ अल्फ़ाज़ ना समझना

कागज के आसमां में

सुलगता सूरज है शायरी

जलते हुए दिल में

महकता चांद है शायरी ।

 

अंधे इंसान की रोशनी है

गुफ़ा से बाहर का रास्ता है

पांव से तो चींटी भी चलती है

कलाम से तो उड़ना जन्नत तक है।

 

हाँ, हैं हम शायर

हमारी मुहब्बत है शायरी…

© श्री आशिष मुळे

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य #146 – बाल कथा – “स्वच्छता के महत्व” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆

श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जी का  हिन्दी बाल -साहित्य  एवं  हिन्दी साहित्य  की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य”  के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक शिक्षाप्रद बाल कथा   स्वच्छता के महत्व)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 146 ☆

 ☆ बाल कथा – “स्वच्छता के महत्व” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’

एक बार की बात है, लिली नाम की एक छोटी लड़की थी जिसे साफ-सुथरा रहना पसंद नहीं था। वह अक्सर नहाना छोड़ देती थी और दिन में केवल एक बार अपने दाँत ब्रश करती थी। उसकी माँ उसे हमेशा बाथरूम का उपयोग करने के बाद हाथ धोने के लिए याद दिलाती थी, लेकिन लिली आमतौर पर भूल जाती थी।

एक दिन, लिली पार्क में खेल रही थी जब वह गिर गई और उसके घुटने में खरोंच आ गई। वह बैंडेड लेने के लिए घर गई, लेकिन उसकी माँ ने देखा कि उसके हाथ गंदे थे।

“लिली,” उसकी माँ ने कहा, “तुम्हें अपने घुटने पर बैंडेड लगाने से पहले अपने हाथ धोने होंगे। रोगाणु कट में प्रवेश कर सकते हैं और इसे बदतर बना सकते हैं।”

“लेकिन मैं ऐसा नहीं करना चाहती,” लिली ने रोते हुए कहा। “मेरे हाथ साफ़ हैं।”

“नहीं, वे नहीं हैं,” उसकी माँ ने कहा। “आप अपने नाखूनों के नीचे सारी गंदगी देख सकते हैं।”

लिली अनिच्छा से बाथरूम में गई और अपने हाथ धोए। जब वह वापस आई तो उसकी मां ने उसके घुटने पर पट्टी बांध दी।

“देखो,” उसकी माँ ने कहा। “वह इतना बुरा नहीं था, है ना?”

“नहीं,” लिली ने स्वीकार किया। “लेकिन मुझे अभी भी हाथ धोना पसंद नहीं है।”

“मुझे पता है,” उसकी माँ ने कहा। “लेकिन साफ़ रहना ज़रूरी है। रोगाणु आपको बीमार कर सकते हैं, और आप बीमार नहीं होना चाहते हैं, है ना?”

लिली ने सिर हिलाया. “नहीं,” उसने कहा। “मैं बीमार नहीं पड़ना चाहता।”

“तो फिर तुम्हें अपने हाथ धोने होंगे,” उसकी माँ ने कहा। “हर बार जब आप बाथरूम का उपयोग करते हैं, खाने से पहले और बाहर खेलने के बाद।”

लिली ने आह भरी। “ठीक है,” उसने कहा. “मेँ कोशिश करुंगा।”

और उसने किया. उस दिन से, लिली ने अपने हाथ अधिक बार धोने का प्रयास किया। यहां तक ​​कि वह दिन में दो बार अपने दांतों को ब्रश करना भी शुरू कर दिया। और क्या? वह बार-बार बीमार नहीं पड़ती थी।

एक दिन लिली अपनी सहेली के घर पर खेल रही थी तभी उसने अपनी सहेली के छोटे भाई को गंदे हाथों से कुकी खाते हुए देखा। लिली को याद आया कि कैसे उसकी माँ ने उससे कहा था कि रोगाणु तुम्हें बीमार कर सकते हैं, और वह जानती थी कि उसे कुछ करना होगा।

“अरे,” उसने अपनी सहेली के भाई से कहा। “आपको उस कुकी को खाने से पहले अपने हाथ धोने चाहिए।”

छोटे लड़के ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। “क्यों?” उसने पूछा।

“क्योंकि तुम्हारे हाथों पर कीटाणु हैं,” लिली ने कहा। “और रोगाणु आपको बीमार कर सकते हैं।”

