मराठी साहित्य – मराठी कविता ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 193 ☆ अण्णाभाऊ विनम्र अभिवादन!… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

सुश्री प्रभा सोनवणे

? कवितेच्या प्रदेशात # 193 ?

☆ अण्णाभाऊ विनम्र अभिवादन!… ☆ सुश्री प्रभा सोनवणे ☆

अण्णाभाऊ तुम्ही गेलात तेव्हा,

मी असेन तेरा वर्षांची!

तेव्हाही तुमच्या मोठेपणाची

खूणगाठ मनाशी घट्ट!

वाचत होते वर्तमानपत्रातून,

मासिकांमधून,

तुमचे आणि तुमच्या विषयीचे!

तुमचा सीमा लढा, सामाजिक बांधिलकी, सांस्कृतिक चळवळ!

अमर शेखांसह गाजलेली कलापथके,

काॅम्रेड डांग्यांबरोबरचे स्नेहबंध,

कम्युनिस्ट विचारसरणीचे,

तुमचे झंझावाती व्यक्तिमत्व!

 शिष्टमंडळासह केलेली रशियाची वारी!

 

लाखो रसिकांप्रमाणे, मी ही गुणगुणते तुमचे शब्द, “माझी मैना गावाकडं राहिली, माझ्या जिवाची होतीया काहिली !”

या लावणीतले आर्त

मनाला वेढून राहिलेले!

त्या शब्दांची जादू आजही टिकून!

तुमची सदाहरित गीते लोकप्रिय आजही!

 

तुमचं मजल्याचं घर पाडणा-यांना,

जाणवलंही असेल,

तुमचं अबाधित अढळत्व!

रसिक वाचकांच्या मना मनात

“फकिरा” नं घर करणं!

 

किती वेगळे, अलौकिक तुमचे कार्यकर्तृत्व……  

कौल जनमानसाचा—

घ्यावा मुजरा मानाचा!

© प्रभा सोनवणे

संपर्क – “सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

मोबाईल-९२७०७२९५०३,  email- [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ.उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 14 – दानों के लाले हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – दानों के लाले हैं।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 14 – दानों के लाले हैं… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

बाज, गिद्ध, क्या रोक सकेंगे

नई उड़ानों को

 

नन्ही चिड़ियों ने

उड़ने के सपने पाले हैं

गौरइयों के चूजों को

दाने के लाले हैं

मुखिया ने कब्जाया है

आँगन, चौगानों को

 

पिंजरों के बाहर भी

जाने कितने खतरे हैं

जाल बिछाये हुए शिकारी

छिपकर पसरे हैं

झुण्ड बनाकर तोड़ेगे

सारे व्यवधानों को

 

शोषणकारी क्रूर

किया करते मनमानी हैं

अब इन दमितों ने

मरने-मिटने की ठानी है

एक साथ मिलकर लूटेंगे 

ये तहखानों को

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 91 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 91 – मनोज के दोहे… ☆

१ अंकुर

अंकुर निकसे प्रेम का, प्रियतम का आधार।

नेह-बाग में जब उगे, लगे सुखद संसार ।।

२ मंजूषा

प्रेम-मंजूषा ले चली, सजनी-पिय के द्वार।

बाबुल का घर छोड़कर, बसा नवल संसार ।।

३ भंगिमा

भाव-भंगिमा से दिखें, मानव-मन उद्गार।

नवरस रंगों से सजा, अन्तर्मन  शृंगार।।

४ पड़ाव

संयम दृढ़ता धैर्यता, मंजिल तीन पड़ाव ।

मानव उड़े आकाश में, सागर लगे तलाव।।

५ मुलाकात

मुलाकात के क्षण सुखद, मन में रखें सहेज।

स्मृतियाँ पावन बनें, बिछे सुखों की सेज।।

 ©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 147 – “धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर” – लेखक – श्री राजेंद्र नागदेव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री राजेंद्र नागदेव जी द्वारा रचित काव्य संग्रह “धूप में अलाव सी सुलग रही रेत परपर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 147 ☆

