हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 18 – हमारी ग्रीस यात्रा – भाग 2 ☆ ☆ सुश्री ऋता सिंह ☆

सुश्री ऋता सिंह

(सुप्रतिष्ठित साहित्यकार सुश्री ऋता सिंह जी द्वारा ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए अपने यात्रा संस्मरणों पर आधारित आलेख श्रृंखला को स्नेह प्रतिसाद के लिए आभार। आप प्रत्येक मंगलवार, साप्ताहिक स्तम्भ -यायावर जगत के अंतर्गत सुश्री ऋता सिंह जी की यात्राओं के शिक्षाप्रद एवं रोचक संस्मरण  आत्मसात कर सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है आपका यात्रा संस्मरण – मेरी डायरी के पन्ने से…हमारी ग्रीस यात्रा – भाग 2)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ –यात्रा संस्मरण – यायावर जगत # 18 ☆  

? मेरी डायरी के पन्ने से…  – हमारी ग्रीस यात्रा – भाग 2 ?

(अक्टोबर 2017)

क्रीट्स से एक सुखद, सुंदर, अविस्मरणीय यात्रा के पश्चात हम लोग एजीएन एयरलाइंस द्वारा एथेंस के लिए रवाना हुए। क्रीट से एथेंस का अंतर 198 माइल्स है। यहाँ पहुँचने में हमें 60 मिनट लगे होंगे लेकिन सामान लेकर बाहर आते, आते घंटा सवा घंटा हो ही गया।

यहाँ एक विषय पर विशेष प्रकाश डालना चाहूँगी कि हम जब अंतर्राष्ट्रीय एयर लाइन्स द्वारा यात्रा करते हैं तो प्रति यात्री 30/40 के.जी वज़न साथ ले जाने की इजाज़त होती है पर भीतरी स्थानीय एयर लाइन्स ज़्यादा सामान साथ ले जाने की इजाज़त नहीं देते। ऐसे समय पर कभी – कभी सामान अधिक होने पर अधिक रकम देने की आवश्यकता पड़ जाती है जो अपेक्षाकृत बहुत अधिक होती हैं। इसलिए लोकल फ्लाइट्स में जितना वजन ले जाने की सीमा निर्धारित होती है उसी के अनुपात से अपना सामान लेना चाहिए।

एथेंस में हमें कोई बड़ा रिसोर्ट नहीं मिला था जिस कारण हमने शहर के बीचो बीच एक अच्छे होटल में एक कमरा 5 दिन के लिए आरक्षित कर लिया था। यह शहर के बीच स्थित होटल था, जिसकी रिव्यू देखकर हमने भारत में रहते हुए ही बुक कर लिया था। जिस कारण हमें हर रोज़ यातायात के लिए आसानी रही। यहाँ नाश्ते के लिए बहुत अच्छी व्यवस्था थी, जिस कारण हम भरपेट नाश्ता करके ही सुबह नौ बजे घूमने के लिए निकल पड़ते थे।

होटल के बाहर निकलते ही बस की व्यवस्था थी। यहाँ बसों में सीनियर सिटीज़न के लिए बैठने की विशेष व्यवस्था होती है। जो भी दिव्यांग हैं उनके लिए भी अलग व्यवस्था होती है। लोगों में संवेदना आज भी जीवित है यह देखकर मन प्रसन्न हुआ।

स्थानीय लोग भ्रमण के लिए आए पर्यटकों के प्रति आदर भाव रखते हैं। अधिकतर लोग अंग्रेज़ी बोलने में सक्षम हैं जिस कारण हमें भ्रमण करते समय कोई असुविधा नहीं हुई।

एथेंस का इतिहास 2500 से अधिक वर्ष पुराना है। यहाँ पर रोमन्स का बड़ा प्रभाव रहा जिस कारण यहाँ रोमन्स द्वारा बनाए गए बड़े -बड़े मंदिर और मनोरंजन के स्थान दिखाई दिए।

एथेंस में घूमने की कई प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। सैलानी चाहें तो एक दिन चलकर शहर के विभिन्न हिस्से घूमकर देख सकते हैं, यह सस्ता होता है। एक गाइड के साथ दस -पंद्रह लोग साथ चलते हैं।

अथवा हॉप ऑन हॉप ऑफ बसों की व्यवस्था है जिसमें बैठकर शहर घूमा जा सकता है।

हॉप ऑन हॉप ऑफ बस में आपको दर्शनीय स्थानों का पेम्फ्लेट मिलता है साथ ही ईयर फोन दिया जाता है। अपनी सीट पर बैठकर प्रत्येक स्थान की जानकारी हासिल कर सकते हैं। एक बार बस में बैठ जाएँ तो आधा दिन बस में घूम लें और अपनी रुचि अनुसार जगहें मैप में चिह् नित कर लें। ये बसें गर्मी के मौसम में रात के आठ बजे तक चलती हैं और शीतकाल में छह बजे तक।

हमने पाँच दिन के लिए हॉप ऑन हॉप ऑफ की बस के टिकट ले लिए और पहले दिन बस में ही घूमते रहे। पाँच दिन के लिए टिकट लेने पर यह सस्ता पड़ता है। विदेश जाने पर एक -एक मुद्रा संभलकर खर्च करना आवश्यक होता है।

बस में बैठकर अगर सारा दिन घूमना है तो ऊपरी हिस्से में बैठें, इससे शहर अच्छी तरह से दिखाई देता है।

हम आधा दिन घूमने के बाद सबसे पहले जियस मंदिर देखने गए। विशाल परिसर में खंडित मूर्तियाँ और ऊँचे -ऊँचे खंभे दिखाई दिए। मंदिर के बाहर के हिस्से में किसी समय विशाल बगीचा रहा होगा जो अब सब तरफ से उजड़ा हुआ है। मंदिर का भीतरी परिसर बहुत विशाल है। एक साथ संभवतः हज़ार लोग प्रार्थना के लिए बैठ सकते थे। एक विशाल मंच जैसा स्थान था जिस पर जियस की कभी बहुत विशाल मूर्ति लगी हुई थी। जियस हमारे इन्द्र देव की तरह ही आकाश और बिजली के देवता माने जाते थे। ईसाई धर्म आने से पूर्व ग्रीस वासी इसी तरह मूर्तियों की पूजा करते थे।

इस विशाल और ऐतिहासिक स्थान का दर्शन कर हम बाहर आए और मंदिर के सामने वाले फुटपाथ पर कई कैफे थे हमने वहीं भोजन कर लिया। ये छोटे – छोटे रेस्तराँ होते हैं जहाँ लोकल फूड और कॉफी मिल ही जाते हैं। वहीं से बस ले ली।

हम बस की ऊपरी भाग में बैठे रहे, हम शहर देखने में मग्न थे। ठंडी बढ़ने लगी थी और अंधकार भी होने लगा था। हमें पता ही नहीं चला कि सारे लोग उतर गए और बस डीपो पर पहुँच गई। वहाँ उतरकर हम घबरा गए क्योंकि वह बिल्कुल ही अपरिचित – सी जगह थी। बस ड्राइवर ने शीतकालीन समय परिवर्तन की बात तब हमें बताई।

हम बस से उतरे और इधर -उधर देखने लगे। एक वृद् धा अपने घर लौट रही थी, उसे हमारी समस्या शायद समझ में आई। उसने तुरंत पास खड़ी टैक्सी से बात की और वह हमें होटल तक ले जाने के लिए तैयार हो गया। उस दिन हमें बड़ी रकम भी भरनी पड़ी। उस दिन शीतकालीन समय परिवर्तन का पहला ही दिन था और हम उसके शिकार हुए।

दूसरे दिन हम जल्दी नाश्ता करके बस पकड़कर हॉप ऑन हॉप ऑफ बस स्टॉप पर पहुँचे। हम उस दिन ओडेन ऑफ हीरॉडेस एलीकस देखने निकले थे। यह एक्रोपॉलिस पहाड़ी पर स्थित एक उत्सव का स्थान है। यहाँ पहुँचने के लिए काफी चलना पड़ता है। यह 174 ईसा पूर्व रोमन्स द्वारा बनाया गया मनोरंजन का स्थान था। यहाँ पाँच हज़ार लोग एक साथ बैठकर मनोरंजन के कार्यक्रम देखा करते थे। रॉयल परिवार तथा अन्य हाई ऑफिशियल के लिए खास सीटें होती थीं। सीटें संगमरमर की बनी थीं। पहाड़ी के ऊपर चढ़ने पर पूरा शहर वहाँ से देखा जा सकता है। 1955 में इस स्थान का पुनः निर्माण किया गया। पर्यटक इस स्थान को देखने अवश्य आते हैं।

