हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ समय चक्र # 170 ☆ बाल कविता – बत्तख और मछलियां ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ ☆

डॉ राकेश ‘ चक्र

(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी  की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों  से  सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।

आप  “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से  उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 169 ☆

☆ बाल कविता – बत्तख और मछलियाँ ☆ डॉ राकेश ‘चक्र’ 

चोंच है पीली, पंख विशाल।

    बत्तख रानी बड़ी कमाल।।

दाना खाती बड़े चाव से।

     मछली देखें बड़े भाव से।।

 

मछली बोलीं अरे! ओ बत्तख

     हमें भी दाना खिलवाओ।

भूख लगी है बड़े जोर की

     हमसे नहीं तुम शरमाओ।।

 

बत्तख बोली अरे मछलियो

    दाना  तुम्हें खिलाती हूँ।

सैर करूँगी मैं भी जल की

     तुमको सखा बनाती हूँ।।

 

सभी मछलियों को बत्तख ने

    दाना प्रेम से खिलवाया।

पेट भरे पर नाचे – कूदे

    सबने ही आनन्द मनाया।।

© डॉ राकेश चक्र

(एमडी,एक्यूप्रेशर एवं योग विशेषज्ञ)

90 बी, शिवपुरी, मुरादाबाद 244001 उ.प्र.  मो.  9456201857

[email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ सुजित साहित्य #171 ☆ वातानुकुलित … ☆ श्री सुजित कदम ☆

श्री सुजित कदम

? कवितेचा उत्सव ?

☆ सुजित साहित्य # 171 ☆ वातानुकुलित… ☆ श्री सुजित कदम ☆

एका आलिशान वातानुकुलीत

दुकानाच्या आत

निर्जीव पुतळ्यांना

घातलेल्या रंगीबेरंगी

कपड्यांना पाहून,

मला माझ्या बापाची

आठवण येते…

कारण,

मी लहान असताना,

नेहमी माझ्यासाठी

रस्त्यावरून कपडे खरेदी

करताना,

माझा बाप माझ्या

चेह-यावरून हात

फिरवून त्याच्या

खिशातल्या पाकिटाला

हात लावायचा…

आणि

वातानुकुलीत

दुकानातल्या कपड्यांपेक्षा

रस्त्यावरचे कपडे

किती चांगले असतात

हे किती सहज

पटवून द्यायचा…

खिशातलं एखादं चाॅकलेट

काढून तेव्हा तो हळूच

माझ्या हातात ठेवायचा…

आणि

माझ्या मनात भरलेले कपडे

तेव्हा तो माझ्या नजरेतूनच ओळखायचा…

आम्ही कपडे खरेदी करून

निघाल्यावरही

माझा बाप चार वेळा

मागं वळून पहायचा

आणि

“एकदा तरी आपण

ह्या आलिशान दुकानातून कपडे

खरेदी करू”

इतकंच माझ्याकडे पाहून

बोलायचा…

पण आता,

मला त्या निर्जीव पुतळ्यानां घातलेल्या..

रंगीबेरंगी कपड्यांच्या

किंमतीचे लेबल पाहून…

माझ्या बापाचं मन कळतं

आणि त्यांनं तेव्हा…

डोळ्यांच्या आड लपवलेलं पाणी

आज माझ्या डोळ्यांत दाटून येतं…

कारण,

मी माझ्या लेकरांला

रस्त्यावरून कपडे

खरेदी करताना,

त्याच्यासारखाच मी ही

तेव्हा

किलबिल्या नजरेने

ह्या दुकानांकडे पहायचो…

आणि

ह्या रंगीबेरंगी कपड्यांची

स्वप्नं तेव्हा मी नजरेमध्ये साठवायचो…

अशावेळेस,

नकळतपणे

माझा हात

माझ्या लेकरांच्या चेह-यावर

कधी फिरतो कळत नाही…

आणि

पाकिटातल्या पैशांची

संख्या काही बदलत नाही…

परिस्थितीची ही गोळा बेरीज

अजूनही तशीच आहे

आणि

मनमोकळं जगणं

अजून…

वातानुकुलीत व्हायचं आहे..