☆ “धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर” – लेखक – श्री राजेंद्र नागदेव ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर

राजेंद्र नागदेव

बोधि प्रकाशन, जयपुर

मूल्य  १५० रु

पृष्ठ १००

राजेंद्र नागदेव एक साथ ही कवि, चित्रकार और पेशे से वास्तुकार हैं. वे संवेदना के धनी रचनाकार हैं. १९९९ में उनकी पहली पुस्तक सदी के इन अंतिम दिनो में, प्रकाशित हुई थी. उसके बाद से दो एक वर्षो के अंतराल से निरंतर उनके काव्य संग्रह पढ़ने मिलते रहे हैं. उन्होने यात्रा वृत भी लिखा है. वे नई कविता के स्थापित परिपक्व कवि हैं. हमारे समय की राजनैतिक तथा सामाजिक  स्थितियों की विवशता से हम में से प्रत्येक अंतर्मन से क्षुब्ध है. जो राजेंद्र नागदेव जी जैसे सक्षम शब्द सारथी हैं, हमारे वे सहयात्री कागजों पर अपने मन की पीड़ा उड़ेल लेते हैं. राहत इंदौरी का एक शेर है

” धूप बहुत है, मौसम ! जल, थल भेजो न. बाबा मेरे नाम का बादल भेजो न “

अपने हिस्से के बादल की तलाश में धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर भटकते “यायावर” को ये कवितायें किंचित सुकून देती हैं. मन का पंखी अंदर की दुनियां में बेआवाज निरंतर बोलता रहता है. “स्मृतियां कभी मरती नहीं”, लम्बी अच्छी कविता है. सभी ३८ कवितायें चुनिंदा हैं. कवि की अभिव्यक्ति का भाव पक्ष प्रबल और अनुभव जन्य है. उनका शब्द संसार सरल पर बड़ा है. कविताओ में टांक टांक कर शब्द नपे तुले गुंथे हुये हैं, जिन्हें विस्थापित नहीं किया जा सकता. एक छोटी कविता है जिज्ञासा. . . ” कुछ शब्द पड़े हैं कागज पर अस्त व्यस्त, क्या कोई कविता निकली थी यहां से “. संभवतः कल के समय में कागज पर पड़े ये अस्त व्यस्त शब्द भी गुम हो जाने को हैं, क्योंकि मेरे जैसे लेखक अब सीधे कम्प्यूटर पर ही लिख रहे हैं, मेरा हाथ का लिखा ढ़ूढ़ते रह जायेगा समय. वो स्कूल कालेज के दिन अब स्मृति कोष में ही हैं, जब एक रात में उपन्यास चट कर जाता था और रजिस्टर पर उसके नोट्स भी लेता था स्याही वाली कलम से.

संवेदना हीन होते समाज में लोग मोबाईल पर रिकार्डिंग तो करते हैं, किन्तु मदद को आगे नहीं आते, हाल ही दिल्ली में चलती सड़क किनारे एक युवक द्वारा कथित प्रेमिका की पत्थर मार मार कर की गई हत्या का स्मरण हो आया जब राजेंद्र जी की कविता अस्पताल के बाहर की ये पंक्तियां पढ़ी

” पांच से एक साथ प्राणो की अकेली लड़ाई. . . . . मरे हुये पानी से भरी, कई जोड़ी आंखें हैं आस पास, बिल्कुल मौन. . . . किसी मन में खरौंच तक नहीं, आदमी जब मरेगा, तब मरेगा, पत्थर सा निर्विकार खड़ा हर शख्स यहां पहले ही मर गया है. “