इस स्थान को देखते हुए आधा दिन निकल गया। अब हमारा दूसरा लक्ष्य था ग्रीक पार्लियामेंट यहाँ चेंज ऑफ गार्ड्स प्रति घंटे होता है। इस स्थान को सिन्टेग्मा स्क्वेयर कहा जाता है। यह स्थान ग्रीस के लिए शहीद होने वाली सेनाओं की स्मृति स्थल है। यह एक अत्यंत दर्शनीय कार्यक्रम होता है। विशेष बैंड के साथ दो गार्ड्स बदले जाते हैं। ये गार्ड्स पारंपारिक वस्त्र पहनते हैं। ये गार्ड्स मूर्ति की तरह एक घंटा खड़े रहते हैं। प्रति घंटे शिफ्ट बदलती है। बड़ी संख्या में लोग इसे देखने एकत्रित होते हैं।

इस स्थान से थोड़ी दूरी पर रास्ता पार कर हम कुछ बीस -पच्चीस सीढ़ियाँ उतरे और वहाँ एक विशाल सुंदर बगीचा था। बगीचे में कई ग्रीक महान व्यक्तियों की मूर्तियाँ लगी हुई थी। बैठने के लिए भी पर्याप्त स्थान थे। शीतकाल में ग्रीस में सुंदर फूल खिलते हैं हमने उसका भी आनंद लिया।

तीसरे दिन हम प्लाका विलेज के लिए रवाना हुए। यह एक्रोपॉलिस पहाड़ के आस- पास की जगह है। यह एक छोटा गाँव नुमा स्थान है जहाँ छोटे-छोटे घर हैं। संकरी तथा पथरी पहाड़ की ओर चढ़ती हुई सड़कें हैं। मकान बहुत पुराने और कम ऊँचाई के हैं। यहाँ पर छोटा – सा चर्च है, विंडमिल है सोवेनियर के लिए दुकानें हैं और काफी पर्यटकों की भीड़ भी होती है। पहाड़ी की ऊपरी सतह की ओर छोटे-छोटे घर

अनाफियोटिका कहलाते हैं। 19वीं सदी में बड़ी संख्या में अनाफी द्वीप से मज़दूर आए थे। उन दिनों राजा का महल बनाने के लिए आए हुए मजदूरों के ये घर थे। आज भी वे घर उसी तरह बने हुए हैं पर सैलानियों के लिए एक दर्शनीय स्थल बन गया है।

इस पहाड़ी पर चढ़कर और उतर कर आते-आते आधा दिन निकल गया फिर हम बस में बैठकर नेशनल म्यूजियम देखने के लिए रवाना हुए।

यह आर्कियोलॉजिकल म्यूजियम था। पुरातत्व संग्रहालय। 8000 स्क्वेयर मीटर जमीन पर फैला विशाल संग्रहालय। देखने के लिए बहुत कुछ था। कई पुराने ढाल- तलवार, सेनाओं के अस्त्र – शस्त्र तथा पुराने युग में योद्धाओं को मरने पर गाड़ने की जो व्यवस्था थी वे बर्तननुमा पत्थर के कॉफिन भी रखे हुए थे। इन बर्तनों का आकार आज के जमाने के बाथटब जैसे हैं। उसी में मृत सेना को बिठाकर गाड़ देते थे। पुराने जमाने के सुंदर अलंकार यहाँ देखने को मिले। हजारों साल पहले के बर्तन घड़े, विभिन्न पीतल, तांबे के बर्तन आदि वस्तुएँ देखने को मिलीं। संगमरमर की तराशी गई मूर्तियाँ भी थीं।

चौथे दिन हम एक्रोपॉलिस संग्रहालय देखने के लिए गए। विशाल परिसर में फैला भव्य आधुनिक संग्रहालय। यह संग्रहालय 2009 में ही बनाया गया। इसकी फर्श संपूर्ण पारदर्शी काँच की बनी है। जब हम उस पर चलते हैं तो नीचे उत्खनन के समय मिला 2500 वर्ष पुराना शहर दिखाई देता है। उसे अलग से देखने जाने की आवश्यकता नहीं होती, न ही कोई व्यवस्था है। इन शहरों को काँच की फ़र्श से ही देखा जा सकता है। कई मंजिली इस विशाल संग्रहालय में हज़ारों वर्ष पूर्व की सभ्यता की निशानी दिखाई देती है। ग्रीक निवासी कई देवताओं की पूजा करते थे उनकी मूर्तियाँ हैं।

मेड्यूसा नामक एक अंधी स्त्री की कथा हम लोग बचपन में पढ़े थे, जिसके सिर पर सौ सर्प थे और वह जिसकी ओर अपना सिर घुमाती वह पत्थर का बन जाता। उस मूर्ति के कटे सिर को वहाँ देखकर मन हर्षित हुआ। कहा जाता है कि मेड्यूसा की मृत्यु एक विशिष्ट प्रकार की तलवार से धड़ से गर्दन अलग करके ही करना संभव था। वह लोगों को पत्थर में बदल डालती थी। उस देश के प्रसिद्ध राजाओं की मूर्तियाँ भी वहाँ देखने को मिलीं।

अगले दिन हम हार्डियेन्स आर्च देखने के लिए गए। इसे हार्डियेन्स गेट भी कहा जाता है। यहीं से सीधी सड़क जीएस के मंदिर तक भी जाती है। यहाँ सड़कें अति सुंदरहोती हैं। रास्ते में कहीं -कहीं पर पौधे लटकाए हुए दिखते हैं। लोग अनुशासन प्रिय हैं। मिलनसार भी।

कहा जाता है कि हार्डियेन्स नामक राजा जो रोमन था उसने एथेंस राज्य की स्थापना की थी। हार्डियेन्स राजा के प्रति सम्मान दर्शाने हेतु इस आर्च का निर्माण किया गया था। इसका निर्माण ईसा पूर्व 131 – 132 में किया गया था। हार्डियेन्स ने एथेंस शहर में कई मंदिर भी बनवाए थे। वह शांति प्रिय राजा था। यह घटना ईसाई धर्म के पूर्व की है जब मंदिर निर्माण को सभी राजा महत्व दिया करते थे। कहा जाता है कि इस आर्च के बनने से बाहर से आने वाले अन्य आतताइयों का आक्रमण बंद हो गया था। यह संगमरमर से बना हुआ है। इसकी ऊंचाई 18 मीटर है।

दोपहर के बाद हम पोसाएडन मंदिर देखने गए। आज इसका भग्नावशेष ही है पर पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र है। पोसायडन समुद्र के देवता माने जाते थे। ग्रीक्स और रोमन के व्यापार, यातायात जल मार्ग से ही विशेष रूप से होता था। अतः वे इस देवता का दर्शन करना उचित समझते थे।

यहाँ एक बात का विशेष उल्लेख करना चाहूँगी कि हमारे देश में चंद्रगुप्त मौर्य के समय से भी पहले से ग्रीक्स के निवासियों का व्यापार-व्यवसाय के लिए भारत में आना -जाना प्रचलित रहा। इन्हें हम यूनानी कहा करते थे और ग्रीस यूनान के नाम से जाना जाता था। आज हमारे पास पोरस का कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है। मगर यूनान में पोरस के युद्ध की जानकारी उपलब्ध है। साथ ही इस यातायात के कारण यूनानियों ने हमसे अर्थात भारतीयों से मंदिर बनाने की कला तथा अलग-अलग देवताओं को पूजने की कला भी सीखी थी, जिस कारण उनके देश में भी इंद्र जैसे देवता, समुद्र देवता, वरुण देवता, अग्निदेवता आदि की कल्पना की गई थी। आज भले ही सब ईसाई धर्म के अनुयायी हों लेकिन अगर हम इतिहास के पन्नों को पलट कर देखें और इन स्थानों का दर्शन करें तो इसमें भारतीय संस्कृति के पुट स्पष्ट नज़र आते हैं।

पोसाएडन मंदिर के परिसर में खड़े होकर समुद्र में डूबते सूर्य का दर्शन अत्यंत आकर्षक होता है। भारत में हम कन्याकुमारी में ऐसे अद्भुत दृश्य का आनंद ले सकते हैं।

सूर्यास्त के पश्चात हम होटल लौटकर आए। थोड़ी देर विश्राम करके वहीं भोजन करके हम रात के दस बजे होटल के सामने से ही चलने वाली बस में अपना सामान लेकर बैठे और डेढ़ घंटे के बाद रात के समय ग्रीस शहर की जगमगाहट का दर्शन करते हुए अंतरराष्ट्रीय हवाई अड् डा एलेफथेरियोस वेनिज़ेलोस पहुँचे। होटल से बस द्वारा हवाईअड् डे तक कम खर्च में पहुँचना हमारे लिए तो बिन माँगे मोती मिले जैसा आनंद था। अगर टैक्सी से जाते तो भारी रकम यूरो के रूप में देना पड़ता। हम बारह बजे तक चेक इन कर बेफ़िक्र हो चुके थे। हमारी फ्लाइट प्रातः चार बजे थी।