.© श्री सुजित कदम

(टीप.. कविता आवडल्यास नावासहीतच फाॅरवर्ड करावी ही नम्र विनंती )

संपर्क – 117, विठ्ठलवाडी जकात नाका, सिंहगढ़   रोड,पुणे 30

मो. 7276282626

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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मराठी साहित्य – चित्रकाव्य ☆ हसरे कुटुंब ! ☆ श्री प्रमोद वामन वर्तक ☆

श्री प्रमोद वामन वर्तक

?️?  चित्रकाव्य  ?️?

? हसरे कुटुंब ! ? श्री प्रमोद वामन वर्तक ⭐

चेहरा घेऊन मानवाचा

फुले अनवट फुलली,

किमया भारी निसर्गाची

आज म्या डोळा पाहिली !

गाल गोबरे गोल फुगले

नाकी तोंडी रंग लाल,

दोन डोळे भेदक काळे

शोभे अंगी झगा धवल !

वाटे जणू एका रांगेत  

उभी राहिली मुले गोड,

साथ देती आई बाबा

नसे प्रेमा त्यांच्या तोड !

नसे प्रेमा त्यांच्या तोड !

© प्रमोद वामन वर्तक

दोस्ती इम्पिरिया, ग्रेशिया A 702, मानपाडा, ठाणे (प.)

मो – 9892561086 ई-मेल – [email protected]

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ तन्मय साहित्य #192 – कविता – मौन मन का मीत… ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’

(सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ जी अर्ध शताधिक अलंकरणों /सम्मानों से अलंकृत/सम्मानित हैं। आपकी लघुकथा  रात  का चौकीदार”   महाराष्ट्र शासन के शैक्षणिक पाठ्यक्रम कक्षा 9वीं की  “हिंदी लोक भारती” पाठ्यपुस्तक में सम्मिलित। आप हमारे प्रबुद्ध पाठकों के साथ  समय-समय पर अपनी अप्रतिम रचनाएँ साझा करते रहते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता  मौन मन का मीत)

☆ तन्मय साहित्य  #192 ☆

☆ मौन मन का मीत…. ☆ श्री सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय’ ☆

ओशो को पढ़ते हुए मौन पर एक छंद सृजित हुआ, प्रतिक्रियार्थ प्रस्तुत है…

बिना कहे, जो सब कह जाए वही मौन है

निर्विचार, चिंतक हो जाए वही मौन है

अन्तर शुन्याकाश, व्याप्त चेतनानुभूति

निष्प्रह मन, खुशियाँ पहुँचाये वही मौन है।

 – तन्मय

उपरोक्त मुक्तक के संदर्भ में एक रचना “मौन मन का मीत…” जो पूर्व में विपश्यना के 10 दिवसीय मौन साधना शिविर करने के बाद लिखी थी, मन हो रहा है आपसे साझा करने का, प्रतिक्रियार्थ प्रस्तुत है –

☆ मौन मन का मीत…. ☆

मौन मन का मीत

मौन परम सखा है

स्वाद, मधुरस मौन का

हमने चखा है।

 

अब अकेले ही मगन हैं

शून्यता, जैसे गगन है

मुस्कुराती है, उदासी

चाहतों के, शुष्क वन है

जो मिले एकांत क्षण

उसमें स्वयं को ही जपा है, मौन…

 

कौन है, किसकी प्रतीक्षा

कर रहे, खुद की समीक्षा

हर घड़ी, हर पल निरंतर

चल रही, अपनी परीक्षा

पढ़ रहे हैं, स्वयं को

अंतःकरण में जो छपा है, मौन…

 

हैं, वही सब चाँद तारे

हैं, वही प्रियजन हमारे

और हम भी तो वही हैं

आवरण, कैसे उतारें

बाँटने को व्यग्र हम

जो, गाँठ में बाँधे रखा है, मौन…

 