राजेंद्र नागदेव की इन कविताओ का साहित्यिक आस्वासादन लेना हो तो खुद आराम से पढ़ियेगा. मैं कुछ शीर्षक बता कर आपकी उत्सुकता जगा देता हूं. . . संवाद, बस्ती पर बुलडोजर, दिन कुछ रेखा चित्र, मेरे अंदर समुद्र, मारा गया आदमी, अंधे की लाठी, कवि और कविता, सफर, लहूलुहान पगडंडियां, अतीतजीवी, मशीन पर लड़का, जा रहा है साल, कुहासे भरी दुनियां, हिरण जीवन, प्रायश्चित, स्टूडियो में बिल्ली, तश्तरी में टुकड़ा, कोलाज का आत्मकथ्य, टुकड़ों में बंटा आदमी, अंतिम समय में, जैसे कहीं कुछ नहीं हुआ, उत्सव के खण्डहर संग्रह की अंतिम कविता है. मुझे तो हर कविता में ढ़ेरों बिम्ब मिले जो मेरे देखे हुये किन्तु जीवन की आपाधापी में अनदेखे रह गये थे. उन पलों के संवेदना चित्र मैंने इन कविताओ में मजे लेकर जी है.

सामान्यतः किताबों में नामी लेखको की बड़ी बड़ी भूमिकायें होती हैं, पर धूप में अलाव सी सुलग रही रेत पर में सीधे कविताओ के जरिये ही पाठक तक पहुंचने का प्रयास है. बोधि प्रकाशन, जयपुर से मायामृग जी कम कीमत में चुनिंदा साहित्य प्रकाशित कर रहे है, उन्होंने राजेंद्र जी की यह किताब छापी है, यह संस्तुति ही जानकार पाठक के लिये पर्याप्त है. खरीदिये, पढ़िये और वैचारिक पीड़ा में साहित्यिक आनंद खोजिये, अर्थहीन होते सामाजिक मूल्यों की किंचित  पुनर्स्थापना  पाठकों के मन में भी हो तो कवि की लेखनी सोद्देश्य सिद्ध होगी.

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 20 – यात्रा वृत्तांत – काज़ीरंगा ☆ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा वृत्तांत – काज़ीरंगा)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 20 ☆ 
? मेरी डायरी के पन्ने से…  – यात्रा वृत्तांत – काज़ीरंगा ?

कुछ घटनाएँ चिरस्मरणीय होती हैं।

हमारे बचपन में उन दिनों हर घर के नियम होते थे कि पहला सितारा दिखे तो संध्या समय पर खेलकर घर लौटना है।

खिलौने तो होते न थे सारे दोस्त मिलकर ही कोई न कोई खेल इज़ाद कर लेते थे। खेलते -खेलते समय का भान न रहता कि कब सूर्यदेव अस्त हो गए और कब आसमान सितारों की चमक से भर उठा। घर लौटते तो माँ की डाँट अवश्य पड़ती और रोज़ एक ही बहाना रहता कि आसमान की ओर देखा ही नहीं।

गर्मी के मौसम में घर के आँगन में खटिया बिछाते या लखनऊ (मेरा मायका) जाते तो हवेली की छत पर दरियाँ बिछाकर सोते और हर चमकते सितारे से परिचित होते। नींद न आती तो भाई – बहन सितारे गिनते। कभी – कभी आपस में उन्हें बाँट भी लेते। सप्तर्षि का दर्शन आनंददायी होता।

अक्सर चाँद और उसकी चाँदनी मन को मंत्र मुग्ध कर देती। चाँद में छिपे खरगोश को सभी ढूँढ़ते। कभी हल्के बादल चाँद को ढक देते तो रात और गहरा जाती और शीतल हवा के झोंके हमें नींद दे जाते।

अक्सर अपने घर के भीतर से चाँद दिखाई देता था तो न जाने मन कहाँ – कहाँ सैर कर आता।

आसमान भर सितारे बस उसी बचपन में देखने का सौभाग्य मिला था। उसके बाद मैदान क्या छूटा मानो आसमान भी छूट गया।