आज जब अपनी इन यात्राओं को याद करती हूँ तो रोमांचित हो उठती हूँ। सारे दृश्य चलचित्र की भाँति आँखों के सामने उभर उठते हैं। हम फिर उनका आनंद ले लेते हैं।

(ग्रीस की इस सजीव रोमांचक यात्रा के पश्चात अगले सप्ताह पढ़िये उत्तर-पूर्व के प्राकृतिक स्थल काजीरंगा यात्रा का सजीव वर्णन…)  

© सुश्री ऋता सिंह

फोन नं 9822188517

ईमेल आई डी – ritanani [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ विवेक की पुस्तक चर्चा # 146 – “बहेलिया” – लेखक – श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ☆

श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जो  साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा” शीर्षक के माध्यम से हमें अविराम पुस्तक चर्चा प्रकाशनार्थ साझा कर रहे हैं । श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका दैनंदिन जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास  करते हैं।

आज प्रस्तुत है श्री प्रभाशंकर उपाध्याय जी द्वारा रचित उपन्यास  “बहेलियापर पुस्तक चर्चा।

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक की पुस्तक चर्चा# 146 ☆

“बहेलिया” – लेखक – श्री प्रभाशंकर उपाध्याय ☆ श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ 

उपन्यास – बहेलिया

उपन्यासकार – श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

प्रकाशक – इंक पब्लिकेशन, प्रयागराज

पृष्ठ – २१०, मूल्य – २५० रु

मुंशी प्रेमचंद की कहानी बैंक का दिवाला पढ़ी थी, मुजतबा हुसैन की कहानी स्विस बैंक में खाता हमारा पाडकास्ट में सुनी पर बैंकिंग पट दृश्य पर यह पहला ही उपन्यास पढ़ने मिला।

“वक्त ऐसा बेदर्द बहेलिया है जो राजा को रंक बना देता है। मशीनीकरण के बेरहम बहेलिया और इंसानी संवेदनहीनता ने एक जिन्दा दिल जीवट व्यक्ति का शिकार कर लिया। ” ये संवेदना से भरी पंक्तियां प्रभाशंकर उपाध्याय के उपन्यास बहेलिया से ही उधृत हैं, जो उपन्यास के नामकरण को रेखांकित करती हैं। आज हमारे आपके हर हाथ में मोबाईल है, और टेक्नालाजी की तरक्की ऐसी हुई है कि हर स्मार्ट मोबाईल में कई कई बैंक एक छोटे से ऐप में समाये हुये हैं। इलेक्ट्रानिक बैंकिंग के चलते अब सायबर अपराधी किसी की जेब में ब्लेड मारकर थोड़ा बहुत रुपया नहीं मारते वे सुदूर अंयत्र कहीं बैठे बैठे एनी डेस्क एप से मोबाईल हैक करके या किसी के भोले विश्वास की हत्या कर ओटीपी फ्राड करते हैं और पलक झपकते सारा बैंक अकाउंट ही खाली कर देते हैं।

श्री प्रभाशंकर उपाध्याय

उपन्यास बहेलिया बैंकिंग व्यवस्था में लेजर के पु्थन्नो से कम्प्यूटर में ट्रांजीशन के दौर के बैंक परिवेश के ताने बाने पर रचा गया रोचक उपन्यास है। सत्य घटनाओ के कहानीनुमा छोटे छोटे दृश्य कथानक पाठक को बांधे रखने में सक्षम हैं। कथानक का नायक सौरभ, एक बैंक कर्मी है। जो लोग लेखक प्रभाशंकर जी को जानते हैं कि वे स्वयं एक बैंक कर्मी रहे हैं वे सौरभ के रूप में उन्हें कथानक के हर पृष्ठ पर उपस्थित ढ़ूंढ़ निकालेंगे। किन्तु उपन्यास का वास्तविक नायक सौरभ नहीं हरिहर शर्मा उर्फ हरिहर जानी कामरेड उर्फ बड़े बाबू हैं। वे यूनियन लीडर भी हैं, वे साधू वेश में भी मिलते हैं। विभिन्न वेशों में वे जिंदादिल और समावेशी प्रकृति के अच्छे इंसान हैं। वे “उलझा है तो सुलझा देंगे ” वाले मूड में समस्याओ को हल करने के लिये साहब की मेज पर डंक निकले रेंगते बिच्छू को छोड़ने का माद्दा रखते हैं। उनका प्रिंसिपल है कि ” उग्र प्रदर्शन से ज्यादा ताकत मौन विरोध में होती है “। किंतु बदलती बैंकिंग व्यवस्था के चलते तरक्की का लड्डू खाने के बाद वसूली का दायित्व उनकी असामयिक मृत्यु का कारण बनता है, जिसे लेखक ने बहेलिये द्वारा उनके शिकार के रूप में निरूपित करते हुये उपन्यास का मार्मिक अंत किया है।

 जैन साहब ब्रांच मैनेजर, गोयल, चड्ढ़ा, बैंक प्यून, हार्ड नट विथ साफ्ट हार्ट वाले सोमानी सर, अंबालाल, मिस्टर गुप्ता, लढ़ानी जी आदि पात्रो के माध्यम से उपन्यास में राजस्थान में बैंक की कार्यप्रणाली के आंखो देखे दृश्य शब्दो चित्रो में पढ़ने मिलते हैं। कार्यस्थलो पर महिला कर्मियों की सुरक्षा के लिये अब तरह तरह के कानून बन गये हैं, शिकायत और समस्याओ के निराकरण के लिये एस ओ पी बन गई हैं, पर उपन्यास के काल क्रम में महिला पात्र नसरीन उपन्यास में एक बैंक कर्मी के रूप में उपस्थित है। उसके माध्यम से तत्कालीन महिला कर्मियों की रोजमर्रा की आई टीजिंग या शाब्दिक फब्तियों से होती हेरासमेंट जैसी दुश्वारियों और बैंक मैनेजर द्वारा फ्रंट फुट पर आकर उसका हल भी उपन्यास में वर्णित है। आज सहकर्मियों या मातहत कर्मचारी के लिये इतने स्टैंड लेने वाले अधिकारी बिरले ही मिलते हैं। उपन्यास में वर्णित एक अन्य घटना में काउंटर क्लर्क से बेवजह उलझते किसी उपभोक्ता को स्मोक सेंसर को वायस रिकार्डर बताकर मामला सुलझाने की घटना भी मैनेजर की त्वरित बुद्धि की परिचायक है।

बड़े पदों से सेवा निवृत लोगों के पास हमेशा ढ़ेर सारे अनुभव होते हैं। जिन्हें वे आत्मकथा या अन्य तरीको से लिपिबद्ध करते हैं। गोपनीयता कानून से बंधे हुये लोग भी कुछ अरसे बाद अपने कार्यकाल के बड़े बड़े खुलासे करते हैं। बहेलिया में प्रभाशंकर जी ने बैंकिंग की नौकरी के उनके अनुभव उजागर किये हैं। मेरा स्वयं का व्यंग्य उपन्यास “जस्ट टू परसेंट” बड़े दिनों से लेखन क्रम में है। हाल ही केंद्र सरकार ने पेंशन कानून में संशोधन राजपत्र में प्रकाशित किया है, जिसके बाद शायद अब सेवानिवृति के उपरांत नौकरी के अनुभवों पर ज्यादा न लिखा जा सके।

उपन्यास में संस्कृत की उक्ति सहित उर्दू और अंग्रेजी का भी भरपूर उपयोग मिलता है। संवादों से बुने इस उपन्यास में रोब झाड़ने के लिये परिचय देते हुये पात्र अंग्रेजी का प्रयोग करते हैं, या अधिकारी अपने संवादों में हिन्दी अंग्रेजी मिक्स भाषा का इस्तेमाल करते दिखते हैं। उर्दू के शेर भी पुस्तक में मिलते हैं ” बदलता है, रोज शबे मंजर मिरे आगे ” या ” दुनियां ने तजुर्बातओ हवादिस की शक्ल में जो कुछ मुझे दिया वही लौटा रहा हूं मै “। उपन्यास के प्रारंभ में एक अनुक्रमणिका दिये जाने की पूरी गुंजाइश है, क्योंकि कहानी को घटनाओ के आधार पर चैप्टर्स में बांटा तो गया है किन्तु चैप्टर्स की सूची न होने के कारण पाठक सीधे वांछित चेप्टर खोलने में असमर्थ होता है। बुद्धिमान आदमी सदा एक पैर से चलता है, न राज न काज फिर भी राजा बाबू, उभरना एक जांबाज यूनियन लीडर का, एक कौआ मारकर टांग दो तो, भूले बिसरे भेड़ खायी, अब खायी तो राम दुहाई, सारे सांप तो मैने ही पकड़वा दिये थे, आर्डर इज आर्डर इत्यादि रोचक उपशीर्षक स्वयं ही पाठक को आकर्षित करते हैं।

