☆ गीत ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २९ (इंद्रसूक्त): ऋचा ५ ते ७ — मराठी भावानुवाद ☆ डाॅ. निशिकांत श्रोत्री ☆
☆
ऋग्वेद – मण्डल १ – सूक्त २९ (इंद्रसूक्त) – ऋचा ५ ते ७
ऋषी – शुनःशेप आजीगर्ति : देवता – इंद्र
ऋग्वेदातील पहिल्या मंडलातील एकोणतिसाव्या सूक्तात शुनःशेप आजीगर्ती या ऋषींनी इंद्र देवतेला आवाहन केलेले असल्याने हे इंद्रसूक्त म्हणून ज्ञात आहे. आज मी आपल्यासाठी इंद्र देवतेला उद्देशून रचलेल्या पाच ते सात या ऋचा आणि त्यांचे मराठी गीत रुपांतर सादर करीत आहे.
मराठी भावानुवाद :
☆
समि॑न्द्र गर्द॒भं मृ॑ण नु॒वन्तं॑ पा॒पया॑मु॒या ।
आ तू न॑ इंद्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥ ५ ॥
कुत्सित बोलत अमुच्याविषयी अभद्र जे भाषा
अशा रासभा निर्दालुनिया जागृत ठेवी आशा
यांच्या संगे असंख्य भोग्य साधने आम्हा द्यावी
जगतामध्ये ऐपत अमुची सर्वश्रेष्ठ व्हावी ||५||
☆
पताति कुण्डृणाच्या दूरं वातः वनात् अधि ।
आ तु नः इंद्र शंसय गोषु अश्वेषु शुभ्रिषु सहस्रेषु तुवीऽमघ ॥ ६ ॥
वावटळीसी कोसो कोसो दूर घेऊनि जाई
काननाचिया पार नेऊनि पतन करोनी टाकी
यांच्या संगे असंख्य भोग्य साधने आम्हा द्यावी
जगतामध्ये ऐपत अमुची सर्वश्रेष्ठ व्हावी ||६||
☆
सर्वं॑ परिक्रो॒शं ज॑हि ज॒म्भया॑ कृकदा॒श्वम् ।
आ तू न॑ इंद्र शंसय॒ गोष्वश्वे॑षु शु॒भ्रिषु॑ स॒हस्रे॑षु तुवीमघ ॥ ७ ॥
समस्त दुःखांचा शोकांचा करुनी परिहार
अमुचा वैरी नाश करी त्याचा करी संहार
यांच्या संगे असंख्य भोग्य साधने आम्हा द्यावी
जगतामध्ये ऐपत अमुची सर्वश्रेष्ठ व्हावी ||७||
☆
(या ऋचांचा व्हिडीओ गीतरुपात युट्युबवर उपलब्ध आहे. या व्हिडीओची लिंक देखील मी शेवटी देत आहे. हा व्हिडीओ ऐकावा, लाईक करावा आणि सर्वदूर प्रसारित करावा. कृपया माझ्या या चॅनलला सबस्क्राईब करावे.)
(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक साहित्य ” में हम श्री विवेक जी की चुनिन्दा रचनाएँ आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी , जबलपुर ) से सेवानिवृत्त हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। आपको वैचारिक व सामाजिक लेखन हेतु अनेक पुरस्कारो से सम्मानित किया जा चुका है।आज प्रस्तुत है एक आलेख – नाद शंख का…।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक सहित्य # 221 ☆
आलेख – नाद शंख का…
हिंदू धर्म और संस्कृति विज्ञान संमत है. हमारी संस्कृति में पूजा, जन्म, विवाह, युद्ध, आदि अवसरों पर शंख नाद किये जाने की परम्परा आज भी बनी हुई है. भारतवर्ष के पूर्व से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण हर घर मंदिर में पूजा स्थल पर शंख मिल जाता है. भारतीय डायस्पोरा के विश्व व्यापक होने एवं अक्षरधाम, इस्कान तथा अन्य वैश्विक समूहों के माध्यम से शंख विश्व व्यापी हो गया है.