मौन, सरगम गुनगुनाये

मौन, प्रज्ञा को जगाये

मौन, प्रकृति से मुखर हो

प्रणव मय गुंजन सुनाये

मौन की तेजस्विता से

मुदित हो तन मन तपा है।

स्वाद मधुरस मौन का

हमने चखा है।।

☆ ☆ ☆ ☆ ☆

© सुरेश कुशवाहा ‘तन्मय

जबलपुर/भोपाल, मध्यप्रदेश, अलीगढ उत्तरप्रदेश  

मो. 9893266014

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ जय प्रकाश के नवगीत # 17 ☆ राम को वनवास… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव ☆

श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

(संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं अग्रज साहित्यकार श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव जी  के गीत, नवगीत एवं अनुगीत अपनी मौलिकता के लिए सुप्रसिद्ध हैं। आप प्रत्येक बुधवार को साप्ताहिक स्तम्भ  “जय  प्रकाश के नवगीत ”  के अंतर्गत नवगीत आत्मसात कर सकते हैं।  आज प्रस्तुत है आपका एक भावप्रवण एवं विचारणीय नवगीत “राम को वनवास।)

✍ जय प्रकाश के नवगीत # 17 ☆  राम को वनवास… ☆ श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

ज़रूरत है फिर मिले,

राम को वनवास।

 

सरक आया जंगलों तक

शहर का जंगल,

हो रहे हैं सुबाहू

मारीच के दंगल,

 

ताड़का से गगनचुंबी,

बन गये आवास।

 

नदी बहरी हो गई है

मूक हैं झरने,

ज़हर पीकर हवाएँ भी

लगी हैं डसने,

 

हवन होती आस्थाएँ,

छल रहा विश्वास।

 

कहाँ विश्वामित्र हैं

कहाँ हैं गौतम,

अहल्या सी प्रजा सारी

पड़ी है बेदम,

 

कब उठेगा परस पाकर

मृत पड़ा उल्लास।

***

© श्री जय प्रकाश श्रीवास्तव

सम्पर्क : आई.सी. 5, सैनिक सोसायटी शक्ति नगर, जबलपुर, (म.प्र.)

मो.07869193927,

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – कविता ☆ आजिज़ी का न उतारे कभी तन से ज़ेवर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे ☆

श्री अरुण कुमार दुबे

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री अरुण कुमार दुबे जी, उप पुलिस अधीक्षक पद से मध्य प्रदेश पुलिस विभाग से सेवा निवृत्त हुए हैं । संक्षिप्त परिचय ->> शिक्षा – एम. एस .सी. प्राणी शास्त्र। साहित्य – काव्य विधा गीत, ग़ज़ल, छंद लेखन में विशेष अभिरुचि। आज प्रस्तुत है, आपकी एक भाव प्रवण रचना “आजिज़ी का न उतारे कभी तन से ज़ेवर“)

✍ आजिज़ी का न उतारे कभी तन से ज़ेवर… ☆ श्री अरुण कुमार दुबे 

हिन्द में आना फ़रिश्तों का लगा रहता है

जर्रे ज़र्रे में यहाँ नूरे खुदा रहता है

बंद मजलूम को हर आदमी का दर होता

सिर्फ़ भगवान का दर सबको खुला रहता है

सिर्फ बातें नहीं जो उन पे अमल भी करता

सबकी नजरों में वो इंसान बड़ा रहता है

आजिज़ी का न उतारे कभी तन से ज़ेवर

तब बुलंदी पे कोई शख़्स बना रहता है

सर्फ सोडा न डिटर्जेट से वो धुल पाया

दाग बदनामी का जो दोस्त लगा रहता है

टाट टेरीन फलालीन या मलमल पहना

जो गधा होता है हर हाल गधा रहता है

इल्म उंसका है बड़ा ठोस तजुर्बे का अरुण

ज़िन्दगीं के जो मदरसे का पढ़ा रहता है

© श्री अरुण कुमार दुबे

सम्पर्क : 5, सिविल लाइन्स सागर मध्य प्रदेश

मोबाइल : 9425172009 Email : arunkdubeynidhi@gmail. com

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ आलेख # 76 – पानीपत… भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