अटैची करती ब्रांच मैनेजरी पढ़कर मुझे याद आया, जब से हमारे कार्यालय में बायो मेट्रिक अटेंडेंस शुरू हुई, मेरे अधीनस्थ एक अधिकारी ठीक समय पर आफिस पहुंचते, सबसे हलो हाय करते अपनी कुर्सी पर अपना कोट टांगते और स्कूटर पर किक मारकर जाने कहां फुर्र हो जाते थे, बुलवाने पर उनका चपरासी रटा हुआ उत्तर देता, अभी तो साहब यहीं थे आते ही होंगे, उनका कोट तो टंगा हुआ है। कहना न होगा कि मोबाईल के जमाने में सूचना उन तक पहुंच जाती और या तो जल्दी ही वे स्वयं प्रगट हो जाते या उनका फोन आ जाता। यूं मुझे इस संदर्भ में जसपाल भट्टी का एक वीडीयो व्यंग्य याद आता है जिसमें वे कहते हैं कि सी एम डी के केबिन में एक तोता बैठा दिया जाना चाहिये जो हर बात पर यही कहे कि कमेटी बना दो, मीटिंग बुला लो। सरकारी तंत्र में यही तो हो रहा है।

बैंकिंग लक्ष्मी की प्रतीक है अतः बैंक में प्रवेश के समय जूते उतारना पुराने लोगों की संस्कृति में था। भारतीय वित्त वर्ष दीपावली से दीपावली का होता है, सेठ साहूकार तब लक्ष्मी पूजा के साथ अपने नये बही खाते प्रारंभ करते हैं। बैंकिंग में वित्त वर्ष अप्रैल से मार्च का होता है। बीच में इसे कैलेंडर वर्ष में जनवरी से दिसम्बर बदलने की चर्चायें भी हुई थीं। बैंक हर किसी की आवश्यकता है, जनधन खातों से तो अब गरीब से गरीब व्यक्ति भी बैंक से जुड़ चुका है। बेंकिंग के प्रत्येक के कुछ न कुछ अपने अनुभव हैं। बैंक कर्मियों पर काम का भारी दबाव है। उपभोक्ता असंतोष हर उस सर्विस सेक्टर की समस्या है जहां पब्लिक विंडो वर्क है। कई बार लगता है कि ऐसी नौकरियां थैंकलेस होती हैं। एक वाकया याद आता है, तब मैं इंजीनियरिंग का छात्र था। हमारे कालेज कैंपस में स्टेट बैंक ने एक कमरे में एक क्लर्क के साथ एक्सटेंशन काउंटर खोल रखा था। मुझे स्मरण है अस्सी के दशक में तब हमारा मैस बिल ९६ रु मासिक आता था। हमारे वार्डन ने मैस बिल एकत्रित करने के लिये बैंक में खाता खुलवा दिया, अब छात्रों की लम्बी कतार रुपये जमा करने के लिये बैंक में लगने लगी, नियमानुसार बैंक रुपये लेने से मना भी नहीं कर सकता था और यदि सबसे रुपये जमा करे तो अकेला व्यक्ति सैकड़ो लड़को के बिल आखिर कैसे ले ? अंततोगत्वा बात प्रिंसीपल तक पहुंची और तब कहीं होस्टल प्रिफेक्ट के माध्यम से राशि जमा होना प्रारंभ हुआ। बैंक ने एटीएम, पासबुक एंट्री मशीन, चैक डिपाजिट मशीन आदि कई नवाचार किये हैं। प्रसंगवश लिखना चाहता हूं कि बैंक बिना हस्ताक्षर मिलाये सौ रुपये भी हमारे ही खाते से हमें ही नहीं देता पर आखिर क्यों और कैसे एक इनक्रिप्टैड अपठनीय मेसेज के आधार पर बिना हस्ताक्षर के हमारा सारा खाता ही मोबाईल और यू पी आई से जोड़ दिया जाता है, जिसके चलते ही कई फ्राड हो रहे हैं। होना तो यह चाहिये कि हस्ताक्षरित पत्र के बाद ही कोई खाता किसी यू पी आई या मोबाईल से जोड़ने का नियम बने, इससे अनेक फ्राड रुक सकेंगे।

बहरहाल बहेलिया के लिये प्रभाशंकर जी को बधाई। व्यंग्य उनकी मूल विधा है, व्यंग्य की उनकी चार पुसतकें प्रकाशित हैं। इस उपन्यास में भी अनेक संवादों में उनका वह व्यंग्य, कटाक्ष लिये ध्वनित है। बैंकिंग की पृष्ठभुमि पर साहित्यिक उपन्यास के रूप में बहेलिया पठनीय विशिष्ट कृति है।

चर्चाकार… विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’

समीक्षक, लेखक, व्यंगयकार

ए २३३, ओल्ड मीनाल रेसीडेंसी, भोपाल, ४६२०२३, मो ७०००३७५७९८

readerswriteback@gmail.कॉम, [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य # 165 – सुलगती कहानी – ☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ ☆

श्रीमती  सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

(संस्कारधानी जबलपुर की श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’ जी की लघुकथाओं, कविता /गीत का अपना संसार है। साप्ताहिक स्तम्भ – श्रीमति सिद्धेश्वरी जी का साहित्य शृंखला में आज प्रस्तुत है एक सार्थक एवं विचारणीय  “सुलगती कहानी”।) 

☆ श्रीमति सिद्धेश्वरी जी  का साहित्य # 165 ☆

☆ लघुकथा – 📒सुलगती कहानी 📒

दरवाजे की घंटी बजी। महिमा ने दरवाजा खोलो। देखा वयोवृद्ध लगभग अस्सी वर्ष के एक वरिष्ठ सज्जन सामने खड़े दिखाई दिए। उसने कहा… “आप कौन?” तत्काल कंपन लिए परंतु जोरदार आवाज में बोले “क्या कहा? … आने के लिए नहीं कहोगी।” महिमा ने दरवाजे से एक ओर हट कर कहा… “आइए बैठिए, मैंने आपको पहचाना नहीं।” “तुम पहचान भी नहीं सकती परंतु मैं तुम्हें पहचान रहा हूँ। अभी तुम्हारी कलम लिखाई कर रही है। यह देखो मेरे लिखे गीत, कहानियाँ।” करीब 10-12 किताबें उन्होंने टेबिल पर लगा दी। एक फटी पुरानी फाइल से निकालते उन्होंने ने  दिखाया -“मेरी कहानियां कभी बोलती थी। सभी जगह से मैं सम्मानित होता था। आज मौन हो एक बस्ते में पड़ी हैं। क्या करूं?? समय ने ऐसा दिन दिखाया कि मुझे अब कहानियों से लगाव तो है परंतु यह पेट नहीं भर पा रहा है। मेरे पाँच बेटे हैं परंतु किसी काम के नहीं।

आज सोशल मीडिया पर मेरे स्वयं के बच्चे दिन भर छोटी छोटी बातें कहानियां दूसरों की सीख देखते हैं और मेरी किताब को रद्दी के भाव में बेंच रहे।”

आँखों से टपकते आँसुओं ने उसकी कमीज की बाजू भिगो दिया। “क्या कहूं तुम्हें कुछ समझ नहीं आ रहा।” महिमा आवाक देखती रही।

टेबल पर एक कृति अचानक गिरी “सुलगती कहानी”। महिमा ने तत्काल उसे उठाया और उन वरिष्ठ का सम्मान अपने तरीके से कर हाथ जोड़ खड़ी रही।

उन्होंने झोला निकाला सभी किताबों को डाल दुआओं में बस इतने बोल कह गये…” कभी लिखना मेरी कहानियाँ… मेरे जीवन को अपनी कलम में स्थान देना। लिखना मेरी सुलगती कहानी।” महिमा उसकी किताब को लिए उसे दूर जाते देखती रही।

🙏 🚩🙏

© श्रीमति सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’

जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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मराठी साहित्य – कवितेचा उत्सव ☆ श्री अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती #198 ☆ ‘नवीन आज्ञा…’ ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे

? अशोक भांबुरे जी यांची कविता अभिव्यक्ती # 198 ?