दरअसल शंख मूल रूप से एक समुद्री जीव का कवच ढांचा होता है. पौराणिक रूप से शंख की उत्पत्ति समुद्र से मानी जाती है. चूंकि समुद्र मंथन से ही लक्ष्मी जी का प्रादुर्भाव कल्पित है अतः शंख को को लक्ष्मी जी का भाई भी कहा जाता है. बंगाल की देवी पूजा में शंखनाद का विशेष महत्व होता है, वहां महिलायें भी सहज ही दीर्घ शंखनाद करती मिल जाती हैं.
शंख बजाने का स्पष्ट लाभ शारीरिक स्वास्थ्य पर दिखता है. मुंह की मसल्स का सर्वोत्तम व्यायाम हो जाता है जो किसी भी फेशियल से बेहतर है. शंख बजाने से गैस की समस्या (Gastric Problem) दूर होती है. इससे शरीर के श्वसन अंगों की एक्सरसाइज होती है जिससे हृदय रोग की संभावनायें नगण्य हो जाती हैं. शंख की ध्वनि की फ्रीक्वेंसी ऐसी कही गई है जिससे कई कीड़े मकोड़े वह स्थान छोड़ देते हैं जहां नियमित शंख की आवाज की जाती है. शंख के प्रक्षालित जल के पीने से मुंहासे, झाइयां, काले धब्बे दूर होने लगते हैं, हड्डियां मजबूत होती हैं और दांत भी स्वस्थ रहते हैं. संभवतः ऐसा इसलिये होता है क्योंकि इस तरह हमारे शरीर में कैल्शियम का वह प्रकार पहुंचता है जो इस तरह के रोगों के उपचार में प्रयुक्त होता है.
पौराणिक काल से शंख को शौर्य का द्योतक भी माना जाता था. प्रत्येक योद्धा के पास अपना शंख होता था. जैसे योद्धाओ के घोड़ो के नाम सुप्रसिद्ध हैं उसी तरह महाभारत के योद्धाओ के शंखों के नाम भगवत गीता में वर्णित हैं और विश्वप्रसिद्ध हैं. श्रीमद्भगवतगीता के पहले अध्याय में अनेक महारथियों के शंखों का वर्णन है. “पांचजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः। पौण्ड्रं दध्मौ महाशंखं भीमकर्मा वृकोदर।। अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिर। नकुल सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ।। “
भगवान श्रीकृष्ण का प्रसिद्ध शंख पाञ्चजन्य था. जब श्रीकृष्ण और बलराम ने महर्षि सांदीपनि के आश्रम में उज्जैयनी में शिक्षा समाप्त की, तब महर्षि सांदीपनि ने गुरुदक्षिणा के रूप में भगवान कृष्ण से अपने मृत पुत्र को मांगा था. तब गुरु इच्छा की पूर्ति के लिये श्रीकृष्ण ने समुद्र में जाकर शंखासुर नामक असुर का वध किया था. शंखासुर की मृत्यु उपरांत उसका कवच शंख अर्थात खोल शेष रह गया जिसे श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य नाम दिया था.
गंगापुत्र भीष्म का प्रसिद्ध शंख था जो उन्हें उनकी माता गंगा से प्राप्त हुआ था. गंगनाभ का अर्थ होता है ‘गंगा की ध्वनि’. जब भीष्म इस शंख को बजाते थे, तब उसकी भयानक ध्वनि शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न कर देती थी. महाभारत युद्ध का आरंभ पांडवों की ओर से श्रीकृष्ण ने पाञ्चजन्य और कौरवों की ओर से भीष्म ने गंगनाभ को बजा कर ही किया था.