सितारे छूट गए और छूटे चाँद और चाँदनी।

बड़ी हुई तो विवाह होते ही फ्लैट में रहने चले आए। फ्लैट भी निचला मंज़िला जहाँ किसी भी खिड़की से कभी चाँद दिखाई ही न देता।

समय बदल चुका था। ज़िंदगी भाग रही थी। साल बदलते जा रहे थे और उम्र बढ़ रही थी।

किसी के साथ कोई स्पर्धा न थी बस जुनून था अपने कर्तव्यों की पूर्ति सफलता से करने का। कब बेटियाँ ब्याही गईं और हम साठ भी पार कर गए वक्त का पता ही न चला। ।

मन के किसी कोने से अब भी सितारों से भरा आसमान देखने की तमन्ना झाँक रही थी। बचपन का वह मैदान, माँ की बातें और उनकी डाँट अब अक्सर याद आने लगीं।

ईश्वर ने फिर एक मौका दिया। हम नागालैंड के हॉर्नबिल फेस्टीवल देखकर काजीरांगा जंगल की सैर करने गए।

दिसंबर का महीना था। हाथी की सवारी के लिए प्रातः पाँच बजे जंगल के मुख्य द्वार तक पहुँचना होता है। खुली जीप हमें होटल से लेने आई। आसमान स्वच्छ, नीला ऐसा कि बहुत बचपन में ऐसा प्रदूषण रहित आसमान देखने की बात स्मरण हो आई। चाँद अब भी चमक रहा था और सितारे जगमगा रहे थे। सर्द हवा से तन -मन रोमांचित हो रहा था। ठंडी के दिनों में भी साढ़े छह बजे तक ही सूर्यदेव अपनी ऊर्जा देने आसमान पर छा जाते हैं। तब तक पौ फटने तक सितारे दर्शन दे जाते।

हाथी पर सवारी कर लौटते -लौटते सुबह हो गई। खूब सारी जंगली भैंस चरती हुई दिखीं और दिखे गेंडे, कोई अकेले तो कोई मादा अपने नवजात के साथ तो कोई जोड़े में। भारत में यहीं पर बड़ी संख्या में गेंडों को देखने का आनंद लिया जा सकता है। बाघ देखने का सौभाग्य हमें न मिला।

शाम को खुली जीप में बैठकर जंगल की दूसरी छोर से फिर सफ़ारी पर निकले तो चीतल, जुगाली करती भैंसों का झुंड , हाथियों के झुंड और गेंडे फिर दिखाई दिए।

एक गेंडे को जंगल के एक ओर से दूसरी ओर जाना था। हमारे सतर्क जीप चालक ने जब यह देखा तो उसने तुरंत काफी दूरी पर ही जीप रोक दी। हमसे कहा कि हम शोर न करें। हम अपनी जगह पर बैठकर ही तस्वीरें लेते रहे। गेंडे की पता नहीं क्या मंशा थी, वह बीस मिनट तक सड़क के बीचोबीच खड़ा रहा। हमें भी इस विशाल और आकर्षक प्राणी को निहारने का सुअवसर मिला। फिर धीरे – धीरे रास्ता पार कर गेंडा दूसरी ओर के मैदान की लंबी घासों के बीच विलीन हो गया।

सड़क पर हमें एक जगह बड़ी मात्रा में लीद नज़र आई, पूछने पर जीप चालक ने बताया कि गेंडे की आदत होती है कि वह एक ही स्थान पर कई दिनों तक मल विसर्जित करते हैं। फिर जगह बदलते हैं और जंगल के अन्यत्र दिशा की ओर निकल जाते हैं।