श्री अरुण श्रीवास्तव

(श्री अरुण श्रीवास्तव जी भारतीय स्टेट बैंक से वरिष्ठ सेवानिवृत्त अधिकारी हैं। बैंक की सेवाओं में अक्सर हमें सार्वजनिक एवं कार्यालयीन जीवन में कई लोगों से मिलना   जुलना होता है। ऐसे में कोई संवेदनशील साहित्यकार ही उन चरित्रों को लेखनी से साकार कर सकता है। श्री अरुण श्रीवास्तव जी ने संभवतः अपने जीवन में ऐसे कई चरित्रों में से कुछ पात्र अपनी साहित्यिक रचनाओं में चुने होंगे। उन्होंने ऐसे ही कुछ पात्रों के इर्द गिर्द अपनी कथाओं का ताना बाना बुना है। आज प्रस्तुत है आपके एक विचारणीय आलेख  “पानीपत…“ श्रृंखला की अगली कड़ी।)

☆ आलेख # 76 – पानीपत… भाग – 6 ☆ श्री अरुण श्रीवास्तव ☆

रामचरित मानस और तुलसी के मर्यादा पुरुषोत्तम राम हमारे आराध्य हैं. रामचरित मानस का नियमित पाठ या चौपाइयों का सामान्य जीवन में अक्सर उल्लेख हमारी दादियों और माताओं द्वारा अक्सर किया जाता रहा है. राम का चरित्र और उनके आदर्श हमारे DNA में है, संस्कारों में रहे है. बाद में दूरदर्शन में अस्सी के दशक में रामायण धारावाहिक के प्रसारण और फिर 2020 के कोविड काल में इस अमर महाकाव्य के पुन: प्रसारण ने हमारी उम्र के हर दौर में इसे देखने, सुनने और गुनने का अवसर प्रदान किया है. राम मर्यादा पुरुषोत्तम थे, परम शक्तिशाली थे पर साथ ही दया, विनम्रता और शालीनता के गुणों की पराकाष्ठा से संपन्न थे. उनसे भयभीत होना संभव ही नहीं था, वे आश्वस्ति के प्रतीक थे. उनका अनुकरण शतप्रतिशत करना तो खैर असंभव के समान ही था पर उनकी नैतिकता हमें सदैव आश्वस्त करती आई है. यही तो कर्मकांड से परे वास्तविक धर्म है जिसे हमारी आस्था ने सनातन रखा है. “जाहे विधि राखे राम, ताहे विधि रहिये” भी हमारी मानसिक सोच रही है.