“अनंतविजय” युधिष्ठिर का शंख था जिसकी ध्वनि अनंत तक जाती थी. इस शंख को साक्षी मान कर चारों पांडवों ने दिग्विजय किया और युधिष्ठिर के साम्राज्य को अनंत तक फैलाया. इस शंख को धर्मराज ने युधिष्ठिर को प्रदान किया था.
“हिरण्यगर्भ” सूर्यपुत्र कर्ण का शंख था. ये शंख उन्हें उनके पिता सूर्यदेव से प्राप्त हुआ था. हिरण्यगर्भ का अर्थ सृष्टि का आरंभ होता है और इसका एक संदर्भ ज्येष्ठ के रूप में भी है. कर्ण भी कुंती के ज्येष्ठ पुत्र थे.
“विदारक” दुर्योधन का शंख था. विदारक का अर्थ होता है विदीर्ण करने वाला या अत्यंत दुःख पहुंचाने वाला. इस शंख को दुर्योधन ने गांधार की सीमा से प्राप्त किया था.
भीम का प्रसिद्ध शंख “पौंड्र” था. इसका आकार बहुत विशाल था और इसे बजाना तो दूर, भीमसेन के अतिरिक्त कोई अन्य इसे उठा भी नहीं सकता था. इसकी ध्वनि इतनी भीषण थी कि उसके कम्पन्न से मनुष्यों की तो क्या बात है, अश्व और यहां तक कि गजों का भी मल-मूत्र निकल जाया करता था. ये शंख भीम को नागलोक से प्राप्त हुआ था.
अर्जुन का प्रसिद्ध शंख “देवदत्त ” था जो पाञ्चजन्य के समान ही शक्तिशाली था. इस शंख को स्वयं वरुणदेव ने अर्जुन को वरदान स्वरूप दिया था. जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पाञ्चजन्य और देवदत्त एक साथ बजते थे तो दुश्मन पलायन करने लगते थे.
“सुघोष” माद्रीपुत्र नकुल का शंख था. अपने नाम के अनुरूप ही ये शंख किसी भी नकारात्मक शक्ति का नाश कर देता था.
“मणिपुष्पक” सहदेव का शंख था. ये शंख मणि, मणिकों से ज्यादा दुर्लभ था. वर्णन है कि नकुल और सहदेव को उनके शंख अश्विनीकुमारों से प्राप्त हुए थे.
“यञघोष” द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न का शंख था जो उसी के साथ अग्नि से उत्पन्न हुआ था और तेज में अग्नि के समान ही था. इसी शंख के उद्घोष के साथ वे पांडव सेना की व्यूह रचना और सञ्चालन करते थे.
आज भी किसी महति कार्य के शुभारम्भ को शंखनाद लिखा जाता है. उदाहरण के लिये चुनाव प्रचार का शंखनाद, अर्थात शंखनाद हमारी संस्कृति में रचा बसा हुआ है.
(वरिष्ठ साहित्यकार श्री प्रदीप शर्मा जी द्वारा हमारे प्रबुद्ध पाठकों के लिए साप्ताहिक स्तम्भ “अभी अभी” के लिए आभार।आप प्रतिदिन इस स्तम्भ के अंतर्गत श्री प्रदीप शर्मा जी के चर्चित आलेख पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है आपका आलेख – “नाम की महिमा”।)
अभी अभी # 104 ⇒ नाम की महिमा… श्री प्रदीप शर्मा
संज्ञा हो या सर्वनाम, हमारा नाम के बिना काम नहीं चलता। नाम में ही ईश्वर का वास है, नाम में ही भगवान भी हैं और नारायण भी, फिर भी हमें हमारे मनमंदिर के राम के दर्शन नहीं होते।
बचपन से ही मैं राम के करीब भी रहा हूं, और ईश्वर के करीब भी! नारायण तो मेरा पक्का दोस्त था, कल के भगवान को हम आज भगवान भाई कहकर पुकारते हैं, बड़े अच्छे मिलनसार व्यक्ति हैं। ।
अपने इष्ट और आराध्य को हम जिस भी नाम से स्मरण करते हैं, पुकारते हैं और भजते हैं, वे सभी तो सूक्ष्म रूप में हमारे आसपास मौजूद हैं, लेकिन इस नश्वर जीव पर माया का ऐसा पर्दा पड़ा है, कि वह सिर्फ नाम में ही नहीं, रूप और स्वरूप में भी उलझा है। मंदिर में विराजमान मर्यादा पुरुषोत्तम राम अलग है और मेरा मित्र राम अलग। दोनों की आपस में कोई तुलना नहीं हो सकती।
ईश्वर, परमेश्वर, भगवान अथवा अपने इष्ट को हम जानते, पहचानते और मानते हैं, उनकी जप, पूजा, आराधना, प्रार्थना और सेवा सुश्रुषा करने में जो भक्ति भाव और परमानंद की अनुभूति होती है, वह किसी परिचित गिरीश और जगदीश से मिलने अथवा स्मरण मात्र से संभव नहीं। कहां राजा भोज …. ?