ठंडी के मौसम में अँधेरा जल्दी होता है। अभी बस सूर्यास्त हुआ ही था कि जंगल में कुछ चमकता सा दिखने लगा। हम लोगों को भ्रम हुआ कि शायद जुगनू हैं , पर ठंडी के मौसम में तो जुगनू बाहर नहीं आते। ध्यान से देखने पर जीप चालक ने बताया कि वे हिरणों की आँखें थीं। वे अब सब एक जगह पर एकत्रित होकर जुगाली कर रहे थे।

जंगल में पूर्ण निस्तब्धता थी। शायद इसलिए झींगुर की आवाज़ स्पष्ट सुनाई देने लगी थी। ऊँची घास में से चर्र-मर्र की आवाज़ भी आने लगी। संभवतः हाथियों का झुंड घास तोड़ रहा था। पास में ही पतला संकरा नाला – सा बह रहा था। उसमें हाथियों का झुंड और बच्चे पानी से खेल रहे थै। आनंददायी दृश्य था। पर खास स्पष्ट न था क्योंकि बीच में लंबी घास थीं।

हमने खुली जीप से आकाश की ओर देखा तो लगा सितारे हमें बुला रहे थे। हाथ ऊपर करते तो मानो उन्हें छू लेते। आकाश भर सितारे और सरकते हल्के बादल के चादरों के नीचे छिपा चाँद और शीतल बयार ने फिर एक बार बचपन के सुप्त अनुभवों को क्षण भर के लिए ही सही आँखों के सामने साकार कर दिया। एक लंबे अंतराल के बाद सितारों को देख मन रोमांचित हो उठा।

सहसा मन में एक बात उठी कि हम प्रकृति से कितनी दूर चले गए। झींगुर की आवाज़ मधुर संगीत सा प्रतीत हुआ। जंगल के कीड़े – मकोड़ों को शायद पचास साल बाद फिर एक बार पास से देखने का अवसर मिला।

क्या वजह है कि इन छोटे -छोटे आनंद से हम वंचित हो गए!

सूर्यास्त के बाद हम वहीं ऑर्किड पार्क में दो घंटे के लिए आयोजित बीहू डान्स देखने गए। यह अत्यंत आकर्षक और आनंददायी अनुभव रहा।

दोनों हाथों में दो थालियाँ लेकर नृत्य करतीं नर्तकियाँ, बाँसों के बीच उछलकर नृत्य, हाथ में दीया लेकर नृत्य और ताल संगत में बाँसुरी ढोलक, मृदंग, खंजनी और उनके कुछ स्थानीय वाद्य -सब कुछ आकर्षक और आनंददायी रहा।

दूसरे दिन सुबह हम ऑर्किड पार्क देखने गए। यहाँ कई प्रकार के ऑरकिड फूल और कैक्टस के पौधे दिखाई दिए।

इसी स्थान पर छोटा – सा संग्रहालय है जहाँ आसाम में खेती बाड़ी और चा बाग़ानों में उपयोग में लाए जानेवाले हल कुदाल, फावड़ा, टोकरियाँ आदि की प्रदर्शनी है।

पुराने ज़माने में उनके वस्त्र, योद्धाओं के अस्त्र- शस्त्र तथा गणवेश भी रखे गए हैं। एक कमरे में हाथ करघे पर बनाए जाने वाले मेखला चादर बुनती लड़कियाँ भी बैठी होती हैं। पर्यटक खड़े होकर इन्हें बनते हुए देख सकते हैं। यह पारंपारिक वस्त्र है और इन्हें बुनने में समय लगता है।

शहर में सभी हिंदी बोलने में समर्थ हैं। लोग स्वभाव से मिलनसार हैं और सहयोग देने में पीछे नहीं हटते।