पानीपत सदृश्य मुख्य शाखा के हमारे मुख्य प्रबंधक में वाकपटुता तो नहीं थी पर सज्जनता और बैंकिंग का ज्ञान पर्याप्त था. उनकी सहजता और शालीनता धीरे धीरे स्टाफ के आकर्षण का केंद्र बनती गई और फिर शाखा के अधिकतर स्टाफ शाखा के कुशल परिचालन में आगे बढ़कर हाथ बटाने लगे. जब किसी का व्यक्तित्व भयभीत न करे तो यह गुण भी साथ में काम करने वालों को आकर्षित करता है. कभी कभी ऐसा भी होता है कि भयभीत करने वाले निर्मम प्रशासक अपने भय और चापलूसी का माहौल तो बना लेते हैं पर ऐसे में सहजता और मोटिवेशन लुप्त हो जाते हैं टीम तो यहां भी नजर आती है पर वास्तव में ये थानेदार और चापलूसों का कॉकस ही कहलाता है. पर इन सबसे परे, इस शाखा में धीरे धीरे ऐसे लोग जुड़ते गये जो हुक्मरानी और चापलूसी दोनों से घृणा करते थे. सशक्त कारसेवक थे पर किसी के डंडे से डरकर परफार्म नहीं करते थे. मिथक के अनुसार, आग में जलकर राख हो जाना और फिर उसी राख से उठकर पुन:जीवन पाने वाले पक्षी को फिनिक्स कहा जाता है. तो यही फिनिक्स का सिद्धांत शाखा में अस्तित्व में आया जिसे निकट भविष्य में आडिट इंस्पेक्शन, वार्षिक लेखाबंदी और Statutory Audit का सामना करना था. और सामना करना था अनियोजित, आकस्मिक फ्राड का जो इंस्पेक्शन के आगमन पर ही संज्ञान में आया. शाखा में बनी इस टीम भावना ने हर संकट पर विजय पाई, फ्राड की गई राशि की शतप्रतिशत वसूली की, इंस्पेक्शन में वांछित अंक पाये, डिवीजन अपग्रेड हुई, लेखाबंदी संपन्न हुई और बाद में सावधिक अंकेक्षण का विदाउट एम. ओ. सी. का लक्ष्य भी कुशलता पूर्वक प्राप्त किया. कोई भी बैंक और कोई भी शाखा किसी की बपौती नहीं होती, हर किसी की मेहनत से चलती है. वो हुक्मरान जो ये समझते हैं कि बैलगाड़ी हमारे कारण चल रही है वो वास्तविकता से परे किसी लोक में भ्रमण करते रहते हैं और उनका भरम, बैलगाड़ी के नीचे चलने वाले प्राणी के समान ही होता है जिसे लगता है गाड़ी सिर्फ और सिर्फ़ उसके पराक्रम से चल रही है.

 जैसाकि होता है, सद्भावना और सद व्यवहार की भावना इन मंजिलों को पाकर आगे बढ़ रही थी, लोग इस सामूहिक प्रयास की सफलता से खुश थे, वहीं मुख्य प्रबंधक जी इसे अपना स्वनिर्धारित टारगेट प्राप्त करना मानकर अपने अगले लक्ष्य की दिशा में सोचने लगे. होमसिकनेस उन्हें हमेशा सताती रही और यह भावना, उनकी हर भावना पर भारी पड़ जाती थी.

आगे क्या हुआ यह अगले अंक में प्रस्तुत करने का प्रयास रहेगा. कहानी “पानीपत “का कैनवास काफी बड़ा है. उद्देश्य पानीपत के युद्ध में बनी परिस्थितियों का हूबहू बखान करना है. हर घटना, हर बदलाव के लिये परिस्थितियां उत्तरदायी होती हैं, मनुष्य तो निमित्त मात्र ही पर्दे पर आते हैं और अपना रोल निभाते हैं. जो हुआ शायद वैसा होना ही पूर्वनिर्धारित था. मैं ऐसा मानता हूँ कि “पानीपत” आप सभी पढ़ रहे हैं और बहुत ध्यान से पढ़ रहे हैं, यही एक लेखक के लिये सबसे बड़ा पुरस्कार है. धन्यवाद. 

क्रमशः…

© अरुण श्रीवास्तव

संपर्क – 301,अमृत अपार्टमेंट, नर्मदा रोड जबलपुर 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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मराठी साहित्य – पुस्तकावर बोलू काही ☆ “कालिंदी” – लेखिका : श्रीमती अनुराधा फाटक ☆ परिचय – सौ. मंजिरी येडूरकर ☆