आदर्श अलग होता है और वास्तविकता और हकीकत उससे बहुत अलग होती है। गरीबों, दीन हीन की सेवा ही ईश्वर की सेवा है, माता पिता के चरणों में स्वर्ग है और गौ माता की तो बस पूछिए ही मत। फिर भी मंदिर मंदिर है और गुरुद्वारा गुरुद्वारा। अयोध्या के राम ही वास्तविक राम हैं और मथुरा द्वारका के कृष्ण ही तो कृष्ण कन्हैया हैं।
क्या सिर्फ नाम लेने, स्मरण करने अथवा अपने इष्ट को भजने से ही जीव का कल्याण हो सकता है। कहने को तो कहा भी गया है, कलियुग नाम आधारा! और शायद इसीलिए किसी अपने मित्र नारायण को पुकारते पुकारते आपको भी साक्षात नारायण के दर्शन हो जाएं। ।
हमारे आसपास कितने स्त्री पुरुष के ऐसे नाम मंडरा रहे हैं, जिनके नाम मात्र से ही किसी देवी देवता का स्मरण हो आता है। सीता, सावित्री,
सरस्वती, मंगला, गायत्री और लक्ष्मी जैसे नाम पहले रखे ही जाते थे, आज भी रखे जाते हैं, बस उनकी दशा मत पूछिए, क्योंकि आज सरस्वती काम पर नहीं आने वाली, बेचारी बीमार है।
यह इंसान बहुत चतुर और चालाक है। वह एक तीर से दो शिकार करना चाहता है, रमेश, दिनेश, सुरेश, महेश, अविनाश, अरविंद और कई शैलेष उसके परिचित स्नेही, मित्र, रिश्तेदार और करीबी हैं, आम के आम और गुठलियों के दाम, यानी उनके नाम के बहाने अपने इष्ट का भी नाम लेने में आ जाएगा और पहचान के लिए उनके नाम के आगे वर्मा, सक्सेना, अवस्थी और श्रीवास्तव सुशोभित हो जाएगा। ।
नाम से ही हमारी पहचान है, प्रसिद्धि है। एक राम नाम ही तो हमारे सभी बिगाड़े काम बनाता है।
कहीं खाटू श्याम तो कहीं सांवरिया सेठ, किसी के महाकाल तो किसी के ओंकार। पुणे में अगर दगड़ू सेठ के गणपति की महिमा है तो पूरे महाराष्ट्र में अष्ट विनायक विराजमान हैं। एक और मेरा परम मित्र गणेश मुझे नैनीताल बुला रहा है, तो दूसरी ओर अभिन्न हृदय नारायण जी का प्रयाग राज का आग्रहपूर्ण आमंत्रण लंबित है।
नाम में ही रस और रूप है। महाराष्ट्र के संत गोंदवलेकर महाराज ने नाम के माहात्म्य पर एक पुस्तक लिखी है, प्रवचन पारिजात, जिसमें नाम की महिमा पर उनके ३६५ प्रवचन संकलित हैं। १ जनवरी से ३१ जनवरी तक। रोज एक पृष्ठ पढ़िए, नाम में खो जाइए। राम तेरे कितने नाम। ।