काज़ीरंगा मूल रूप से नैशनल पार्क के लिए ही प्रसिध्द है। यहाँ छोटी – सी जगह में जो जंगल का परिसर नहीं है वहाँ लोग निवास करते हैं। घरों में महिलाएँ छोटे -छोटे कुटीर उद्योग करते हैं। महिलाएँ ही चाय के बागानों में काम करती हैं। यहाँ स्त्रियाँ ही पुरुषों से अधिक श्रम करती हैं। यहाँ के निवासी पान खाने के अत्यंत शौकीन होते हैं। स्त्री -पुरुष सभी दिन में कई बार पान चबाते दिखाई देते हैं।

फिर सुखद अनुभव लिए हम आगे की यात्रा मेघालय के लिए निकल पड़े।

क्रमशः…

© सुश्री ऋता सिंह

10/12/2022, 10.30 pm

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 45 – देश-परदेश – हस्तलिपि ☆ श्री राकेश कुमार ☆

श्री राकेश कुमार

(श्री राकेश कुमार जी भारतीय स्टेट बैंक से 37 वर्ष सेवा के उपरांत वरिष्ठ अधिकारी के पद पर मुंबई से 2016 में सेवानिवृत। बैंक की सेवा में मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, राजस्थान के विभिन्न शहरों और वहाँ  की संस्कृति को करीब से देखने का अवसर मिला। उनके आत्मकथ्य स्वरुप – “संभवतः मेरी रचनाएँ मेरी स्मृतियों और अनुभवों का लेखा जोखा है।” ज प्रस्तुत है आलेख की शृंखला – “देश -परदेश ” की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 45 ☆ देश-परदेश – हस्तलिपि ☆ श्री राकेश कुमार ☆

ऐसा माना जाता है, कि हस्तलिपि लिखने वाले का आइना होती हैं। उसको देखकर व्यक्ति के व्यक्तित्व, चरित्र और अनेक जानकारियां प्राप्त की जा सकती हैं।

हस्तलिपि विशेषज्ञ कानून के सहयोगी बन कर न्याय प्रणाली में विश्वास बनाए रखने में सहायता करते हैं। जब तक टंकण इत्यादि सुविधा उपलब्ध नहीं थी, अच्छी हस्तलिपि वाले आलेख लिखने में अग्रणी रहते थे। दुकान इत्यादि पर लगने वाले बोर्ड पर सुंदर हस्तलिपि वाले ही पेंट से नाम अंकित किया करते थे।

हम तो ऊपर लिखे गए संदेश वालों की बिरादरी से आते हैं। खराब हस्तलिपि के कारण पुराने समय में परिवार के बुजुर्ग पत्राचार में भी हमें अवसर नहीं देते थे। छोटा भाई अवश्य दादा जी का पत्र लिख कर एक चवन्नी कबाड़ लेता था।

हमारे बैंक के एक मित्र तो मज़ाक में ये तक कह जाते थे, उनके लिखे हुए में जो कुछ पूछना है, चौबीस घंटे में पूछ लेवें, इसके बाद उनकी यादस्त साथ नहीं देती हैं।

कुछ लोग तो इतना सुंदर लिखते है, कि मानो कागज पर मोती बिखेर दिए हों।

विवाह पूर्व जब भावी पत्नी को पत्र लिखा, तो जवाब आया था कि हमारी हस्तलिपि तो डॉक्टरों जैसी है, उनके पर्चे तो कंपाउंडर ही पढ़ पता है, आपका पत्र कौन  पढ़ पाएगा। हमने उत्तर में लिखा था, आप ही हमारी कंपाउंडर हैं। इससे पूर्व आप कहें की दूरभाष का उपयोग भी तो किया जा सकता था, तो बताए देते है, हमारे घर की एक मील की परिधि में भी किसी के यहां दूरभाष की सुविधा उपलब्ध नहीं थी।

ये तो भला हो कंप्यूटर/मोबाईल की सस्ती सुविधा उपलब्ध हो जाने से हमारे जैसे निकृष्ट हस्तलिपि वालों की समाज में इज्ज़त बनी हुई हैं।

© श्री राकेश कुमार

संपर्क – B 508 शिवज्ञान एनक्लेव, निर्माण नगर AB ब्लॉक, जयपुर-302 019 (राजस्थान) 

मोबाईल 9920832096

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #199 ☆ ‘केवड्याचा भास…’ ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 199 ?