छोटे लड़के की आँखें चौड़ी हो गईं। “वास्तव में?” उसने पूछा।

“हाँ,” लिली ने कहा। “तो जाओ अपने हाथ धो लो।”

छोटा लड़का बाथरूम में भाग गया और अपने हाथ धोये। जब वह वापस आया, तो उसने बिना किसी समस्या के अपनी कुकी खा ली।

लिली को ख़ुशी थी कि वह अपने दोस्त के भाई की मदद करने में सक्षम थी। वह जानती थी कि स्वच्छ रहना महत्वपूर्ण है, और वह खुश थी कि वह दूसरों को भी स्वच्छता के महत्व के बारे में सिखा सकती है।

=======

© ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”

०८/०५/२०१५

पोस्ट ऑफिस के पास, रतनगढ़-४५८२२६ (नीमच) म प्र

ईमेल  – [email protected]

मोबाइल – 9424079675

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 170 ☆ गीत – बीते बचपन की यादें ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 170 ☆

☆ गीत – बीते बचपन की यादें ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

धूप गुनगुनी बैठे छत पर

सेंक रहे इकले नाना।

बीते बचपन की यादों का

है सुंदर सफर सुहाना।।

 

गाँव था अलबेला – सा अपना

जिसमें थी पेड़ों की छइयाँ।

गौधूलि में कितनी ही आतीं

बैल, भैंस , बकरी औ गइयाँ।

 

फूस – छप्परों के घर सबके

क्या सुखद था इक जमाना।

बीते बचपन की यादों का

है सुंदर सफर सुहाना।।

 

संगी – साथी , कुआ , बाबड़ी

घने नीम की छाँव भली।

आमों के थे बाग – बगीचे

धुर देहाती गाँव – गली।

 

याद रहा अट्टे की छत पर

नभ के नीचे सो जाना।

बीते बचपन की यादों का

है सुंदर सफर सुहाना।।

 

राखी औ सावन के झूले

त्योहारों की धूम निराली।

पथबारी की पूजा रौनक

बजते थे डमरू औ थाली।

 

लोकगीत में मस्त मगन हो

नाच – कूद होता गाना।

बीते बचपन की यादों का

है सुंदर सफर सुहाना।।

 

मिट्टी के गुड़िया – गुड्डों का

मिलजुल करके ब्याह रचाए।

इक्का, ताँगा, रेढू गाड़ी

दुल्हन घूँघट से शरमाए।

 

ढपर – ढपर से बैंड साज पर

घोड़ी ठुम – ठुम नचकाना।

बीते बचपन की यादों का

है सुंदर सफर सुहाना।।

 

झर लग जाते वर्षा के जब

छतें टपाटप थी करतीं।

चौपालों में करें मसखरी

राग – मल्हारें थीं गवतीं।

 

टूटा घर अब हुआ खंडहर

बस केवल आज फ़साना।

बीते बचपन की यादों का

है सुंदर सफर सुहाना।।

 

ढकींमीचना , कंचा गोली

गिल्लीडंडा औ गेंदतड़ी।

खिपड़े खूब नचा सरवर में

जल बर्षा में नाव पड़ी।

 

अ आ इ ई ऊ लिखें पहाड़े

शेष बचा ताना – बाना।।

बीते बचपन की यादों का

है सुंदर सफर सुहाना।।

 

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #193 – कविता – कविवर तुम श्रृंगार लिखो… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  “कविवर तुम श्रृंगार लिखो…)

☆ तन्मय साहित्य  #193 ☆

☆ कविवर तुम श्रृंगार लिखो…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

फन फुँफकार रहा विषधर

पर तुम सावनी फुहार लिखो

पुष्प-वाटिका, बाग-बहारें

कविवर तुम श्रृंगार लिखो।

 

प्यार मुहब्बत इश्क-मुश्क के

नए तराने तुम गाओ

नख-शिख सुंदरियों के वर्णन

कर खुद पर ही इतराओ,

 

कोई तुम्हें लिखे न लिखे पर

तुम उन सब को प्यार लिखो

फन फुँफकार रहा विषधर

पर कविवर तुम श्रृंगार लिखो….।

 