☆ नवीन आज्ञा… ☆ श्री अशोक श्रीपाद भांबुरे ☆

येणार कोण पक्षी धान्यास कापल्यावर

शेतात मौज तोवर येतील जोंधळ्यावर

कात्रीत सापडोनी झाली दशा अशीही

शिवता पुन्हा न आले काळीज फाटल्यावर

एकाच ईश्वराची आहोत लेकरे तर

का ठेवले अजूनी जातीस दाखल्यावर

दारिद्र्य पाचवीला त्यातच नवीन आज्ञा

सांगा कसे जगावे वाळीत टाकल्यावर

काहे तिखट म्हणूनच ठेचून काढले मी

मिरची कुठे बदलली गुण तोच ठेचल्यावर

नाही पराभवाची चिंता मनास आता

साऱ्या तमोगुणांची मी साथ सोडल्यावर

जल गोठले तरीही फुटतो तयास पाझर

पाझर मला न फुटला का रक्त गोठल्यावर

© अशोक श्रीपाद भांबुरे

धनकवडी, पुणे ४११ ०४३.

[email protected]

मो. ८१८००४२५०६, ९८२२८८२०२८

≈संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडळ (मराठी) – सौ. उज्ज्वला केळकर/श्री सुहास रघुनाथ पंडित /सौ. मंजुषा मुळे/सौ. गौरी गाडेकर≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लेखनी सुमित्र की # 148 – गीत – कुछ कहना है… ☆ डॉ. राजकुमार तिवारी “सुमित्र” ☆

डॉ राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’

(संस्कारधानी  जबलपुर के हमारी वरिष्ठतम पीढ़ी के साहित्यकार गुरुवर डॉ. राजकुमार “सुमित्र” जी  को सादर चरण स्पर्श । वे आज भी  हमारी उंगलियां थामकर अपने अनुभव की विरासत हमसे समय-समय पर साझा करते रहते हैं। इस पीढ़ी ने अपना सारा जीवन साहित्य सेवा में अर्पित कर दिया।  वे निश्चित ही हमारे आदर्श हैं और प्रेरणास्रोत हैं। आज प्रस्तुत हैं  आपका भावप्रवण गीत – कुछ कहना है।)

✍ साप्ताहिक स्तम्भ – लेखनी सुमित्र की # 148 – गीत – कुछ कहना है…  ✍

सोच रहा कुछ कहना है

याद नहीं कुछ कहना है

कुछ कहना है, कुछ कहना है।

 

विमल चाँदनी तरु शिखरों के

अधरों पर झुक आई है

बूढ़ा पीपल बिस्मिल्ला सी

बजा रहा शहनाई है

वातावरण पुलक भरता है, क्या कहना है।

 

कोलाहल की आँख लगी है

सन्नाटे की सुध खोई

हौले से फिर बजी चूड़ियाँ

जाग रहा शायद कोई।

चाहे जितनीं रहें बंदिशें, हमें सभी कुछ सहना है।

 

भले ज़िन्दगी जाग गई हो

मन की गति तो ठहरी है

पनघट पर घट जुड़ते जाते

लगती प्रीत कचहरी है।

भागों में ठहराव कहाँ है, बहना है बस बहना है।

© डॉ राजकुमार “सुमित्र”

112 सर्राफा वार्ड, सिटी कोतवाली के पीछे चुन्नीलाल का बाड़ा, जबलपुर, मध्य प्रदेश

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ अभिनव गीत # 148 – ““सौख्य के समंदर में…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी ☆

श्री राघवेंद्र तिवारी

(प्रतिष्ठित कवि, रेखाचित्रकार, लेखक, सम्पादक श्रद्धेय श्री राघवेंद्र तिवारी जी  हिन्दी, दूर शिक्षा, पत्रकारिता व जनसंचार,  मानवाधिकार तथा बौद्धिक सम्पदा अधिकार एवं शोध जैसे विषयों में शिक्षित एवं दीक्षित। 1970 से सतत लेखन। आपके द्वारा सृजित ‘शिक्षा का नया विकल्प : दूर शिक्षा’ (1997), ‘भारत में जनसंचार और सम्प्रेषण के मूल सिद्धांत’ (2009), ‘स्थापित होता है शब्द हर बार’ (कविता संग्रह, 2011), ‘​जहाँ दरक कर गिरा समय भी​’​ ( 2014​)​ कृतियाँ प्रकाशित एवं चर्चित हो चुकी हैं। ​आपके द्वारा स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम के लिए ‘कविता की अनुभूतिपरक जटिलता’ शीर्षक से एक श्रव्य कैसेट भी तैयार कराया जा चुका है।  आज प्रस्तुत है  आपका एक अभिनव गीत  सौख्य के समंदर में)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ # 148 ☆।। अभिनव गीत ।। ☆

☆ “सौख्य के समंदर में…” ☆ श्री राघवेंद्र तिवारी

स्कूटी पर सवार लड़कियाँ

घर छोड़ आयी हैं प्रतीक्षा रत

खुली हुई खिड़कियाँ

 

पर्स में निमंत्रित हैं

चाट के इरादे कुछ

स्टेटस फोन का

सम्हाले है वादे कुछ

 

बच के निकलती हैं

चलते बाजार से

बनी ठनी सुविधा की

छुटकियाँ व बडकियाँ

 

मौसम की सीमा में

सिमटी उज्ज्वल आँखें

खोज रही मुक्त हुई

उड़नेवाली पाँखें

 

पहने स्वतंत्रता

क्षीणकाय वस्त्र विधा

ऊँची हील पर उड़ती

गरमी की छुट्टियाँ

 

उत्फुल्लित चेहरों पर

स्लीवलैस बाहें हैं

जितनी इच्छालम्बी

उतनी ही राहें हैं

 

सौख्य के समंदर में

तैरता लगा कुछकुछ

वक्त का परिन्दा जो

लेता है डुबकियाँ

 

©  श्री राघवेन्द्र तिवारी

26-06-2023 

संपर्क​ ​: ई.एम. – 33, इंडस टाउन, राष्ट्रीय राजमार्ग-12, भोपाल- 462047​, ​मोब : 09424482812​

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ लघुकथा # 198 ☆ “फैसला” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय ☆

श्री जय प्रकाश पाण्डेय

(श्री जयप्रकाश पाण्डेय जी की पहचान भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी के अतिरिक्त एक वरिष्ठ साहित्यकार की है। वे साहित्य की विभिन्न विधाओं के सशक्त हस्ताक्षर हैं। उनके  व्यंग्य रचनाओं पर स्व. हरीशंकर परसाईं जी के साहित्य का असर देखने को मिलता है। परसाईं जी का सानिध्य उनके जीवन के अविस्मरणीय अनमोल क्षणों में से हैं, जिन्हें उन्होने अपने हृदय एवं साहित्य में  सँजो रखा है। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा – “फैसला)

☆ लघुकथा ☆ “फैसला” ☆ श्री जय प्रकाश पाण्डेय 

नम आंखों से कामेश और शिखा ने अपने बेटे और बहू को जब एक साल पहले विदा किया था तो समर ने वायदा किया था कि हर दिन वह फोन पर बात करेगा। पर साल भर बाद पंखुड़ी ने बताया कि समर इतने अधिक बिजी हो गए हैं कि थोड़ी सी बात करने का भी उन्हें समय नहीं मिलता। हताश कामेश और शिखा हर दिन समर को याद करते रहते और उसके फोन का रास्ता देखते रहते। कामेश लगातार बीमारी से टूट से गए थे, ज्यादा गंभीर होने से एक दिन उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया। समर का फोन तो आया नहीं, हारकर शिखा ने समर को फोन लगाया।

– हलो…. बेटा तुम्हारे पापा अस्पताल में बहुत सीरियस हैं तुम्हें बहुत याद कर रहे हैं, उनका आखिरी समय चल रहा है। यहां मेरे सिवाय उनका कोई नहीं है। कब आओगे बेटा ? वे तुम्हें एक नजर देखना चाहते हैं। 

— मां बहुत बिजी हूं। वैसे भी इण्डिया में अभी बहुत गर्मी होगी, इण्डिया में अपने घर में एसी- वेसी भी नहीं है। समीरा से बात करता हूं कि अभी पापा को अटेंड कर ले  फिर माँ के समय मैं आ जाऊँगा। तुम तो समझती हो मां… मुझे तुम से ज्यादा प्यार है। 

— पर बेटा वे तो मरने के पहले सारी प्रापर्टी तुम्हारे नाम करना चाहते हैं।

— मम्मी, फिर मैं कोशिश करता हूं। 

© जय प्रकाश पाण्डेय

416 – एच, जय नगर, आई बी एम आफिस के पास जबलपुर – 482002  मोबाइल 9977318765

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 140 ☆ # तुम सावन बन आ जाते हो… # ☆ श्री श्याम खापर्डे ☆

श्री श्याम खापर्डे

(श्री श्याम खापर्डे जी भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी हैं। आप प्रत्येक सोमवार पढ़ सकते हैं साप्ताहिक स्तम्भ – क्या बात है श्याम जी । आज प्रस्तुत है आपकी एक भावप्रवण कविता “# तुम सावन बन आ जाते हो… #”