(ई-अभिव्यक्ति में संस्कारधानी की सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्रीमती छाया सक्सेना ‘प्रभु’ जीद्वारा “व्यंग्य से सीखें और सिखाएं” शीर्षक से साप्ताहिक स्तम्भ प्रारम्भ करने के लिए हार्दिक आभार। आप अविचल प्रभा मासिक ई पत्रिका की प्रधान सम्पादक हैं। कई साहित्यिक संस्थाओं के महत्वपूर्ण पदों पर सुशोभित हैं तथा कई पुरस्कारों/अलंकरणों से पुरस्कृत/अलंकृत हैं। आपके साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं में आज प्रस्तुत है एक विचारणीय रचना “संस्कार के बहाने नामकरण…”। इस सार्थक रचना के लिए श्रीमती छाया सक्सेना जी की लेखनी को सादर नमन। आप प्रत्येक गुरुवार को श्रीमती छाया सक्सेना जी की रचना को आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – व्यंग्य से सीखें और सिखाएं # 159 ☆
☆ संस्कार के बहाने नामकरण… ☆
टालामटोली करते हुए; आखिरी दिनों तक; अपने साथियों संग वार्तालाप के लिए समय न निकाल सके ऐसे हैं, कीमती लाल जी। हर चीजों का मोल-भाव करते हुए वे अधूरे मन से उदास होकर कोई निर्णय नहीं ले पाते हैं। कभी किसी को तो कभी किसी को अपना गुरु मानकर जीवन चला रहे हैं। कहते हैं, भीड़तंत्र के आगे जनतंत्र भी कोई मंत्र सिद्ध नहीं कर सकता है। स्वार्थ सिद्धि हेतु जुड़ने का दिखावा करना एक बात है और वास्तव में जुड़े रहना दूसरी बात है,बातों क्या ? ये तो बतंगड़ पर निर्भर है। कान के कच्चे और हृदय के सच्चे आसानी से बहकावे में आ जाते हैं। रेल के डिब्बों की तरह इंजन के पीछे चलते जाइये। जहाँ स्टेशन आएगा वहाँ रूकिए, नाश्ता- पानी लेकर आगे बढ़ निकलिए।
ऐसी विचारधारा के साथ चलते रहने के कारण उनकी कीमत अब होने लगी है। किसी भी कार्य की शुरूआत भले ही उनके कर कमलों से होती हो किन्तु बाद में उन्हें कोई नहीं पूछता। अवसरवादी के रूप में वे कब पलट जाएँ इसको वो स्वयं नहीं बता सकते हैं। जंग लगे लोहे की भाँति उनको दरकिनार करते हुए पीतल, ब्रॉन्ज, स्टेनलेस स्टील, ताँवा, सिल्वर सभी एकजुटता का पहाड़ा पढ़ते जा रहे हैं। कितने लोग परीक्षा तक इसे याद कर सकेंगे ये तो वक्त बताएगा। असली सोने की चमक के आगे सभी धातुएँ फीकी लगतीं हैं। 24 कैरेट गोल्ड, वो भी हॉलमार्क के साथ, भला कोई अन्य को क्यों पूछेगा ?