सुश्री मंजिरी येडूरकर

स्व-परिचय

मी सौ. मंजिरी येडूरकर, MSc, BEd  असून मिरज येथे माध्यमिक शिक्षिका म्हणून कार्यरत होते. त्या काळात रोजच्या सांगली – मिरज बस प्रवासात मिळणाऱ्या वेळेत काव्य निर्मिती सुरू झाली. पण त्या प्रसंगानुरूप! कुणाचा वाढदिवस, सहस्त्र चंद्र दर्शन, निरोप समारंभ, लग्न मुंज अशा समयोचित कविता करायला सुरुवात झाली. मी निवृत्ती जरा लवकरच घेतली. त्यामुळं वेळ मिळत होता. सुचलेलं लगेच लिहायला बसू शकत होते. मग कथा ललित लेख लिहायला सुरवात झाली. ‘जाहल्या तिन्हीसांजा’ हा कवितासंग्रह व ‘मर्म बंधातली ठेव ही’ हा कथा, ललित लेख यांचा संग्रह मुलाने प्रकाशित केला. अर्थात फक्त घरगुती वितरणासाठी. स्वरचित कवितांना चाली लावून, त्या  विविध कार्यक्रमात सादर करत होते. पण खरी सुरवात झाली ती कोविड मध्ये आम्ही भावंडांनी सुरू केलेल्या साहित्य कट्ट्या पासून. त्याच्या थोडं आधी महावीर वाचनालयाच्या साहित्य कट्ट्या मध्ये सहभाग घेत होते. त्यामुळेच साहित्यिक मैत्रिणी मिळाल्या. कांहीतरी लिहिण्याची उर्मी निर्माण झालीच होती, त्यात भावंडांनी भर घातली.आता थांबायचं नाही असं ठरवलंय. बघू!

? पुस्तकावर बोलू काही ?

☆ “कालिंदी” – लेखिका : श्रीमती अनुराधा फाटक ☆ परिचय – सौ. मंजिरी येडूरकर ☆ 

पुस्तक – कालिंदी (लघु कादंबरी)

लेखिका – सुश्री अनुराधा फाटक 

प्रकाशक – नवदुर्गा प्रकाशन 

पृष्ठ संख्या – 136

किंमत – 250 रु

परिचय – मंजिरी येडूरकर. 

मुखपृष्ठ खूपच बोलकं आहे. कालिंदी मातोश्री या वृद्धाश्रमाचा आधार घेण्याचा विचारात आहे.असं दृश्य चित्रित केलं आहे.

श्रीमती अनुराधा फाटक

या लघुकादंबरीत एका स्त्रीची विविध रूपं फुलवली आहेत. आपला मुलगा लहान असतांना रणांगणावर निघालेल्या पतीच्या मनातील चलबिचल पाहून, कठोर होऊन त्याला स्वतःचं कर्तव्य बजावण्याचा आग्रह धरणारी वीरांगना, पती निधनानंतर मुलाचं संगोपन करणारी, त्याच्या विकासासाठी, उन्नतीसाठी झटणारी आई, मुलानं न सांगता लग्न केल्यानंतर ही त्याला समजून घेणारी शांत आई, एका रात्रीत पूर्णपणे बदललेला मुलगा बघून कांही न बोलता त्याच्या आयुष्यातून बाजूला होऊन वृद्धाश्रमाचा आधार घेणारी संयमी आई, अर्थात तीच नंतर त्या वृद्धाश्रमाचा आधार बनते. आपला मुलगा अडचणीत आहे व त्याला अडचणीत आणणारी त्याची पत्नीच आहे हे माहीत असूनही त्याला त्याच्या नकळत मदत करणारी हळवी आई, मुलाला कफल्लक करून त्याची बायको सोडून गेली व तो पूर्णपणे दारूच्या आहारी गेला हे समजल्यावर आपली सर्व मिळकत त्याच्या नावावर करणारी वत्सल आई, मुलानं दिलेली हीन वागणूक  विसरू न शकलेली व त्यामुळे पुन्हा त्याच्या समोरही जायचं नाही असं ठरवणारी स्वाभिमानी आई, मुलाची वाताहात सहन न झाल्यामुळे प्राणत्याग करणारी आई! ही कालिंदीची सारी रूपं आपल्या काळजाला स्पर्श करून जातात.कालींदीचं भावविश्व, समाजासाठी झटण्याची वृत्ती, दुःखीताच्या हृदयात प्रवेश करून त्याचे डोळे पुसण्याची ताकद या गुणांनी या व्यक्तिरेखेला आणखीनच झळाळी आली आहे.  असं हे बहुआयामी व्यक्तिमत्व उलगडत नेण्याचं शिवधनुष्य लेखिकेने लीलया पेलले आहे.निराधार झालेला मुलगा आईला शोधत येतो.तोपर्यंत आईनं वैकुंठाचा रस्ता धरलेला होता. तो विचारतो,” आई कुठे गेली?” याचं उत्तर डॉ सुनील देतात,” मुलाचं बालपण शोधायला गोकुळात गेली.” अशा सुरेख कल्पना तुम्हाला या लघुकादंबरीत वाचायला मिळतील. आवश्य वाचा.