☆ साप्ताहिक स्तम्भ ☆ क्या बात है श्याम जी # 140 ☆

☆ # तुम सावन बन आ जाते हो… #

तुम मेरे सूखे जीवन में

बादल बन छा जाते हो

मै जब भी प्यासी होती हूं

तुम सावन बन आ जाते हो

 

जब मयूर नाचता है वन में

प्रीत जगाता है तन में

मैं चकोर बन फिरती हूं दर दर

तुम चंद्रकिरण बन आ जाते हो

 

जब भी मैं श्रृंगार करती हूं

नयनों को कटार करती हूं

तुम्हारी राह तकता है यौवन

तुम दर्पण बन आ जाते हो

 

केवड़े के फूल सा महकती हूं

नागिन के फूंकार सा दहकती हूं

मुझको निकलने इस नागपाश से

तुम चंदन बन आ जाते हो

 

जब हिमखंड टूटकर पिघलते है

निर्मल जल में बदलते है

मैं उफनती नदी सी बहती हूं

तुम चट्टान बन आ जाते हो /

© श्याम खापर्डे

फ्लेट न – 402, मैत्री अपार्टमेंट, फेज – बी, रिसाली, दुर्ग ( छत्तीसगढ़) मो  9425592588

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ परिहार जी का साहित्यिक संसार #202 ☆ कथा-कहानी – ‘दरवाज़ा’ ☆ डॉ कुंदन सिंह परिहार ☆

डॉ कुंदन सिंह परिहार

(वरिष्ठतम साहित्यकार आदरणीय  डॉ  कुन्दन सिंह परिहार जी  का साहित्य विशेषकर व्यंग्य  एवं  लघुकथाएं  ई-अभिव्यक्ति  के माध्यम से काफी  पढ़ी  एवं  सराही जाती रही हैं।   हम  प्रति रविवार  उनके साप्ताहिक स्तम्भ – “परिहार जी का साहित्यिक संसार” शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते  रहते हैं।  डॉ कुंदन सिंह परिहार जी  की रचनाओं के पात्र  हमें हमारे आसपास ही दिख जाते हैं। कुछ पात्र तो अक्सर हमारे आसपास या गली मोहल्ले में ही नज़र आ जाते हैं।  उन पात्रों की वाक्पटुता और उनके हावभाव को डॉ परिहार जी उन्हीं की बोलचाल  की भाषा का प्रयोग करते हुए अपना साहित्यिक संसार रच डालते हैं।आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कथा ‘दरवाज़ा’। इस अतिसुन्दर रचना के लिए डॉ परिहार जी की लेखनी को सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – परिहार जी का साहित्यिक संसार  # 202 ☆

☆ कथा-कहानी ☆ ‘दरवाज़ा’

देवेन्द्र जी पत्नी के साथ ससुराल के गाँव के मोड़ पर बस से उतर गये। यात्रा से शरीर हिल गया था। सामने कच्ची सड़क पेड़ों और खेतों के बीच लहराती हुई दूर तक चली गई थी। अब सूटकेस उठाये एक किलोमीटर कौन जाए? पत्नी के लिए वैसे भी घुटनों के दर्द के कारण चलना मुहाल था।

सन्देश दो दिन पहले आया था। एक रिश्तेदार ने सूचना दी थी कि देवेन्द्र जी के एकमात्र साले और तीन बहनों के एकमात्र बड़े भाई सुखपाल दादा अचानक चल बसे थे। देवेन्द्र जी की पत्नी गीता को खासा आघात लगा क्योंकि बहनों में सबसे बड़ी होने के कारण उसका मायके से लगाव ज़्यादा था और उसमें ज़िम्मेदारी-बोध भी कुछ ज़्यादा था।

दूसरी बात यह कि सुखपाल दादा को कोई तकलीफ नहीं थी। अभी डेढ़ माह पहले वे गीता के घर आये थे। तब उनके पैर में पट्टी ज़रूर बँधी थी। बताया कि घाव हो गया है जो दो-तीन महीने गुज़र जाने के बाद भी ठीक नहीं हो रहा है। देवेन्द्र जी ने सलाह दी थी कि मामले को गंभीरता से लिया जाए और ब्लड-शुगर की जाँच करा ली जाए, लेकिन आम देहातियों की तरह सुखपाल दादा ने बात को हँसी में उड़ा दिया था। देवेन्द्र जी ने भी फिर जाँच के लिए ज़ोर नहीं दिया। अब ज़रूर उन्हें थोड़ा अपराध-बोध हुआ कि जाँच करा देते तो शायद कुछ पता लग जाता, लेकिन इस विचार को उन्होंने ज़्यादा टिकने नहीं दिया।

मृत्यु का संदेश मिलने के बाद ससुराल पहुँचने में देवेन्द्र जी को दो दिन लग गये थे क्योंकि शहर में घर छोड़कर अचानक चल पड़ना नहीं हो सकता। घर की सुरक्षा का इंतज़ाम करना पड़ता है। एक बेटा बाहर है। दूसरा बेटा और बेटी कॉलेज में पढ़ते हैं। पड़ोसियों पर ज़्यादा निर्भर नहीं रहा जा सकता। अंततः सारी मुसीबत खुद ही झेलनी पड़ती है। देवेन्द्र जी को झुँझलाहट भी लगी कि अचानक यह झंझट कहाँ से आ गयी।

सुखपाल दादा की स्थिति कभी अच्छी हुआ करती थी। पिता की छोड़ी काफी ज़मीन थी और गाँव में खासा रौब और रसूख था। लेकिन आय का दूसरा साधन न होने के कारण बहनों की शादी में काफी ज़मीन निकल गयी और सुखपाल दादा के पास इतनी ही बची कि साल भर छाती मारने के बाद किसी तरह गुज़र-बसर हो सके। इकलौते पुत्र होने और शिक्षा की कमी के कारण वे कहीं बाहर भी नहीं निकल सके। कुछ दिन बाद वे समझ गये कि वे ऐसे दुष्चक्र में फँस गये हैं जिस से बाहर निकलना मुश्किल था। गाँव का वातावरण, अशिक्षा और फिर खेती में चौबीस घंटे की ड्यूटी— विपत्ति का सारा इंतज़ाम था। इतनी आमदनी नहीं थी कि बच्चों को बाहर भेजकर शहर वालों जैसा सक्षम बनाया जा सके।

सुखपाल दादा की चार संतानें थीं— दो बेटे और दो बेटियाँ। बड़े बेटे और बड़ी बेटी की शादी हो गयी थी। बड़ा बेटा खेती में ही रेत में से तेल निकालने में लगा था। छोटा किसी प्रकार परीक्षाओं में प्राइवेट बैठकर पढ़ाई की खानापूरी कर रहा था। उसे बार-बार पूरक परीक्षाओं में बैठना पड़ता था। छोटी बेटी बारहवीं तक पढ़ कर घर में बैठ गयी थी।

बड़ी बेटी की शादी सुखपाल दादा ने किसी प्रकार गिरते-मरते निपटायी। हालत यह हुई कि पलंग तो आया लेकिन गद्दा गायब। बैंड पास के गाँव का। बजाने वालों की ड्रेस और हाथ-पाँव गन्दे, केश और दाढ़ी बढ़ी। बाकी इंतज़ाम भी बेतरतीब। वर पक्ष के लोग भले थे, सो लड़की को लेकर बिना हल्ला-गुल्ला किये चले गये। लेकिन सुखपाल दादा के दोनों छोटे बहनोइयों का मुँह बहुत दिन तक फूला रहा। उन्हें लगा कि इस ‘लो स्टैंडर्ड’ शादी से उनकी शान में बट्टा लग गया। उनकी देखा-देखी उनकी पत्नियाँ भी बहुत दिन तक भाई से भकुरी रहीं।

ऐसा नहीं था कि सुखपाल दादा ने अपने दुष्चक्र से निकलने के लिए हाथ-पाँव न मारे हों। उन्होंने बहनों से अनुरोध किया था कि उनके बच्चों को अपने पास रख लें ताकि वे भी शहरी भाषा में ‘आदमी’ बन जाएँ। उन्होंने आश्वासन दिया था कि उन पर होने वाले खर्चे की भरपाई वे करेंगे, लेकिन तीनों बहनोइयों ने उनके अनुरोध को सिरे से खारिज कर दिया। बड़ी बहन गीता के मन में भाई के बच्चों के लिए करुणा थी, लेकिन देवेन्द्र जी ने घुटना अड़ा दिया। तर्जनी उठाकर कहा, ‘बिलकुल नहीं। दूसरे के बच्चों को रखने से अपने बच्चों पर होने वाले खर्चों में हमें क्या कटौती करनी पड़ेगी, यह हम अभी नहीं समझ पाएँगे। यह सेंटीमेंट की बात नहीं है। दूसरे बच्चे हमारे फैमिली सेट-अप पर क्या असर डालेंगे आपको अभी से क्या पता। बाद में आप दूसरे के बच्चे को भगा तो नहीं सकते।’