फैशन के मारे ही ब्लैक, रफ, आभूषण पहनने की इच्छा लोगों द्वारा होती रही है किंतु जब सहेजने की बात आती है तो लॉकर की शोभा खरा सोना ही बढ़ाता है। जरूरत के समय इसका प्रयोग करें, समय के साथ मूल्यवान होना इसका विशेष गुण होता है।
हम भले ही नए- नए नामों से अपनी पहचान बनाने की कोशिशें करते रहें किन्तु जब तक गुणों का विकास नहीं करते तब तक पिछड़ते जाएंगे। नाम को सार्थक करने हेतु काम भी करना पड़ता है? आज कुछ कल कुछ ,ऐसे तो विलुप्त प्राणी बनकर अपनी रही सही पहचान खोकर डायनासोरों की भांति चित्रों में शोभायमान होना पड़ेगा।
मुखिया मुख सो चाहिए , खान पान सो एक।
पाले पोसे सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।।
तुलसीदास जी के इस दोहे याद करते हुए मुखिया का चयन कीजिए।
विवेक पूर्ण व्यक्तित्व के मालिक को, सलाहकार बनाते हुए अनुकरण करें, केवल नामकरण करते रहने से, कार्य सिद्ध होते तो रावण ने भी अपना नाम राम रख लिया होता।
(सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश” जीका हिन्दी बाल -साहित्य एवं हिन्दी साहित्य की अन्य विधाओं में विशिष्ट योगदान हैं। साप्ताहिक स्तम्भ “श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य” के अंतर्गत उनकी मानवीय दृष्टिकोण से परिपूर्ण लघुकथाएं आप प्रत्येक गुरुवार को पढ़ सकते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय लघुकथा –“कलम के सिपाही”)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – श्री ओमप्रकाश जी का साहित्य # 145 ☆
☆ लघुकथा – “कलम के सिपाही” ☆ श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ ☆
“यह पुरस्कार जाता है देश की बॉर्डर पर देश के दुश्मन आतंकवादियों से लड़ कर अपने साथियों की जान बचाने वाले देश के बहादुर सिपाही महेंद्र सिंह को.”
“इसी के साथ यह दूसरा पुरस्कार दिया जाता है देश के अन्दर दबे-छुपे भ्रष्टाचार, बुराई और काले कारनामों को उजगार कर देश की रक्षा करने वाले कर्मवीर पत्रकार अरुण सिंह को.”
यह सुनते ही अपना पुरस्कार लेने आए देश के सिपाही महेंद्र सिंह ने एक जोरदार सेल्यूट जड़ दिया. मानो कह रहा हो कि जंग कहीं भो हो लड़ते तो सिपाही ही है.
(हिंदी साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी की अब तक 131मौलिक पुस्तकें (बाल साहित्य व प्रौढ़ साहित्य) तथा लगभग तीन दर्जन साझा – संग्रह प्रकाशित तथा कई पुस्तकें प्रकाशनाधीन। जिनमें 7 दर्जन के आसपास बाल साहित्य की पुस्तकें हैं। कई कृतियां पंजाबी, उड़िया, तेलुगु, अंग्रेजी आदि भाषाओँ में अनूदित । कई सम्मान/पुरस्कारों से सम्मानित/अलंकृत। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय द्वारा बाल साहित्य के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य श्री सम्मान’ और उत्तर प्रदेश सरकार के हिंदी संस्थान द्वारा बाल साहित्य की दीर्घकालीन सेवाओं के लिए दिए जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘बाल साहित्य भारती’ सम्मान, अमृत लाल नागर सम्मान, बाबू श्याम सुंदर दास सम्मान तथा उत्तर प्रदेश राज्य कर्मचारी संस्थान के सर्वोच्च सम्मान सुमित्रानंदन पंत, उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान सहित पाँच दर्जन से अधिक प्रतिष्ठित साहित्यिक एवं गैर साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित एवं पुरुस्कृत। आदरणीय डॉ राकेश चक्र जी के बारे में विस्तृत जानकारी के लिए कृपया इस लिंक पर क्लिक करें संक्षिप्त परिचय – डॉ. राकेश ‘चक्र’ जी।
आप “साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र” के माध्यम से उनका साहित्य आत्मसात कर सकेंगे।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – समय चक्र – # 169 ☆
☆ बाल कविता – परी, चाँद की सुखद कहानी☆ डॉ राकेश ‘चक्र’☆