आत्ममुग्ध हो तत्सम शब्दों

का, तुम ऐसा जाल बुनो

अलंकार, व्यंजना, रम्य

उपमाओं के प्रतिमान चुनों,

 

विरह व्यथा दुख भरी कथा

कब होगी आँखें चार लिखो

फन फुँफकार रहा विषधर

पर कविवर तुम श्रृंगार लिखो…..।

 

दल-गत, छल-गत कृत्य दिखे

या पंथ-जाती संग्राम मचे

रहना इनसे अलग सदा तुम

कभी न इन पर काव्य रचें,

 

तपती जेठ दुपहरी में भी

शीतल मधुर बयार लिखो

फन फुँफकार रहा विषधर

पर कविवर तुम श्रृंगार लिखो।

 

कभी विसंगतियों पर भूख

प्यास पर कलम न चल पाए

रहना सजग, दया, करुणा

ममता, संत्रास न भरमाये,

 

निज हित पर प्रहार हो तब

समतामूलक व्यवहार लिखो

फन फुँफकार रहा विषधर

पर कविवर तुम श्रृंगार लिखो…..।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 18 ☆ अँधेरा पीछे पड़ा… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “अँधेरा पीछे पड़ा।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 18 ☆  अँधेरा पीछे पड़ा… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

रोज सूरज उगाता हूँ

पर अँधेरा है कि

पीछे ही पड़ा है।

 

कहाँ रख दूँ

धूप के तिनके

मुश्किल से सहेजे हैं

गढ़ रहे हैं

रोशनी की बात

अपने ही कलेजे हैं

 

रोज दीपक जलाता हूँ

लिए छाया ढीठ

तम नीचे खड़ा है।

 

आँगनों तक

पसर कर बैठा

उजली जात का पहरा

दब गया है

बहुत गहरे में

ख़ुशी का एक चेहरा

 

आस चिड़िया चुगाता हूँ

वक्त ने हरबार

थप्पड़ ही जड़ा है।

 

बाँध संयम

भोर को दे अर्घ्य

रखकर अल्गनी पर रात

कर्म को ही

मानकर अनुदान

झेले उम्र भर आघात।

 

रोज साँसें चुराता हूँ

और जीवन है कि

पंछी सा उड़ा है।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आँखों से बयाँ और कहानी है तुम्हारी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “आँखों से बयाँ और कहानी है तुम्हारी“)

✍ आँखों से बयाँ और कहानी है तुम्हारी… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

सर मेरा किसी शख़्स को  झुकने से बचा है

अहसान कभी मैंने किसी का न लिया है

सूरज जो लुटाता है जमाने को  उजाला

जब मुझको जरूरत थी  ग्रहण में वो रहा है

इंसान तुझे हिंदू यवन सिख्ख दिखेगें

आँखों पे तेरी रंग जो मज़हब का चढ़ा है

दावे जो मुलाकात के करता तू सभी से

जाहिर यही होता नहीं तू खुद से मिला है

आँखों से बयाँ और कहानी है तुम्हारी

हौठों पे तबस्सुम को भले ओढ़ रखा है

ताला मैं अलीगढ़ का हूँ तारीफ ये काफी

जो दूसरी चाबी से खुलेगा न खुला है

आईने सा किरदार न रख पाए तुम अपना

शुहरत पे तभी छाने लगा धुन्द घना है

इमदाद से इनकार किसी को न अरुण की

बरक़त का खज़ाना सदा वो मेरा भरा है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

Please share your Post !

Shares

हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 77 – पानीपत… भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 77 – पानीपत… भाग – 7 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

हमारे मुख्य प्रबंधक जी ऊंचे लोग, ऊंची पसंद और उससे भी ऊंची सोच के धनी थे. उनका ऐसा मानना था कि हमेशा इरादे बुलंद और ऊंचे होना चाहिए, इसलिए अगर मांगना ही हो तो वो मांगो जिसे मांगने के बारे में आम लोग सपने में भी न सोचें. इसी सोच के तारतम्य में उनका अगला लक्ष्य वापस उसी अंचल में जाना था जहाँ से वो आये थे और जहाँ उनका परिवार पदस्थ था. ये उनका व्यक्तिगत लक्ष्य था या महत्वाकांक्षा, इसका निर्णय करना मुश्किल था पर जो भी ये था या ऐसा था, उसका इस ब्रांच से कोई लेना देना नहीं था. आम जनता के लिए ये सोचना भी धृष्टता कही जाती, साथ ही सामान्य हो या असामान्य परिस्थिति, ये इतनी जल्दी संभव भी नहीं था, पर उनकी यह सोच इसलिए बनी कि