मँझली बहन कविता के साथ दूसरी समस्या थी। उसकी ससुराल वाले अपेक्षाकृत संपन्न थे, इसलिए वह सारे समय अपने मायके की दरिद्रता छिपाने और अपनी इज़्ज़त बचाने में लगी रहती थी। मायके से किसी के आने की खबर मिलते ही वह हिदायतों की फेहरिस्त भेज देती थी। उसके घर पहुँचने पर मायके के सदस्य और उसके सामान का बाकायदा मुआयना होता था और जो भी कोर-कसर हो उसे तत्काल दुरुस्त करने का निर्देश दिया जाता था। इसीलिए मायके के लोग उसके घर तभी जाते थे जब निकल भागने के सभी रास्ते बन्द हो जाएँ।

तीसरी बहन रेखा के साथ मनोवैज्ञानिक समस्या थी। सामान्य घर से शहर की चकाचौंध में आने के बाद उसे चीज़ों को इकट्ठा करने का ज़बरदस्त शौक लग गया था। उसके पतिदेव भी वैसी ही तबियत के थे। ग़ैरज़रूरी चीज़ें इकट्ठी करते-करते उनका घर कबाड़खाना बन गया था। वहाँ आदमी के अँटने की गुंजाइश कम रह गयी थी। किसी चीज़ के ज़रा भी इधर-उधर होने पर पति-पत्नी का पारा चढ़ जाता था। बच्चों को चीज़ें शत्रु लगने लगी थीं। ऐसे घर में और बच्चों के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी।

बहनोइयों के इस रुख़ के कारण सुखपाल दादा के अपने बच्चों की तरक्की के मंसूबे भ्रूणावस्था में ही दम तोड़ गये और उनके बेटे धरतीपुत्र ही बने रह गये। एक बार अपनी मजबूरी उघाड़ने के बाद सुखपाल दादा ने स्थितियों से समझौता कर लिया और बहनों के सामने दुखड़ा रोना बन्द कर दिया।

अब गाँव की ओर बढ़ते हुए वे सब बातें  याद कर के गीता को दुख हो रहा था। शायद बच्चों के जीवन का संतोषप्रद न होना ही दादा की अचानक मृत्यु का कारण बना हो। गाँव की वही सड़क जो कभी उस के मन को हुलास से भर देती थी अब उसे व्यथित कर रही थी। सूटकेस उन्होंने मोड़ की चाय की दूकान में छोड़ दिया। बता दिया कि बड़ा भतीजा हरपाल या छोटा श्रीपाल आकर ले जाएगा।

धीरे धीरे चलते हुए वे आधे घंटे में सुखपाल दादा के घर पहुँच गये। खपरैल के छप्पर वाला लंबा सा घर था। सामने कच्चे चबूतरे के बीच में बड़ा सा नीम का पेड़। एक तरफ चरई पर पाँच छः मवेशी खड़े थे। हरपाल बाहर ही मिल गया। पच्चीस छब्बीस साल का होगा। लंबा और स्वस्थ। घुटा हुआ सिर और छोटी सी चोटी। गीता उससे लिपट कर रोने लगी। हरपाल आँखें पोंछता चुप खड़ा रहा।

भीतर घुसते ही भाभी, छोटे भतीजे और दोनों भतीजियों से भेंट हुई। थोड़ी देर को कोहराम मचा, फिर सब संयत हुए। पता चला सुखपाल दादा घर के बाहर काम करते अचानक ही मूर्छित हो गये थे। ट्रैक्टर पर दूसरे गाँव ले जाकर डॉक्टर को दिखाया तो मालूम हुआ कुछ शेष नहीं है। बीमारी का पता नहीं चला। जहाँ जाँच-पड़ताल और इलाज की सुविधाएँ न हों वहाँ बीमारी का कारण जानना संभव भी नहीं होता। ऐसी स्थिति में दुर्घटना को होनी मानकर स्वीकार कर लेने के अलावा कोई उपाय नहीं होता।

मृत्यु का आक्रमण घर पर असर डालता है। हँसी-खुशी से भरा घर कुछ वक्त के लिए मनहूस बन जाता है। शाम होने पर यह मनहूसियत और गाढ़ी हो गयी। घर में बिजली थी, लेकिन उसके आने जाने का कोई ठिकाना नहीं था। चौबीस घंटे में छः सात घंटे ही बिजली मेहरबान रहती।

दूसरे दिन दोनों शेष बहनें अपने पतियों के साथ आ गयीं तो देवेन्द्र जी को कुछ राहत मिली। सुखपाल दादा के जाने के बाद घर में कोई ऐसा बचा नहीं था जिससे इत्मीनान से कुछ बात की जा सके। साढ़ुओं के आने से बातचीत का ज़रिया बन गया और मनहूसी कुछ कम हुई।

घर में अतिथियों के सत्कार में कोई कसर नहीं थी। गरम पानी, दो तीन बार चाय और सुविधानुसार भोजन। भतीजे, भतीजियाँ सेवा में हाज़िर थे। देवेन्द्र जी ने सुखपाल दादा के पीछे पड़कर कुछ समय पहले एक फ्लश वाला टायलेट बनवा लिया था, लेकिन उसके ऊपर छप्पर इतना नीचा था कि खड़े होते वक्त सिर पर ठोका खाने की पूरी संभावना बनी रहती थी।

सारी सुविधाओं के बावजूद बिजली की अनुपस्थिति से खासी परेशानी थी। ए.सी. और कूलर के आदी शहरवासियों के लिए यह बड़ा संत्रास था। बहनोइयों का सारा वक्त करवटें बदलते और बाँस का पंखा झलते गुज़रता था। रात को ज़रूर बाहर चबूतरे पर नीम के नीचे सुकून मिलता था।

दोनों छोटी बहनों के पति एक दिन रुक कर उन्हें छोड़ कर चले गये थे। तेरहीं पर आकर ले जाएँगे। देवेन्द्र जी रुके रहे क्योंकि वे नौकरी से रिटायर हो चुके थे। दूसरे, पत्नी को ले जाने के लिए दुबारा कष्टप्रद यात्रा करने की ज़हमत वे उठाना नहीं चाहते थे।

दस ग्यारह दिन देवेन्द्र जी और तीनों बहनें वहाँ बनी रहीं। तीनों बहनें अपनी भाभी के पास बैठकर उनके मन को कुरेदने की कोशिश करतीं, उनकी परेशानियों, समस्याओं को जानने की कोशिश करतीं। खास तौर से गीता उनके मन तक पहुँचने की कोशिश करती। लेकिन घर के सदस्य उनके सामने कोई लाचारी प्रकट नहीं करना चाहते थे। बात चलते चलते जहाँ आर्थिक परेशानी पर पहुँचती, भाभी और उनके बच्चे बात को दूसरी तरफ मोड़ देते। लगता था जैसे कोई कपाट है जो तीनों बहनों के सामने आ जाता है। उसके पार उनका प्रवेश निषिध्द है। गीता दुखी हो जाती कि भाभी अपने दुख में उसे सहभागी नहीं बनाती। ज़्यादा दबाव पड़ने पर भाभी बात को ख़त्म करने के लिए कह देती, ‘हरपाल सयाने हो गये हैं। सब सँभाल लेंगे। चिन्ता करने से क्या होगा?’

भाभी से अनुकूल उत्तर न मिलने पर गीता हरपाल से टोह लेने की कोशिश करती। कुछ पता चले कि पैसे-टके का क्या इंतज़ाम है। ज़्यादा परेशानी तो नहीं है। लेकिन वहाँ से भी वही उत्तर मिलता— ‘सब ठीक है बुआजी। कोई परेशानी नहीं है।’

रोज़ के खर्च की बात माँ-बेटे के बीच ही दबे स्वर में हो जाती। किसी दूसरे को भनक न लगती कि स्थिति क्या है।

लाचार गीता ने दस हज़ार रुपये ज़बरदस्ती भाभी के पास रख दिये। कहा, ‘रखे रहो। न लगे तो वापस कर देना। ज़रूरत पड़े तो खर्च कर लेना।’

तेरहीं ठीक-ठाक हो गयी। सब धार्मिक कृत्य ठीक से निपट गये। फिर भोज में सब रिश्तेदार-व्यवहारी जुट आये। दोनों बहनोई तेरहीं पर फिर हाज़िर हो गये थे। खूब चहल-पहल हो गयी। दोपहर से शुरू हुआ भोजन का सिलसिला रात तक चलता रहा।

अब रुकने का कोई काम नहीं था। दूसरे दिन बहनोइयों ने रवानगी की तैयारी की। एक बार फिर बहनें दिवंगत भाई को याद करके रोयीं। भाई के जाने से मायके की सूरत बदल गयी थी। अब मायके से संबंध क्षीण ही होने हैं।