☆ केवड्याचा भास… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

केवड्याचा भास होतो

नागिनीचा त्रास होतो

 

हो म्हणावे ही अपेक्षा

खालीवरती श्वास होतो

 

आज का परका समजते ?

काल तर मी खास होतो

 

प्रीतिचा वनवास नव्हता

केवढा बिंधास होतो

 

काल तर तू पास केले

आज का नापास होतो ?

 

कावळ्यांनी संप केला

त्रास तर पिंडास होतो

 

मेघ नसता अंबरी का ?

मातिला आभास होतो

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 149 – गीत – दूर रहो तुम तन से… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – दूर रहो तुम तन से।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 149 – गीत – दूर रहो तुम तन से…  ✍

दूर रहो तुम तन से

कह दूँगा मैं मन से।

समझ नहीं पाया हूँ अब तक

पाप पुण्य की परिभाषा

देह गेह में जलती रहती

अनलमुखी सी अभिलाषा |

वरुण लता सी कांति तुम्हारी

रखना दूर अगन से।

 

ज्वालामुखी खौलता मुझमें

शांत कौन कर पायेगा

किसको गरज पड़ी है ऐसी

जो मल्हार सुनायेगा

चर्चा राग रागिनी वाली

कहाँ किसी निर्धन से।

 

कृष्ण न लौटें

मथुरा से पर

राह तकेंगी ब्रज बाला

अनुभरी आँखों के पीछे

झाँक रहा मुरली वाला

साँसों का संगीत उठा है

मन के वृन्दावन से।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 149 – “खत वह मेहबूब का…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  खत वह मेहबूब का..)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 149 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆
☆ “खत वह मेहबूब का…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

सिर उठाये

स्वाभिमान दूब का

लोग देख बोलते

जुमला ‘क्या खूब’ का

 

ओस बिन्दु मैदानी

बाहों में थाम कर

उठता मजदूर तनिक

सुस्ता आराम कर

 

जैसे नातेदारों मे

कोई पाहुना

बाँचने खड़ा उत्सुक

खत वह मेहबूब का

 

हवा के बहावों में

रह रह सकुचाता है

दिनके ढलते ढलते

संशय रह जाता है

 

लगता हो सूचना

दिन के समापन की

या फिर संदेशा यही

सूरज की डूब का

 

धरती पर हरियाले

बिम्बको उभार कर

सो जाता  रोज शाम

सब को पुकार कर

 

आँखो में भरे हुये

शीत सुरमई ठंडक

दूर किया करता दुख

हम सब की ऊब का

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

26-06-2023 

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संस्मरण # 199 ☆ “समय समय की बात” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक अविस्मरणीय संस्मरण – “समय समय की बात)

☆ संस्मरण ☆ “समय समय की बात” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

जमाना कितना बदल गया। हम लोगों ने परसाई जी के जीते जी 1991 में परसाई जन्मदिन के बहाने परसाई के व्यक्तित्व और कृतित्व पर तीन दिवसीय बड़ा आयोजन किया था, जिसमें गया से मुख्य अतिथि डॉ सुरेन्द्र चौधरी (ख्यातिलब्ध आलोचक) आये थे और अध्यक्षता महात्मा गांधी के निजी सचिव पूर्व सांसद डॉ महेश दत्त मिश्र जी ने की थी

इस अवसर पर ‘परसाई स्मारिका पुस्तिका’ हमारे सम्पादन में निकाली गई थी, उस समय कई सौ प्रतियां नि:शुल्क बांटी गईं थीं। आज के समय में प्रकाशक संग्रह छापने के पहले लेखक से सौ प्रतियां खरीदने की शर्त रख देते हैं।

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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