  1. वरिष्ठ प्रबंधन के लिये कोई स्थानांतरण नीति हैइच नहीं
  2. उनके द्वारा कोई स्थानांतरण व्यय क्लेम नहीं किया जायेगा क्योंकि यह स्थानांतरण स्वैच्छिक होगा.
  3. वो तो स्वयं जिस अंचल में जाना चाहते थे, वो दुर्गम और कठिनतम क्षेत्र माना जाता था जहाँ कोई भी आसानी से जाने को तैयार नहीं होता. अपने आप को आगे बढ़कर पेश करना किसी बलिदान या सुविधाओं का त्याग ही कहा जाने वाला पुरस्कृत कृत्य होता.
  4. उनका रुझान सिर्फ अंचल तक ही सीमित था जिसके अंदर वो कहीं भी किसी भी पद पर जाने को तैयार थे.

अतः अपने प्रबल संपर्कों के माध्यम से ऐसा अनौपचारिक संदेश through improper channel भेजा गया और सक्षम अधिकारी से मिलने की अनुमति का भी निवेदन किया गया. पर होता वही है जो मंजूरे खुदा होता है तो जाहिर है कि सक्षम और अति वरिष्ठ प्रबंधन ने उनका अनौपचारिक निवेदन अस्वीकार कर दिया. बाद में फिर उसी अंचल के बैंक प्रायोजित ग्रामीण बैंक के वांछित पद के लिये भी आवेदन किया गया जिसके वे वैधानिक रूप से पात्र भी थे पर आश्चर्यजनक बात यह हुई कि अपनी नौकरी में वे पहली बार किसी साक्षात्कार में असफल हुये. उनके इर्दगिर्द सारे लोग भी अचंभित थे कि ऐसा क्यों हुआ. शायद बैंक अपने युवा मुख्य प्रबंधक को लूप लाईन में नहीं डालना चाहती थे. उन्हें कठिन से कठिन और चुनौतीपूर्ण एसाइनमेंट में तपा कर शुद्ध सोने की तरह ढालना चाहती थी जो उनकी कैरियर की अगली पादान में काम आये. हालांकि कुछ लोग ऐसा भी सोचते थे कि उनका स्वयं दुर्गम अंचल में जाने के लिये निवेदन करना गदाधारी भीम से गदा मांगने तुल्य धृष्टता थी. ये दुर्गम स्थान तो उनके लिये होते हैं जिनसे नाराजगी रहती है. अगर दूसरे लोग जब खुदबखुद जाने लगेंगे तो काला पानी की सजा के लिये दूसरा “अंडमान निकोबार” कहाँ मिलेगा. ये बात अलग है कि लोग एल. एफ. सी. पर भी वहीं जाकर बैंकाक सिंगापुर के लिये छलांग मारते हैं. जब उनके घरवापसी के सारे प्रयास धराशायी हो गये तो उनका अपनी संस्था से मोहभंग हुआ. काम करने के मामले में वे बहुत मजबूत थे और सोलह सोलह घंटे उनकी काम करने की क्षमता किसी भी प्रधानमंत्री की कार्यक्षमता को चुनौती दे सकने में सक्षम थी. उनकी नाराजगी इस बात पर थी कि अगर उनकी घर वापसी हो जाती तो वे तो सोलह क्या 18 घंटे भी काम कर सकते थे. पर उनके लिये बहुत कुछ आगे इंतजार कर रहा था जिसकी कल्पना उनके अलावा किसी और को भी नहीं थी. आगे क्या हुआ, इसके लिए अगले अंक का इंतजार कीजिए. इस कथा के सारे पात्र और स्थान पूरी तरह से काल्पनिक हैं और वास्तविकता से कोसों दूर हैं.

“जो बाहर से भरा दिखे पर अंदर से खाली हो उसे टैंकर कहते हैं और जो पढ़कर भी चुपचाप आगे बढ़ ले उसे बैंकर कहते हैं. ” जय जिनेन्द्र!!!

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

Please share your Post !

Shares