दोनों भाई हरपाल और श्रीपाल उन्हें छोड़ने रोड तक आये। बस के इंतज़ार के बीच में हरपाल ने एक पैकेट बड़ी बुआ को पकड़ा दिया, कहा, ‘अम्माँ ने आपके पैसे भेजे हैं। कहा खर्च करने की जरूरत नहीं पड़ी।’

गीता को दुख हुआ, कहा, ‘इतना तो खर्च हुआ। रखे रहतीं तो क्या बिगड़ जाता? कहीं तो काम आते।’

हरपाल ने जवाब दिया, ‘बिना जरूरत रख कर क्या करते? इंतजाम हो गया था। आप लोग आ गये यही बहुत है।’

इतने में बस आ गयी और मेहमान उसमें सवार हो गये। बस के रवाना होते  ही मायके के दृश्य और भतीजों के चेहरे दूर होने लगे और कुछ क्षणों में सब धुँधला कर आँख से ओझल हो गया।

© डॉ कुंदन सिंह परिहार

जबलपुर, मध्य प्रदेश

 संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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हिन्दी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ ☆ संजय उवाच # 201 – ऋणानुबंध ☆ श्री संजय भारद्वाज ☆

श्री संजय भारद्वाज

(“साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच “ के  लेखक  श्री संजय भारद्वाज जी – एक गंभीर व्यक्तित्व । जितना गहन अध्ययन उतना ही  गंभीर लेखन।  शब्दशिल्प इतना अद्भुत कि उनका पठन ही शब्दों – वाक्यों का आत्मसात हो जाना है।साहित्य उतना ही गंभीर है जितना उनका चिंतन और उतना ही उनका स्वभाव। संभवतः ये सभी शब्द आपस में संयोग रखते हैं  और जीवन के अनुभव हमारे व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ जाते हैं।श्री संजय जी के ही शब्दों में ” ‘संजय उवाच’ विभिन्न विषयों पर चिंतनात्मक (दार्शनिक शब्द बहुत ऊँचा हो जाएगा) टिप्पणियाँ  हैं। ईश्वर की अनुकम्पा से आपको  पाठकों का  आशातीत  प्रतिसाद मिला है।”

हम  प्रति रविवार उनके साप्ताहिक स्तम्भ – संजय उवाच शीर्षक  के अंतर्गत उनकी चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाते रहेंगे। आज प्रस्तुत है  इस शृंखला की अगली कड़ी। ऐसे ही साप्ताहिक स्तंभों  के माध्यम से  हम आप तक उत्कृष्ट साहित्य पहुंचाने का प्रयास करते रहेंगे।)

☆ संजय उवाच # 201 ऋणानुबंध ?

प्रातः भ्रमण से लौट रहा हूँ। देखता हूँ कि एक दुकानदार अपनी दुकान के सामने कौओं को चुग्गा दे रहा है। चुग्गे के लिए कौओं की भीड़ लगी हुई है। कौए निरंतर काँव-काँव कर रहे हैं। सड़क पर एकत्रित कौओं की तरफ कुछ चुग्गा उसने फेंक दिया है। वे एक दाना उठाते हैं, फिर अपनी बड़ी-सी चोंच खोलकर काँव-काँव करने लगते हैं।

दुकानदार का मुँहलगा एक कौआ दुकान के बाहर लगे खंभे पर लटका हुआ है। उसकी और दुकानदार की केमिस्ट्री भी खूब है। खंभे पर लटककर वह नीचे की ओर मुँह कर दुकानदार को देखता है और कहता है, ‘काँव।’ दुकानदार निशाना साधकर चुग्गा उसकी और उछालता है, कौवा हवा में ही उसे मुँह में लपक लेता है। वर्तमान में जब मनुष्य का प्रकृति के अधिकांश जीवों के साथ संघर्ष का नाता है, ऐसा कोई दृश्य अनन्य ही कहलाएगा।

सत्य तो यह है कि मनुष्य और प्रकृति के अन्य सभी घटक सहजीवी हैं। हमारी कठिनाई यह है कि हमने सहजीवी होने का भाव छोड़ दिया है। ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि का मुकुट दिया है। बुद्धि का मुकुट देने का अर्थ है कि उसे प्रकृति का साम्राज्य दिया है। सम्राट बुद्धिमान हो, शौर्यवान हो, यह तो अपेक्षित है लेकिन साथ ही सम्राट के मन में अपनी प्रजा के लिए करुणा का सागर भी होना चाहिए।

हमारा मत है कि यदि केवल भारत का हर एक नागरिक किसी एक पक्षी या प्राणी का पेट पालने की ज़िम्मेदारी ले ले तो कम से कम डेढ़ सौ करोड़ प्राणियों को तो जीवनदान मिल ही सकेगा। हर कोई यह कर सकता है क्योंकि ग़रीब से ग़रीब को भी एक चिड़िया का पेट भरने जितनी अमीरी तो ईश्वर ने दी ही है।

पक्षियों-प्राणियों को भोजन उपलब्ध कराने की भावना पर अनेक बार प्रश्न उठाया जाता है कि ऐसा करके उनकी भोजन जुटाने की प्राकृतिक क्षमता को नष्ट नहीं करना चाहिए। मनुष्य भी एक समय पैदल ही चला करता था। फिर पशुओं पर सवारी करते हुए हवाई जहाज़ और अंतरिक्ष यान तक आ पहुँचा। आदिमानव संभवत: भोजन संग्रह करना भी न जानता हो। आज के मनुष्य के पास कई सालों के लिए अनाज संग्रहित है। कहने का तात्पर्य है कि परिवर्तन संसार का एकमात्र नियम है जो कभी परिवर्तित नहीं होता। मनुष्य द्वारा प्रकृति के निरंतर दोहन के चलते सहज जीवन से विस्थापित होते सभी घटकों के प्रति मनुष्य का ऋणानुबंध है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह इन घटकों का पोषण करे।

श्रीमद्भागवत कहता है,

खं वायुमग्निं सलिलं महीं च ज्योतींषि सत्त्वानि दिशो द्रुमादीन्।
सरित्समुद्रांश्च हरेः शरीरं यत्किंच भूतं प्रणमेदनन्यः॥

(11/2/41)

अर्थात आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-वनस्पति, नदियाँ, समुद्र आदि जो कुछ भूत सृष्टि है, वह सब हरिरूप है, ईश्वर का विराट स्वरूप है। यह समझकर ( भक्त) प्रेमभाव से इन्हें प्रणाम करते हैं।

श्रावण चल रहा है। एक पौधा लगाएँ, एक प्राणी का पेट भरने का ज़िम्मा उठाएँ। एक समय था, जब हमारे घरों में पहली रोटी गाय के लिए और अंतिम श्वान के लिए बनती थी। हमारे पूर्वजों ने अपने दायित्व का निर्वहन प्रामाणिकता से किया था। उनके कारण हमें हरी-भरी और भरी-पूरी प्रकृति मिली थी। अब हमारी बारी है कि हम आनेवाली पीढ़ी को हरा संसार दें।

© संजय भारद्वाज 

अध्यक्ष– हिंदी आंदोलन परिवार सदस्य– हिंदी अध्ययन मंडल, पुणे विश्वविद्यालय संपादक– हम लोग पूर्व सदस्य– महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी ☆   ट्रस्टी- जाणीव, ए होम फॉर सीनियर सिटिजन्स 

मोबाइल– 9890122603

संजयउवाच@डाटामेल.भारत

[email protected]

☆ आपदां अपहर्तारं ☆

🕉️ महादेव साधना- यह साधना मंगलवार दि. 4 जुलाई आरम्भ होकर रक्षाबंधन तदनुसार बुधवार 30 अगस्त तक चलेगी 🕉️

💥 इस साधना में इस बार इस मंत्र का जप करना है – 🕉️ ॐ नमः शिवाय 🕉️ साथ ही गोस्वामी तुलसीदास रचित रुद्राष्टकम् का पाठ  🕉️💥

अनुरोध है कि आप स्वयं तो यह प्रयास करें ही साथ ही, इच्छुक मित्रों /परिवार के सदस्यों  को भी प्रेरित करने का प्रयास कर सकते हैं। समय समय पर निर्देशित मंत्र की इच्छानुसार आप जितनी भी माला जप  करना चाहें अपनी सुविधानुसार कर सकते हैं ।यह जप /साधना अपने अपने घरों में अपनी सुविधानुसार की जा सकती है।ऐसा कर हम निश्चित ही सम्पूर्ण मानवता के साथ भूमंडल में सकारात्मक ऊर्जा के संचरण में सहभागी होंगे। इस सन्दर्भ में विस्तृत जानकारी के लिए आप श्री संजय भारद्वाज जी से संपर्क कर सकते हैं। 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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