© सौ.मंजिरी येडूरकर

लेखिका व कवयित्री

मो – 9421096611

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – श्रीमती उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ कादम्बरी # 13 – वहाँ की दुनिया काली है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ☆

आचार्य भगवत दुबे

(संस्कारधानी जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर आचार्य भगवत दुबे जी को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया है।सीमित शब्दों में आपकी उपलब्धियों का उल्लेख अकल्पनीय है। आचार्य भगवत दुबे जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें 👉 ☆ हिन्दी साहित्य – आलेख – ☆ आचार्य भगवत दुबे – व्यक्तित्व और कृतित्व ☆. आप निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणा स्त्रोत हैं। हमारे विशेष अनुरोध पर आपने अपना साहित्य हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना सहर्ष स्वीकार किया है। अब आप आचार्य जी की रचनाएँ प्रत्येक मंगलवार को आत्मसात कर सकेंगे।  आज प्रस्तुत हैं आपकी एक भावप्रवण रचना – वहाँ की दुनिया काली है।)

✍  साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कादम्बरी # 13 – वहाँ की दुनिया काली है… ☆ आचार्य भगवत दुबे ✍

वहाँ की दुनिया काली है

जहाँ रोशनी दिखी

वहाँ की दुनिया काली है

 

वनस्थली वीरान

तभी तो सावन रूठा है

ज्याँ नेताओं का

आश्वासन रहता झूठा है

सत्ता के गलियारों की

हर बात निराली है

 

आदर्शों पर मंहगाई ने

कसा शिकंजा है

रिश्वतखोरी का

दफ्तर में खूनी पंजा है

कोर्ट-कचहरी में तक

चलती खूब दलाली है

 

काम नहीं होते दफ्तर में

बिना कमीशन के

रिश्वत ज्यादा प्यारी लगती

मासिक वेतन से

लाँच-घूस से ही प्रसन्‍न

रहती घरवाली है

© आचार्य भगवत दुबे

82, पी एन्ड टी कॉलोनी, जसूजा सिटी, पोस्ट गढ़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ मनोज साहित्य # 90 – मनोज के दोहे… ☆ श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” ☆

श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संस्कारधानी के सुप्रसिद्ध एवं सजग अग्रज साहित्यकार श्री मनोज कुमार शुक्ल “मनोज” जी  के साप्ताहिक स्तम्भ  “मनोज साहित्य ” में आज प्रस्तुत है “मनोज के दोहे…”। आप प्रत्येक मंगलवार को आपकी भावप्रवण रचनाएँ आत्मसात कर सकेंगे।

✍ मनोज साहित्य # 90 – मनोज के दोहे… ☆

१ अंबुद

उमड़-घुमड़ अंबुद चले, हाथों में जलपान।

प्यासों को पानी पिला, फिर पाया वरदान।।

२ नटखट

नटखट अंबुद खेलते, लुका-छिपी का खेल।

कहीं तृप्त धरती करें, कहीं सुखाते बेल।।

३ प्रार्थना

यही प्रार्थना कर रहे, धरती के इंसान।

जल-वर्षा इतनी करो, धरा न जन हैरान।।

४ चारुता

प्रकृति चारुता से भरी, झूम उठे तालाब।

मेघों ने बौछार कर, खोली कर्म-किताब।।

५ अभिसार

बरसा ऋतु का आगमन,नदियाँ हैं बेताब।

उदधि-प्रेम अभिसार में, उफनातीं सैलाब।।

©  मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”

संपर्क – 58 आशीष दीप, उत्तर मिलोनीगंज जबलपुर (मध्य प्रदेश)- 482002

मो  94258 62550

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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